पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Saturday, June 7, 2014

शीघ्र ईश्वरप्राप्ति   पुस्तक से

अन्वेषण और निर्माण

अब हम अन्वेषण और निर्माण पर कुछ विचार करेंगे।

एक होता है अन्वेषण और दूसरा होता है निर्माण। निर्माण उस वस्तु का होता है जो पहले नहीं थी। निर्मित वस्तु नश्वर होती है। यह कहना ठीक ही होगा कि निर्माण होने पर ही उसका नाश प्रारम्भ हो जाता है।

जैसे, शरीर का निर्माण हुआ लेकिन निर्माण के साथ हो धीरे-धीरे उसका आयुष्य क्षीण होने लगता है। ऐसे ही जिस किसी भी वस्तु का निर्माण होता है, जो बनती है उसका बिगड़ना, बिखरना शुरू हो जाता है।

परमात्मा निर्मित की जाने वाली वस्तु नहीं है। साधन भजन से कभी परमात्मा का निर्माण नहीं होता है। साधन भजन तो आसक्ति मिटाने के उपाय हैं, राग-द्वेष मिटाने के उपाय हैं। साधन भजन से निर्माण का आकर्षण मिटाकर शाश्वत का अन्वेषण करना होता है। जगत का धन, वैभव, ऐश-आराम, रिद्धि-सिद्धि, लौकिक-पारलौकिक ऐश्वर्य, इन सबमें विवेक करके अपने चित्त को बचाना पड़ता है, तब सत्य वस्तु का अन्वेषण होता है।

आप चाहते क्या हैं? सुख चाहते हैं।

कैसा सुख चाहते हैं? सदा रहने वाला सुख चाहते हैं या क्षणभर का? सदा रहने वाला सुख चाहते हैं।

तो घड़ी भर रहने वाले इन पदार्थों से प्राप्त सुख कब तक टिकेगा? संसार की प्रत्येक निर्मित वस्तु क्षणभंगुर ही है।

ब्रह्माजी की एक घड़ी में हमारे न जाने कितने कितने पदार्थ बनकर नष्ट हो जाते हैं।

आप सदा सुख चाहते हैं तो जो सदा रहता है उस तत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए।

अच्छा, आप सदा सुख चाहते हैं लेकिन अल्प सुख चाहते हैं या पूर्ण?

थोड़ा सा सुख, अल्प सुख अल्पेन्द्रियों के द्वारा होता है जो कि कुछ समय के बाद नष्ट हो जाता है तथा इन्द्रियाँ भी कमजोर हो जाती हैं। अगर पूर्ण सुख चाहते हैं तो फिर पूर्ण का अनुसंधान करना पड़ेगा।

आप एक स्थान पर सुख और दूसरे स्थान पर दुःख चाहते हैं क्या ? सूरत में सुख मिले और अहमदाबाद में मुसीबत मिले ऐसा चाहते हैं क्या? नहीं....।

आप तो सदा, सर्वत्र और पूर्ण सुख चाहते हैं। जब आप सर्वत्र सुख चाहते हैं तो जो सर्वत्र है, उसकी शरण में आना ही पड़ेगा। जो सर्वत्र है उसी का अन्वेषण करना पड़ेगा। अच्छा, आप मेहनत, परिश्रम करके सुख चाहते हैं कि सहज में सुख चाहते हैं?

सहज में मिल जाय तो मेहनत क्यों करें? तो सहज में सुख चाहने वालों को सहज सुख स्वरूप हृदय गुफा में बैठा है उधर ही आना पड़ेगा।

जो सदा है, सर्वत्र है, सबमें है और सहज में है उसके लिए अन्वेषण करना, इसी का नाम साधना।

जो कभी है, कभी नहीं है, कुछ देर है फिर मिट ता है, उसके लिये प्रयत्न करना – यह संसार कहलाता है। संसार यानी जो सतत सरकता जाये।

भगवान श्री कृष्ण को भी संसार से वैराग्य हुआ था। श्रीकृष्ण ने सोचा कि राग तो बहुत करके देखा लेकिन राग की उत्पत्ति से अन्त में राग-द्वेष ही बढ़ेगा। श्रीकृष्ण की जो रानियाँ और पटरानियाँ थीं, जिनका निर्दोष आचरण था, ऐसी रानियाँ भी आपस में राग-द्वेष करने लगीं और अपने ही पुत्र परिवार वाले आपस में कलह करने लगे। यहाँ तक कि श्रीकृष्ण की खिल्ली उड़ाने लगे, उनकी अवहेलना करने लगे।

जब श्रीकृष्ण के पुत्र उनकी बात नहीं मानते तो आपके बेटे अगर कुछ नहीं माने तो इसमें क्या बड़ी बात हो गई ? श्रीकृष्ण वैराग्य करते हैं तो आप भी वैराग्य कीजिये। कब तक राग की थप्पड़ें खाते रहोगे। ''वैराग्यरागरसिको भव।'' वैराग्य राग के ही रसिक बनो।

संसार में ऐसी कोई परिस्थिति नहीं, जो सदा एक जैसी रहे।

सांसारिक सम्बन्ध किसी के ऐसे नहीं कि सदा एक जैसे रहें। परन्तु परमात्मा और उसके साथ अपना सम्बन्ध सदा एक जैसा रहता है, शाश्वत रहता है। इस शाश्वत सम्बन्ध का अन्वेषण करना और नश्वर सम्बन्ध का सदुपयोग करके सत्य में स्थित होना, इसी का नाम सत्संग है।

मैं जवान था, तब इतने किलोमीटर सतत गाड़ी दौड़ाता था कि जयपुर से अहमदाबाद तक एक ही बैठक पर लगातार गाड़ी  ले आता था। वे दिन अब याद आते हैं....!

परिवर्तित शरीर और परिवर्तित वस्तुओं को पकड़ कर तुम अगर स्मरण करते हो तो दुःख, चिंता और पश्चाताप ही हाथ लगता है। परिवर्तित वस्तुओं को परिवर्तित समझो।

श्रीकृष्ण साधु-संतों, ऋषि-मुनियों तथा महापुरूषों का आदर करते थे, उन्हे रथ में बिठाकर रथ हाँककर स्वयं उनकी सेवा करते थे और उन्हीं के कुल के उद्दण्ड लड़के साधु-संतों को देखकर उनकी खिल्ली उड़ाते थे।

एक दिन वे ही उद्दण्ड यदुवंशी कुमार खेलते-खेलते उन महापुरूषों के आश्रम पर पहुँचे। उन्होंने अपने ही एक भाई साम्ब के पेट पर मूसल बाँधकर सजाधजा कर गर्भवती स्त्री के वेश में उन महापुरूषों के सन्मुख पेश किया व बनावटी नम्रता में उनके चरणों में प्रणाम कर निवेदन कियाः

"यह स्त्री गर्भवती है, इसे लड़का होगा कि लड़की ?" इस प्रकार का प्रश्न कर वे महापुरूषों की परीक्षा करने लगे।

वे महात्मा समझ गये कि ये दुर्बुद्धि हैं। उन अंतर्यामी त्रिकालज्ञ ऋषियों ने कहाः "मूर्खों ! लड़का भी नहीं होगा और लड़की भी नहीं होगी लेकिन इसके पेट पर जो मूसल बँधा है वह तुम्हारे सारे कुल का नाश कर देगा।"

श्रीकृष्ण तो साधु-संतों को देखकर प्रसन्नचित्त हो उठते और उनका आदर करते थे। साधु-संतों का हृदय श्रीकृष्ण को देखकर प्रसन्न होता था लेकिन श्रीकृष्ण की संतानों के दुराचरण को देखकर साधु-संतों का मन क्रोध से भर उठता था।

श्रीकृष्ण ने अपनी लीला समेटने का संकल्प किया। श्रीकृष्ण के देखते-देखते द्वारिका डूब रही है लेकिन उनके चित्त में तनिक भी क्षोभ नहीं होता क्योंकि वे जानते हैं कि सारी वस्तुएँ उत्पत्ति, स्थिति, विनाशवाली हैं। ये सारी निर्मित वस्तुएँ हैं।

स्वतः सिद्ध तत्त्व में मग्न रहने वाले श्रीकृष्ण हमें संदेश देते हैं- "तुम भी तुम्हारी द्वारिका, चाहे वह आर. सी. सी. की हो या लोहे-लकड़े की हो, उसमें चित्त को मत चिपकाना क्योंकि सोने की द्वारिका शाश्वत नहीं रही तो तुम्हारी सीमेन्ट कंक्रीट, आर.सी.सी.की द्वारिका कहाँ तक शाश्वत रहेगी? उसमें से चित्त को हटाकर स्वयं को सत्य स्वरूप की ओर लाओ।"

सत्य सदा-सर्वदा रहता है, सत्य का निर्माण नहीं होता, सत्य की खोज या सत्य का अन्वेषण होता है। अतः सत्य का अन्वेषण करना चाहिए तथा जिसका निर्माण होता है उसमें से आसक्ति को निकालकर थोड़ा अनासक्ति का अभ्यास करना चाहिए।

लड़की बने हुए साम्बा के पेट से संत-महात्माओं के शाप के कारण लोहे का मूसल निकला। यह देखकर यदुवंशी कुमार घबरा गये। वे मूसल यदुराज उग्रसेन के दरबार में ले गये और पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा करवा कर समुद्र में फिंकवा दिया। यहाँ भी उन्होंने श्रीकृष्ण से कोई सलाह नहीं ली।

लोहे के उन टुकड़ों में से एक टुकड़ा एक मछली निगल गई। मछली पकड़ने वाले मछुओं ने उस मछली को पकड़ा। उसके पेट में से जो लोहे का टुकड़ा निकला उसे जरा नामक बहेलिये ने अपने बाण की नोंक में लगा लिया।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण एकान्त वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे थे कि उनको उस बहेलिये ने दूर से भ्रम में मृग समझकर बाण मारा। बाण श्रीकृष्ण के पैरों के तलुवे में लगा। बहेलिया जब करीब आया तो देखाः

"अरे ! ये तो श्रीकृष्ण हैं !"

यह भयभीत होकर श्रीकृष्ण के चरणों में गिर कर क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं-

"भाई ! तेरा दोष नहीं है, कर्म की गति ने विधि के विधान लिखे हैं। उसी रीति से यह सब होता है।"

वह बहेलिया कौन था?

वह रामावतार का बाली था, जिसका वध श्रीराम ने किया था।

श्रीकृष्ण उसे हँसते हुए क्षमा करते हैं और अपनी इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को स्वयं में, 'स्व' स्वरूप में प्रतिष्ठित करके अपनी लीला समेटते हैं।

श्रीकृष्ण को अपनी लीला समेटने के कुछ समय पूर्व ही धृतराष्ट ने पूछा थाः

"हे श्रीकृष्ण ! आपके प्रभाव को कुछ मात्रा में मैं जानता तो हूँ, और आप ही के प्रभाव से मुझे अपने कितने ही पूर्व जन्मोंकी स्मृति है। बाप के रहते हुए उसके सौ-सौ बेटे मर जायें और बाप को इन सबके मरण का दुःख देखना पड़े, ऐसा किस कर्म का विधान है? मैंने ऐसा कौन-सा कर्म किया है? मैं अपने सौ जन्मों तक की खोज कर डाली लेकिन कहीं ऐसा कर्म नहीं दिखाई दिया कि मुझे अपने सौ बेटों की मृत्यु के शोक में रो-रोकर मरना पड़े। हे यदुनन्दन ! आप ही कृपा करके मुझे यह बात समझाइये।"

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने योगबल का सहज उपयोग करते हुए धृतराष्ट्र को अन्तर्दृष्टि प्रदान की। तब धृतराष्ट्र देखते हैं कि एक राजा, जो कि उत्पत्ति और विनाश वाली स्थिति में अत्य़धिक आसक्त रहता था। बाहरी जगत की वस्तुओं से अत्यधिक प्रसन्नचित्त दिखाई देता था। धन दौलत और राज्य के विस्तार तथा स्वादिष्ट व्यंजनों के स्वाद में अत्यधिक आसक्ति के कारण वह राजा शाकाहारी होने के बावजूद भी, भोजन शुद्ध व सात्त्विक है कि नहीं, यह विचार किये बिना ही भोजन पर टूट पड़ता था।

रसोइयों ने देखा कि राजा स्वाद में आसक्ति लगा बैठा है। अतः वे राजा को पक्षियों का माँस पकाकर परोसने लगे। पक्षियों का मांस खाकर राजा को अधिक आनंद आने लगा, यद्यपि था तो वह शाकाहारी लेकिन स्वाद की लम्पटता में वह पूछना भूल जाता और खाने बैठ जाता। खाकर रसोइयों को इनाम प्रदान करता। रसोइयों ने खुश होकर एक-एक करके उसे हंस के सौ बच्चों का माँस खिला दिया। पूर्व जन्म के पुण्यों के कारण वह राजा तो बना था लेकिन स्वाद में आसक्ति के कारण वह अन्धा होकर बिना पूछे और विचारे ही खाने लगता था। इसलिए इस जन्म में अन्धा हुआ।

श्रीकृष्ण बताते हैं- "वह राजा कोई दूसरा नहीं, तुम धृतराष्ट ही हो। परन्तु तुम्हारे पुण्यों का प्रभाव इतना अधिक था कि इन सौ बच्चों की हिंसा करने का पाप सौ जन्मों तक तुम्हें फल देने को तत्पर न हो सका। तुम्हारे पुण्यों का समय चल रहा था। लेकिन तुम देखे बिना और विचारे बिना खाया इसलिए तुम अन्धे बने और सौ पक्षियों के बच्चों का हनन होने दिया इसलिए उसके फल के रूप में तुम्हें अपने सौ पुत्रों का हनन देखना पड़ा।"

कर्मप्रधान विश्व करि राखा।

जो जस करै तैसा फल चाखा।।

कर्म की गति अचल है। किये हुए कर्मों का फल आज मिलता है या एक दिन के बाद, एक वर्ष के बाद, एक हजार वर्ष के बाद या एक लाख वर्ष के बाद... लेकिन कर्मों का फल तो मिलता है..... मिलता है.... और मिलता ही है।

जब तक उत्पत्तिवाली वस्तुओं में ''मैं'' और "मेरे" के विचार आते रहेंगे तब तक कर्म का फल मिलता रहेगा। अतः स्वतः सिद्ध जो आत्मा है, उसमें "मैं" और "मेरा" जब तक नहीं करोगे, तब तक कर्म बाँधते ही रहेंगे।

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।

श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर भी यह नियम लागू कर दिखाया। रामावतार में बाली को मारने  की आवश्यकता पड़ी तब बाली ने कहा थाः "मुझ निर्दोष को क्यों मारा है?" तब श्री राम ने कहा थाः "तू निर्दोष नहीं है। तूने अपने भाई की पत्नी और उसके राज्य के साथ अन्याय किया है। तुझे वरदान मिला हुआ था कि जो तेरे सामने आकर लड़ेगा उसकी आधी शक्ति तुझे प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से मैंने तुझे छुपकर बाण मारा है।"

बाली ने पूछाः "प्रभु ! मेरा और आपका तो वैर भी न था। मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो सुग्रीव आपका मित्र और मैं आपका शत्रु हो गया?"

तब रामजी ने कहाः "मेरे मन में कोई वैरी नहीं है परन्तु अब इस जन्म में तो यह करना ही पड़ा। किसी जन्म में तू बदला ले लेना।"

यह बाली द्वापर में बहेलिया बना है। श्रीकृष्ण के साथ उसे वैर नहीं है, लेकिन कर्म की गति से प्रेरित होकर बाण मारा।

भगवान श्रीकृष्ण विदुरजी को समझाते हैं- "आहार करते समय मनुष्य को सावधान रहना चाहिए।"

महापुरूष समझाते हैं कि मुँह से आप जो खाते हैं वह बाह्य आहार है लेकिन नेत्रों के माध्यम से आप जो वस्तुएँ अन्दर ले जाते हैं वह आन्तरिक आहार है। आप कैसा दृश्य देखते हैं तथा किस रीति से देखते हैं? कृपया इसका ध्यान रखना। विवेक की छलनी सदैव पास रखनी होगी अन्यथा ये संस्कार भीतर प्रवेश कर देर सवेर पतन के मार्ग की ओर ले जाएँगे।

आप कानों से सुनते हो? राग-द्वेष में वृद्धि हो ऐसा सुनते हो, काम-क्रोध बढ़े ऐसा सुनते हो, किसी की निन्दा से राग-द्वेष उत्तेजित हों ऐसा श्रवण करते हो या परमात्मा की महिमा सुनते हुए राग-द्वेष की निवृत्ति पाकर स्वयं को, जीवात्मा को परमात्मा के साथ मिलाने की बातें सुनते हो, इस पर तुम्हें ध्यान रखना ही चाहिए।

तुम अपने शरीर के ऐशो आराम की चिंता करते हुए आत्मा का अहित करते हो कि शरीर को सात्त्विक, संयमी, पौष्टिक भोजन प्रदान करते हुए आत्मा की जागृति करते हो ? इस पर भी तुम ध्यान रखो।

नासिका द्वारा कैसी गन्ध लेते हो? परफ्यूम आदि से कामकेन्द्र उत्तेजित करनेवाली गन्ध लेते हो या तुलसी, गुलाब या भगवान के चरणोदक की अथवा शुद्ध या प्राकृतिक वातावरण की सुगन्ध लेते हो? इस पर भी ध्यान रखो।

इसी प्रकार मन के द्वारा तुम कैसा विचार करते हो तथा बुद्धि के माध्यम से तुम कैसे निर्णय करते हो, इस पर भी ध्यान रखो।

जब तक तुम्हें सत्संग का सार न समझाया जाय तब तक तुम्हारे निर्णय और तुम्हारे बाह्य पदार्थ तुम्हें शाश्वत सुख से दूर रखने का प्रयास करेंगे। तुम्हें जब सत्संग मिलता है तब तुम्हारी दृष्टि विवेकयुक्त होती है, निर्णय अच्छे होने लगते हैं तथा ग्रहण की गई वस्तुएँ भी पवित्र होने लगती हैं। पवित्र ग्रहण और पवित्र निर्णय ही तुममें उत्त्पत्ति, स्थिति और नाशवान वस्तुओं से कुछ उपरामता जगाते हैं और जो शाश्वत हैं उसके अन्वेषण हेतु तुम्हें प्रेरित करते हैं।

जगत में देखने के लिए बाहर की वस्तुओं का अनुसंधान करना पड़ता है। शरीर का अनुसंधान करो, खोजो..... तो तुम्हें कैल्शियम मिलेगा, सुगर मिलेगी लेकिन तुम स्वयं का अनुसंधान करो तो तुम्हें चैतन्य मिलेगा, आत्मा और परमात्मा की एकता मिलेगी।

ईश्वर को खोजने का अत्यधिक नजदीकी साधन है, स्वयं की खोज।

अन्वेषण स्वयं के स्वरूप का होता है और उपयोग इदं का होता है। उपयोग इदं का होता है और अन्वेषण अहं का होता है।

"मैं कौन हूँ.....?"

"मैं फलाना सेठ हूँ....।"

नहीं... झूठी बात है।

नीतिशास्त्र कहता हैः श्रीमंतों का, बड़े अधिकारियों का, अमलदारों का एवं राजाओं का हास्य निर्दोष नहीं होता। वे अपनी किसी बात अथवा अपने किसी स्वार्थ को छुपाने के लिए हँसते हैं।

निर्दोष हास्य तो उसका होता है जिसने अहं का पोषण न करते हुए आत्मा का पोषण किया है। दूसरा निर्दोष हास्य बालकों का होता है तथा तीसरा निर्दोष हास्य तत्त्व को प्रेम करने वाले भक्त का होता है।

मनुष्य जब नश्वर वस्तु को आसक्ति से जबरन ही पकड़ना चाहता है तो उसका चित्त दोषी होने लगता है और दोषी चित्त में निर्दोष हास्य का निवास नहीं रहता।

यह कितनी दुर्भाग्य की बात है कि मनुष्य निर्दोष हास्य भी नहीं कर सकता ! हास्य में भी बनावटीपन? Artificial......!

मैं अमेरिका गया तो यह देखकर दंग रह गया कि वे लोग सत्संग नहीं करते, ध्यान नहीं करते, वेदान्त का अमृतपान नहीं करते फिर भी इतना अधिक हँसते-मुस्कराते हैं कि मुझे सोचने पर विवश होना पड़ा कि आज तक मेरी धारणा ही झूठी रही है।

प्लेन में बैठो तब चाहे रास्ते में कोई मिले तब सब भाँति-भाँति से हँसते मुस्कराते हैं। फिर मैंने सूक्ष्मता से अध्ययन किया तो पता चला कि वे लोग हँसने-मुस्कराने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उनके हृदय में वह आनंद, वह मुस्कराहट तो प्रकट होती ही नहीं।

'हलो..... हाय...' बम्बई में तुम्हें इस प्रकार का हास्य मिलेगा, सेल्समैन के पास तुम्हें ऐसा हास्य मिलेगा, श्रीमंतों के पास और कपटी अधिकारियों के पास ऐसा हास्य मिलेगा।

कोई सज्जन अधिकारी होगा तो उसका हास्य सात्त्विक होगा, सज्जन नेता और सज्जन राजा होगा तो उसका हास्य निर्दोष होगा, किन्तु नीतिशास्त्र यह कहता है कि प्रायः ऐसे लोगों के हास्य पर तुम्हें ज्यादा विश्वास नहीं करना चाहिए।

श्रीमंत का हास्य है तो सावधान ! बड़े सेठ का हास्य है तो सावधान किन्तु श्रीकृष्ण के हास्य पर सावधानी की कोई आवश्यकता नहीं। अपने को असावधान करके अपना जीवन श्रीकृष्ण की बाँसुरी की धुन पर नाचने के लिए सौंप दो।

श्रीकृष्ण का हास्य दुःखनिवारक है। श्रीकृष्ण का हास्य श्रीकृष्ण की मधुरता, तुम्हारे चित्त में छुपी हुई मधुरता जगाने के लिए है।

दुर्योधन के हठी स्वभाव के कारण धृतराष्ट्र अत्यधिक अशांत था। युद्ध टालने के सारे प्रयास विफल होने पर उसने विदुरजी को बुलवाया।

विदुरजी कहते हैं- "महाराज धृतराष्ट्र ! आप व्यवहार में कपट छोड़ दीजिए। 'मामका पाण्डवाश्चैव' (मेरे और पांडु के) ऐसा नहीं, पाण्डवों को भी अपना मानिये। आप जो कपटपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं, उसका परिणाम बुरा ही निकलेगा। आप दुर्योधन के कहने में लगे हैं। दुर्योधन और शकुनि में कलि पूर्णरूप में अवतरित होकर आया है। दुर्योधन आपके कुल का विनाश कर देगा इसलिए महाराज ! आप सावधान हो जाइये। यही हितकर है।"

एकान्त में खामोशी के साथ जासूसी करने खड़ा हुआ दुर्योधन यह सब सुनकर आग बबूला हो उठा। उसने विदुरजी को अनेकानेक दुर्वचन कहे। विदुरजी ने अपने धनुष बाण वहीं रख दिये ताकि कोरवों को यह न लगे कि वे पाण्डवों के पक्ष में युद्ध कर रहे हैं। विदुरजी ने वैराग्य का आश्रय लिया है।

राग तुम कहाँ तक करते रहोगे ? जो उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयवाली वस्तु है उसे तुम कब तक पकड़ रखोगे ? रूपया-पैसा कब तक पकड़ रखोगे ? संबंधों को कब तक पकड़ रखोगे भैया.... ? तुम अपनी देह को कब तक पकड़ रखोगे ? ये सभी सरकने वाले पदार्थ हैं। इन्हें नहीं पकड़ रखोगे तो भी प्रारब्धानुसार रहेंगे। इस प्रकार का अन्वेषण किया जाय और जिसे पकड़ रखना नहीं पड़ता उसकी पूर्ण खोज की जाय तो बेड़ा पार हो जाएगा।

जो नश्वर है उसकी नश्वरता जान लो और जो शाश्वत है उनका स्वरूप खोज लो, बिल्कुल निश्चितंता और त्रिगुणातीत स्थिति प्राप्त हो जायेगी।

'प्रज्ञानं ब्रह्म.....।'

तुम्हारे हितैषी सत्शास्त्र और सत्पुरूषों की ओर अपने चित्त को प्रवाहित करो। इन्द्रियों के विकार और देह के आकर्षणों की ओर तुम्हें तटस्थ रहना होगा।

धृतराष्ट्र अगर तटस्थ रहता तो यह स्थिति निर्मित ही न होती। वह तटस्थ नहीं रहा इसीलिए यह स्थिति निर्मित हुई। इसी प्रकार यह जीव रूपी धृतराष्ट्र भी तटस्थ नहीं रहता है इस कारण मृत्यु के समय हाहाकार मच जाता है। जीव अगर तटस्थ रहे तो मृत्यु के समय 'मेरी मृत्यु हो रही है' ऐसा भ्रम नही रहेगा। मृत्यु के समय न तुम्हें कुछ दुःख होगा और न कुछ विचार आएगा।

कबीर जी कहते हैं-

मरो मरो सबको कहे मरना न जाने कोई।

एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई।।

आपके चित्त को, आपके साक्षी स्वरूप को, "मैं" जहाँ से उत्पन्न होता है उसके अन्वेषण के लिए लगाओ तो तुम्हारा चित्त वास्तव में चैतन्यमय हो जाएगा।

झूठ, हिंसा, व्यभिचार आदि का त्याग करने से शरीर शुद्ध होता है। भगवन्नाम जप करने से वाणी शुद्ध होती है। दान एवं सत्कर्म से धन शुद्ध होता है। ध्यान और धारणा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और ऐसे शुद्ध अंतःकरण में शुद्ध स्वरूप आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कर लोगे तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जायेगा। शुद्ध अंतःकरण में अन्वेषण करोगे तो वह प्यारा जो सदा है, सर्वत्र है, शाश्वत है, यहाँ है, अभी भी है और जो कभी भी तुम्हारा त्याग नहीं करता, वह देवों का देव तुम्हारे चित्त में प्रकट हो जाएगा।

'मुझमें यह गुण है... वह गुण है....' ऐसा मानना अवगुण ही है। स्वयं में गुणों का आरोप करना अर्थात् अंतःकरण को मलिन करना है। अपने में गुणों का आरोप हो तो सावधान हो जाओ। अपने में जो अवगुण हैं उन्हें निकालते हुए स्वच्छ होते जाओ तथा गुणों का आरोप न करो। 'गुण प्रकृति के हैं, मेरा तो परमात्मा है और मैं परमात्मा का हूँ' इस प्रकार के विचार तुम्हारे अन्वेषण में निकट के मित्र हैं।

मनुष्य जब गलती करते हुए गुणों को अपने में थोपता है अथवा अवगुणों का चिंतन कर या विकारों में रस लेकर अपने को क्षणिक सुख में उलझाता है, तब वह अयोग्य होने लगता है। लेकिन अवगुणों को जब वह तटस्था से निकालने में लगता है तब वह योग्य होने लगता है तथा अपने में गुण आरोपता नहीं है।

'गुण सात्त्विक प्रकृति के हैं' ऐसा करके जो गुणों में भी अपना अहं नहीं जोड़ता, उसका अहं शुद्ध रूप में आत्मा-परमात्मा के रूप में उसको दिखाई देता है।

अन्वेषण का यह नियम है कि अपने तो झूठ, हिंसा, व्यभिचार आदि से बचाकर शरीर को शुद्ध रखें। भगवन्नाम जप करके मन और वाणी को शुद्ध करें, दान आदि से धन को शुद्ध करें, धारणा-ध्यान समाधि से अंतःकरण को शुद्ध करें तथा 'स्व' का अन्वेषण करके शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करके यहीं पर मुक्ति का अनुभव प्राप्त कर ले।

शुभ आचरण का पालन व अशुभ का त्याग, इससे अंतःकरण शुद्ध होता है, उपासना का अधिकार प्राप्त हो जाता है। जिसे उपासना का अधिकार सिद्ध हो जाता है उसके पास शक्तियाँ आने लगती हैं।

पैठण में सुप्रसिद्ध दण्डवत् स्वामी रहते थे। वे एकनाथ जी महाराज के शिष्य थे। उनकी भक्ति भी कैसी..... वन्दना भक्ति....। 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना....' सर्वत्र मेरा भगवान है, कहीं धन सुषुप्ति में, कहीं शून्य सुषुप्ति में, कहीं स्वप्न में कहीं जाग्रत में..... उस भगवान को मेरा वन्दन....' ऐसी शास्त्रीय धारणा करके उन्होंने वन्दना भक्ति की थी। कोई भी सामने मिल जाए, उसे वंदन करना, चाहे कोई भी मिल जाए।

मुझे एक उच्च कोटि के संत के भक्त ने बताया था कि, 'डोंगरे जी महाराज हमारे गुरूजी को दण्डवत् प्रणाम करते थे।' उसने उनके फोटो भी दिखलाय तो मैंने कहाः 'डोंगरे जी गुरूजी को प्रणाम करें, यह तो ठीक है, स्वाभाविक है, लेकिन डोंगरे जी अगुरू को भी प्रणाम करने में देर नहीं करते थे। गुरू हैं, उन्हें तो वे प्रणाम करते ही थे, लेकिन चवन्नी अठन्नी पर नजर रखने वाले पुजारियों को भी वे प्रणाम कर देते थे, ऐसी उनकी स्वाभाविक ही सरलता थी।"

कोई सामने वाला प्रणाम कर देता है, इसमें अपना गुण मत मानो। यह उनकी सज्जनता है। सामनेवालों की  निर्धनता को अपने धन का गुण नहीं मानना चाहिए।

सामने वालों की निर्धनता से आप अपने धनवान होने का अहं ले आते हैं। सामने वाला कुछ अनपढ़ है तो आप अपने में पढ़े हुए का अहं ले आते हैं और सामने वाला यदि आपको स्नेह करता है या सज्जन होता है, विनम्र होता है तो आप स्वयं को चतुर मान लेते हैं। वास्तव में यह नापतोल सही नहीं है।

सामने वाले की अज्ञता को अपना ज्ञान मानना, सामनेवाले की कमजोरी को अपना जोर मानना, सामनेवाले की निर्धनता को अपना धनाढ्यपना मानना, यह केवल अविद्या और बेवकूफी का ही परिवार है।

गरीबी-अमीरी, अनुकूलता-प्रतिकूलता ये वास्तविक तथ्य नहीं हैं।केवल चार दिन का दिखावा मात्र है। न तो सचमुच गरीबी रहतीहै और न ही अमीरी, न अनुकूलता रहती है और न ही प्रतिकूलता। ये सब बहनेवाले, भागने वाले हैं। शत्रु भी सदा नहीं रहते तो मित्र भी सदा नहीं रहते, लेकिन शत्रु और मित्र का भाव जिस मन में बनता है, उस मन को जो देखता है वह 'सोऽहं' स्वरूप सदा रहता है। इस 'सोऽहं' स्वरूप में स्थिर रहने का प्रयत्न करना उत्तम साधना है।

एकनाथजी महाराज के वे कृपापात्र शिष्य वन्दना भक्ति करते थे।

जिस किसी को देखते, वंदन कर देते, दण्डवत् कर देते। इससे लोग उन्हें दण्डवत् स्वामी या वन्दनवाला बाबा कहकर भी पुकारते थे।

भक्त को देखकर सब लोग खुश हो, यह जरूरी नहीं है। जिसका हृदय पवित्र है वही भक्त को देखकर, संत को देखकर खुश होता है और जिसके हृदय में शराब, कबाब या कुकर्म का प्रभाव होता है वह भक्त को देखकर मजाक उड़ाएगा यह स्वाभाविक ही है।

भक्त को डगमगाने वाले दूसरे कोई तो ठीक बल्कि कुटुम्बी भी होते हैं। प्रायः भक्त को डगमगाने में भक्त के भाव ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। उन वंदना स्वामी, दण्डवत् करने वाले स्वामी को उनका मन उनकी भक्ति में दगा न दे सका। उनकी भक्ति में सामर्थ्य का प्रकाश स्फुरित होने लगा। उनकी उपासना में शक्तियों का प्राकट्य होने लगा।

एक समय पैठण में जहाँ से वे गुजर रहे थे, वहाँ एक मृतक गधा पड़ा हुआ था। उस गधे के दिखलाते शैतान व अवारा किस्म के निगुरे लोगों ने दण्डवत् स्वामी से कहाः

"तुम गधे को प्रणाम करते हो और हमको भी प्रणाम करते हो तो यह मरा हुआ गधा पड़ा है, इसे भी प्रणाम करो। सभी में भगवान है तो इसमें भी होंगे, प्रणाम करो।"

दण्डवत् स्वामी ने कहाः "मेरा भगवान सभी में है, तो इसमें भी है।" यह कहते हुए उस मरे हुए गधे को प्रणाम किया। वह मरा हुआ गधा, जिसका अंतःकरण निकल गया था, दण्डवत् स्वामी के संकल्प से उसका अंतःकरण पुनः उसमें जा बैठा और गधा जीवित हो उठा।

गधा जीवित होते ही लोगों ने खूब प्रशंसा की तब दण्डवत स्वामी कहते हैं-

"आप लोग तो व्यर्थ की प्रशंसा कर रहे हैं। मैंने तो कुछ किया ही नहीं। जो कुछ हुआ वह प्रकृति के गुणों से हुआ।"

कुछ समय पश्चात् वे अपने गुरूदेव के पास गये और पूरी बात सुनाई। तब गुरूदेव ने कहाः

"तुमसे भूल हो गई। तुमने अनजाने में यह संकल्प किया था कि जीवित हो जा। ये लोग देखेंगे। इस कारण ही उसका अंतःकरण वापस आया है। अब किसी यवन का भी गधा मरेगा तो वह आकर तुम्हें खींचकर ले जाएगा, किसी की गाय-भैंस या कुटुम्बी मरेंगे तो भी तुम्हें ले जाएँगे कि इसे जीवित करो। तुम अब प्रयास न करोगे यह सत्य है लेकिन यह उल्टा संसार अनभिज्ञता में तुम्हें ही कर्त्ता मानकर परेशान करेगा, मजबूर करेगा और इस समय में यवनों का वर्चस्व अधिक है, इसलिए तुम्हारे इन्कार करने पर वे तुम्हें कैद कराने का प्रयत्न करेंगे। तुमसे यह बहुत बड़ी भूल हो गई है।"

दण्डवत् स्वामी उपाय पूछते हैं तब गुरूदेव कहते हैं-

अब तुम विख्यात होगे और गधा जीवित करने वाले महात्मा के रूप में तुम्हें खींचा जाएगा, इससे तुम्हारी भक्ति और उपासना उपास्य तत्त्व का साक्षात्कार किये बिना ही बिखर जाएगी। अतः जब तक भक्त को अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार न हुआ हो, तब तक ऐसी झंझटों में नहीं उलझना चाहिए।"

एकनाथ स्वामी का आदेश व सलाह शिरोधार्य कर दण्डवत् स्वामी ने एकान्त में ध्यान, प्राणायाम आदि के माध्यम से अपनी चेतना ऊपर के केन्द्रों में लाकर जीवित समाधि ले ली।

उस जमाने में असंख्य ब्राह्मण पैठण में एकनाथ जी का कुप्रचार करते रहते थे। एकनाथ जी उस कुप्रचार से किंचित भी विचलित नहीं होते थे।

आप अगर भक्ति की राह पर चलते हो तो किसी भी प्रकार से आपका थोड़ा कुप्रचार तो होगा ही। सुप्रचार और कुप्रचार तो भक्ति करोगे तो भी होंगे, धन्धा करोगे तो भी होंगे और आफिस में जाओगे तो भी होंगे। यह तुम्हारे विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

तुम्हारी प्रशंसा करवाकर परमात्मा तुम्हारे उत्साह की वृद्धि करता है, इसलिए वह प्रशंसकों को प्रशंसा की प्रेरणा देता है तथा तुम्हारा अहंकार और दोष धोने के लिए निंदकों की सृष्टि करके परमात्मा तुम्हें शुद्ध करता है। अतः दोनों रूप में तुम्हें लाभ है.... तुम्हारे दोनों ही हाथों में लड्डू है भैया.....

प्रशंसा होती है तो प्यारे को प्यार करो किः 'तू प्रशंसको में प्रेरणा करते हुए मेरा उत्साह बढ़ा रहा है, वाह रे वाह मेरे प्यारे प्रभु.....!' कहीं निंदा होती हो तोः '.....आहऽऽ... दोषों को निकलने के लिए तू बहुत सुन्दर व्यवस्था करता है.... प्रभु !'

आज तक मुझे कोई ऐसा मनुष्य देखने में ही नहीं आया जिसकी किसी ने निन्दा न की हो। एक भी निन्दक जिसका न हो ऐसा मेरी दृष्टि में मानव तो क्या कोई भी देवता भी नहीं है। देवों के देव श्रीकृष्ण और श्रीराम भी अवतरित हुए तो उनका भी किसी न किसी रूप में बिगाड़ करने वाले हमने सुने ही हैं।

इसलिए जहाँ बदनामी होती हो वहाँ सावधान हो जाना चाहिए। दोष है तो निकाल दो और दोष नहीं है तो निर्दोष नारायण को धन्यवाद देकर सतर्क हो जाओ।

अंतःकरण की शुद्धि का ध्यान रखने वाले साधक को यह बात अच्छी तरह से व्यवहार में लानी चाहिए कि प्रशंसा हो या अनुकूलता आती हो तो समझना चाहिए कि यह सब उपार्जित है और प्रतिकूलता आती हो तो भी यह समझना चाहिए कि यह भी उपार्जित है। शाश्वत तो मेरा राम है.... उस तत्त्व में शीघ्र ही आ जाना चाहिए।

उन दण्डवत् स्वामी ने जीवित समाधि ले ली परन्तु एकनाथ जी महाराज के विरोधी लोगों ने इस बात का गलत फायदा उठायाः "एकनाथ जी महाराज ने अपने शिष्य को ऐसा गलत आदेश दिया कि शिष्य जीवित समाधि माने आत्महत्या करके मर गया। ऐसे संत यदि समाज मे रहेंगे तो समाज का सत्यानाश हो जाएगा।"

धर्मान्ध लोग एकनाथ जी महाराज को समाज (जाति) से बाहर करने आयेः

"तुम संस्कृत भाषा और सामान्य भाषा में कथा करते हो और जो कोई भक्त कुछ लाकर देता है, उसको खाते हो, स्वीकार कर लेते हो कि इसका प्रेम है, और फिर अपने ही दण्डवत् स्वामी जैसे शिष्य को ऐसा उपदेश दिया कि वह आत्महत्या करके मर गया।"

चारों तरफ से एकनाथ जी का विरोध हुआ परन्तु उनके चित्त में तनिक भी क्षोभ न हुआ क्योंकि वे अन्वेषण के जगत में प्रवेश कर चुके थे।

मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि तुम अन्वेषण के जगत में अब प्रवेश करोगे। फिर नात-जात, अपना देश व पराया देश भी कभी तुम्हें पापी अथवा दोषी ठहरावें तो भी अन्दर का तुम्हारा अनुभव वे छीन नहीं सकते। तुम्हारा शरीर प्रारब्ध की जिस रीति के अनुसार जाना है, जाएगा लेकिन तुम्हारी स्मृति लोगों में रहेगी और तुम्हें अमरपद की प्राप्ति होगी।

मक्कार लोग वाहवाही करेंगेः "वाह सेठ ! फलाना सेठ !" किन्तु तुम यदि अन्वेषण के जगत में नहीं आये तथा गुरू के साथ तुम्हारा सम्बन्ध जुड़ा नहीं तो पूरी दुनिया की वाहवाही मिलने के बाद भी असली आनन्द गँवा बैठोगे। और यदि संतों के साथ, गुरूदेव के साथ, भगवान के साथ ईमानदारी का स्नेह होगा तो पूरा जगत भले ही तुम्हें किसी अन्य तरीके से गिने या उपेक्षा करे फिर तुम्हारे हृदय में चिदानन्द चैतन्य ब्रह्मस्वरूप का आनन्द झलकता ही रहेगा। अतः कृपा करके स्वयं को परेशान मत करो। स्वयं को कष्ट की ओर न धकेलो। आप वैसे ही बहुत कष्ट सह चुके हो। जन्मे थे तब कितने कष्ट सहने करके आये थे....! अभी भी कितने कष्ट हैं !...... और पुनः मौत का कष्ट खड़ा ही है।

अतः कृपानाथ ! अपने को अधिक परेशान मत करो। स्वयं को सताओ भी मत। आपने स्वयं को बहुत सताया... बहुत जुल्म किया अपने पर... बहुत धोखा किया, अब तो रूको !

सेठ और नेता बनकर उदघाटन करने, वाहवाही पाने को दौड़ जाते हो लेकिन अपने हृदय का तो उदघाटन करो भैया.....! अपने को वाहवाही में उलझाओ मत....सेवा करो लेकिन वाहवाही के लिए नहीं, परमात्मा के लिए सेवा करो। ध्यान करो लेकिन नश्वर के लिए नहीं, शाश्वत के लिए करो। रोओ लेकिन नश्वर के लिए नहीं बल्कि प्रभु को रिझाने के लिए रोओ। जोर जोर से रोओ किः "तू मिलता नहीं..... गुरू में श्रद्धा होती नहीं...।" यह बन्दगी हो जाएगी, तपस्या हो जाएगी।

किसी को हम पूछते हैं- "कैसे हो ?" तो वह खुशी दिखाने के लिए हँसता हैः "हा... हा... हा...।"

अरे, धोखा मत करो अपने से। अन्दर मस्ती नहीं होगी तो बाहर की "हा.... हा.... हा...." कहाँ तक तुम टिका सकोगे ?

पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ दिया सुत जाना है।

कर सत्संग अभी से प्यारे, नहीं तो फिर पछताना है।

खिला-पिलाकर देह बढ़ाई, वह भी अग्नि में जलाना है।।

देह अग्नि में जल जाये उसके पहले हमारा जीवन ज्ञान की अग्नि में पावन हो जाये... ऐसा कुछ प्रयत्न करो। कुटुम्बी स्मशान में शव को पहुँचा दें उसके पहले अपने को राम में पहुँचा दो, इसमें तुम्हारे बाप का बिगड़ता क्या है ?

लोगों ने एकनाथजी महाराज के साथ अन्याय किया लेकिन एकनाथ जी ने खुद ने अन्याय नहीं किया था इसीलिए वे अभी भी आदरणीय और पूजनीय माने जाते हैं।

लोग तुम्हारे साथ प्रेम करें परन्तु यदि तुम अपने साथ अन्याय करते हो तो तुम मिट जाओगे। तुम यदि अपने साथ न्याय करते हो तो तुम्हें कोई नहीं मिटा पाएगा।

आप जानते हैं कि क्या करना चाहिए। आप जानते हैं कि धोखा कहाँ हो रहा है। आप जानते हैं कि कर्त्तव्यच्युतता कहाँ हो रही है....। अपने मुख्य कर्त्तव्य आत्मस्वभाव की जागृति में आप कहाँ पीछे रहते हैं.... अपनी नैतिकता में आप कहाँ पिछड़ते हैं..... यह आपको पता है फिर भी दोषों को गहराई में उतारकर आप गुणों को बिखेरते जाते हैं।

नहीं....। दोषों को निकाल फेंको तथा गुणों को स्वयं में स्थिर कर लो। गुण मुझमें हैं, ऐसा अभिमान न करो बल्कि गुण गुणी आदमी को दे दो, तो तुम एकनाथजी की भाँति हल्के-फुल्के फूल जैसे हो जाओगे।

एकनाथ जी को सभी लोग जाति से बाहर निकालते हैं और उनके द्वार पर 'हुर्रे...हुर्रे...' चिल्लाते हैं लेकिन उनके चित्त में हरि ही हरि है। पूरा गाँव उनके विरोध में नारे लगाता है किन्तु एकनाथ जी के पेट का पानी तक नहीं हिलता। ब्राह्मण लोग द्वार पर आये हैं, अच्छा है। जिस भाव से भी आये हैं किन्तु आये तो हैं।

एकनाथ जी उनसे कहते हैं- "तुम्हारा स्वागत है।"

ब्राह्मण लोग कहते हैं- "हमें स्वागत नहीं चाहिए। ज्ञानेश्वर महाराज ने भैंसे के मुख से वैदिक मंत्रों का उच्चारण करवाया था तो आप भी इस पत्थर के नन्दी को घास खिलाकर दिखला दो।"

एकनाथ जीः "मैं ऐसा कुछ नहीं करता और न ही मुझमें कोई चमत्कारिक शक्ति है।"

लेकिन उन लोगों ने तो जिद्द पकड़ ली। उस वक्त मुसलमानी शासन का अपना जुल्म था तथा ब्राह्मणों के संगठन का समय था। प्रकृति को भी शायद यही मन्जूर था। एकनाथजी महाराज के अनुनय विनय का उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः एकनाथ जी घासका पूला उठाकर मंदिर के प्रांगण में स्थित उस पत्थर के नन्दी के सम्मुख रखा और नन्दी ने घास खाने के लिए अपनी जीभ बाहर निकाली। यह देखकर सारे ब्राह्मण थर-थर काँपते हुए एकनाथ जी के चरणों में गिर पड़े।

आज भी महाराष्ट्र में उस नन्दी की देवली और समाधि लिए बैठे एकनाथजी के सत्पात्र दण्डवत् स्वामी की प्रतिमा का दर्शन करने लोग जाते हैं।

जिस समय यह घटना घटी होगी उस समय कितनी सत्य रही होगी ! लेकिन आज तो यह केवल एक स्वप्नवत् वार्ता बनकर रह गई। इतने-इतने चमत्कार हुए वे भी वार्ता रूप हो जाते हैं, स्वप्नवत हो जाते हैं अतः हमें शिवजी के इस वचन को बार-बार याद करना चाहिएः

उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना।

सत्य हरि भजन, जगत सब सपना।।

नन्दी ने मुँह खोलकर घास खाया तो भी क्या और तुम पानी के ऊपर चलकर उस पार पहुँच गये तो भी क्या ? पृथ्वी में यहाँ घुसे और कलकत्ता में निकले तो भी क्या ? अन्ततोगत्वा शरीर मिट्टी में मिले उसके पहले अपने चित्त को चैतन्य में मिला दो तो बेड़ा पार हो जाएगा।

'ईश्वर से कुछ चाहना' यह स्वार्थ है, लेकिन 'ईश्वर को चाहना' यह परमार्थ है।

निर्माण में आसक्ति करना जन्म मरण के चक्कर में पड़ना है तथा अपने 'मैं' का अन्वेषण करना मुक्ति का पासपोर्ट पाना है।

जो 'इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्' करता है, उसे अन्वेषण का समय मिल जाता है और वह सदा सर्वदा सर्वत्र सबमें तथा अपने में जो पूर्ण पुरूषोत्तम छुपा हुआ है, उसका साक्षात्कार करके मुक्ति का अनुभव कर लेता है।

अन्वेषण अर्थात् खोजने की रीति, परमात्मा को खोजने की रीति। अगर यह जीवन में आ जाय तो फिर वह परमात्मा बहुत ही सरलता से प्राप्त हो जाता है। अगर नहीं मिलता है तो समझ लीजिए कि नश्वर वस्तुओं का आकर्षण अभी भी आपमें अवश्य है, अहं को सुरक्षित रखने का भीतरी आकर्षण मौजूद है या मिट जाने वाले पदार्थों में सत्यबुद्धि है इसलिए वह परमात्मा नहीं मिलता। पूर्ण गुरू हो और पूर्ण तैयारी हो तो चुटकी बजाते ही वह मिल जाता है।

मूंआ पछीनो वायदो नकामो, को जाणे छे काल।

आज अत्यारे अब घड़ी साधो, जोई लो नगदी रोकड़ माल।।

ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में, अन्वेषण के मार्ग में हम जाते हैं तो तीन सोपान आते हैं-

पहलाः स्थूल प्रकार के आकर्षणों को मिटाने के लिए स्थूल प्रकार की सेवा, साधन, भजन आदि।

दूसराः ध्यान, भजन, और सत्संग मिलने पर मध्यम अवस्था प्राप्त होती है।

तीसरा सत्संग में निर्दिष्ट साधन के अनुसार गुरूकृपा को जब पचाने की योग्यता आती है तो पर्दा दूर हो जाता है। बस ! इतना ही तो है....! ईन....मीन.... और तीन कदम ही तो चलना है, अधिक नहीं। ..... और ये कदम अगर संसार को सत्य मानकर उठाते हो तो हजार कदम चलो तो भी आपकी पहुँच के बाहर है अर्थात् नहीं पहुँच सकते हो, परन्तु इस संसार को स्वप्नवत और आत्मा को सत्य समझकर गुरूनिर्दिष्ट व शास्त्रनिर्दिष्ट रीति के अनुसार तुम यदि तत्पर हो जाते हो तो तीन कदम ही चलना है। आत्म-साक्षात्कार होगा तब होगा परन्तु अभी स्वर्ग और वैकुण्ठ का सुख तो दिल में मुफ्त ही उभर रहा है....।

पुण्य तो यहाँ सत्संग में यूँ ही मिल जाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, घृणा, ईर्ष्या इत्यादि दुर्गुण तो यहाँ सहज ही निवृत्त हो जाते हैं। जिसे त्यागने के लिए तपस्वियों को 12-12 वर्ष तक तप करना पड़ता है, फिर भी छूटते नहीं, लेकिन कथा में, सत्संग में ये सब सहजता से भाग जाते हैं। बताओ, यहाँ किसके दिल में है अभी काम-वासना....? न किसी को यहाँ अभी क्रोध है, न लोभ है और न ही मोह है। अभी तो आऽऽ.... हा.... अपने दिल में भगवान के प्रति प्यार लेकर सब उसके प्यारे बनकर बैठे हैं।

सत्संग सहज में ही असंत को संत बना देता है। असाधक को साधक बना देता है, अभक्त को भक्त बना देता है, अज्ञानी के दिल में ज्ञान भर देता है और भगवान से खाली दिल में भगवान भर देता है।

सत्संग धन से बड़ा होता है, सत्संग रिद्धि-सिद्धि से भी बड़ा होता है, यह अष्ट सिद्धियों से भी बड़ा होता है... अरे ! सत्संग तो  ईश्वर के ऐश्वर्य से बड़ी होता है..... अरे ! सत्संग तो ईश्वर के ऐश्वर्य से भी बड़ा होता है।

जिनके हृदय में सत्संग प्रकट हुआ, ऐसे शुकदेवजी महाराज कितने महान होंगे ? ऐसे वेदव्यास जी एकनाथ जी महाराज कितने महान होंगे...? ॐ....ॐ.....ॐ.......

ऐ पाठक ! वे तो महान होंगे। अब आप महान होने का अभी से संकल्प करो और उस संकल्प को रोज-रोज दुहराओ।