पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, April 30, 2010



श्री गुरु रामायण पुस्तक से - Shri Guru Ramayan pustak se

तत्रतः स समायातो मुम्बईपुटमेदने।
लीलाशाह महाराजो यत्र स्वयं विराजते।।98।।

वहाँ से वे (आसुमल) मुम्बई नगर में आये, जहाँ पर गुरुदेव लीलाशाहजी महाराज स्वयं विराजमान थे।(98)

गुरुणां दर्शनं कृत्वा कृतकृत्यो बभूव सः।
गुरुवरोऽपि प्रेक्ष्य तं मुमुदे सिद्धसाधकम्।।99।।

गुरुदेव के दर्शन करके वे (आसुमल) कृतकृत्य हो गये और गुरुदेव भी उस सिद्धिप्राप्त साधक को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।(99)

वत्सं ! ते साधना दिव्यां विलोक्य दृढ़निश्चयम्।
प्रगतिं ब्रह्मविद्यायां मनो मे मोदतेतराम्।।100।।

"बेटा ! तेरी दिव्य साधना, दृढ़ निश्चय एवं ब्रह्मविद्या में प्रगति देखकर मेरा मन बहुत प्रसन्न हो रहा है।"(100)

साक्षात्कारो यदा जातस्तस्य स्वगुरुणा सह।
तदा स्वरूपबोधोऽपि स्वयमेवह्यजायत।।101।।

गुरुदेव के साथ जब उनकी भेंट हुई तब उनको (आसुमल को) स्वयं ही स्वरूपबोध (आत्मज्ञान) हो गया।(101)

गुरुणामशिषा सोऽपि स्वात्मानन्दे स्थिरोऽभवत्।
आनन्दसागरे मग्नो मायामुक्तो बभूव सः।।102।।

गुरुदेव की आशीष से वे (आसुमल) भी आत्मानन्द में स्थिर हो गये और आनन्दसागर में निमग्न वे (संसार की) माया से मुक्त हो गये।(102)

त्वया ब्राह्मी स्थितिः प्राप्ता योगसिद्धोऽसि साम्प्रतम्।
योगिनं नैव बाधन्ते नूनं कामादयोस्यः।।103।।
समदृष्टिस्तवया प्राप्ता पूर्णकामोऽसि साम्प्रतम्।
एवं विधो नरः सर्वान्समभावेन पश्यति।।104।।

"वत्स ! तुमने इस समय ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ली है और योगविद्या में तुम सिद्ध हो गये हो। योगी को काम-क्रोधादि शत्रु कभी नहीं सताया करते। अब तुमने (योगबल से) समदृष्टि प्राप्त कर ली है और तुम पूर्णकाम हो गये हो। ऐसा पुरुष सबको (प्राणीमात्र) को समभाव से देखता है।"(103, 104)

गुरुणां पूर्णतां प्राप्य नश्यति सर्वकल्मषम्।
अपूर्णः पूर्णतामेति नरो नारायणायते।।105।।

गुरुदेव से पूर्णता प्राप्त करके (मनुष्य के) सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अपूर्ण (मनुष्य) पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और नर स्वयं नारायण हो जाता है।(105)

ईशनेत्रख नेत्राब्दे ह्याश्विनस्य सिते दले।
द्वितीयायां स्वयमासुस्वरूपे स्थितोऽभवत्।।106।।

विक्रम संवत 2021 आश्विन सुदी द्वितिया को आसुमल को गुरुकृपा से अपने स्वरूप का बोध हुआ।(106)

समदृष्टिं यदा जीवः स्वतपसाऽधिगच्छति।
तदा विप्रं गजं श्वानं समभावेन पश्यति।।107।।

जब जीव अपनी तपस्या से समदृष्टि प्राप्त कर लेता है तब वह ब्राह्मण, हाथी एवं कुत्ते को सम भाव से देखता है। (अर्थात् उसे समदृष्टि से जीवमात्र में सत्य सनातन चैतन्य का ज्ञान हो जाता है।(107)

गच्छ वत्स ! जगज्जीवान् मोक्षमार्गं प्रदर्शय।
अधुनाऽऽसुमलेन त्वं आसारामोऽसि निश्चयः।।108।।
निजात्मानं समुद्धर्तुं यतन्ते कोटिशो नराः।
परं तु सत्य उद्धारः ज्ञानिना एव जायते।।109।।
कुरु धर्मोपदेशं त्वं गच्छ वत्स ममाज्ञया।
जनसेवां प्रभुसेवां प्रवदन्ति मनीषिणः।।110।।

(परम सदगुरु पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज ने कहाः) "वत्स ! अब तुम जाओ और संसार के जीवों को मोक्ष का मार्ग दिखाओ। अब तुम मेरे आशीर्वाद से 'आसुमल' के स्थान पर निश्चय ही 'आसाराम' हो। अपने आप का उद्धार करने के लिए के लिये तो करोड़ों लोग लगे हुए हैं, किन्तु सच्चा उद्धार तो ज्ञानी के द्वारा ही होता है। बेटा ! तुम जाओ और मेरी आज्ञा से जनता को धर्म का उपदेश करो। विद्वान लोग जनसेवा को ही प्रभुसेवा कहते हैं।"(108, 109, 110)

प्रणम्य गुरुदेवं स डीसाऽऽश्रमे समागतः।
बनासस्य तटे तत्र विदधाति स साधनाम।।111।।

गुरुदेव को प्रणाम करके वे (संत श्री आसारामजी बापू) वहाँ से डीसा के आश्रम में आये और वहाँ बनास नदी के तट पर नित्य प्रति साधना करने लगे।(111)

प्रातः सायं स्वयं गत्वा ध्यानमग्नः स जायते।
निर्ममो निरहंकारो रागद्वेषविवर्जितः।।112।।

वे प्रातः सायं बनास (नदी के तट पर) जाकर ध्यान में मग्न हो जाया करते थे। वे ममता, अहंकार एवं राग और द्वेष से रहित थे।(112)

आयाति स्म जपं कृत्वा एकदा स निजाश्रमम्।
दृष्टो जनसमारोहो मार्गे तेन तपस्विना।।113।।

एक दिन वे (नदी के तट पर) जप-ध्यानादि करके जब अपने आश्रम की ओर आ रहे थे तब उन तपस्वी ने मार्ग में एक जनसमूह को देखा।(113)

पश्यन्ति मरणास्थां गामेकां परितः स्थिताः।
एकं जनं समाहूय जगाद च महामनाः।।114।।
गत्वा गवि जलस्यास्य कुरु त्वमभिषेनम्।
उत्थाय चलिता धेनुस्तेन दत्तेन वारिणा।।115।।

ये लोग एक मृत गाय के पास चारों ओर खड़े उसे देख रहे थे। उन मनस्वी संत ने (उनमें से) एक आदमी को अपने पास बुलाकर उससे कहाः "तुम जाकर उस गाय पर इस जल का अभिषेचन करो।" (उन संत ने) दिये हुए जल के अभिषेचन से वह गाय उठकर चल पड़ी।(114, 115)

अहो ! तपस्विनां शक्तिर्विचित्राऽस्ति महीतले।
कीर्तयन्ति तदा कीर्ति सर्वे ग्रामनिवासिनः।।116।।

(गाय को चलती देखकर लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया और कहाः) "अहो ! पृथ्वी पर तपस्वियों की शक्ति विचित्र है !" (इस प्रकार) गाँव के सब निवासी (संत की) कीर्ति का गुणगान करने लगे।(116)

नारायण हरिः शब्दं श्रुत्वैका गृहिणी स्वयम्।
अभावपीडिता नारी प्रत्युवाच कटुवचः।।117।।
युवारूपगुणोपेतो याचमानो न लज्जसे।
स्वयं धनार्जनं कृत्वा पालय त्वं निजोदरम्।।118।।

(एक बार संत श्री आसारामजी ने तपस्वी धर्म पालने की इच्छा से भिक्षावृत्ति करने का मन बनाया और गाँव में एक घर के आगे जाकर कहाः) "नारायण हरि...." यह सुनकर अभाव से पीड़ित गृहस्वामिनी ने अति कठोर वाणी में कहाः "तुम नौजवान और हट्टे-कट्टे होते हुए भी यह भीख माँगते तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम स्वयं कमाकर अपना उदरपालन करो।(117, 118)

बोधितो योगिना सोऽपि विवाहाद्धिरतोऽभवत्।
महात्मा संप्रतिजातः सोऽपि तेषां शुभाशिषा।।120।।

योगीराज द्वारा समझाया हुआ वह भी (तीसरे) विवाह से विरक्त हो गया। उनके शुभ आशीर्वाद से वह भी महात्मा बन गया।(120)
शिवलालः सखा तस्य दर्शनार्थं समागतः।
कुटीरे साधनाऽऽसक्तो भोजनं कुरुते कुतः।।121।।

उनके मित्र शिवलाल (संत जी के) दर्शन के लिए आया। वह रास्ते में सोचने लगाः 'कुटिया में साधना में मग्न (ये संत) भोजन कहाँ से करते हैं?' (121)

मनसा चिन्तितं तस्य पूज्यबापूः स्वयमवेत्।
भाषणे स जगाद तं मिथ्यास्ति तव चिन्तनम्।।122।।
अद्यापि वर्तते पिष्टं भोजनाय ममाश्रमे।
चिन्तां परदिनस्य तु वासुदेवो विधास्यति।।123।।
योगक्षेमं स्वभक्तानां वहति माधवः स्वयं।
एवं स शिवलालोऽपि साधनायां रतोऽभवत्।।124।।

उसने अपने मन में जो विचार किया था, पूज्य बापू ने सत्संग में उसका जिक्र किया और कहाः "तेरा सोचना मिथ्या है (क्योंकि) मेरे आश्रम में भोजन के लिए आज भी आटा है और अगले दिन की चिन्ता भगवान वासुदेव करेंगे। अपने भक्तों के योगक्षेम की रक्षा तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं करते हैं।" इस प्रकार वे शिवलाल भी (सत्संग के प्रभाव से) भगवद् आराधना में लग गये।(122, 123, 124)

पंगुमेकं रूदन् दृष्टवा पारमिच्छन्नदीटम्।
शीघ्रमारोपितं स्कन्धे नदीपारं तदाऽकरोत्।।125।।

(एक बार) नदी के पार करने की इच्छावाले एक पंगु को रूदन करता हुआ देखकर (श्री आसारामजी बापू ने) शीघ्र ही उसको अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करवा दी।(125)

कार्यं कर्तुमशक्तोऽहं पीडितः पादपीडया।
स्वकीय कर्मशालायाः श्रेष्ठिनाहं बहिष्कृतः।।126।।
किं करोमि क्व गच्छामि चिन्ता मां बाधतेतराम्।
कुतोऽहं पालयिष्यामि परिवारमतः परम्।।127।।

(मजदूर ने कहाः) "मैं काम करने में असमर्थ हूँ क्योंकि मेरे पैर चोट लगी हुई है। सेठ ने मुझे काम से निकाल दिया है। अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मुझे यह चिन्ता सता रही है कि अब मैं अपने परिवार का पालन कैसे करूँगा?" (126, 127)

गन्तव्यं तु त्वया तत्र कार्यसिद्धिर्भविष्यति।
एवं स सफलो जातस्तदा तेषां शुभाशिषा।।128।।

(पूज्य बापू ने कहाः) "अब तुम फिर वहाँ जाओ। तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जायेगा।" इस प्रकार उनके (संत के) शुभाशीर्वाद से वह सफल हो गया। (128)

पूज्यबापुप्रभावेण मद्यपा मांसभक्षिणः।
सर्वे सदवृत्यो जाता अन्ये व्यसनिनोऽपि च।।129।।

शराब पीने वाले, मांस खाने वाले लोग एवं अन्य व्यसनी भी पूज्य बापू के प्रभाव से सदाचारी हो गये।(129)

प्रवचने समायान्ति नानार्यो अनेकधा।
योगिना कृपया भूतः डीसा वृन्दावनमिव।।130।।

(वहाँ उनके) प्रवचन में अनेक प्रकार के स्त्री और पुरुष आते थे। (वहाँ) योगी की कृपा से वह डीसा नगर उस समय वृंदावन-सा हो गया था।(130)

समायान्ति सदा तत्र बहवो दुःखिनो नसः।
लभन्ते हृदये शांतिं रोगशोकविवर्जिताः।।131।।

अनेक दुःखी लोग सदा वहाँ (सत्संग में) आया करते थे और वे रोग, शोक एवं चिन्ता से मुक्त होकर हृदय में शांति प्राप्त करते थे।(131)

संतस्य कृपा नूनं तरन्ति पापिनो नराः।
परन्तु पापिना सार्धं धार्मिकोऽपि निमज्जति।।132।।

संत की कृपा से पापी लोग भी (भवसागर से) पार हो जाया करते हैं किन्तु पापी के साथ धार्मिक लोग भी डूब जाया करते हैं।(132)

को भेदो वदत यूयं सुविचार्य विशेषतः।
साधुषु योगसिद्धेषु साधारणजनेषु च।।133।।

(एक बार सभा में योगीराज ने श्रोताओं से पूछाः) "आप सब लोग विशेष रूप से विचार कर बताइये कि योगसिद्ध साधुओं में और साधारण मनुष्यों में क्या अन्तर है? (133)

एकः श्रोता जगाद तं कोऽपि भेदो न विद्यते।
समाना मानवाः सर्वे वदन्तीति मनीषिणः।।134।।

(उनमें से) एक श्रोता ने कहाः "(योगी और साधारण जन में) कोई भेद नहीं है। विद्वान लोग कहते हैं कि सब मानव समान हैं।"(134)

चचाल तत्रतो योगी विहाय स निजाश्रमम्।
केवलमेकवस्त्रेण सहितं स तपोधनः।135।।

(श्रोता से यह उत्तर सुनकर) तपस्वी योगीराज केवल एक वस्त्र (केवल अधोवस्त्र) के साथ आश्रम को छोड़कर चल पड़े।(135)

प्रार्थनां कृतवन्तरते सर्वे भक्ता मुहुर्मुहुः।
परन्तु साधवो नूनं भवन्ति दृढ़निश्चयाः।।136।।

(वहाँ सभा में स्थित) सभी श्रोताओं ने बार-बार (संत से) प्रार्थना की किन्तु साधु लोग तो अपने निश्चय पर सदैव स्थिर रहते हैं।(136)

मायया मोहता नूनं न भवन्ति तपस्विनः।
त्यजन्ति ममतां मोहं कामरागविवर्जिताः।।137।।

तपस्वी लोग माया से मोहित कभी नहीं होते, काम और राग से रहित (संत लोग) मोह और ममता को त्याग देते हैं।(137)

Monday, April 19, 2010



ज्ञानी की गत ज्ञानी जाने... पुस्तक से  - Gyani ki Gat Gyani Jaane... pustak se

'श्री सुखमनी साहिब' में ब्रह्मज्ञानी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया हैः

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरु।।
ब्रह्म गिआनी सरब का ठाकुरु।।
ब्रह्म गिआनी कि मिति कउनु बखानै।।
ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै।।

'ब्रह्मज्ञानी के बारे में आधा अक्षर भी नहीं कहा जा सकता है। वे सभी के ठाकुर हैं। उनकी मति का कौन बखान करे? ब्रह्मज्ञानी की गति को केवल ब्रह्मज्ञानी ही जान सकते हैं।'
ऐसे ब्रह्म ज्ञानी के, ऐसे अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों के शाह के व्यवहार की तुलना किस प्रकार, किसके साथ की जाय?
शुकः त्यागी कृष्ण भोगी जनक राघव नरेन्द्राः।
वशिष्ठ कर्मनिष्ठश्च सर्वेषां ज्ञानीनां समानमुक्ताः।।

'शुकदेव जी त्यागी हैं, श्री कृष्ण भोगी हैं, जनक और श्रीराम राजा हैं, वशिष्ठजी महाराज कर्मनिष्ठावाले हैं फिर भी सभी ज्ञानियों का अनुभव समान है।'

'श्री योग वाशिष्ठ महारामायण' में वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
'ज्ञानवान आत्मपद को पाकर आनंदित होता है और वह आनंद कभी दूर नहीं होता, क्योंकि उसको उस आनंद के आगे अष्टसिद्धियाँ तृण के समान लगती हैं। हे राम ! ऐसे पुरुषों का आचार तथा जिन स्थानों में वे रहते हैं, वह भी सुनो। कई तो एकांत में जा बैठते हैं, कई शुभ स्थानों में रहते हैं, कई गृहस्थी में ही रहते हैं, कई अवधूत होकर सबको दुर्वचन कहते हैं, कई तपस्या करते हैं, कई परम ध्यान लगाकर बैठते हैं, कई नंगे फिरते हैं, कई बैठे राज्य करते हैं, कई पण्डित होकर उपदेश करते हैं, कई परम मौन धारे हैं, कई पहाड़ की कन्दराओं में जा बैठते हैं, कई ब्राह्मण हैं, कई संन्यासी हैं, कई अज्ञानी की नाईं विचरते हैं, कई नीच पामर की नाईं होते हैं, कई आकाश में उड़ते हैं और नाना प्रकार की क्रिया करते दिखते हैं परन्तु सदा अपने स्वरूप में स्थित हैं।'
"ज्ञानवान बाहर से अज्ञानी की नाईं व्यवहार करते हैं, परंतु निश्चय में जगत को भ्रांति मात्र जानते हैं अथवा सब ब्रह्म जानते हैं। वे सदा स्वभाव में स्थित रहते हैं और अनिच्छित प्रारब्ध को भोगते हैं, परंतु जाग्रत में सुषुप्ति की नाईं स्थित रहते हैं।"
(श्रीयोगवा. निर्वाण प्र. सर्ग. 212)
ज्ञानवान को कैसे पहचाना जाय? तस्य तुलना केन जायते? उनकी तुलना किससे करें? इसीलिए नानकजी ने कहाः
ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जाने।
'ब्रह्मज्ञानी की गति को तो केवल ब्रह्मज्ञानी ही जान सकते हैं।'

कुछ ऐसे ज्ञानवान हैं जो लोकाचार करते हैं, उपदेश देते हैं, वैदिक ज्ञानध्यान का प्रकाश देते हैं। कुछ ऐसे हैं कि सब कुछ छोड़कर एकांत में समाधि में रहते हैं। कुछ ज्ञानवान ऐसे हैं कि पागलों जैसा या उग्ररूप धारण कर लेते हैं और लोक संपर्क से बचे रहते हैं। कुछ ऐसे होते हैं कि लोकांतर में योग शक्ति से विचरण करते हैं और कोई ऐसे होते हैं कि योद्धा और राजा होकर राज करते हैं।

जैसे - भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे बड़ा राजकाज करते हैं - द्वारिका का राज चलाते हैं, संधिदूत बनकर जाते हैं, 'नरो वा कुंजरो वा' भी कर देते हैं, करवा देते हैं, रणछोड़राय भी हो जाते हैं परंतु अदर से ज्यों-के-त्यों हैं ! अरे ! वह कालयवन नाराज है, भागो-रे-भागो ! कहकर भाग जाते हैं तो कायर लोग बोलेंगे कि हम में और श्रीकृष्ण में कोई फर्क नहीं है। हम भी भागते हैं और श्रीकृष्ण भी भाग गये। अरे मूर्ख ! श्रीकृष्ण भागे, परंतु वे अपने आप में तृप्त थे। उनका भागना भय या कायरता नहीं, व्यवस्था थी, माँग थी किंतु औरों के लिए विवशता और कायरता होती है। वे रण छोड़कर भागे हैं, युद्ध का मैदान छोड़कर भागे हैं फिर भी कहा जाता है - रणछोड़राय की जय ! क्योंकि वे अपने आप में पूर्ण हैं, सत्ता समान में स्थित हैं।

ऐसे ही भगवान श्री राम 'हा सीता, हा ! सीते' कर रहे हैं.... कामी आदमी पत्नी के लिए रोये और श्रीराम जी रोते हुए दिखें, बाहर से तो दोनों को एक ही तराजू में तौलने का कोई दुःसाहस कर ले परंतु श्रीरामचंद्रजी ' हा सीते ! हा सीते !' करते हुए भी भीतर से तो अपने सत्ता समान में स्थित हैं।
शुकदेव जी महाराज को देखें तो महान त्यागी और श्रीकृष्ण बड़े विलक्षण भोगी... राजा जनक को देखें तो भोग और राज-काज में उलझे दिखेंगे और वशिष्ठ जी बड़े कर्मकांडी... इन सब ज्ञानियों का व्यवहार अलग-अलग है, परंतु भीतर से सब समान रूप से परमात्म-अनुभव में रमण करते हैं।

Tuesday, April 6, 2010



आंतर ज्योत पुस्तक से - Aantar Jyot pustak se

मानवमात्र की सफलता का मूल उसकी आत्मश्रद्धा में निहित है। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है। तन-बल, मन-बल, बुद्धि-बल एवं आत्मबल ऐसे कई प्रकार के बल हैं, उनमें आत्मबल सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबललल में अचल श्रद्धा यह विजय प्राप्त करने की सर्वोत्तम कुंजी है। जहाँ आत्मबल में श्रद्धा नहीं है वहीं असफलता, निराशा, निर्धनता, रोग आदि सब प्रकार के दुःख देखने को मिलते हैं। इससे विपरीत जहाँ आत्म बल में अचल श्रद्धा है वहाँ सफलता, समृद्धि, सुख, शांति, सिद्धि आदि अनेक प्रकार के सामर्थ्य देखने को मिलते हैं।
जैसे-जैसे मनुष्य अपने सामर्थ्य में अधिकाधिक विश्वास करता है, वैसे-वैसे वह व्यवहार एवं परमार्थ दोनों में अधिकाधिक विजय हासिल करता है। अमुक कार्य करने का उसमें सामर्थ्य है, ऐसा विश्वास और श्रद्धा-यह कार्यसिद्धि का मूलभूत रहस्य है।
मनुष्य अपनी उन्नति शीघ्र नहीं कर पाता इसका मुख्य कारण यही है कि उसे अपने सामर्थ्य पर संदेह होता है। वह 'अमुक कार्य मेरे से न हो सकेगा' ऐसा सोच लेता है। जिसका परिणाम यह आता है कि वह उस कार्य को कभी करने का प्रयत्न भी नहीं करता। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है।
आत्मबल में अविश्वास प्रयत्न की सब शक्तियों को क्षीण कर देता है। प्रयत्न के बिना कोई भी फल प्रगट नहीं होता। अतः प्रयत्न को उत्पन्न करने वाली आत्मश्रद्धा का जिसमें अभाव है उसका जीवन निष्क्रिय, निरुत्साही एवं निराशाजनक हो जाता है। जहाँ-जहाँ कोई छोटा-बड़ा प्रयत्न होता है वहाँ-वहाँ उसके मूल में आत्मश्रद्धा ही स्थित होती है और अंतःकरण में जब तक आत्मश्रद्धा स्थित होती है तब तक प्रयत्नों का प्रवाह अखंड रूप से बहता रहता है। आत्मश्रद्धा असाधारण होती है तो प्रयत्न का प्रवाह किसी भी विघ्न से न रुके ऐसा असाधारण एवं अद्वितिय होता है।
'मैं अमुक कार्य कर पाऊँगा' – ऐसी साधारण श्रद्धा भी यदि अंतःकरण में होती है तभी प्रयत्न का आरंभ होता है एवं प्रयत्न में मनुष्य में निहित गुप्त सामर्थ्य को प्रगट करने वाला अमोघ बल समाविष्ट होता है। दियासिलाई में अग्नि है किन्तु जब तक उसे पिसा नहीं जाता तब तक करोड़ वर्ष भी वह यूँ ही पड़ी रहे तो भी उसमें से अग्नि प्रगट नहीं होती। से घिसकर ही अग्नि को प्रगट किया जा सकता है ऐसे ही मनुष्य में निहित अत्यंत सामर्थ्य प्रयत्न के द्वारा ही प्रगट होता है।
मनुष्य में कितना सामर्थ्य निहित है इसका निर्णय कोई भी नहीं कर सकता। शास्त्र को उसे शाश्वत, सर्व सामर्थ्यवान, सर्वज्ञ, सत्-चित्-आनन्द, अनंत, अखंड, अव्यय, अविनाशी, निरंजन, निराकार, निर्लेप एवं परम प्रेमास्पद कहते हैं अतः मनुष्य जो चाहे वह हो सकता है। पाणिनी जैसे वैयाकरणिक, पतंजलि जैसे योग-प्रवर्तक, वशिष्ठजी जैसे तत्त्वज्ञ, विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी, जैमिनी जैसे उत्तम मीमांसक, कालिदास जैसे समर्थ कविकुलशिरोमिणी, धन्वंतरि जैसे वैद्य, भास्कराचार्य जैसे प्रखर ज्योतिर्विद, लिंकन जैसे मानवतावादी, गाँधी जी जैसे सत्यनिष्ठ, रमण महर्षि जैसे तत्त्वनिष्ठ, टैगोर जैसे महान कवि, जिब्रान जैसे सर्वांग सर्जक, स्वामी रामतीर्थ जैसे वैरागी, विवेकानन्द जैसे धर्म-धुरंधर, हेनरी फोर्ड जैसे उद्योगपति, आईन्सटाईन जैसे वैज्ञानिक, सुकरात जैसे सत्यवक्ता, डायोजिनियस जैसे निःस्पृही, सीजर जैसा विजेता, तुकारामजी जैसे क्षमाशील एवं ज्ञानदेव जैसा ज्ञानी-ऐसी आत्मश्रद्धा को अंतःकरण में स्थिर करके ही हुआ जा सकता है।
जिसके अंतःकरण में आत्मश्रद्धा स्थित हो वह भले एकदम अकेला हो, साधनविहीन हो फिर भी सफलता उसी का वरण करती है। उसके रोम-रोम में व्याप्त आत्मश्रद्धारूपी लौहचुंबक आस-पास से अनगिनत साधनरूपी लौहकणों को खींच लेता है। इसके विपरीत जिसकी आत्मश्रद्धा दब गयी हो वह भले लाखों मनुष्यों से घिरा हुआ हो एवं असंख्य साधनों से संपन्न हो फिर भी पराजित होता है। ऐसे कई उदाहरण हमें खुली आँखों देखने को मिलते हैं।
अपने इष्टावतार श्री रामचन्द्रजी के जीवन का ही दृष्टांत लें। जिसने देवताओं तक को अपना दास बना लिया था ऐसे रावण को हराने का निश्चय जब उन्होंने किया तब उनके पास कौन-से साधन थे ? समुद्र को पार करने के लिए उनके पास एक छोटी-सी नौका तक न थी। रावण एवं उसकी विशाल सेना से टक्कर ले सके ऐसा एक भी योद्धा उस वक्त उनके पास न था फिर भी श्रीराम ने निश्चय किया सीता को पाने का, रावण को हराने का तो अमित शक्तिवाला रावण भी रणभूमि की धूल चाटने लगा। यह क्या सिद्ध करता है ?
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे।
कार्यसिद्धि में पहले साधनों की नहीं, वरन् आत्मश्रद्धा की जरूरत है। आत्मश्रद्धा के पीछे साधन तो उसी प्रकार जुट जाते हैं जैसे देह के पीछे छाया।
ध्रुव का उदाहरण देखें। कहाँ पाँच वर्ष का नन्हा-सा एक बालक और कहाँ सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु के अटल पद की प्राप्ति ! नारदजी ने अनेक विघ्न बताये फिर भी ध्रुव तनिक न डिगा। 'दूसरों को भले यह असाध्य लगे किन्तु मेरे लिए कुछ भी असाध्य नहीं है' – ऐसे दृढ़ आत्मविश्वास से उसने भयंकर तप शुरु किया, जिसके फलस्वरूप भगवान विष्णु को दर्शन देने ही पड़े।
शिवाजी, लिंकन, गाँधी जी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, सुकरात, नरसिंह मेहता, मीरा, स्वामी रामतीर्थ, रमण महर्षि, योगानंद, पूज्यपाद लीलाशाहजी महाराज, स्वामी टेऊँराम वगैरह किन्हीं भी महापुरुष का जीवन देखें तो उनकी सफलता का रहस्य उनकी आत्मश्रद्धा में ही निहित दिखायी देगा।
आत्मा में अचल श्रद्दा होनी चाहिए। अपने में थोड़ा सा भी संशय, शंका अथवा अविश्वास आ जाय तो निराशा एवं असफलता मिले बिना न रहे। लाखों योद्धाओं को युद्ध में पराजित करने वाले अर्जुन की सामान्य भीलों से पराजय में एवं 'असंभव' शब्द तक जिसके शब्दकोश में न था ऐसे नेपोलियन की 'वॉटरलू' के युद्ध में पराजय का कारण आत्मा में प्रगट हुए क्षणभर के अविश्वास के सिवाय अन्य कुछ भी न था। आत्मा में अविश्वास तृण जैसी मुसीबत को पहाड़ से समान कर देता है और आत्मा में विश्वास पहाड़-सी मुसीबत को भी तृण सा कर देता है।
आत्मबल में श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों ने ही इस जगत में सामान्य मनुष्यों के लिए असंभव दिखते कार्यों को सिद्ध कर दिखाया है। 'अमुक कार्य मैं' जरूर कर सकूँगा।' ऐसा दृढ़तापूर्वक मानने एवं तदनुसार प्रयत्न में लगना इसी का नाम श्रद्धा है। किसी बात को न मानना, किन्तु तदनुनासार प्रयत्न न करना यह श्रद्धा नहीं, वरन् कायरता अथवा प्रमाद है।
आत्मबल में श्रद्धा उत्पन्न होते ही कायर शूरवीर हो जाते हैं, प्रमादी एवं आलसी उद्यमी हो जाते हैं, मूर्ख विद्वान हो जाते हैं, रोगी निरोग हो जाते हैं, दरिद्र धनवान हो जाते हैं, निर्बल बलवान हो जाते हैं और जीव शिवस्वरूप हो जाते हैं।
असफलता से हताश न हों। बारिश से पूर्व तेज गर्मी पड़ती है, उस गर्मी से व्याकुल न हों। जब लंबी कूद लगानी हो तो पाँच-दस कदम पीछे हटना पड़ता है। अतः असफलताओं से निराश मत हो। हिम्मत रखो। ज्यादा मेहनत करो। ज्यादा तीव्र पुरुषार्थ करो। कायर न बनो। कर्त्तव्य से च्युत न हो। अंतःकरण में आत्मश्रद्धा रखकर ज्यादा से ज्यादा पुरुषार्थ करो। सफलता आपका ही वरण करेगी।
जिसमें वक्ता होने की लेशमात्र भी योग्यता न थी ऐसे महान ग्रीक वक्ता डिमोस्थिनिस को ही देखें। जिसके द्वारा उच्चारण भी स्पष्ट नहीं हो पाता था, सभा में खड़े होते ही जिसके पैर थर-थर काँपने लगते थे एवं जिसमें पूरी विद्वता भी न थी ऐसे डिमोस्थिनिस ने निश्चय किया कि 'मुझे सर्वोत्कृष्ट वक्ता होना है, मुझमें ऐसा होने का पूरा सामर्थ्य है' और उसने सागरतट पर जाकर, सागर की लहरों को जीवित श्रोता मानकर बोलने की शुरुआत की। परिणाम क्या हुआ उसे सारा विश्व जानता है वह ग्रीक जगत का सर्वश्रेष्ठ वक्ता बना। इतना ही नहीं, अर्वाचीन काल में भी इस कला के अभ्यासियों के लिए सर्वोत्तम आदर्श बना।
किसी भी उच्च उद्देश्य का निश्चय करते समय संकोच न करो, 'अमुक कार्य को करने की मेरी योग्यता नहीं है' ऐसे संशय को अपने हृदय में जरा-सी स्थान न दो। व्यवहार में आपकी स्थिति चाहे कितनी भी दरिद्र क्यों न हो ? फिर भी चिंता न करो। धन-वैभव के तमाम आकर्षण देखकर आकर्षित न हो जाओ। अनंत-अनंत आकर्षणों को देखकर भी, जो सर्वोच्च है उस अपने आत्मस्वरूप में ही मस्त रहो। बड़े-बड़े वैभवों से परिपूर्ण व्यक्ति भी आपके आत्मबल के आगे नन्हें लगेंगे।
अमाप श्रद्धा एवं विश्वास के द्वारा अंतःकरण की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके मानव नर में से नारायण बन सकता है।
जैसे-जैसे आत्मश्रद्धा बढ़ती है वैसे-वैसे कार्यशक्ति भी बढ़ती जाती है। हमारी श्रद्धा का पात्र अगर छोटा होगा तो उसमें ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह भी उतनी ही कम मात्रा में होगा।
जिन्हें अपने जीवन की महानता पर अडिग श्रद्धा थी ऐसे व्यक्ति इतिहास के पन्नों में अमर हो गये हैं। जो ऐसा मानते हैं कि उन्हें कहीं जाना ही है, ऐसे व्यक्तियों के लिए दुनिया अपने-आप रास्ता बना देती है।
आपका जीवन आपकी श्रद्धा के अनुसार ही होगा। जीवन को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को अपना जीवन उत्साह, उमंग एवं उल्लास के साथ जीना चाहिए एवं अपनी शक्तियों पर विश्वास रखकर, सफलता के पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
श्रद्धा ही हमें सच्चे अर्थ में जीवन जीना सिखाती है। जहाँ से जीवन-प्रवाह चलता है उस शक्ति-स्रोत का द्वार हमारी श्रद्धा ही खोलती है। व्यक्ति की आत्मश्रद्धा के बल पर ही हम उसके जीवन की सफलता का मूल्यांकन कर सकते हैं। वास्तव में आशा की क्षणों में जो दिखायी देता है वही मनुष्य का सच्चा स्वरूप है। निराशा की क्षणों में उसे जो दिखता है वह अंधकार से घिरा हुआ उसका रूप सत्य नहीं है।
हम अपने मन को अपनी शक्तियों एवं योग्यताओं के प्रति जैसा विश्वास दिलाते हैं, वैसी ही सफलता हमें मिलती है। दुनिया व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी आत्मश्रद्धा एवं दृढ़ जीवन-लक्ष्य से ही करती है। जिस व्यक्ति में आत्मश्रद्धा नहीं है उस पर कोई विश्वास नहीं करता।
आत्मश्रद्धा मानसिक राज्य की सम्राट है। मन की अन्य शक्तियाँ मानों, उसकी सेना के सैनिक हैं। वे शक्तियाँ अपने सम्राट की प्रेरणा से बढ़ती हैं। सैनिक अपने सम्राट के पीछे चलेंगे, उसके विश्वास के पीछे चलेंगे, उसके लिए मर मिटेंगे लेकिन जिस समय सम्राट डगमगा जायेगा, उसी समय उसकी सेना भी नष्ट हो जायेगी अर्थात् आत्मश्रद्धा के डगमगाते ही मन की शक्ति भी नष्ट हो जायेगी।
पूरा विज्ञान जगत एडीसन का नाम बहुत अच्छे से जानता है। उसने एक साथ कई प्रयोग शुरु किये थे। प्रत्येक प्रयोग में कोई-न-कोई गलती होती थी। हजारों रुपयों के साधन एवं लाखों रूपयों की यंत्र-सामग्री स्थापित करने पर भी इच्छित परिणाम नहीं आता था। वह पुनः नये तरीके से बार-बार प्रयोग करता किन्तु मुख्य गलती हो ही जाती थी। आगे क्या करें ? यह समझ में नहीं आ रहा था। एक रात्रि को उसकी प्रयोगशाला में आग लगी और सब जलकर खाक हो गया।
सुबह एडिसन ने उसी राख के ढेर पर खड़े होकर अपनी डायरी में लिखाः "दैवी-प्रकोप की भी अपनी कीमत होती है। इस भयंकर आग में मेरी सिद्धियों के साथ मेरी गलतियाँ भी जल गयीं। ईश्वर का आभार है कि अब सब नये सिरे से शुरु हो सकेगा।" उसके दूसरे ही क्षण से उसने एक छोटी सी झोंपड़ी में एकदम सादे साधनों के द्वारा अपने प्रयोग द्वारा अपने प्रयोग शुरु किये। सब कुछ भस्म कर देने वाली आग उसके उत्साह को भस्म न कर सकी। एडिसन ने छोटी-बड़ी मुसीबतों की अवहेलना न की होती तो उसके नाम से 2000 से भी ज्यादा खोजें न लिखी जातीं !
विश्वविख्यात नेपोलियन बोनापार्ट ने एक सामान्य सैनिक के रूप में काम काज शुरु किया था। एक युद्ध के दौरान उसकी टुकड़ी जंगल में पड़ाव डालकर बैठी थी। उसके नेता ने नेपोलियन को दुश्मन की छावनी के पास जाकर आवश्यक जानकारी ले आने का आदेश दिया। हाथ में थोड़ी-सी रूपरेखावाला नक्शा देकर समझाते हुए कहाः "मिलेगा न रास्ता ?"
"रास्ता ढूँढ लूँगा और नहीं मिलेगा तो रास्ता स्वयं बना सकूँगा।" ऐसा कहकर नेपोलियन दृढ़तापूर्वक चल पड़ा अपने कार्य को सिद्ध करने। अपने संपूर्ण जीवन में दूसरों के द्वारा बनाये गये मार्गों को ढूँढने में उसने समय नहीं बिगाड़ा वरन् अनेकानेक अवरोधों के बीच भी अपना रास्ता आप बना लिया। दृढ़ निश्चय एवं आत्मश्रद्धा से अपने मार्ग में आने वाली अनेकों मुसीबतों को पैरों तले कुचल कर जीवन को सफलता के शिखर पर ला खड़ा किया। फ्रांस का महान सम्राट बनकर उसने अपने वाक्य को सिद्ध कर बताया। इतिहास इसका साक्षी है।
पोलियो से पीड़ित एक व्यक्ति बैसाखी बिना नहीं चल पाता था। उसके डॉक्टर ने अनेक उपाय किये किन्तु वह बैसाखी के बिना नहीं चल पाता था। एक बार दवाखाने में आग लगी, ज्वालाएँ आसमान को चूमने लगीं, बैसाखी को ढूँढने का समय ही न था और वह एक पल भी बिगाड़ता तो जल जाता। उसने सीधे ही दौड़ना शुरु किया। बैसाखी सदा के लिए अपने आप छूट गयी। कहाँ से आयी यह शक्ति ? आत्मा के अखूट भंडार में से ही न !
आत्मश्रद्धा से संपूर्ण जीवन में परिवर्तन आ जाता है। असफलता के बादल बिखरकर सफलता का सूर्य चमकने लगता है।