पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, February 25, 2010



आत्मयोग पुस्तक से - Aatmayog pustak se

आत्मा परमात्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करके नित्य आत्मा की भावना करें। अपने शाश्वत स्वरूप की भावना करें। अपने अन्तर्यामी परमात्मा में आनन्द पायें। अपने उस अखण्ड एकरस में, उस आनन्दकन्द प्रभु में, उस अद्वैत-सत्ता में अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करें। रूप, अवलोक, मनस्कार तथा दृश्य, दृष्टा, दर्शन ये चित्त के फुरने से होते हैं। विश्व, तैजस, प्राज्ञ, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब जिससे प्रकाशित होते हैं उस सबसे परे और सबका अधिष्ठान जो परमात्मा है उस परमात्मा में जब प्रीति होती है, तब जीव निर्वासनिक पद को प्राप्त होता है। निर्वासनिक होते ही वह ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित होता है। फिर बाहर जो भी चेष्टा करे लेकिन भीतर से शिला की नाईं सदा शान्त है। वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! ऐसे ज्ञानवान पुरूष जिस पद में प्रतिष्ठित होते हैं उसी में तुम भी प्रतिष्ठित हो जाओ।"
जिसका चित्त थोड़ी-थोड़ी बातों में उद्विग्न हो जाता है, घृणा, राग, द्वेष, हिंसा या तिरस्कार से भर जाता है वह अज्ञानी है। ज्ञानी का हृदय शान्त, शीतल, अद्वैत आत्मा में प्रतिष्ठित होता है। हम लोगों ने वह प्रसंग सुना है किः
मंकी ऋषि ने खूब तप किया, तीर्थयात्रा की। उनके कषाय परिपक्व हुए अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हुआ। पाप जल गये। वे जा रहे थे और वशिष्ठजी के दर्शन हुए। उनके मन में था कि सामने धीवरों के पाँच-सात घर हैं। वहाँ जाकर जलपान करूँगा, वृक्ष के नीचे आराम पाऊँगा।
वशिष्ठजी ने कहाः "हे मार्ग के मीत ! अज्ञानी जो आप जलते हैं, राग-द्वेष में, हेय-उपादेय में जलते हैं उनके पास जाकर तुमको क्या शान्ति मिलेगी ? " जैसे किसी को आग लगे और पेट्रोल पंप के फुव्वारे के नीचे जाकर आग बुझाना चाहे तो वह मूर्ख है। ऐसे ही जो आपस में राग-द्वेष से जलते हैं, जो संसार की आसक्तियों से बँधे हैं, उनके संपर्क में और उनकी बातों में आकर हे जिज्ञासु ! तेरी तपन नहीं मिटेगी। तेरी तपन और राग-द्वेष और बढ़ेंगे।
हे मंकी ऋषि ! तुम ज्ञानवानों का संग करो। मैं तुम्हारे हृदय की तपन मिटा दूँगा और अकृत्रिम शान्ति दूँगा। संसार के भोगों से, संसार के सम्बन्धों से जो शान्ति मिलती है वह कृत्रिम शान्ति है। जब जीव अन्तर्मुख होता है, जब परमात्माभिमुख होता है, चित्त शान्त होता है तब जो शान्ति मिलती है वह आत्मिक शान्ति है।"
वासनावाले को अशान्ति है। वासना के अनुरूप वस्तु उसे मिलती है तो थोड़ी देर के लिए शान्ति होती है। लोभी को रूपयों से लगाव है। रूपये मिल गये तो खुशी हो गयी। भोगी को भोग मिले तो खुशी हो गयी। साधक ऐसी कृत्रिम शान्ति पाकर अपने को भाग्यवान नहीं मानता। साधक तो बाहर की चीजें मिले या न मिले फिर भी भीतर का परमात्म-पद पाकर अपना जीवन धन्य करता है। वह अकृत्रिम शान्ति प्राप्त करता है।
संसार का तट वैराग्य है। विवेक पैदा होते ही वैराग्य का जन्म होता है। जिसके जीवन में वैराग्यरूपी धन आ गया है वह धन्य है।
वशिष्ठजी कहते हैं- "हे मंकी ऋषि ! तुम संसार के तट पर आ गये हो। अब तुम मेरे वचनों के अधिकारी हो।"
ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों के वचनों का अधिकारी वही हो सकता है जिसने विवेक और वैराग्यरूपी संपत्ति पा ली है, जिसने विवेक से संसार की असारता देख ली है, जिसने विवेक से शरीर की क्षणभंगुरता देख ली है। ऐसा विवेकप्रधान जो साधक होता है उसको वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्यरूपी धन से जिसका चित्त संस्कृत हो गया है उसे आत्मज्ञान के वचन लगते हैं। जो मूढ़ हैं, पामर हैं, वे ज्ञानवानों के वचनों से उतना लाभ नहीं ले पाते जितना विवेकी और वैराग्यवान ले पाता है।
मंकी ऋषि विवेक-वैराग्य से संपन्न थे। वशिष्ठजी का दर्शन करके उनको अकृत्रिम शान्ति का एहसास हुआ। वे कहने लगेः
"भगवन् ! आप सशरीर दिख पड़ते हो लेकिन आकाश की नाईं शून्य रूप हो। आप चेष्टा करते दिख पड़ते हो लेकिन आप चेष्टा से रहित हो। आप साकार दिखाई देते हो लेकिन आप अनंत ब्रह्माण्डों में फैले हुए निराकार तत्त्व हो। हे मुनिशार्दूल ! आपके दर्शन से चित्त में प्रसन्नता छा जाती है और आकर्षण पैदा होता है। वह आकर्षण निर्दोष आकर्षण है। संसारियों की मुलाकात से चित्त में क्षोभ पैदा होता है। सूर्य का तेज होता है वह तपाता है जबकि आपका तेज हृदय में परम शान्ति देता है। विषयों का और संसारी लोगों का आकर्षण चित्त में क्षोभ पैदा करता है और आप जैसे ज्ञानवान का आकर्षण चित्त में शान्ति पैदा करता है जबकि ज्ञानी का आकर्षण परमात्मा के गीत गुँजाता है, भीतर की शान्ति देता है आनन्द देता है, परमात्मा के प्रसाद से हृदय को भर देता है।
हे मुनीश्वर ! आपका तेज हृदय की तपन को मिटाता है। आपका आकर्षण भोगों के आकर्षण से बचाता है। आपका संग परमात्मा का संग करानेवाला है। अज्ञानियों का संग दुःखों और पापों का संग कराने वाला है। जो घड़ियाँ ज्ञानी की निगाहों में बीत गई, जो घड़ियाँ परमात्मा के ध्यान में बीत गईं, जो घड़ियाँ मौन में बीत गईं, जो घड़ियाँ परमात्मा के प्रसाद में बीत गईं वे अकृत्रिम शान्ति की घड़ियाँ हैं, वे घड़ियाँ जीवन की बहुमूल्य घड़ियाँ हैं।
हे मुनिशार्दूल ! आप कौन हैं ? यदि मुझसे पूछते हो तो मैं माण्डव्य ऋषि के कुल में उत्पन्न हुआ मंकी नामक ब्राह्मण हूँ। संसार की नश्वरता देखकर, संसार के जीवों को हेय और उपादेय, ग्रहण और त्याग (छोड़ना-पकड़ना) से जलते देखकर मैं सत्य को खोजने गया। कई तीर्थों में गया, कितने ही जप-तप किये, कई व्रत और नियम किये फिर भी हृदय की तपन न मिटी।
जप, तप, व्रत और तीर्थ से पाप दूर होते हैं, कषाय परिपक्व होते हैं। कषाय परिपक्व हुए, पाप दूर हुए तो ज्ञानी का संग होते ही अकृत्रिम शान्ति मिलने लगती है, आनन्द आने लगता, मौन में प्रवेश होने लगता है। साधक अलख पुरूष में जगने के योग्य होता है।
मंकी ऋषि वशिष्ठजी का संग पाकर अकृत्रिम शांति को प्राप्त हुए, भीतर के प्रसाद को उपलब्ध हुए, परमात्मा-विश्रान्ति पायी। परमात्म-विश्रान्ति से बढ़कर जगत में और कोई सुख नहीं और कोई धन नहीं और कोई साम्राज्य नहीं।
वे घड़ियाँ धन्य हैं जिन घड़ियों में परमात्मा की प्रीति, परमात्मा का चिन्तन और परमात्मा का ध्यान होता है।
प्रतिदिन अपने अन्तःकरण का निर्माण करना चाहिए। अपने अन्तःकरण में परमात्मा का ज्ञान भरकर उसका चिन्तन करने से अन्तःकरण का निर्माण होता है। अज्ञान से, अज्ञानियों के संग से, अज्ञानियों की बातों से अन्तःकरण में अविद्या का निर्माण होता है और जीव दुःख का भागी बनता है।
चित्त में और व्यवहार में जितनी चंचलता होगी, जितनी अज्ञानियों के बीच घुसफुस होगी, जितनी बातचीत होगी उतना अज्ञान बढ़ेगा। जितनी आत्मचर्चा होगी, जितना त्याग होगा, दूसरों के दोष देखने के बजाय गुण देखने की प्रवृत्ति होगी उतना अपने जीवन का कल्याण होगा।
अगर हम अपने जीवन की मीमांसा करके जानना चाहें कि हमारा भविष्य अन्धकारमय है कि प्रकाशमय है, तो हम जान सकते हैं, देख सकते हैं। किसी व्यक्ति को देखते हैं, उससे व्यवहार करते हैं तब उसके दोष दिखते हैं तो समझो हमारा जीवन अन्धकारमय है। कोई कितना भी हमारे साथ अनुचित व्यवहार करता है फिर भी हमें अपना दोष दिखे और उसके गुण दिखें तो समझ लेना कि हमारा भविष्य उज्जवल है। इससे भी उज्जवल जीवन वह है जिसमें न गुण दिखें न दोष दिखें, संसार स्वप्न जैसा भासने लगे। संसार को स्वप्न-सा देखने वाला अपना आपा परमात्मा में विश्राम पावे, ऐसी प्यास पैदा हो जाय तो समझ लेना कि भविष्य बड़ा सुहावना है, बड़ा मंगलकारी है। इस बात पर बार-बार ध्यान दिया जाय।
देवताओं में चर्चा चली कि इस समय पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ पुरूष कौन है ? सर्वगुण-सम्पन्न कौन है ? प्राणी मात्र में गुण देखनेवाला कौन है ? सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व रखने वाला कौन है ?
इन्द्र ने कहा किः "इस समय पृथ्वी पर ऐसे परम श्रेष्ठ पुरूष श्रीकृष्ण हैं। उनको किसी के दोष नहीं दिखते अपितु गुण ही दिखते हैं। वे प्राणी मात्र का हित चाहते हैं। उनके मन में किसी के प्रति वैर नहीं। श्रीकृष्ण जैसा अदभुत व्यक्तित्व, श्रीकृष्ण जैसा गुणग्राहीपन इस समय पृथ्वी पर और किसी के पास नहीं है।" इस प्रकार इन्द्र ने श्रीकृष्ण की दृष्टि का, उनके व्यक्तित्व का खूब आदर से वर्णन किया।
एक देव को कुतूहल हुआ कि श्रीकृष्ण किस प्रकार अनंत दोषों में भी गुण ढूँढ निकालते हैं ! वह देवता पृथ्वी पर आया और जहाँ से श्रीकृष्ण ग्वालों के साथ गुजरने वाले थे उस रास्ते में बीमार रोगी कुत्ता होकर भूमि पर पड़ गया। पीड़ा से कराहने लगा। चमड़ी पर घाव थे। मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। मुँह फटा रह गया था। दुर्गन्ध आ रही थी। उसे देखकर ग्वालों ने कहाः "छिः छिः ! यह कुत्ता कितना अभागा है ! इसके कितने पाप हैं जो दुःख भोग रहा है !''
श्रीकृष्ण ने कहाः "देखो, इसके दाँत कितने अच्छे चमकदार हैं ! यह इसके पुण्यों का फल है।"
ऐसे ही दुःख-दर्द में, रोग में, परेशानी में, विद्रोह में और अशांति के मौके पर भी जिसमें गुण और परम शान्त परमात्मा देखने की उत्सुकता है, जिसके पास ऐसी विधायक निगाहें हैं वह आदमी ठीक निर्णायक होता है, ठीक विचारक होता है। लेकिन जो किसी पर दोषारोपण करता है, भोगियों की हाँ मैं हाँ मिलता है, ज्ञानवानों की बातों पर ध्यान नहीं देता, संसार में आसक्ति करता है, अपने हठ और दुराग्रह को नहीं छोड़ता उस आदमी का भविष्य अन्धकारमय हो जाता है।
शास्त्र ने कहाः बुद्धेः फलं अनाग्रहः। बुद्धि का फल क्या है ? बुद्धि का फल है भोगों में और संसार की घटनाओं में आग्रह नहीं रहना। बड़ा सिद्ध हो, त्रिकाल ज्ञानी हो लेकिन हेय और उपादेय बुद्धि हो तो वह तुच्छ है।
हेय और उपादेय बुद्धि क्या है ? हेय माने त्याज्य। उपादेय माने ग्राह्य। जब जगत ही मिथ्या है तो उसमें 'यह पाना है, यह छोड़ना है, यह करना है, यह नहीं करना है....' ऐसी बुद्धि जब तक बनी रहेगी तब तक वह बुद्धि अकृत्रिम शान्ति में टिकेगी नहीं। अकृत्रिम शान्ति में टिकने के लिए हेयोपादेय बुद्धि का त्याग करना पड़ता है। त्याज्य और ग्राह्य की पकड़ न हो।
फूल खिला है। ठीक है, देख लिया। बुलबुल गीत गा रही है। ठीक है, सुन लिया। लेकिन 'कल भी फूल खिला हुआ रहे, बुलबुल गाती हुई सुनाई पड़े, रोटी ऐसी ही मिलती रहे, फलाना आदमी ऐसा ही व्यवहार करे, फलानी घटना ऐसी ही घटे.....' ऐसा आग्रह नहीं। जब जगत ही मिथ्या है तो उसकी घटनाएँ कैसे सत्य हो सकती है। जब घटनाएँ ही सत्य नहीं तो उसके परिणाम कैसे सत्य हो सकते हैं। जो भी परिणाम आयेंगे वे बदलते जायेंगे। ऐसी ज्ञान-दृष्टि जिसने पा ली, गुरूओं के ज्ञानयुक्त वचनों को जिसने पकड़ लिया, वह साधक भीतर की यात्रा में सफल हो जाता है।
ब्रह्मवेत्ता की अध्यात्म-विद्या बरसती रहे लेकिन साधक में अगर विवेक-वैराग्य नहीं है तो उतना लाभ नहीं होता। बरसात सड़कों पर बरसती रहे तो न खेती होती है न हरियाली होती है। ऐसे ही जिनका चित्त दोषों से, अहंकार से, भोगों से कठोर हो गया है उन पर संतों के वचन इतनी हरियाली नहीं पैदा करते। जिनक चित्त विवेक-वैराग्य से जीता गया है उनको ज्ञानी संतों के दो वचन भी, घड़ीभर की मुलाकात भी हृदय में बड़ी शान्ति प्रदान करती है।
मंकी ऋषि का हृदय विवेक वैराग्य से जीता हुआ था। वशिष्ठजी की मुलाकात होते ही उनके चित्त में अकृत्रिम शान्ति, आनन्द आने लगा। जितनी घड़ियाँ चित्त शान्त होता है उतनी घड़ियाँ महातप होता है। चित्त की विश्रान्ति बहुत ऊँची चीज है। हेयोपादेय बुद्धिवाले को चित्त की विश्रान्ति नहीं मिलती। 'यह छोड़ कर वहाँ जाऊँ और सुखी होऊँ...' यह हेय-उपादेय बुद्धि है। जो जहाँ है वहीं रहकर हेयोपादेय बुद्धि छोड़कर भीतर की यात्रा करता है तो वह ऊँचे पद को पाता है। जो छोड़ने पकड़ने में लगा है तो वह वैकुण्ठ में जाने के बाद भी शान्ति नहीं पाता।
इसलिये हेयपादेय बुद्धि छोड़ दें। जिस समय जो फर्ज पड़े, जिस समय गुरू और शास्त्र के संकेत के अनुसार जो कर्त्तव्य करने का हो वह यंत्र की पतली की नाईं कर लिया लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को कर्त्ता-धर्त्ता न मानें। जैसे मिट्टी में बैठते हैं, फिर कपड़े झाड़ कर चल देते हैं, इसी प्रकार व्यवहार करके सब छोड़ दो। कर्तृत्त्व चित्त में न आ जाय। कर्तृत्त्वभव और भोक्तृत्वभाव अगर है तो समाधि होने के बाद भी पतन की कोई संभावना नहीं। अष्टावक्र मुनि कहते हैं-
अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
"जब पुरूष अपने आत्मा के अकर्त्तापने को और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियाँ करके नाश होती हैं।"
चित्त में जब अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व कि निष्ठा जमने लगती है तो वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं। फिर वह ज्ञानी यंत्र की पुतली की नाईं चेष्टा करता है।

Saturday, February 20, 2010



तू गुलाब होकर महक पुस्तक से - Tu Gulaab ho kar Mehek pustak se

ज्ञानी किसी से प्यार करने के लिए बँधे हुए नहीं हैं और किसी को डाँटने में भी राजी नहीं हैं। हमारी जैसी योग्यता होती है, ऐसा उनका व्यवहार हमारे प्रति होता है।
लीलाशाह बापू के श्रीचरणों में बहुत लोग गये थे। एक लड़का भी गया था। वह मणिनगर में रहता था। शिवजी को जल चढ़ाने के पश्चात ही वह जल पीता। वह लड़का खूब निष्ठा से ध्यान-भजन करता और सेवा पूजा करता।
एक दिन कोई व्यक्ति रास्ते में बेहोश पड़ा हुआ था। शिवजी को जल चढ़ाने जाते समय उस बालक ने उसे देखा और अपनी पूजा-वूजा छोड़कर उस गरीब की सेवा में लग गया। बिहार का कोई युवक था। नौकरी की खोज में आया था। कालुपुर(अहमदाबाद) स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक दो दिन रहा। कुलियों ने मारपीट कर भगा दिया। चलते-चलते मणिनगर में पुनीत आश्रम की ओर रोटी की आशा में जा रहा था। रोटी तो वहाँ नहीं मिलती थी इसलिए भूख के कारण चलते-चलते रास्ते में गिर गया और बेहोश हो गया।
उस लड़के का घर पुनीत आश्रम के पास ही था। सुबह के दस साढ़े दस बजे थे। वह लड़का घर से ध्यान-भजन से निपटकर मंदिर में शिवजी को जल चढ़ाने के लिए जल का लोटा और पूजा की सामग्री लेकर जा रहा था। उसने देखा कि रास्ते में कोई युवक पड़ा है। रास्ते में चलते-चलते लोग बोलते थेः 'शराब पी होगी, यह होगा, वह होगा... हमें क्या?
लड़के को दया आई। पुण्य कियें हुए हों तो प्रेरणा भी अच्छी मिलती है। शुभ कर्मों से शुभ प्रेरणा मिलती है। अपने पास की पूजा सामग्री एक ओर रखकर उसने उस व्यक्ति को हिलाया। बहुत मुश्किल से उसकी आँखें खुलीं। कोई उसे जूते सुंघाता, कोई कुछ करता, कोई कुछ बोलता था।
आँखें खोलते ही वह व्यक्ति धीरे से बोलाः
"पानी.... पानी...."
लड़के ने महादेव जी के लिये लाया हुआ जल का लोटा उसे पिला दिया। फिर दोड़कर घर जाकर अपने हिस्से का दूध लाकर उसे दिया।
युवक के जी में जी आया। उसने अपनी व्यथा बताते हुए कहाः
"बाबप्त जी! मैं बिहार से आया हूँ। मेरे बाप गुजर गये। काका दिन-रात टोकते रहते ते कि कमाओ नहीं तो खाओगे क्या? नौकरी धंधा मिलता नहीं है। भटकते-भटकते अहमदाबाद के स्टेशन पर कुली का काम करने का प्रयत्न किया। हमारी रोटी-रोजी छिन जायेगी ऐसा समझकर कुलियों ने खूब मारा। पैदल चलते-चलते मणिनगर स्टेशन की ओर आते-आते यहाँ तीन दिन की भूख और मार के कारण चक्कर आये और गिर गया।"
लड़के ने उसे खिलाया। अपना इकट्ठा किया हुआ जेबखर्च का पैसा दिया। उस युवक को जहाँ जाना था वहाँ भेजने की व्यवस्था की। इस लड़के के हृदय में आनंद की वृद्धि हुई। अंतर में आवाज आईः
"बेटा! अब मैं तुझे बहुत जल्दी मिलूँगा।"
लड़के ने प्रश्न कियाः "अन्दर कौन बोलता है?"
उत्तर आयाः "जिस शिव की तू पूजा करता है वह तेरा आत्मशिव। अब मैं तेरे हृदय में प्रकट होऊँगा। सेवा के अधिकारी की सेवा मुझ शिव की ही सेवा है।"
उस दिन उस अंतर्यामी ने अनोखी प्रेऱणा और प्रोत्साहन दिया। वह लड़का तो निकल पड़ा घर छोड़कर। ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिए केदारनाथ, वृन्दावन होते हुए नैनिताल के अरण्य में पहुँचा।
केदारनाथ के दर्शन पाये,
लक्षाधिपति आशिष पाये।
इस आशीर्वाद को वापस कर ईश्वरप्राप्ति के लिए फिर पूजा की। उसके पास जो कुछ रुपये पैसे थे, उन्हें वृन्दावन में साधु-संतों एवं गरीबों में भण्डारा करके खर्च कर दिया था। थोड़े से पैसे लेकर नैनिताल के अरण्यों में पहुँचा। लोकलाड़ल, लाखों हृदयों को हरिरस पिलाते पूज्यपाद सदगुरु श्री लीलाशाह बापू की राह देखते हुए चालीस दिन बीत गये। गुरुवर श्री लीलाशाह को अब पूर्ण समर्पित शिष्य मिला... पूर्ण खजाना प्राप्त करने वाला पवित्रात्मा मिला। पूर्ण गुरु की पूर्ण शिष्य मिला।
जिस लड़के के विषय में यह कथा पढ़ रहे हैं, वह लड़का कौन होगा, जानते हो?
पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।
आसुमल से हो गये, साईँ आसाराम।।
अब तो समझ ही गये होंगे।
(उस लड़के के वेश में छुपे हुए थे पूर्व जन्म के योगी और वर्तमान में विश्वविख्यात हमारे पूज्यपाद सदगुरुदेव श्री आसाराम जी महाराज।)

सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लेना चाहिए। प्रातः खाली पेट मटके का बासी पानी पीना स्वास्थ्यप्रद है।
तुलसी के पत्ते सूर्योदय के पश्चात ही तोड़ें। दूध में तुलसी के पत्ते नहीं डालने चाहिए तथा दूध के साथ खाने भी नहीं चाहिए। तुलसी के पत्ते खाकर थोड़ा पानी पीना पियें।
जलनेति से पंद्रह सौ प्रकार के लाभ होते हैं। अपने मस्तिष्क में एक प्रकार का विजातिय द्रव्य उत्पन्न होता है। यदि वह द्रव्य वहीं अटक जाता है तो बचपन में ही बाल सफेद होने लगते हैं। इससे नजले की बीमारी भी होती है। यदि वह द्रव्य नाक की तरफ आता है तो सुगन्ध-दुर्गन्ध का पता नहीं चल पाता और जल्दी-जल्दी जुकाम हो जाता है। यदि वह द्रव्य कान की तरफ आता है तो कान बहरे होने लगते हैं और छोटे-मोटे बत्तीस रोग हो सकते हैं। यदि वह द्रव्य दाँत की तरफ आये तो दाँत छोटी उम्र में ही गिरने लगते हैं। यदि आँख की तरफ वह द्रव्य उतरे तो चश्मे लगने लगते हैं। जलनेति यानि नाक से पानी खींचकर मुँह से निकाल देने से वह द्रव्य निकल जाता है। गले के ऊपर के प्रायः सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
आईसक्रीम खाने के बाद चाय पीना दाँतों के लिए अत्याधिक हानिकारक होता है।
भोजन को पीना चाहिए तथा पानी को खाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि भोजन को इतना चबाओ कि वह पानी की तरह पतला हो जाये और पानी अथवा अन्य पेय पदार्थों को धीरे-धीरे पियो।
किसी भी प्रकार का पेय पदार्थ पीना हो तो दायां नथुना बन्द करके पियें, इससे वह अमृत जैसा हो जाता है। यदि दायाँ स्वर(नथुना) चालू हो और पानी आदि पियें तो जीवनशक्ति(ओज) पतली होने लगती है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, शरीर को तन्दरुस्त रखने के लिए यह प्रयोग करना चाहिए।
तुम चाहे कितनी भी मेहनत करो किन्तु जितना तुम्हारी नसों में ओज है, ब्रह्मचर्य की शक्ति है उतने ही तुम सफल होते हो। जो चाय-कॉफी आदि पीते हैं उनका ओज पतला होकर पेशाब द्वारा नष्ट होता जाता है। अतः ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए चाय-कॉफी जैसे व्यसनों से दूर रहना रहें।
पढ़ने के बाद थोड़ी देर शांत हो जाना चाहिए। जो पढ़ा है उसका मनन करो। शिक्षक स्कूल में जब पढ़ाते हों तब ध्यान से सुनो। उस वक्त मस्ती-मजाक नहीं करना चाहिए। विनोद-मस्ती कम से कम करो और समझने की कोशिश अधिक करो।
जो सूर्योदय के पूर्व नहीं उठता, उसके स्वभाव में तमस छा जाता है। जो सूर्योदय के पूर्व उठता है उसकी बुद्धिशक्ति बढ़ती है।
नींद में से उठकर तुरंत भगवान का ध्यान करो, आत्मस्नान करो। ध्यान में रुचि नहीं होती तो समझना चाहिए कि मन में दोष है। उन्हें निकालने के लिए क्या करना चाहिए?
मन को निर्दोष बनाने के लिए सुबह-शाम, माता-पिता को प्रणाम करना चाहिए, गुरुजनों को प्रणाम करना चाहिए एवं भगवान के नाम का जप करना चाहिए। भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवान! हे मेरे प्रभु! मेरी ध्यान में रुचि होने लगे, ऐसी कृपा कर दो।' किसी समय गंदे विचार निकल आयें तो समझना चाहिए कि अंदर छुपे हुए विचार निकल रहे हैं। अतः खुश होना चाहिए। 'विचार आया और गया। मेरे राम तो हृदय में ही हैं।' ऐसी भावना करनी चाहिए।
निंदा करना तो अच्छा नहीं है किन्तु निंदा सुनना भी उचित नहीं।
किसी भी व्यक्तित्व का पता उसके व्यवहार से ही चलता है। कई लोग व्यर्थ चेष्टा करते हैं। एक होती है सकाम चेष्टा, दूसरी होती है निष्काम चेष्टा और तीसरी होती है व्यर्थ चेष्टा। व्यर्थ चेष्टा नहीं करनी चाहिए। किसी के शरीर में कोई कमी हो तो उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए वरन् उसे मददरूप बनना चाहिए, यह निष्काम सेवा है।
किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करने वाला व्यक्ति जिसकी निंदा करता है। उसका तो इतना अहित नहीं होता जितना वह अपना अहित करता है। जो दूसरों की सेवा करता है, दूसरों के अनुकूल होता है, वह दूसरों का जितना हित करता है उसकी अपेक्षा उसका खुद का हित ज्यादा होता है।
अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे।
किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है।
जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।
एक चित्रकार अपने गुरुदेव के सम्मुख एक सुन्दर चित्र बनाकर लाया। गुरु ने चित्र देखकर कहाः
"वाह वाह! सुन्दर है! अदभुत है!"
शिष्य बोलाः "गुरुदेव! इसमें कोई त्रुटि रह गयी हो तो कृपा करके बताइए। इसीलिए मैं आपके चरणों में आया हूँ।"
गुरुः "कोई त्रुटि नहीं है। मुझसे भी ज्यादा अच्छा बनाया है।"
वह शिष्य रोने लगा। उसे रोता देखकर गुरु ने पूछाः
"तुम क्यों रो रहे हो? मैं तो तुम्हारी प्रशंसा कर रहा हूँ।"
शिष्यः "गुरुदेव! मेरी घड़ाई करने वाले आप भी यदि मेरी प्रशंसा ही करेंगे तो मुझे मेरी गल्तियाँ कौन बतायेगा? मेरी प्रगति कैसे होगी?"
यह सुनकर गुरु अत्यंत प्रसन्न हो गये।
हमने जितना जाना, जितना सीखा है वह तो ठीक है। उससे ज्यादा जान सकें, सीख सकें, ऐसा हमारा प्रयास होना चाहिए।
रामकृष्ण परमहंस वृद्ध हो गये थे। किसी ने उनसे पूछाः "बाबा जी! आपने सब कुछ जान लिया है?"
रामकृष्ण परमहंसः "नहीं, मैं जब तक जीऊँगा, तब तक विद्यार्थी ही रहूँगा। मुझे अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।"
जिनके पास सीखने को मिले, उनसे विनम्रतापूर्वक सीखना चाहिए। जो कुछ सीखो, सावधानीपूर्वक सीखो। जीवन में विनोद जरूरी है किन्तु विनोद की अति न हो। जिस समय पढ़ते हों, कुछ सीखते हों, कुछ करते हों उस समय मस्ती नहीं, विनोद नहीं। वरन् जो कुछ पढ़ो, सीखो या करो, उसे उत्साह से, ध्यान से और सावधानी से करो।
पढ़ने से पूर्व थोड़े ध्यानस्थ हो जाओ। पढ़ने के बाद मौन हो जाओ। यह प्रगति की चाबी है।
माता-पिता से चिढ़ना नहीं चाहे। जिस माँ-बाप ने जन्म दिया है, उनकी बातों को समझना चाहिए। अपने लिए उनके मन में विशेष दया हो, विशेष प्रेम उत्पन्न हो, ऐसा व्यवहार करना चाहिए।
भूल जाओ भले सब कुछ,
माता-पिता को भूलना नहीं।
अनगिनत उपकार हैं उनके,
यह कभी बिसरना नहीं।।
माता-पिता को संतोष हो, उनका हृदय प्रसन्न हो, ऐसा हमारा व्यवहार होना चाहिए। अपने माता-पिता एवं गुरुजनों को संतुष्ट रखकर ही हम सच्ची प्रगति कर सकते हैं।

Wednesday, February 10, 2010



सच्चा सुख पुस्तक से - Sachha Sukh pustak se

मनुष्य को विकारी आकर्षण ने तुच्छ बना दिया है। जिनके जीवन में संयम है, नियम है ऐसे इन्द्रियों को संयत करने वाले लोग, सब भूतों के हित में रमने वाले लोग, समभाव से मति को सम रखने वाले वे लोग मतिदाता के उच्च अनुभव में स्थिति पा लेते हैं। ऐसे लोग भगवान को प्राप्त कर लें इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। यह कोई जरूरी नहीं है कि वह आदमी अच्छा पढ़ा-लिखा होना चाहिए या अनपढ़ होना चाहिए, बहुत धनवान होना चाहिए या निर्धन होना चाहिए, बच्चा होना चाहिए या जवान होना चाहिए या बूढ़ा होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है।
किसी आदमी को परदेश जाना हो तो उसका यहाँ कुछ एकाउन्ट होना चाहिए, टिकट के पैसे होना चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए, फिर आदमी परदेश जा सकता है। छः बारह महीने में उसे वहाँ से निकाल दिया जाता है अथवा सिफारिश लगाकर वहाँ का नागरिक बनता है। लेकिन जिसने अपने इन्द्रियग्राम को जीता है उसको न कोई देश छोड़ना है न किसी की गुलामी करनी है। वह तो सर्वत्र समबुद्धयः हो जाता है। उसकी सर्वत्र सदा समबुद्धि हो जाती है। उसके लिए अपने और पराये का भेद क्षीण होने लगता है। उसके लिए इहलोक और परलोक की सत्यता मिटने लगती है। उसके लिए राग और द्वेष मन की कल्पना एवं विकारों का आवेश मात्र लगता है। वह भूतमात्र के हित में लगा हुआ पुरूष परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
भगवद् सुख में अगर बड़े में बड़ी रूकावट हो तो वह इन्द्रियों के सुख का आकर्षण। जो संयमी पुरूष है वह इन्द्रियों के सुख के आकर्षण से अपने को संयत करता है। जीवन में अगर संयम नहीं होगा तो जीवन न जाने कौन सी गर्त में जा गिरेगा। वृक्ष अगर कहे कि मुझे संयम की क्या जरूरत है ? मैं धरती से क्यों बँधा रहूँ ? वह स्वतन्त्र होकर इधर-उधर कूदता फिरे तो उसके फूल और फल नष्ट हो जाएँगे, पत्ते सूखकर गिर जाएँगे। वह स्वयं खत्म हो जाएगा। फिर वृक्ष की कोई कीमत नहीं रहेगी। वृक्ष अगर धरती के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, संयम नहीं है, उसके मूल हिलते-डुलते हैं तो उस वृक्ष की कोई कीमत नहीं है।
ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा हमारी धरती है, मनरूपी मूल है, इन्द्रियाँरूपी टहनियाँ हैं। इन्द्रियाँरूपी टहनियाँ शायद थोड़ी-बहुत हिलती-डुलती रहें लेकिन मनरूपी मूल अगर अपने मूल कारण से जुड़ा रहे तो मन के प्रभाव से हमारे जीवनरूपी वृक्ष में भक्तिरूपी सुरभि आयेगी, आत्मानंदरूपी फूल खिलेंगे, आत्मशांति एवं मुक्तिरूपी फल लगेंगे।
मनरूपी मूल परब्रह्म परमात्मारूपी धरती से हटकर उछल-कूद करे तो जीवन विषाद से सूखा रहेगा। फिर मन संसारी विकारी सुखों में भटका-भटकाकर नष्ट करता जाएगा।
जिसने इन्द्रियरूपी ग्राम को जीता है, थोड़ा संयम किया है वह भगवान को प्राप्त करता है। वह सर्व भूतों के हित में रत रहता है। उसकी बुद्धि समत्व योग में प्रतिष्ठित हो जाती है।
वीणा की तार कहे कि हम वीणा से क्यों बँधे रहें, हमें संयम की क्या जरूरत है ? तो वे तार धरती पर पड़े रहेंगे। उनसे कोई मधुर स्वर नहीं निकलेंगे, परमात्मा की मधुर प्रार्थना नहीं पनपेगी।
अगर नदी कहे कि मैं दो किनारों के बीच ही क्यों चलूँ, बन्धन में क्यों रहूँ ? तो नदी स्वतंत्र होकर सागर तक नहीं भी पहुँच सके। वह रास्ते में ही बिखर जाएगी। दो किनारों के बीच संयमित होकर नदी बहती है तो वह गाँवों को हरियाली से लहलहाती हुई आखिर में सागर तक पहुँच जाती है।
ऐसे ही मनुष्य जीवन में संयम के किनारे हों तो जीवन-सरिता की यात्रा सागररूपी परमात्मा में परिसमाप्त हो सकती है। वाष्प अगर संयमित नहीं है तो वह आकाश में बिखर जाती है, उसकी कोई कीमत नहीं रहती। वह अगर रेलगाड़ी के बोयलर में संयत होती है तो वह हजारों टन माल-सामान लेकर भाग सकती है।
ऐसे ही अपनी वृत्ति अगर संयत होगी तो हजारों विघ्न-बाधाओं के बीच भी हम अपनी मंजिल तय कर सकते हैं और दूसरों को भी तय कराने में सहभागी हो सकते हैं।
अपने इन्द्रियग्राम को संयत करने के दो चार प्रयोग जान लो और हररोज थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो।
आदमी कितना भी छोटा हो, कितना भी गरीब हो, कितना भी असहाय हो, अगर उसे सत्संग मिल जाय तो वह महान् बन जाएगा। देवर्षि नारद पूर्व जीवन मे कितने छोटे थे ! केवल दासीपुत्र..... ! जाति छोटी, छपड़ा छोटा, माँ ऐसी साधारण दासी कि चाहे कहीं उसको काम में लगा लें। ऐसे दासीपुत्र महान् देवर्षि नारद हो गये। उनके जीवन के तीन तार थेः श्रद्धा, सत्संग और तत्परता।
सत्संग से वह चीज मिलती है जो धन से, सत्ता से या स्वर्ग से भी नहीं मिलती है।
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।
करोड़ों अपराध सत्संग से नष्ट हो जाते हैं।
सत्संग हमें तीन बातें सिखाता हैः निरीक्षण, शिक्षण और नियँत्रण।
निरीक्षणः
सत्संग हमें यह सिखाता है कि हमें आत्म निरीक्षण करना चाहिए। हमने क्या-क्या गलतियाँ हैं, किस कारण से गलती होती है यह जाँचो। न देखने जैसी जगह पर हम बार-बार देखते तो नहीं हैं ? काम विकार से हमारी शक्ति नष्ट तो नहीं होती है ? बीड़ी से, शराब से, कबाब से या किसी की हल्की संगत से हमारे संस्कार हल्के तो नहीं हो रहे हैं ? हल्के विचारों से हमारा पतन तो नहीं हो रहा है ? आत्म निरीक्षण करो।
शत्रु कुछ निन्दा करता है तो कैसे ध्यान से लोग सुनते हैं ? लोभी धन का कैसा निरीक्षण करता है ? ड्राइवर रास्ते का कैसा निरीक्षण करता है ? चाहे स्कूटर ड्राइवर हो चाहे कार ड्राइवर हो, वह सावधानी से सड़क को देखता रहता है। कहीं खड़ा होता है तो स्टीयरिंग घूम जाती है, कहीं बम्प होता है तो ब्रेक लग जाती है, कहीं चढ़ाई होती है तो रेस बढ़ जाती है, ढलान होती है तो रेस कम हो जाती है। हर सेकेंड ड्राइवर निर्णय लेता रहता है और गन्तव्य स्थान पर गाड़ी सुरक्षित पहुँचा देता है। अगर वह सावधान न रहे तो कहीं टकरा जायगा, खड्डे में गिर जाएगा, जान खतरे में पड़ जाएगी।
ऐसे ही अपने हृदय की वृत्तियों का निरीक्षण करो। खोजो कि किन कारणों से हमारा पतन होता है ? दिनभर के क्रिया कलापों का निरीक्षण करो, कारण खोज लो और सुबह में पाँच-दस प्राणायाण करके ॐ की गदा मारकर उन हल्के पतन के कारणों को भगा दो।
झूठ बोलने से हृदय कमजोर होता है।
जीवन में उत्साह होना चाहिए। उत्साह के साथ सदाचार होना चाहिए। उत्साह के साथ पवित्र विचार होने चाहिए। उत्साह के साथ ऊँचा लक्ष्य होना चाहिए। दुःशासन, दुर्योधन और रावण में उत्साह तो था लेकिन उनका उत्साह शुद्ध रास्ते पर नहीं था। उनमें दुर्वासनाएँ भरी पड़ी थी। दुर्योधन ने दुष्टता करके कुल का नाश करवाया। रावण में सीताजी के प्रति दुर्वासना थी। राजपाट सहित अपना और राक्षस कुल का सत्यानाश किया। दुःशासन ने भी अपना सत्यानाश किया।
उत्साह तो उन लोगों में था, चपलता थी, कुशलता थी। कुशलता होना अच्छा है, जरूरी है। उत्साह होना अच्छा है, जरूरी है। चपलता तत्परता होना अच्छा है, जरूरी है लेकिन तत्परता कौन-से कार्य में हैं ? ईश्वरीय दैवी कार्य में तत्परता है कि झूठ कपट करके बंगले पर बंगला बनाकर विलासी होने में तत्परता है ? बड़ा पद पाकर लोगों का शोषण करने की तत्परता है कि लोगों के हृदय में छुपे हुए लोकेश्वर को जगाकर भगवान के मार्ग में सहायरूप होने की, मुक्त होने की अथवा मुक्ति के मार्ग में जाने वालों की सेवा, सहयोग में तत्परता है ? यह देखना पड़ेगा।
अपने को बचाने में तत्परता है कि अपने को सुधारने में तत्परता है ? अपना बचाव पेश करने में तत्परता है कि दोष खोजने में तत्परता है ? अपने को निर्दोष साबित करने में तत्परता है कि वास्तव में निर्दोष होने में तत्परता है ? अपने को आलसी, प्रमादी बनाने में बुद्धि लग रही है कि अपने को उत्साही और सदाचारी बनाने में लग रही हैं ?
अपना साखी आप है निज मन माँही विचार।
नारायण जो खोट है वाँ को तुरन्त निकाल।।
रोज सुबह ऐसी खोट को निकालते जाओ..... निकालते जाओ.....। चन्द दिनों में तुम्हारा जीवन विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होगा। तुममें दैवी गुण विकसित होने लगेंगे।
युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण ने अपने प्यारे अर्जुन से कहाः निर्भय रहना।
राक्षस निर्भय रहते हैं तो दुराचार करते हैं। सज्जन निर्भय रहते हैं तो सदाचार करते हैं। भगवान ने केवल निर्भय होने को नहीं कहा। अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। निर्भयता कैसी ? सात्त्विक निर्भयता। आत्मज्ञान में व्यवस्थित हो। अपने पास विद्या है तो विद्या का दान दो। धन है तो दूसरों के हित में लगाओ। भगवान को पाने वालों के लिए, भक्ति ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्चो। शरीर से कभी व्रत करो, कभी सेवा करो, कभी उपवास रखो। स्वाध्याय करो। आत्मज्ञान के शास्त्रों का अध्ययन करो, विचार करो। जैसे शरीर को रोटी, पानी और स्नान की आवश्यकता है ऐसे ही तुम्हारे अन्तःकरण को सत्संग, जप और ध्यान की आवश्यकता है।
स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए। हररोज सत्शास्त्रों का सेवन अवश्य करना चाहिए।
हररोज निरीक्षण करो कि हमसे क्या-क्या अच्छे काम होते हैं और उसमें क्या-क्या कमी है। अच्छा कितना हुआ यह भूल जाओ और कमी क्या रह गई यह खोज लो। बढ़िया कार्य हुआ यह ठीक है, इससे भी बढ़िया हो सकता है कि नहीं यह सोचो। अपनी योग्यता को विकसित करो। तुमने कितने जप किये यह याद करके फूलना नहीं। इससे भी अधिक जप कर सकते हो कि नहीं इस पर ध्यान दो।
शिक्षणः
अपने मन को, अपने चित्त को शिक्षण दोः 'कल तूने यह गलत काम किया है, न देखने जैसा देखा है, न करने जैसा किया है। बोल, अब तुझे क्या सजा दूँ ?' आदि आदि.....। मन को कभी पुचकारो तो कभी डाँटो। कभी एक युक्ति से तो कभी दूसरी युक्ति से उसको उन्नत करो। सत्शास्त्र और सत्पुरूषों का संग लेकर मन को प्रतिदिन आत्मज्ञान का शिक्षण दो, मुक्ति के मार्ग का शिक्षण दो।
नियंत्रणः
संयम सदाचार से मन को नियंत्रित करो।
इस प्रकार निरीक्षण, शिक्षण और नियंत्रण से अपना सर्वांगी विकास करो। हिम्मत करो। अवश्य सफलता मिलती है।
योग में धारणा, ध्यान, समाधि का अभ्यास आवश्यक है और तत्त्वज्ञान में श्रवण-मनन निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। योग में अभ्यास का प्राधान्य है और तत्त्वज्ञान में वैराग्य का प्राधान्य है। योग-सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए, योग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। योग में वैराग्य चाहिए तो सही लेकिन इतना ज्यादा न हो तो भी काम चल जाए। योगाभ्यास करने से सिद्धियाँ मिलती हैं, ऐश्वर्य मिलता है। सिद्धियाँ और ऐश्वर्य की इच्छा है तभी तो मिलते हैं। जिसको कोई इच्छा नहीं है उसको सिद्धियों के मार्ग पर जाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा साधक तो सीधा तत्त्वज्ञान का अनुभव करके निहाल हो जाता है, मेरा निजस्वरूप ही मुक्तिस्वरूप है यह जान लेता है। जिसके जीवन में वैराग्य नहीं है उसको तत्त्वज्ञान जल्दी से नहीं होता।
हमें अभ्यास की आवश्यकता है। पहले इन्द्रियों का संयम करके फिर मन को वश में करना चाहिए। अभ्यास और वैराग्य अंतरंग साधन हैं और इन्द्रिय संयम यह बहिरंग साधन है। बहिरंग साधन सफल होने पर अंतरंग साधन में सफलता मिलती है। नहीं देखने योग्य व्यर्थ की बातें सुनकर शक्ति का व्यय नहीं करना चाहिए। व्यर्थ प्रलाप करते रहने की आदत पड़ गई है तो हररोज दो घण्टे मौन रहकर शक्ति का संचय करना चाहिए। इस प्रकार इन्द्रिय संयम करके मन को वश में करने का अभ्यास करना चाहिए।
बाहर के विषय-विकार की आदत छूटती नहीं है तो कितना भी सत्संग सुनें, ज्ञान की चर्चा सुनें, थोड़ा-बहुत पुण्य होगा, हृदय पवित्र होगा, सुनते समय लगेगा कि हाँ, ठीक है लेकिन वापस जैसे थे वैसे ही हो जाते हैं। विषय विकार के विष से बच नहीं पाते। क्योंकि अभ्यास नहीं करते। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरूषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
विश्वास जिसके बारे में केवल सुना है उसमें होता है और सेवा जिसको देखा है उसकी होती है। जिसके प्रति विश्वास होता है उसकी सेवा आसानी से होती है। भगवान को देखा नहीं, उनके वास्तविक स्वरूप को देखा नहीं इसलिए उनमें विश्वास करना पड़ता है। भगवान के बाह्य स्वरूप को देखा है इसलिए उसकी सेवा होती है।
विश्वास करने योग्य केवल वही वस्तु होती है जिसके बारे में केवल सुना है।
करने योग्य है प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग और चाहने योग्य केवल अपनी 'मैं' है।
विश्वास सुने हुए मैं करना है, उपयोग प्राप्त वस्तु का करना है और जानना अपने आपको है।
अपने को जानना है। प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग करना है। सुने हुए में विश्वास करना है।
सब मनुष्य, सब देशवासी, सब जातिवादी, सब धर्मवादी एक बात कर सकते हैं। वे जिस धर्म को, जिस भगवान को मानते हैं उसमें विश्वास करें तो उनकी उन्नति हुए बिना नहीं रहेगी। तुम जिसको भी मानते हो, ईश्वर को, God को गुरू को, चाहे ठाकुरजी की मूर्ति को मानते हो चाहे पीपल के पेड़ को मानते हो चाहे तुलसी के पौधे को मानते हो, धातु की मूर्ति को मानते हो चाहे पत्थर की मूर्ति को मानते हो, चाहे शालिग्राम को मानते हो चाहे मिट्टी के बने हुए महादेव जी को मानते हो, तुम अपना विश्वास दृढ़ करो। जड़ चेतन में वास्तविक तत्त्व तो वही है।
वास्तविक रूप से भगवान सर्वत्र हैं, अणु-अणु में हैं। जहाँ तुम्हारा विश्वास होगा वहाँ से फल आयेगा। विश्वास के बल से तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन संयत रहेंगे। तुम्हारा आत्मबल विकसित होगा। विश्वास से तुममे धैर्य आयेगा। विश्वास से तुममें उत्साह होगा। विश्वास से तुम्हारा अन्तःकरण बाह्य आकर्षणों से थोड़ा बचेगा। प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग होगा।
प्राप्त वस्तुएँ अनेक होती हैं। उनका परिणाम होता है सुख या दुःख। सब अनुकूल वस्तु और परिस्थितियों से सुख होता है और प्रतिकूल वस्तु और परिस्थितियों से दुःख होता है।
दुःख न हो, प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थितियाँ बनी रहें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थिति में आकर्षित न होना, अनुकूल परिस्थिति में सुख का भ्रम करके उसके दलदल में न गिरना यह तुम्हारे हाथ की बात है। प्रतिकूल परिस्थितियों से भयभीत न होना यह तुम्हारे हाथ की बात है। अनुकूल परिस्थितियों के सुख में लालसा नहीं और प्रतिकूल परिस्थितियों के दुःख का भय नहीं तो चित्त साम्य अवस्था में पहुँच जाएगा, शांत अवस्था में पहुँच जाएगा, निःसंकल्प अवस्था में पहुँच जाएगा। इससे नित्य नूतन रस, नवीन ज्ञान, नवीन प्रेम, नवीन आनन्द और वास्तिवक जीवन का प्राकट्य ह जाएगा।
हम क्या करते हैं ? प्राप्त वस्तु और परिस्थितियों का दुरूपयोग करते हैं। सुख आता है तो इन्द्रियाँ और विकारों के सहारे सुख का भोग करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं। दुःख आता है तो भयभीत होकर चित्त को डोलायमान करते हैं। दुःख के भय से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और सुख के आकर्षण से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं।
सुख में हम जितने अधिक आकर्षित होते हैं उतने भीतर से खोखले जो जाते हैं।
तुमने देखा होगा कि जो अधिक धनाढ्य है, जिसको सत्संग नहीं है, सदगुरू नहीं है वह आदमी भीतर से कमजोर होता है। भोगी आदमी, भयभीत आदमी भीतर से खोखला होता है।
जो महापुरूष सुख-दुःख में सम रहते हैं उनकी उत्तम साधना हो जाती है। यह साधना सुबह-शाम तो प्राणायाम, ध्यान आदि के साथ तो की जा सकती है, इतना ही नहीं दिनभर भी की जा सकती है।
सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास तो चलते फिरते हो सकता है। विपरीत परिस्थितियाँ आये बिना नहीं रहेगी। अनुकूलता भी आये बिना नहीं रहेगी। तुम प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने की कला सीख लो। मुक्ति का अनुभव सहज में होने लगेगा।
तुम्हारे पास कितने ही रूपये आये और चले गये। तुम रूपयों से बँधे नहीं हो। कई जन्मों में कितने ही बेटे आये और चले गये। तुम बेटों से बँधे नहीं हो। हम किसी वस्तु से, व्यक्ति से, परिस्थिति से बँधे हैं यह मानना भ्रम है। सुखद परिस्थितियों में लट्टू हो जाने की मन की आदत है। मन के साथ हम जुड़ जाते हैं। मन में होता है कि यह मिले.... वह मिले....। मन के इस आकर्षण से हमारा अन्तःकरण मलिन हो जाता है। भय की बात का हम चिन्तन करते हैं। इससे हमारी योग्यता क्षीण हो जाती है।
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जब तक जियें तब तक साधना करनी है, क्योंकि जब तक जियेंगे तब तक परिस्थितियाँ आयेंगी। मरते दम तक परिस्थितियाँ आती हैं। जीवनभर जिस तिजोरी को सँभाला था उसकी कुंजियाँ दें जानी पड़ती है। कितना दुःख होगा ! जीवनभर जो चीजें सँभाल-सँभालकर मरे जा रहे थे वे सब की सब चीजें एक दिन, एक साथ किसी को दे जानी पड़ेगी। देने के योग्य कोई नहीं मिलता है फिर भी झख मार के दे जाना पड़ता है। चाहे घर हो, चाहे मकान हो, चाहे आश्रम हो, चाहे धन हो, चाहे कुछ भी हो। जीवनभर जिस शरीर को खिलाया पिलाया, नहलाया, घुमाया, फिराया उसको भी छोड़ जाना पड़ता है।
घटनाएँ तो घटती ही रहेंगी। तुम चाहे आत्म-साक्षात्कार कर लो, अरे ब्रह्माजी की तरह योग-सामर्थ्य से सृष्टि का सर्जन करने की ऊँचाई तक पहुँच जाओ फिर भी विपरीत परिस्थितियाँ तो आयेंगी ही।

Monday, February 8, 2010



साधना में सफलता पुस्तक से - Sadhna me Safalta pustak se

संसार से वैराग्य होना दुर्लभ है। वैराग्य हुआ तो कर्मकाण्ड से मन उठना दुर्लभ है। कर्मकाण्ड से मन उठ गया तो उपासना में मन लगना दुर्लभ है। मन उपासना में लग गया तो तत्त्वज्ञानी गुरु मिलना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञानी गुरु मिल भी गये तो उनमें श्रद्धा होना और सदा के लिए टिकना दुर्लभ है। गुरु में श्रद्धा हो गई तो भी तत्त्वज्ञान में प्रीति होना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञान में प्रीति हो जाये लेकिन उसमें स्थिति करना दुर्लभ है। एक बार स्थिति हो गई तो जीवन में दुःखी होना और फिर से माता के गर्भ में उल्टा होकर लटकना और चौरासी के चक्कर में भटकना सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
तत्त्वज्ञान के द्वारा ब्रह्माकार वृत्ति बनाकर आवरण भंग करके जीवनमुक्त पद में पहुँचना ही परम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ-भवन का प्रथम सोपान है श्रद्धा।
तामसी श्रद्धावाला साधक कदम-कदम पर फरियाद करता है। ऐसे साधक में समर्पण नहीं होता। हाँ, समर्पण की भ्रांति हो सकती है। वह विरोध करेगा। राजसी श्रद्धावाला साधक हिलता रहता है, भाग जाता है, किनारे लग जाता है। सात्विक श्रद्धावाला साधक निराला होता है। परमात्मा और गुरु की ओर से चाहे जैसे कसौटी हो, वह धन्यवाद से, अहोभाव से भरकर उनके हर विधान को मंगलमय समझकर हृदय से स्वीकृति देता है।
प्रायः राजसी और तामसी श्रद्धावाले लोग अधिक होते हैं। तामसी श्रद्धावाला कदम-कदम पर इन्कार करेगा, विरोध करेगा, अपना अहं नहीं छोड़ेगा। वह अपने श्रद्धेय के साथ, अपने इष्ट के साथ, सदगुरु के साथ विचारों से टकरायगा। राजसी श्रद्धावाला जरा-सी परीक्षा हुई, थोड़ी सी कुछ डाँट पड़ी तो वह किनारे हो जायगा, भाग जाएगा। सात्त्विक श्रद्धावाला किसी भी परिस्थिति में डिगेगा नहीं, प्रतिक्रिया नहीं करेगा।
साधक में सात्त्विक श्रद्धा जग गई तो उसका मन तत्त्व-चिन्तन में, आत्म-विचार में लग जाता है। अन्यथा तो तत्त्वेत्ता सदगुरु मिलने के बाद भी तत्त्वज्ञान में मन लगना कठिन है। किसी को आत्म-साक्षात्कारी गुरु मिल जायें और उनमें श्रद्धा भी हो जाये तो यह जरूरी नहीं की सब लोग आत्मज्ञान के तरफ चल ही पड़ेंगे। राजसी-तामसी श्रद्धावाले लोग आत्मज्ञान के तरफ नहीं चल सकते। वे तो अपनी इच्छा के अनुसार तत्त्वज्ञानी सदगुरु से लाभ लेना चाहेंगे। इच्छा-निवृत्ति की ओर से प्रवृत्त नहीं हो सकते। जो वास्तविक लाभ तत्त्वज्ञानी सदगुरु उन्हें देना चाहते हैं उससे वे वंचित रह जाते हैं।
सात्त्विक श्रद्धावाले साधक को ही तत्त्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और केवल यही तत्त्वज्ञान होने पर्यन्त सदगुरु में अचल श्रद्धा रख सकता है। वह प्रतिकूलता से भागता नहीं और प्रलोभनों में फँसता नहीं। संदीपक ने ऐसी श्रद्धा रखी थी। सदगुरु ने कड़ी कसौटियाँ की, उसे दूर करना चाहा लेकिन वह गुरुसेवा से विमुख नहीं हुआ। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण किया, सेवा के दौरान कई बार संदीपक को पीटते थे फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोढ़ी शरीर से निकलने वाला गन्दा खून, पीव, मवाद, बदबू आदि के बावजूद भी गुरुदेव के शरीर की सेवा-सुश्रुषा से संदीपक कभी ऊबता नहीं था। भगवान विष्णु और भगवान शंकर आये, उसे वरदान देना चाहा लेकिन अनन्य निष्ठावाले संदीपक ने वरदान नहीं लिया।
विवेकानन्द होकर विश्वविख्यात बनने वाले नरेन्द्र को जब सात्विक श्रद्धा रहती तब रामकृष्णदेव के प्रति अहोभाव बना रहता है। जब राजसी श्रद्धा होती तब वे भी हिल जाते। उनके जीवन में छः बार ऐसे प्रसंग आये थे।
पहले तो आत्मज्ञानी सदगुरु मिलना अति दुर्लभ है। वे मिल भी जायें तो उनके प्रति हमारी सात्त्विक श्रद्धा निरन्तर बनी रहना कठिन है। हमारी श्रद्धा रजो-तमोगुण से प्रभावित होती रहती है। इसलिए साधक कभी हिल जाता है और कभी विरोध भी करने लगता है। अतः जीवन में सत्त्वगुण बढ़ाना चाहिए।
आहार की शुद्धि से, चिन्तन की शुद्धि से सत्त्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारे वाले व्यक्तियों के संग से बचना चाहिए।
अपने जीवन के प्रति लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढ़ना, टूटना-फूटना होता रहता है। फलतः साधक को साध्य तक पहुँचने में वर्षों लग जाते हैं। जीवन पूरा हो जाता है फिर भी आत्मसाक्षात्कार नहीं होता। साधक अगर पूरी सावधानी के साथ छः महीना ठीक प्रकार से साधना करे तो संसार और संसार की वस्तुएँ आकर्षित होने लगती हैं। सूक्ष्म जगत की कुंजियाँ हाथ लग जाती हैं। निरन्तर सात्विक श्रद्धायुक्त साधना से साधक बहुत ऊपर उठ जाता है। रजो-तमोगुण से बचकर, सत्त्वगुण के प्राधान्य से साधक तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान में प्रवेश पा लेता है। फिर तत्त्वज्ञान का अभ्यास करने में परिश्रम नहीं पड़ता। अभ्यास सत्त्वगुण बढ़ाने के लिए, श्रद्धा को सात्विक श्रद्धा स्थिर हो गई तो तत्त्वविचार अपने आप उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए साधक को साधना में तत्पर रहना चाहिए, सात्त्विक श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क रहना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, सदगुरु में सात्त्विक श्रद्धा बनी रहे।
तत्त्वज्ञान तो कइयों को मिल जाता है लेकिन वे तत्त्वज्ञान में स्थिति नहीं करते। स्थिति करना चाहते हैं तो ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करने की खबर नहीं रखते। बढ़िया उपासना किए बिना भी किसी को सदगुरु की कृपा से जल्दी तत्त्वज्ञान हो जाये तो भी विक्षेप रहेगा। मनोराज हो जाने की संभावना है। उच्च कोटि के साधक आत्म-साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्माभ्यास में सावधानी से लगे रहते हैं। साक्षात्कार के बाद ब्रह्मानन्द में लगे रहना यह साक्षात्कार की शोभा है। जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, वे भी ध्यान-भजन, शुद्धि-सात्त्विकता का ख्याल रखते हैं। हम लोग अगर लापरवाही कर दें तो अपने पुण्य और साधना के प्रभाव का नाश ही करते हैं।
जीवन में जितना उत्साह होगा, साधना में जितनी सतर्कता होगी, संयम में जितनी तत्परता होगी, जीवनदाता का मूल्य जितना अधिक समझेंगे उतनी हमारी आंतरयात्रा उच्च कोटि की होगी। ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न होना भी ईश्वर की परम कृपा है। सात्त्विक श्रद्धा होगी, ईमानदारी से अपना अहं परमात्मा में समर्पित हो सकेगा तभी यह कार्य संपन्न हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-
ये फल साधन ते न होई......।
ब्रह्मज्ञानरूपी फल साधन से प्रकट न होगा। साधन करते-करते सात्त्विक श्रद्धा तैयार होती है। सात्त्विक श्रद्धा ही अपने इष्ट में, तत्त्व में अपने आपको अर्पित करने को तैयार हो जाती है। जैसे लोहा अग्नि की प्रशंसा तो करे, अग्नि को नमस्कार तो करे लेकिन जब तक वह अग्नि में प्रवेश नहीं करता, अपने आपको अग्नि में समर्पित नहीं कर देता तब तक अग्निमय नहीं हो सकता। लोहा अग्नि में प्रविष्ट हो जाता है तो स्वयं अग्नि बन जाता है। उसकी रग-रग में अग्नि व्याप्त हो जाती है। ऐसे ही साधक जब तक ब्रह्मस्वरूप में अपने आपको अर्पित नहीं करता तब तक भले ब्रह्म परमात्मा के गुणानुवाद करता रहे, ब्रह्मवेत्ता सदगुरु क गीत गाता रहे, इससे लाभ तो होगा, लेकिन ब्रह्मस्वरूप, गुरुमय, भगवदमय ईश्वर नहीं बन पाता। जब अपने आपको ईश्वर में, ब्रह्म में, सदगुरु में अर्पित कर देता है तो पूर्ण ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
'ईश्वर' और 'गुरु' ये शब्द ही हैं लेकिन तत्त्व एक ही है।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेदे विभागिनोः।
आकृतियाँ दो दिखती हैं लेकिन वास्तव में तत्त्व एक ही है। गुरु के हृदय में जो चैतन्य प्रकट हुआ है वह ईश्वर में चमक रहा है। ईश्वर भी यदि भक्त का कल्याण करना चाहें तो सदगुरु के रूप में आकर परम तत्त्व का उपदेश देंगे। ईश्वर संसार का आशीर्वाद ऐसे ही देंगे लेकिन भक्त को परम कल्याण रूप आत्म-साक्षात्कार करना होगा तो ईश्वर को भी आचार्य की गद्दी पर आना पड़ेगा। जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया श्रीरामजी ने हनुमानजी को उपेदेश दिया।
साधक ध्यान-भजन-साधना करते हैं। भजन की तीव्रता से भाव मजबूत हो जाता है। भाव के बल से भाव के अनुसार संसार में चमत्कार भी कर लेते हैं लेकिन भाव साधना की पराकाष्ठा नहीं है, क्योंकि भाव बदलते रहते हैं। साधना की पराकाष्ठा है ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आत्मसाक्षात्कार करना।
साधन-भजन-ध्यान में उत्साह, जगत में नश्वरबुद्धि और उच्चतम लक्ष्य की हमेशा स्मृति, ये तीन बातें साधक को महान् बना देती हैं। ऊँचे लक्ष्य का पता नहीं तो विकास कैसे होगा? ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आवरण भंग करना, आत्म-साक्षात्कार करके जीवनमुक्त होना, यह लक्ष्य यदि जीवन में नहीं होगा तो साधना की छोटी-मोटी पद्धतियों में, छोटे-मोटे साधना के चुटकुले में रुका रह जायेगा। कोल्हू के बैल की तरह वहीं घूमते-घूमते जीवन पूरा कर देगा।
अगर सावधानी से छः महीने तक ठीक ढंग से उपासना करे, तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान को विचारे तो उससे अदभुत लाभ होने लगता है। लाबयान ऊँचाई के सामर्थ्य का अनुभव करने लगता है। संसार का आकर्षण टूटने लगता है। उसके चित्त में विश्रान्ति आने लगती है। संसार के पदार्थ उससे आकर्षित होने लगते हैं। फिर उसे रोजी-रोटी के लिए, सगे-सम्बन्धी, परिवार-समाज को रिझाने के लिए नाक रगड़ना नहीं पड़ता। वे लोग ऐसे ही रीझने को तैयार रहेंगे। केवल छः महीने की सावधानी पूर्वक साधना..... सारी जिन्दगी की मजदूरी से जो नहीं पाया वह छः महीने में पा लेगा। लेकिन सच्चे साधक के लिए तो वह भी तुच्छ हो जाता है। उसका लक्ष्य है ऊँचे से ऊँचा साध्य पा लेना, आत्म-साक्षात्कार कर लेना।

Wednesday, February 3, 2010



जीते जी मुक्ति पुस्तक से - Jeetey Jee Mukti pustak se

जो भगवान के शरण जाते हैं, भगवान उनके हो जाते हैं। जो ईश्वर के हो जाते हैं, ईश्वर उनका हो जाता है। फिर उनके द्वारा भगवान जो भी संकल्प कर दे, कहला दे वह घटना तुरन्त ही प्रकृति में घटने लगती है। द्रौपदी के वस्त्राहरण का प्रसंग आपने कथा में सुना होगा। दुःशासन वस्त्र खींच रहा है तब द्रौपदी युधिष्ठिर की ओर निहार रही है, दूसरे पाण्डवों की ओर निहार रही है, बुजुर्गों की ओर निहार रही है। तब तक उसे दुःशासन का भय है। जब वह भगवान की शरण आ गई तो वह पूर्णतया सुरक्षित हो गई। भगवान का वहाँ वस्त्रावतार हो गया। दुःशासन साड़ियाँ खींचते थक गया। लेकिन द्रौपदी को निर्वस्त्र नहीं कर पाया। वे साड़ियाँ कौन-सी मील से आयी होंगी ?
जो परमात्मा के शरण हो जाता है परमात्मा उसके अंतिम समय में तथा भारी विपत्तियों के समय में उसकी रक्षा करता है। अगर हम ईमानदारी से परमात्मा के शरण हैं तो जितने सुनिश्चिन्त होते हैं, सुखी होते हैं, सुरक्षित होते हैं उतने कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी, मित्र, राजा, महाराजा, सम्राट आदि सब मिलकर भी हमें सुखी, सुनिश्चिन्त और सुरक्षित नहीं कर सकते... जितने परमात्मा की शरण से सुनिश्चिन्त और सुरक्षित होते हैं।
नेता, राजा-महाराजाओं को सहारा कई लोगों ने लिया लेकिन कुछ कल्याण नहीं हुआ। भगवान की शरण लेने पर शायद प्रारब्ध वेग से कोई कष्ट आ भी जाय तो भी भक्त समझता है कि, 'कष्ट देह को हो रहा है। तेरी मरजी पूरण हो....।'
जब चित्त में 'तेरी मरजी पूरण हो....' का भाव आ जाता है तो परमात्मा तुरन्त हमें अपना बना लेता है। वास्तव में तो हम है ही परमात्मा के और परमात्मा हमारा है लेकिन हम चित्त में रहकर ममता में, वासना में रहकर, इच्छाओं में रहकर जीना चाहते हैं। माया के गुणों में रहकर वासनाओं के अनुसार अपना जीवन गँवाते हैं। इसी से हम दीन-हीन हो गये हैं, वरना परमात्मा हमसे दूर नहीं। दुःखी होने का तो कोई कारण ही नहीं है।
परमात्मा जिसके साथ है, परमात्मा की सत्ता से दिल की धड़कने चल रही हैं, परमात्मा की सत्ता से हमारी आँखें देख रही हैं, परमात्मा की सत्ता से हमारे कान सुन रहे हैं इतने हम परमात्मा के निकट हैं फिर दुःखी क्यों हैं ?
तुम मानो चाहे न मानो लेकिन जिस सत्ता से श्रोता के कान सुन रहे हैं उसी सत्ता से वक्ता की जिह्वा चल रही है। जिस सत्ता से श्रोता की आँखें वक्ता को निहार रही हैं उसी सत्ता से वक्ता की आँखें श्रोताओं की ओर निहार रही हैं। दोनों तरफ की आँखों में सत्ता एक ही परमात्मा की है। इस प्रकार की स्मृति अगर बनी रहे तो आहा... ! उसके लिए माया तरना कोई कठिन काम नहीं है। उसके लिए माया है ही नहीं। है तो अति छोटी है, अति तुच्छ है।
जो लोग माया की चीजों को, माया के शरीरों को, माया के सम्बन्धों को सच्चा मानकर सुखी होना चाहते हैं और माया से तरना चाहते हैं उनके लिए तो माया बड़ी दुस्तर है।
जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं।
अंतराम कछु आवत नाहीं।।
जिसके हृदय में परमात्मा के लिए प्रीति है उसको अगर संसार का सुख दिया भी जाय, उसकी वाहवाही की जाय, उसको यश दिया जाय, उसको सुख-सुविधाएँ मिल जाय फिर भी वह इन चीजों में फँसता नहीं और इन चीजों को पाकर अपने को भाग्यवान नहीं मानता। इस तुच्छ यश, मान, भोग, विलास का कोई महत्त्व ही नहीं होता उसके चित्त में।
हम लोग तो परिश्रम करके संसार का सुख, ऐशो-आराम, वाहवाही, शरीर की सुविधाएँ पाकर अपने को भाग्यवान मानते हैं। जिनको परमात्मा की स्मृति मिल गई है, जिनको परमात्मा घर-गृहस्थी में दिखते हो, उनको संसार की सब सुविधाएँ मिलती हों, यश होता हो तभी भी वे चित्त से उपराम रहते हैं। वे समझते हैं, और भगवान से कहते हैं किः 'हे प्रभु ! हमने क्या पाप किया है कि तेरी स्मृति हटाने वाले पदार्थ हमें दे रहा है हम पर क्यों नाराज है ?'
शंकराचार्य ने ठीक ही कहा हैः
सो संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती की बाड़ किस काम की ?
वे नूर बेनूर भले जिसमें पिया की प्यास नहीं।।
''वे आँखें हमारी फूट जाएँ जिन आँखों में ईश्वर के लिए आँसू न बहें। वह दिल हमारा धड़कने से रुक जाय जिस दिल में दिलबर को याद न हो। हमारे उस व्यवहार आग लगे जो तेरे आनन्द से हमको दूर कर दे।'
उनके उपराम चित्त में ऐसा हुआ करता है। 'हमारी सुविधाओं और वाहवाही को हे भगवान ! तू अभी-अभी छीन ले लेकिन तू अपनी प्रीति हमसे मत छीन। दुनिया की चीज तू छीन ले, तेरी बड़ी कृपा होगी लेकिन तू अपनी रहेमत मत छीनना, अपना करुणा मत छीनना, अपना अलौकिक स्वभाव हमसे मत छीनना।'
तकदीर न कैसां डोह करे।
शल केर प्रभुखां थे न परे।।
हे मुकद्दर ! तू किसी से धोखा मत करना। तू छीनना चाहता है तो हमसे रूपये छीन लेना, क्योंकि आखिर मौत छीन ही लेगी। मौत मारकर छीन लेती है, तू जीते जी छीन ले, क्या फर्क पड़ता है। तू जीते जी हम से रूपये छीन लेगा तो हमें वैराग्य आ जायगा। तू कपड़े छीन लेना चाहता है तो छीन लेना हमसे भगवान की भक्ति मत छीनना, प्रभु का प्यार मत छीनना।
हे तकदीर ! तू हमसे धोखा करना चाहती है तो कोई संसार की चीज छीनकर धोखा कर लेकिन भगवान की भक्ति मत छीनना।
जिसके पास भगवान की भक्ति रहती है उसके पास तो संसार की चीजें दासानुदास बनकर रहती हैं।
जिसको परमात्मा के स्मरण का मूल्य पता है, जिसने परमात्मा के मार्ग में कदम रखा है उनके लिए संसार की सुविधाएँ, संसार का सुख त्यागना कोई बड़ी बात नहीं है। जो अभागे परमात्मा को त्यागकर बैठे हैं उनको तो संसार का सुख भी नहीं मिलता, थप्पड़ें ही मिलती हैं।
सौ सौ जूते खाएंगे।
तमाशा घूसे के देखेंगे।।
सौ-सौ अपमान होंगे, सौ-सौ ताने सुनने पड़ेंगे, सौ-सौ फटकार बरसेंगे लेकिन काम वही करेंगे जो काम हमें जन्म-मरण के चक्कर में घसीटता रहे। इच्छाएँ वही करेंगे, संकल्प वही करेंगे जिसके कारण हम नराधम हो जायँ।
जो दुष्कृत करने वाले हैं वे नरों में अधम हैं। पशु लोग तो अपने कर्मों का फल भोग कर ऊँची गति को पाते हैं, फिर मनुष्य बनते हैं और ये मनुष्य अभागे, विकारी जीवन जीकर, पापकर्म करके, भगवान से विमुख होकर, मायाजाल में पड़कर पशु योनि में जाने की तैयारी करते हैं। वे तो पशुओं से भी बदतर हैं। पशु तो दुःख भोगकर, कर्म भोगकर अपने पाप काटते हैं और मनुष्य योनि में आने की यात्रा कर रहे हैं। जबकि मनुष्य भगवान को भूलकर संसार के सुख लेने के पीछे, विकार तृप्त करने के लिए, देह का अहं पुष्ट करने के लिए प्रयत्न करते हैं। वे पापाचारी नराधम कहे जाते हैं।
जो 'दुष्कृतिनः' हैं उनको भगवान मे रूचि नहीं होती। जो पापी हैं उनको भगवान में प्रीति नहीं होती। अगर उनको भगवान में प्रीति हो जाए तो पापी पापी नहीं रहता। भगवान की शरण आ जाय तो अभागा अभागा नहीं रहता।
सिनेमाघर में जाने के लिए टिकट चाहिए, पैसे चाहिए। परदेश जाने के लिए पासपोर्ट चाहिए, विद्या चाहिए, पैसे चाहिए। स्वर्ग में जाने के लिए पुण्य चाहिए। शादी करने के लिए भी दुल्हन चाहिए। नौकरी के लिए भी प्रमाणपत्र चाहिए। नौकरी में बढ़ती के लिए भी योग्यता चाहिए, जान-पहचान चाहिए। ये सब होने पर भी इनसे जो चीजें मिलती हैं उनसे व्यक्ति को शाश्वत सुख, शाश्वत शांति नहीं मिलती। परमात्मा के पास जाने के लिए तुम्हारे पास चाहे कुछ भी न हो, केवल परमात्मा के लिए भाव हो जाय तो परमात्मा तुम्हें सत्संग में पहुँचा ही देता है। वह यों नहीं पूछता कि तुम पुण्य मापने का पासपोर्ट लेकर आये हो कि नहीं..... तुम चपरासी हो या अलमदार हो..... धनवान हो कि गरीब हो... तुम अनपढ़ हो कि विद्वान हो... तुम बड़े घर के हो कि छोटे घर के हो....?
सत्संग में यह कुछ नहीं देखा जाता। सत्संग परमात्म-प्राप्ति सुलभ करा देता है।
ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ......ॐ.....ॐ.......ॐ.....।
साधक को सार असार का, सत्य असत्य का, शाश्वत नश्वर का विवेक होना चाहिए। शाश्वत क्या है नश्वर क्या है ? सार क्या है असार क्या है ? सदा क्या रहेगा और छूट क्या जाएगा ? इस प्रकार का जब तक विवेक नहीं होगा तब तक श्रीकृष्ण जैसे, ब्रह्माजी जैसे गुरु भी मिल जाएँ, ज्ञानेश्वर जैसे, तुकारामजी जैसे संत भी मिल जाएँ तब भी लोग जीवन को धन्य नहीं कर पाते। क्योंकि वे अपना विवेक नहीं जगाते।