पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, June 29, 2011


जीवन सौरभ पुस्तक से - Jeevan Saurabh pustak se
सेवा-यज्ञ - Sewa Yagya

किसी भी देश की सच्ची संपत्ति संतजन ही होते हैं। वे जिस समय प्रगट होते हैं उस समय के जन-समुदाय के लिए उनका जीवन ही सच्चा मार्गदर्शक होता है। जिस समय जिस धर्म की आवश्यकता होती है उसका आदर्श प्रस्तुत करने के लिए स्वयं भगवान ही तत्कालीन संतों के रूप में नित्य अवतार लेकर आविर्भूत होते हैं- ऐसा कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। वे भय एवं शोक, ईर्ष्या एवं उद्वेग की आग से तपे हुए समाज को सुख और शांति, स्नेह एवं सहानुभूति, सदाचार एवं संयम, साहस एवं उत्साह, शौर्य एवं क्षमा जैसे दिव्य गुण देकर, हृदय के अज्ञान-अंधकार को मिटाकर जीव को शिवस्वरूप बना देते हैं। उत्तर भारत में तपस्यामय जीवन बिताकर पूज्य श्री लीलाशाहजी बापू नयी शक्ति, नयी ज्योति एवं अंतर की दिव्य प्रेरणा प्राप्त कर, लोगों को सच्चा मार्ग बताने, गरीब एवं दुःखी लोगों को ऊँचा उठाने तथा सतशिष्यों एवं जिज्ञासुओं को ज्ञानामृत पिलाने के लिए कई वर्षों के बाद सिंध देश में आये।
सुखमनी के इस वेद-वचन में उन्हें पूर्ण श्रद्धा थीः
ब्रहम महि जनु जन महि पार ब्रहमु।
एकहि आपि नही कछु भरमु।।
'जिन्होंने परब्रह्म का अनुभव कर लिया है ऐसे संत परब्रह्म में और परब्रह्म ऐसे संत में समा जाते हैं। दोनों एकरूप हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता।'
वे स्वयं भी कहते कि, जहाँ द्वैत नहीं है वहाँ दूसरों की भलाई करना यह स्वयं की ही भलाई करने जैसा है। वे वेद एवं उपनिषदों के वचनों के अनुसार पूरे विश्व को ही अपना मानते हैं।
अष्टादशपुराणेषु व्यासास्यं वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
'अठारह पुराणों में वेदव्यासजी के दो ही वचन हैं कि परोपकार ही पुण्य हैं एवं दूसरों को पीड़ा देना पाप।'
पूज्य संत श्री लीलाशाहजी बापू ने व्यासजी के इन वचनों को अपना लिया कि परोपकार ही परम धर्म है। इसके लिए उन्होंने अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया। धार्मिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक हर क्षेत्र में उन्होंने कार्य शुरू किया। वे मानो स्वयं एक चलती-फिरती संस्था थे, जिनके द्वारा अनेक कार्य होते थे।
सर्व प्रथम तलहार में जाकर उन्होंने संत रतन भगत के आश्रम में एक कुआँ खुदवाया। वहाँ दूसरे साधकों के साथ वे स्वयं भी एक मजदूर की भाँति कार्य करते थे। धन्य ! संत की लीला कितनी अनुपम होती है !
वहीं उन्होंने एक गुफा बनवायी थी। लंबे समय तक वे उसी गुफा में रहते। प्रातःकाल गुफा में से निकलकर शुद्ध हवा लेने जंगल की ओर घूमने जाते। रोज श्रद्धालु, प्रेमी भक्तों को सत्संग देते। दिन में एक ही बार भोजन लेते। मौज आ जाती तो अलग-अलग गाँवों एवं शहरों में जाकर भी लोकसेवा करते एवं सुबह-शाम सत्संग देते। गर्मी के दिनों में आबू, हरिद्वार, हृषिकेश अथवा उत्तरकाशी में जाकर रहते।
जिन्होंने अपने सगे बेटे की तरह उनका लालन-पालन किया था उन चाची को उन्होंने वचन दिया था कि उनकी अंतिम क्रिया वे स्वयं आकर करेंगे। अतः कभी-कभार वे अपनी चाची के पास भी हो आते थे।
तलहार में एक बार अपनी चाची की गंभीर बीमारी के समाचार सुनकर वे घर पधारे किंतु घर जाते ही पता चला कि वे समाचार झूठे थे। उन्होंने चाची को समझायाः
"आपके पास जो सोना पड़ा है, वह साँप है। मरते समय उसमें मोह रह जायेगा तो जीव की अवगति होगी। अतः सभी आभूषणों को बेच डालो और जो पैसे आयें उसे दान कर दो।"
चाची ने सभी आभूषण पूज्य श्री लीलाशाहजी बापू को दे दिये। पूज्य बापू ने उन्हें बेच दिया। थोड़े पैसे चाची के खर्च के लिए रखकर बाकी के सब पैसे गरीब-गुरबों में दान कर दिये।
चाची माँ को खर्च के पैसे देकर जाने लगे और बोलेः
"मैं अंत समय पर जरूर वापस आऊँगा।"
उसके एक वर्ष के बाद चाची की उम्र 100 वर्ष की होते ही वे खूब बीमार पड़ गयीं। केवल एक ही इच्छा थी कि अंत समय 'बेटे' के दर्शन हो। उस वक्त पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज हरिद्वार में थे। इस ओर चाची के शरीर में खिंचाव होने लगा... पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज भी ठीक समय पर आ पहुँचे।
दूसरे दिन चाचीमाँ ने प्राण त्याग दिये। पूज्य श्री लीलाशाह जी बापू ने 12 दिन रहकर उनकी सभी अंतिम क्रियाओं को स्वयं करके अपना वचन निभाया।
पूज्य श्री लीलाशाहजी बापू अब कौटुम्बिक जवाबदारियों से मुक्त हो गये। अब उनका पूरा समय जनसेवा के कार्यों में बीतने लगा। उन महान् ज्ञानी के जीवन में कर्मयोग के साथ देशभक्ति भी झलक उठती थी। उनका रहन-सहन एकदम सादा था। किसी भी जगह पर जाते तो शहर के बाहर एकांत स्थल ही रहने के लिए पसंद करते। प्यारा-प्यारा 'भाई' शब्द तो उनके द्वारा सदैव बोला जाता। उनका दिल भी अत्यंत कोमल एवं धीरजवाला था। वाणी पर खूब संयम था। सँभल-सँभलकर धीरे-धीरे बोलते थे। वे सादगी, सदाचार, संयम एवं सत्य के सच्चे प्रेमी थे।
सिंध के दक्षिणी भाग लाड़ में उन्होंने देखा कि वहाँ के लोग व्यावहारिक तौर पर काफी पीछे हैं। वहाँ उन्होंने छोटे-बड़े सभी को स्वास्थ्य सुधारने के लिए योगासन एवं व्यायाम करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके अलावा सत्संग देकर लोगों को परमात्म-मार्ग पर ढालने के लिए भी प्रोत्साहित किया।

सुबह कई नौजवान उनके पास आते, तब वे उन्हें योगासन सिखाकर उसके फायदे बताते, साथ-ही-साथ ब्रह्मचर्यपालन एवं वीर्यरक्षा की महिमा भी खूब अच्छे ढंग से बताते। योगासन एवं कसरत कराने के बाद नवयुवकों को दूध पिलाकर जंगल की ओर खुली हवा में घूमने के लिए ले जाते।
उन्होंने विद्यार्थियों, नवयुवकों एवं बड़ों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार पर खूब जोर दिया। बहनों एवं माताओं को भी हिन्दी सीखने के लिए उत्साहित किया। उनकी प्रेरणा से सिंध में टंडोमुहमदखान, संजोरी, मातली, तलहार, बदीन, शाहपुर वगैरह गाँवों में कन्या विद्यालय खुल गये, जिनमें मुख्य भाषा हिन्दी थी।
पूज्य श्री लीलाशाहजी बापू जहाँ-जहाँ जाते वहाँ-वहाँ खादी एवं स्वदेशी चीजों का उपयोग करने का आग्रह करते। महात्मा गाँधी ने तो अभी खादी पहनने का आंदोलन शुरू भी नहीं किया था, उसके पहले ही पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने स्वयं जुलाहे के हाथ से बनाये गये खादी के कपड़ों को पहनना शुरू कर दिया था। लोगों को फैशन से दूर रहने की एवं सादा जीवन जीने की सलाह दी। लाड़ में शराब एवं कबाब खाने का जो रिवाज पड़ गया था, उसे बंद करने के लिए उन्होंने खूब मेहनत की। इसके अलावा बालविवाह की प्रथा भी बंद करवायी।

लाड़ में हरिजनों की स्थिति खूब दयाजनक थी। उसे सुधारने एवं विकसित करने के लिए यहाँ स्वामी हंस निर्वाण संस्था प्रयास कर रही थी। पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने उस कार्य को साकार कर दिखाया था। वे खुद हरिजन लोगों की बस्ती में जाकर उन्हें स्वास्थ्य का महत्त्व बताते। सफाई से रहना सिखाते, बच्चों को स्कूल में पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते। लोगों को समझाते कि 'तुम हिन्दू हो। अंडे, मांस एवं शराब का उपयोग बन्द कर दो।'
उन्होंने हरिजन बच्चों को पढ़ाने के लिए एक बहन को भी रखा था जो उन लोगों की बस्ती में जाकर बच्चों की पढ़ाती थीं। पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज खुद ही बच्चों को किताबें, कापियाँ वगैरह देते। अपनी कुटिया के कुएँ में से हरिजनों को पानी भरने देते। दूसरों को भी सलाह देते कि ऊँच-नीच के भेद को छोड़कर हरिजनों को किसी भी कुएँ से पानी भरने दो।
हरिजनों के घर में भी सूत काँतना सिखाकर उन्हें स्वावलंबी बनने के लिए प्रेरित करते। उनके मार्गदर्शन से हरिजन पवित्रता एवं स्वच्छता से रहने लगे। पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज छूत-अछूत के भेद को दूर करने के लिए कभी-कभी पवित्रता बनाये गये हरिजनों के भोजन को भी ग्रहण करते।
पूरे सिंध देश में जहाँ-जहाँ भक्तजन पुकारते वहाँ-वहाँ प्रेम के प्रत्युत्तर के रूप में स्वयं जाकर सत्संग द्वारा जनता में संगठन एवं देशप्रेम की भावना जागृत करते। स्त्रियों, हरिजनों एवं समाज के उत्थान के लिए, बालविवाह प्रथा को बंद करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते। यौगिक क्रियाओं एवं कसरतों द्वारा तन को तंदुरुस्त एवं मन को प्रसन्न रखकर सुखी जीवन जीने की कुंजी बताते।
देश में जब भी कोई दैवी प्रकोप जैसे कि अकाल, भूकंप, संक्रामक रोग, अतिवृष्टि या अनावृष्टि होती तब अनाथ, पीड़ित लोगों को मदद करने के लिए उनका हृदय एकदम तत्पर हो जाता। एक बार बिहार में अकाल पड़ा तब पूज्य श्री ने श्रद्धालु भक्तों के पास से पैसे इकट्ठे करके अनाज एवं जीवनोपयोगी वस्तुओं को हैदराबाद से भेजने की व्यवस्था की। उस वक्त मुसलमानों के रोजे के दिन चल रहे थे। मुसलमानों ने कहाः
"आज 29वाँ रोजा है। रात्रि को चंद्रदर्शन करके, रोजा (उपवास) छोड़कर, कल ईद मनाकर फिर नावें ले जायेंगे।"
उस वक्त पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने 17-18 दिनों से शपथ ले रखी थी कि 'जब तक अकाल-पीड़ितों के लिए नौकाएँ रवाना नहीं हो जायेंगी तब तक मैं उपवास नहीं तोड़ूँगा।' इधर नाविक लोग नावों को न ले जाने के लिए हठ ले बैठे थे। तब पूज्य श्री के श्रीमुख से निकल पड़ाः
''आज तुम्हें चंद्र नहीं दिखेगा एवं कल तुम ईद भी नहीं मनाओगे।"
हुआ भी ऐसा ही। चंद्र दिखा ही नहीं। अंत में परेशान होकर नाविक लोग नावें लेकर हैदराबाद पहुँचे। सामान पहुँचने की पक्की खबरें प्राप्त करने के बाद ही पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने अपना उपवास छोड़ा।
इसी प्रकार जब बंगाल में सन् 1949 में भीषण अकाल पड़ा तब फिर से पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने दस हजार मन अनाज एकत्रित करवाया। टंडोमहमदखान, तलहार एवं बदीन में स्वयं खड़े रहकर सारा अनाज नौकाओं पर चढ़वाया। जब तक कराची से बंगाल जाने के लिए अनाज रवाना नहीं हुआ तब तक उपवास जारी रखा।
पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज जब हरिद्वार में रहते थे तब बारिश के दिनों में अत्यधिक बरसात होने की वजह से गंगा के जोरदार बहाव को पार करके आने-जाने में गाँव के लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ती। पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज के करूणामय हृदय से यह कष्ट नहीं देखा गया।
वे पुनः सिंध गये। वहाँ से आवश्यक धनराशि एवं एक रिटायर्ड इन्जीनियर को साथ लेकर हरिद्वार आये। हरिद्वार तथा उत्तरकाशी में तीन पुल बनवाये। तब वहाँ के लोगों ने खुश होकर पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज का बहुत आभार माना।
यह काम वास्तव में तो गढ़वाल के राजा को करना चाहिए था किन्तु राजा ने उस तरफ ध्यान तक नहीं दिया था। जब उसे पता चला कि यह काम किसी महात्मा द्वारा हो रहा है तब पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज के दर्शन के लिए आकर वह प्रार्थना करने लगा किः
"अब आपके खान-पान की पूरी व्यवस्था राजदरबार की ओर से की जायेगी।" किन्तु पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया। तब राजा ने कहाः
"आप सचमुच में गुरू नानक की तरह शाहों के शाह हैं।"



Monday, June 13, 2011

दैवी संपदा पुस्तक से - Daivi Sampada pustak se
जीवन-विकास और प्राणोपासना - Jeevan Vikas aur Pranopasna
मनुष्य के जीवन में विकास का क्रम होता है। विकास उसको बोलते हैं जो स्वतन्त्रता दे। विनाश उसको बोलते हैं जो पराधीनता की ओर ले जाय।
'स्व' के तंत्र होना विकास है। 'स्व' आत्मा है, परमात्मा है। अपने परमात्म-स्वभाव में आना, टिकना, आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलना यह विकास है और इस मार्ग से दूर रहना यह विनाश है।
विकास में तीन सोपान हैं। एक होता है कर्म का सोपान। अंतःकरण अशुद्ध होता है, मलिन होता है तो आदमी पापकर्म की ओर जाता है, भोग, आलस्य, तंद्रा आदि की ओर जाता है। ऐसे लोग तमोगुण प्रधान होने से मृत्यु के बाद वृक्ष, भूंड, शूकर, कूकर आदि अधम योनियों में जाते हैं.... विनाश की ओर जाते हैं।
रजोगुण की प्रधानता हो तो चित्त में विक्षेप होता है। विक्षेप से आदमी छोटी-छोटी बातों में दुःखी हो जाता है।
दुनियावाले ने दुनिया ऐसी बनायी है।
हजारों खुशियाँ होते हुए आख्रिर रूलाई है।।
कितनी भी खुशियाँ भोगो लेकिन आखिर क्या? खुशी मन को होती है। जब तक तन और मन से पार नहीं गये तब तक खुशी और गम पीछा नहीं छोड़ेंगे।
अंतःकरण की मलिनता मिटाने के लिए निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म से अंतःकरण शुद्ध होता है। उपासना से चित्त का विक्षेप दूर होता है। ज्ञान से अज्ञान दूर होता है। फिर आदमी विकास की पराकाष्ठा पर पहुँचता है।
हमारा शरीर जब भारी होता है तब वात और कफ का प्रभाव होता है। हम जब उपासना आदि करते हैं तब शरीर में भारीपन कम होने लगता है। आलस्य, प्रमाद, विक्षेप आदि कम होने लगते हैं।
पित्त की प्रधानता से तन में स्फूर्ति आती है। मन, प्राण और शरीर इन तीनों की आपस में एकतानता है। प्राण चंचल होता है तो मन चंचल बनता है। मन चंचल होता है तो तन भी चंचल रहता है। तन चंचल बनने से मन और प्राण भी चंचल हो जाते हैं। इन तीनों में से एक भी गड़बड़ होती है तो तीनों में गड़बड़ हो जाती है।
बच्चे के प्राण 'रिधम' से चलते हैं। उसमें कोई आकांक्षा, वासना, कोई प्रोब्लेम, कोई टेन्शन नहीं है। इसलिए बच्चा खुशहाल रहता है। जब बड़ा होता है, इच्छा वासना पनपती है तो अशांत-सा हो जाता है।
अब हमें करना क्या है? प्राणायाम आदि से अथवा प्राण को निहारने के अभ्यास आदि साधनों से अपने शरीर में विद्युत तत्त्व बढ़ाना है ताकि शरीर निरोग रहे। प्राणों को तालबद्ध करने से मन एकाग्र बनता है। एकाग्र मन समाधि का प्रसाद पाता है। पुराने जमाने में अस्सी अस्सी हजार वर्ष तक समाधि में रहने वाले लोग थे ऐसा बयान शास्त्रों में पाया जाता है। लेकिन 80 हजार वर्ष कोई नींद में नहीं सो सकता। बहुत-बहुत तो कुंभकर्ण जैसा कोई पामर हो, तपश्चर्या करके नींद का वरदान ले तो भी छः महीना ही सो सकता है। अस्सी हजार साल तो क्या 80 साल तक भी कोई सो नहीं सकता।
नींद तमोगुण है। समाधि सत्त्वगुण की प्रधानता है।
सरोवर के ऊपरी सतह पर कोई बिना हाथ पैर हिलाये ठीक अवस्था में लेट जाय तो घण्टों भर तैर सकता है। लेकिन पानी के तले घण्टों भर रहना आसान नहीं है। अर्थात् नीचे रहना आसान नहीं है और ऊपर रहना सहज है। समाधि में और सुख में आदमी वर्षों भर रह सकता है। लेकिन विक्षेप और दुःख में आदमी घड़ी भर भी रहना चाहता नहीं। अतः मानना पड़ेगा कि दुःख, मुसीबत और विक्षेप तुम्हारे अनुकूल नहीं है, तुम्हारे स्वभाव में नहीं है।
मुँह में दाँत होना स्वाभाविक है। लेकिन रोटी सब्जी खाते-खाते कोई तिनका दाँतों में फँस जाता है तो बार बार जिह्वा वहाँ जाती है। जब तक वह निकल नहीं जाता तब तक वह चैन नहीं लेती क्योंकि तिनका मुँह में रहना स्वाभाविक नहीं है। उसको निकालने के लिए लकड़ी की, प्लास्टिक की, पित्तल की, ताँबे की, चाँदी की, न जाने कितनी कितनी सलाइयाँ बनाई जाती हैं। मुँह में इतने पत्थर (दाँत) पड़े हैं उसकी कोई शिकायत नहीं होती जबकि एक छोटा सा तिनका भी असह्य बन जाता है। ....तो मुँह में दाँत होना स्वाभाविक है जबकि तिनका आदि होना अस्वाभाविक है।
ऐसे ही सुख हमारा स्वभाव है। विक्षेप और दुःख हमारा स्वभाव नहीं है। इसलिए कोई दुःख नहीं चाहता, कोई विक्षेप नहीं चाहता। फिर भी दुनियावाले ने दुनिया ऐसी बनायी है कि तुम्हें दुःख और विक्षेप निकालने का तरीका मिल जाय और तुम स्वतंत्र हो जाओ। 'स्व' के 'तंत्र'। 'स्व' केवल एक आत्मा है।
अस्सी हजार वर्ष की समाधि लग सकती है लेकिन नींद उतनी नहीं आ सकती। मन और प्राण को थोड़ा नियंत्रित करें तो हम समाधि के जगत में प्रवेश कर सकते हैं।
जिन लोगों को विचार समाधि प्राप्त हुई है, ज्ञानमार्ग में प्रवेश मिला है उन लोगों का मन सहज में आत्मविचार में रहता है तो जो आनन्द मिलता है, प्रसन्नता मिलती है उससे नींद की मात्रा थोड़ी कम हो जाय तो उनको परवाह नहीं होती। डेढ़ दो घण्टा भी सो लें तो शरीर के आराम की आवश्यकता पूरी हो जाती है। समाधि का, ध्यान का, आत्मविचार का जो सुख है वह नींद की कमी पूरी कर देता है। कोई अगर आठ घण्टे समाधि में बैठने का अभ्यास कर ले तो वह सोलह घण्टे जाग्रत रह सकता है। उसको नींद की बिल्कुल जरूरत नहीं पड़ेगी।
हम जो खाते पीते हैं वह कौन खाता पीता है? गलती से हम मान लेते हैं कि हम खाते पीते हैं। जुड़ गये प्राण से, मन से, शरीर से। वास्तव में भूख और प्यास प्राणों को लगती है। सुख-दुःख मन को होता है। राग-द्वेष बुद्धि को होता है। प्राण, मन, बुद्धि शरीर आदि सब साधन हैं। हमें ज्ञान नहीं है इसलिए साधन को ‘मैं’ मानते हैं और अपने साध्य तत्त्व से पिछड़े रहते हैं।
बिछड़े हैं जो प्यार से दर-ब-दर भटकते फिरते हैं।
कभी किसी की कूख में तो कभी किसी की कूख में। कभी किसी पिता की इन्द्रिय से पटके जाते हैं तो कभी किसी माता से गर्भ में लटक जाते हैं। वह माता चाहे चार पैरवाली, पाँच पच्चीस पैर वाली हो, सौ पैर वाली हो या दो पैर वाली हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर योनि में मुसीबत तो सहनी ही पड़ती है।
तन धरिया कोई न सुखिया देखा।
जो देखा सो दुखिया रे....।।
इस प्रकार विचार करके जो साधक अपना सहज स्वातंत्र्य पाना चाहते हैं, 'स्व' के तंत्र होना चाहते हैं उन लोगों के लिए आध्यात्मिक मार्ग सर्वस्व है।
हमारा प्राण नियंत्रित होगा तो शरीर में विद्युतशक्ति बनी रहेगी। शरीर निरोग रहेगा, मन एकाग्र बनेगा, बुद्धि का विकास होगा। अगर मन को एकाग्र करोगे तो प्राण नियंत्रित रहेंगे।
समाधि में आंतरिक सुख से मन का समाधान हो जाय तो बाहर के सुख की याचना नहीं रहती। आकर्षण भी नहीं रहता। दुःख तभी होता है जब बाहर के सुख की आंकाक्षा होती है। जिसको आंकाक्षा नही होती उसको उन चीजों के न मिलने पर दुःख नहीं होता और मिलने पर कोई बन्धन नहीं होता। दुःख का मूल है वासना और वासना होती है सुख पाने के लिए। वास्तव में सुख हमारा स्वभाव है। दुःख हमारा स्वभाव नहीं है। मुँह  में दाँत रहना स्वभाव है, तिनका रहना स्वभाव नहीं है। सरोवर की सतह पर घण्टों भर तैरना संभव है लेकिन सरोवर के तले में दीर्घकाल तक रहना सहज संभव नहीं है। ऐसे ही दुःख नीचाई है। हम कभी उसे पसन्द नहीं करते लेकिन वासना के कारण गिरते हैं, दुःख पाते हैं।
अब हमें क्या करना चाहिए? प्राणों को, मन को और शरीर को एकतान रखना चाहिए।
जब तुम जप करो तब कोई एक आसन पसन्द कर लो सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन आदि। किसी एक आसन में बैठकर ही जप करो। जितना हो सके, जप करते समय इधर उधर झाँके नहीं। दृष्टि नासाग्र रखें, श्वास पर रखें या गुरु गोविन्द के चित्र पर रखें। तन एकाग्र होगा तो मन भी एकाग्र होगा। मन एकाग्र होगा तो स्थूल प्राण को सूक्ष्म करने के लिए कुण्डलिनी शक्ति जागृत होगी। फिर शरीर रिधम से हिलेगा। शरीर में कहीं वात-पित्त-कफ के दोष होंगे तो उन्हें शुद्ध करने के लिए भीतर से धक्का लगेगा प्राणों को तो अपने आप यथा योग्य आसन होने लगेंगे, तेजी से प्राणायाम होने लगेगा। प्रारम्भ में प्रतिदिन आठ-दस प्राणायाम करने का नियम तो ले लें किन्तु जब प्राणोत्थान होगा तो प्राणायाम और विभिन्न आसन अपने आप होने लगेंगे। समर्थ सदगुरु जब संप्रेक्षण शक्ति से मंत्रदीक्षा देते हैं तब साथ ही साथ, संकल्प के द्वारा साधक के चित्त में बीज बो देते हैं। साधक अहोभाव से साधन-भजन में लगा रहता है तो वह बीज शीघ्र ही पनप उठता है। साधक तीव्र गति से साधना में आगे बढ़ने लगता है। महामाया कुण्डलिनी शक्ति उसकी साधना की डोर सँभाल लेती है।
प्रारंभ में इस बात का पता नहीं चलता कि कितना बढ़िया बीज हमारे चित्त में बोया गया है। जैसे, किसान खेत में बोआई करता है तब देखनेवाला जान नहीं सकता कि जमीन में बीज पड़े हैं कि नहीं। लेकिन किसान जानता है। जब खेत की सिंचाई होती है और बीज अंकुरित होकर पनप उठते हैं, छोटी-छोटी पत्तियाँ निकल आती हैं, सारा खेत लहलहा उठता है तब राहदाही भी जान सकते हैं कि किसान ने बीज बोये थे।
ऐसे ही मंत्रदीक्षा के समय साधक को जो मिलता है वह सबको ज्ञान नहीं होता। जब साधक साधना में लगा रहता है तो समय पाकर वह बीज कहो, गुरुदेव का संकल्प कहो, आशीर्वाद कहो, शक्तिपात कहो, चाहे जो कुछ कहो, वह पनपता है।
माँ के उदर में जब गर्भाधान होता है, बच्चा आ जाता है उस समय नहीं दिखता। कुछ महीने के बाद माँ को महसूस होता है और उसके बाद दूर के लोगों को भी महसूस होता है कि यह महिला माँ होने वाली है।
साधक को जब दीक्षा मिलती है तब उसका नवजन्म होता है।
दीक्षा का मतलब इस प्रकार हैः दी = दीयते, जो दिया जाय। क्षा = जो पचाया जाय।
देने योग्य तो सचमुच केवल आध्यात्मिक प्रसाद है। बाकी की कोई भी चीज दी जाय, वह कब तक रहेगी?
जो ईश्वरीय प्रसाद देने की योग्यता रखते हैं वे गुरु हैं। जो पचाने की योग्यता रखता है वह साधक है, शिष्य है। देने वाले का अनुग्रह और पचाने वाले की श्रद्धा, इन दोनों का जब मेल होता है तब 'दीक्षा' की घटना घटती है।
दीक्षा तीन प्रकार की होती हैः शांभवी दीक्षा, जो निगाहों से दी जाती है। स्पर्श दीक्षा, जैसे शुकदेवजी ने परीक्षित के सिर पर हाथ रखकर दी थी। तीसरी है मांत्रिक दीक्षा। गुरु-गोविन्द का, भगवान का कोई नाम दे देना।
मांत्रिक दीक्षा में मंत्र देने वाले का चित्त जैसी ऊँचाई पर होता है वैसा उस मंत्र का प्रभाव पड़ता है। कोई भाड़भूँजा तुम्हें कह दे कि 'राम राम जपो, कल्याण हो जायगा....' तो इतना गहरा कल्याण नहीं होगा जितना कोई ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष राम मंत्र दें और कल्याण हो जाय। रामानंद स्वामी ने ऐसे ही 'राम.... राम' उच्चारण किया और कबीर जी ने गहरी श्रद्धा से पकड़ लिया कि गुरुदेव के श्रीमुख से मंत्र मिल गया है, तो कबीर जी उस मंत्र से सिद्ध हो गये। मंत्र तो वही है लेकिन मंत्र देने वाले की महिमा है। कोई चपरासी कुछ कह दे तो उसकी अपनी कीमत है और प्रधान मंत्री वही बात कह दे तो प्रभाव कुछ और ही पड़ेगा।
आध्यात्मिकता में जो उन्नत हैं उनके द्वारा मंत्र मिलता है और सामने वाला श्रद्धा से साधना करता है तो मंत्र उसको तार देता है। मंत्र का अर्थ ही हैः मननात् त्रायते इति मंत्रः। जिसका मनन करने से जो त्राण करे, रक्षा करे वह है मंत्र। अंतर में मनन करने से मंत्र मन को तार देता है।
मांत्रिक दीक्षा में जितने शब्द कम होते हैं और मंत्रोच्चारण जितना तालबद्ध होता है उतनी साधक को सुविधा रहती है, वह जल्दी से आगे बढ़ता है।
मांत्रिक दीक्षा में अगर कोई संप्रदाय चलाना है, कोई मजहब पकड़ रखना है तो उसमें ख्याल रखा जायगा कि मंत्र दूसरों से कुछ विलक्षण हो। ऐसे मजहब-संप्रदायों में साधक की उन्नति मुख्य नहीं है, संप्रदाय का गठन मुख्य है। संप्रदाय का गठन करने वाले जो भी संप्रदाय के आचार्य हैं उनको उनका कार्य मुबारक हो। नारदजी ऐसे सांप्रदायिक संत नहीं थे। नारदजी के लिए सामने वाले की उन्नति मुख्य थी। सामने वाले के जीवन की उन्नति जिनकी दृष्टि में मुख्य होती है वे लोक संत होते हैं। नारद जी ने वालिया लुटेरा को मंत्र दिया 'रा....म'। 'रा' लम्बा और 'म' छोटा। वालिया मूलाधार केन्द्र, स्वाधिष्ठान केन्द्र में जीने वाला आदमी है। उन केन्द्रों में इस मंत्र के आन्दोलन पड़ेंगे तो धीरे-धीरे वह अनाहत केन्द्र में, हृदय केन्द्र में पहुँचेगा ऐसा समझकर नारदजी ने मांत्रिक दीक्षा देते समय शांभवी दीक्षा का भी दान कर दिया, निगाहों से उसके अंतर में अपने किरण डाल दिये। वालिया लुटेरा लग गया मंत्र जाप में। 'मरा... मरा.... मरा...मरा...' तालबद्ध मंत्र जपते-जपते उसकी सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हुई और वालिया लुटेरा आगे जाकर वाल्मीकि ऋषि बन गया।
मंत्रदीक्षा देने वाले महापुरुष और लेने वाला साधक दोनों बढ़िया होते हैं तो साधना और सिद्धि भी बढ़िया हो जाती है। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मंत्रदीक्षा लेने वाले की अत्यंत श्रद्धा है, साधना में अत्यंत लगन है, नियमबद्ध अभ्यास है तो देने वाला कोई साधारण व्यक्ति भी हो फिर भी लेने वाला आगे निकल सकता है। अधिक लाभ तो तब होता है जब देने वाला भी खूब ऊँचे हों और लेने वाला भी अडिग हो। ऐसे मौके पर कार्य अधिक सुन्दर और सुहावना होता है।
साधक अगर आसन, प्राणायाम आदि नियम से करता रहे तो उसका तन निरोगी रहेगा, प्राण थोड़े नियंत्रित रहेंगे। प्राणायाम करने से प्राणों में तालबद्धता आती है। हमारे प्राण तालबद्ध नहीं हैं इसलिए छोटी-छोटी बातों में हमारा मन चंचल हो जाता है। साधारण लोग और योगियों में इसी बात का फर्क है। योगी बड़ी-बड़ी आपत्तियों में इतने विक्षिप्त नहीं होते क्योंकि उन्होंने प्राणायाम आदि करके मन और प्राण को तालबद्ध किया हुआ होता है। उनमें सब पचा लेने की शक्ति होती है।
पहले समय में लकड़े के पुल होते थे। सेना की कोई बटालियन जब कूच करती है तब एक... दो.... एक..... दो, इस प्रकार तालबद्ध कदम मिलाकर चलती है। उस समय में जब लकड़े के पुल पर से सेना गुजरती तब केप्टन सेना को आज्ञा देता कि ताल तोड़ो। तालबद्ध कदम पड़ने से ताकत पैदा होती है और उससे लकड़े का पुल टूट सकता है।
तालबद्धता में शक्ति है। कोई बिना ताल के गीत गाये तो मजा नहीं आएगा। साधनों के साथ स्वर मिलाकर गाया जाय तो पूरी सभा डोलायमान हो सकती है। संगीत के साधन सबके स्वर मिलाने में सहयोग देते हैं।
तालबद्धता में एक प्रकार का सुख और सामर्थ्य छुपा है। हमारे प्राण अगर तालबद्ध चलने लग जायें तो सूक्ष्म बनेंगे। श्वास तालबद्ध होगा तो दोष अपने आप दूर हो जायँगे। श्वास सूक्ष्म और तालबद्ध नहीं है इसलिए काम सताता है। श्वास तालबद्ध नहीं है इसलिए क्रोध प्रभाव डाल देता है। रोग, शोक, मोह आदि सब प्राणों की तालबद्धता के अभाव में होते हैं। प्रतिदिन अगर थोड़ा समय भी श्वास या प्राणों की तालबद्धता के लिए निकालें तो बहुत-बहुत लाभ होगा।
मानो, हमें क्रोध आ रहा है। उस समय जाँचो तो पता चलेगा कि श्वास का ताल विशेष विकृत होगा। उस समय क्या करना चाहिए? अपने श्वास को देखो, सावधान होकर निहारो प्राण की गति को। क्रोध पर नियंत्रण आ जाएगा।
हम कभी चिन्ता में हैं। चित्त में कुछ बोझा है। तो क्या करें? शुद्ध हवा में मुँह के द्वारा लम्बे-लम्बे श्वास लो। नथुनों से बाहर निकालो। फिर मुँह से लम्बे श्वास लो और नथुनों से निकालो। इस प्रकार दस बारह बार करो। तुम्हारी उदासी में, चिन्ता में जरूर परिवर्तन आ जायगा।
मान लो, किसी के चित्त में कोई पुरानी गन्दी आदत है। कई युवकों को हस्तमैथुन की आदत होती है। पाप की पराकाष्ठा है वह। ऐसी आदतवाले युवक को अगर बदलना है तो उसको प्राणायाम सिखाया जाय।
हस्तमैथुन जैसी भद्दी आदतवाला युवक रात को सोता है और सुबह को जब उठता है तब उसका चेहरा देखकर  पता चलता है कि वह रात को अपनी ऊर्जा का सत्यानाश करता है। मनुष्य भीतर दुःखी होता है तो और दुःख का सामान इकट्ठा करता है। सत्संग नहीं मिलता है, साधन-भजन नियमित नहीं होता है, भीतर का थोड़ा-बहुत रस नहीं आता। तब आदमी कामचेष्टा या और पाप कर्म करता है।
ऐसे लोगों को भी मोड़ना है, आगे बढ़ाना है तो उन्हें प्राणायाण सिखाया जाय। उनके प्राणों में थोड़ी सूक्ष्मता लायी जाय। वे बदल जाएँगे। उनके जीवन में मानो जादू हो जाएगा।
इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। योगियों का कहना है कि अगर प्राण का पूरा प्रभुत्व आ जाय तो चंदा और सूरज को गेंद की तरह अपनी इच्छा के मुताबिक चला सकते हो। सती शाण्डिली ने सूरज को रोका था। नक्षत्रों को अपनी जगह से तुम हिला सकते हो, अगर प्राणशक्ति को अत्यंत सूक्ष्म कर लो तो।
जिसने केवली कुंभक की साधना कर ली है उसके आगे संसारी लोग अपनी शुभ कामना की मनौती माने तो उनके कार्य होने लगते हैं। प्राणायाम का ऊँचा फल जिसने पाया है, प्राणों पर नियंत्रण पाकर जिसने मन को जीत लिया है उसने सब कुछ जीत लिया है। जिसने मन को जीत लिया उसने प्राण को जीत लिया।
कभी अपने को हताश और निराश न करो, क्योंकि तुम प्राण लेते हो और मन भी तुम्हारे पास है। थोड़ा-बहुत साधना का मार्ग भी तुम्हारे पास है। ऐसी बात समझने की थोड़ी बहुत श्रद्धा, भक्ति और बुद्धि भी भगवान ने दी है। अतः घबराना नहीं चाहिए। कैसी भी कमजोरी हो, पहले का कैसा भी पलायनवाद घुसा हो फिर भी उत्साहपूर्वक निश्चय करो किः
"मैं सब कुछ कर सकता हूँ। ईश्वर का अनन्त बल मुझमें सुषुप्त पड़ा है। मैं उसे जगाऊँगा।"
मन और प्राण प्रकृति के हैं। प्रकृति परमात्मा की है। मन और प्राण का उपयोग तो करो, फिर मन और प्राण भी परमात्मा को अर्पण कर दो। प्राणायाम आदि करो, मन को एकाग्र करो, अपने नियंत्रण में लाओ, फिर ऐसा चिन्तन करो कि 'इन सब को देखने वाला मैं साक्षी, चैतन्य आत्मा हूँ।' ऐसा चिन्तन किया तो मन और प्राण ईश्वर को अर्पित हो गये। यह हो गया भक्ति योग। इससे भाव की शुद्धि होगी और बुद्धि परमात्मा में प्रतिष्ठित होगी।
जो कर्मकाण्ड का अधिकारी है उसको कर्मकाण्ड में रूचि बढ़े ऐसे लोगों का ही संग करना चाहिए। जो उपासना का अधिकारी है, उसको उपासना में दृढ़ता रहे, उपासना में प्रीति बढ़े ऐसे वातावरण में और ऐसे संग में रहना चाहिए। उपासना करने वाला अगर विचार करेगा, बुद्धि का उपयोग करेगा तो उपासना से च्युत हो जायगा। उपासना का मार्ग यह है कि तुम श्रद्धा से उन्नत हो जाओ। जैसे, है तो शालिग्राम लेकिन आदि नारायण हैं। है तो शिवलिंग लेकिन कैलासपति भगवान शंकर हैं। कैलासपति मानकर उपासना करते हैं तो ठीक है लेकिन उपासक अगर विचार करे कि, 'कैलास में भगवान शंकर हैं कि नहीं, क्या पता....' तो वह उपासना से च्युत हो जायगा। पहले के जमाने में पैदल जाना होता था। कैलास में कैलासपति है कि नहीं यह पता लगाने का कोई साधन नहीं था। वहाँ भगवान हैं ही ऐसी श्रद्धा बनी रहती थी। लेकिन आजकल हेलिकोप्टर आदि साधनों से कहीं भी खोजबीन की जा सकती है पर उपासना के लिए ऐसी बुद्धि चलाना इष्ट नहीं है। उपासक को तो अपनी श्रद्धा बढ़ा-बढ़ाकर आगे बढ़ना चाहिए। वहाँ विचार की आवश्यकता नहीं है।
कर्मकाण्डी अगर सीधा उपासना में आ जाएगा तो कर्म में उसकी रूचि टूट जाएगी। उपासक अगर विचार में आ जाएगा तो उपासना में रूचि टूट जाएगी। अतः जिस समय जो करते हैं उसमें लग जाओ। जिस साधक को जो साधन ज्यादा अनुकूल पड़ता हो उसमें दृढ़ता से लग जाये। तत्परता से साधना करे।
अगर प्राणोपासना में कोई ठीक से लग जाय तो उसका केवली कुंभक सिद्ध होता है। जिसका केवली कुंभक सिद्ध हो गया हो उसके आगे दूसरे लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होने लगती हैं तो उसकी अपनी कामनाओं का तो पूछना ही क्या?
मन, प्राण और शरीर इन तीनों का आपस में जुड़वे भाई जैसा सम्बन्ध है। शरीर भारी रहता हो तो प्राणायाम आदि करने से वह हल्का बन सकता है। एक बात खास याद रखें कि कभी बिना आसन के न बैठो। कोई भी एक आसन पंसन्द करो, बार-बार उसी आसन में बैठो। इससे मन पर थोड़ा प्रभाव आएगा। मन पर प्रभाव आएगा तो प्राण सूक्ष्म होने लगेंगे। कुण्डलिनी जगेगी। फिर जो कुछ क्रिया होने लगे उसको रोको नहीं। ध्यान करते समय शरीर घण्टी की तरह घूमता है या उछलकूद मचाता है तो उसको रोको मत। लेकिन ऐसे ही भजन में बैठे हो तो शरीर को चंचल मत रखो। बन्दर की तरह इधर हिले, उधर हिले, इधर झाँका, उधर झाँका..... ऐसे नहीं। बिना प्रयोजन की फालतू चेष्टाओं से शरीर को बचाओ। इससे मन की एकाग्रता बढ़ेगी।
हम साधन-भजन करते हैं तो मन थोड़ा-सा एकाग्र होता है, प्राण थोड़े सूक्ष्म होते हैं। शरीर में एक प्रकार की बिजली पैदा होती है, पित्त का प्रभाव बढ़ता है। शरीर का भारीपन और आलस्य दूर होता है, स्फुर्ति आती है।
तुलसी के पत्ते सात दिन तक बासी नहीं माने जाते। बेलफल तीन दिन तक बासी नहीं माना जाता। कमल का फूल दो दिन तक बासी नहीं माना जाता। दूसरे फल एक दिन तक बासी नहीं माने जाते।
तुलसी के पाँच पत्ते चबाकर पानी पियें तो शरीर में विद्युत शक्ति बढ़ती है। तुलसी में विद्युत तत्त्व ज्यादा है। तो क्या तुलसी दल ज्यादा खा लें? नहीं, नहीं। पाँच पत्ते ही काफी हैं। शरीर को तन्दुरुस्त रखने में सहायक होंगे।
कभी-कभी अपने इष्ट को प्यार करते हुए ध्यान करना चाहिए, उपासना करनी चाहिए। वे इष्ट चाहे भोलेनाथ हों, भगवान राम हों, भगवान कृष्ण हों, कोई देवी देवता हो चाहे अपने सदगुरुदेव हों, जिनमें तुम्हारी अधिक श्रद्धा हो उन्हीं के चिन्तन में रम जाओ। रोना हो तो उन्हीं के विरह में रोओ। हँसना हो तो उन्हीं को प्यार करते हुए हँसो। एकाग्र होना तो उन्हीं के चित्र को एकटक निहारते हुए एकाग्र बनो।
इष्ट की लीला का श्रवण करना भी उपासना है। इष्ट का चिन्तन करना भी उपासना है। इष्ट के लिए रोना भी उपासना है। मन ही मन इष्ट के साथ चोरस खेलना भी उपासना। इष्ट के साथ मानसिक कबड्डी खेलना भी उपासना है। इष्ट के कुस्ती खेलना भी उपासना है। ऐसा उपासक शरीर की बीमारी के वक्त सोये सोये भी उपासना कर सकता है। उपासना सोते समय भी हो सकती है, लेटे लेटे भी हो सकती है, हँसते हँसते भी हो सकती है, रोते रोते भी हो सकती है। बस, मन इष्टाकार हो जाय।
मेरे इष्ट गुरुदेव थे। मैं नदी पर घूमने जाता तो मन ही मन उनसें बातें करता। दोनों की ओर होने वाला संवाद मन ही मन घड़ लेता। मुझे बड़ा मजा आता था। दूसरे किसी इष्ट के प्रत्यक्ष में कभी बात हुई नहीं थी, उसकी लीला देखी नहीं थी लेकिन अपने गुरुदेव पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी भगवान का दर्शन, उनका बोलना-चालना, व्यवहार करना आदि सब मधुर लीलाएँ प्रत्य़क्ष में देखने को मिलती थी, उनसे बातचीत का मौका भी मिला करता था। अतः एकान्त में जब अकेला होता तब गुरुदेव के साथ मनोमन अठखेलियाँ कर लेता। अभी भी कभी-कभी पुराने अभ्यास के मुताबिक घूमते-फिरते अपने साँईं से बातें कर लेता हूँ, प्यार कर लेता हूँ। साँईं तो साकार नहीं हैं, अपने मन के ही दो हिस्से हो जाते हैं। एक साँईं होकर प्रेरणा देता है दूसरा साधक होकर सुनता है। क्योंकि साँईं तत्त्व व्यापक होता है, गुरुतत्त्व व्यापक होता है।
कभी-कभी उपासक शिकायत करता है कि मेरा मन भगवान में नहीं लगता है। इसी प्रकार करे तो ही भगवान में मन लगा है। ऐसी बात नही है । और किसी ढंग से भी मन भगवान में लग सकता है। जो लोग थोड़े भी उन्नत उपासक हैं उनका मन जब चाहे तब भगवान में लग सकता है।
मेरे गुरुदेव कभी-कभी अकेले कमरे में बैठे-बैठे भगवान के साथ विनोद करते। उनका भगवान तो तत्त्व रूप में था। वे जगे हुए महापुरुष थे। वे एकांत में कभी-कभी ठहाका मारकर हँसते। मोर की तरह आवाज करतेः
"पियू  ऽऽऽऽ....!"
फिर अपने आपको कहतेः
"बोल,लीलाशाह !"
वे अपने आपको 'शाह' नहीं बोलते थे, पहले दो अक्षर ही अपने लिए बोला करते थे, लेकिन मुझसे वह नाम बोला नहीं जाता। वे अपने आपसे संवाद-वार्ता-विनोद करतेः
"बोल,लीलाशाह !"
"जी साँईं !"
"रोटी खाएगा?"
"हाँ, साँईं ! भूख लगी है।"
"रोटी तब खायगा जब सत्संग का मजा लेगा। लेगा न बेटा ?"
"हाँ महाराज ! लूँगा, जरूर लूँगा।"
"कितनी रोटी खाएगा। ?"
"तीन तो चाहिए।"
"तीन रोटी चाहिए तो तीनों गुणों से पार होना है। बोल, होगा न ?"
"हाँ, साँईं, पार हो जाऊँगा लेकिन अभी तो भूख लगी है।"
"अरे भूख तुझे लगी है ? झूठ बोलता है ? भूख तेरे प्राणों को लगी है।"
"हाँ साँई, प्राणों की लगी है।"
"शाबाश ! अब भले रोटी खा, लीलाशाह ! रोटी खा !"
ऐसा करके विनोद करते और फिर भोजन पाते। उनकी उपासना-काल का कोई अभ्यास पड़ा होगा तो नब्बे साल की उम्र में भी ऐसा किया करते थे.
यह सब बताने के पीछे मेरा प्रयोजन यह है कि तुम्हें भी उपासना की कोई कुंजी हाथ लग जाय।
इष्ट का चिन्तन करना अथवा इष्टों का इष्ट आत्मा अपने को मानना और शरीर के अपने से अलग मानकर चेष्टा और चिन्तन करना यह भी उपासना के अंतर्गत आ जाता है।
लड़की जब ससुराल जाती है तब मायका छोड़ते हुए कठिनाई लगती है। जब ससुराल में सेट हो जाती है तो मायके कभी-कभी ही आती है। आती है तब भी उसके पैर अधिक टिकते नहीं। कुछ ही समय में वह चाहती है कि अब जाऊँ अपने घर। आज तक जिसको अपना घर मान रही थी वह धीरे-धीरे भाई का घर हो जाता है, बाप का घर हो जाता है। पति का घर ही अपना घर हो जाता है।
ऐसे ही उपासक अपने इष्ट के साथ ब्याहा जाता है तो उसको इष्ट का चिन्तन अपना लगता है और संसार का चिन्तन पराया लगता है।
संसार तुम्हारा पराया घर है। असली घर तो है भगवान, आत्मा-परमात्मा। वह प्यारा तुम्हारा बाप भी है, भाई भी है, पति भी है, सखा भी है, जो मानो सो है। लड़की का पति सब नहीं हो सकता लेकिन साधक का पति सब हो सकता है। क्योंकि परमात्मा सब कुछ बना बैठा है।
गुरु को जो शरीर में ही देखते हैं वे देर-सबेर डगमग हो जाते हैं। गुरु को शरीर मानना और शरीर को ही गुरु मानना यह भूल है। गुरु तो ऐसे हैं जिससे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। 'शिवमहिम्न स्तोत्र' में आता हैः
नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।
गुरु से ऊपर कोई भी तत्त्व नहीं है। गुरु तत्त्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होता है। अतः गुरु को केवल देह में ही देखना, गुरु को देह मानना यह भूल है।
मैं अपने गुरुदेव को अपने से कभी दूर नहीं मानता हूँ। आकाश से भी अधिक सूक्ष्म तत्त्व हैं वे। जब चाहूँ तब गोता मारकर मुलाकात कर लेता हूँ।
ऐसे सर्वव्यापक परम प्रेमास्पद गुरुतत्त्व को इसी जीवन में पा लेने का लक्ष्य बना रहे। साधक यह लक्ष्य न भूले। ध्यान-भजन में भी लक्ष्य भूल जाएगा तो निद्रा आयेगी, तंद्रा आयेगी।
साधक चिंतन करता रहे कि मेरा लक्ष्य क्या है। ऐसा नहीं कि चुपचाप बैठा रहे। निद्रा, तंद्रा, रसास्वाद आदि विघ्न आ जायें तो उससे बचना है। ध्यान करते समय श्वास पर ध्यान रहे, दृष्टि नासाग्र या भ्रूमध्य में रहे अथवा अपने को साक्षी भाव से देखता रहे। इसमें भी एकाध मिनट देखेगा, फिर मनोराज हो जायेगा। तब लम्बा श्वास लेकर प्रणव का दीर्घ उच्चारण करेः 'ओ....म् ऽऽऽऽ....'
फिर देखे कि मन क्या कर रहा है। मन कुछ न कुछ जरूर करेगा, क्योंकि पुरानी आदत है। तो फिर से गहरा श्वास लेकर होंठ बन्द करके 'ॐ' का गुंजन करे। इस गुंजन से शरीर में आंदोलन जगेंगे, रजो-तमोगुण थोड़ा क्षीण होगा। मन और प्राण का ताल बनेगा। आनन्द आने लगेगा। अच्छा लगेगा। भीतर से खुशी आयेगी। तुम्हारा मन भीतर से प्रसन्न है तो बाहर से भी प्रसन्नता बरसाने वाला वातावरण सहज में मिलेगा। भीतर तुम चिंतित हो तो बाहर से भी चिंता बढ़ाने वाली बात मिलेगी। भीतर से तुम जैसे होते हो, बाहर के जगत से वैसा ही प्रतिभाव तुम्हें आ मिलगा।
जगत तीन प्रकार के हैं- एक स्थूल जगत है जो हम आँखों से देखते हैं, इन कानों से सुनते हैं, इस जिह्वा से चखते हैं, इस नासिका से सूँघते हैं। यह स्थूल जगत है, दूसरा सूक्ष्म जगत है। स्थूल जगत लौकिक जगत है, दूसरा अलौकिक जगत है। इन दोनों से पार तीसरा है लोकातीत जगत। यह है लौकिक अलौकिक दोनों का आधार, दोनों का साक्षी।
जगत को देखने की दृष्टि भी तीन प्रकार की हैः एक है स्थूल दृष्टि या चक्षुदृष्टि, दूसरी मनदृष्टि और तीसरी वास्तविक दृष्टि।
स्थूल जगत में जो कुछ दिखता है यह स्थूल आँखों से दिखता है। सूक्ष्म जगत अंदर के मनः चक्षु से दिखता है। जैसे, किसी साधना के द्वारा हम अपने इष्ट या सदगुरु से अनुसंधान कर लें तो हमें दूर का कुछ अजीब-सा दर्शन होगा। वह लौकिक नहीं होगा, अलौकिक होगा। कभी संगीतवाद्यों के मधुर स्वर सुनाई पड़ेंगे। कभी अलौकिक सुगन्ध आने लगेगी। इस प्रकार के अनुभव हों तब जानना कि मन लौकिक जगत से हटकर अलौकिक जगत में प्रविष्ट हुआ है, बाह्य चक्षु से हटकर आंतरक्षु में गया है। आंतरचक्षु वाले साधक एक दूसरे को समझ सकते हैं जबकि दूसरे लोग उनकी बातों की मजाक उड़ायेंगे।
साधक को अपने आंतर जगत के अनुभव अत्यंत बहिर्मुख लोगों को नहीं सुनाना चाहिए। क्योंकि बहिर्मुख लोग तर्क-कुतर्क करके साधक के अनुभव को ठेस पहुँचा देगा। बाहर के आदमी में तर्क करने की योग्यता ज्यादा होगी और साधक तर्क के जगत में नहीं है, भावना के जगत में है। भाववाला अगर बौद्धिक जगत वाले के साथ टकराता है तो उसके भाव में शिथिलता आ जाती है। इसीलिए साधकों को शास्त्र की आज्ञा है कि अपना आध्यात्मिक अनुभव नास्तिक और निगुरे, साधारण लोगों को नहीं सुनाना चाहिए। आध्यात्मिक अनुभव जितना गोप्य रखा जाए उतना ही उसका प्रभाव बढ़ता है।
मन, प्राण और शरीर इन तीनों का एक दूसरे के साथ जुड़वे भाई जैसा सम्बन्ध है। इसलिए शरीर को ऐसा खुराक मत खिलाओ कि ज्यादा स्थूलता आ जाय। अगर नींबू प्रतिकूल न पड़ता हो तो साधक को भोजन में नींबू लेना चाहिए। प्रतिदिन तुलसी के पत्ते चबाने चाहिए। नंगे पैर कभी भी नहीं घूमना चाहिए। नंगे पैर चलने फिरने से शरीर का विद्युत तत्त्व भूमि में उतर जाता है। भजन के प्रभाव से बढ़ा हुआ विद्युत तत्त्व कम हो जाने से शिथिलता आ जाती है।
शरीर में भारीपन रहने से ध्यान-भजन में मजा नहीं आता, काम करने में भी मजा नहीं आता। जिसको ध्यान-भजन में मजा आता है उस साधक को लौकिक जगत में से अलौकिक सूक्ष्म जगत में जाने की रूचि जगती है। लौकिक जगत में तो कर्म करके, परिश्रम करके थोड़ा सा मजा मिलता है जबकि भावना के जगत में बिना कर्म किये, भावना से ही आनन्द मिलता है। ध्यान के द्वारा, प्रेमाभक्ति के द्वारा साधक को जो मजा मिलता है वह लौकिक जगत के पदार्थों से नहीं मिल सकता। भीतर का मजा ज्यों-ज्यों आता जाएगा त्यों-त्यों बाहर के पदार्थों का आकर्षण छूटता जाएगा। आकर्षण छूटा तो वासना कम होगी। वासना कम होगी तो मन की चंचलता कम होगी। मन की चंचलता कम होगी तो बुद्धि का परिश्रम कम होगा। बुद्धि स्थिर होने लगेगी तो ज्ञानयोग में अधिकार मिल जाएगा।
निष्काम कर्म उपासना का पासपोर्ट देता है उपासना ज्ञान का पासपोर्ट देती है। फिर भी यदि किसी ने पहले उपासना कर रखी है, बुद्धि बढ़िया है, श्रद्धा गहरी है और समर्थ सदगुरु मिल जाते हैं तो सीधा ज्ञान के मार्ग पर साधक चल पड़ता है। जैसे राजा जनक चल पड़े थे वैसे कोई भी अधिकारी साधक जा सकता है। कोई उपासना से शुरु कर सकता है। प्रायः ऐसा होता है कि सत्कर्म, शुभकर्म करते हुए, सदाचार से चलते हुए साधक आगे बढ़ता है। फिर उपासना में प्रवेश होता है। उपासना परिपक्व होने पर ज्ञान मार्ग में गति होने लगती है।
प्रारंभिक साधक को समाज में रहते हुए साधना करने से यह तकलीफ होती है कि उसके इर्दगिर्द पच्चीस लोग भ्रष्टाचारी होते हैं और साधक होता है सदाचारी। वे पच्चीस लोग इसे मूर्ख मानेंगे। उन भ्रष्टाचारियों को पता नहीं होता कि वे अपना मन और जीवन मलिन करके जो कुछ इकट्ठा कर रहे हैं उसका भोग तो उनके भाग्य में जितना होगा उतना ही कर पाएँगे। बाकी से तो उनका आहार, तन और मन अशुद्ध होगा और दुःख देगा। लेकिन वे लोग समझते नहीं और साधक का मजाक उड़ाते हैं।
भोगी विलासी लोग रजो-तमोगुण बढ़ानेवाले आहार लेते हैं और मानते हैं कि हम 'फर्स्ट क्लास' भोजन करते हैं लेकिन वास्तव में इन्हीं आहारों से आदमी 'थर्ड क्लास' होता है। दुनिया की नजरों में अच्छा आहार है उसको साधक समझता है कि यह नीचे के केन्द्रों में ले जाने वाला आहार है। यह 'थर्ड क्लास है।' 'फर्स्ट क्लास' के आहार तो शरीर को तन्दुरुस्त रखता है मन को प्रसन्न रखता है और बुद्धि को तेजस्वी बनाता है।
मैंने सुनी है एक कहानी।
एक मुल्ला की प्रसिद्धि दूसरे मुल्ला-मौलवियों की असह्य हो रही थी। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक धार्मिक जगत हो जा व्यावहारिक जगत हो, राग-द्वेष चलता रहता है, एक दूसरे के पैर खींचने की चेष्टाएँ होती ही रहती हैं। स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर जब तक है तब तक ऐसा होता ही रहेगा। दोनों शरीरों से जो पार गया, आत्मज्ञानी हो गया उसके लिए यह झंझट नहीं है, बाकी के लिए तो झंझट रहेगी ही।
दूसरे मौलवियों ने इस मुल्ला के लिए बादशाह को शिकायत कर दी। उसके चारित्र्य विषयक कीचड़ उछाल दी। बादशाह ने सोचा कि यह प्रसिद्ध मुल्ला है। इसको अगर दंड आदि देंगे तो राज्य में भी इसके चाहकों की बददुआ लगेगी। वजीरों की राय ली तो उन्होंने कहा कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी बच जाय। उन्होंने उपाय भी बता दिया। बादशाह ने उस प्रकार अपने महल के चार कमरे में व्यवस्था कर दी। फिर मुल्ला को बुलवाकर कहा गया कि आप रात भर यहाँ अकेले ही रहेंगे। दूसरा कोई नहीं होगा। इन चार कमरों में से किसी भी एक कमरे का उपयोग करोगे तो बादशाह सलामत खुश होंगे और आपको छोड़ दिया जायगा। अगर उपयोग नहीं किया तो जहाँपनाह का अनादर माना जाएगा। फिर वे जो फरमान करेंगे वैसा होगा।
उन चारों कमरों में मुल्ला ने देखा। पहले कमरे में फाँसी लटक रही थी। इस कमरे का उपयोग करना माने फाँसी खाकर मर जाना। मुल्ला आगे बढ़ गया। दूसरे कमरे में हार-सिंगार करके नाज-नखरे करती हुई वेश्या बैठी थी। तीसरे कमरे में मांस-कबाब-अंडे आदि आसुरी खुराक खाने को रखे गये थे। चौथे कमरे में दारू की बोतलें रखी गईं थीं।
मुल्ला ने सोचा कि ऐसी नापाक चीजों का उपयोग मैं कैसे करूँ। मैं दारू क्यों पिऊँ ? मांसाहार भी कैसे कर सकता हूँ ? वेश्यागमन से तो खुदा बचाय ! तो क्या फाँसी खाकर मर जाऊँ ? क्या किया जाय ?
मुल्ला इधर-उधर चक्कर काट रहा है। रात बीती जा रही है। प्यास भी लगी है। उसने सोचाः दारू में पानी भी होता है। पानी से हाथ भी साफ किये जाते हैं। अब बात रही थोड़ी-सी। जरा-सा दारू पी लूँगा। प्यास भी बुझ जायगी और बादशाह सलामत की बात भी रह जायेगी। मैं मुक्त हो जाऊँगा।
मुल्ला ने थोड़ा दारू पी लिया। जिह्वा पर थोड़ा अशुद्ध आहार आ गया तो मन पर भी उसका प्रभाव पड़ गया। थोड़ा और पी लूँ तो क्या हर्ज है ? ऐसा सोचकर किस्म-किस्म के दारू के घूँट भरे, नशा चढ़ा। भूख भी खुली। मन, बुद्धि, प्राण नीचे आ गये। भूख लगी है और खुदा ने तैयार रख ही दिया है तो चलो, खा लें। मुल्ला ने मांस-अंडे-कबाब आदि भर पेट खा लिया। अंडे खाये तो इन्द्रियाँ उत्तेजित हो गईं तो चला गया वेश्या के कमरे में। 'वह बेचारी इन्तजार कर रही है। किसी के मन को खुश करना यह भी तो पुण्यकर्म है।' मन कैसा बेवकूफ बना देता है इन्सान को?
मुल्ला वेश्या के कमरे में गया। सुबह होते-होते उसका सत्त्व खत्म हो गया, शरीर में बल का बुरी तरह ह्रास हो गया। मुल्ला का चित्त ग्लानि से भर गया। 'हाय ! यह मैंने क्या कर लिया? दारू भी पी लिया, अभक्ष्य भोजन भी खा लिया और वेश्या के साथ काला मुँह भी कर लिया। मैं धार्मिक मुल्ला ! पाँच बार नमाज पढ़नेवाला ! और यह मैंने क्या किया ? लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगा ?'
हीन भाव से मुल्ला आक्रान्त हो गया और चौथे कमरे में जाकर फाँसी खाकर मर गया। पतन की शुरुआत कहाँ से हुई ? 'जरा-सा यह पी लें।' बस 'जरा-सा.... जरा-सा...' करते-करते मन कहाँ पहुँचाता है ! जरा-सा लिहाज करते हो तो मन चढ़ बैठता है। दुर्जन को जरा सी उँगली पकड़ने देते हो तो वह पूरा हाथ पकड़ लेता है। ऐसे ही जिसका मन विकारों में उलझा हुआ है उसके आगे लिहाज रखा तो अपने मन में छुपे हुए विकार भी उभर आयेंगे। अगर मन को संतों के तरफ, इष्ट के तरफ, सेवकों के तरफ, सेवाकार्यों के तरफ थोड़ा-सा बढ़ाया तो और सेवकों का सहयोग मिल जाता है। उपासना के तरफ मन बढ़ाया तो और उपासक मिल जाते हैं। इस मार्ग में थोड़ा-थोड़ा बढ़ते-बढ़ते मन नारायण से मिलता है और उधर अगर मन मुड़ जाता है तो आखिर में असुर से मिलता है।
असुर से मिलता है, तमस् से मिलता है तो मन नीची योनियों में जाता है। मन अगर साधकों का संग करता है, सत्संग करता है, इष्ट के साथ जुड़ता है तो इष्ट के अनुभव से एक हो जाता है, अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव कर लेता है। गुरु का अनुभव अपना अनुभव हो जाता है, श्रीकृष्ण का अनुभव हो जाता है, शिवजी का अनुभव अपना अनुभव हो जाता है, रामजी का अनुभव अपना अनुभव हो जाता है। अन्यथा तो फिर पशु-पक्षी, वृक्ष आदि योनियों में भटकना पड़ता है।
मनुष्य जीवन मिला है। पराधीनता की जंजीरों में जकड़ने वाले विनाश की ओर चलो या परम स्वातंत्र्य के द्वार खोलने वाले विकास की ओर उन्मुक्त बनो, मरजी तुम्हारी।
नारायण..... नारायण.... नारायण.... नारायण.... नारायण....।