पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, April 21, 2011



श्री गुरु रामायण   पुस्तक से - Sri Guru Ramayan pustak se


गिरिजानन्दनं देवं गणेशं गणनायकम्।
सिद्धिबुद्धिप्रदातारं प्रणमामि पुनः पुनः।।1।।
सिद्धि बुद्धि के प्रदाता, पार्वतीनन्दन, गणनायक श्री गणेश जी को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।(1)
वन्दे सरस्वतीं देवीं वीणापुस्तकधारिणीम्।
गुरुं विद्याप्रदातारं सादरं प्रणमाम्यहम्।।2।।
वीणा एवं पुस्तक धारण करने वाली सरस्वती देवी को मैं नमस्कार करता हूँ। विद्या प्रदान करने वाले पूज्य गुरुदेव को मैं सादर प्रणाम करता हूँ।(2)
चरितं योगिराजस्य वर्णयामि निजेच्छया।
महतां जन्मगाथाऽपि भवति तापनाशिनी।।3।।
मैं स्वेच्छा से योगीराज (पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू) के पावन चरित का वर्णन कर रहा हूँ। महान् पुरुषों की जन्मगाथा भी भवताप को नाश करने वाली होती है।(3)
भारतेऽजायत कोऽपि योगविद्याविचक्षणः।
ब्रह्मविद्यासु धौरेयो धर्मशास्त्रविशारदः।।4।।
योगविद्या में विचक्षण, धर्मशास्त्रों में विशारद एवं ब्रह्मविद्या में अग्रगण्य कोई (महान संत) भारतभूमि में अवतरित हुआ है। (4)
अस्मतकृते महायोगी प्रेषितः परमात्मना।
गीतायां भणितं तदात्मानं सृजाम्यहम्।।5।।
परमात्मा ने हमारे लिये ये महान् योगी भेजे हैं। (भगवान श्री कृष्ण ने) गीता में कहा ही है कि (जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब) मैं अपने रूप को रचता हूँ। (अर्थात् साकार रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।)(5)
जायते तु यदा संतः सुभिक्षं जायते ध्रुवम्।
काले वर्षति पर्जन्यो धनधान्ययुता मही।।6।।
जब संत पृथ्वी पर जन्म लेते हैं तब निश्चय ही पृथ्वी पर सुभिक्ष होता है। समय पर बादल वर्षा करते हैं और पृथ्वी धनधान्य से युक्त हो जाती है।(6)
नदीषु निर्मलं नीरं वहति परितः स्वयम्।
मुदिता मानवाः सर्वे तथैव मृगपक्षिणः।।7।।
नदियों में निर्मल जल स्वयं ही सब ओर बहने लग जाता है। मनुष्य सब प्रसन्न होते हैं और इसी प्रकार मृग एवं पशु-पक्षी आदि जीव भी सब प्रसन्न रहते हैं।(7)
भवन्ति फलदा वृक्षा जन्मकाले महात्मनाम्।
इत्थं प्रतीयते लोके कलौ त्रेता समागतः।।8।।
महान् आत्माओं के जन्म के समय वृक्ष फल देने लग जाते हैं। संसार में ऐसा प्रतीत होता है मानों कलियुग में त्रेतायुग आ गया हो।(8)
ब्रह्मविद्याप्रचाराय सर्वभूताहिताय च।
आसुमलकथां दिव्यां साम्प्रतं वर्णयाम्यहम्।।9।।
अब मैं ब्रह्मविद्या के प्रचार के लिए और सब प्राणियों के हित के लिए आसुमल की दिव्य कथा का वर्णन कर रहा हूँ।(9)
अखण्डे भारते वर्षे नवाबशाहमण्डले।
सिन्धुप्रान्ते वसति स्म बेराणीपुटमेदने।।10।।
थाऊमलेति विख्यातः कुशलो निजकर्मणि।
सत्यसनातने निष्ठो वैश्यवंशविभूषणः।।11।।
अखण्ड भारत में सिन्ध प्रान्त के नवाबशाह नामक जिले में बेराणी नाम नगर में अपने कर्म में कुशल, सत्य सनातन धर्म में निष्ठ, वैश्य वंश के भूषणरूप थाऊमल नाम के विख्यात सेठ रहते थे।(10, 11)
धर्मधारिषु धौरेयो धेनुब्राह्मणरक्षकः।
सत्यवक्ता विशुद्धात्मा पुरश्रेष्ठीति विश्रुतः।।12।।
वे धर्मात्माओं में अग्रगण्य, गौब्राह्मणों के रक्षक, सत्य भाषी, विशुद्ध आत्मा, नगरसेठ के रूप में जाने जाते थे। (12)
भार्या तस्य कुशलगृहिणी कुलधर्मानुसारिणी।
पतिपरायणा नारी महंगीबेति विश्रुता।।13।।
उनकी धर्मपत्नी का नाम महँगीबा था, जो कुशल गृहिणी एवं अपने कुल के धर्म का पालन करने वाली पतिव्रता नारी थी। (13)
तस्या गर्भात्समुत्पन्नो योगी योगविदां वरः।
वसुनिधि निधीशाब्दे चैत्रमासेऽसिते दले।
षष्ठीतिथौ रविवारे आसुमलो ह्यवातरत्।।14।।
विक्रम संवत 1998 चैत वदी छठ रविवार को माता महँगीबा के गर्भ से योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ योगी आसुमल का जन्म हुआ।(14)
विलोक्य चक्षुषा बालं गौरवर्णं मनोहरम्।
नितरां मुमुदे दृढाङ्गं कुलदीपकम्।।15।।
हृष्टपुष्ट कुलदीपक, गौरवर्ण सुन्दर बालक को अपनी आँखों से देखकर माता (महँगीबा) बहुत प्रसन्न हुईं।(15)
पुत्रो जात इति श्रुत्वा पितापि मुमुदेतराम्।
श्रुत्वा सम्बन्धिनः सर्वे वर्धतां कथयन्ति तम्।।16।।
(घर में) पुत्र पैदा हुआ है यह सुनकर पिता थाऊमल भी बहुत प्रसन्न हुए। श्रेष्ठी के घर पुत्ररत्न की प्राप्ति सुनकर सब सम्बन्धी लोग भी उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे।(16)
भूसुरा दानमानाभ्यां तृणदानेन धेनवः।
भिक्षुका अन्नदानेन स्वजना मोदकादिभिः ।।17।।
एवं संतोषिताः सर्वे पित्रा ग्रामनिवासिनः।
पुत्ररत्नस्य संप्राप्तिः सदैवानन्ददायिनी।।18।।
पिता ने ब्राह्मणों को दान और सम्मान के द्वारा, गौओं को तृणदान के द्वारा, दरिद्रनारायणों को अन्नदान के द्वारा और स्वजनों को लड्डू आदि मिठाई के द्वारा.... इस प्रकार सभी ग्रामनिवासियों को संतुष्ट किया क्योंकि पुत्ररत्न की प्राप्ति सदा ही आनन्ददायक होती है। (17, 18)
अशुभं जन्म बालस्य कथयत्नि परस्परम्।
नरा नार्यश्च रथ्यायां तिस्रःकन्यास्ततः सुतः।।19।।
अनेनाशुभयोगेन धनहानिर्भविष्यति।
अतो यज्ञादि कर्माणि पित्रा कार्याणि तत्त्वतः।।20।।
गली में कुछ स्त्री-पुरुष बालक के जन्म पर चर्चा कर रहे थे किः "तीन कन्याओं के बाद पुत्ररत्न की प्राप्ति अशुभ है। इस अशुभ योग से धनहानि होगी, इसलिये को यज्ञ आदि विशेष कार्य करने चाहिये।"(19, 20)
दोलां दातुं समायातो नरः कश्चिद् विलक्षणः।
श्रेष्ठिन् ! तव गृहे जातो नूनं कोऽपि नरोत्तमः।।21।।
इदं स्वप्ने मया दृष्टमतो दोलां गृहाण मे।
समाहूतस्तदा तेन पूज्यः कुलपुरोहितः।।22।।
(उसी समय) कोई व्यक्ति एक हिंडोला (झूला) देने के लिए आया और कहने लगाः "सेठजी ! आपके घर में सचमुच कोई नरश्रेष्ठ पैदा हुआ है। यह सब मैंने स्वप्न में देखा है, अतः आप मेरे इस झूले को ग्रहण करें।" इसके बाद सेठजी ने अपने पूजनीय कुलपुरोहित को (अपने गर) बुलवाया। (21, 22)
विलोक्य सोऽपि पंचांगमाश्चर्यचकितोऽभवत्।
अहो योगी समायातः कश्चिद्योगविदां वरः।।23।।
तारयिष्यति यो लोकान्भवसिन्धुनिमज्जितान्।
एवं विधा नरा लोके समायान्ति युगान्तरे।।24।।
जायन्ते श्रीमतां गेहे योगयुक्तास्तपस्विनः।
भवति कृपया तेषामृद्धिसिद्धियुतं गृहम्।।25।।
तव पुत्रप्रतापेन व्यापारो भवतः स्वयम्।
स्वल्पेनैव कालेन द्विगुणितं भविष्यति।।26।।
पंचांग में बच्चे के दिनमान देखकर पुरोहित भी आश्चर्यचकित हो गया और बोलाः "सेठ साहिब ! योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ यह कोई योगी आपके घर में अवतरित हुआ है। यह भवसागर में डूबते हुए लोगों को भव से पार करेगा। ऐसे लोग संसार में युगों के बाद आया करते हैं। धनिक व्यक्तियों के घर में ऐसे योगयुक्त तपस्वी जन जन्म धारण किया करते हैं और उनकी कृपा से घर ऋद्धि-सिद्धि से परिपूर्ण हो जाया करता है। श्रीमन् ! आपके इस पुत्र के प्रभाव से आपका व्यापार अपने आप चलने लगेगा और थोड़े ही समय में वह दुगुना हो जायेगा। (23, 24, 25, 26)
नामकरणसंस्कारः तातेन कास्तिस्तदा।
भिक्षुकेभ्यः प्रदत्तानि मोदकानि तथा गुडम्।।27।।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्तं वस्त्राणि विविधानि च।
दानेन वर्धते लक्ष्मीसयुर्विद्यायशोबलम्।।28।।
तब पिता ने पुत्र का नामकरण संस्कार करवाया और दरिद्रनारायणों को लड्डू और गुड़ बाँटा गया। ब्राह्मणों को धन, वस्त्र आदि दिये गये क्योंकि दान से लक्ष्मी, आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (27, 28)
दुर्दैवेन समायातं भारतस्य विभाजनम्।
तदेमे गुर्जरे प्रान्ते समायाताः सबान्धवा।।29।।
दुर्दैव से भारतो का विभाजन हो गया। तब ये सब लोग बन्धु-बान्धवोंसहित गुजरात प्रान्त में आ गये। (29)
तत्राप्यमदावादमावासं कृतवान्नवम्।
नूतनं नगरमासीत्तथाऽपरिचिता नराः।।30।।
भारत में भी अमदावाद में आकर इन्होंने नवीन आवास निश्चित किया जहाँ नया नगर था और सब लोग अपरिचित थे।(30)
धन धान्यं धरां ग्रामं मित्राणि विविधानि च।
थाऊमल समायातस्तयक्त्वा जन्मवसुन्धराम्।।31।।
धन,धान्य, भूमि, गाँव और सब प्रकार के मित्रों को एवं अपनी जन्मभूमि को छोड़कर सेठ थाऊमल (भारत के गुजरात प्रान्त मे) आ गये।(31)
विभाजनस्य दुःखानि रक्तपातः कृतानि च।
भुक्तभोगी विजानाति नान्य कोऽप्यपरो नरः।।32।।
भारत विभाजन के समय रक्तपात एवं अनेक दुःखों को कोई भुक्तभोगी (भोगनेवाला) ही जानता हूँ, दूसरा कोई व्यक्ति नहीं जानता।(32)
स्वर्गाद् वृथैव निर्दोषाः पातिता नरके नराः।
अहो मायापतेर्मायां नैव जानाति मानवः।।33।।
(दैव ने) निर्दोष लोगों को मानो अकारण स्वर्ग से नरक में डाल दिया। आश्चर्य है कि मायापति की माया को कोई मनुष्य नहीं जान सकता।(33)
पित्रा सार्धं नवावासे आसुमलः समागतः।
प्रसन्नवदनो बालः परं तोषमगात्तदा।।34।।
पिता जी के साथ बालक आसुमल नये निवास में आये। (वहाँ) प्रसन्न वदनवाला (वह) बालक परम संतोष को प्राप्त हुआ। (34)
धरायां द्वारिकाधीशः स्वयमत्र विराजते।
अधुना पूर्वपुण्यानां नूनं जातः समुदभवः।।35।।
(बालक मन में सोच रहा था कि) 'इस धरती पर यहाँ (गुजरात मे) द्वारिकाधीश स्वयं विराजमान है। आज वास्तव में पूर्वजन्म में कृत पुण्यों का उदय हो गया है।' (35)
प्रेषितः स तदा पित्रा पठनार्थं निजेच्छया।
पूर्वसंस्कारयोगेन सद्योजातः स साक्षरः।।36।।
पिता जी ने स्वेच्छा से बालक को पढ़ने के लिये भेजा। अपने पूर्व संस्कारों के योग से (वह बालक आसुमल) कुछ ही समय में साक्षर हो गया।(36)
अपूर्वां विलक्षणा बुद्धिरासीत्तस्य विशेषतः।
अत एव स छात्रेषु शीघ्र सर्वप्रियोऽभवत्।।37।।
उसकी (बालक आसुमल की) बुद्धि अपूर्व और विलक्षण थी। अतः वह शीघ्र की छात्रों में विशेषतः सर्वप्रिय हो गया।(37)
निशायां स करोति स्म पितृचरणसेवनम्।
पितापि पूर्णसंतुष्टो ददाति स्म शुभाशिषम्।।38।।
रात्रि के समय वे (बालक आसुमल) अपने पिताजी की चरणसेवा किया करते थे और पूर्ण संतुष्ट हुए पिताजी भी (आसुमल को) शुभाआशीर्वाद दिया करते थे।(38)
धर्मकर्मरता माता लालयति सदा सुतम्।
कथां रामायणादीनां श्रावयति सुतवत्सला।।39।।
धार्मिक कार्यों में रत सुतवत्सला माता पुत्र (आसुमल) से असीम स्नेह रखती थीं एवं सदैव रामायण आदि की कथा सुनाया करती थीं।(39)
माता धार्मिकसंस्कारेः संस्कारोति सदा सुतम्।
ध्यानास्थितस्य बालस्य निदधाति पुर स्वयम्।।40।।
नवनीतं तदा बालं वदति स्म स्वभावतः।
यशोदानन्दनेदं नवनीतं प्रेषितमहो।।41।।
माता अपने धार्मिक संस्कारों से सदैव पुत्र (आसुमल) को सुसंस्कृत करती रहती थीं। वह ध्यान में स्थित बालक के आगे स्वयं मक्खन रख दिया करती थीं। फिर माता बालक को स्वाभाविक ही कहा करती थी किः "आश्चर्य की बात है कि भगवान यशोदानंदन ने तुम्हारे लिये यह मक्खन भेजा है।"(40, 41)
कर्मयोगस्य संस्कारो वटवृक्षायतेऽधुना।
सर्वैर्भक्तजनैस्तेन सदाऽऽनन्दोऽनुभूयते।।42।।
(माता के द्वारा सिंचित वे) धार्मिक संस्कार अब वटवृक्ष का रूप धारण कर रहे हैं। आज सब भक्तजन उन धार्मिक संस्कारों से ही आनन्द का अनुभव कर रहे हैं।(42)
स च मातृप्रभावेण जनकस्य शुभाशिषा।
आसुमलोऽभवत् पूज्यो ब्रह्मविद्याविशारदः।।43।।
माता के प्रभाव से एवं पिताजी के शुभाशीर्वाद से वे आसुमल ब्रह्मविद्या में निष्णात एवं पूजनीय बन गये।(43)
अनेका पठिता भाषा संस्कृतं तु विशेषतः।
यतो वेदादि शास्त्राणि सन्ति सर्वाणि संस्कृते।।44।।
(आसुमल ने) अनेक भाषाएँ पढ़ीं किन्तु संस्कृत भाषा पर विशेष ध्यान दिया, क्योंकि वेद आदि सभी शास्त्र संस्कृत में ही हैं। (44)
विद्या स्मृतिपथं याता पठिता पूर्वजन्मनि।
सत्यः सनातनो जीवः संसारः क्षणभंगुरः।।45।।
(इस प्रकार) पूर्व जन्म में पढ़ी हुई समस्त विद्याएँ स्मरण हो आईं की यह जीव सत्य सनातन है और संसार क्षणभंगुर एवं अनित्य है।(45)

Monday, April 11, 2011




निरोगता का साधन पुस्तक से - Nirogta ka Sadhan pustak se


संयम अर्थात् वीर्य की रक्षा। वीर्य की रक्षा को संयम कहते हैं। संयम ही मनुष्य की तंदुरुस्ती व शक्ति की सच्ची नींव है। इससे शरीर सब प्रकार की बीमारियों से बच सकता है। संयम-पालन से आँखों की रोशनी वृद्धावस्था में भी रहती है। इससे पाचनक्रिया एवं यादशक्ति बढ़ती है। ब्रह्मचर्य-संयम मनुष्य के चेहरे को सुन्दर व शरीर को सुदृढ़ बनाने में चमत्कारिक काम करता है। ब्रह्मचर्य-संयम के पालन से दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं।
संक्षेप में, वीर्य की रक्षा से मनुष्य का आरोग्य व शक्ति सदा के लिए टिके रहते हैं। मैं मानता हूँ की केवल वीर्य ही शरीर का अनमोल आभूषण है, वीर्य ही शक्ति है, वीर्य ही ताकत है, वीर्य ही सुन्दरता है। शरीर में वीर्य ही प्रधान वस्तु है। वीर्य ही आँखों का तेज है, वीर्य ही ज्ञान, वीर्य ही प्रकाश है। अर्थात् मनुष्य में जो कुछ दिखायी देता है, वह सब वीर्य से ही पैदा होता है। अतः वह प्रधान वस्तु है। वीर्य ही एक ऐसा तत्त्व है, जो शरीर के प्रत्येक अंग का पोषण करके शरीर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाता है। वीर्य से ही नेत्रों में तेज उत्पन्न होता है। इससे मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित जगत की प्रत्येक वस्तु देख सकता है।
वीर्य ही आनन्द-प्रमोद का सागर है। जिस मनुष्य में वीर्य का खजाना है वह दुनिया के सारे आनंद-प्रमोद मना सकता है और सौ वर्ष तक जी सकता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक वीर्य खर्च करता है वह अपना ही नाश करता है और जीवन बरबाद करता है। जो लोग इसकी रक्षा करते हैं वे समस्त शारीरिक दुःखों से बच जाते हैं, समस्त बीमारियों से दूर रहते हैं।
जब तक शरीर में वीर्य होता है तब तक शत्रु की ताकत नहीं है कि वह भिड़ सके, रोग दबा नहीं सकता। चोर-डाकू भी ऐसे वीर्यवान से डरते हैं। प्राणी एवं पक्षी उससे दूर भागते हैं। शेर में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वीर्यवान व्यक्ति का सामना कर सके।
ब्रह्मचारी सिंह समान हिंसक प्राणी को कान से पकड़ सकते हैं। वीर्य की रक्षा से ही परशुरामजी ने क्षत्रियों का कई बार संहार किया था।
ब्रह्मचर्य-पालन के प्रताप से ही हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा सके और सीता जी का समाचार ला सके। ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भीष्म पितामह अपने अंतिम समय में कई महीनों तक बाणों की शय्या पर सो सके एवं अर्जुन से बाणों के तकिये की माँग कर सके। वीर्य की रक्षा से ही लक्ष्मणजी ने मेघनाद को हराया और ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भारत के मुकुटमणि महर्षि दयानंद सरस्वती ने दुनिया पर विजय प्राप्त की।
इस विषय में कितना लिखें, दुनिया में जितने भी सुधारक, ऋषि-मुनि, महात्मा, योगी व संत हो गये हैं, उन सभी ने ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही लोगों के दिल जीत लिये हैं। अतः वीर्य की रक्षा ही जीवन है वीर्य को गँवाना ही मौत है।
परंतु आजकल के नवयुवकों व युवतियों की हालत देखकर अफसोस होता है कि भाग्य से ही कोई विरला युवान ऐसा होगा जो वीर्य रक्षा को ध्यान में रखकर केवल प्रजोत्पत्ति के लिए अपनी पत्नी के साथ समागम करता होगा। इसके विपरीत, आजकल के युवान जवानी के जोश में बल और आरोग्य की परवाह किये बिना विषय-भोगों में बहादुरी मानते हैं। उन्हें मैं नामर्द ही कहूँगा।
जो युवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, ऐसे युवान दुनिया में जीने के लायक ही नहीं हैं। वे केवल कुछ दिन के मेहमान हैं। ऐसे युवानों के आहार की ओर नजर डालोगे तो पायेंगे कि केक, बिस्कुट, अंडे, आइस्क्रीम, शराब आदि उनके प्रिय व्यंजन होंगे, जो वीर्य को पतला (क्षीण) करके शरीर को मृतक बनानेवाली वस्तुएँ हैं। ऐसी चीजों का उपयोग वे खुशी से करते हैं और अपनी तन्दुरुस्ती की जड़ काटते हैं।
आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, युवान-वृद्ध, पुरुष-स्त्रियाँ सभी दूध, दही, मक्खन तथा घी खाना पसंद करते थे परंतु आजकल के युवान एवं युवतियाँ दूध के प्रति अरुचि व्यक्त करते हैं। साथ ही केक, बिस्कुट, चाय-कॉफी या जो तन्दुरुस्ती को बरबाद करने वाली चीजें हैं, उनका ही सेवन करते हैं। यह देखकर विचार आता है कि ऐसे स्त्री-पुरुष समाज की श्रेष्ठ संतान कैसे दे सकेंगे? निरोगी माता-पिता की संतान ही निरोगी पैदा होती है।
मित्रो ! जरा रुको और समझदारीपूर्वक विचार करो कि हमारे स्वास्थ्य तथा बल की रक्षा कैसे होगी? इस दुनिया में जन्म लेकर जिसने ऐश-आराम की जिंदगी गुजारी उसका तो दुनिया में आना ही व्यर्थ है।
मेरा नम्र मत है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है दुनिया में आकर दीर्घायु भोगने के लिए अपने स्वास्थ्य व बल की सुरक्षा का प्रयास करे तथा शरीर को सुदृढ़ व मजबूत रखने के लिए दूध, घी, मक्खन और मलाई युक्त सात्त्विक आहार के सेवन का आग्रह रखे।
स्वास्थ्य की सँभाल व ब्रह्मचर्य के पालन हेतु आँवले का चूर्ण व मिश्री के मिश्रण को पानी में मिलाकर पीने से बहुत लाभ होगा। इस मिश्रण व दूध के सेवन के बीच दो घण्टे का अंतर रखें।
आध्यात्मिक व भौतिक विकास की नींव ब्रह्मचर्य है। अतः परमात्मा को प्रार्थना करें कि वे सदबुद्धि दें व सन्मार्ग की ओर मोड़ें। वीर्य शरीर में फौज के सेनानायक की नाईं कार्य करता है, जबकि दूसरे अवयव सैनिकों की नाईं फर्ज निभाते हैं। जैसे सेनानायक की मृत्यु होने पर सैनिकों की दुर्दशा हो जाती है, वैसे ही वीर्य का नाश होने से शरीर निस्तेज हो जाता है।
शास्त्रों ने शरीर को परमात्मा का घर बताया है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का पवित्र कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकता है, जिसका मन इन्द्र्रियों पर नियंत्रण होता है। फिर चाहे वह गृहस्थी हो या त्यागी।
मैं जब अपनी बहनों को देखता हूँ तब मेरा हृदय दुःख-दर्द से आक्रान्त हो जाता है कि कहाँ है हमारी ये प्राचीन माताएँ?
दमयंती, सीता, गार्गी, लीलावती, विद्याधरी,
विद्योत्तमा, मदालसा की शास्त्रों में हैं बातें बड़ी।
ऐसी विदूषी स्त्रियाँ भारत की भूषण हो गयीं,
धर्मव्रत छोड़ा नहीं सदा के लिए अमर हो गयीं।।
कहाँ हैं ऐसी माताएँ जिन्होंने श्रीरामचंद्र जी, लक्ष्मण, भीष्म पितामह और भगवान श्रीकृष्ण जैसे महान व प्रातः स्मरणीय व्यक्तियों को जन्म दिया?
कहाँ है व्यासमुनि, कपिल व पतंजलि जैसे महान ऋषि, जिन्होंने हिमालय की हरी-भरी खाइयों व पर्ण-कुटीरों में बैठकर, कंदमूल खा के वेदांत, तत्त्वज्ञान, योग की पुस्तक व सिद्धान्त लिखकर दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया?
आधुनिक नवयुवकों की हालत देखकर अफसोस होता है कि उन्होंने हमारे महापुरुषों के नाम पर कलंक लगाया है। वे इतने आलसी व सुस्त हो गये हैं कि एक-दो मील चलने में भी उन्हें थकान लगती है वे बहुत ही डरपोक व कायर हो गये हैं।
मैं सोचता हूँ कि भारत के वीरों को यह क्या हो गया है? ऐसे डरपोक क्यों हो गये हैं? क्या हिमालय के पहाड़ी वातावरण में पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा? क्या भारत की मिट्टी में वह प्रभाव नहीं रहा कि वह उत्तम अन्न पैदा कर सके, स्वादिष्ट-सुन्दर फल-फूल पैदा कर सके? क्या गंगा मैया ने अपने जल में से अमृत खींच लिया है? नहीं, यह सब तो पूर्ववत् ही है। तो फिर किस कारण से हमारी शक्ति व शूरवीरता नष्ट हो गयी है? भीम व अर्जुन जैसी विभूतियाँ हम क्यों पैदा नहीं कर पाते?
मैं मानता हूँ कि हमारे में शक्ति, शौर्य, आरोग्य व बहादुरी सब कुछ विद्यमान है परंतु कुदरत के नियमों पर अमल हम नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत हम कुदरत के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं व प्रतिफल भोग-विलास तथा शरीर के बाह्य दिखावे को सजाने में मग्न रहते हैं और अपने आरोग्य के विषय में जरा भी सोचते नहीं हैं।
संभोग प्रजोत्पत्ति का कार्य है। तो कैसी प्रजा उत्पन्न करोगे? एक कवि ने कहा हैः
जननी जने तो भक्तजन या दाता या शूर।
नहीं तो रहना बाँझ ही, मत गँवाना नर।।
आज के जमाने में संभोग को भोग विलास का एक साधन ही मान लिया गया है। जिन लोगों ने इस पवित्र कार्य को मौज-मजा व भोग-विलास का साधन बना रखा है, वे लोग स्वयं को मनुष्य कहलाने के लायक भी नहीं रहे। संयमी जीवन से ही दुनिया में महापुरुष, महात्मा, योगीजन, संतजन, पैगम्बर व मुनिजन उन्नति के शिखर पर पहुँच सके हैं। भोले-भटके हुए लोगों को उन्होंने अपनी वाणी व प्रवचनों से सत्य का मार्ग दिखाया है। उनकी कृपा व आशीर्वाद से अनेक लोगों के हृदय कुदरती प्रकाश से प्रकाशित हैं।
मनुष्यों को प्राकृतिक कानूनी सिद्धान्तों पर अमल करके, उनका अनुकरण करके समान दृष्टि से अपनी जिंदगी व्यतीत करनी चाहिए। मन सदा पवित्र रखना चाहिए, जिससे दिल भी सदा पवित्र रहे। अंतःकरण को शुद्ध रखकर कार्य में चित्त लगाना चाहिए, जिससे कार्य में सफलता मिले। संभोग के समय भी विचार पवित्र होंगे तो पवित्र विचारोंवाली प्रजा जन्म लेगी और वह हमारे सुख में वृद्धि करेगी।
यदि आप दुनिया में सुख-शांति चाहते हो तो अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखें। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा कर सकेगा वही सुख व आराम का जीवन बिता सकेगा और दुनिया में उन्हीं लोगों का नाम सूर्य के प्रकाश की नाईं चमकेगा।
'महाभारत' का प्रसंग हैः एक बार इन्द्रदेव ने अर्जुन को स्वर्ग में आने के लिए आमंत्रण दिया और अर्जुन ने वह स्वीकार किया। इन्द्रदेव ने अर्जुन का अपने पुत्र के समान अत्यंत सम्मान व खूब प्रेम से सत्कार किया। अर्जुन को आनंद हो ऐसी सब चीजें वहाँ उपस्थित रखीं। उसे रणसंग्राम की समस्त विद्या सिखाकर अत्यधिक कुशल बनाया। थोड़े समय बाद परीक्षा लेने के लिए अथवा उसे प्रसन्न रखने के लिए राजदरबार में स्वर्ग की अप्सराओं को बुलाया गया।
इन्द्रदेव ने सोचा कि अर्जुन उर्वशी को देखकर मस्त हो जायेगा और उसकी माँग करेगा परंतु अर्जुन पर उसका कोई प्रभाव न हुआ। इसके विपरीत उर्वशी अर्जुन की शक्ति, गुणों व सुन्दरता पर मोहित हो गयी।
इन्द्रदेव की अनुमति से उर्वशी रात्रि में अर्जुन के महल में गयी एवं अपने दिल की बात कहने लगीः "हे अर्जुन ! मैं आपको चाहती हूँ। आपके सिवा अन्य किसी पुरुष को मैं नहीं चाहती। केवल आप ही मेरी आँखों के तारे हो। अरे, मेरी सुन्दरता के चन्द्र ! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मेरा यौवन आपको पाने के लिए तड़प रहा है।"
यदि आजकल के सौन्दर्य के पुजारी नवयुवक अर्जुन की जगह होते तो इस प्रसंग को अच्छा अवसर समझ के फिसलकर उर्वशी के अधीन हो जाते परंतु परमात्मा श्रीकृष्ण के परम भक्त अर्जुन ने उर्वशी से कहाः "माता ! पुत्र के समक्ष ऐसी बातें करना योग्य नहीं है। आपको मुझसे ऐसी आशा रखना व्यर्थ ही है।"
तब उर्वशी अनेक प्रकार के हाव-भाव करके अर्जुन को अपने प्रेम में फँसाने की कोशिश करती है परंतु सच्चा ब्रह्मचारी किसी भी प्रकार चलित नहीं होता, वासना के हवाले नहीं होता। उर्वशी अनेक दलीलें देती है परंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए कहाः
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया।।
'हे वरवर्णिनी ! मैं तुम्हारे चरणों में शीश झुकाकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम वापस चली जाओ। मेरे लिए तुम माता के समान पूजनीया हो और मुझे पुत्र के समान मानकर तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए।'
(महाभारतः वनपर्वः 6.47)
अपनी इच्छा पूर्ण न होने से उर्वशी ने क्रोधित होकर अर्जुन को शाप दियाः "जाओ, तुम एक साल के लिए नपुंसक बन जाओगे।" अर्जुन ने अभिशप्त होना मंजूर किया परंतु पाप में डूबे नहीं।
प्यारे नौजवानो ! इसी का नाम है सच्चा ब्रह्मचारी।