पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, January 25, 2010



निर्भय नाद पुस्तक से - Nirbhay Naad pustak se

सदगुरु ही जगत में तुम्हारे सच्चे मित्र हैं। मित्र बनाओ तो उन्हें ही बनाओ, भाई-माता-पिता बनाओ तो उन्हें ही बनाओ। गुरुभक्ति तुम्हें जड़ता से चैतन्यता की ओर ले जायेगी। जगत के अन्य नाते-रिश्ते तुम्हें संसार में फँसायेंगे, भटकायेंगे, दुःखों में पटकेंगे, स्वरूप से दूर ले जायेंगे। गुरु तुम्हें जड़ता से, दुःखों से, चिन्ताओं से मुक्त करेंगे। तुम्हें अपने आत्मस्वरूप में ले जायेंगे।

गुरु से फरियाद न करो, उनके आगे समर्पण करो। फरियाद से तुम उनसे लाभ लेने से वंचित रह जाओगे। उनका हृदय तो ऐसा निर्मल है कि जैसी उनमें भावना करोगे, वैसा ही लाभ होगा। तुम उनमें दोषदृष्टि करोगे तो दोषी बनोगे, गुणग्राहक दृष्टि करोगे तो उनके गुण तुममें आयेंगे और उनको त्रिगुणातीत मानकर उनके आज्ञापालन में चलोगे तो स्वयं भी गुणों से एक दिन पार हो जाओगे।

खबरदार ! जो समय गुरु-सेवन, ईश्वर-भक्ति और सत्संग में लगाना है, वह यदि जड़ पदार्थों में लगाया तो तुम भी जड़ीभाव को प्राप्त हो जाओगे। तुमने अपना सामर्थ्य, शक्ति, पैसा और सत्ता अपने मित्रों व सम्बन्धियों में ही मोहवश लगाया तो याद रखो, कभी-न-कभी तुम ठुकराये जाओगे, दुःखी बनोगे और तुम्हारा पतन हो ही जायेगा।

जितना हो सके, जीवित सदगुरु के सान्निध्य का लाभ लो। वे तुम्हारे अहंकार को काट-छाँटकर तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष करेंगे। उनकी वर्त्तमान हयाती के समय ही उनसे पूरा-पूरा लाभ लेने का प्रयास करो। उनका शरीर छूटने के बाद तो..... ठीक है, मंदिर बनते हैं और दुकानदारियाँ चलती हैं। तुम्हारी गढ़ाई फिर नहीं हो पायेगी। अभी तो वे तुम्हारी – ‘स्वयं को शरीर मानना और दूसरों को भी शरीर मानना’- ऐसी परिच्छिन्न मान्यताओं को छुड़ाते हैं। बाद में कौन छुड़ायेगा?..... बाद में नाम तो होगा साधना का कि मैं साधना करता हूँ, परन्तु मन खेल करेगा, तुम्हें उलझा देगा, जैसे सदियों से उलझाता आया है।

मिट्टी को कुम्हार शत्रु लगता है। पत्थर को शिल्पी शत्रु लगता है क्योंकि वे मिट्टी और पत्थर को चोट पहुँचाते हैं। ऐसे ही गुरु भी चाहे तुम्हें शत्रु जैसे लगें, क्योंकि वे तुम्हारे देहाध्यास पर चोट करते हैं, परन्तु शत्रु होते नहीं। शत्रु जैसे लगें तो भी तुम भूलकर भी उनका दामन मत छोड़ना। तुम धैर्यपूर्वक लगे रहना अपनी साधना में। वे तुम्हें कंचन की तरह तपा-तपाकर अपने स्वरूप में जगा देंगे। तुम्हारा देहाध्यासरूपी मैल धोकर स्वच्छ ब्रह्मपद में तुम्हें स्थिर कर देंगे। वे तुमसे कुछ भी लेते हुए दिखें परन्तु कुछ भी नहीं लेंगे, क्योंकि वे तो सब छोड़कर सदगुरु बने हैं। वे लेंगे तो तुम्हारी परिच्छिन्न मान्यताएँ लेंगे, जो तुम्हें दीन बनाये हुए हैं।

सदगुरु मिटाते हैं। तू आनाकानी मत कर, अन्यथा तेरा परमार्थ का मार्ग लम्बा हो जायेगा। तू सहयोग कर। तू उनके चरणों में मिट जा और मालिक बन, सिर दे और सिरताज बन; अपना 'मैं' पना मिटा और मुर्शिद बन। तू अपना तुच्छ 'मैं' उनको दे दे और उनके सर्वस्व का मालिक बन जा। अपने नश्वर को ठोकर मार और उनसे शाश्वत का स्वर सुन। अपने तुच्छ जीवत्व को त्याग दे और शिवत्व में विश्राम कर।

तुम्हारे जिस चित्त में सुखाकार-दुःखाकार-द्वेषाकार वृत्तियाँ उठ रही हैं, वह चित्त प्रकृति है और उसका प्रेरक परमात्मा साक्षी उससे परे है। वही तुम्हारा असली स्वरूप है। उसमें न रहकर जब प्रकृति में भटकते हो, वृत्तियों के साथ एक हो जाते हो तो अशांत होते हो और स्वरूप में रहकर सब करते हो तो करते हुए भी अकर्ता हो। फिर आनन्द तो तुम्हारा स्वरूप ही है।

जैसे सड़क पर कितने ही वाहन-कार, रिक्शा, साइकिल, बैलगाड़ी आदि चलते हैं लेकिन अचल सड़क के आधार पर ही चलते हैं वैसे ही तुम्हारा आत्मा अचल है। उस पर वृत्तियाँ चल रही हैं। जैसे सरोवर में तरंगे उठती हैं, वैसे तुम्हारे आत्मस्वरूप में ये सब वृत्तियाँ उठती हैं और लय होती हैं।

व्यवहार में चिन्तारूपी राक्षसी घूमा करती है। वह उसी को ग्रस लेती है, जिसको जगत सच्चा लगता है। जिसको जगत स्वप्नवत् लगता है, उसे परिस्थितियाँ और चिन्ताएँ कुचल नहीं सकती।

एक ही मंदिर-मसजिद में क्या जाना, सारे विश्व को ही मंदिर मसजिद बना दो। तुम ऐसा जीवन जियो कि तुम जो खाओ वह प्रसाद बन जाय, जो करो वह साधना या भक्ति बन जाय और जो चिंतन करो वह आत्मचिंतन बन जाय।

तुम जब सत्य के रास्ते पर चल पड़े हो तो व्यावहारिक कार्यों की चिन्ता मत करो कि वे पूरे होते हैं कि नहीं। समझो, कुछ कार्य पूरे न भी हुए तो एक दिन तो सब छोड़कर ही जाना है। यह अधूरा तो अधूरा है ही, लेकिन जिसे संसारी लोग पूरा समझते हैं, वह भी अधूरा ही है। पूर्ण तो एक परमात्मा है। उसे जाने बिना सब जान लिया तो भी व्यर्थ है।

कोई आपका अपमान या निन्दा करे तो परवाह मत करो। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारा देहाध्यास तोड़ने के लिए उसने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है। अपमान से खिन्न मत बनो बल्कि उस अवसर को साधना बना लो। अपमान या निन्दा करने वाले आपका जितना हित करते हैं, उतना प्रशंसक नहीं करते – यह सदैव याद रखो।

क्या आप सुख चाहते हैं?... तो विषय भोग से सुख मिलेगा यह कल्पना मन से निकाल दीजिये। उसमें बड़ी पराधीनता है। पराधीनता दुःख है। भोग्य वस्तु चाहे वह कुछ भी क्यों न हो, कभी मिलेगी कभी नहीं। इन्द्रियों में भोग का सामर्थ्य सदा नहीं रहेगा। मन में एक-सी रूचि भी नहीं होगी। योग-वियोग, शत्रु-मित्र, कर्म-प्रकृति आदि उसमें बाधक हो सकते हैं। यदि विषयभोग में आप सुख को स्थापित कर देंगे तो निश्चय ही आपको परवश और दुःखी होना पड़ेगा।

'सुख' क्या है? 'सु' माने सुन्दर। 'ख' माने इन्द्रिय, मन, हृदयाकाश। इनकी सुन्दरता सहज स्वाभाविक है। आप सुखस्वरूप हैं किन्तु सुख की इच्छा करके उत्पात खड़ा करते हैं; अपने केन्द्र से च्युत होते हैं। सुख को आमन्त्रित मत कीजिये। दुःख को भगाने के लिए बल प्रयोग मत कीजिये। बुद्धि में वासना रूप मलिनता लगी-सी भास रही है। उसको आत्मबुद्धि के प्रकाश में लुप्त हो जाने दीजिये। आपका जीवन सुख-समुद्र का तरंगायमान रूप है। सुख-सूर्य का रश्मि-पुंज है; सुख-वायु का सुरभि-प्रवाह है।

कहीं आप अपने को अवयवयुक्त पंचभौतिक शरीर तो नहीं मान बैठे हैं। यदि ऐसा है तो आप सुखी जीवन कैसे बिता सकते हैं? शरीर के साथ जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि, संयोग-वियोग, ह्रास-विकास लगे ही रहते हैं। कोई भी अपने को शरीर मानकर कभी भयमुक्त नहीं हो सकता। निर्भयता की प्राप्ति के लिए आत्मा की शाश्वत सत्ता पर आस्था होना आवश्यक है। यह आस्था ही धर्म का स्वरूप है। जितने धार्मिक मत-मजहब हैं उनका मूल आधार देहातिरिक्त आत्मा पर आस्था है। आप बुद्धि के द्वारा न समझ सकें तब भी आत्मा के नित्य अस्तित्व पर आस्था कीजिये। मृत्यु का भय त्याग दीजिये। अपने नित्य आत्मा में स्थित रहिये और कार्य कीजिये। आपके जीवन में धर्म प्रवेश करेगा और प्रतिष्ठित होगा। बुद्धि की निर्मलता और विवेक का प्रकाश आने पर आपका अन्तःकरण मुस्करायेगा और बाह्य जीवन भी सुखी हो जायेगा।

तुम अपने को भूलकर दीन-हीन हो रहे हो। जिस प्रकार पशु रस्सी से बँधकर दीन-हीन हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जिस्म की खुदी में पड़कर, देह के कीचड़ में फँसकर दीन-हीन हो जाता है। साधना का मतलब स्वर्गप्राप्ति नहीं बल्कि अपने-आप तक पहुँचना है। ऐसी मृत्यु को लाना है जिससे फिर मृत्यु न हो।

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