पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, May 31, 2010



जीवन रसायन पुस्तक से - Jeevan Rasayan pustak se

श्री राम-वशिष्ठ संवाद - Shri Raam-Vashishth Samvaad

श्री वशिष्ठ जी कहते हैं :
“हे रघुकुलभूषण श्री राम! अनर्थ स्वरूप जितने सांसारिक पदार्थ हैं वे सब जल में तरंग के समान विविध रूप धारण करके चमत्कार उत्पन्न करते हैं अर्थात ईच्छाएँ उत्पन्न करके जीव को मोह में फँसाते हैं | परंतु जैसे सभी तरंगें जल स्वरूप ही हैं उसी प्रकार सभी पदार्थ वस्तुतः नश्वर स्वभाव वाले हैं |
बालक की कल्पना से आकाश में यक्ष और पिशाच दिखने लगते हैं परन्तु बुद्धिमान मनुष्य के लिए उन यक्षों और पिशाचों का कोई अर्थ नहीं | इसी प्रकार अज्ञानी के चित्त में यह जगत सत्य हो ऐसा लगता है जबकि हमारे जैसे ज्ञानियों के लिये यह जगत कुछ भी नहीं |
यह समग्र विश्व पत्थर पर बनी हुई पुतलियों की सेना की तरह रूपालोक तथा अंतर-बाह्य विषयों से शून्य है | इसमें सत्यता कैसी ? परन्तु अज्ञानियों को यह विश्व सत्य लगता है |”
वशिष्ठ जी बोले : “श्री राम ! जगत को सत्य स्वरूप में जानना यह भ्रांति है, मूढ़ता है | उसे मिथ्या अर्थात कल्पित समझना यही उचित समझ है |
हे राघव ! त्वत्ता, अहंता आदि सब विभ्रम-विलास शांत, शिवस्वरूप, शुद्ध ब्रह्मस्वरूप ही हैं | इसलिये मुझे तो ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखता | आकाश में जैसे जंगल नहीं वैसे ही ब्रह्म में जगत नहीं है |
हे राम ! प्रारब्ध वश प्राप्त कर्मों से जिस पुरुष की चेष्टा कठपुतली की तरह ईच्छाशून्य और व्याकुलतारहित होती हैं वह शान्त मनवाला पुरुष जीवन्मुक्त मुनि है | ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी को इस जगत का जीवन बांसकी तरह बाहर-भीतर से शून्य, रसहीन और वासना-रहित लगता है |
इस दृश्य प्रपंच में जिसे रुचि नहीं, हृदय में चिन्मात्र अदृश्य ब्रह्म ही अच्छा लगता है ऐसे पुरुष ने भीतर तथा बाहर शान्ति प्राप्त कर ली है और इस भवसागर से पार हो गया है |
रघुनंदन ! शस्त्रवेत्ता कहते हैं कि मन का ईच्छारहित होना यही समाधि है क्योंकि ईच्छाओं का त्याग करने से मन को जैसी शान्ति मिलती है ऐसी शान्ति सैकड़ों उपदेशों से भी नहीं मिलती | ईच्छा की उत्पत्ति सेजैसा दुःख प्राप्त होता है ऐसा दुःख तो नरक में भी नहीं | ईच्छाओं की शान्ति से जैसा सुख होता है ऐसा सुख स्वर्ग तो क्या ब्रह्मलोक में भी नहीं होता |
अतः समस्त शास्त्र, तपस्या, यम और नियमों का निचोड़ यही है कि ईच्छामात्र दुःखदायी है और ईच्छा का शमन मोक्ष है |
प्राणी के हृदय में जैसी-जैसी और जितनी-जितनी ईच्छायें उत्पन्न होती हैं उतना ही दुखों से वह ड़रता रहता है | विवेक-विचार द्वारा ईच्छायें जैसे-जैसे शान्त होती जाती हैं वैसे-वैसे दुखरूपी छूत की बीमारी मिटतीजाती है |
आसक्ति के कारण सांसारिक विषयों की ईच्छायें ज्यों-ज्यों गहनीभूत होती जाती हैं, त्यों-त्यों दुःखों की विषैली तरंगें बढ़ती जाती हैं | अपने पुरुषार्थ के बल से इस ईच्छारूपी व्याधि का उपचार यदि नहीं किया जायेतो इस व्याधि से छूटने के लिये अन्य कोई औषधि नहीं हैं ऐसा मैं दृढ़तापूर्वक मानता हूँ |
एक साथ सभी ईच्छाओं का सम्पूर्ण त्याग ना हो सके तो थोड़ी-थोड़ी ईच्छाओं का धीरे-धीरे त्याग करना चाहिये परंतु रहना चाहिये ईच्छा के त्याग में रत, क्योंकि सन्मार्ग का पथिक दुखी नहीं होता |
जो नराधम अपनी वासना और अहंकार को क्षीण करने का प्रयत्न नहीं करता वह दिनों-दिन अपने को रावण की तरह अंधेरे कुँऐं में ढ़केल रहा है |
ईच्छा ही दुखों की जन्मदात्री, इस संसाररूपी बेल का बीज है | यदि इस बीज को आत्मज्ञानरूपी अग्नि से ठीक-ठीक जला दिया तो पुनः यह अंकुरित नहीं होता |
रघुकुलभुषण राम ! ईच्छामात्र संसार है और ईच्छाओं का अभाव ही निर्वाण है | अतः अनेक प्रकार की माथापच्ची में ना पड़कर केवल ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि ईच्छा उत्पन्न ना हो |
अपनी बुद्धि से ईच्छा का विनाश करने को जो तत्पर नहीं, ऐसे अभागे को शास्त्र और गुरु का उपदेश भी क्या करेगा ?
जैसे अपनी जन्मभूमी जंगल में हिरणी की मृत्यु निश्चित है उसी प्रकार अनेकविध दुखों का विस्तार कारनेवाले ईच्छारूपी विषय-विकार से युक्त इस जगत में मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है |
यदि मानव ईच्छाओं के कारण बच्चों-सा मूढ़ ना बने तो उसे आत्मज्ञान के लिये अल्प प्रयत्न ही करना पड़े | इसलिये सभी प्रकार से ईच्छाओं को शान्त करना चाहिये |
ईच्छा के शमन से परम पद की प्राप्ति होती है | ईच्छारहित हो जाना यही निर्वाण है और ईच्छायुक्त होना ही बंधन है | अतः यथाशक्ति ईच्छा को जीतना चाहिये | भला इतना करने में क्या कठिनाई है ?
जन्म, जरा, व्याधि और मृत्युरूपी कंटीली झाड़ियों और खैर के वृक्ष - समूहों की जड़ भी ईच्छा ही है | अतः शमरूपी अग्नि से अंदर-ही-अंदर बीज को जला ड़ालना चाहिये| जहाँ ईच्छाओं का अभाव है वहाँ मुक्तिनिश्चित है |
विवेक वैराग्य आदि साधनों से ईच्छा का सर्वथा विनाश करना चाहिये | ईच्छा का संबंध जहाँ-जहाँ है वहाँ-वहाँ पाप, पुण्य, दुखराशियाँ और लम्बी पीड़ाओं से युक्त बंधन को हाज़िर ही समझो | पुरुष की आंतरिकईच्छा ज्यों-ज्यों शान्त होती जाती है, त्यों-त्यों मोक्ष के लिये उसका कल्याणकारक साधन बढ़ता जाता है | विवेकहीन ईच्छा को पोसना, उसे पूर्ण करना यह तो संसाररूपी विष वृक्ष को पानी से सींचने के समान है |”
- श्रीयोगवशिष्ट महारामायण

आत्मबल का आवाहन

क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?
…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ | शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं | स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं | तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो |
जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ | सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो |
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके | अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके |
भौतिक जगत में वाष्प की शक्ति, ईलेक्ट्रोनिक शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है लेकिन आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है |
आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर मिल जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्तिथियाँ अनुकूल हो जाती हैं | आत्मबल सर्व रिद्धि-सिद्धियों का पिता है |

आत्मबल कैसे जगायें ?

हररोज़ प्रतःकाल जल्दी उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृत हो जाओ | स्वच्छ पवित्र स्थान में आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाओ | शान्त और प्रसन्न वृत्ति धारण करो |
मन में दृढ भावना करो कि में प्रकृति-निर्मित इस शरीर के सब अभावों को पार करके, सब मलिनताओं-दुर्बलताओं से पिण्ड़ छुड़ाकर आत्मा की महिमा में जागकर ही रहूँगा |
आँखें आधी खुली आधी बंद रखो | अब फ़ेफ़ड़ों में खूब श्वास भरो और भावना करो की श्वास के साथ में सूर्य का दिव्य ओज भीतर भर रहा हूँ | श्वास को यथाशक्ति अन्दर टिकाये रखो | फ़िर ‘ॐ…’ का लम्बाउच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते जाओ | श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास ना लो | यथाशक्ति बिना श्वास रहो और भीतर ही भीतर ‘हरि: ॐ…’ ‘हरि: ॐ…’ का मानसिक जाप करो | फ़िर सेफ़ेफ़ड़ों में श्वास भरो | पूर्वोक्त रीति से श्वास यथाशक्ति अन्दर टिकाकर बाद में धीरे-धीरे छोड़ते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन करो |
दस-पंद्रह मिनट ऐसे प्राणायाम सहित उच्च स्वर से ‘ॐ…’ की ध्वनि करके शान्त हो जाओ | सब प्रयास छोड़ दो | वृत्तियों को आकाश की ओर फ़ैलने दो |
आकाश के अन्दर पृथ्वी है | पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं | उनमें से एक आपका शरीर आसन पर बैठा हुआ है | इस पूरे दृश्य को आप मानसिक आँख से, भावना से देखते रहो |
आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो | इस साक्षी भाव में जाग जाओ |
थोड़ी देर के बाद फ़िर से प्राणायाम सहित ‘ॐ…’ का जाप करो और शान्त होकर अपने विचारों को देखते रहो |
इस अवस्था में दृढ़ निश्चय करो कि : ‘मैं जैसा चहता हूँ वैसा होकर रहूँगा |’ विषयसुख, सत्ता, धन-दौलत इत्यादि की इच्छा न करो क्योंकि निश्चयबल या आत्मबलरूपी हाथी के पदचिह्न में और सभी के पदचिह्नसमाविष्ठ हो ही जायेंगे |
आत्मानंदरूपी सूर्य के उदय होने के बाद मिट्टी के तेल के दीये के प्राकाश रूपी शूद्र सुखाभास की गुलामी कौन करे ?
किसी भी भावना को साकार करने के लिये हृदय को कुरेद ड़ाले ऐसी निश्चयात्मक बलिष्ट वृत्ति होनी आवशयक है | अन्तःकरण के गहरे-से-गहरे प्रदेश में चोट करे ऐसा प्राण भरके निश्चय्बल का आवाहन करो |सीना तानकर खड़े हो जाओ अपने मन की दीन-हीन दुखद मान्यताओं को कुचल ड़ालने के लिये |
सदा स्मरण रहे की इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है | अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं | तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधनाकाल में आत्मचिन्तन में लगाओ औरव्यवहारकाल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ |
दत्तचित्त होकर हरेक कार्य करो | अपने स्वभाव में से आवेश को सर्वथा निर्मूल कर दो | आवेश में आकर कोई निर्णय मत लो, कोई क्रिया मत करो | सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करो | विचारशील एवंप्रसन्न रहो | स्वयं अचल रहकर सागर की तरह सब वृत्तियों की तरंगों को अपने भीतर समालो | जीवमात्र को अपना स्वरूप समझो | सबसे स्नेह रखो | दिल को व्यापक रखो | संकुचित्तता का निवारण करते रहो |खण्ड़ातमक वृत्ति का सर्वथा त्याग करो |
जिनको ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का सत्संग और अध्यात्मविद्या का लाभ मिल जाता है उसके जीवन से दुःख विदा होने लगते हैं | ॐ आनन्द !
आत्मनिष्ठा में जागे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य से जीवन को भक्ति और वेदांत से पुष्ट एवं पुलकित करो | कुछ ही दिनों के इस सघन प्रयोग के बाद अनुभव होने लगेगा कि भूतकाल के नकारत्मकस्वभाव, संशयात्मक-हानिकारक कल्पनाओं ने जीवन को कुचल ड़ाला था, विषैला कर दिया था | अब निश्चयबल के चमत्कार का पता चला | अंतर्तम में आविरभूत दिव्य खज़ाना अब मिला | प्रारब्ध की बेड़ियाँअब टूटने लगी |
ठीक हैं न ? करोगे ना हिम्मत ? पढ़कर रख मत देना इस पुस्तिका को | जीवन में इसको बार-बार पढ़ते रहो | एक दिन में यह पूर्ण ना होगा | बार-बार अभ्यास करो | तुम्हारे लिये यह एक ही पुस्तिका काफ़ी है |अन्य कचरापट्टी ना पड़ोगे तो चलेगा | शाबाश वीर! शाबाश !!

Wednesday, May 19, 2010

युवा सेवा संघ मार्गदर्शिका पुस्तक से - Yuva Sewa Sangh Margdarshika pustak se

एक परिचय... - Ek Parichay...
मनुष्य जीवन की वास्तविक माँग है सुख और इस सुख को पाने के लिए आज बुद्धिजीवियों ने कितने ही वैज्ञानिक आविष्कार कर दिये परंतु इन आविष्कारों से हम साधन-सुविधाओं के गुलाम बनते गये। हर तरफ इन सुविधाओं को पाने की होड़ लगी हुई है। इन्हें पाने की चिंता में ही जीवन तनावग्रस्त हो गया है। हो भी क्यों नहीं ? क्योंकि कभी न मिटने वाले शाश्वत सुख का खजाना तो ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग व उनकी सेवा से ही मिलता है। वर्तमान में ऐसे सदभागी कम नहीं हैं जो ऐसे महापुरुषों को पहचान कर उनसे लाभान्वित होते हैं।
पूज्य बापू जी के सत्संग से, मंत्रदीक्षा से एवं उनके दैवी कार्यों में जुड़ने से करोड़ों लोग अपने जीवन में सुख, शांति व धन्यता का अनुभव कर रहे हैं। देश-विदेश के अनगनित युवा पूज्यश्री की प्रेरणा व मार्गदर्शन से अपना जीवन तेजस्वी बना रहे हैं। चाहे शैक्षणिक क्षेत्र हो, चाहे वैज्ञानिक, चाहे संगीत का क्षेत्र हो, चाहे आध्यात्मिक या फिर व्यावहारिक जगत ही क्यों न हो, हर क्षेत्र में पूज्य श्री से जुड़ा युवावर्ग सदाचार, सहिष्णुता एवं दृढ़ आत्मविश्वास के साथ प्रगतिपथ पर आगे बढ़ रहा है।
देश विदेश के अधिकतम युवाओं को पूज्य बापू जी के दिव्य आध्यात्मिक मार्गदर्शन का लाभ दिलाने हेतु तथा आत्मोन्नति के साथ-साथ समाजसेवा का दोहरा लाभ दिलाने हेतु 'युवा सेवा संघ' सतत कार्यशील रहेगा। आज के युवाओं के लिए वह युवा संघ वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा दूरदर्शिता से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति को समझने तथा उसके अनुसार जीवन को उन्नत बनाने की कला सीखने का माध्यम बनेगा। साथ ही युवानों के जीवन में यह एक सच्चे हितैषी मित्र एवं उत्तम मार्गदर्शक की भूमिका अदा करेगा।
इसका कार्यक्षेत्र तीन स्तरों में रहेगाः
प्रथम स्तरः केन्द्रीय युवा संघ (मुख्यालय)
द्वितीय स्तरः राज्यप्रमुख युवा संघ
तृतीय स्तरः क्षेत्रीय युवा संघ
उद्देश्य.....
युवाओं के जीवन में एक सच्चे हितैषी एवं उत्तम मार्गदर्शक मित्र की भूमिका निभाना।
संयम, सदाचार, चारित्र्यसम्पन्नता, परोपकार, निर्भयता, आत्मविश्वास आदि दैवी गुणों का युवाओं में विकास करना।
युवाओं को आश्रम द्वारा संचालित विभिन्न सेवाकार्यों में जोड़कर राष्ट्रोन्नति के कार्य में सक्रिय योगदान देना।
युवाओं को परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार, कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाना।
भारतीय संस्कृति के सिद्धान्तों का अध्ययन करने के बाद उनकी वैज्ञानिकता व तर्कसम्मतता को देखकर आधुनिक वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हो रहे हैं। ऐसी महामयी भारतीय संस्कृति को समझने-समझाने में तथा उसके प्रचार-प्रसार में सहयोगी बनना।
'युवा सेवा संघ' के माध्यम से निष्काम सेवा करते हुए मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति की ओर अग्रसर होना।
विशेषताएँ....
पूज्यबापू जी से मंत्रदीक्षित युवाओं द्वारा युवा संघ का संचालन।
जीवन की कठिनाइयों का धैर्य एवं निडरता से सामना करने की क्षमता का विकास।
युवावर्ग के लिए हितकारी पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचनों तथा अन्य महापुरुषों के उपदेशों का संकलन प्रदान करना।
युवा उत्थान शिविर, युवाओं के सर्वांगीण विकास हेतु विभिन्न सेवा अभियान, जिज्ञासु युवाओं को विशेष मार्गदर्शन।
'संस्कार सभा' के माध्यम से युवकों में छुपी प्रतिभा का विकास।
अपने जीवन को उन्नत बनाने के इच्छुक युवक, जिन्हें पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षा नहीं मिली हो, वे 'संस्कार सभा' के माध्यम से लाभान्वित होकर 'क्षेत्रिय युवा सेवा संघ' से जुड़ सकते हैं।
केन्द्रीय युवा संघ (मुख्यालय).....
युवा सेवा संघ का मुख्यालय 'केन्द्रीय युवा सेवा संघ' के नाम से जाना जायेगा। विश्व भर में युवा सेवा संघ की गतिविधियों का संचालन युवा सेवा संघ मुख्यालय, अखिल भारतीय श्री योग वेदान्त सेवा समिति, संत श्री आसाराम जी आश्रम, अमदावाद से होगा।
राज्यप्रमुख युवा संघ....
राज्य के सभी क्षेत्रीय युवा संघों में से किसी एक क्षेत्रीय युवा सेवा संघ को 'राज्यप्रमुख युवा संघ' के रूप में घोषित किया जायेगा, जिसका चयन केन्द्रीय युवा संघ करेगा। चयन प्रणाली आगे दी है। राज्यप्रमुख युवा संघ का नाम इस प्रकार रहेगा। जैसेः उत्तरप्रदेश युवा संघ।
क्षेत्रीय युवा संघ.....
केन्द्रीय युवा संघ की सदस्यता (Membership) प्राप्त किये हुए युवकों द्वारा देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 'केन्द्रीय युवा संघ' के निर्देशानुसार जिन युवा सेवा संघों का संचालन होगा, उन्हें 'क्षेत्रीय युवा संघ' कहेंगे। क्षेत्रीय युवा संघ के नाम ग्राम/शहर के नाम पर रहेंगे। जैसेः युवा सेवा संघ भोपाल।
क्षेत्रीय युवा सेवा संघ का गठन कैसे करें ?
जिन साधक भाइयों ने पूज्य श्री से मंत्रदीक्षा ली हो, वे साधक भाई आपस में एकत्रित होकर स्थान, समय निश्चित करके दो तीन बैठक कर लें, जिससे सभी आपस में एक दूसरे का परिचय प्राप्त कर सके। दूसरी/तीसरी बैठक के अन्त में मुख्यालय को फोन करके मार्गदर्शन प्राप्त करें व मुख्यालय के निर्दशानुसार कार्यकारिणी का गठन करें। इस मार्गदर्शिका का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके सर्वसम्मति से कार्यकारिणी के सभासदों का चयन करें। चयन के पश्चात् सभी सभासद स्थानीय श्री योग वेदान्त सेवा समिति से विचार-विमर्श करके मार्गदर्शिका की प्रति स्थानीय समिति व स्थानीय आश्रम-संचालक को दें।
तत्पश्चात् इस मार्गदर्शिका के अंत में दिया गया 'संघ आवेदन पत्र' भरें। समिति द्वार मार्गदर्शिका का पूर्ण अध्ययन करने पर उनसे 'समिति सहकार पत्र' भरवायें। यह 'संघ आवेदन पत्र' फैक्स या ई-मेल द्वारा मुख्यालय में भेजें। उसके बाद सभी 'संस्कार सभा' शुरू करने हेतु इस मार्गदर्शिका में दिये गये 'संस्कार सभा' प्रकरण को ध्यानपूर्वक पढ़ें तथा सभा शुरु होने पर नियमित रूप से सभा का स्वयं भी लाभ लें व औरों को भी दिलायें।
आपके भेजे हुए 'संघ आवेदन पत्र' की जाँच के उपरान्त अमदावाद मुख्यालय द्वारा आपके क्षेत्रीय युवा संघ को 'संघ कोड नं.' प्राप्त होगा।

'युवा सेवा संघ' की सेवा प्रणाली
पूज्य बापू जी की पावन प्रेरणा से शुरू हुए युवा सेवा संघ की उद्देश्यपूर्ति हेतु यहाँ दी जा रही सेवाप्रणाली एक मुख्य साधन है। इस सेवाप्रणाली के माध्यम से युवा सेवा संघ का हरेक सदस्य सहज में ही अपनी योग्यता और प्रतिभा का अधिक-से-अधिक विकास कर सकता है। इस सेवाप्रणाली में मुख्यरूप से समाज-उपयोगी गतिविधियों को दर्शाया गया है। इसके अलावा युवा संघ सदस्य अपने क्षेत्र अनुसार अन्य सेवाओं को खोजकर 'युवा सेवा संघ' के सभी नियमों का पालन करते हुए उन्हें कर सकते हैं।
संस्कार सभा सेवाः
युवा सेवा संघ के सदस्य 'संस्कार सभा' का स्वयं लाभ लेते हुए अन्य युवकों को उसके माध्यम से होने वाले लाभ से परिचित करायें। आपके क्षेत्र (ग्राम/शहर) का विस्तार अधिक हो तो सुविधानुसार उसे 4-5 विभागों (Zone) में विभाजित करके 4-5 संस्कार सभा चलायें। सभी संस्कार सभाओं का संचालन 'क्षेत्रीय युवा संघ' के माध्यम से होगा। क्षेत्रीय युवा संघ के द्वारा होने वाले सभी सेवाकार्यों में संस्कार सभा का प्रचार-प्रसार अवश्य करें, जिससे अधिक-से-अधिक युवा लाभान्वित हो सकें।
ग्रन्थालय सेवाः
संस्कार सभा का लाभ लेने वाले सभी युवकों के लिए क्षेत्रीय युवा संघ ग्रंथालय शुरू करें। उसमें युवाओं के लिए उपयोगी आश्रम द्वारा प्रकाशित सत्साहित्य तथा ऑडियो कैसेट, वीसीडी, एमपी थ्री व डीवीडी के साथ ही आध्यात्मिक व भारतीय संस्कृति की दिव्यता दर्शाने वाले साहित्य, ग्रंथ आदि रखें। आश्रम से प्रकाशित ऋषि प्रसाद व लोक कल्याण सेतु के अधिक-से-अधिक अंकों का संग्रह रखें। इस ग्रन्थालय की सामग्री का संस्कार सभा के युवक स्वयं भी लाभ उठायें व उन युवकों द्वारा औरों को भी लाभ मिले, इसका विशेष ध्यान रखें।
तेजस्वी युवा अभियानः
इस अभियान के माध्यम से युवाओं को तेजस्वी बनाने के साथ-साथ हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के रहस्यों से अवगत कराया जायेगा। यह अभियान हाई स्कूल व कॉलेजों में जाकर करें।
हाई स्कूल, कालेजों में जाकर वहाँ के प्रिंसीपल/प्रबंधक से मिलकर उन्हें इस अभियान का महत्त्व व रूपरेखा बतायें तथा अभियान का दिन व समय निश्चित कर लें।
अभियान की रूपरेखाः
युवा संघ के सदस्य हाईस्कूल व कॉलेजों में जाकर प्रिंसीपल/प्रबंधक की अनुमति से एक स्थान निश्चित कर लें, जहाँ पर आश्रम द्वारा निर्मित बाल संस्कार प्रदर्शनी के चार्ट नं, 19, 21 से 23, 31 से 36, 43 से 50 लगायें। साथ में क्षेत्रीय युवा संघ द्वारा प्रति सप्ताह चलायी जाने वाली 'संस्कार सभा' का स्थान, समय व विशेषता दर्शाने वाला बैनर लगायें। इस प्रदर्शनी का अवलोकन वहाँ के विद्यार्थी प्रिंसीपल/प्रबंधक की अनुमति के अनुसार करें। विद्यार्थियों द्वारा अवलोकन करने से पहले या बाद में उन्हें एक साथ बिठाकर 10 मिनट का वक्तव्य दें। यह सेवा उस सदस्य को सौंपें जिसकी आवाज स्पष्ट व प्रभावशाली हो अथवा वक्तृत्वशैली उत्तम हो। वक्तव्य में सर्वप्रथम 'दिव्य प्रेरणा-प्रकाश' पुस्तक में दिया गया पूज्य बापू जी का संदेश बतायें। तत्पश्चात् दिव्य प्रेरणा प्रकाश व नशे से सावधान साहित्य का महत्त्व तथा उसके पठने से होने वाले लाभ बतायें। अपने जीवन को उन्नत बनाने के इच्छुक युवा विद्यार्थियों को क्षेत्र में चलने वाली संस्कार सभा में निशुल्क प्रवेश की जानकारी देकर उसका लाभ लेने हेतु आमंत्रित करें।
विद्यार्थियों को उपरोक्त साहित्य प्राप्त कराने की योजना प्रिंसीपल/प्रबंधक से विचार विमर्श करके बनायें। जैसे-
हाई स्कूल, कॉलेज के प्रांगण में अस्थायी साहित्य-स्टॉल लगाकर शुल्क लेकर साहित्य वितरण करें। साहित्य लेने में असक्षम विद्यार्थियों को युवा संघ अपनी सुविधानुसार निःशुल्क वितरण कर सकता है।
विद्यार्थियों की कक्षा में ही शुल्कसहित साहित्य वितरण करें।
व्यसन मुक्ति अभियानः
तेजस्वी युवा अभियान की तरह ही इस अभियान की पूर्वतैयारी कर लें। स्थान, समय निश्चित करके टी.वी./प्रोजेक्टर आदि के द्वारा आश्रम की व्यसनों से सावधान व प्रेरणा ज्योत (प्रथम 20 मिनट) वीसीडी दिखायें। फिर सभी उपस्थित लोगों से संकल्प करवायें कि 'आज से हम सभी प्रकार के व्यसनों से स्वयं भी बचेंगे व औरों को भी व्यसनों के दुष्परिणामों से अवगत करायेंगे। अंत में नशे से सावधान पुस्तक शुल्क लेकर अथवा निःशुल्क वितरण करें या दिव्य प्रेरणा प्रकाश पुस्तक खरीदने पर नशे से सावधान भेंट में दें (युवा संघ की सुविधा अनुसार)।
सार्वजनिक स्थानों में, सार्वजनिक उत्सवों में (जैसे – गणेश-उत्सव, नवरात्रि आदि उत्सव आदि) सम्बंधित मुख्य व्यक्तियों से पूर्वानुमति लेकर उपरोक्त दोनों अभियान कर सकते हैं।
नोटः तेजस्वी युवा अभियान व व्यसन मुक्ति अभियान संयुक्तरूप से भी कर सकते हैं।
जीवन विकास अभियानः
इस अभियान के माध्यम से युवा संघ के सदस्य अपनी शैक्षणिक व व्यावहारिक योग्यता का बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय उपयोग करें। जैसेः
यदि कोई सदस्य डॉक्टर है तो उसके सहयोग से क्षेत्रीय युवा संघ गरीब, पिछड़े इलाकों में, आदिवासी क्षेत्रों में निःशुल्क चिकित्सा शिविर लगायें। कोई क्षेत्र पिछड़ा हो तो वहाँ के लोगों को इकट्ठा करके उन्हें सफाई का महत्त्व, स्वास्थ्य के घरेलू उपाय, भगवन्नाम-महिमा आदि बताकर उनकी जीवनशैली सुधारने हेतु प्रेरित करें। साथ ही टी.वी./प्रोजेक्टर के माध्यम से उन्हें पूज्य श्री के सत्संग का लाभ दिलायें।
यदि कोई सदस्य शिक्षक है तो वह अपने घर पर तथा स्कूल में बाल संस्कार केन्द्र अवश्य चलायें। साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले साधकों को बाल संस्कार केन्द्र चलाने हेतु प्रेरित करें। इसकी विस्तृत जानकारी हेतु बाल संस्कार मुख्यालय, अमदावाद से सम्पर्क करें।
यदि कोई सदस्य आश्रम से प्रकाशित ऋषि प्रसाद या लोक कल्याण सेतु मासिक पत्रिका का सेवाधारी हो तो वह साधकों से पुराने अंक एकत्रित करके युवा संघ के माध्यम से उत्साही व जिज्ञासु जनसाधारण में निःशुल्क वितरण करे। ऋषि प्रसाद व लोक कल्याण सेतु पत्रिकाओं से समाज का हरेक वर्ग अधिक-से-अधिक लाभान्वित हो, इसका क्षेत्रीय युवा संघ विशेष ध्यान रखें। पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार हेतु सम्बन्धित अमदावाद मुख्यालय से सम्पर्क करें।
मातृ-पितृ पूजन दिवसः
बाल एवं युवा वर्ग के विशेष उत्थान को ध्यान में रखकर पूज्य बापू जी ने 14 फरवरी को मातृ-पितृ पूजन पर्व मनाने की नींव डाली है। इस मंगल पर्व का लाभ सम्पूर्ण समाज को मिल सके, इस हेतु युवा संघ के सदस्य 15-20 दिन पूर्व से ही इसका खूब प्रचार-प्रसार करें। इस पर्व में बेटे बेटियाँ अपने माता-पिता का पूजन करके उनका आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इस पर्व का आयोजन विशेषरूप से स्कूलों-कॉलेजों में करें। इसके प्रचार-प्रसार एवं आयोजन की जानकारी के लिए युवा सेवा संघ मुख्यालय से सम्पर्क करें।
युवाओं हेतु विशेष शिविर सेवाः पूज्य बापू जी के पावन सान्निध्य में समय-समय पर आयोजित होने वाले 'युवा उत्थान शिविर' 'विद्यार्थी तेजस्वी तालीम शिविर' आदि शिविरों का अधिक से अधिक युवा विद्यार्थी लाभ लें, इस हेतु क्षेत्रीय युवा संघ अपने क्षेत्र के युवाओं को प्रेरित करें तथा सुनियोजित व अनुशासित प्रणाली बनाकर उन्हें शिविर में ले आयें। क्षेत्रीय युवा संघ ऐसे शिविरों में मुख्यालय द्वारा प्राप्त निर्देशानुसार अपनी सेवाएँ निश्चित कर लें।
अनाथालय, वृद्धाश्रम आदि में सहायः
ऐसी जगहों पर पूज्यश्री के उनसे सम्बन्धित विषयों के सत्संग दिखायें, सत्साहित्य बाँटे। वहाँ के व्यस्थापक से मिलकर उन्हें ऋषि प्रसाद व लोक कल्याण सेतु मासिक पत्रिका का सदस्य बनायें, ताकि प्रतिमाह वहाँ के सभी लोगों को पूज्य श्री के अमृतवचनों का लाभ मिल सके। साथ ही व्यवस्थापक से कहके वहाँ पर आश्रम के सत्साहित्य में ऑडियो-वीडियो सीडी आदि का सेट भी रखवा सकते हैं।
वृक्षारोपण सेवाः
अपने घर के आस-पास, सड़क के किनारे तथा अन्य आवश्यक जगहों पर सम्बन्धित व्यक्तियों से अनुमति लेकर वृक्षारोपण सेवा करें। पूज्य बापू जी ने सत्संग में पीपल व तुलसी की खूब महिमा बतायी है, साथ ही नीलगिरी (सफेदा) के पेड़ के नुक्सान भी बताये हैं। इस सेवा के माध्यम से पूज्य श्री का यह मौलिक संदेश समाज में पहुँचाकर उसे लाभदायक वृक्षों के प्रति जागरूक करें। वृक्षारोपण में विशेषतः तुलसी, पीपल, नीम, आँवला, बड़, आम आदि पौधों का उपयोग करें।
क्षेत्रीय युवा संघ स्थानीय समिति/स्थानीय आश्रम द्वारा मानव-उत्थान हेतु चलाये जा रहे सेवाकार्यों में युवा संघ से जुड़े सभी युवानों को सहभागी बनाकर पूज्य बापू जी के इन दैवी कार्यों को तीव्र गति से आगे बढ़ायें।

Saturday, May 8, 2010




श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Darshan pustak se
सच्ची पत्नी वह है जो पति को सहयोग दे और सच्चा पति वह है जो पत्नी को सहयोग दे। सच्चा मित्र वह है जो मित्र को सहयोग दे।
सच्चा सहयोग वह है जो उनको स्वतन्त्र कर दे।
सच्ची स्वतंत्रता वह है जिसमें बिना विषय के, बिना विकारों के, बिना पाप और ताप के सुखी रह सकें।
यही सच्ची स्वतन्त्रता है और इसी स्वतन्त्रता में पहुँचाने वाला सहयोग सच्चा सहयोग है।
जो स्त्री अपने पति को अपने देह में केन्द्रित करके सुख देना चाहती है, जो पति अपनी पत्नी का देह नोचकर ही सुखी रहना चाहता है, वास्तव में वे दोनों एक दूसरे के हितैषी नहीं हैं, कल्याण कारी नहीं हैं, एक दूसरे के शत्रु ही हैं।
सच्ची पत्नी वह है जो पति को प्रेम देकर उसके प्रेम को परमात्मा में पहुँचाने का प्रयत्न करे। सच्चा पति वह है जो पत्नी को समझ देकर, उसकी समझ जहाँ से स्फुरित होती है उस अधिष्ठान की तरफ से जाने में सहयोग करे। ऐसे पति-पत्नी एक दूसरे के परम हितैषी हैं, एक दूसरे के परम कल्याणकारी हैं।
बालक स्नेह करता है, स्नेह बरसाता है। वह नही देखता तुम्हारे धन को, नहीं देखता तुम्हारे पद प्रतिष्ठा को, नहीं देखता तुम्हारी कुर्सियों को। वह तो प्रेम बाँटता है। उस बालक से प्रेम करना सीखो। उन शिष्यों से भी सीखो जो निर्दोष प्रेम बाँटकर अपनी दृष्टि विश्वव्यापी बनाते हैं।
जागतिक वस्तुओं के बिना आपका व्यवहार तो नहीं चलता। तो क्या करें ? जागतिक वस्तुओं से, विषयों से और जागतिक सम्बन्धों से जो आपको हर्ष आता है, आनंद आता है उस हर्ष और आनंद को आप भीतर ले जाओ और भीतर के सच्चे आनन्द का प्रकटाकर विश्व में व्यापक कर दो.... आपकी दृष्टि व्यापक हो जायेगी, ब्रह्माकार बन जायेगी।
संसार की वस्तुओं का अत्यंत अनादर नहीं कर सकते, संसार के व्यवहार का अत्यंत अनादर नहीं कर सकते। साथ ही साथ संसार के सम्बन्धों में, व्यवहार में, वस्तुओं में आसक्ति करके अपने विनाश भी तो नहीं करना चाहिए।
संसार के सम्बन्ध हों, अच्छा है। पति-पत्नी का सम्बन्ध हो, अच्छा है। पिता-पुत्र का सम्बन्ध हो, अच्छा है। माँ-बेटे का सम्बन्ध हो, अच्छा है। भाई-बहन का सम्बन्ध हो, अच्छा है। मित्र-मित्र का सम्बन्ध हो, अच्छा है।
लेकिन....
आदमी जब इन सम्बन्धों में पूर्ण रूप से उलझ जाता है तब ये ही सम्बन्ध उसके लिए नरक के द्वार खोल देते हैं। जीते जी अशांति, कलह और विद्रोह की आग में जलना पड़ता है और मरने के बाद नरकों की यात्रा करनी पड़ती है। यह प्रकृति का अकाट्य नियम है।
तुम्हारे भीतर छुपे हुए स्नेह और आनन्द को जगाने के लिए तुम्हें बाहर के फूल, बाहर के फल, बाहर की हवाएँ, बाहर की सुविधाएँ, बाहर के सम्बन्ध, बाहर के स्नेही-मित्र-पड़ोसी दिये जाते हैं ताकि तुम भीतर के स्नेह और आनंद तक, भीतर के परम स्नेही और मित्र तक पहुँच जाओ, भीतर की सुवास तक पहुँच जाओ और आत्मानंद के फल को पा लो। तुम बाहर से भीतर जा सको। इसीलिए प्रकृति ने यह सब व्यवस्था की है।
लेकिन.....
तुम बाहर के सहारों में उलझ जाते हो। जैसे, बच्चा मेज के सहारे खड़ा है। मेज हटा दिया जाता है तो बच्चा गिर जाता है। प्रकृति भी तुम्हें बाहर के सहारे देती है ताकि तुम उनके द्वारा खड़े होकर फिर आत्मनिर्भर बन जाओ, परन्तु तुम उन सहारों में उलझ जाते हो। आत्मनिर्भर होने के बजाय पराधीन बन जाते हो। सुख के लिए बाह्य पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों की तरफ ताकते रहते हो। लेकिन प्रकृति माता बड़ी दयालु है। दिये हुए सहारे हटाकर तुम्हें सावधान करती रहती है।
तुम बाहर के फूल-फल, चीज-वस्तुएँ, स्नेही मित्र, सम्बन्धों के सहारे हो जाते हो तो समय पाकर वे सहारे ही तुम्हे निःसहाय बनाने लगते हैं। तुम्हारे मित्र ही शत्रुता करने लगते हैं, सफलता असफलता का रूप धारण करने लगती है। यह प्रकृति का बिल्कुल अकाट्य नियम है। ज्यों ही तुमने उन चीजों पर अपना आत्मकेन्द्र रखा, उन चीजों पर भरोसा किया, उन सम्बन्धों पर भरोसा किया, उनके सहारे ही खड़े रहे त्यों ही वे सब सहारे एक-एक करके हटा दिये जायेंगे। प्रिय पदार्थ छीन लिये जाएँगे। सम्बन्ध खट्टे होने लग जायेंगे।
प्रकृति माता आपकी उन्नति के लिए हर चीज देती है। जैसे, माँ बच्चें को चलना सिखाने के लिए गाड़ी देती है। अगर बच्चा गाड़ी से चिपका ही रहे तो माँ थप्पड़ मार कर गाड़ी छुड़ा देती है। बच्चा छोटा है तो माँ गोद में सुलाकर पयःपान कराती है परन्तु वही माँ समय आने पर नीम का रस अथवा कोई कडुवा रस स्तन पर लगाकर पयःपान छुड़ाती भी है।
ऐसे ही बाहर के सम्बन्धों की प्रारंभिक अनुकूलता के द्वारा तुम पा पा पगली चलो, चालनगाड़ी के सहारे चलो। पति-पत्नी के द्वारा, पुत्र-परिवार के द्वारा जो रस आता है उसके सहारे अपना भीतरी प्रेम प्रकटाने के लिए तैयार हो जाओ। इसीलिए यह संसाररूपी बालमंदिर है। उसमें आसक्ति करके चिपकने के लिए और उसके पराधीन होने के लिए नहीं है।
ज्यों ही उन सहारों पर आधारित हुए कि धोखा खाया। जो ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए वह अगर मित्र पर रखा तो वह मित्र जरूर तुम्हारा शत्रु हो जायगा या धोखा करेगा या तुमसे पहले चल बसेगा। आखिर तुमको रोना ही पड़ेगा।
बाहर के धन का थोड़ा-बहुत उपयोग कर लो, कोई मना नहीं, बाहर के वस्त्रों का उपयोग कर लो, कोई मना नहीं। किन्तु ज्यों ही तुम्हारा सुख उन वस्त्रों पर आधारित बनेगा त्यों ही वस्त्रों के निमित्त तुम्हें अशांति पैदा होगी। मोटर गाड़ी का उपयोग करो लेकिन ज्यों ही उसके आधार पर तुम्हारी प्रतिष्ठा बनेगी, जीवन सुखी भासेगा त्यों ही कुछ न कुछ गाड़ी विषयक गड़बड़ होगी। ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन टिकाया तो कुछ न कुछ विघ्न-बाधाएँ आयेंगे ही। .....और आने ही चाहिए। इसी में तुम्हारा हित छुपा है।
मानव ! तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है।
कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, सदब्रह्म तेरा वंश है।।
चैतन्य है तू अज अमल है, सहज ही सुख राशि है।
जन्में नहीं, मरता नहीं, कूटस्थ है अविनाशी है।।
तुम्हारे कुल-वंश-परंपरा देखें तो मूलतः ब्रह्म है, हाड़-मांस-चाम आदिवाले माता-पिता नहीं। हाड़-मांस के माता-पिता जिससे स्फुरित हुए, सृष्टि का जो आदि कारण है, अभी भी सृष्टि का जो आधार है, प्रलय के बाद भी जो रहता है वह सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा ही तुम्हारा आदि उदभव स्थान है। ब्रह्म की जात ही तुम्हारी जात है। तुम्हें गोविन्दभाई कहना, मोती भाई कहना, तुम्हें मनुष्य कहना.... मुझे लगता है कि मैं ईश्वर का अपमान कर रहा हूँ। तुम्हें अगर पटेल कहता हूँ तो मुझे लगता है मैं ईश्वर को गाली दे रहा हूँ। तुम्हें एक व्यक्ति कहता हूँ तो लगता है परमात्मा का अनादर कर रहा हूँ। वास्तव में व्यक्ति यह शरीर है। जिस दिन से तुम इस शरीर पर आधारित हो गये उसी दिन यह शरीर तुम्हें दुःख, चिन्ता और भय में घेर लेता है।
शरीर तुम्हारा एक साधन है। ऐसे साधन तुम्हें हर जन्म में मिलते रहे हैं। न जाने कितने-कितने साधन आज तक तुम्हें मिले। साधन को जब तुम साध्य-बुद्धि से पकड़ लेते हो तब वही साधन तुम्हारे लिए फाँसी बन जाता है। अथर्ववेद के 31वें अध्याय का पहला श्लोक हैः
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
'इस जगत में जो भी नाम-रूपात्मक स्थावर-जंगम पदार्थ हैं वे सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय हैं। उस नाम-रूपात्मक प्रपंच का त्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का पालन करो। गीध के समान लोलुप न बनो। यह धन किसी का नहीं है।'
(ईशावास्योपनिषदः1)
यह सारा जगत उस परब्रह्म परमात्मा की सत्ता से ओतप्रोत है। उसे त्याग से भोगो, आसक्ति से नहीं। ठण्डी मिटाने के लिए तुम्हारे पास वस्त्र हो, कोई हरकत नहीं। शरीर को निवास की आवश्यकता हो तो सीधा-सादा घर हो, साफ-सुथरा छोटा-सा घर हो तो काम चल जायगा। अगर चाहा कि, "बढ़िया इमारत बनवाऊँ, लोगों को दिखाऊँ, ठाठ से रहूँ....' तो वही इमारत तुम्हारी खोपड़ी के लिए मजदूरी बन जायेगी। ठण्डी गर्मी से शरीर की रक्षा करने के लिए सादे-सीधे वस्त्र हों तब तक तो ठीक है पर जब तुम वस्त्रों पर आधारित हो जाते तो वे ही वस्त्र तुम्हारे समय और शक्ति को खा जाते हैं, तुम्हारी चेतना को बिखेर देते हैं। ऐसे ही शरीर की तंदुरूस्ती के लिए भोजन करते हो तब तक तो ठीक है लेकिन भोजन के द्वारा मजा लेने लग गये तो वही भोजन फिर रोग का कारण बन जाता है।
ज्यों ही तुमने बाहर के साधनों पर सुख-बुद्धि की, सुख के निमित्त उन्हें पकड़ना चालू किया त्यों ही वे साधन तुम्हारे हाथ से खिसकना शुरू करेंगे। अथवा, ये साधन तुम्हें चिन्ता, भय, संघर्ष, शोक और अशांति की आग में झोंकने लगेंगे। इसीलिएः
तेन त्यक्तेन भुंजीथा।
त्याग से भोगो। बुलबुल गीत गा रही है.... कोयल गीत गा रही है... सुन लिया, ठीक है। लेकिन हररोज बुलबुल गाती रहे, कोयल भी गीत गाती रहे, फूल खिले हुए मिलें, मन्द-मन्द मधुर हवायें चलती रहें, अमुक मित्र सदा मिलता ही रहे, अमुक कुर्सी सदा बनी रहे, सदा मान मिलता रहे, अमुक कुटुम्बीजन ऐसा ही व्यवहार करता रहे, ऐसा आग्रह दिल में आ गया तो समझो वे परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी, चीजें छीन ली जायेगी, व्यक्तियों का स्वभाव और व्यवहार तुम्हारे प्रति बदल जायगा। उन वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थतियों के निमित्त कोई न कोई आपदा तुम्हें सहनी पड़ेगी। जो प्यार ईश्वर को देना चाहिए, जो आधार ईश्वर पर रखना चाहिए वह आधार अगर किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, समाज या सत्ता पर रखा या कुर्सी पर रखा तो धोखा खाओगे ही। कुर्सी नसीन को हटाया जाता है, गिराया जाता है अथवा उस कुर्सी के कारण अपनी शांति का भंग हो जाता है। यह प्रकृति का अकाट्य सिद्धान्त है।
हम दुःखी क्यों हैं ?
दुःख न भगवान बनाता है न प्रकृति बनाती है। दुःख बनाती है हमारी बेवकूफी। दुःख बनाती है हमारी नासमझी। जो प्यार हमें परमात्मा के प्रति बहाना चाहिए वह यदि साधनों के प्रति चिपकाया तो दुःख घेरेंगे ही। जो साधन का जिस ढंग से उपयोग करना चाहिए वह नहीं किया और उसके आधीन हो गये तो वही साधन हमारे लिए दुःख का साधन बन जाता है। कुआँ बनाया है शीतल जल के और कोई उसमें गिरकर मरे तो मर्जी उसकी। सरिता बह रही है। वह सिंह को भी पानी पीने देती है और गाय को भी। कोई उसमें कूदकर मरे तो मर्जी उसकी।
संसाररूपी सरिता से थोड़ा जल पीकर हमें अपना भीतर का सुख जगाना है। हम जब पानी के लिए बोरिंग करते हैं तो प्रारंभ में नदी से, तालाब से या किसी के कुएँ से पानी लाकर डालना पड़ता है, खुदाई करनी पड़ती है। पानी डालते हुए, खुदाई करते हुए जब गहरे पहुँच जाते हैं तो भीतर से पानी अपने आप उछलने लगता है।
अपने बोर का पानी प्रकटाने के लिए पहले दूसरों के बोर का पानी लाते हैं ऐसे ही विधाता ने अपने भीतर का आनंद छलकाने के लिए संसार के सुखों की सुविधा की है। संसार का जो सुख है, पति या पत्नी का जो प्रेम है, नन्हें मुन्ने शिशु का जो निर्दोष हास्य है, मधुर मुस्कान है वह निर्दोष ब्रह्म में जाने के लिए मिली है।
पत्नी जब पति के स्नेह को विकारों में ही बाँध रखने की इच्छा विस्तृत कर लेती है तो वह पत्नी पति के लिए शत्रु हो जाती है। ऐसे ही पति अगर पत्नी के प्रेम को विकारों के दायरे में केन्द्रित कर लेता है तो वह पत्नी का शत्रु हो जाता है।
मित्र का प्रेम परम मित्र परमात्मा को मिलने के लिए बड़ा सहयोगी बन सकता है लेकिन मित्र चाहे कि मित्र मुझसे ही मिलता रहे, मेरी तुच्छ, हल्की, निम्न इच्छाओं को पूर्ण करता रहे, मेरा देहाध्यास बढ़ाने में सहयोग देता रहे तो वे ही मित्र एक दूसरे को खड्डे में ले जाने वाले हो जाते हैं।
उन्हीं लोगों के बेटे प्रायः लुच्चे, बदमाश, भगेड़ु होते हैं जो लोग अपने कुटुम्ब के अन्दर छोटे-से दायरे में ही प्रीति करते हैं। जो लोग अपने प्रेम को व्यापक नहीं बनाते, अपने तन-मन-जीवन को 'बहुजनहिताय.... बहुजनसुखाय' प्रवृत्ति में नहीं लगाते अपितु पत्नी-पुत्र-परिवार के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित करते हैं, अपने परिवार से अति मोह करते हैं और दूसरे परिवारों का शोषण करते हैं वे ही लोग आखिर अपने परिवारों से दुतकारे जाते हैं, उन्हीं के बच्चे भाग जाते हैं, उन्हीं के बच्चे उनका विरोध करते हैं, उन्हीं के बच्चे उनकी अशांति का कारण बनते हैं।
जो प्रेम परमात्मा को करना चाहिए वह प्रेम अगर मोहवश होकर कुटुम्ब में केन्द्रित किया तो कुटुम्ब तुम्हें धोखा देगा। जो कर्म परमात्मा के नाते करना चाहिए वे ही कर्म अगर अहंकार पोसने के लिए किये तो जिनके वास्ते किये वे लोग ही तुम्हारे शत्रु बन जाएँगे। जो जीवन जीवनदाता को पाने के लिए मिला है, वह अगर हाड़-मांस के लिए खर्च किया तो वही जीवन बोझीला हो जाता है।