पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, August 30, 2011

क्या करें, न करें ?  पुस्तक से -  Kya Karen, na Karen ?  pustak se
नीतिज्ञान - Nitigyan

भगवान ब्रह्माजी के तीसरे मानसपुत्र भृगु के पुत्र महर्षि शुक्राचार्य ने नीतियों में श्रेष्ठ नीतिशास्त्र को कहा, जिसे भगवान ब्रह्मा ने लोकहितार्थ पूर्व में ही शुक्राचार्य से कहा था। इस 'शुक्रनीति' के वचन प्रत्येक जटिल परिस्थिति में सुपथ दिखाने वाले, समाज को एक नयी दिशा प्रदान करने वाले हैं।

गुरुजनों के तथा राजा के आगे उनसे ऊँचे आसन पर या पैर के ऊपर पैर रखकर नहीं बैठना चाहिए और उनके वाक्यों का तर्क द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए। दान, मान और सेवा से अत्यंतत पूज्यों की सदा पूजा करें।

किसी भी प्रकार से सूर्य की ओर देर तक न देखें। सिर पर बहुत भारी बोझ लेकर न चलें। इसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म, अत्यंत चमकीली, अपवित्र और अप्रिय वस्तुओं को देर तक नहीं देखना चाहिए।

मल-मूत्रादि वेगों को रोके हुए किसी कार्य को करने में प्रवृत्त न हो और उक्त वेगों को बलपूर्वक न रोके।

परस्पर बातचीत करते हुए दो व्यक्तियों के बीच में से नहीं निकलना चाहिए।

गुरुजन, बलवान, रोगी, शव, राजा, माननीय व्यक्ति, व्रतशील और यान (सवारी) पर जाने वाले के लिए स्वयं हटकर मार्ग दे देना चाहिए।

परस्त्री की कामना करने वाले बहुत से मनुष्य संसार में नष्ट हो गये, जिनमें इन्द्र, दण्डक्य, नहुष, रावण आदि के उदाहरण प्रसिद्ध हैं।

महान ऐश्वर्य प्राप्त करके भी पुत्र को पिता की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए क्योंकि पुत्र के लिए पिता की आज्ञा का पालन करना परम भूषण है। (शुक्रनीतिः 2.37.38)

मनुष्य को सदा दूर का सोचने वाला, समयानुसार सूझबूझवाला तथा साहसी बनना चाहिए, आलसी और दीर्घसूत्री नहीं होना चाहिए।

चाहे वह कुबेर ही क्यों न हो, किसी का भी संचित धन नित्य धनागमन के बिना इच्छानुसार व्यय करने के लिए पर्याप्त नहीं होता अर्थात् एक दिन समाप्त हो जाता है, अतः आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए।

सर्वदा विश्वासपात्र किसी व्यक्ति का यहाँ तक कि पुत्र, भाई, स्त्री, अमात्य (मंत्री) या अधिकारी पुरुष का भी अत्यन्त विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यक्ति को धन, स्त्री तथा राज्य का लोभ अधिक रूप से होता है। अतः प्रामाणिक, सुपरिचित एवं हितैषी लोगों का सर्वत्र विश्वास करना चाहिए।

छिपकर विश्वासपात्र के कार्यों की परीक्षा करें और परीक्षा करने के बाद विश्वासपात्र निकले तो उसके वचनों को निःसंदेह सर्वताभावेन मान लें।

मनुष्य अपने आपत्काल में किसी बलवान मनुष्य की बुरी सत्य बात भी कहने के लिए मूक (गूँगा) बन जाये, किसी के दोष देखने के लिए अंधा, बुराई सुनने के लिए बहरा र बुराई प्रकट करने के लिए भागदौड़ में लँगड़ा बन जाय। इससे विपरीत आचरण करने पर मनुष्य दुःख उठाता है और व्यवहार से गिर जाता है।

जिस समय जो कार्य करना उचित हो, उसे शंकारहित होकर तुरंत कर डाले क्योंकि समय पर हुई वृष्टि धान्य आदि की अत्यन्त पुष्टि और समृद्धि का कारण बनती है तथा असमय की वृष्टि धान्य आदि का महानाश कर देती है।

स्वजनों के साथ विरोध, बलवान के साथ स्पर्धा तथा स्त्री, बालक, वृद्ध और मूर्खों के साथ विवाद नहीं करना चाहिए।

बुद्धिमान पुरुष अपमान को आगे और सम्मान को पीछे रखकर अपने कार्य को सिद्ध करे क्योंकि कार्य का बिगड़ जाना ही मूर्खता है।

एक साथ अनेक कार्यों का आरम्भ करना कभी भी सुखदायक नहीं होता। आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरे कार्य को आरम्भ नहीं करना चाहिए।

आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरा कार्य आरम्भ करने से पहला कार्य संपन्न नहीं हो पाता और दूसरा कार्य भी पड़ा रह जाता है, अतः बुद्धिमान मनुष्य उसी कार्य को आरम्भ करे जो सुखपूर्वक समाप्त हो जाये।

अत्यधिक भ्रमण, बहुत अधिक उपवास, अत्यधिक मैथुन और अत्यंत परिश्रम – ये चारों बातें सभी मनुष्यों के लिए बहुत शीघ्र बुढ़ापा लाने वाली होती है।

जिसको जिस कार्य पर नियुक्त किया गया हो, वह उसी कार्य को करने में तत्पर रहे, किसी दूसरे के अधिकार को छीनने की इच्छा न करे और किसी के साथ ईर्ष्या न करे।

जो मनुष्य मधुर वचन बोलते हैं और अपने प्रिय का सत्कार करना चाहते हैं, ऐसे प्रशंसनीय चरित्रवाले श्रीमान लोग मनुष्यरूप में देवता ही है।

Tuesday, August 16, 2011



श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Sri Krishna Darshan pustak se


अदभुत प्राणोपासना - Adbhut Pranopasna

श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण में श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
"जो अपने आत्मदेव में स्फुरण पैदा होता है वह क्षणमात्र में योजनपर्यंत जाता है। उस स्फुरण के आधार को जानकर हे रामजी ! तुम स्थिर हो जाओ।"
बहुत ऊँची बात है। हम होते यहाँ   हैं और मीलों दूर हमारा मन जाता है। .....वापस आता है.... दूसरी जगह जाता है.... वापस आता है....तीसरी जगह जाता है। अभी मन में कुछ विचार चल रहे हैं, दस मिनट के बाद कौन-से विचार आयेंगे कोई पता नहीं। इस प्रकार असंख्य विचार मन से बहते रहते हैं... असंख्य। जैसे सरोवर या सागर के जल में तरंग उठते हैं वैसे ही हमारे शुद्ध आत्मदेव की सत्ता लेकर मन में असंख्य विचार-तरंग उठते हैं जिसे मन का स्फुरण कहा जाता है। जहाँ से यह स्फुरण उठता है उस आत्मदेव को सिर्फ तीन मिनट के लिए भी अगर कोई जान लेता है तो वह धर्म के फल को प्राप्त कर लेता है। वह योगी हो तो उसका योग सिद्ध हो जाता है, तपस्वी हो तो उसका तप सफल हो जाता है, जपी हो तो उसका जपानुष्ठान सार्थक हो जाता है, वह त्यागी हो तो उसका त्याग पूर्णत्व को पा लेता है। ऐसा ऊँचा अनुभव होता है।
ऐसी बात पढ़ जाते हैं, सुन लेते हैं लेकिन सूक्ष्मता से यह बात अगर पकड़ में आ जाय तो निहाल हो जायें, बेड़ा पार हो जाय।
ऐसी बातें सूक्ष्मता से पकड़ नहीं पाते इसका क्या कारण है ? कारण यह है कि अपने चित्त में बिनजरूरी कचरा खूब भर लेते हैं। इसलिए सूक्ष्म सत्त्व, सूक्ष्म तत्त्व में हमारा चित्त प्रवेश नहीं कर पाता। वह सत्त्व उपासकों का ईश्वर होकर दिखता है, भक्तों का भगवान होकर दिखता है। शक्ति के उपासक उसको शक्ति मानते हैं, जगदम्बा के आराधक उसे माँ मानते हैं, गुरूभक्त उसे गुरू मानते हैं। है वही एक ही सत्त्व।
शुद्ध चैतन्य में से जो स्पन्दन पैदा होते हैं वे स्पन्दन बेमाप होते हैं। अगर चैतन्य की स्पन्दनरहित अवस्था में पहुँच जायें तो बेड़ा पार हो जाय। नहीं जा पाते, इसका कारण यह है कि उसके लिए तत्परता नहीं है। वहाँ ले जानेवाले महापुरूषों का समागम जल्दी से हो नहीं पाता। महापुरूष भी मिल गये और थोड़ी बहुत तत्परता भी है लेकिन चित्त में बिनजरूरी कचरा भरने की आदत पुरानी है।
आधुनिक युग के चाणक्य नीतिवाले, मानो आधुनिक चाणक्य सरदार वल्लभाई पटेल किशोरावस्था में नड़ियाद की स्कूल में पढ़ते थे तब की घटना है। एक दिन स्कूल में मास्टर कुछ बोले जा रहे थे। वल्लभ को लगा कि सब व्यर्थ प्रलाप हो रहा है। वे सुना-अनसुना करके मीठी नींद लेने लगे। मास्टर को लगा कि मैं छात्रों को पढ़ा रहा हूँ, बोले जा रहा हूँ और उद्दण्ड लड़का सो रहा है बेपरवाह होकर ? जगाकर धमकायाः
"ऐ लड़के ! क्या कर रहा है ? मैं इतना सिखा रहा हूँ और तू खर्राटे भर रहा है, बदतमीज !"
विवेकी और अपने मस्तिष्क में व्यर्थ बातें नहीं भरने वाले वल्लभ ने बढ़िया जवाब दियाः
"मास्टर जी ! बुरा न मानना। आप जो बोलते हैं वह सब अपने दिमाग में भरता रहूँ तो आप जो नहीं जानते हैं वह भरने के लिए जगह कहाँ से लाऊँ ? इसलिए जानबूझकर दिमाग को विश्रांति दे रहा हूँ।"
ऐसे लोगों में आत्मविश्वास होता है। व्यर्थ बातें अपनी खोपड़ी में नहीं भरो। सामने वाला जो जानता है वह सब अपनी खोपड़ी में भरना है ? हलवाई की दुकान पर जाकर सब मिठाई लेने की है ? किराने की दुकान पर जाओ तो सारी चीजें ले लोगे ?
तुम कहीं भी जाते हो, वहाँ जो कुछ मिलता है, अपने चित्त में भरते रहते हो। बस में बैठे तो सभी विज्ञापनों के चित्रों को देखने लग गये। इधर यह देखा, उधर वह देखा, यह सुना, वह सुना। सब दिमाग में भरते गये। बाहर निकालकर खाली हो जाने की तो बात ही नहीं।
....तो फिर जगत के लोग जो ज्ञान नहीं जानते उसको तो अपने चित्त में प्रवेश ही नहीं मिलेगा - No Entry. तत्त्वज्ञान की बात के लिए अपने दिमाग में No Entry है। दिमाग पूरा भरा हुआ है संसार के कचरे से। इसीलिए तत्त्वज्ञान की सूक्ष्म बातें ग्रहण नहीं कर पाते। चित्त शांत- स्थिर नहीं हो पाता।
भगवान बुद्ध के पास कोई सेठ गया। कहने लगाः
"भन्ते ! अब मुझे पचास वर्ष पूरे हुए हैं। अब वन में जाने का प्रारम्भ हुआ है, एकावन.... बावन.... आदि। कृपा करके आप मुझे अपने जीवन का अनुभव बताएँ। दो वचन सुनाएँ जिससे मेरा उद्धार हो।" तब तक तो सेठ ने इधर नजर घुमाई, उधर दृष्टि की। अपनी अँगूठी की ओर देखा। कुछ-की-कुछ प्रवृत्तियाँ कर डाली।
बुद्ध समझ गये कि चित्त में बहुत कचरा उभरा हुआ है। अभी सिर्फ दवाई देने से रोग मिटेगा नहीं, ऑपरेशन करना पड़ेगा। वे बोलेः
"भाई ! हमने इतनी सारी मेहनत की, वर्षों तक भूख, प्यास और कष्ट सहे और जो अनुभव पाया वह यों ही मुफ्त में तुम्हें दे दें ? बिना सेवा के ज्ञान पचेगा कैसे ? सेवा करो सेवा।"
सेठ: "भन्ते ! आज्ञा कीजिए।"
बुद्ध: "आज्ञा क्या करें ? साधू-संतों को भोजन कराओ।"
सेठ: "आप हमारे घर भोजन लेंगे ?"
बुद्ध: "क्यों नहीं ? तुमने निमंत्रण तो दिया नहीं। सेवा तो किया नहीं, केवल लूटने को आये हो। हम ऐसे पागल थोड़े ही हैं कि लूटे जाएँ ?"
बुद्ध यह सब उस व्यक्ति को देखकर कहते हैं। स्वयं को खाने की कोई इच्छा नहीं, कुछ लेने की इच्छा नहीं। लेकिन उसको कुछ अनुभव कराना है।
"आप मेरे घर भिक्षा ग्रहण करने आयेंगे ! बड़ी खुशी की बात है।" सेठ खुश हो गये। सारा इन्तजाम करने लगे। रसोइयों को बुलाया, मित्रों से बात की। 'भगवान बुद्ध भिक्षा ग्रहण करने आनेवाले हैं ! राजकुमार में से साधू बने थे, कोई साधारण साधू तो थे नहीं। खूब तैयारियाँ की, खीर बनायी, पूड़ी बनायी, मालपूआ बनाया, क्या-क्या पकवान बनाये, व्यंजन बनाये। 'हमारे द्वार पर संत आने वाले हैं.....!'
भिक्षा का समय हुआ और बुद्ध भिक्षापात्र उठाकर चल दिये। रास्ते में कुछ सामान ढूँढते चले। उनकी नजर में पड़ गया किसी गाय का गोबर। उसे उठाकर अपना भिक्षापात्र भर लिया। सेठ के द्वार पर पहुँचे तो सेठ ले आया सब भोजन सामग्री।
"महाराज ! लो।"
गोबर से भरा हुआ भिक्षापात्र आगे बढ़ाते हुए बुद्ध बोलेः
"डाल दो इसमें।"
सेठ: "भन्ते ! यह तो गोबर से भरा है।"
बुद्ध: "भरा है तो भरा है, तुम अपनी खीर उसमें डाल दो।"
सेठ: "स्वामी ! खीर आपको काम नहीं लगेगी और मेरी खीर खराब होगी।"
बुद्ध: "भिक्षा लेने बुलाया है तो भिक्षा दो न !"
सेठ: "दूँ तो सही लेकिन अपना भिक्षापात्र मुझे दो। गोबर निकाल कर फिर ठीक से धो लूँ, बाद में भिक्षा दूँ।"
"तुम चार पैसे की खीर डालने से पहले बर्तन साफ करते हो तो मैं अपना ब्रह्मरस तुम्हारे अन्तःकरण में भरने से पहले तुम्हारा अन्तःकरण साफ करूँ कि नहीं ?"
प्रारम्भ में जो योगवाशिष्ठ की बात आयी थी वह बहुत सूक्ष्म थी लेकिन अपने कानों से टकराकर चली गई, अपनी नहीं रही। क्यों ? क्योंकि जगत का गोबर अपने अन्तःकरण में भरा हुआ है न !
सूक्ष्म बुद्धि के आदमी को इशारे से कह दो, वह काम बढ़िया कर देता है लेकिन मोटी बुद्धि के आदमी को बार-बार कहो तो भी समझ में नहीं आता।
कबीरजी की पत्नी बड़ी सूक्ष्म बुद्धि की थी। कबीर जी ने कहाः
"लोई ! एक बात सुन। मैं एक प्रज्ञाचक्षु (अंध) व्यक्ति को भोजन का निमंत्रण दे आया हूँ। अपना भोजन बने, साथ-साथ उस व्यक्ति का भोजन भी बना देना।"
लोई ने भोजन बनाया। प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति आये उसके पहले दो थालियाँ भोजन परोसकर तैयार कर दिया। पहले अतिथि भोजन कर लें बाद में घरवाले सब। कबीरजी ने दो थालियाँ देखकर पूछाः
"दो थालियाँ क्यों ? एक ही व्यक्ति आने वाला है तो अधिक भोजन क्यों बनाया ?"
लोई: "एक ही व्यक्ति आने वाले थे और आपने कहा कि प्रज्ञाचक्षु (अंध) हैं तो अकेले तो आयेंगे नहीं, किसी को साथ में लेकर आयेंगे इसलिए दो थालियाँ परोसी हैं।"
कबीरजी बड़े प्रसन्न हुए की आखिर तो लोई कबीर की पत्नी है।
व्यवहार में आदमी अनुमान लगाकर किसी विषय में पूर्व तैयारी कर लेता है ऐसे ही आयुष्य पूरा होगा तो तन और मन कहीं चले जायें उसकी अपेक्षा पहले से ही तैयारी रखें।
फुरने जहाँ से उत्पन्न होते हैं, संकल्प और विकल्प जहाँ से उठते हैं और योजनों तक चले जाते हैं, वापस आते है, बार-बार आते जाते हैं, उसको जो देखता है उस अधिष्ठान को जानने के लिए जो यत्न करता है...... अहाहा....! उसकी सारी पूजाएँ सफल हो गयी। उसको फिर आकाश से भगवान को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मरकर भगवान के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह स्वयं भगवन्मय हो जायेगा, साक्षात् नारायण का स्वरूप हो जायेगा।
जहाँ से फुरना उठता है और मीलों तक चला जाता है उसमें थोड़ी विश्रांति मिल जाय। इस विश्रांति में आलस्य नहीं, प्रमाद नहीं, मनोराज्य नहीं, निद्रा नहीं। इसमें थोड़ी सूक्ष्मता, तत्परता और गुरूकृपा। यह मौका अगर मिल जाय तो घोड़े के रकाब में पैर डालते-डालते आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है। अन्यथा, वर्षों तक करता रहे फिर भी पूर्ण नहीं होता। वर्षों तक करके भी बुद्धि सूक्ष्म बनाकर फिर यहीं आना है। संसार के सब व्यवहार करके भी इसी जन्म में या हजारों जन्म के बाद भी यहाँ तो आना ही पड़ेगा।
आपका संकल्प, फुरना उठकर चलता है, क्षणभर में मीलों तक जाता है, फिर दूसरा उठता है... तीसरा उठता है....। तो फुरना या सकल्प जहाँ से उठता है उसमें जरा टिक जायें, बस। एक विचार उठा.... दूसरा अभी उठने को है, दोनों के मध्य में रूक जायें, बेड़ा पार हो जाय। यह रूकना इतना जरूरी है जितना नवजात शिशु को माँ का दूध जरूरी है या हमारे शरीर को प्राण जरूरी है। मुक्ति के लिए फुरनों के अधिष्ठान में रूकना, वहाँ विश्रांति पाना अनिवार्य है। बिना प्राण का शरीर व्यर्थ है ऐसे ही बिना विश्रांति के, बाकी की सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं। इसीलिए नरसिंह मेहता ने ठीक कहाः
ज्यां लगी आत्मातत्त्व चीन्यो नहीं, त्यां लगी साधना सर्व जूठी।
अर्थात् तब तक किसी साधन में रूक न जाएँ, चलते ही जाएँ, ऊपर उठते ही जाएँ, आगे बढ़ते ही जाएँ। अगर इस साधन में गति हो गई तो दूसरे सब साधन सफल हो गये ।
मन को, बुद्धि को भागने की, दौड़ने की आदत पुरानी है और आप उनसे जुड़ जाते हो यही भी आदत पुरानी है। इसीलिए बहुत कठिन भी लगता है।
अगर डटकर बैठ जायें और यही करें तो उत्तम जिज्ञासु को ज्यादा समय नहीं लगता। सत्पात्र हो, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हो, सदाचारी हो, गुरूआज्ञा शिरोधार्य करता हो, संसार की लोलुपता न हो उस साधक के लिए ईश्वर तो अपने घर की चीज है।
दिले तस्वीर है यार।
जबकि गरदन झुका ली, मुलाकात कर ली।।
उसके लिए यह चीज है। जैसे सुन्दरी को अपना मुख देखने में कितनी देर ? अरे, झट पर्स से आयना निकाला, मुख देख लिया।
जैसे व्यक्ति आईने में अपना मुख देखने में देर नहीं करता ऐसे ही जिसके पास दिल का आइना है वह दिलबर को जब चाहे, जितनी बार चाहे, देख सकता है। किसी वेदान्तिक संत ने ठीक ही कहा हैः
ऐ तालिबे मंजिले तू मंजिल किधर देखता है।
दिल ही तेरी मंजिल है तू अपने दिल की ओर देख।।
एक विचार उठा.... दूसरा उठने को है..... उसके बीच की अवस्था को देख। अपने भीतर उठते हुए संकल्पों को सूक्ष्मता से देख।
कई लोगों ने तप किया, जप किया, कई घर छोड़कर हिमालय गये, कोई कहीं गया कोई कहीं गया, इस देव को रिझाया, उस देव को रिझाया। अंत में जिस किसीको भी ईश्वर-प्राप्ति हुई तो अपने हृदय में ही हुई। चाहे राम जी के उपासक हो चाहें कृष्णजी के हों चाहे शिवजी के हों चाहे कालीजी के हों चाहे गुरूजी के हों अथवा और किसी के हों लेकिन ईश्वर जब मिला है तब दिल में ही मिला है।
अंतर्यामी देव को छोड़कर जो बाहर के देव को पूजता फिरता है वह तो कर्मलेढ़ी कहा जाता है। जैसे, हाथ में मक्खन का पिण्ड आये उसको गिराकर छाछ चाटने लग जाय, ऐसे ही अंतरतम चैतन्य आत्मदेव का रस, सुख और आनन्द छोड़कर बाहर किसी वस्तु या व्यक्ति को रिझाने में लग जाय उसको क्या कहेंगे ? 'यह मिले तो सुखी हो जाऊँ, वह मिले तो सुखी हो जाऊँ, यह देव आवे तो वरदान दे, वह देव आवे तो सहाय करे....' वह देव भी इस आत्मदेव में मन लगेगा तब खिंचकर आयेगा, नहीं तो सबके पास क्यों नहीं जाता ? बुलाते तो कई हैं ! काली आ जाय, श्रीकृष्ण आ जायें, शिवजी आ जायें, रामजी आ जायें, रहेमान आ जाय.... लेकिन जितन तुम भीतर के देव से वफादार होगे उतने ही बाहर के देव सहज में प्रकट होंगे।
अहमद शाह नाम का एक सूफी फकीर हो गया। वह कृष्णभक्ति में बड़ा मस्त रहता था। श्रीकृष्ण से बड़ा प्यार था उसको। कोई पुजारी की तरह वह प्यार नहीं करता था। उसके पास कोई आरती नहीं थी, टकोरी नहीं थी, श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी नहीं थी। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो आकर्षित कर ले, आनंदित कर दे वह कृष्ण। वह अहमद शाह ऐसे श्रीकृष्ण को खूब स्नेह करता था। सदा उसके ध्यान में तल्लीन रहता था।
अहमद शाह श्रीकृष्ण का ऐसा बढ़िया भक्त था कि श्रीकृष्ण भी उससे दिल्लगी करने प्रकट हो जाते। जैसे नामदेव के आगे भगवान बावन बार प्रकट हुए ऐसे ही अहमद शाह के आगे श्रीकृष्ण कई बार प्रकट हुए।
सर्दियों के दिन थे। अहमद शाह तापणा ताप रहा था। श्रीकृष्ण की इच्छा विनोद करने की हुई। वे युवक ब्राह्मण का रूप लेकर आये। उस वक्त अहमद शाह ने सिर पर तीलियों का टोपा पहना हुआ था। श्रीकृष्ण आकर बोलेः
"अहमद !"
अहमद शाह ने सोचा कि यह ब्राह्मण का बच्चा मेरा नाम ऐसे ही लेता है मानो कोई पुराना पहचान वाला है ! बोलाः
"क्या है ?"
श्रीकृष्ण: "इतना लम्बा-चौड़ा टोपा पहना है। बोलो, टोपा बेचोगे ?"
अहमद पहचान गया कि श्रीकृष्ण के सिवा दूसरे की हिम्मत नहीं है। उसने कह दियाः
"अहमद का टोपा खरीदनेवाला कोई पैदा ही नहीं हुआ।"
श्रीकृष्ण: "मैं खरीदता हूँ अहमद !"
अहमद: "तुम क्या खरीदोगे ? तुम्हारे पास है क्या ?"
तब ब्राह्मण वेशधारी नटखट नागर ने कहाः "मेरे पास क्या नहीं है ? जो मूल्य माँगो, मैं चुका सकता हूँ।"
अहमद: "तुम्हारे पास है क्या, मैं जानता हूँ। बहुत-बहुत तो यह लोक और परलोक। इन दो लोकों में अहमद का टोपा नहीं बिकता है। और कोई मिल्कियत हो तो बात करो।"
प्रेम में नेम (नियम) नहीं होता। अहमद का शुद्ध प्रेम था।
श्रीकृष्ण बोलेः "अहमद ! तुम तो अपने को इतना बड़ा मानते हो ? बड़े अभिमानी हो गये हो ?"
अहमद: "बड़े अभिमानी हो गये, छोटे अभिमानी हो गये, कुछ भी हो लेकिन अहमद का टोपा खरीदना कोई बच्चों का खेल है ?"
श्रीकृष्ण: "अहमद ! मैं लोगों को कह दूँगा कि अहमद पक्के फकीर नहीं हैं, बड़े अभिमानी हैं। ये पक्के संत नहीं हैं। यह जानकर लोग तुम्हारे को पूछेंगे भी नहीं।"
"जाओ जी जाओ, किसको दम भरते हो, किसको डांटी देते हो ? तुम्हारी दमदाटी में हम आने वाले नहीं हैं। किसको भय दिखाते हो ? जाओ-जाओ सब लोगों को कह दो। लेकिन आप भी सावधान रहना। आपके बारे में मेरे पास भी कुछ कहने को है। मैं भी लोगों को कह दूँगा कि, 'कन्हैया सिर्फ मठ-मंदिरों में ही नहीं है।  उसके लिये घंटियाँ बजा-बजाकर, आरतियाँ उतार-उतारकर मक्खन हाथ में धरके चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। भीतर गोता मारो। भीतर एक वृत्ति उठे, दूसरी अभी उठने को है उसके बीच जो उनका अधिष्ठान है, जो सबको आकर्षित करता है वह कृष्ण है। उसकी उपासना करो।' फिर आपके पूजा-उत्सवों का सब झमेला ठण्डा हो जायेगा।"
श्रीकृष्ण कहते हैं: "सबकी गति वहाँ नहीं हो पायेगी। अहमद ! ऐसा मत करना।"
अहमद: "ऐसा मत करना... तो आप भी ऐसा मत करना।"
श्रीकृष्ण: "अच्छा, मिलाओ हाथ।"
दोनों ने हाथ मिलाया, आलिंगन किया। समझौता हो गया।
आपको श्रीकृष्ण से मिलना है तब भी यह योगयुक्ति बहुत बढ़िया है, शिवजी से मिलना है तभी, विष्णुजी से मिलना है तभी, जगदम्बा से मिलना है तभी, ब्रह्मवेत्ता सदगुरू से मिलना है तभी और किसी मित्र से मिलना है तभी यह योगकला काम में आ सकती है। अंतर्यामी चैतन्य विश्वव्यापक है। अरे, विश्व तो इसके एक कोने में है। ब्रह्मचैतन्य के एक कोने में माया है और माया के एक कोने में जगत है।
इतना विश्वंभर तत्त्व तुम्हारा चैतन्य चिदाकाश है। उससे एक स्पन्दन उठता है। जैसे आपका श्वास अन्दर जाता है, उच्छवास बाहर आता है। अन्दर श्वास जाता है वह ठण्डा होता है जो बाहर आता है वह गर्म होता है। यह तुम्हारा अनुभव होगा।
तुम जानते हो कि स्टोव, पेट्रोमेक्स या सायकल, स्कूटर आदि के टायर में एकाध पंक्चर हो जाय, छोटा-सा सुराख हो जाय तो कंपनी का मालिक आकर हाथ जोड़े, फिर भी स्टोव नहीं जलेगा, सायकल-स्कूटर नहीं चलेंगे।
हमारे शरीर में कितने-कितने छेद हैं ? श्वास आता है, जाता है, श्वास का तो पसारा है। देहरूपी पुतली चल रही है श्वास पर। इस श्वास को खींचने की और छोड़ने की जहाँ से प्रक्रिया होती है उस प्रक्रिया के मूल में काम चैतन्य का होता है। इससे फेफड़े स्पन्दित होते हैं। ऐसा नहीं कि तुम्हारी रोटियों से वे स्पन्दित होते हों। नहीं, वह चिदाकाश चैतन्य है।
शांति से बैठ जाओ। आप देखो कि श्वास चल रहा है। कुछ दिन श्वास को देखते जाओ। अथवा गिनते जाओ, अथवा अजपा गायत्री करते जाओ। आपको धीरे-धीरे श्वास की गतिविधि का पता चलेगा। जिसके हाथ में श्वास की गति की युक्ति आ गयी उसको समर्थ होने में देर नहीं लगेगी। उसको निर्विकार होने में तकलीफ नहीं पड़ेगी।
कुछ न करो केवल श्वास को देखते रहो। इसको श्वास की माला बोलते हैं। लेकिन आलस्य नहीं होना चाहिए, दिमाग में कचरा भरने की आदत मिटाते रहना चाहिए। इस साधना में केवल तत्पर होने की कोशिश करे तभी भी आदमी सफल हो सकता है।
अपनी-अपनी जगह पर सब साधनाएँ ठीक हैं लेकिन यह आत्म-विचार का मार्ग तो अनूठा ही है। जिनका प्राणोत्थान होता है, क्रियाएँ होती हैं उनको तो ठीक है, नाड़ीशुद्धी होती है, आगे बढ़ते हैं। लेकिन कभी-कभी मौका मिले तो श्वास को देखो।
सारे जगत का आधार है प्राणशक्ति। पक्षियों की किलोल प्राणशक्ति पर आधारित, मनुष्य का चलना-फिरना भी प्राणशक्ति पर आधारित, वृक्षों का बढ़ना, फूलों का खिलना और फलों का बनना, इसमें भी प्राणशक्ति काम करती है।
अमावस्या और पूर्णिमा के दिन सागर में ज्वार आती है। एकम से लेकर क्रमशः हररोज पौना घण्टा ज्वार लेट होती चली जाती है। जो लोग सागरतट पर रहते हैं उनको पता होगा।
जिस समय समुद्र में ज्वार आती है उस समय काटे गये वृक्षों के अंगरस में जलतत्त्व अधिक जाने से उस लकड़ी में कीड़े जल्दी लगने की सम्भावना होती है। वृक्ष की डाली काटो तो डाली रूग्ण हो जाती है। भाटा के समय काटो तो रुग्ण नहीं होती।
चाँद आकाश में है और उसका प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। पूर्णिमा और अमावस्या का प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। सातम्, आठम, दूज या एकादशी का प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। यह प्रभाव जैसे समुद्र पर पड़ता है वैसे हवाओं पर भी प्रभाव पड़ता है और वनस्पति पर भी पड़ता है। वृक्षों पर प्रभाव पड़ता है तो मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
दयालु ऋषियों ने खूब सूक्ष्म अध्ययन किया है। इसीलिए उन्होंने खोजा कि एकादशी का व्रत रखना चाहिए, पूनम का व्रत रखना चाहिए क्योंकि उन दिनों में चन्द्रमा विकसित होता है। सूर्य की किरणें सीधी चन्द्रमा पर पड़ती है इसलिए प्राणशक्ति कुछ कमजोर होती है। उन दिनों में व्यक्ति की जठराग्नि थोड़ी सी मंद रहती है। अष्टमी के बाद चाँद बढ़ता जाता है तो जठराग्नि मन्द होती चली जाती है। इसीलिए एकादशी से लेकर अमावस्या या पूनम तक व्रत करने से अजीर्ण की तकलीफ होगी तो ठीक हो जायगी। आप व्रत रखेंगे तो जठराग्नि तेज रहेगी, आपकी तंदुरूस्ती की रक्षा होगी। इसमें फिर भगवद्भाव और जागरण से आपके मन और प्राण ऊपर को उठेंगे, शायद आपकी आध्यात्मिक उन्नति सफल भी हो जाय।
लोक-व्यवहार में आपने देखा होगा कि बूढ़ा आदमी अगर बीमार पड़ गया, उसकी स्थिति चिन्ताजनक है तो पुराने लोग कहेंगे कि आज कौन-सी तिथि है ? तेरश है। अगर पूनम गुजार दे तो काका बच जायेगा। अमावस्या गुजार दे तो बच जायेगा।
प्रायः तुम देखोगे कि जिनकी जीवन-शक्ति क्षीण हो गयी है, जो बूढ़े हो गये हैं वे इन दिनों में रवाना होते हैं।
दूसरी बातः एकादशी से पूनम तक के दिनों में तुम कोई दवाई चालू करो तो इतना प्रभाव जल्दी नहीं होता लेकिन तीज से लेकर अष्टमी, नवमी तक के दिनों में दवाई चालू करो तो दवाई का अच्छा प्रभाव पड़ता है।
जो ज्यादा बीमार पड़ते है वे निरीक्षण करें तो पता चल सकता है कि प्रायः एकादशी से अमावस्या, पूनम, एकम, दूज के दिनों में ही ज्यादा दुर्बलता महसूस करते हैं। बाद में प्राणशक्ति बढ़ती है। प्रायः ऐसा होता है। कोई-कोई  लोग अपवाद भी हो सकते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आपके शरीर के संचालन की डोरी प्राणशक्ति के हाथ में है। प्राणशक्ति का सीधा सम्बन्ध उस चिदघन चैतन्य से है।
संसार का सार शरीर है। शरीर का सार इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार मन है। मन का सार प्राण है। प्राण निकल गये तो मन कहाँ रहेगा ? प्राण निकल गये तो आँखें होते हुए भी कुछ काम की नहीं। शरीर होते हुए भी किसी काम का नहीं।
आप जो श्वास लेते हैं वह प्राण नहीं है। वह तो बहुत स्थूल है। यह तो हवा ले रहे है। श्वासोच्छ्वास से जीवन जीने की शक्ति पाते हैं।
अगर आपकी श्वास-क्रिया में तालबद्धता हो जाय, तो आप जब चाहें, विकारों को बुला सकते हैं, जब चाहें, विकारों को भगा सकते हैं। चाहें तब मन को शांत कर सकते हैं, चाहें तब व्यवहार में लगा सकते हैं। आपके सामने प्रकृति रहस्य खोलने लग जायेगी, योग की कुंजियाँ हाथ लग जायेगी।
इसी कारण से योगी अपने भक्तों की रक्षा कर लेते हैं, दूर-दूर स्थानों में स्थित भक्तों को सहाय पहुँचा सकते हैं।
कोई पुरूष किसीका रोग दूर कर सकता है या चमत्कार करता है तो इसके पीछे भी प्राणशक्ति काम करती है। सामने कोई व्यक्ति आया, उसमें आदर भाव जगा, योगी ने उसके साथ बातचीत करते हुए अपनी प्राणशक्ति की किरण उसमें फेंकी और उसकी सुषुप्त प्राणशक्ति जगी, रोग-प्रतिकारक  शक्ति बढ़ी, कुछ दवा से कुछ दुआ से काम हो गया।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, प्रसिद्ध या छुपे हुए, जगत में जो उन्नत पुरूष हैं उनके प्राण सूक्ष्म हैं इसलिए उन्नत हैं। फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी मजहब के हों, किसी भी सम्प्रदाय के हों। वे इस रहस्य को जानते हों या नहीं जानते हों, अनजाने में ही उनके प्राण सूक्ष्म हुए तभी वे उन्नत पुरूष माने गये।
जिनके प्राण सूक्ष्म हैं उनकी वाणी हजारों लोगों को प्रभावित करने में सफल हो जाती है फिर चाहे नेता के मंच से बोलते हैं चाहे धर्म के मंच से बोलते हैं। व्यक्ति में जितनी सच्चाई होती है उतने प्राण रिधम से चलते हैं। बेईमान आदमी की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आप झूठ बोलते हैं तो आपके प्राण का ताल टूट जाता है। आप सत्य पर होते हैं तो प्राण का ताल बराबर जोर करता है, आप विजेता हो जाते हैं। आप चाहे मान लें कि अम्बाजी ने कहा, फलाना देव ने प्रेरणा की, लेकिन वास्तव में इसके मूल में योग विज्ञान के रहस्य छुपे हैं।
प्राणोपासना बड़ी रहस्यमय उपासना है।
मनुष्य अगर भगवान को भजना चाहे तो वह उत्तम मनुष्य के रूप में ही भगवान की कल्पना कर सकता है। अगर कोई भैंसा भगवान को भजना चाहे तो अपने से कोई मोटे-ताजे भैंसे के रूप में ही भगवान की कल्पना कर सकता है। आप जिस देह में रहते हैं उसके अनुरूप ही आप भगवान को भज सकते हैं या देख सकते हैं। अगर दूसरा देखेंगे, सोचेंगे तो आपकी कोरी कल्पना ही होगी। बड़े-बड़े भाषण करने वाले जो बोल देते हैं कि, 'भगवान निर्गुण है, भगवान निराकार है, भगवान ऐसा है, भगवान वैसा है.....' उनके पास सूचनाओं के सिवाय, माथापच्ची के सिवाय और कुछ नहीं। जब-जब जिनको-जिनको भगवान मिला है उनको मनुष्यरूपी भगवान के द्वारा ही मिला है। भगवान ने कहा कि, 'आचार्य मैं हूँ।' भगवान जब भी प्रकट हुए तब मनुष्य के तन में ही प्रकट हुए। मनुष्य भगवान ने ही दूसरों को भगवान के दीदार करवाये हैं। फिर चाहे जगदगुरू शंकराचार्य का रूप लेकर भगवान प्रकट हुए चाहे वल्लभाचार्य का चाहे रमण महर्षि का चाहे श्रीकृष्ण का चाहे और कोई अवतार।
जिन पुरूषों में भगवत्तत्त्व ज्यों का त्यों प्रकाशित हुआ है उन जीवित पुरूषों में जो लोग श्रद्धा-भक्ति रखते हैं वे लोग बहुत तेजी से आगे बढ़ते हैं। जिनका भगवान कुछ और कल्पा हुआ है, किसी देश में, किसी मंदिर में, किसी मस्जिद में, किसी और जगह पर, उनकी अपेक्षा वे लोग ज्यादा फायदे में हैं जिनको किसी जीवित ब्रह्मवेत्ता महापुरूष का सान्निध्य मिल गया।
गोरखनाथ किसी जगह पर गये तो वहाँ लोग किसी देवी-देवता को मना रहे थे, नारियल फोड़ रहे थे। गोरखनाथ हँसे।
एक भूला दूजा भूला भूला सब संसार।
वण भूल्या इक गोरखा जिसको गुरू का आधार।।
अखा भगत ने कहाः
सजीवाए निर्जिवाने घड्यो पछी कहे मने कंई दे।
अखो तमने इ पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?
सजीव मनुष्य निर्जीव मूर्ति को बनाता है, फिर उसे भगवान की जगह पर बैठाता है, प्राणप्रतिष्ठा करता है, पूजता है। फिर अपने बनाये हुए उस भगवान से ही माँगता है। अखाजी ऐसे मनुष्य की बेवकूफी देखकर कहते है कि अरे मानव ! तेरी दोनों आँखें फूट गई हैं क्या ? अर्थात् तू ज्ञानरूपी दृष्टि से क्यों वंचित हो गया है ?
जब भी तुम मूर्ति के आगे प्रार्थना करते हो तब जाने-अनजाने में तुम्हारे प्राण की रिधम तालबद्ध होती है, तुम्हारे संकल्प-विकल्प की भीड़ कम होती है तब तुम्हारे इष्ट को, गुरू को तुम्हारी प्रार्थना पहुँचती है। फिर कभी उनका संकल्प, कभी तुम्हारी तीव्र प्रार्थना प्रकृति में व्यवस्था कर देती है।
श्वास के द्वारा आप जो प्राण लेते हैं वे समष्टि से जुड़े हुए हैं।
दिल्ली में आकाशवाणी केन्द्र में या दूरदर्शन केन्द्र में जो कुछ 'ब्रोडकास्ट' होता है वह आप यहाँ बैठे सुन लेते हैं, देख लेते हैं। यह सन्देश यंत्रों के द्वारा भेजा जाता है पकड़ा जाता है। यंत्र से भी मन का संकल्प अत्यंत तेजी से चलता है। अमेरिका जाने के लिए अत्यंत गतिवाले विमान में बैठो चाहे रोकेट में ही बैठ जाओ फिर भी कुछ घण्टे लग ही जायेंगे लेकिन मन से जाओ तो कितनी देर लगेगी ? सोचा कि बस, पहुँच गये। इसी संकल्प की गति से 'टेलिपैथी' का कार्य किया जाता है। इसी के जरिये दूर-दूर के स्थान में स्थित भक्त को या मित्र को सहयोग दिया जा सकता है, अगर प्राण पर नियंत्रण कर लिया है तो।
स्वर्ग के पितरों को तृप्त करना है तब भी तुम्हारी प्राणशक्ति काम करती है और यहाँ के मित्रों को तृप्त करना है तब भी तुम्हारी प्राणशक्ति काम करती है। अपने आपको तृप्त करना है तब भी प्राणशक्ति काम करती है।
यही कारण है कि जिनकी प्राणशक्ति उन्नत है वे पुरूष मुर्दे को जिन्दा कर सकते हैं और जिन्दों को आज्ञा में चला सकते हैं। ऐसे जीवित महापुरूष कण्ठी देने वाले गुरूओं से बहुत-बहुत उन्नत हैं। जो धर्म का रास्ता दिखाते हैं, नीति-नियम बताते हैं वे गुरू धन्यवाद के पात्र हैं लेकिन वे महापुरूष पूजनीय हैं जो अपने संकल्पमात्र से दूसरों के हृदय में प्राण संचारित कर दें, दूसरों के मन के भाव को बदलकर ईश्वर में लगा दें। जो संकल्प मात्र से, दृष्टि मात्र से असाधु को साधु बना दें, दुराचारी को सदाचारी बना दें, अभक्त को भक्त बना दें वे तो साक्षात् ईश्वर-स्वरूप हैं, ईश्वर ही हैं। प्राण का संचालक तत्त्व ईश्वर है और ईश्वर में जो टिके हैं वे ईश्वररूप हो गये हैं।
ऐसे जो नर भगवान हैं उनके संपर्क में आने वाला साधक जल्दी नारायणमय हो सकता है। वशिष्ठ जी महाराज नर भगवान हैं इसीलिए नरलीला करते हुए रामजी भी उनके चरणों में आ बैठे। श्रीकृष्ण ७० से ८३ साल की उम्र तक एकान्तवास में अज्ञातवास में रहे। घोर आंगिरस ऋषि के पास उपनिषदों का अध्ययन किया था। तत्त्वज्ञान में परिनिष्ठित हुए। वही उपनिषद का ज्ञान महाभारत के युद्ध में अर्जुन को दिया। श्रीकृष्ण के पास प्राणशक्ति थी। सुदर्शन चक्र था। संकल्प सामर्थ्य से अदभुत कार्य कर लिया करते थे।
अभी भी तुम्हारे हवाई जहाज आदि जो चलते हैं उसमें क्या है ? वायु ही तो उसमें काम करता है, और क्या काम करता है ?
बच्चे को माँ कहने लगीः "देख बेटा ! मैं पड़ोस में जा रही हूँ। यह दीया जल रहा है। हवा आ रही है। कुछ भी करके दीये को बुझने नहीं देना।"
बच्चे ने देखा कि हवा आ रही है, अब क्या करूँ ? उसने छोटे-से दीये के ऊपर काँच की बरणी ढँक दी। दीया तूफान से तो बचा लेकिन ताजी हवा नहीं मिली तो बुझने से नहीं बचा। ऑक्सीजन नहीं मिला तो दीया बुझ गया।
प्राणशक्ति दीपक का भी आधार है, अग्नि का भी आधार है, पुष्पों और पत्तों का भी आधार है, वृक्षों और जड़ों का भी आधार है, पक्षियों का भी आधार है और पशुओं का भी आधार है, ग्रह और नक्षत्रों का भी आधार है। मेघ की वृष्टि का भी आधार वही प्राणशक्ति है।
जिसने अपने नजदीक के प्राण पर नियंत्रण पा लिया वह समष्टि के प्राण में उथल-पुथल कर सकता है। इसी कारण बरसात लाना, रोक देना, ट्रेन रोक देना आदि जो चमत्कार योगियों के जीवन में सुने जाते हैं वे कल्पित कहानियाँ नहीं हैं। किसी के पीछे ऐसे ही बातें जुड़ गयी हों तो वह बात अलग है लेकिन ये नितान्त झूठी नहीं हैं। उन्नत योग-अभ्यासियों के लिए तो ऐसे कार्य कर लेना खेल मात्र है। आप भी प्राणोपासना करो तो जान सकते हो।
हाँ, मैं यह राय नहीं दूँगा कि आप ये शक्तियाँ ही प्राप्त करो। मैं तो यह कहूँगा कि सारी शक्तियाँ जिस परमात्मा से स्पंदित होकर लीन हो जाती हैं उस आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाने की कला पा लो और यही वशिष्ठजी बता रहे हैं कि एक क्षण में मन मीलों दूर जाकर वापस आ जाता है तो जहाँ से गया और आया उस चिदघन चैतन्य में विश्रांति पाओ।
यह सूक्ष्म है इसलिए कठिन लग रहा है लेकिन पराया नहीं है, असंभव नहीं है, कालांतर में मिले ऐसा नहीं है। इसके लिए सदाचार चाहिए, गुरूआज्ञा शिरोधार्य करने की तत्परता चाहिए। अन्यथा थोड़ी शक्ति आते ही आदमी उलझ जायगा।
मैं तो आप लोगों के संकल्पों की बड़ी शक्ति महसूस करता हूँ। कई बार मुझे कुटिया से बाहर आने का कोई विचार नहीं होता, संकल्प नहीं होता। कुछ लोग ऐसे आ जाते हैं कि जिनका हृदय, श्रद्धा-भक्ति से भरा है। मुझे एकदम होता है, मैं बाहर जाऊँ। बाहर आकर उन लोगों को मुलाकात देनी पड़ती है।
कभी-कभी आप लोगों के मन में कुछ प्रश्न होते हैं, मुझे पता ही नहीं होता और उसका उत्तर अपने आप आ जाता है। ऐसा भी आप लोगों को अनुभव होगा।
मानना पड़ेगा कि हम सबके शरीर अलग दिखते हैं, सब शरीरों में अलग-अलग मन दिखते हैं लेकिन संचालक बल एक है। सब मनों का उदगम स्थान एक ही वह चिदाकाश है। लाखों घड़ों के घटाकाश का आधार महाकाश है, लाखों तरंगों के जल का आधार सागर है ऐसे ही लाखों मन के स्पन्दनों का आधार निस्पन्द चैतन्य है। जितने अंश में आप उस चैतन्य में अनजाने में ही टिक जाते हैं उतने ही आपके संकल्प फलित हो जाते हैं। इसलिए साधन में तत्परता चाहिए। मन को, प्राण को सूक्ष्म करने में तत्परता चाहिए। सदाचार चाहिए। झूठ, कपट और दुराचार से प्राण क्षीण हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं। आदमी और कोई साधना न करे, बारह साल केवल सत्य ही बोले तो फिर वह जो बोलेगा वह होने लगेगा। क्योंकि उसके प्राण में कोई विक्षेप नहीं हुआ।
छः महीना अगर कोई प्राणोपासना ठीक से करे तो उसके प्राण तालबद्ध होने लगेंगे। प्राण तालबद्ध हुए कि उसके पास योग की कुंजियाँ अपने-आप प्रकट होने लगेंगी। उसके आगे प्रकृति रहस्य खोलने लगेगी। भवितव्य का पता चलने लगेगा। दूसरों के मन को पढ़ सकने की योग्यता आने लगेगी। दूसरों के मन को वह मोड़ सकता है। बहुत कुछ होता है, अगर प्राण सूक्ष्म हो जायें तो। मैं छः महीना इसलिए कहता हूँ कि तत्परतावाला भी तब तक सफल हो सकता है, बाकी तीव्र तत्परतावाला दो महीने में भी काम बना सकता है।
जीवन जीने का मजा तो बाद में आयेगा। अभी तो तुमने सुख देखा ही नहीं। बहुत कुछ 'टेन्शन' देखे हैं और थोड़ा सा हर्ष देखा है, असली मजा तो देखा ही नहीं। प्राण जब तालबद्ध होंगे उस दिन आपको जो सुख महसूस होगा और आपका जो व्यवहार होगा तब आपको लगेगा कि जीवन अभी शुरू हो रहा है।

Tuesday, August 2, 2011


महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग पुस्तक से - Mahapurushon ke Prerak Prasang

प्राणिमात्र की आशाओं के राम - Pranimatra ke Ashaon ke Raam

श्रीरामचरित मानस में आता हैः
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवड़ नवनीता। पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
'संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है। परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है जबकि परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।" (उत्तर कां. 124.4)
संतों का हृदय बड़ा दयालु होता है। जाने अनजाने कोई भी जीव उनके सम्पर्क में आ जाता है तो उसका कल्याण हुए बिना नहीं रहता। एक उपनिषद में उल्लेख आता हैः
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।
'ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !'

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसारामजी बापू का पावन जीवन तो ऐसी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है, जिनमें उनकी करूणा-उदारता एवं परदुःखकातरता सहज में ही परिलक्षित होती है। आज से 30 वर्ष पहले की बात हैः
एक बार पूज्य श्री डीसा में बनास नदी के किनारे संध्या के समय ध्यान-भजन के लिए बैठे हुए थे। नदी में घुटने तक पानी बह रहा था। उसी समय जख्मी पैरवाला एक व्यक्ति नदी किनारे चिंतित-सा दिखायी दिया। वह नदी पार अपने गाँव जाना चाहता था। घुटने भर पानी वाली नदी, पैर में भारी जख्म, नदी पार कैसे करे ! इसी चिंता में डूबा सा दिखा। पूज्य श्री उसकी चिंता का कारण समझ गये और उसे अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करा दी। घाव से पीड़ित पैरवाला वह गरीब मजदूर दंग रह गया। साँईं की सहज करूणा-कृपा व दयाभरे व्यवहार से प्रभावित होकर डामर रोड बनाने वाले उस मजदूर ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए पूज्य बापू जी से कहाः
"पैर पर जख्म होने से ठेकेदार ने काम पर आने से मना कर दिया है। कल से मजदूरी नहीं मिलेगी।"
पूज्य बापू जी ने कहाः "मजदूरी न करना, मुकादमी करना। जा मुकादमी हो जा।"
दूसरे दिन ठेकेदार के पास जाते ही उस मजदूर को उसने ज्यादा तनख्वाहवाली, हाजिरी भरने की आरामदायक मुकादमी की नौकरी दी। किसकी प्रेरणा से दी, किसके संकल्प से दी यह मजदूर से छिपा न रह सका। कंधे पर बैठाकर नदी पार कराने वाले ने रोजी-रोटी की चिंता से भी पार कर दिया तो मालगढ़ का वह मजदूर प्रभु का भक्त बन गया और गदगद कंठ से डीसावासियों को अपना अनुभव सुनाने लगा।
ऐसे अनगणित प्रसंग हैं जब बापू जी ने निरोह, निःसहाय, जीवों को अथवा सभी ओर से हारे हुए, दुःखी, पीड़ित व्यक्तियों को कष्टों से उबारकर उनमें आनन्द, उत्साह भरा हो।

तुम्हारे रुपये पैसे, फूल-फल की मुझे आवश्यकता नहीं, लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस, मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है। मैं रोने वालों का रूदन भक्ति में बदलने के लिए, निराशों के जीवन में आशा के दीप जगाने के लिए, लीलाशाहजी की लीला का प्रसाद बाँटने के लिए आया हूँ और बाँटते-बाँटते कइयों को भगवदरस में छका हुआ देखने को आया हूँ। प्रभु प्रेम के गीत गुँजाकर आप भी तृप्त रहेंगे, औरों को भी तृप्ति के आचमन दिया करेंगे, ऐसा आज से आप व्रत ले लें, यही आसाराम की आशा है। ॐ गुरु...... ॐ गुरु..... ॐ गुरु.....ॐ....
चिंतन करो कि 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपने राम-स्वभाव में जगूँगा, सुख-दुःख में सम रहूँगा...? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे संसार स्वप्न जैसा लगेगा...? ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपनी देह में रहते हुए भी विदेही आत्मा में जगूँगा....?' ऐसा चिंतन करने से निम्न इच्छाएँ शांत होती जायेंगी और बाद में उन्नत इच्छाएँ भी शांत हो जायेंगी। फिर तुम इच्छाओं के दास नहीं, आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम हो जाओगे।