पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, January 12, 2010



इष्टसिद्धि पुस्तक से - Isht-Sidhi pustak se

मंत्र ऐसा साधन है कि हमारे भीतर सोयी हुई चेतना को वह जगा देता है, हमारी महानता को प्रकट कर देता है, हमारी सुषुप्त शक्तियों को विकसित कर देता है।
सदगुरु से प्राप्त मंत्र का ठीक प्रकार से, विधि एवं अर्थसहित, प्रेमपूर्ण हृदय से जप किया जाय तो क्या नहीं हो सकता? जैसे टेलिफोन के डायल पर नम्बर ठीक से घुमाया जाय तो विश्व के किसी भी देश के कोने में स्थित व्यक्ति से बातचीत हो सकती है वैसे ही मंत्र का ठीक से जप करने से सिद्धि मिल सकती है। जब टेलिफोन के इतने छोटे-से डायल का ठीक से उपयोग करके हम विश्व के किसी भी देश के कोने में स्थित व्यक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ सकते हैं तो भीतर के डायल का ठीक से उपयोग करके विश्वेश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लें इसमें क्या आश्चर्य है? विश्व का टेलिफोन तो कभी ‘एन्गेज’ मिलता है लेकिन विश्वेश्वर का टेलिफोन कभी ‘एन्गेज’ नहीं होता। वह सर्वत्र और सदा तत्पर है। हाँ... नम्बर घुमाने में जरा-सा हेर-फेर किया तो राँग नम्बर लगेगा। घण्टी बजानी है कहाँ और बजती है कहीं और । इस प्रकार मंत्र में भी थोड़ा सा हेर-फेर कर दें, मनमानी चला दें तो परिणाम ठीक से नहीं मिलेगा।
आज कल धर्म का प्रचार इतना होते हुए भी मानव के जीवन में देखा जाय तो वह तसल्ली नहीं, वह संगीत नहीं, वह आनन्द नहीं जो होना चाहिए। क्या कारण है ? विश्वेश्वर से संपर्क करने के लिए ठीक से नम्बर जोड़ना नहीं आता। मंत्र का अर्थ नहीं समझते, अनुष्ठान की विधि नहीं जानते या जानते हुए भी लापरवाही करते हैं तो मंत्र सिद्ध नहीं होता।
मंत्र जपने कि विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्रानुष्ठान की विधि हम जान लें तो हमारी योग्यता खिल उठती है। हम विश्वेश्वर के साथ एक हो सकते हैं। अरे ! 'हम स्वयं विश्वेश्वर हैं....' ऐसा साक्षात्कार कर सकते हैं।

घर में जप करने से जो फल होता है उससे दसगुना फल गौशाला में जप करने से होता है। हाँ, उस गौशाला में गायों के साथ बैल नहीं होना चाहिए। यदि वहाँ बैल होगा तो उनमें एक-दूसरे के चुम्बकत्व से 'वायब्रेशन' गन्दे होते हैं।
जंगल में जप करने से घर की अपेक्षा सौ गुना फल होता है। तालाब या सरोवर के किनारे हजारगुना फल होता है, नदी या सागर के तीर, पर्वत या शिवालय में लाखगुना फल होता है। जहाँ ज्ञान का सागर लहराया हो, ज्ञान की चर्चा हुई हो, जहाँ पहले कोई ज्ञानी हो गये हों ऐसे कोई तीर्थ में अनुष्ठान करना इन सबसे श्रेष्ठ है। यदि सदगुरु के पावन सान्निध्य में, जीवित ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के मार्गदर्शन में अनुष्ठान करने का सौभाग्य मिल जाय तो अनन्तगुना फल होता है।
प्रतिदिन नियमपूर्वक एकान्त में बैठकर मन से सम्पूर्ण संसार को भूल जाओ। इस प्रकार संसार को भुला देने से केवल एक चैतन्य आत्मा शेष रह जायेगा। तब उस चैतन्यस्वरूप का ध्यान करो। ध्यान करने से समाधि सिद्ध होगी और मुक्ति मिलेगी।
जो आदमी यम-नियम से चलता है उसकी वासनाएँ शुद्ध होती हैं। गलत कर्म रुक जाते हैं। धर्म से वासनाएँ शुद्ध होती हैं। उपासना से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं और ज्ञान से वासनाएँ बाधित होती हैं।

इष्ट मजबूत हो तो हमारा अनिष्ट नहीं होता। आत्मभाव मजबूत हो, 'सुदर्शन' ठीक हो तो कुदर्शन हम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। आत्मनिष्ठा मजबूत हो गई तो कोई देहधारी हमें परेशान नहीं कर सकता।
आनन्द परमात्मा का स्वरूप है। चारों तरफ बाहर-भीतर आनन्द-ही-आनन्द भरा हुआ है। सारे संसार में आनन्द छाया हुआ है। यदि ऐसा दिखलाई न दे तो वाणी से केवल कहते रहो और मन से मानते रहो। जल में गोता खा जाने, डूब जाने के समान निरन्तर आनन्द ही में डूबे रहो, आनन्द में गोता लगाते रहो। रात-दिन आनन्द में मग्न रहो। किसी की मृत्यु हो जाये, घर में आग लग जाय अथवा और भी कोई अनिष्ट कार्य हो जाये, तो भी आनन्द-ही-आनन्द... केवल आनन्द-ही-आनन्द...

शरीर का लालन-पालन थोड़ा कम करेंगे तो क्या हो जायेगा ? शरीर की सँभाल नहीं लेंगे तो क्या वग दो दिनों में गिर जायेगा? नहीं। ईश्वर में मस्त रहोगे तो शरीर के खान-पान प्रारब्ध वेग से चलते रहेंगे। ईश्वर को छोड़कर शरीर के पीछे अधिक समय व शक्ति लगाओ नहीं। 'यह शरीर ईश्वर का संदेश देने के लिए प्रकट हुआ है। जब तक यह कार्य पूरा नहीं होगा तब तक वह गिरेगा नहीं.....' ऐसा समझकर साधना, ध्यान भजन में लग जाओ। शरीर की चिन्ता छोड़ दो। मरने वाले तो पलंग पर भी मर जाते हैं और बचने वाले भयानक दुर्घटनाओं में भी बच जाते हैं।

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