पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, October 28, 2010


सदा दिवाली पुस्तक से - Sada Diwali pustak se

धनतेरस, काली चौदस, दिवाली, नूतनवर्ष और भाईदूज.... इन पर्वों का पुञ्ज माने दिवाली के त्योहार। शरीर में पुरुषार्थ, हृदय में उत्साह, मन में उमंग और बुद्धि में समता.... वैरभाव की विस्मृति और स्नेह की सरिता का प्रवाह... अतीत के अन्धकार को अलविदा और नूतनवर्ष के नवप्रभात का सत्कार... नया वर्ष और नयी बात.... नया उमंग और नया साहस... त्याग, उल्लास, माधुर्य और प्रसन्नता बढ़ाने के दिन याने दीपावली का पर्वपुञ्ज।
नूतनवर्ष के नवप्रभात में आत्म-प्रसाद का पान करके नये वर्ष का प्रारंभ करें...
प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वम्
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम्।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यम्
तद् ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः।।
'प्रातःकाल में मैं अपने हृदय में स्फुरित होने वाले आत्म-तत्त्व का स्मरण करता हूँ। जो आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है, जो परमहंसों की अंतिम गति है, जो तुरीयावस्थारूप है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को हमेशा जानता है और जो शुद्ध ब्रह्म है, वही मैं हूँ। पंचमहाभूतों से बनी हुई यह देह मैं नहीं हूँ।'
'जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, ये तीनों अवस्थाएँ तो बदल जाती हैं फिर भी जो चिदघन चैतन्य नहीं बदलता। उस अखण्ड आत्म-चैतन्य का मैं ध्यान करता हूँ। क्योंकि वही मेरा स्वभाव है। शरीर का स्वभाव बदलता है, मन का स्वभाव बदलता है, बुद्धि के निर्णय बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता वह अमर आत्मा मैं हूँ। मैं परमात्मा का सनातन अंश हूँ।' ऐसा चिन्तन करने वाला साधक संसार में शीघ्र ही निर्लेपभाव को, निर्लेप पद को प्राप्त होता है।
चित्त की मलिनता चित्त का दोष है। चित्त की प्रसन्नता सदगुण है। अपने चित्त को सदा प्रसन्न रखो। राग-द्वेष के पोषक नहीं किन्तु राग-द्वेष के संहारक बनो।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरु के सिवाय अन्य किसी के ऊपर अति विश्वास न करो एवं अति सन्देह भी न करो।
अपने से छोटे लोगों से मिलो तब करुणा रखो। अपने से उत्तम व्यक्तियों से मिलो तब हृदय में श्रद्धा, भक्ति एवं विनय रखो। अपने समकक्ष लोगों से व्यवहार करने का प्रसंग आने पर हृदय में भगवान श्रीराम की तरह प्रेम रखो। अति उद्दण्ड लोग तुम्हारे संपर्क में आकर बदल न पायें तो ऐसे लोगों से थोड़े दूर रहकर अपना समय बचाओ। नौकरों को एवं आश्रित जनों को स्नेह दो। साथ ही साथ उन पर निगरानी रखो।
जो तुम्हारे मुख्य कार्यकर्ता हों, तुम्हारे धंधे-रोजगार के रहस्य जानते हों, तुम्हारी गुप्त बातें जानते हों उनके थोड़े बहुत नखरे भी सावधानीपूर्वक सहन करो।
अति भोलभाले भी मत बनो और अति चतुर भी मत बनो। अति भोलेभाले बनोगे तो लोग तुम्हें मूर्ख जानकर धोखा देंगे। अति चतुर बनोगे तो संसार का आकर्षण बढ़ेगा।
लालची, मूर्ख और झगड़ालू लोगों के सम्पर्क में नहीं आना। त्यागी, तपस्वी और परहित परायण लोगों की संगति नहीं छोड़ना।
कार्य सिद्ध होने पर, सफलता मिलने पर गर्व नहीं करना। कार्य में विफल होने पर विषाद के गर्त्त में नहीं गिरना।
शस्त्रधारी पुरुष से शस्त्ररहित को वैर नहीं करना चाहिए। राज जानने वाले से कसूरमंद (अपराधी) को वैर नहीं करना चाहिए। स्वामी के साथ अनुचर को, शठ और दुर्जन के साथ सात्त्विक पुरुष को एवं धनी के साथ कंगाल पुरुष को वैर नहीं करना चाहिए। शूरवीर के साथ भाट को, राजा के साथ कवि को, वैद्य के साथ रोगी को एवं भण्डारी के साथ भोजन खाने वाले को भी वैर नहीं करना चाहिए। इन नौ लोगों से जो वैर या विरोध नहीं करता वह सुखी रहता है।
अति संपत्ति की लालच भी नहीं करना और संसार-व्यवहार चलाने के लिए लापरवाह भी नहीं होना। अक्ल, होशियारी, पुरुषार्थ एवं परिश्रम से धनोपार्जन करना चाहिए। धनोपार्जन के लिए पुरुषार्थ अवश्य करें किन्तु धर्म के अनुकूल रहकर। गरीबों का शोषण करके इकट्ठा किया हुआ धन सुख नहीं देता।
लक्ष्मी उसी को प्राप्त होती है जो पुरुषार्थ करता है, उद्योग करता है। आलसी को लक्ष्मी त्याग देती है। जिसके पास लक्ष्मी होती है उसको बड़े-बड़े लोग मान देते हैं। हाथी लक्ष्मी को माला पहनाता है।
लक्ष्मी के पास उल्लू दिखाई देता है। इस उल्लू के द्वारा निर्दिष्ट है कि निगुरों के पास लक्ष्मी के साथ ही साथ अहंकार का अन्धकार भी आ जाता है। उल्लू सावधान करता है कि सदा अच्छे पुरुषों का ही संग करना चाहिए। हमें सावधान करें, डाँटकर सुधारें ऐसे पुरुषों के चरणों में जाना चाहिए।
वाहवाही करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं किन्तु तुम महान् बनो इस हेतु से तुम्हें सत्य सुनाकर सत्य परमात्मा की ओर आकर्षित करने वाले, ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग पर ले चलने वाले महापुरुष तो विरले ही होते हैं। ऐसे महापुरुषों का संग आदरपूर्वक एवं प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। रामचन्द्रजी बड़ों से मिलते तो विनम्र भाव से मिलते थे, छोटों से मिलते तब करूणा से मिलते थे। अपने समकक्ष लोगों से मिलते तब स्नेहभाव से मिलते थे और त्याज्य लोगों की उपेक्षा करते थे।
जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए यह शास्त्रीय नियम आपके जीवन में आना ही चाहिए।
हररोज प्रभात में शुभ संकल्प करोः "मुझे जैसा होना है ऐसा मैं हूँ ही। मुझमें कुछ कमी होगी तो उसे मैं अवश्य निकालूँगा।" एक बार प्रयत्न करो.... दो बार करो..... तीन बार करो.... अवश्य सफल बनोगे।
'मेरी मृत्यु कभी होती ही नहीं। मृत्यु होती है तो देह की होती है....' ऐसा सदैव चिन्तन किया करो।
'मैं कभी दुर्बल नहीं होता। दुर्बल और सबल शरीर होता है। मैं तो मुक्त आत्मा हूँ... चैतन्य परमात्मा का सनातन अंश हूँ.... मैं सदगुरु तत्त्व का हूँ। यह संसार मुझे हिला नहीं सकता, झकझोर नहीं सकता। झकझोरा जाता है शरीर, हिलता है मन। शरीर और मन को देखने वाला मैं चैतन्य आत्मा हूँ। घर का विस्तार, दुकान का विस्तार, राज्य की सीमा या राष्ट्र की सीमा बढ़ाकर मुझे बड़ा कहलवाने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो असीम आत्मा हूँ। सीमाएँ सब माया में हैं, अविद्या में हैं। मुझ आत्मा में तो असीमता है। मैं तो मेरे इस असीम राज्य की प्राप्ति करूँगा और निश्चिन्त जिऊँगा। जो लोग सीमा सुरक्षित करके अहंकार बढ़ाकर जी गये, वे लोग भी आखिर सीमा छोड़कर गये। अतः ऐसी सीमाओं का आकर्षण मुझे नहीं है। मैं तो असीम आत्मा में ही स्थित होना चाहता हूँ....।'
ऐसा चिन्तन करने वाला साधक कुछ ही समय में असीम आत्मा का अनुभव करता है।
प्रेम के बल पर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। बन्दूक पर हाथ रखकर अगर वह निश्चिन्त रहना चाहे तो वह मूर्ख है। जहाँ प्रेम है वहाँ ज्ञान की आवश्यकता है। सेवा में ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान में प्रेम की आवश्यकत है। विज्ञान को तो आत्मज्ञान एवं प्रेम, दोनों की आवश्यकता है।
मानव बन मानव का कल्याण करो। बम बनाने में अरबों रुपये बरबाद हो रहे हैं। ....और वे ही बम मनुष्य जाति के विनाश में लगाये जाएँ ! नेताओं और राजाओं की अपेक्षा किसी आत्मज्ञानी गुरु के हाथ में बागडोर आ जाय तो विश्व नन्दनवन बन जाये।
हम उन ऋषियों को धन्यवाद देते हैं कि जिन्होंने दिवाली जैसे पर्वों का आयोजन करके मनुष्य से मनुष्य को नजदीक लाने का प्रयास किया है, मनुष्य की सुषुप्त शक्तियों को जगाने का सन्देश दिया है। जीवात्मा का परमात्मा से एक होने के लिए भिन्न-भिन्न उपाय खोजकर उनको समाज में, गाँव-गाँव और घर-घर में पहुँचाने के लिए उन आत्मज्ञानी महापुरुषों ने पुरुषार्थ किया है। उन महापुरुषों को आज हम हजार-हजार प्रणाम करते हैं।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।
वेदव्यासजी महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं-
"आज वर्ष के प्रथम दिन जो व्यक्ति हर्ष में रहता है उसका सारा वर्ष हर्ष में बीतता है। जो व्यक्ति चिन्ता और शोक में रहता है उसका सारा वर्ष ऐसा ही जाता है।"
जैसी सुबह बीतती है ऐसा ही सारा दिन बीतता है। वर्ष की सुबह माने नूतन वर्ष का प्रथम दिन। यह प्रथम दिन जैसा बीतता है ऐसा ही सारा वर्ष बीतता है।
व्यापारी सोचता है कि वर्ष भर में कौन सी चीजें दुकान में बेकार पड़ी रह गईं, कौन सी चीजों में घाटा आया और कौन सी चीजों में मुनाफा हुआ। जिन चीजों में घाटा आता है उन चीजों का व्यापार वह बन्द कर देता है। जिन चीजों में मुनाफा होता है उन चीजों का व्यापार वह बढ़ाता है।
इसी प्रकार भक्तों एवं साधकों को सोचना चाहिए कि वर्ष भर में कौन-से कार्य करने से हृदय उद्विग्न बना, अशान्त हुआ, भगवान, शास्त्र एवं गुरुदेव के आगे लज्जित होना पड़ा अथवा अपनी अन्तरात्मा नाराज हुई। ऐसे कार्य, ऐसे धन्धे, ऐसे कर्म, ऐसी दोस्ती बन्द कर देनी चाहिए। जिन कर्मों के लिए सदगुरु सहमत हों और जिन कर्मों से अपनी अन्तरात्मा प्रसन्न हो, भगवान प्रसन्न हों, ऐसे कर्म बढ़ाने का संकल्प कर लो।
आज का दिन वर्षरूपी डायरी का प्रथम पन्ना है। गत वर्ष की डायरी का सिंहावलोकन करके जान लो कि कितना लाभ हुआ और कितनी हानि हुई। आगामी वर्ष के लिए थोड़े निर्णय कर लो कि अब ऐसे-ऐसे जीऊँगा। आप जैसे बनना चाहते हैं ऐसे भविष्य में बनेंगे, ऐसा नहीं। आज से ही ऐसा बनने की शुरुआत कर दो। 'मैं अभी से ही ऐसा हूँ।' यह चिन्तन करो। ऐसे न होने में जो बाधाएँ हों उन्हें हटाते जाओ तो आप परमात्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हो। कुछ भी असंभव नहीं है।
आप धर्मानुष्ठान और निष्काम कर्म से विश्व में उथल पुथल कर सकते हैं। उपासना से मनभावन इष्टदेव को प्रकट कर सकते हैं। आत्मज्ञान से अज्ञान मिटाकर राजा खटवांग, शुकदेव जी और राजर्षि जनक की तरह जीवन्मुक्त भी बन सकते हैं।
आज नूतन वर्ष के मंगल प्रभात में पक्का संकल्प कर लो कि सुख-दुःख में, लाभ-हानि में और मान-अपमान में सम रहेंगे। संसार की उपलब्धियों एवं अनुपलब्धियों में खिलौनाबुद्धि करके अपनी आत्मा आयेंगे। जो भी व्यवहार करेंगे वह तत्परता से करेंगे। ज्ञान से युक्त होकर सेवा करेंगे, मूर्खता से नहीं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त बनेंगे। जो भी कार्य करेंगे वह तत्परता से एवं सतर्कता से करेंगे।
रोटी बनाते हो तो बिलकुल तत्परता से बनाओ। खाने वालों की तन्दरुस्ती और रूचि बनी रहे ऐसा भोजन बनाओ। कपड़े ऐसे धोओ कि साबुन अधिक खर्च न हो, कपड़े जल्दी फटे नहीं और कपड़ों में चमक भी आ जाये। झाड़ू ऐसा लगाओ कि मानो पूजा कर रहे हो। कहीं कचरा न रह जाये। बोलो ऐसा कि जैसा श्रीरामजी बोलते थे। वाणी सारगर्भित, मधुर, विनययुक्त, दूसरों को मान देनेवाली और अपने को अमानी रखने वाली हो। ऐसे लोगों का सब आदर करते हैं।
अपने से छोटे लोगों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करो। दीन-हीन, गरीब और भूखे को अन्न देने का अवसर मिल जाय तो चूको मत। स्वयं भूखे रहकर भी कोई सचमुच भूखा हो तो उसे खिला दो तो आपको भूखा रहने में भी अनूठा मजा आयेगा। उस भोजन खाने वाले की तो चार-छः घण्टों की भूख मिटेगी लेकिन आपकी अन्तरात्मा की तृप्ति से आपकी युगों-युगों की और अनेक जन्मों की भूख मिट जायेगी।
अपने दुःख में रोने वाले ! मुस्कुराना सीख ले।
दूसरों के दर्द में आँसू बहाना सीख ले।
जो खिलाने में मजा है आप खाने में नहीं।
जिन्दगी में तू किसी के काम आना सीख ले।।
सेवा से आप संसार के काम आते हैं। प्रेम से आप भगवान के काम आते हैं। दान से आप पुण्य और औदार्य का सुख पाते हैं और एकान्त व आत्मविचार से दिलबर का साक्षात्कार करके आप विश्व के काम आते हैं।
लापरवाही एवं बेवकूफी से किसी कार्य को बिगड़ने मत दो। सब कार्य तत्परता, सेवाभाव और उत्साह से करो। भय को अपने पास भी मत फटकने दो। कुलीन राजकुमार के गौरव से कार्य करो।
बढ़िया कार्य, बढ़िया समय और बढ़िया व्यक्ति का इन्तजार मत करो। अभी जो समय आपके हाथ में है वही बढ़िया समय है। वर्त्तमान में आप जो कार्य करते हैं उसे तत्परता से बढ़िया ढंग से करें। जिस व्यक्ति से मिलते हैं उसकी गहराई में परमेश्वर को देखकर व्यवहार करें। बढ़िया व्यक्ति वही है जो आपके सामने है। बढ़िया काम वही है जो शास्त्र-सम्मत है और अभी आपके हाथ में है।
अपने पूरे प्राणों की शक्ति लगा कर, पूर्ण मनोयोग के साथ कार्य करो। कार्य पूरा कर लेने के बाद कर्त्तापन को झाड़ फेंक दो। अपने अकर्त्ता, अभोक्ता, शुद्ध, बुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप में गोता लगाओ।
कार्य करने की क्षमता बढ़ाओ। कार्य करते हुए भी अकर्त्ता, अभोक्ता आत्मा में प्रतिष्ठित होने का प्रयास करो।
ध्यान, भजन, पूजन का समय अलग और व्यवहार का समय अलग... ऐसा नहीं है। व्यवहार में भी परमार्थ की अनुभूति करो। व्यवहार और परमार्थ सुधारने का यही उत्तम मार्ग है।
राग द्वेष क्षीण करने से सामर्थ्य आता है। राग-द्वेष क्षीण करने के लिए 'सब आपके हैं.... आप सबके हैं...' ऐसी भावना रखो। सबके शरीर पचंमहाभूतों के हैं। उनका अधिष्ठान, आधार प्रकृति है। प्रकृति का आधार मेरा आत्मा-परमात्मा एक ही है। ॐ.... ॐ.... ॐ.... ऐसा सात्त्विक स्मरण व्यवहार और परमार्थ में चार चाँद लगा देता है।
सदैव प्रसन्न रहो। मुख को कभी मलिन मत होने दो। निश्चय कर लो कि शोक ने आपके लिए जगत में जन्म ही नहीं लिया है। आपके नित्य आनन्दस्वरूप में, सिवाय प्रसन्नता के चिन्ता को स्थान ही कहाँ है?
सबके साथ प्रेमपूर्ण पवित्रता का व्यवहार करो। व्यवहार करते समय यह याद रखो कि जिसके साथ आप व्यवहार करते हैं उसकी गहराई में आपका ही प्यारा प्रियतम विराजमान है। उसी की सत्ता से सबकी धड़कने चल रही हैं। किसी के दोष देखकर उससे घृणा न करो, न उसका बुरा चाहो। दूसरों के पापों को प्रकाशित करने के बदले सुदृढ़ बनकर उन्हें ढँको।
सदैव ख्याल रखो कि सारा ब्रह्माण्ड एक शरीर है, सारा संसार एक शरीर है। जब तक आप हर एक से अपनी एकता का भान व अनुभव करते रहेंगे तब तक सभी परिस्थितियाँ और आसपास की चीजें, हवा और सागर की लहरें तक आपके पक्ष में रहेंगी। प्राणीमात्र आपके अनुकूल बरतेगा। आप अपने को ईश्वर का सनातन अंश, ईश्वर का निर्भीक और स्वावलम्बी सनातन सपूत समझें।

Sunday, October 10, 2010



सहज साधना पुस्तक से - Sahaj Sadhna pustak se

एक होता है ऐहिक विधान और दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ऐहिक विधान ऐहिक लोगों के द्वारा बनता है और संचालित होता है। जैसे राज्य सरकार अपना विधान बनाती है, नगरपालिका अपना विधान बनाती है, कुटुम्ब-परिवार अपना विधान बनाता है, राष्ट्र अपना विधान बनाता है। यह है ऐहिक विधान।
ऐहिक विधान में भिन्नता होती है क्योंकि जिस राष्ट्र के, जिस राज्य के, जिस नगर के जिस प्रकार के लोग होते हैं उस प्रकार का विधान उनको अच्छा लगता है।
ऐहिक विधान बनाने वाले कभी भूल भी कर लेते हैं और कई अमल करने वाले घूस भी खा लेते हैं। ऐहिक विधान का उल्लंघन करने वाला कई बार बच भी जाता है। 'इन्कमटैक्स... सेलटैक्स' के कानून से कई लोग युक्ति करके बच भी जाते हैं।
दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ईश्वरीय विधान गाँव-गाँव के लिए, राज्य-राज्य के लिए, देश-देश के लिए, राष्ट्र-राष्ट्र के लिए अलग नहीं होता। अनन्त ब्रह्माण्डों में एक ही ईश्वरीय विधान काम करता है, वह एक ही समान ही होता है। देवों का विधान, दैत्यों का विधान और मनुष्यों का विधान अलग हो सकता है लेकिन सब जगह ईश्वरीय विधान एक ही होता है।
ईश्वरीय विधान को समझकर जीने से साधना सहज में हो जाती है।
ईश्वरीय विधान के अनुकूल जो चलता है वह ईश्वर की प्रसन्नता पाता है। जैसे सरकार के विधान के खिलाफ चलने वाला आदमी सरकार द्वारा दण्डित होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान के खिलाफ चलने वाला जीव दण्डित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार चलने वाला जीव ईश्वर का प्यारा हो जाता है और उसको ईश्वरीय विधान सहाय करता है। खिलाफ चलने वाले को ईश्वरीय विधान पचा-पचाकर सबक सिखा देता है, रूला-रूलाकर सबक सिखा देता है, दुःख पीड़ा, दर्द देकर सब सिखाता है। तलवार की धार पर चलने के लिए मजबूर करता है।
ऐहिक विधान में छूटछाट है। कभी उसमें पोल चल जाती है लेकिन ईश्वरीय विधान में पोल नहीं चलती। ईश्वरीय विधान को समझकर स्वीकार कर लेने वाला आदमी शीघ्र सफल हो जाता है। ईश्वरीय विधान का अनादर करने से अथवा ईश्वरीय विधान के अज्ञान से आदमी को बहुत सहन करना पड़ता है।
हम जब जब दुःखी होते हैं, जब-जब अशांत होते हैं, जब-जब भयभीत होते हैं तब निश्चित समझ लो कि हमारे द्वारा ईश्वरीय विधान का उल्लंघन हुआ है। जब-जब हम प्रसन्न होते हैं, निर्भीक होते हैं, खुश होते हैं, निश्चिन्त होते हैं तब समझ लो कि अनजाने में भी हमने ईश्वरीय विधान का पालन किया है।
दुर्योधन जब जन्मा था तब गीदड़ बोल रहे थे, अपशकुन हो रहे थे। गांधारी ने धृतराष्ट्र से कहा थाः "यह लड़का कुल का नाश करेगा, फेंक दो इसको।" किन्तु धृतराष्ट्र ने इन्कार कर दिया।
धर्मात्मा पुरूष भी जब-जब ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो सुख पाते हैं और प्रतिकूल चलते हैं तो वे भी मारे जाते हैं। कृपाचार्य, भीष्म-पितामह, द्रोण आदि अधर्म की पीठ ठोक रहे थे। अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गई। किसने मारी ? इसके पीछे दुर्योधन कारणभूत था।
जब धार्मिक जन भी अधर्म की पीठ ठोकता है तब वह भी ईश्वरीय विधान का अपमान करता है। अतः उसे भी ईश्वरीय विधान के अनुसार सहन करना ही पड़ेगा।
दुर्योधन, जयद्रथ आदि अनाचार करते थे तो अर्जुन का खून उबल उठता था लेकिन युधिष्ठिर अर्जुन को दबाते थे.... दबाते थे.... दबाते थे। दबते-दबते अर्जुन विषाद से भर गया था। आदमी बहुत दबता है तो उसे हिस्टीरिया का रोग होता है। हिस्टीरिया का रोग और तन्दुरुस्ती इन दोनों के बीच एक अवस्था होती है। अर्जुन उस अवस्था में आ गया था। युद्ध के मैदान में भी वह हृदय की दुर्बलता, मोह और उस रोग से आवृत हो गया था।
आदमी जब भावुक होता है और उसे दबाया जाता है अथवा अति दुःखों में वह दबता है, हताश बना रहता है तो उसकी दुर्बल भावुकता को डाँट-फटकारकर निकालना और उसमें साहस और उत्साह भरना ही उसकी दवाई है। भावुक बच्चों की मूर्खतापूर्ण भावनाएँ पोसने से उनकी उन्नति नहीं होती।
श्रीकृष्ण अर्जुन से इसीलिए कहते हैं-
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप।।
'हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।'
(गीताः 2.3)
धर्म के नाम पर जब कायरता होती है और ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करते हैं तो हानि ज्यादा होती है।
गांधारी जानती थी कि यह पाप का पुतला है मेरा बेटा। द्रौपदी-वस्त्रहरण के प्रसंग में सारी सभा देख रही थी। रजस्वला अवस्था में आयी हुई एकवस्त्रा द्रौपदी के बाल पकड़कर दुःशासन भरी सभा में घसीट ले आया। दुर्योधन अपनी जाँघ पर बिठाने के लिए ललकारता है। वेश्या कहकर कर्ण द्रौपदी का अपमान करता है। दुःशासन ने भरी सभा में कौरव वंश के तमाम महानुभावों के सामने द्रौपदी के चीर खींचे उसे नग्न करने के लिए, फिर भी कोई बोला नहीं। सब देखते रहे। ऐसा हलाहल अन्याय करने वाले दुष्ट लोगों के प्रति जब पांडव कुछ प्रतिक्रिया करते हैं तो वे दुष्ट लोग नीति-मर्यादा की बातें सुनाने लगते हैं, धर्म की दुहाई देते हैं।
युद्ध के मैदान में जब कर्ण के रथ का पहिया फँस गया तब वह उसे निकालने के लिए नीचे उतरा। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अब मौका है। उसको गिरा दे। अर्जुन ने सरसंधान किया तब कर्ण बोलता हैः "यह धर्मयुद्ध नहीं है। रुको.... मैं निःशस्त्र हूँ और मेरे पर शस्त्र चलाते हो ?" इस प्रकार कर्ण धर्म की दुहाइयाँ देने लगा।
श्रीकृष्ण ने कहाः "अब तू धर्म की दुहाइयाँ देता है ? तब कहाँ था जब कौरव सभा में द्रौपदी की क्रुर निर्भर्त्सना हो रही थी ? उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था ?"
कभी-कभी तो लुच्चे राक्षस लोग भी आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देने लग जाते हैं। आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देकर अपना बचाव करना यह कोई धर्म के अनुकूल चलना नहीं है। आपत्तिकाल में भी अपने धर्म में लगे रहना चाहिए, ईश्वरीय विधान में सहमत होना चाहिए।
ईश्वरीय विधान यह है कि तुम्हारी तरक्की होनी चाहिए, तुम्हें विकास-यात्रा करनी चाहिए, जीवन में उन्नत होना चाहिए।
भूगोल, विज्ञान तथा प्राणी के गर्भाशय की प्रक्रियाओं से यह सिद्ध हो चुका है कि तमाम जीवसृष्टि में मनुष्य आखिरी सर्जन है। गर्भावस्था में समय-समय पर गर्भ का निरीक्षण करके विज्ञानी लोग इस निष्कर्ष पर आये कि गर्भाशय में जीव-जन्तु, मेढक, बन्दर आदि की आकृतियाँ धारण करते-करते आखिर में जीव मनुष्य आकृति को धारण करता है। हमारा सबका मन इन सब यात्राओं में घूमकर आया है। मानव योनि में आने के बाद भी अगली योनियों की कुछ जड़ता रह गई है। उस तमस को हटाने के लिए मानव जन्म में जीव को बुद्धि थोड़ी विशेष दी गई। उस हल्के स्वभाव पर विजय पाकर अपने स्व-स्वभाव में जगने के लिए मौका दिया गया। इस बुद्धि का उपयोग करके आप विकास करते हैं तो आपके ईश्वरीय विधान का आदर किया है ऐसा माना जायेगा। आपकी तरक्की हो जायेगी। आपमें पहले के जो कुछ संस्कार हैं वे जोर नहीं करेंगे। आप जन्म-मरण से मुक्त हो जाएँगे।
ईश्वरीय विधान का प्रयोजन है आपकी तरक्की करना। अगर आप जड़ता को पोसते हैं, तरक्की करने से इन्कार करते हैं, आलस्य प्रमाद करते हैं, पुराने कुसंस्कारों को, गन्दी आदतों को, जीवभाव को, देहाध्यास को, शरीर की विलासिता को, पाशवी वृत्तियों को पकड़ रखते है, नश्वर चीजों और सम्बन्धों में आबद्ध होते हैं, तो आपको ईश्वरीय विधान के डण्डे लगेंगे। जहाँ-जहाँ आपकी ममता है, आसक्ति है, वहाँ से आपको कड़ुए फल मिलेंगे, फिर वह ममता-आसक्ति चाहे पत्नी पर हो, पुत्र पर हो, देह पर हो, जिस पर भी हो।
यह ईश्वरीय विधान का उद्देश्य है कि आप तरक्की कीजिए। ईमानदारी से सजग होकर तरक्की करते हैं, ममता और आसक्तिरहित होकर बहुजनहिताय बहुजनसुखाय कर्म करते हैं, तो ईश्वरीय विधान आपको सहाय करता है, आप ईश्वरीय प्रसन्नता पाते हैं। आपके लिए मुक्ति के द्वार खुल जाते हैं, जीते जी मुक्तता का अनुभव होता है। आप भोग, विलास और अहं पोसने में लगकर संयम, सदाचार और आध्यात्मिक उन्नति से, मुँह मोड़ते हैं और वहीं के वहीं पड़े रहते हैं तो हानि होती है। कालचक्र रुकता नहीं है।
पेड़, पौधे, वनस्पति में भी तरक्की है। कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि भी तरक्की करते-करते मानव देह में आते हैं। जब मानव देह मिल गई, बुद्धि मिल गई फिर भी आप विकसित नहीं हुए तो ईश्वरीय विधान आपको फिर से चौरासी लाख योनियों के चक्कर की सजा दे देता है। आप ईश्वरीय विधान के अनुकूल नहीं चलते हैं तो ईश्वरीय विधान आपके चित्त में भय पैदा कर देता है, अशांति पैदा कर देता है। आपको जो बुद्धि दी है वह वापस समेट लेता है।
ईश्वरीय विधान है कि सबमें एक ही चैतन्य है और एक ही में सब है। औरों के स्वरूप में दिखने वाले लोग आपके ही स्वरूप हैं। उनके साथ आत्मीयता से व्यवहार करते हैं तो आपकी उन्नति होती है। शोषण की बुद्धि से व्यवहार करते हैं तो आपकी अवनति होती है। दिखने में भले ही धन, सत्ता, वैभव पाकर आप उन्नत दिखें, सचमुच में भीतर की शांति, निर्भयता, आनन्द, सहजता आदि दैवी गुण क्षीण होने लगेंगे। देर-सबेर ईश्वरीय विधान आपको शोषण, कपट आदि दोषों से दूर करने के लिए सजा देकर शुद्ध करेगा। अतः ईश्वरीय विधान की सजा मिलने से पहले ही सजग हो जाओ।
ईश्वरीय विधान का पालन करने और करवाने के दैवी कार्य में आप लगते हैं तो आपकी बुद्धि, आपकी योग्यता, आपकी क्षमता बढ़ती है। आप मानों अभी खाली हाथ हैं और ईश्वरीय विधान के अनुसार चलते हैं तो जहाँ भी कदम रखेंगे वहाँ आपके इर्दगिर्द सब सामग्रियाँ और उन सामग्रियों को सँभालनेवाले सेवक और सामग्रियों का उपयोग करके आपका अनुसरण करने वाले लोग आपके सम्मुख हाजिर हो जाएँगे।
यही फर्क है जनसाधारण और संत पुरूषों में। संत पुरूष खाली हाथ घूमते-घामते आ जाते हैं, अपना आसन जमा देते हैं, बैठ जाते हैं ईश्वर में तल्लीन होकर। बाकी सब उनके इर्द-गिर्द हो जाता है। जिनके पास सब कुछ है, सत्ता है, राज्य है, धन है, उनमें वे चिपके रहते हैं भावी की चिन्ता करके विदेशी बैंकों में धन इकट्ठा करते रहते हैं तो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है। उनकी नजरों में सबका हित नहीं है लेकिन सबका शोषण करके अपना व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। इस प्रकार वे ईश्वरीय विधान का अनादर करते हैं तो उन्हें अपना पद छूट जाने का भी भय होता है, प्रतिष्ठा खो जाने का भी भय होता है, मरने का भी अति भय होता है। अन्त में भयभीत होते-होते जीवन जीने का भी मजा खो बैठते हैं बेचारे। वे जो कुछ संग्रह करते हैं – पैसे, मकान, गाड़ियाँ आदि..... उन सबका आनन्द वे नहीं ले पाते। उनका फायदा ड्राइवर, नौकर-चाकर और बैंकें ले लेती हैं। तुम अगर बाह्य वस्तुओं से अधिक प्रेम करते हो या किसी व्यक्ति का आधार ज्यादा लेते हो या किसी सत्ता या पद से आबद्ध होते हो तो उस वस्तु, व्यक्ति, पद और सत्ता से घसीटकर हटाये जाओगे। अतः सावधान ! मिथ्या संबंधों को, नश्वर पदों को, वस्तुओं को इतना प्रेम न करो कि प्रियतम को ही भूल जाओ और घसीटे जाओ, ठुकराये जाओ।
भीष्म-पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे लोग भी जब अधर्म के पक्ष में होते हैं, अधर्मियों की पीठ ठोकते हैं तो ईश्वरीय विधान उनको भी युद्ध के मैदान में ठिकाने लगा देता है।
भगवान तो आये थे धर्म की स्थापना करने के लिए और इतने सारे लोग मारे गये, अठारह अक्षौहिणी सेना खत्म हो गई, कौरव कुल उजड़ गया। यह तो अधर्म हुआ.....!
नहीं..... अधर्म नहीं हुआ। लगता तो है अधर्म हुआ लेकिन धर्म की स्थापना हुई। अगर दुर्योधन मरता नहीं, उसकी पीठ ठोकने वाले नहीं मरते, कौरव पक्ष जीत जाता तो अधर्म की जीत होती। धर्म मर जाता।
युधिष्ठिर धर्म के पक्ष में हुए और धर्म की जीत हुई, धर्म की स्थापना हुई। धर्म की स्थापना करके, ईश्वरीय विधान का आदर करके जीवों के कल्याण का चिन्तवन किया। जीव के कल्याण का मूल क्या है ?
जीव का इन्द्रियों के तरफ खिंचाव है, विकारों की ओर आकर्षण है। कई जन्मों से जीव का यह स्वभाव है। धर्म जीव में नियम ले आता है, संयम ले आता है। ऐसा करना.... ऐसा नहीं करना, ऐसा नहीं खाना, ऐसा खाना..., ऐसा भोगना..... ऐसा नहीं भोगना...... इस प्रकार नियंत्रण करके धर्म जीव को संयमी बनाता है। जीव को जगाकर अपने शिवस्वरूप में प्रतिष्ठित करना, यह ईश्वरीय विधान का पालन है।
अपने शिवस्वरूप की ओर चलने के लिए प्रकृति ईश्वरीय विधान का पालन कराती है। आदमी ज्यों-ज्यों सीधे ढंग से ईश्वर के स्वभाव में, ईश्वर के ज्ञान में, ईश्वरीय शांति की ओर चलने लगता है त्यों-त्यों उसका जीवन सहज, सुलभ और सरल हो जाता है। ईश्वरीय विधान को समझकर जीने से सहज में साधना हो जाती है। आदमी ईश्वरीय विधान को छोड़कर ज्यों-ज्यों इन्द्रियों को पोसकर, अहंकार को पोसकर, किसी को नोंचकर, किसी को शोषकर जीना चाहता है तो अशान्त रहता है, भयभीत रहता है, मरने के बाद भी घटीयंत्र की नाँई कई योनियों के चक्कर में जाकर दुःख भोगता है।
आप जब बालक थे, अज्ञ थे तो ईश्वरीय विधान ने आपको ऐहिक विद्या दी। आपमें अश्रद्धा थी तो श्रद्धा थी। श्रद्धा छुपी हुई थी तो ईश्वरीय विधान की परंपरा से आपकी श्रद्धा जागृत हुई। बाल्यावस्था में आपके पास कहाँ था योग, कहाँ थी समझ, कहाँ था कीर्तन और कहाँ थी भक्ति ? यह ईश्वरीय विधान है कि हम उन्नत होते चले आये। जब हम जन्मे थे तब कितने मूढ़ थे... कितने मूर्ख थे ? ज्यों-ज्यों बड़े हुए त्यों-त्यों उन्नत होने के लिए माहौल बन गया, संस्कार मिल गये। यह ईश्वरीय विधान है।
कहाँ तो पानी की एक बूँद से जन्म लेने वाला जीव और कहाँ बड़ा राजाधिराज बन जाता है। कोई बड़ा जोगी, जती बन जाता है ! यह ईश्वरीय विधान है।