पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, February 28, 2011




जीवन विकास  पुस्तक से - Jivan Vikas pustak se

आत्म-कल्याण में विलम्ब क्यों?  - Atma-kalyaan me Vilamb kyon?

किसी भी कर्म का फल शाश्वत नहीं है। पुण्य का फल भी शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। केवल ज्ञान का फल, परमात्म-साक्षात्कार का फल ही शाश्वत है, दूसरा कुछ शाश्वत नहीं है।
पुण्य का फल सुख भोगकर नष्ट हो जाता है। पाप का फल दुःख भोगने से नष्ट हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहाः "पुण्य का फल ईश्वर को समर्पित करने से हृदय शुद्ध होता है। शुद्ध हृदय में शुद्ध स्वरूप को पाने की जिज्ञासा जगती है। शुद्ध स्वरूप को पाने की जिज्ञासा जगती है तब वेदान्त-वचन पचते हैं।
किसी व्यक्ति ने कुछ कार्य किया। उसको ज्यों का त्यों जाना तो यह सामाजिक सत्य है, परम सत्य नहीं है। परम सत्य किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के इर्दगिर्द नहीं रहता। उस सत्य में तो अनन्त अनन्त व्यक्ति और ब्रह्माण्ड पैदा हो होकर लीन हो जाते हैं, फिर भी उस सत्य में एक तिनका भर भी हेरफेर या कटौती-बढ़ौती नहीं होती। वही परम सत्य है। उस परम सत्य को पाने के लिए ही मनुष्य जन्म मिला है।
इस प्रकार का दिव्य ज्ञान पाने का जब तक लक्ष्य नहीं बनता है तब तक किसी न किसी अवस्था में हमारा मन रुक जाता है। किसी न किसी अवस्था में हमारी बुद्धि स्थगित हो जाती है, कुण्ठित हो जाती है।
अवस्था अच्छी या बुरी होती है। जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई भी होगी। जहाँ बुराई है वहाँ अच्छाई की अपेक्षा है। बुरे की अपेक्षा अच्छा। अच्छे की अपेक्षा बुरा। लेकिन अच्छा और बुरा, यह सारा का सारा शरीर को, अन्तःकरण को, मन को बुद्धि को, 'मैं' मान कर होता है। हकीकत में ये अन्तःकरण, मन, बुद्धि 'मैं' है ही नहीं। असली 'मैं' को नहीं जानते इसलिए हर जन्म में नया 'मैं' बनाते हैं। इस नये 'मैं' को सजाते हैं। हर जन्म के इस नये 'मैं' को आखिर में जला देते हैं।
असली 'मैं' की अब तक जिज्ञासा जगी नहीं तब तक मानी हुई 'मैं' को सँभालकर, सँवार कर, बचाकर, जीवन घिस डालते हैं हम लोग। मानी हुई 'मैं' की कभी वाह वाह होगी कभी निन्दा होगी। 'मैं' कभी निर्दोष रहेगा कभी दोषी बनेगा, कभी काम विकार में गिरेगी, कभी निष्काम होगी। मानी हुई 'मैं' तो उछलती, कूदती, डिमडिमाती, धक्के खाती, अन्त में स्मशान में खत्म हो जायेगी। फिर नये जन्म की नई 'मैं' सर्जित होगी। ऐसा करते यह प्राणी अपने असली 'मैं' के ज्ञान के बिना अनन्त जन्मों तक दुःखों के चक्र में बेचारा घूमता रहता है। इसीलिए गीताकार ने कहा हैः
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
'ज्ञान के समान पवित्र करने वाली और कोई चीज नहीं।' (गीताः4.38)
जब अपनी असलियत का ज्ञान मिलता है तब बेड़ा पार होता है। बाकी तो छोटी अवस्थाओं से बड़ी अवस्थाएँ आती हैं। बड़ी अवस्थाओं से और बड़ी अवस्थाएँ आती हैं। इन अवस्थाओं का सुख-दुःख अन्तःकरण तक सीमित रहता है।
अवस्था का सुख देह से एक होकर मिलता है, लेकिन सत्य का साक्षात्कार जब देह से एक होना भूलते हैं और परमात्मा से एक होते हैं तब होता है, तब असली सुख मिलता है। शरीर से एक होते हैं तब माया का सुख मिलता है, नश्वर सुख मिलता है और वह सुख शक्ति को क्षीण करता है। परमात्मा से जब एक होकर मिलते हैं, जितनी देर परिच्छिन्न 'मैं' भूल जाते हैं उतनी देर दिव्य सुख की झलकें आती हैं। चाहे भक्ति के द्वारा चाहे योग के द्वारा, चाहे तत्त्वविचार के द्वारा परिच्छिन्न 'मैं' भूलकर परमात्मा से एक होते हैं तो परम सुख की झलकें आती हैं। फिर जब परिच्छिन्न 'मैं' स्मरण में आता है तो आदमी शुद्ध सुख से नीचे आ जाता है।
जितने प्रमाण में इन्द्रियगत सुख है, बाहर का आकर्षण है उतने प्रमाण में जीवन नीचा है, छोटा है। लोगों की नज़र में हम चाहे कितने ही ऊँचे दिख जायें लेकिन जितना इन्द्रियगत सुख का आकर्षण है, प्रलोभन है उतना हमारा जीवन पराधीन रहेगा, नीचा रहेगा। जितना जितना दिव्य सुख की तरफ ज्ञान है, समझ में उतने हम वास्तविक जीवन की ओर होंगे, हमारा जीवन उतना ऊँचा होगा।
ऊँचा जीवन पाना कठिन नहीं है। फिर भी बड़ा कठिन है।
मैंने सुनी है एक घटना। वरराजा की बारात ससुराल पहुँची और सास वरराजा को पोंखने (तिलक करने) लगी। उस समय नागा साधुओं की जमात उधर आ निकली। पुरानी कहानी है। अनपढ़ लोग थे। ऐसे ही थे जरा विचित्र स्वभाव के। साधुओं ने पूछाः
"यह माई लड़के को तिलक विलक कर रही है, क्या बात है?"
किसी ने बतायाः "यह दूल्हे का पोंखणा हो रहा है।"
नागाओं को भी पुजवाने की इच्छा हुई। एक नागा दूल्हे को धक्का मारकर बैठ गया पाट और बोलाः
"हो जाये महापुरुषों का पोखणा।"
उसका पोंखणा हुआ न हुआ और दूसरा नागा आगे आया। पहले को धक्का देकर स्वयं पाट पर बैठ गया।
"हो जाये महापुरुषों का पोंखणा।"
इसी प्रकार तीसरा........ चौथा.......... पाँचवाँ........ नागा साधुओं की लाईन लग गई। दूल्हा तो बेचारा एक ओर बैठा रहा और 'हो जाये महापुरुषों का पोंखणा..... हो जाये महापुरुषों का पोंखणा.....' करते करते पूरी रात हो गई। दूल्हे की शादी का कार्यक्रम लटकता रह गया।
ऐसे ही इस जीव का ईश्वर के साथ मिलन कराने वाले सदगुरु जीव को ज्ञान को तिलक तो करते हैं लेकिन जीव के अन्दर वे नंगी वृत्तियाँ, संसार-सुख चाहने वाली वृत्तियाँ आकर पाट पर बैठ जाती हैं। 'यह इच्छा पूरी हो जाये... वह इच्छा पूरी हो जाये....!' जीव बेचारा इन इच्छाओं को पूरी करते-करते लटकता रह जाता है।
नागा साधुओं की जमात तो फिर भी चली गई होगी। लेकिन हमारी तुच्छ वृत्तियाँ, तुच्छ इच्छाएँ आज तक नहीं गई। इसीलिए जीव-ब्रह्म की एकता की विधि लटकती रह जाती है। उस दूल्हे को तो एक रात शादी के बिना लटकते रहना पड़ा होगा लेकिन हम जैसे हजारों लोगों को युगों युगों से 'पोंखानेवाले' विचार, वृत्तियाँ, इच्छाएँ परेशान कर रही हैं। तो अब कृपा करके इन सब पोंखने वालों को तिलांजली दे दो।'
'यह हो जाये.... वह हो जाये..... फिर आराम से भजन करूँगा। इतना हो जाये फिर भजन करुँगा....।' आप जानते नहीं कि भजन से ज्यादा आप संसार को मूल्य दे रहे हैं। भजन का मूल्य आपने जाना नहीं। 'इतना पाकर फिर पिया को पाऊँगा' – तो पिया को पाने की महत्ता आपने जानी नहीं। क्यों नहीं जानी? क्योंकि वे आ गये, 'हो जाये पोंखणा' वाले विचार बीच में।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, प्राणायाम से प्राण बल बढ़ता है, सेवा से क्रियाबल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। ऊँची समझ से सहज समाधि अपना स्वभाव बन जाता है।
तुम जितने अंश में ईश्वर में तल्लीन होगे उतने ही अंश में तुम्हारे विघ्न और परेशानियाँ अपने-आप दूर हो जायेंगी और जितने तुम अहंकार में डूबे रहोगे उतने ही दुःख, विघ्न और परेशानियाँ बढ़ती जायेंगी।
पूरे विश्व का आधार परमात्मा है और वही परमात्मा आत्मा के रूप में हमारे साथ है। उस आत्मा को जान लेने से सबका ज्ञान हो जाता है।
रात्रि का प्रथम प्रहर भोजन, विनोद और हरिस्मरण में बिताना चाहिए। दो प्रहर आराम करना चाहिए और रात्रि का जो चौथा प्रहर है, उसमें शरीर में रहते हुए अपने अशरीरी स्वभाव का चिन्तन करके ब्रह्मानंद का खजाना पाना चाहिए।

Monday, February 21, 2011


ऋषि प्रसाद  पुस्तक से - Rishi Prasaad pustak se


सदगुरु-सेवाः परम रसायन

गुरुभक्ति और गुरुसेवा ये साधनारूपी नौका की पतवार है जो शिष्य को संसारसागर से पार होने में सहायरूप हैं।
आज्ञापालन के गुण के कारण आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में आने वाला सब से बड़ा शत्रु अहंभाव धीरे धीरे निर्मूल हो जाता है।
पूजा, पुष्पोहार, भक्ति तथा अन्य आँतिरक भावों की अभिव्यक्तियों से गुरुआज्ञापालन का भाव ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
जो मनुष्य गुरुभक्तियोग के मार्ग से विमुख है वह अज्ञान, अन्धकार और मृत्यु की परंपररा को प्राप्त होता है।
किसी आदमी के पास विश्व की अत्यन्त मूल्यवान सारी वस्तुएँ हों लेकिन उसका चित्त यदि गुरुदेव के चरणकमलों में नहीं लगता हो तो समझो कि उसके पास कुछ भी नहीं है।
गुरुदेव की सेवा दिव्य प्रकाश, ज्ञान और कृपा को ग्रहण करने के लिए मन को तैयार करती है।
गुरुसेवा हृदय को विशाल बनाती है, सब अवरोधों को हटाती है, मन को हमेशा प्रगतिशील और होशियार रखती है। गुरुसेवा हृदयशुद्धि के लिए एक प्रभावशाली साधना है।
गुरुसेवा से ईर्ष्या, घृणा और दूसरों से उच्चतर होने का भाव नष्ट होता है।
जो शिष्य सदुगुरुदेव की सेवा करता है वह वास्तव में अपनी ही सेवा करता है।
शिष्य को चाहिए कि वह अपने गुरुदेव के समक्ष धीरे, मधुर वाणी में और सत्य बोले तथा कठोर एव गलीज शब्दों का प्रयोग न करे।
जो गुरु की निंदा करता है वह रौरव नर्क में गिरता है।
शिष्य जब गुरुदेव के सान्निध्य में रहता है तब उसका मन इन्द्रिय-विषयक भोग विलासों से विमुख हो जाता है।
राजसी प्रकृति का मनुष्य पूरे दिल से, पूरे अन्तःकरण से गुरु की सेवा नहीं कर सकता।
सदगुरुदेव के स्वरूप का ध्यान करते समय दिव्य आत्मिक आनन्द, रोमांच, शान्ति आदि का अनुभव होगा।
संसारी लोगों का संग, आवश्यकता से अधिक भोजन, अभिमानी राजसी प्रवृत्ति, निद्रा, काम, क्रोध, लोभ ये सब गुरुदेव के चिन्तन में अवरोध हैं।
गुरुभक्ति जन्म, मृत्यु और जरा को नष्ट करती है।
शिष्य लौकिक दृष्टि से कितना भी महान हो फिर भी सदगुरुदेव की सहायता के बिना निर्वाणसुख का स्वाद नहीं चख सकता।
गुरुदेव के चरणकमलों की रज में स्नान किये बिना मात्र तपश्चर्या करने से या वेदों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
गुरुदेव को शिष्य की सेवा या सहायता की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। फिर भी सेवा के द्वारा विकास करने के लिए शिष्य को वे एक मौका देते हं।
भवसागर में डूबते हुए शिष्य के लिए गुरुदेव जीवन संरक्षक नौका है।
गुरुदेव के चिन्तन से सुख, आन्तरिक शक्ति, मन की शांति और आनन्द प्राप्त होते हैं।
मन्त्रचैतन्य अर्थात् मन्त्र की गूढ़ शक्ति गुरुदेव की दीक्षा के द्वारा ही जागृत होती है।
गुरुदेव की सेवा किये बिना किया हुआ तप, तीर्थाटन और शास्त्रों का अध्ययन यह समय का दुर्व्यय मात्र है।
गुरुदक्षिणा दिये बिना गुरुदेव से किया हुआ पवित्र शास्त्रों का अभ्यास यह समय का दुर्व्यय मात्र है।
गुरुदेव की इच्छाओं को परिपूर्ण किये बिना वेदान्त के ग्रन्थ, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र का अभ्यास करने में कल्याण नहीं होता, ज्ञान नहीं मिलता।
चाहे जितने दार्शनिक ग्रन्थ पढ़ लो, समस्त विश्व का प्रवास करके व्याख्यान दो, हजारों वर्षों तक हिमालय की गुफा में रहो, वर्षों तक प्राणायाम करो, जीवनपर्यन्त शीर्षासन करो, फिर भी गुरुदेव की कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता।
गुरुदेव के चरणकमलों का आश्रय लेने से जो आनन्द का अनुभव होता है उसकी तुलना में त्रिलोकी का सुख कुछ भी नहीं है।
गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला सीधे नर्क में जाता है।
यदि तुम सच्चे हृदय से आतुरतापूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करोगे तो ईश्वर गुरु के स्वरूप में तुम्हारे पास आयेंगे।
सच्चे गुरु से अधिक प्रेमपूर्ण, अधिक हितैषी, अधिक कृपालु और अधिक प्रिय व्यक्ति इस विश्व में कोई नहीं हो सकता।
सत्संग का अर्थ है गुरु का सहवास। इस सत्संग के बिना मन ईश्वर की ओर नहीं मुड़ता।
गुरुदेव के साथ किया हुआ एक पल का सत्संग भी लाखों वर्ष किये हुए तप से कई गुना श्रेष्ठ है।
हे साधक ! मनमुखी साधना कभी नहीं करो। पूर्ण श्रद्धा एवं भक्तिभाव से युक्त गुरुमुखी साधना करो।
तुम्हारे बदले में गुरु साधना नहीं करेंगे। साधना तो तुमको स्वयं ही करनी पड़ेगी।
गुरुदेव तुमको उठाकर समाधि में रख देंगे ऐसे चमत्कार की अपेक्षा न करो। तुम खुद ही कठिन साधना करो। भूखे आदमी को स्वयं ही खाना पड़ता है।
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पवित्र और जीवनपर्यन्त का है यह बात ठीक-ठीक समझ लो।
अपने गुरुदेव की क्षतियाँ न देखो। अपनी क्षतियाँ देखो और उन्हें दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करो।
गुरुपद एक भयंकर शाप है।
सदगुरुदेव के चरणामृत से संसारसागर सूख जाता है और मनुष्य आत्म-संपदा को प्राप्त कर सकता है।
सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए गुरुदेव की अपरिहार्य आवश्यकता है।
सन्त, महात्मा और सदगुरुदेव के सत्संग का एक अवसर भी मत चूको।
अहंभाव का नाश करना यह शिष्यत्व का प्रारम्भ है।
शिष्यत्व की कुंजी है ब्रह्मचर्य और गुरुसेवा।
शिष्यत्व का चोला है गुरुभक्ति।
सदगुरुदेव के प्रति सम्पूर्णतया आज्ञापालन का भाव ही शिष्यत्व की नींव है।
गुरुदेव से मिलने की उत्कट इच्छा और उनकी सेवा करने की तीव्र आकांक्षा यह मुमुक्षुत्व की निशानी है।
ब्रह्मज्ञान अति सूक्ष्म है। संशय पैदा होते हैं। उनकी निवृत्ति करने के लिए और मार्ग दिखाने के लिए ब्रह्मज्ञानी गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है।
गुरुदेव के समक्ष हररो अपने दोष कबूल करो। तभी तुम इन दुन्यावी दुर्बलताओं से ऊपर उठ सकोगे।
दृष्टि, स्पर्श, विचार या शब्द के द्वारा गुरु अपने शिष्य का परिवर्तन कर सकते है।
गुरु तुम्हारे लिए विद्युत की डोली हैं। वे तुम्हें पूर्णता के शिखर पर पहुँचाते हैं।
जिससे आत्म-साक्षात्कार को गति मिले, जिससे जागृति प्राप्त हो उसे गुरुदीक्षा कहते हैं।
यदि तुम गुरु में ईश्वर को नहीं देख सकते तो और किसमें देख सकोगे ?
शिष्य जब गुरु के सान्निध्य में रहते हुए अपने गुरुबन्धुओं के अनुकूल होना नहीं जानता है तब घर्षण होता है। इससे गुरु नाराज होते हैं।
अधिक निद्रा करने वाला, जड़, स्थूल देहवाला, निष्क्रिय, आलसी और मूर्ख मन का शिष्य, गुरु सन्तुष्ट हों, इस प्रकार की सेवा नहीं कर सकता।
जिस शिष्य में तीव्र लगन का गुण होता है वह अपने गुरुदेव की सेवा में सफल होता है। उसे आबादी और अमरत्व प्राप्त होते हैं।
अपने पावन गुरुदेव के प्रति अच्छा बर्ताव परम सुख के धाम का पासपोर्ट है।
गुरुदक्षिणा देने से असंख्य पापों का नाश होता है।
अपने गुरुदेव के प्रति निभायी हुई सेवा यह नैतिक टॉनिक है। इससे मन और हृदय दैवी गुणों से भरपूर होते हैं, पुष्ट होते हैं।
अपने गुरु की सेवा करते करते, गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते करते जो सब कठिनाईयों के सहन करता है वह अपने प्राकृत स्वभाव को जीत लेता है।
कृतघ्न शिष्य इस दुनियाँ में हतभागी है, दुःखी है। उसका भाग्य दयनीय, शोचनीय और अफसोसजनक है।
सच्चे शिष्य को चाहिए कि वह अपने पूज्य गुरुदेव के चरणकमलों की प्रतिष्ठा अपने हृदय के सिंहासन पर करे।
गुरुदेव को मिलते ही शिष्य का सर्वप्रथम पावन कर्तव्य है कि उनको खूब नम्र भाव से प्रणाम करे।
यदि तुमको नल से पानी पीना हो तुम्हें नीचे झुकना पड़ेगा। उसी प्रकार यदि तुम्हें गुरुदेव के पावन मुखारविन्द से बहते हुए अमरत्व के पुण्यअमृत का पान करना हो तो तुम्हें नम्रता का प्रतीक होना पड़ेगा।
सदगुरुदेव के चरणकमलों की पूजा के लिए नम्रता के पुष्प से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई पुष्प नहीं है।
गुरुदेव के आदेशों में शंका न करना और उनके पालन में  आलस्य न करना यही गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने का दिखावा करता है। सच्चा शिष्य भीतर के शुद्ध प्रेम से गुरु की आज्ञा का पालन करता है।
गुरुदेव के वचनों में विश्वास रखना यह अमरत्व के द्वार खोलने की गुरुचाबी है।
जो मनुष्य विषयवासना का दास है वह गुरु की सेवा और आत्म समर्पण नहीं कर सकता है। फलतः वह संसार के कीचड़ से अपने को नहीं बचा सकता है।
गुरुदेव को धोखा देना मानों अपनी ही कब्र खोदना।
गुरुकृपा अणुशक्ति से भी ज्यादा शक्तिमान है।
शिष्य के ऊपर जो आपत्तियाँ आती हैं वे गुप्त वेश में गुरु के आशीर्वाद हैं।
गुरुदेव के चरणकमलों में आत्म-समर्पण करना यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए। साक्षात् ईश्वर-स्वरूप सदगुरुदेव के चरण-कमलों में आत्म-समर्पण करोगे तो वे तुम्हें भयस्थानों से बचायेंगे, साधना में तुम्हें प्रेरणा देंगे, अन्तिम लक्ष्य तक तुम्हारे पथप्रदर्शक बने रहेंगे।
सदगुरुदेव के प्रति श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है कि जो प्राप्त करने के बाद अन्य किसी चीज की प्राप्ति करना शेष नहीं रहता। इस श्रद्धा के द्वारा निमिष मात्र में तुम परम पदार्थ को प्राप्त कर लोगे।
साधक यदि श्रद्धा और भक्तिभाव से अपने गुरुदेव की सेवा नहीं करेगा तो जैसे कच्चे घड़े में से पानी टपक जाता है वैसे उसके व्रत-जप-तप सबके फल टपक जायेंगे।
शिष्य को चाहिए कि वह गुरुदेव को साक्षात ईश्वर माने। उनको मानव कभी नहीं माने।
जिससे गुरुचरणों के प्रति भक्तिभाव बड़े वह परम धर्म है।
नियम का अर्थ है गुरुमंत्र का जप, गुरुसेवा के दौरान तपश्चर्या गुरुवचन में श्रद्धा, गुरुदेव की सेवा, संतोष, पवित्रता, शास्त्रों का अध्ययन, गुरुभक्ति और गुरु की शरणागति।
तितिक्षा का अर्थ है गुरुदेव के आदेशों का पालन करते दुःख सहना।
त्याग का अर्थ है गुरुदेव के द्वारा निषिद्ध कर्मों का त्याग।
भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से कहते हैं - 'अति सौभाग्य से प्राप्त यह मानवदेह मजबूत नौका जैसा है। गुरु इस नौका का सुकान सँभालते हैं। इस नौका को चलानेवाला मैं (ब्रह्म) अनुकूल पवन हूँ। जो मनुष्य ऐसी नौका, ऐसे सुकानी और ऐसा अनुकूल पवन के होते हुए भी भवसागर पार करने का पुरुषार्थ नहीं करता वह सचमुच आत्मघाती है।'
गुरुदेव की अंगत सेवा यह सर्वोत्तम योग है।
क्रोध, लोभ, असत्य, क्रूरता, याचना, दंभ, झगड़ा, भ्रम, निराशा, शोक, दुःख, निद्रा, भय, आलस्य ये सब तमोगुण हैं। अनेकों जन्म लेने के बावजूद भई इनको जीता नहीं जाता। परंतु श्रद्धा एवं भक्ति से की हुई गुरुदेव की सेवा इन सब दुर्गुणों को नष्ट करती है।
साधक को चाहिए कि वह स्त्री का सहवास न करे। स्त्री सहवास के जो लालची हों उनका संभ भी न करे क्योंकि उससे मन क्षुब्ध हो जाता है। मन जब क्षुब्ध होता है तब शिष्य भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक गुरु की सेवा नहीं कर सकता है।
शिष्य यदि गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता तो उसकी साधना व्यर्थ है।
जिस प्रकार अग्नि के पास बैठने से ठंड, भय, अंधकार दूर होते हैं उसी प्रकार सदगुरु के सान्निध्य में रहने से अज्ञान, मृत्यु का भय और सब अनिष्ट होते हैं।
गुरुसेवा रूपी तीक्षण तलवार और ध्यान की सहायता से शिष्य मन, वचन, प्राण और देह के अहंकार को छेद देता है और सब रागद्वेष से मुक्त होकर इस संसार में स्वेच्छापूर्वक विहार करता है।
ज्ञान का प्रकाश देने वाली पवित्र गुरुगीता का जो अभ्यास करता है वह सचमुच विशुद्ध होता है और उसको मोक्ष मिलता है।
जैसे सूर्योदय होने से कुहरा नष्ट होता है वैसे ही परब्रह्म परमात्मा स्वरूप सदगुरुदेव के अज्ञाननाशक सान्निध्य में सब संशय निवृत्त हो जाते हैं।
साक्षात् ईश्वर जैसे सर्वोच्च पद को प्राप्त सदगुरु की जय जयकार हो। गुरुदेव के यश को गानेवाले धर्मशास्त्रों की जय जयकार हो। ऐसे सदगुरु का परम आश्रय जिसने लिया उस शिष्य की जय जयकार हो।
गुरुकृपा का लघुतम बिन्दु भी इस संसार के कष्ट से मनुष्य को मुक्त करने के लिए काफी है।
जो शिष्य अहंकार से भरा हुआ है और गुरु के वचन नहीं सुनता, आखिर में उसका नाश ही होता है।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरुदेव और ईश्वर में तनिक भी भेद नहीं है। दोनों एक, अभिन्न और अद्वैत हैं।
गुरुदेव का सान्निध्य साधक के लिए एक सलामत नौका है जो अंधकार के उस पार निर्भयता के किनारे पहुँचाती है। जो साधक अपने साधनापथ में ईमानदारी से और सच्चे हृदय से प्रयत्न करता है और ईश्वर साक्षात्कार के लिए तड़पता है उस योग्य शिष्य पर गुरुदेव की कृपा उतरती है।
आजकल शिष्य ऐश-आराम का जीवन जीते हुए और गुरु की आज्ञा का पालन किये बिना उनकी कृपा की आकांक्षा रखते हैं।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरुदेव की सेवा करने से तुम्हारे मोक्ष की समस्या अवश्य हल हो जायेगी।
राग द्वेष से मुक्त ऐसे सदगुरु का संग करने से मनुष्य आसक्ति रहित होता है। उसे वैराग्य प्राप्त होता है।
अपने मन पर संयम रखकर जो योगाभ्यास नहीं कर सकते हैं उनके लिए भक्तिपूर्वक गुरुदेव की सेवा करना ही एक मात्र उपाय है।
गुरुदेव शिष्य की कठिनाईयों और अवरोधों को जानते हैं। क्योंकि वे त्रिकालज्ञानी हैं। मनोमन उनकी प्रार्थना करो। वे तुम्हारे अवरोध दूर कर देंगे।
गुरुदेव की कृपा तो हरदम बरसती ही रहती है। शिष्य को चाहिए की वह केवल उनके वचनों में श्रद्धा रखे और उनके आदेशों का पालन करे।
सच्चे शिष्य के लिए गुरुवचन ही कायदा है।
गुरु का दास होना यह ईश्वर के समीप होने के बराबर है।
दंभी गुरुओं से सावधान रहना। ऐसे गुरु शास्त्रों को रट लेते हैं और शिष्यों को उनमें से दृष्टान्त भी देते हैं पर अपने दिये हुए उपदेशों का स्वयं आचरण नहीं कर सकते।
आलसी शिष्य को गुरुकृपा नहीं मिलती। राजसी स्वभाव के शिष्य को लोक कल्याण करने वाले गुरुदेव के कार्य समझ में नहीं आते।
किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले शिष्य को गुरुदेव की सलाह और आज्ञा लेनी चाहिए।
मुक्तात्मा गुरुदेव की सेवा, उनके उपदिष्ट शास्त्रों का अभ्यास, उनकी परम पावन मूर्ति का ध्यान यह गुरुभक्तियोग साधने के सुवर्णमार्ग हैं।
जो शिष्य नाम, कीर्ति, सत्ता, धन और विषयवासना के पीछे दौड़ता है उसके हृदय में सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव नहीं जाग सकता।
ऐसे वैसे किसी भी व्यक्ति को गुरु के रुप में नहीं स्वीकारना चाहिए और एकबार गुरु के रूप में स्वीकार करने के बाद किसी भी संयोगवश उनका त्याग नहीं करना चाहिए।
जब योग्य और अधिकारी साधक आध्यात्मिक मार्ग की दीक्षा लेने के लिए गुरु की खोज में जाता है तब ईश्वर उसके समक्ष गुरु के रूप में स्वयं प्रगट होते हैं और दीक्षा देते हैं।
जो शिष्य गुरुदेव के साथ एकता या तादात्म्य साधना चाहते हैं उनको संसार की क्षणभंगुर चीजों के प्रति संपूर्ण वैराग्य रखना चाहिए।
जो उच्चतर ज्ञान चित्त में आविर्भूत होता है वह विचारों के रूप में नहीं अपितु शक्ति के रूप में होता है। ऐसा ज्ञान देने वाले गुरु चित्त के साथ एक रूप होते हैं।
शिष्य जब उच्चतर दीक्षा के योग्य बनता है तब गुरु स्वयं उसको योग के रहस्यों की दीक्षा देते हैं।
गुरु के प्रति श्रद्धा पर्वतों को हिला सकती है। गुरुकृपा चमत्कार पैदा कर सकती है। हे वीर ! निःसंशय होकर आगे बढ़ो।
परमात्मा के साथ एकरूप बने हुए महान आध्यात्मिक महापुरुष की जो सेवा करता है वह संसार के कीचड़ को पार कर सकता है।
तुम यदि सांसारिक मनोवृत्तिवाले लोगों की सेवा करोगे तो तुमको सांसारिक लोगों के गुण मिलेंगे। परंतु जो निरन्तर परम सुख में निमग्न रहते हैं, जो सर्वगुणों के धाम हैं, जो साक्षात् प्रेमस्वरूप हैं ऐसे सदगुरुदेव के चरणकमलों की सेवा करोगे तो तुमको उनके गुण प्राप्त होंगे। अतः उन्हीं की सेवा करो, सेवा करो, बस सेवा करो।

Tuesday, February 8, 2011



मातृ-पितृ पूजन  पुस्तक से - Matri-Pitri Pujan pustak se

'वैलेन्टाइन डे' कैसे शुरू हुआ ? और आज...... - 'Valentine Day' Kaise shuru hua? Aur aaj......

रोम के राजा क्लाउडियस ब्रह्मचर्य की महिमा से परिचित रहे होंगे, इसलिए उन्होंने अपने सैनिकों को शादी करने के लिए मना किया था, ताकि वे शारीरिक बल और मानसिक दक्षता से युद्ध में विजय प्राप्त कर सकें। सैनिकों को शादी करने के लिए ज़बरदस्ती मना किया गया था, इसलिए संत वेलेन्टाइन जो स्वयं इसाई पादरी होने के कारण ब्रह्मचर्य के विरोधी नहीं हो सकते थे, ने गुप्त ढंग से उनकी शादियाँ कराईं। राजा ने उन्हे दोषी घोषित किया और उन्हें फाँसी दे दी गयी। सन् 496 से पोप गैलेसियस ने उनकी याद में वेलेन्टाइन डे मनाना शुरू किया।
वेलेन्टाइन डे मनाने वाले लोग संत वेलेन्टाइन का ही अपमान करते हैं क्योंकि वे शादी के पहले ही अपने प्रेमास्पद को वेलेन्टाइन कार्ड भेजकर उनसे प्रणय-संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं। यदि संत वेलेन्टाइन इससे सहमत होते तो वे शादियाँ कराते ही नहीं।
अतः भारत के युवान-युवतियाँ शादी से पहले प्रेमदिवस के बहाने अपने ओज-तेज-वीर्य का नाश करके सर्वनाश न करें और मानवमात्र के परम हितकारी पूज्य बापू जी के मार्गदर्शन में अपने यौवन-धन, स्वास्थ्य और बुद्धि की सुरक्षा करें। मातृ-पितृ पूजन दिवस मनायें।
डॉ. प्रे.खो. मकवाणा।

विश्वमानव की मंगलकामना से भरे पूज्य संत श्री आसारामजी बापू का परम हितकारी संदेश

प्रेम-दिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर विनाशकारी कामविकार का विकास हो रहा है, जो आगे चलकर चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, खोखलापन, जल्दी बुढ़ापा और मौत लाने वाला साबित होगा। अतः भारतवासी इस अंधपरंपरा से सावधान हों !
'इन्नोसन्टी रिपोर्ट कार्ड' के अनुसार 28 विकसित देशों में हर साल 13 से 19 वर्ष की 12 लाख 50 हजार किशोरियाँ गर्भवती हो जाती हैं। उनमें से 5 लाख गर्भपात कराती हैं और 7 लाख 50 हजार कुँवारी माता बन जाती हैं। अमेरिका में हर साल 4 लाख 94 हजार अनाथ बच्चे जन्म लेते हैं और 30 लाख किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों के शिकार होते हैं।
यौन संबन्ध करने वालों में 25% किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों से पीड़ित हैं। असुरिक्षित यौन संबंध करने वालों में 50% को गोनोरिया, 33% को जैनिटल हर्पिस और एक प्रतिशत के एड्स का रोग होने की संभावना है। एडस के नये रोगियों में 25% 22 वर्ष से छोटी उम्र के होते हैं। आज अमेरिका के 33% स्कूलों में यौन शिक्षा के अंतर्गत 'केवल संयम' की शिक्षा दी जाती है। इसके लिए अमेरिका ने 40 करोड़ से अधिक डॉलर (20 अरब रूपये) खर्च किये हैं।
प्रेम दिवस जरूर मनायें लेकिन प्रेमदिवस में संयम और सच्चा विकास लाना चाहिए। युवक युवती मिलेंगे तो विनाश-दिवस बनेगा। इस दिन बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता का पूजन करें और उनके सिर पर पुष्ष रखें, प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतानों को प्रेम करें। संतान अपने माता-पिता के गले लगे। इससे वास्तविक प्रेम का विकास होगा। बेटे-बेटियाँ माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों में ईश्वरीय अंश देखें।
तुम भारत के लाल और भारत की लालियाँ (बेटियाँ) हो। प्रेमदिवस मनाओ, अपने माता-पिता का सम्मान करो और माता-पिता बच्चों को स्नेह करें। करोगे न बेटे ऐसा! पाश्चात्य लोग विनाश की ओर जा रहे हैं। वे लोग ऐसे दिवस मनाकर यौन रोगों का घर बन रहे हैं, अशांति की आग में तप रहे हैं। उनकी नकल तो नहीं करोगे ?
मेरे प्यारे युवक-युवतियों और उनके माता-पिता ! आप भारतवासी हैं। दूरदृष्टि के धनी ऋषि-मुनियों की संतान हैं। प्रेमदिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर बच्चों, युवान-युवतियों के ओज-तेज का नाश हो, ऐसे दिवस का त्याग करके माता-पिता और संतानों प्रभु के नाते एक-दूसरे को प्रेम करके अपने दिल के परमेश्वर को छलकने दें। काम विकार नहीं, रामरस, प्रभुप्रेम, प्रभुरस....
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। बालिकादेवो भव।
कन्यादेवो भव। पुत्रदेवो भव।
माता पिता का पूजन करने से काम राम में बदलेगा, अहंकार प्रेम में बदलेगा, माता-पिता के आशीर्वाद से बच्चों का मंगल होगा।
पाश्चात्यों का अनुकरण आप क्यों करो? आपका अनुकरण करके वे सदभागी हो जायें।
जो राष्ट्रभक्त नागरिक यह राष्ट्रहित का कार्य करके भावी सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण में साझीदार हो रहे हैं वे धनभागी हैं और जो होने वाले हैं उनका भी आवाहन किया जाता है।

कैसे मनायें 'मातृ-पितृ पूजन दिवस'?

माता-पिता को स्वच्छ तथा ऊँचे आसन पर बैठायें।
बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता के माथे पर कुंकुम का तिलक करें।
तत्पश्चात् माता-पिता के सिर पर पुष्प अर्पण करें तथा फूलमाला पहनायें।
माता-पिता भी बच्चे-बच्चियों के माथे पर तिलक करें एवं सिर पर पुष्प रखें। फिर अपने गले की फूलमाला बच्चों को पहनायें।
बच्चे-बच्चियाँ थाली में दीपक जलाकर माता-पिता की आरती करें और अपने माता-पिता एवं गुरू में ईश्वरीय भाव जगाते हुए उनकी सेवा करने का दृढ़ संकल्प करें।
बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता के एवं माता-पिता बच्चों के सिर पर अक्षत एवं पुष्पों की वर्षा करें।
तत्पश्चात् बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करें।
बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता को झुककर विधिवत प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतान को प्रेम से सहलायें। संतान अपने माता-पिता के गले लगे। बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों से ईश्वरीय अंश देखें।
इस दिन बच्चे-बच्चियाँ पवित्र संकल्प करें- "मैं अपने माता-पिता व गुरुजनों का आदर करूँगा/करूँगी। मेरे जीवन को महानता के रास्ते ले जाने वाली उनकी आज्ञाओं का पालन करना मेरा कर्तव्य है और मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा/करूँगी।"
इस समय माता-पिता अपने बच्चों पर स्नेहमय आशीष बरसाये एवं उनके मंगलमय जीवन के लिए इस प्रकार शुभ संकल्प करें- "तुम्हारे जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति व पराक्रम की वृद्धि हो। तुम्हारा जीवन माता-पिता एवं गुरू की भक्ति से महक उठे। तुम्हारे कार्यों में कुशलता आये। तुम त्रिलोचन  बनो – तुम्हारी बाहर की आँख के साथ भीतरी विवेक की कल्याणकारी आँख जागृत हो। तुम पुरूषार्थी बनो और हर क्षेत्र में सफलता तुम्हारे चरण चूमे।"
बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता को 'मधुर-प्रसाद' खिलायें एवं माता-पिता अपने बच्चों को प्रसाद खिलायें।
बालक गणेशजी की पृथ्वी-परिक्रमा, भक्त पुण्डलीक की मातृ-पितृ भक्ति – इन कथाओं का पठन करें अथवा कोई एक व्यक्ति कथा सुनायें और अन्य लोग श्रवण करें।
माता-पिता 'बाल-संस्कार', दिव्य प्रेरणा-प्रकाश', 'तू गुलाब होकर महक', 'मधुर व्यवहार' – इन पुस्तकों को अपनी क्षमतानुरूप बाँटे-बँटवायें तथा प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा स्वयं पढ़ने का व बच्चों से पढ़ने का संकल्प लें।
श्री गणेश, पुण्डलीक, श्रवणकुमार आदि मातृ-पितृ भक्तों की कथाओं को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।
इन दिन सभी मिलकर 'श्री आसारामायण' पाठ व आरती करके बच्चों को मधुर प्रसाद बाँटे।
नीचे लिखी पंक्तियों जैसी मातृ-पितृ भक्ति की कुछ पंक्तियाँ गले पर लिखके बोर्ड बनाकर आयोजन स्थल पर लगायें।
बहुत रात तक पैर दबाते, भरें कंठ पितु आशीष पाते।
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव।
माता-पिता और गुरूजनों का आदर करने वाला चिरआदरणीय हो जाता है।
माता पिता का सम्मान।
परम पूज्य बापू जी

अभिभावकों एवं बाल संस्कार केन्द्र शिक्षकों के लिए निवेदन

दिनांक 14 फरवरी को अपने-अपने घर में अथवा सामूहिक रूप से विद्यालय में आयोजन कर 'मातृ-पितृ पूजन दिवस' मनायें। बाल संस्कार केन्द्र शिक्षक अपने केन्द्र में बच्चों के माता-पिता को बुलाकर सामूहिक कार्यक्रम कर सकते हैं। युवा सेवा संघ में भी इसे मनायें। पूज्य श्री के पावन संदेश को (जो अगले पृष्ठ पर है) अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाये। अपने क्षेत्र के समाचार पत्र में पूज्य श्री का संदेश प्रकाशित करवायें।

मातृ-पितृ-गुरू भक्ति

अपनी भारतीय संस्कृति बालकों को छोटी उम्र में ही बड़ी ऊँचाईयों पर ले जाना चाहती है। इसमें सरल छोटे-छोटे सूत्रों द्वारा ऊँचा, कल्याणकारी ज्ञान बच्चों के हृदय में बैठाने की सुन्दर व्यवस्था है।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। माता-पिता एवं गुरू हमारे हितैषी है, अतः हम उनका आदर तो करें ही, साथ ही साथ उनमें भगवान के दर्शन कर उन्हें प्रणाम करें, उनका पूजन करें। आज्ञापालन के लिए आदरभाव पर्याप्त है परन्तु उसमें प्रेम की मिठास लाने के लिए पूज्यभाव आवश्यक है। पूज्यभाव से आज्ञापालन बंधनरूप न बनकर पूजारूप पवित्र, रसमय एवं सहज कर्म हो जाएगा।
पानी को ऊपर चढ़ाना हो तो बल लगाना पड़ता है। लिफ्ट से कुछ ऊपर ले जाना हो तो ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। पानी को भाप बनकर ऊपर उठना हो तो ताप सहना पड़ता है। गुल्ली को ऊपर उठने के लिए डंडा सहना पड़ता है। परन्तु प्यारे विद्यार्थियो! कैसी अनोखी है अपनी भारतीय सनातन संस्कृति कि जिसके ऋषियों महापुरूषों ने इस सूत्र द्वारा जीवन उन्नति को एक सहज, आनंददायक खेल बना दिया।
इस सूत्र को जिन्होंने भी अपना बना लिया वे खुद आदरणीय बन गये, पूजनीय बन गये। भगवान श्रीरामजी ने माता-पिता व गुरू को देव मानकर उनके आदर पूजन की ऐसी मर्यादा स्थापित की कि आज भी मर्यादापुरूषोत्तम श्रीरामजी की जय कह कर उनकी यशोगाथा गायी जाती है। भगवान श्री कृष्ण ने नंदनंदन, यशोदानंदन बनकर नंद-घर में आनंद की वर्षा की, उनकी प्रसन्नता प्राप्त की तथा गुरू सांदीपनी के आश्रम में रहकर उनकी खूब प्रेम एवं निष्ठापूर्वक सेवा की। उन्होंने युधिष्ठिर महाराज के राजसूय यज्ञ में उपस्थित गुरूजनों, संत-महापुरूषों एवं ब्राह्मणों के चरण पखारने की सेवा भी अपने जिम्मे ली थी। उनकी ऐसी कर्म-कुशलता ने उन्हें कर्मयोगी भगवान श्री कृष्ण के रूप में जन-जन के दिलों में पूजनीय स्थान दिला दिया। मातृ-पितृ एवं गुरू भक्ति की पावन माला में भगवान गणेशजी, पितामह भीष्म, श्रवणकुमार, पुण्डलिक, आरूणि, उपमन्यु, तोटकाचार्य आदि कई सुरभित पुष्प हैं।
तोटक नाम का आद्य शंकराचार्य जी का शिष्य, जिसे अन्य शिष्य अज्ञानी, मूर्ख कहते थे, उसने आचार्यदेवो भव सूत्र को दृढ़ता से पकड़ लिया। परिणाम सभी जानते हैं कि सदगुरू की कृपा से उसे बिना पढ़े ही सभी शास्त्रों का ज्ञान हो गया और वे तोटकाचार्य के रूप में विख्यात व सम्मानित हुआ। वर्तमान युग का एक बालक बचपन में देर रात तक अपने पिताश्री के चरण दबाता था। उसके पिता जी उसे बार-बार कहते - बेटा! अब सो जाओ। बहुत रात हो गयी है। फिर भी वह प्रेम पूर्वक आग्रह करते हुए सेवा में लगा रहता था। उसके पूज्य पिता अपने पुत्र की अथक सेवा से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देते -
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।
अपनी माताश्री की भी उसने उनके जीवन के आखिरी क्षण तक खूब सेवा की।
युवावस्था प्राप्त होने पर उस बालक भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भांति गुरू के श्रीचरणों में खूब आदर प्रेम रखते हुए सेवा तपोमय जीवन बिताया। गुरूद्वार पर सहे वे कसौटी-दुःख उसके लिए आखिर परम सुख के दाता साबित हुए। आज वही बालक महान संत के रूप में विश्ववंदनीय होकर करोड़ों-करोड़ों लोगों के द्वारा पूजित हो रहा है। ये महापुरूष अपने सत्संग में यदा-कदा अपने गुरूद्वार के जीवन प्रसंगों का जिक्र करके कबीरजी का यह दोहा दोहराते हैं -
गुरू के सम्मुख जाये के सहे कसौटी दुःख। कह कबीर ता दुःख पर कोटि वारूँ सुख।।
सदगुरू जैसा परम हितैषी संसार में दूसरा कोई नहीं है। आचार्यदेवो भव, यह शास्त्र-वचन मात्र वचन नहीं है। यह सभी महापुरूषों का अपना अनुभव है।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। यह सूत्र इन महापुरूष के जीवन में मूर्तिमान बनकर प्रकाशित हो रहा है और इसी की फलसिद्धि है कि इनकी पूजनीया माताश्री व सदगुरूदेव - दोनों ने अंतिम क्षणों में अपना शीश अपने प्रिय पुत्र व शिष्य की गोद में रखना पसंद किया। खोजो तो उस बालक का नाम जिसने मातृ-पितृ-गुरू भक्ति की ऐसी पावन मिसाल कायम की।
आज के बालकों को इन उदाहरणों से मातृ-पितृ-गुरूभक्ति की शिक्षा लेकर माता-पिता एवं गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करते हुए अपने जीवन को उन्नति के रास्ते ले जाना चाहिए।

माता-पिता-गुरु की सेवा का महत्त्व

शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता तथा गुरू का आदर कर लिया उसके द्वारा संपूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके संपूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन्होंने माता-पिता और गुरू की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया। ऐसा ही एक भाग्यशाली सपूत था - पुण्डलिक।
पुण्डलिक अपनी युवावस्था में तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। यात्रा करते-करते काशी पहुँचा। काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद उसने लोगों से पूछाः क्या यहाँ कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं, जिनके दर्शन करने से हृदय को शांति मिले और ज्ञान प्राप्त हो?
लोगों ने कहाः हाँ हैं। गंगापर कुक्कुर मुनि का आश्रम है। वे पहुँचे हुए आत्मज्ञान संत हैं। वे सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे इतनी उँची कमाई के धनी हैं कि साक्षात माँ गंगा, माँ यमुना और माँ सरस्वती उनके आश्रम में रसोईघर की सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। पुण्डलिक के मन में कुक्कुर मुनि से मिलने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। पता पूछते-पूछते वह पहुँच गया कुक्कुर मुनि के आश्रम में। मुनि के देखकर पुण्डलिक ने मन ही मन प्रणाम किया और सत्संग वचन सुने। इसके पश्चात पुण्डलिक मौका पाकर एकांत में मुनि से मिलने गया। मुनि ने पूछाः वत्स! तुम कहाँ से आ रहे हो?
पुण्डलिकः मैं पंढरपुर (महाराष्ट्र) से आया हूँ।
तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं?
हाँ हैं।
तुम्हारे गुरू हैं?
हाँ, हमारे गुरू ब्रह्मज्ञानी हैं।
कुक्कुर मुनि रूष्ट होकर बोलेः पुण्डलिक! तू बड़ा मूर्ख है। माता-पिता विद्यमान हैं, ब्रह्मज्ञानी गुरू हैं फिर भी तीर्थ करने के लिए भटक रहा है? अरे पुण्डलिक! मैंने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मैं तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू ध्यान से सुन।
एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि, कौन बड़ा?
निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास। शिव-पार्वती ने कहाः जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जाएगा।
कार्तिकेय तुरन्त अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा तो झट से उन्हें उपाय मिल गया। जो ध्यान करते हैं, शांत बैठते हैं उन्हें अंतर्यामी परमात्मा सत्प्रेरणा देते हैं। अतः किसी कठिनाई के समय घबराना नहीं चाहिए बल्कि भगवान का ध्यान करके थोड़ी देर शांत बैठो तो आपको जल्द ही उस समस्या का समाधान मिल जायेगा।
फिर गणपति जी आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़ कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया.... दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया.... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणा कर ली।
शिव-पार्वती ने पूछाः वत्स! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की?
गणपतिजीः सर्वतीर्थमयी माता... सर्वदेवमयो पिता... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर लीं हैं। तब से गणपति जी प्रथम पूज्य हो गये।
शिव-पुराण में आता हैः
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्।।
अपहाय गृहे यो वै पितरौ तीर्थमाव्रजेत।
तस्य पापं तथा प्रोक्तं हनने च तयोर्यथा।।
पुत्रस्य य महत्तीर्थं पित्रोश्चरणपंकजम्।
अन्यतीर्थं तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः।।
इदं संनिहितं तीर्थं सुलभं धर्मसाधनम्।
पुत्रस्य च स्त्रियाश्चैव तीर्थं गेहे सुशोभनम्।।
जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़ कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं।
(शिव पुराण, रूद्र सं.. कु खं.. - 20)
पुण्डलिक मैंने यह कथा सुनी और अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। यदि मेरे माता-पिता में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं उस कमी को अपने जीवन में नहीं लाता था और अपनी श्रद्धा को भी कम नहीं होने देता था। मेरे माता-पिता प्रसन्न हुए। उनका आशीर्वाद मुझ पर बरसा। फिर मुझ पर मेरे गुरूदेव की कृपा बरसी इसीलिए मेरी ब्रह्मज्ञान में स्थिति हुई और मुझे योग में भी सफलता मिली। माता-पिता की सेवा के कारण मेरा हृदय भक्तिभाव से भरा है। मुझे किसी अन्य इष्टदेव की भक्ति करने की कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदवो भव।
मंदिर में तो पत्थर की मूर्ति में भगवान की कामना की जाती है जबकि माता-पिता तथा गुरूदेव में तो सचमुच परमात्मदेव हैं, ऐसा मानकर मैंने उनकी प्रसन्नता प्राप्त की। फिर तो मुझे न वर्षों तक तप करना पड़ा, न ही अन्य विधि-विधानों की कोई मेहनत करनी पड़ी। तुझे भी पता है कि यहाँ के रसोईघर में स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती आती हैं। तीर्थ भी ब्रह्मज्ञानी के द्वार पर पावन होने के लिए आते हैं। ऐसा ब्रह्मज्ञान माता-पिता की सेवा और ब्रह्मज्ञानी गुरू की कृपा से मुझे मिला है।
पुण्डलिक तेरे माता-पिता जीवित हैं और तू तीर्थों में भटक रहा है?
पुण्डलिक को अपनी गल्ती का एहसास हुआ। उसने कुक्कुर मुनि को प्रणाम किया और पंढरपुर आकर माता-पिता की सेवा में लग गया।
माता-पिता की सेवा ही उसने प्रभु की सेवा मान ली। माता-पिता के प्रति उसकी सेवानिष्ठा देखकर भगवान नारायण बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं उसके समक्ष प्रकट हुए। पुण्डलिक उस समय माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान को बैठने के लिए एक ईंट दी।
अभी भी पंढरपुर में पुण्डलिक की दी हुई ईंट पर भगवान विष्णु खड़े हैं और पुण्डलिक की मातृ-पितृभक्ति की खबर दे रहा है पंढरपुर तीर्थ।
यह भी देखा गया है कि जिन्होंने अपने माता-पिता तथा ब्रह्मज्ञानी गुरू को रिझा लिया है, वे भगवान के तुल्य पूजे जाते हैं। उनको रिझाने के लिए पूरी दुनिया लालायित रहती है। वे मातृ-पितृभक्ति से और गुरूभक्ति से इतने महान हो जाते हैं।

शास्त्र-वचनामृत

यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा।
न सुप्रतिकरं तत्तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम्।।
'माता और पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं, उपकार करते हैं, उसका प्रत्युपकार सहज ही नहीं चुकाया जा सकता है।'
(वाल्मीकि रामायणः 2.111.9)
माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।
'माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है और पिता आकाश से भी ऊँचे (श्रेष्ठ) हैं।'
(महाभारत, वनपर्वणि, आरण्येव पर्वः 313.60)
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
'जो माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।'
(मनुस्मृतिः 2.121)
मातापित्रोस्तु यः पादौ नित्यं प्रक्षालयेत् सुतः।
तस्य भागीरथीस्नानं अहन्यहनि जायते।।
'जो पुत्र प्रतिदिन माता और पिता के चरण पखारता है, उसका नित्यप्रति गंगा-स्नान हो जाता है।'
(पद्म पुराण, भूमि खंडः 62.74)

संत-वचनामृत

जो अपने माता-पिता का नहीं, वह अन्य किसका होगा ! जिनके कष्टों और अश्रुओं की शक्ति से अस्तित्व प्राप्त किया, उन्हीं के प्रति अनास्था रखने वाला व्यक्ति पत्नी, पुत्र, भाई और समाज के प्रति क्या आस्था रखेगा ! ऐसे पाखण्डी से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
बोधायन ऋषि
माता-पिता एवं गुरू का त्याग करने वाला, उनकी निंदा करने वाला, उन्हें प्रताड़ित करने वाला मनुष्य समस्त वेदों का ज्ञाता होने पर भी यज्ञादि को करने का अधिकारी नहीं होता। ऐसे मूढ़, अहंकारी और निकृष्ट प्राणी को दान देने वाला, भोजन कराने वाला या उसकी सेवा करने वाला भी नरकगामी होता है।
महर्षि याज्ञवल्क्यजी
माता-पिता के प्रति अश्रद्धा रखकर उन्हें अपमानित  करने वाले और उनके प्रति निंदा का भाव रखकर उन्हें दुःखी करने वाले व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है। उसे पितरों का आशीर्वाद नहीं मिलता।
कात्यायन ऋषि
माता-पिता और आचार्य – ये तीन व्यक्ति के अतिगुरु (श्रेष्ठ गुरु) कहलाते हैं। इसलिए उनकी आज्ञा का पालन करना, सेवा करना, उनके लिए हितकारी कार्य करना और उनको दुःखी न करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
अंगिरा ऋषि
माता-पिता और गुरुजनों का आदर करने वाला चिरआदरणीय हो जाता है। आप भी माता-पिता व गुरुजनों की आदर से सेवा करके उनके ऋण से उऋण बनें। आप आदर्श बालक बनें, संतों के आशीर्वाद आपके साथ हैं।