पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 29, 2011



शीघ्र ईश्वरप्राप्ति   पुस्तक से - Shighra Ishwar prapti pustak se

निष्कामता और ईशप्राप्ति - Nishkamta aur Ishwarprapti

जीव को शास्त्र रूपी, श्रुति रूपी माता कहती हैः विश्वनियंता को यदि मिलना हो तो तुम जो कर्म करते हो उसे केवल फल की आसक्ति को छोड़कर करो। इससे तुम परमात्मा के नजदीक जाओगे और वह तुम्हें गोदी में ले लेगा। फिर जिस ज्ञान में, प्रेम में, अमरता में स्वयं विराजता है उसका तिलक तुम्हें करेगा और तुम्हें वह राज्य सौंप देगा। निष्काम कर्म अन्तःकरण की ऐसी दिव्य अवस्था ला देता है कि फिर विचार नहीं करना पड़ता कि सांख्य क्या कहता है, वेद क्या कहते हैं, उपनिषद क्या कहती है। निष्कामता से ऐसा आनंद और ऐसी योग्यता आती है कि थोड़ा-सा उपदेश भी हृदय में प्रसारित हो जाता है।
कितने ही लोग पूछते हैं कि माला करने से क्या लाभ ?
चैतन्य महाप्रभु के पास एक सेठ ने जाकर पूछाः
"आप कहते हैं कि 'हरि-हरि बोल' कह कर हाथ ऊँचे करो। भगवान का कीर्तन करो। तो ऐसा करने से क्या लाभ होता है ?"
सुनकर गौरांग रोने लगे।
"महाराज ! रोते क्यों हो ?"
तब गौरांग बोलेः "आज तक मैंने तुम्हारे जैसा स्वार्थी नहीं देखा कि जो भजन करने भी लाभ ही ढूँढता हो। आज मैंने कौन-सा पाप किया कि मुझे तुम्हारी मुलाकात हुई ? क्या नश्वर लाभ के लिए ही तेरा जन्म हुआ है ? हरि का भजन करना यह तेरा कर्त्तव्य नहीं है ? तेरा स्वभाव नहीं है ? सुखी और आनंदित रहना यह तेरा स्वभाव नहीं है ? अमर होना यह तेरा स्वभाव नहीं है ? बाकी के लाभ तो सब मरने वाले लाभ हैं। भजन करोगे तो तुम तुम्हारे स्वभाव में जग जाओगे और स्वभाव में जग जाने जैसा लाभ दुनिया में दूसरा कोई हो नहीं सकता। 'माला करने से कौन-सा लाभ होता है ? नौकरी मिलेगी ? यह होगा ? वह होगा ? ना.... ना..... ये सब लाभ नहीं हैं। ये सब तो बँधन की रस्सियाँ हैं, फाँसियाँ हैं। जिन्हें तुम आज तक लाभ मान बैठे हो वे लाभ नहीं, फाँसे हैं।"
स्वामी रामतीर्थ प्रार्थना करते थेः "हे परमात्मा ! हे ईश्वर ! तुम मुझे सुखों से बचाओ, मुझे सांसारिक लाभों से बचाओ, मुझे मित्रों से बचाओ।"
पूरणसिंह को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहाः
"महाराज ! आपकी प्रार्थना में भूल हो रही है। 'मुझे दुःखों से बचाओ, शत्रुओं से बचाओ' ऐसा कहने के बदले आप कहते हैं कि 'मुझे सुखों से बचाओ, मित्रों से बचाओ।' ऐसा क्यों ?"
रामतीर्थः "मैं ठीक कहता हूँ। क्योंकि शत्रुओं में आसक्ति नहीं होती, मित्रों में आसक्ति होती है। शत्रु समय नहीं बिगाड़ते, वे तो समय बचाते हैं। मित्र तो अपने होकर समय बिगाड़ते हैं। ऐसे ही दुःख में विवेक जगता है। दुःख ही परमात्मा की प्यास जगाता है। दुःख तो प्रेम की पुकार कराता है, प्रेमास्पद के द्वार खटखटाने की योग्यता देता है। संसार के सुख से विवेक मर जाता है।"
कोई कहे कि, 'मैं भजन करता हूँ और मुझे इतना दुःख क्यों ?' यदि तुम वास्तव में माला और भजन करते हो तुम्हारे जीवन में फरियाद नहीं होनी चाहिए।
परन्तु जो भजन नहीं करते वे सुखी हैं और मैं दुःखी हूँ।
भजन का अर्थ है समता, त्याग। जो लोग सुखी हैं उनको देखकर तुम्हें विषमता होती है। तुम्हें होता है कि मैं भजन करता हूँ और मुझे ऐसा सुख नहीं मिलता। यह भजन का फल नहीं है। यह तो स्वार्थ है। एक तो ईर्ष्या का दोष तुममें आता है और दूसरा, बाहर के नश्वर सुख की इच्छा आयी। यह तो तुम किराये पर भजन करते हो। सच्चा भजन नहीं करते। यदि तुम सच्चा भजन करो तो तुम्हारे चित्त में फरियाद न हो और तुम्हारी अपनी तो बात ही क्या है ? तुम्हारी दृष्टि पड़े तो वे लोग सुखी होने लगें। बाहर के नश्वर पदार्थ न हों तो उनके हृदय में सुख की तरंगे उछलने लगे। तुम निष्काम भजन करो, निष्काम ध्यान करो, निष्काम तत्त्व का अन्वेषण करो तो तुम्हारी इस नश्वर आँख में भी ऐसी शक्ति आ जाये कि सामने वाले के शाश्वत के द्वार खुलने लगे। हे जीव ! तुझमें इतनी ताकत है।
मानव ! तुझे नहीं याद क्या ?
तू ब्रह्म का ही अंश है।
कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है।
सदब्रह्म तेरा वंश है।
संसार तेरा घर नहीं।
दो चार दिन रहना यहाँ।
कर याद अपने राज्य की।
स्वराज्य निष्कंटक जहाँ।।
तेरा स्वराज्य निष्कंटक है। यहाँ तो प्रधानमंत्री की एक ही कुर्सी है पर तेरे स्वराज्य में तो जितने हृदय हैं उतनी आत्म-साक्षात्कार की कुर्सियाँ हैं। यहाँ किसी की टाँग खींचने की बात ही नहीं है। राजनीति में यदि एक आगे बढ़ता है तो दूसरा उसकी टाँग खींचता है पर आध्यात्मिकता में कोई आगे बढ़े तो किसी की टाँग खीँचने की जरूरत पड़े ही नहीं। बल्कि ऊपर से सबको उत्साह मिले कि उसे मिला है तो वह हमें भी मिल सकता है। उसके हृदय में भगवान प्रगट हुए हैं तो मेरे हृदय में भी भगवान प्रगट हो सकते हैं।
धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों में ईर्ष्या और द्वेष के लिए स्थान नहीं है जबकि बाहर के सुख में लिप्त मनुष्यों में ईर्ष्या और द्वेष के सिवाय और मिलेगा भी क्या ? बाहर के साधनों से जो मित्रता है उसमें ईर्ष्या, द्वेष, भय, क्रोध, स्पर्धा और अशांति रहेगी ही, सत्त्वगुण बढ़ेगा तो उसकी मात्रा कम होगी। रजोगुण बढ़ेगा तो उसकी मात्रा थोड़ी बढ़ेगी और तमोगुण हो तो फिर अंधकार बढ़ जाएगा। बाकी यह सब तो रहने ही वाला है।
खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।
यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।
एक सिद्ध पुरूष वृन्दावन में थे। उनके पास एक युवक योगी योग की साधना से संपन्न होकर पहुँचा बातचीत हुई। उपस्थित भक्तों में से एक बोलाः
"चुनाव हुआ। अमुक उम्मीदवार जीत गया।"
दूसरा बोलाः "रहने भी दो, कौए तो सभी जगह काले ही होते हैं। अगर अमुक उम्मीदवार आया होगा तो अपने राज्य में अच्छा होता।"
ऐसी बातें चल रही थीं तो उस युवक योगी ने आत्मज्ञानी सिद्ध पुरूष से पूछाः
"बाबाजी ! कैसा राज्य हो ? कैसी दुनिया हो तो आप सन्तुष्ट हों ?"
सिद्ध पुरूष ने कहाः "जो बनायी हुई वस्तु होती है उसमें शाश्वत संतोष कैसे हो सकता है? बनी हुई वस्तु में संतोष हो ही नहीं सकता। उपरामता आती है, थकान लगती है। संतोष तो जो सदा शुद्ध है उसमें विश्रांति पायें तो ही हो सकता है। बाकी परिस्थितियाँ तो चाहे जितनी बनें, उसमें संतोष नहीं होगा। लोभ बढ़ेगा, इच्छाएँ बढेंगी, वासना बढ़ेगी, संतोष नहीं होगा। संतोष तो स्व-आत्मा में ही होगा और कहीं न होगा।"
तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा हैः
निज सुख बिन मन होवै कि थिरा।
निज के अपनी आत्मा के सुख के बिना कभी संतोष आता ही नहीं है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिः यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
जो योगी पुरूष है वह हमेशा संतुष्ट है। भोगी कभी हमेशा संतुष्ट नहीं रह सकता।
जिसने मेरे स्वरूप को खोजा है, मन और बुद्धि मेरे से स्फुरित होते हैं ऐसा जिसे ज्ञान हो गया है, ऐसा जिसे प्रेम का प्रसाद मिल गया है, अमरता का आनंद मिल गया है वही सतत संतुष्ट है। चाहे जितना भी पाओ, चाहे जितना रूप के, लावण्य के, धन के, सत्ता के ऊँचे शिखरों पर पहुँच जाओ, पर नीचे के शिखरों के आगे ही तुम्हारा शिखर ऊँचा लगेगा। यह अहंकार का सुख है, आत्मा का सुख नहीं है। तुम्हारा शिखर जब ऊँचा होगा तब दूसरे को ईर्ष्या होगी और उसे तोड़ने के लिए दूसरे प्रयत्न करेंगे। पत्थर फेंकने लगेंगे। यदि दूसरे का शिखर ऊँचा दिखेगा तो तुम सिकुड़ने लगोगे। चपरासी के आगे क्लर्क ऊँचा होता है पर बड़े साहब के आगे जाने पर क्लर्क सिकुड़ने लगता है। अंत में क्या ?
नारायण....... नारायण..... नारायण.....
ईश्वर को अलग मानना, पराया मानना, देशदेशांतर में मानना यह एक बड़ा पाप है जबकि दूसरे सब पाप मिलकर आधे पाप हैं। ईश्वर को अपना स्वरूप मानना, अपने समीप मानना यह एक पूरा पुण्य है। फिर सत्कृत्य, धारणा, ध्यान, सेवा, जप, तप... ये सब मिलकर आधा पुण्य होता है।
ईश्वर को पराया न समझें, दूर न समझें, 'मुझे नहीं मिलेंगे' ऐसा न मानें। बड़े में बड़ी भूल यह है कि हम मानते हैं कि हम अधिकारी नहीं है, हमें क्या ईश्वर मिलते होंगे ? पर तुम्हारा यह अंतर्यामी तुमसे एक मिनट भी दूर जा सके ऐसी उसके बाप के पास भी ताकत नहीं है और तुम उससे दूर हो सको ये तुम्हारे बाप की भी ताकत नहीं है। क्यों भाई साहब ! समझ में न आये फिर भी यह सच्ची बात है। जैसे तुम आकाश से अलग नहीं हो सकते और आकाश तुमसे अलग नहीं हो सकता, वैसे ही चिदाकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा के साथ तुम्हारा संबंध है। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि इतने पास होते हुए भी आज तक मुलाकात नही हुई। एक सेकण्ड के हजारवें भाग जितने समय तक भी परमात्मा तुम्हारा त्याग नहीं कर सकता। तुम चाहो तो तुम भी उसका त्याग नहीं कर सकते। उसकी सत्ता के कारण ही नश्वर संसार की परिस्थितियाँ सच्ची लगती हैं।
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
दिन और रात रूपी काल की चक्की में सब पिसते जाते हैं किन्तु कबीर जी कहते हैं-
चक्की चले तो चलन दे तू काहे को रोय।
लगा रहे तू कील से बाल न बांको होय।।
तुम अपने निज ज्ञानस्वरूप, निज प्रेमस्वरूप कील से चिपके रहो। फिर प्रकृति का शरीर चलता हो तो भले चले, मनुभाई (मन) चलता हो तो भले चले, शरीर जल जाये तो भले जल जाये। हजारबार मृत्यु हुई पर तुम्हारा कुछ बिगड़ा नहीं है तो अब मृत्यु होगी तो क्या बिगड़ेगा ?
निर्भय जपे सकल भव मिटे।
संत कृपा ते प्राणी छूटे।।
निर्भय तत्त्व का ज्ञान हो जाये, स्मृति आ जाये तो सभी भय टल जायें। अभी समाज में भय, घृणा, ईर्ष्या आदि व्याप्त है, क्योंकि ईश्वर पर भरोसा नहीं है। बड़े में बड़ी भूल यही है, और यदि भरोसा है तो वह यह है कि 'ईश्वर हमारे से दूर है' ऐसा भूत घुस गया है। जगत के पदार्थों का दिखावा और आसक्ति बढ़ती जाती है। उससे भय, ईर्ष्या का जन्म होता है। उच्च कक्षा के लोग जैसे-जैसे ब्रह्मवेत्ता की सीखों की अवहेलना करते गये वैसे-वैसे उनके क्षूद्र विचारों से, निर्णयों से समाज और सब लोग फँस गये। जिनके पास उदात्त विचार हैं, जिनके पास समता का साम्राज्य है, ऐसे महापुरूषों के पास सत्ता नहीं है और जिनके पास सत्ता है उनके पास आत्मज्ञान के विचार नहीं हैं, समता के विचार नहीं हैं, साक्षात्कार का अनुभव नहीं है, अद्वैतनिष्ठा नहीं है। इसीलिए यह सब उलट पुलट होता है। जनता दुःखी है इसका कारण चीजों का दुरूपयोग और दुर्व्यवस्था है। फिर भी भारत के ऋषियों को हजार-हजार प्रणाम हैं। ऐसी दुःखद परिस्थिति में भी जो आनंद साधक और सत्संगी लोग पा रहे हैं वह परदेश के लोगों के चेहरे पर नहीं देखने को मिलता। स्वीजरलैंड में मैंने देखा कि वहाँ नेताओं के पाँच-पाँच करोड़ रूपयों के बंगले हैं, पर वहाँ के लोगों के चेहरे पर इतनी प्रसन्नता नहीं है जितनी भारत के 1200 रूपये कमाने वाले के चेहरे पर हैं। यह भारत के दिव्य ज्ञान की, ऋषियों के ज्ञान की, गीता के ज्ञान की परंपरा है। कन्हैया की बँसी की कृपा है।
कभी-कभी मेरे गुरूदेव का चिंतन होता है और गुरूदेव के प्रसंगों को यदि मैं कहने बैठूँ तो मेरा हृदय भावविभोर हो जाता है। हजारों माताओं ने गर्भ में पोषण किया, बाहर लालन-पालन किया परन्तु हजारों जन्म की माताएँ जो न दे सकीं वह गुरूदेव ने हँसते-हँसते दिया। उनके विषय में कुछ कहने जायें तो हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। दृष्टिमात्र से ऐसे पुरूष जो दे सकते हैं वह दुनियादार नहीं दे सकते।
मेरे गुरूदेव ! ईश्वरीय दृष्टिपात से निहाल करने वाले ! जादुई नजर लगाकर चले गये। उनके वचन मेरे हृदय को विश्रान्ति दे गये, मेरी थकान मिटा गये। अब बारम्बार उनकी याद करके सौ-सौ आँसू बहाकर मैं उनकी कृपा की तरफ निहार रहा हूँ। अब उनकी याद ही मेरे पास बाकी है। उनकी स्मृति सीखें और उनका आत्मधन मेरे पास बाकी है और वह शाश्वत है।
यदि एक सैकेण्ड के लिए भी तुम शुद्ध चैतन्य की अवस्था में आ जाओ तो उसका सामर्थ्य कितना है उसका वर्णन हो सके ऐसा नहीं है। तुम्हारे उस शुद्ध स्वभाव में अनुपम सामर्थ्य है। इसीलिए विश्वामित्र जैसे ऋषि सृष्टि की रचना कर सकते हैं। त्रिशंकु के लिए आकाश में स्थान बना दिया। दूसरे ऋषियों ने भी अनेक चमत्कार कर दिखाये। वेदव्यासजी ने संजय को दिव्य दृष्टि दे दी। प्रतिस्मृति विद्या से महाभारत के युद्ध में स्वर्गस्थ हुए लोगों की गंगा की खड़बड़ाहट में से प्रगटाकर उनके कुटुम्बियों के साथ बातचीत करा दी, यह सब कहाँ से आता है? शाश्वत प्रेम, शाश्वत जीवन और शाश्वत ज्ञान जहाँ है वहाँ से यह सब आता है और उससे ही यह नश्वर जगत और प्रेम चल रहा है। यह परमात्मा कोई आकाश-पाताल में नहीं, बिल्कुल नजदीक है फिर भी उसमें प्रवेश नहीं मिलता। इसका कारण है कि इन्द्रियों का स्वभाव बहिर्मुख है। हमारे दिमाग में ऐसी भ्रान्ति है कि बाहर से कोई देव चलने की शक्ति दे जाता है। वास्तव में देव में भी शक्ति उसी की है और गुरूजी में भी शक्ति उसी की है। गुरू के आशीर्वाद फलते हैं। सात्त्विक व्यक्तियों के संकल्प फलते हैं वह देव हमारे हृदय में उतने का उतना ही स्थित है। परंतु हमारी अपनी अक्ल नहीं और शास्त्रों की बात मानते नहीं।
श्वासोच्छवास को तालबद्ध करते जाओ। उससे तुमको जो आराम मिलेगा यह आराम नींद के आराम से अलग ही है। आज तक तुम्हें ऐसा आराम नहीं मिला होगा जो तुम्हें तुम्हारे निज स्वरूप के स्वतंत्र सुख के मिलने पर मिलेगा। और यह आराम जब लेना चाहो तब ले सकोगे। फिल्म का सुख स्वतंत्र नहीं है। कुर्सी और पैसे का सुख स्वतन्त्र नहीं है जबकि यह आत्मसुख तो स्वतंत्र सुख है।


Saturday, March 12, 2011


आरोग्यनिधि  पुस्तक से - Aarogyanidhi pustak se


प्राकृतिक चिकित्सा के मूल तत्व 

अगर मनुष्य कुछ बातों को जान ले तो वह सदैव स्वस्थ रह सकता है।
आजकल बहुत से रोगों का मुख्य कारण स्नायु-दौर्बल्य तथा मानसिक तनाव (Tension) है जिसे दूर करने में प्रार्थना बड़ी सहायक सिद्ध होती है। प्रार्थना से आत्मविश्वास बढ़ता है, निर्भयता आती है, मानसिक शांति मिलती है एवं नसों में ढीलापन (Relaxation) उत्पन्न होता है अतः स्नायविक तथा मानसिक रोगों से बचाव व छुटकारा मिल जाता है। रात्रि-विश्राम के समय प्रार्थना का नियम व अनिद्रा रोग एवं सपनों से बचाता है।
इसी प्रकार श्वासन भी मानसिक तनाव के कारण होने वाले रोगों से बचने के लिए लाभदायी है।
प्राणायाम का नियम फेफड़ों को शक्तिशाली रखता है एवं मानसिक तथा शारीरिक रोगों से बचाता है। प्राणायाम दीर्घ जीवन जीने की कुंजी है। प्राणायाम के साथ शुभ चिन्तन किया जाये तो मानसिक एवं शारीरिक दोनों रोगों से बचाव एवं छुटकारा मिलता है। शरीर के जिस अंग में दर्द एवं दुर्बलता तथा रोग हो उसकी ओर अपना ध्यान रखते हुए प्राणायाम करना चाहिए। शुद्ध वायु नाक द्वारा अंदर भरते समय सोचना चाहिए कि प्रकृति से स्वास्थ्यवर्धक वायु वहाँ पहुँच ही है। जहाँ मुझे दर्द है। आधा मिनट श्वास रोक रखें व पीड़ित स्थान का चिन्तन कर उस अंग में हल्की-हिलचाल करें। श्वास छोड़ते समय यह भावना करनी चाहिए कि 'पीड़ित अंग से गंदी हवा के रूप में रोग बाहर निकल रहा है एवं मैं रोग मुक्त हो रहा हूँ। ॐ....ॐ....ॐ....' इस प्रकार नियमित अभ्यास करने से स्वास्थ्यप्राप्ति में बड़ी सहायता मिलती है।
सावधानीः जितना समय धीरे-धीरे श्वास अन्दर भरने में लगाया जाये, उससे दुगुना समय वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालने में लगाना चाहिए। भीतर श्वास रोकने को आभ्यांतर कुंभक व बाहर रोकने को बाह्य कुंभक कहते हैं। रोगी एवं दुर्बल व्यक्ति आभ्यांतर व बाह्य दोनों कुंभक करें। श्वास आधा मिनट न रोक सकें तो दो-पाँच सेकंड ही श्वास रोकें। ऐसे बाह्य व आभ्यांतर कुंभक को पाँच-छः बार करने से नाड़ीशुद्धि व रोगमुक्ति में अदभुत सहायता मिलती है।
स्वाध्याय अर्थात् जीवन में सत्साहित्य के अध्ययन का नियम मन को शांत एवं प्रसन्न रखकर तन को नीरोग रहने में सहायक होता है।
स्वास्थ्य का मूल आधार संयम है। रोगी अवस्था में केवल भोजनसुधार द्वारा भी खोया हुआ स्वास्थ्य प्राप्त होता है। बिना संयम के कीमती दवाई भी लाभ नहीं करती है। संयम से रहने वाले व्यक्ति को दवाई की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। जहाँ संयम है वहाँ स्वास्थ्य है और जहाँ स्वास्थ्य है वहीं आनन्द एवं सफलता है।
बार-बार स्वाद के वशीभूत होकर बिना भूख के खाने को असंयम और नियम से आवश्यकतानुसार स्वास्थ्यवर्धक आहार लेने को संयम कहते हैं। स्वाद की गुलामी स्वास्थ्य का घोर शत्रु है। बार-बार कुछ-न-कुछ खाते रहने के कारण अपच, मन्दाग्नि, कब्ज, पेचिश, जुकाम, खाँसी, सिरदर्द, उदरशूल आदि रोग होते हैं। फिर भी यदि हम संयम का महत्त्व न समझें तो जीवनभर दर्बलता, बीमारी, निराशा ही प्राप्त होगी।
सदैव स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है भोजन की आदतों में सुधार।
मैदे के स्थान पर चोकरयुक्त आटा, वनस्पति घी के स्थान पर तिल्ली का तेल, हो सके तो शुद्ध घी, (मूँगफली और मूँगफली का तेल स्वास्थ्य के लिए ज्यादा हितकारी नहीं।) सफेद शक्कर के स्थान पर मिश्री या साधारण गुड़ एवं शहद, अचार के स्थान पर ताजी चटनी, अण्डे-मांसादि के स्थान पर दूध-मक्खन, दाल, सूखे मेवे आदि का प्रयोग शरीर को अनेक रोगों से बचाता है।
इसी प्रकार चाय-कॉफी, शराब, बीड़ी-सिगरेट एवं तम्बाकू जैसी नशीली वस्तुओं के सेवन से बचकर भी आप अनेक रोगों से बच सकते हैं।
बाजारू मिठाइयाँ, सोने-चाँदी के वर्कवाली मिठाइयाँ, पेप्सीकोला आदि ठण्डे पेय पदार्थ, आईसक्रीम एवं चॉकलेट के सेवन से बचें।
एल्यूमिनियम के बर्तन में पकाने और खाने के स्थान पर मिट्टी, चीनी, काँच, स्टील या कलई किये हुए पीतल के बर्तनों का प्रयोग करें। एल्यूमिनियम के बर्तनों का भोजन टी.बी., दमा आदि कई बीमारियों को आमंत्रित करता है। सावधान !
व्यायाम, सूर्यकिरणों का सेवन, मालिश एवं समुचित विश्राम भी अनेक रोगों से रक्षा करता है।
उपरोक्त कुछ बातों को जीवन में अपनाने से मनुष्य सब रोगों से बचा रहता है और यदि कभी रोगग्रस्त हो भी जाये तो शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ कर लेता है।