पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, January 25, 2010



निर्भय नाद पुस्तक से - Nirbhay Naad pustak se

सदगुरु ही जगत में तुम्हारे सच्चे मित्र हैं। मित्र बनाओ तो उन्हें ही बनाओ, भाई-माता-पिता बनाओ तो उन्हें ही बनाओ। गुरुभक्ति तुम्हें जड़ता से चैतन्यता की ओर ले जायेगी। जगत के अन्य नाते-रिश्ते तुम्हें संसार में फँसायेंगे, भटकायेंगे, दुःखों में पटकेंगे, स्वरूप से दूर ले जायेंगे। गुरु तुम्हें जड़ता से, दुःखों से, चिन्ताओं से मुक्त करेंगे। तुम्हें अपने आत्मस्वरूप में ले जायेंगे।

गुरु से फरियाद न करो, उनके आगे समर्पण करो। फरियाद से तुम उनसे लाभ लेने से वंचित रह जाओगे। उनका हृदय तो ऐसा निर्मल है कि जैसी उनमें भावना करोगे, वैसा ही लाभ होगा। तुम उनमें दोषदृष्टि करोगे तो दोषी बनोगे, गुणग्राहक दृष्टि करोगे तो उनके गुण तुममें आयेंगे और उनको त्रिगुणातीत मानकर उनके आज्ञापालन में चलोगे तो स्वयं भी गुणों से एक दिन पार हो जाओगे।

खबरदार ! जो समय गुरु-सेवन, ईश्वर-भक्ति और सत्संग में लगाना है, वह यदि जड़ पदार्थों में लगाया तो तुम भी जड़ीभाव को प्राप्त हो जाओगे। तुमने अपना सामर्थ्य, शक्ति, पैसा और सत्ता अपने मित्रों व सम्बन्धियों में ही मोहवश लगाया तो याद रखो, कभी-न-कभी तुम ठुकराये जाओगे, दुःखी बनोगे और तुम्हारा पतन हो ही जायेगा।

जितना हो सके, जीवित सदगुरु के सान्निध्य का लाभ लो। वे तुम्हारे अहंकार को काट-छाँटकर तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष करेंगे। उनकी वर्त्तमान हयाती के समय ही उनसे पूरा-पूरा लाभ लेने का प्रयास करो। उनका शरीर छूटने के बाद तो..... ठीक है, मंदिर बनते हैं और दुकानदारियाँ चलती हैं। तुम्हारी गढ़ाई फिर नहीं हो पायेगी। अभी तो वे तुम्हारी – ‘स्वयं को शरीर मानना और दूसरों को भी शरीर मानना’- ऐसी परिच्छिन्न मान्यताओं को छुड़ाते हैं। बाद में कौन छुड़ायेगा?..... बाद में नाम तो होगा साधना का कि मैं साधना करता हूँ, परन्तु मन खेल करेगा, तुम्हें उलझा देगा, जैसे सदियों से उलझाता आया है।

मिट्टी को कुम्हार शत्रु लगता है। पत्थर को शिल्पी शत्रु लगता है क्योंकि वे मिट्टी और पत्थर को चोट पहुँचाते हैं। ऐसे ही गुरु भी चाहे तुम्हें शत्रु जैसे लगें, क्योंकि वे तुम्हारे देहाध्यास पर चोट करते हैं, परन्तु शत्रु होते नहीं। शत्रु जैसे लगें तो भी तुम भूलकर भी उनका दामन मत छोड़ना। तुम धैर्यपूर्वक लगे रहना अपनी साधना में। वे तुम्हें कंचन की तरह तपा-तपाकर अपने स्वरूप में जगा देंगे। तुम्हारा देहाध्यासरूपी मैल धोकर स्वच्छ ब्रह्मपद में तुम्हें स्थिर कर देंगे। वे तुमसे कुछ भी लेते हुए दिखें परन्तु कुछ भी नहीं लेंगे, क्योंकि वे तो सब छोड़कर सदगुरु बने हैं। वे लेंगे तो तुम्हारी परिच्छिन्न मान्यताएँ लेंगे, जो तुम्हें दीन बनाये हुए हैं।

सदगुरु मिटाते हैं। तू आनाकानी मत कर, अन्यथा तेरा परमार्थ का मार्ग लम्बा हो जायेगा। तू सहयोग कर। तू उनके चरणों में मिट जा और मालिक बन, सिर दे और सिरताज बन; अपना 'मैं' पना मिटा और मुर्शिद बन। तू अपना तुच्छ 'मैं' उनको दे दे और उनके सर्वस्व का मालिक बन जा। अपने नश्वर को ठोकर मार और उनसे शाश्वत का स्वर सुन। अपने तुच्छ जीवत्व को त्याग दे और शिवत्व में विश्राम कर।

तुम्हारे जिस चित्त में सुखाकार-दुःखाकार-द्वेषाकार वृत्तियाँ उठ रही हैं, वह चित्त प्रकृति है और उसका प्रेरक परमात्मा साक्षी उससे परे है। वही तुम्हारा असली स्वरूप है। उसमें न रहकर जब प्रकृति में भटकते हो, वृत्तियों के साथ एक हो जाते हो तो अशांत होते हो और स्वरूप में रहकर सब करते हो तो करते हुए भी अकर्ता हो। फिर आनन्द तो तुम्हारा स्वरूप ही है।

जैसे सड़क पर कितने ही वाहन-कार, रिक्शा, साइकिल, बैलगाड़ी आदि चलते हैं लेकिन अचल सड़क के आधार पर ही चलते हैं वैसे ही तुम्हारा आत्मा अचल है। उस पर वृत्तियाँ चल रही हैं। जैसे सरोवर में तरंगे उठती हैं, वैसे तुम्हारे आत्मस्वरूप में ये सब वृत्तियाँ उठती हैं और लय होती हैं।

व्यवहार में चिन्तारूपी राक्षसी घूमा करती है। वह उसी को ग्रस लेती है, जिसको जगत सच्चा लगता है। जिसको जगत स्वप्नवत् लगता है, उसे परिस्थितियाँ और चिन्ताएँ कुचल नहीं सकती।

एक ही मंदिर-मसजिद में क्या जाना, सारे विश्व को ही मंदिर मसजिद बना दो। तुम ऐसा जीवन जियो कि तुम जो खाओ वह प्रसाद बन जाय, जो करो वह साधना या भक्ति बन जाय और जो चिंतन करो वह आत्मचिंतन बन जाय।

तुम जब सत्य के रास्ते पर चल पड़े हो तो व्यावहारिक कार्यों की चिन्ता मत करो कि वे पूरे होते हैं कि नहीं। समझो, कुछ कार्य पूरे न भी हुए तो एक दिन तो सब छोड़कर ही जाना है। यह अधूरा तो अधूरा है ही, लेकिन जिसे संसारी लोग पूरा समझते हैं, वह भी अधूरा ही है। पूर्ण तो एक परमात्मा है। उसे जाने बिना सब जान लिया तो भी व्यर्थ है।

कोई आपका अपमान या निन्दा करे तो परवाह मत करो। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारा देहाध्यास तोड़ने के लिए उसने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है। अपमान से खिन्न मत बनो बल्कि उस अवसर को साधना बना लो। अपमान या निन्दा करने वाले आपका जितना हित करते हैं, उतना प्रशंसक नहीं करते – यह सदैव याद रखो।

क्या आप सुख चाहते हैं?... तो विषय भोग से सुख मिलेगा यह कल्पना मन से निकाल दीजिये। उसमें बड़ी पराधीनता है। पराधीनता दुःख है। भोग्य वस्तु चाहे वह कुछ भी क्यों न हो, कभी मिलेगी कभी नहीं। इन्द्रियों में भोग का सामर्थ्य सदा नहीं रहेगा। मन में एक-सी रूचि भी नहीं होगी। योग-वियोग, शत्रु-मित्र, कर्म-प्रकृति आदि उसमें बाधक हो सकते हैं। यदि विषयभोग में आप सुख को स्थापित कर देंगे तो निश्चय ही आपको परवश और दुःखी होना पड़ेगा।

'सुख' क्या है? 'सु' माने सुन्दर। 'ख' माने इन्द्रिय, मन, हृदयाकाश। इनकी सुन्दरता सहज स्वाभाविक है। आप सुखस्वरूप हैं किन्तु सुख की इच्छा करके उत्पात खड़ा करते हैं; अपने केन्द्र से च्युत होते हैं। सुख को आमन्त्रित मत कीजिये। दुःख को भगाने के लिए बल प्रयोग मत कीजिये। बुद्धि में वासना रूप मलिनता लगी-सी भास रही है। उसको आत्मबुद्धि के प्रकाश में लुप्त हो जाने दीजिये। आपका जीवन सुख-समुद्र का तरंगायमान रूप है। सुख-सूर्य का रश्मि-पुंज है; सुख-वायु का सुरभि-प्रवाह है।

कहीं आप अपने को अवयवयुक्त पंचभौतिक शरीर तो नहीं मान बैठे हैं। यदि ऐसा है तो आप सुखी जीवन कैसे बिता सकते हैं? शरीर के साथ जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि, संयोग-वियोग, ह्रास-विकास लगे ही रहते हैं। कोई भी अपने को शरीर मानकर कभी भयमुक्त नहीं हो सकता। निर्भयता की प्राप्ति के लिए आत्मा की शाश्वत सत्ता पर आस्था होना आवश्यक है। यह आस्था ही धर्म का स्वरूप है। जितने धार्मिक मत-मजहब हैं उनका मूल आधार देहातिरिक्त आत्मा पर आस्था है। आप बुद्धि के द्वारा न समझ सकें तब भी आत्मा के नित्य अस्तित्व पर आस्था कीजिये। मृत्यु का भय त्याग दीजिये। अपने नित्य आत्मा में स्थित रहिये और कार्य कीजिये। आपके जीवन में धर्म प्रवेश करेगा और प्रतिष्ठित होगा। बुद्धि की निर्मलता और विवेक का प्रकाश आने पर आपका अन्तःकरण मुस्करायेगा और बाह्य जीवन भी सुखी हो जायेगा।

तुम अपने को भूलकर दीन-हीन हो रहे हो। जिस प्रकार पशु रस्सी से बँधकर दीन-हीन हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जिस्म की खुदी में पड़कर, देह के कीचड़ में फँसकर दीन-हीन हो जाता है। साधना का मतलब स्वर्गप्राप्ति नहीं बल्कि अपने-आप तक पहुँचना है। ऐसी मृत्यु को लाना है जिससे फिर मृत्यु न हो।

Thursday, January 21, 2010



श्री आसारामायण - Shri Asaramayan

गुरु चरण रज शीष धरि, हृदय रूप विचार।
श्रीआसारामायण कहौं, वेदान्त को सार।।
धर्म कामार्थ मोक्ष दे, रोग शोक संहार।
भजे जो भक्ति भाव से, शीघ्र हो बेड़ा पार।।
भारत सिंधु नदी बखानी, नवाब जिले में गाँव बेराणी।
रहता एक सेठ गुण खानि, नाम थाऊमल सिरुमलानी।।
आज्ञा में रहती मेंहगीबा, पतिपरायण नाम मंगीबा।
चैत वद छः उन्नीस अठानवे, आसुमल अवतरित आँगने।।
माँ मन में उमड़ा सुख सागर, द्वार पै आया एक सौदागर।
लाया एक अति सुन्दर झूला, देख पिता मन हर्ष से फूला।।
सभी चकित ईश्वर की माया, उचित समय पर कैसे आया।
ईश्वर की ये लीला भारी, बालक है कोई चमत्कारी।।
संत की सेवा औ' श्रुति श्रवण, मात पिता उपकारी।
धर्म पुरुष जन्मा कोई, पुण्यों का फल भारी।।
सूरत थी बालक की सलोनी, आते ही कर दी अनहोनी।
समाज में थी मान्यता जैसी, प्रचलित एक कहावत ऐसी।।
तीन बहन के बाद जो आता, पुत्र वह त्रेखन कहलाता।
होता अशुभ अमंगलकारी, दरिदता लाता है भारी।।
विपरीत किंतु दिया दिखाई, घर में जैसे लक्ष्मी आयी।
तिरलोकी का आसन डोला, कुबेर ने भंडार ही खोला।
मान प्रतिष्ठा और बड़ाई, सबके मन सुख शांति छाई।।
तेजोमय बालक बढ़ा, आनन्द बढ़ा अपार।
शील शांति का आत्मधन, करने लगा विस्तार।।
एक दिना थाऊमल द्वारे, कुलगुरु परशुराम पधारे।
ज्यूँ ही बालक को निहारे, अनायास ही सहसा पुकारे।।
यह नहीं बालक साधारण, दैवी लक्षण तेज है कारण।
नेत्रों में है सात्विक लक्षण, इसके कार्य बड़े विलक्षण।।
यह तो महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा।
सुनी गुरु की भविष्यवाणी, गदगद हो गये सिरुमलानी।
माता ने भी माथा चूमा, हर कोई ले करके घूमा।।
ज्ञानी वैरागी पूर्व का, तेरे घर में आय।
जन्म लिया है योगी ने, पुत्र तेरा कहलाय।।
पावन तेरा कुल हुआ, जननी कोख कृतार्थ।
नाम अमर तेरा हुआ, पूर्ण चार पुरुषार्थ।।
सैतालीस में देश विभाजन, पाक में छोड़ा भू पशु औ' धन।
भारत अमदावाद में आये, मणिनगर में शिक्षा पाये।।
बड़ी विलक्षण स्मरण शक्ति, आसुमल की आशु युक्ति।
तीव्र बुद्धि एकाग्र नम्रता, त्वरित कार्य औ' सहनशीलता।।
आसुमल प्रसन्न मुख रहते, शिक्षक हँसमुखभाई कहते।
पिस्ता बादाम काजू अखरोटा, भरे जेब खाते भर पेटा।।
दे दे मक्खन मिश्री कूजा, माँ ने सिखाया ध्यान औ' पूजा।
ध्यान का स्वाद लगा तब ऐसे, रहे न मछली जल बिन जैसे।।
हुए ब्रह्मविद्या से युक्त वे, वही है विद्या या विमुक्तये।
बहुत रात तक पैर दबाते, भरे कंठ पितु आशीष पाते।।
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम।
लोगों के तुम से सदा, पूरण होंगे काम।।
सिर से हटी पिता की छाया, तब माया ने जाल फैलाया।
बड़े भाई का हुआ दुःशासन, व्यर्थ हुए माँ के आश्वासन।।
छूटा वैभव स्कूली शिक्षा, शुरु हो गयी अग्नि परीक्षा।
गये सिद्धपुर नौकरी करने, कृष्ण के आगे बहाये झरने।।
सेवक सखा भाव से भीजे, गोविन्द माधव तब रीझे।
एक दिन एक माई आई, बोली हे भगवन सुखदाई।।
पड़े पुत्र दुःख मुझे झेलने, खून केस दो बेटे जेल में।
बोले आसु सुख पावेंगे, निर्दोष छूट जल्दी आवेंगे।
बेटे घर आये माँ भागी, आसुमल के पाँवों लागी।।
आसुमल का पुष्ट हुआ, अलौकिक प्रभाव।
वाकसिद्धि की शक्ति का, हो गया प्रादुर्भाव।।
बरस सिद्धपुर तीन बिताये, लौट अमदावाद में आये।
करने लगी लक्ष्मी नर्तन, किया भाई का दिल परिवर्तन।।
दरिद्रता को दूर कर दिया, घर वैभव भरपूर कर दिया।
सिनेमा उन्हें कभी न भाये, बलात् ले गये रोते आये।।
जिस माँ ने था ध्यान सिखाया, उसको ही अब रोना आया।
माँ करना चाहती थी शादी, आसुमल का मन वैरागी।।
फिर भी सबने शक्ति लगाई, जबरन कर दी उनकी सगाई।
शादी को जब हुआ उनका मन, आसुमल कर गये पलायन।।
पंडित कहा गुरु समर्थ को, रामदास सावधान।
शादी फेरे फिरते हुए, भागे छुड़ाकर जान।।
करत खोज में निकल गया दम, मिले भरूच में अशोक आश्रम।
कठिनाई से मिला रास्ता, प्रतिष्ठा का दिया वास्ता।।
घर में लाये आजमाये गुर, बारात ले पहुँचे आदिपुर।
विवाह हुआ पर मन दृढ़ाया, भगत ने पत्नी को समझाया।।
अपना व्यवहार होगा ऐसे, जल में कमल रहता है जैसे।
सांसारिक व्यौहार तब होगा, जब मुझे साक्षात्कार होगा।
साथ रहे ज्यूँ आत्माकाया, साथ रहे वैरागी माया।।
अनश्वर हूँ मैं जानता, सत चित हूँ आनन्द।
स्थिति में जीने लगूँ, होवे परमानन्द।।
मूल ग्रंथ अध्ययन के हेतु, संस्कृत भाषा है एक सेतु।
संस्कृत की शिक्षा पाई, गति और साधना बढ़ाई।।
एक श्लोक हृदय में पैठा, वैराग्य सोया उठ बैठा।
आशा छोड़ नैराश्यवलंबित, उसकी शिक्षा पूर्ण अनुष्ठित।।
लक्ष्मी देवी को समझाया, ईश प्राप्ति ध्येय बताया।
छोड़ के घर मैं अब जाऊँगा, लक्ष्य प्राप्त कर लौट आऊँगा।।
केदारनाथ के दर्शन पाये, लक्षाधिपति आशिष पाये।
पुनि पूजा पुनः संकल्पाये, ईश प्राप्ति आशिष पाये।।
आये कृष्ण लीलास्थली में, वृन्दावन की कुंज गलिन में।
कृष्ण ने मन में ऐसा ढाला, वे जा पहुँचे नैनिताला।।
वहाँ थे श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठित, स्वामी लीलाशाह प्रतिष्ठित।
भीतर तरल थे बाहर कठोरा, निर्विकल्प ज्यूँ कागज कोरा।
पूर्ण स्वतंत्र परम उपकारी, ब्रह्मस्थित आत्मसाक्षात्कारी।।
ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।
जानने को साधक की कोटि, सत्तर दिन तक हुई कसौटी।
कंचन को अग्नि में तपाया, गुरु ने आसुमल बुलवाया।।
कहा गृहस्थ हो कर्म करना, ध्यान भजन घर ही करना।
आज्ञा मानी घर पर आये, पक्ष में मोटी कोरल धाये।।
नर्मदा तट पर ध्यान लगाये, लालजी महाराज आकर्षाये।
सप्रेम शीलस्वामी पहँ धाये, दत्तकुटीर में साग्रह लाये।।
उमड़ा प्रभु प्रेम का चसका, अनुष्ठान चालीस दिवस का।
मरे छः शत्रु स्थिति पाई, ब्रह्मनिष्ठता सहज समाई।।
शुभाशुभ सम रोना गाना, ग्रीष्म ठंड मान औ' अपमाना।
तृप्त हो खाना भूख अरु प्यास, महल औ' कुटिया आसनिरास।
भक्तियोग ज्ञान अभ्यासी, हुए समान मगहर औ' कासी।।
भव ही कारण ईश है, न स्वर्ण काठ पाषान।
सत चित्त आनंदस्वरूप है, व्यापक है भगवान।।
ब्रह्मेशान जनार्दन, सारद सेस गणेश।
निराकार साकार है, है सर्वत्र भवेश।।
हुए आसुमल ब्रह्माभ्यासी, जन्म अनेकों लागे बासी।
दूर हो गई आधि व्याधि, सिद्ध हो गई सहज समाधि।।
इक रात नदी तट मन आकर्षा, आई जोर से आँधी वर्षा।
बंद मकान बरामदा खाली, बैठे वहीं समाधि लगा ली।।
देखा किसी ने सोचा डाकू, लाये लाठी भाला चाकू।
दौड़े चीखे शोर मच गया, टूटी समाधि ध्यान खिंच गया।।
साधक उठा थे बिखरे केशा, राग द्वेष ना किंचित् लेशा।
सरल लोगों ने साधु माना, हत्यारों ने काल ही जाना।।
भैरव देख दुष्ट घबराये, पहलवान ज्यूँ मल्ल ही पाये।
कामीजनों ने आशिक माना, साधुजन कीन्हें परनामा।।
एक दृष्टि देखे सभी, चले शांत गम्भीर।
सशस्त्रों की भीड़ को, सहज गये वे चीर।।
माता आई धर्म की सेवी, साथ में पत्नी लक्ष्मी देवी।
दोनों फूट-फूट के रोई, रुदन देख करुणा भी रोई।।
संत लालजी हृदय पसीजा, हर दर्शक आँसू में भीजा।
कहा सभी ने आप जाइयो, आसुमल बोले कि भाइयों।।
चालीस दिवस हुआ न पूरा, अनुष्ठान है मेरा अधूरा।
आसुमल ने छोड़ी तितिक्षा, माँ पत्नी ने की परतीक्षा।।
जिस दिन गाँव से हुई विदाई, जार जार रोय लोग-लुगाई।
अमदावाद को हुए रवाना, मियाँगाँव से किया पयाना।।
मुंबई गये गुरु की चाह, मिले वहीं पै लीलाशाह।
परम पिता ने पुत्र को देखा, सूर्य ने घटजल में पेखा।।
घटक तोड़ जल जल में मिलाया, जल प्रकाश आकाश में छाया।
निज स्वरूप का ज्ञान दृढ़ाया, ढाई दिवस होश न आया।।
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।
परम स्वतंत्र पुरुष दर्शाया, जीव गया और शिव को पाया।
जान लिया हूँ शांत निरंजन, लागू मुझे न कोई बन्धन।।
यह जगत सारा है नश्वर, मैं ही शाश्वत एक अनश्वर।
दीद हैं दो पर दृष्टि एक है, लघु गुरु में वही एक है।।
सर्वत्र एक किसे बतलाये, सर्वव्याप्त कहाँ आये जाये।
अनन्त शक्तिवाला अविनाशी, रिद्धि सिद्धि उसकी दासी।।
सारा ही ब्रह्माण्ड पसारा, चले उसकी इच्छानुसारा।
यदि वह संकल्प चलाये, मुर्दा भी जीवित हो जाये।।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे ना शेष।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।
आसुमल से हो गये, साँई आसाराम।।
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति चेते, ब्रह्मानन्द का आनन्द लेते।
खाते पीते मौन या कहते, ब्रह्मानन्द मस्ती में रहते।।
रहो गृहस्थ गुरु का आदेश, गृहस्थ साधु करो उपदेश।
किये गुरु ने वारे न्यारे, गुजरात डीसा गाँव पधारे।
मृत गाय दिया जीवन दाना, तब से लोगों ने पहचाना।।
द्वार पै कहते नारायण हरि, लेने जाते कभी मधुकरी।
तब से वे सत्संग सुनाते, सभी आर्ती शांति पाते।।
जो आया उद्धार कर दिया, भक्त का बेड़ा पार कर दिया।
कितने मरणासन्न जिलाये, व्यसन मांस और मद्य छुड़ाये।।
एक दिन मन उकता गया, किया डीसा से कूच।
आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक।।
वे नारेश्वर धाम पधारे, जा पहुँचे नर्मदा किनारे।
मीलों पीछे छोड़ा मन्दर, गये घोर जंगल के अन्दर।।
घने वृक्ष तले पत्थर पर, बैठे ध्यान निरंजन का घर।
रात गयी प्रभात हो आई, बाल रवि ने सूरत दिखाई।।
प्रातः पक्षी कोयल कूकन्ता, छूटा ध्यान उठे तब संता।
प्रातर्विधि निवृत्त हो आये, तब आभास क्षुधा का पाये।।
सोचा मैं न कहीं जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा।
जिसको गरज होगी आयेगा, सृष्टिकर्त्ता खुद लायेगा।।
ज्यूँ ही मन विचार वे लाये, त्यूँ ही दो किसान वहाँ आये।
दोनों सिर बाँधे साफा, खाद्यपेय लिये दोनों हाथा।।
बोले जीवन सफल है आज, अर्घ्य स्वीकारो महाराज।
बोले संत और पै जाओ, जो है तुम्हारा उसे खिलाओ।।
बोले किसान आपको देखा, स्वप्न में मार्ग रात को देखा।
हमारा न कोई संत है दूजा, आओ गाँव करें तुमरी पूजा।।
आसाराम तब में धारे, निराकार आधार हमारे।
पिया दूध थोड़ा फल खाया, नदी किनारे जोगी धाया।।
गाँधीनगर गुजरात में, है मोटेरा ग्राम।
ब्रह्मनिष्ठ श्री संत का, यहीं है पावन धाम।।
आत्मानंद में मस्त हैं, करें वेदान्ती खेल।
भक्तियोग और ज्ञान का, सदगुरु करते मेल।।
साधिकाओं का अलग, आश्रम नारी उत्थान।
नारी शक्ति जागृत सदा, जिसका नहीं बयान।।
बालक वृद्ध और नरनारी, सभी प्रेरणा पायें भारी।
एक बार जो दर्शन पाये, शांति का अनुभव हो जाये।।
नित्य विविध प्रयोग करायें, नादानुसन्धान बतायें।
नाभि से वे ओम कहलायें, हृदय से वे राम कहलायें।।
सामान्य ध्यान जो लगायें, उन्हें वे गहरे में ले जायें।
सबको निर्भय योग सिखायें, सबका आत्मोत्थान करायें।।
हजारों के रोग मिटाये, और लाखों के शोक छुड़ाये।
अमृतमय प्रसाद जब देते, भक्त का रोग शोक हर लेते।।
जिसने नाम का दान लिया है, गुरु अमृत का पान किया है।
उनका योग क्षेम वे रखते, वे न तीन तापों से तपते।।
धर्म कामार्थ मोक्ष वे पाते, आपद रोगों से बच जाते।
सभी शिष्य रक्षा पाते हैं, सूक्ष्म शरीर गुरु आते हैं।।
सचमुच गुरु हैं दीनदयाल, सहज ही कर देते हैं निहाल।
वे चाहते सब झोली भर लें, निज आत्मा का दर्शन कर लें।।
एक सौ आठ जो पाठ करेंगे, उनके सारे काज सरेंगे।
गंगाराम शील है दासा, होंगी पूर्ण सभी अभिलाषा।।
वराभयदाता सदगुरु, परम हि भक्त कृपाल।
निश्छल प्रेम से जो भजे, साँई करे निहाल।।
मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत।
हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Sunday, January 17, 2010




सहज साधना पुस्तक से - Sahaj Sadhna pustak se

सदगुरू सत्पात्र शिष्य को अपना हृदय खोलकर आत्मिक अनुभूति का प्रसाद दे रहे हैं-
मैं चिदघन चैतन्य.... सबके दिल की धड़कनों को सत्ता देने वाला शांत आत्मा हूँ। चित्त की अशांति के कारण किसी-किसी शरीर में मैं अशांत दिखता हूँ। चित्त के दुराचार से कहीं कहीं मैं दुराचारी दिखता हूँ। चित्त के सदाचार से कहीं मैं सदाचारी दिखता हूँ। चित्त के शांत होने से मैं कहीं शांत दिखता हूँ। वास्तव में, मैं चैतन्यघन, मुक्त महेश्वर तत्त्व हूँ। मेरा मुझको धन्यवाद है।
मैं शांत, अशांत, सज्जन और दुर्जन, अनेक स्वांगों में, अनेक रंगों में, ढंगों में, अनेक देहों में मैं विषय-सुख भोग रहा हूँ। दैत्यों में ईर्ष्या की आग-सा लग रहा हूँ। ऋषियों में तप कर रहा हूँ। फिर भी मैं कुछ नहीं करता। यह मेरी अष्टधा प्रकृति है। यह मेरी आह्लादिनी शक्ति है जिससे यह सब प्रतीत हो रहा है। वास्तव में बना कुछ नहीं।
यह स्वप्न तुल्य खेल पाँच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार... इस अष्टधा प्रकृति से है। मैं सदैव निर्लेप और पर हूँ। जैसे आकाश में सब चीजें हैं, सब चीजों में आकाश है फिर भी चीजों के बनने बिगड़ने में, बढ़ने-घटने में आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हजारों मकान बढ़ जाएँ या हजारों मकान गिर जाएँ फिर भी आकाश को कुछ नहीं होता। आकाश सबमें है फिर भी सबसे न्यारा है।
ऐसे ही मैं चैतन्य आकाश हूँ। चिदघन चैतन्य आत्मा हूँ। मेरी कभी मृत्यु नहीं होती क्योंकि मेरा जन्म ही नहीं हुआ। मुझे कोई पुण्य नहीं... मुझे कोई पाप नहीं। पुण्य और पाप तो मन को होता है, तन को होता है। मैं तो तन-मन से परे साक्षी, शान्त, शुद्ध, बुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ। आकाश की तरह निर्लेप....।
ऐ मेरे मन ! अगर तू गुरू तत्त्व में जग जाएगा तो सुखी हो जायेगा। अगर तू इन्द्रियों के साथ जुड़कर विकारों को भोगेगा तो नाश को प्राप्त होगा। आज तक विकारों में परेशान होता ही आया है। इसलिए अब तू ऋषियों के अनुभव की तरफ चल। मुझ चैतन्य के प्रसाद को पाकर सदा-सदा के लिए सुखी हो जा। अन्यथा मैं तुझसे दोस्ती तोड़ दूँगा। आज तक तू मुझे गुलाम बनाकर मेरा नाश कर रहा था। दो आँख से जुड़कर देखने की इच्छा से बाहर भटक रहा था। कान से जुड़कर सुनने की इच्छा से भटक रहा था। हिरन बना तो भी मारा गया। पतंग बना तो भी मारा गया। हे मेरे मन ! जिस-जिस शरीर में गया वहाँ दुःखी रहा। अब तू अपने आप, चैतन्य स्वभाव की ओर, अपने सूक्ष्मातिसूक्ष्म, अणु से भी अणु और महान् से भी महान् परमेश्वर स्वभाव की ओर चल। अपने उस महान् स्वभाव को याद करके उसमें लीन हो जा।
हे बुलबुले ! हे तरंग ! तुम किनारों से टकराओगे, टूटोगे, फूटोगे, फिर बनोगे फिर बिगड़ोगे। हे तरंग ! तू अपने जल तत्त्व को जान ले। हे बुलबुला ! तू अपने जल तत्त्व को जान ले।
हे मनरूपी बुलबुला ! हे बुद्धिरूपी तरंग ! तू अपने चैतन्य स्वभाव को जान ले। उसका स्वभाव एक ध्वनि 'ॐ' कार है। 'मैं चैतन्य हूँ' ऐसा चिन्तन करके 'ॐ' कार का गुँजन कर दे। अपने चैतन्य स्वभाव में शीघ्र जाग जा। चैतन्य के प्रसाद से चैतन्यमय हो जा। ॐ....ॐ...ॐ....
मैं निर्भय हूँ..... मैं शांत सच्चिदानंद आत्मा हूँ.... मुझे पता न था। जन्म-मृत्यु से पार मैं तो अपने स्वभाव को भूल प्रकृति से मिलकर बार-बार जन्मता-मरता-सा दिखता था लेकिन मैं जन्मता मरता नहीं था। आज मैं भ्रांति से जागा हूँ।
ॐ....ॐ.....ॐ......
समता जीवन है। ईश्वरार्पणबुद्धि जीवन है। ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान ही सच्चा ज्ञान और सच्चे जीवन का प्रागट्य है। ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान ही वास्तविक जीवन का द्वार खोलता है। यह आत्मा परमात्मा है। यह आत्मा ब्रह्म है। यह आत्मा शुद्ध बुद्ध चिदघन चैतन्य है। यह आत्मा ही सब देवों का देव है, सर्व कालों का काल है। यह हमारा आत्मा ही परब्रह्म परमात्मा है। यह आत्मा ही जननियंता है। यही हमारे अन्तःकरण का नियमन कर रहा है। यही हमारी आँखों को देखने की शक्ति देता है। यही परमेश्वर हमारे साथ था, हमें पता न था। यही आनन्दकन्द हमारा आत्मा था हमें मालूम न था।
'मरने के बाद कहीं जाएँगे और परमेश्वर मिलेंगे' यह तो शुरूआत में बच्चों को थोड़ा-सा मोटा मोटा ज्ञान देने की व्यवस्था थी। जब बुद्धि सूक्ष्म होती है तो पता चलता हैः
जो बिछड़े हैं प्यारे से
दर बदर भटकते फिरते हैं।
हमारा यार है हममें
हमन को बेकरारी क्या ?
हमारा राम हमारा आत्मा है। हमारा श्याम हमारा आत्मा ही है। हमारा विट्ठल हमारा आत्मा ही है। वही आत्मा परमात्मा है। घड़े का आकाश ही महाकाश है। तरंग का जल ही सागर का जल है।
ऐसे ही चित्त में जो चेतना है, व्यापक ब्रह्माण्ड में वही की वही चेतना है।
ॐ.....आनन्द..... खूब आनन्द...
जो श्रीकृष्ण हैं वह तुम हो। जो श्रीराम हैं वह तुम हो। जो शिव हैं वह तुम हो। जो जगदम्बा हैं वह तुम हो। वे अपने चैतन्य स्वभाव को जानते हैं और हम नहीं जानते थे। अब जान लिया तो बन गया काम।
लाख चोर्यासी के चक्कर से थका, खोली कमर।
अब रहा आराम पाना, काम क्या बाकी रहा ?
खूब आनन्द.... मधुर आनन्द..... मधुर शान्ति.... आत्म शांति.....
परमात्म-प्रसाद में हम परितृप्त हो रहे है। अब हमें यह वासना नहीं रही कि हम मरकर भगवान के लोक में जाएँगे। यह बेवकूफी भी हमने छोड़ दी। मरने के बाद भगवान मिलेगा यह तो बालकों को सिखाया गया था और बालकों ने सिखाया था। ब्रह्मवेत्ता कभी ऐसा नहीं सिखाते कि मरने के बाद भगवान मिलेगा। अभी तू वह चैतन्य हैः तत्त्वमसि। तेरा ही स्वभाव है 'ॐ'कार गुंजाना। 'ॐ'कार तेरे आत्म-स्वभाव से निकलता है। इसलिए तू अभी चैतन्य है।
दुराचारी मन ने, पापाचारी इच्छाओं ने, भयभीत विचारों ने राग-द्वेष के तरंगों ने तुम्हें अपनी महिमा से वंचित रखा था। अब गुरू का ज्ञान पचाने का अधिकार हो रहा है इसलिए भय के विचार, राग-द्वेष की आग, विषमता की चेष्टाएँ आदि को विदा देकर देहाध्यास को छोड़। गुरू अपने परमात्म-भाव में स्थित होकर तुम्हें आत्मा में जगा रहे हैं जो वास्तव में सत्य है। यही सर्व सफलताओं की कुंजी है। 'मैं आत्मा हूँ' यह बिल्कुल हकीकत है। 'मैं चैतन्य हूँ' यह बिल्कुल सच्ची बात है। 'मेरा आत्मा ही परमात्मा है' बिल्कुल निःसन्देह है।
मैं अपने अनुभूत आत्मस्वभाव में जग रहा हूँ। देह की मान्यताओं से मैं मर रहा था और जन्म हो रहा था। अब आत्मा के स्वभाव से मैं अपने अमर स्वभाव में आ रहा हूँ।
शिष्य के ये अनुभवयुक्त वचन सुनकर गुरूवाणी भीतर से प्रकट हुईः
'हे पुत्र ! इस देहाध्यास ने तुझे चिर काल से बाँध रखा था। अब ॐकार का गुँजन करके देहाभिमान को भगाकर आत्म-अभिमान को जगा दे। काँटे से काँटा निकलता है। जीवभाव को हटाने के लिए अपने चैतन्य स्वभाव को, अपने आत्मस्वभाव को जगाओ। विकार और विषयों के आकर्षण को हटाने के लिए अपने आत्मानन्द को जगाओ। अपने आत्मा के सुख में सुखी हो जाओ तो बाहर का सुख तुम्हें क्यों बाँधेगा ? उसकी कहाँ ताकत है तुम्हें बाँधने की ? तुम्हीं बँध जाते थे वत्स ! अब तुम मुझ मुक्त आत्मा की शरण में आये हो तो तुम भी मुक्त हो जाओ। ले लो यह ॐकार की गुँजन और ज्ञान की कैंची। काट दो मोह-ममता के जाल को। तुम्हें बाँध सके या नर्कों में ले जा सके अथवा स्वर्ग में फँसा सके ऐसी ताकत किसी में भी नहीं। तुम ही नर्क और स्वर्ग के रास्ते बनाकर उसमें पचने और फँसने जाते थे, अज्ञान के कारण। अब ज्ञान के प्रसाद से तुम्हारा अज्ञान भाग गया। अगर थोड़ा रहा हो तो मार दो 'ॐ' की गदा फिर से। प्रकट कर दो अपना आनन्द। प्रकट कर दो अपनी मस्ती। प्रकट कर दो अपनी निर्वासनिकता। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि सर्व मैं ही बना बैठा हूँ। मुझे नर्क का भय नहीं, स्वर्ग की लालसा नहींष मृत्यु मेरी होती नहीं। जन्म मेरा कभी था नहीं। मैं वह आत्मा हूँ।
तुम सब आत्मा ही हो। सब परमेश्वर हो। मैं भी वही हूँ। तुम भी वही हो। जो मैं हूँ वही तुम भी हो। जो तुम हो वह मैं हूँ।
हे किल्लोल करते पक्षी ! तुम भी चैतन्य देव हो। हे गगनगामी योगी ! तुम अपने चैतन्य स्वभाव को जानो। देह से जुड़कर तुम कब तक आकाशगमन करते रहोगे ? तुम तो चिदाकाश स्वरूप में विश्रान्ति पा लो।
हे आकाशचारी सिद्धों ! आकाश में विचरण करने वाले उत्तम कोटि के साधकों ! तुम अपने साध्य स्वभाव को जान लो। तुम तो धन्य हो ही जाओगे, तुम्हारी धन्यता का होना प्राकृतिक जीवों के लिए बहुत कुछ आशीर्वाद हो जाएगा।
हे सिद्धों ! तुम परम सिद्धता को पा लो। हे साधकों ! तुम परम साध्य को पा लो। परम साध्य तुम्हारा परमात्मा है न ! खूब मधुर अलौकिक अनुभूति में तुम गोता मारते जाओ। तुम अगर आनन्दस्वरूप न होते, सुखस्वरूप न होते तो अभी अपने आत्मस्वभाव की बात सुनते तुम इतने पवित्र, शांत और सुखस्वरूप नहीं हो सकते थे। तुम पहले से ही ऐसे थे। ज्यों-ज्यों भूल मिटती है त्यों-त्यों तुम्हें अपने स्वभाव की शांति और मस्ती आती है।
जय हो....! प्रभु तेरी जय हो....! हे गुरूदेव तुम्हारी जय हो....!
ना जीना है ना मरना है मगन अपने में रहना है।
आन पड़े सो सहना है,
आतम नशे में देह भुलाकर साक्षी होकर रहना है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Thursday, January 14, 2010



जीवनोपयोगी कुंजियाँ पुस्तक से - Jeevanopayogi Kunjiya pustak se

महानता के चार सिद्धांत - Mahanta ke chaar sidhant
हृदय की प्रसन्नता: जिसका हृदय जितना प्रसन्न, वह उतना ज्यादा महान होता है । जैसे- श्रीकृष्ण प्रसन्नता की पराकाष्ठा पर हैं । ॠषि का शाप मिला है, यदुवंशी आपस में ही लड़कर मार काट मचा रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं, फिर भी श्रीकृष्ण की बंसी बज रही हैं…
उदारता: श्रीकृष्ण प्रतिदिन सहस्रों गायों का दान करते थे । कुछ न कुछ देते थे । धन और योग्यता तो कईयों के पास होती है, लेकिन देने का सामर्थ्य सबके पास नहीं होता । जिसके पास जितनी उदारता होती है, वह उतना ही महान होता है ।
नम्रता: श्रीकृष्ण नम्रता के धनी थे । सुदामा के पैर धो रहे हैं श्रीकृष्ण ! जब उन्होंने देखा कि पैदल चलने से सुदामा के पैरों में काँटें चुभ गये हैं, उन्हें निकालने के लिए उन्होंने रुक्मिणीजी से सुई मँगवायी । सुई लाने में देर हो रही थी तो अपने दाँतों से ही काँटें खींचकर निकाले और सुदामा के पैर धोये… कितनी नम्रता !
युधिष्ठिर आते तो श्रीकृष्ण उठकर खड़े हो जाते थे । पांडवो के संधिदूत बनकर गये और वहाँ से लौटे तब भी उन्होंने युधिष्ठिर को प्रणाम करते हुए कहा: “महाराज ! हमने तो कौरवों से संधि करने का प्रयत्न किया, किंतु हम विफल रहे |”
ऐसे तो चालबाज लोग और सेठ लोग भी नम्र दिखते हैं | परंतु केवल दिखावटी नम्रता नहीं, हृदय की नम्रता होनी चाहिए । हृदय की नम्रता आपको महान बना देगी ।
समता: श्रीकृष्ण तो मानो, समता की मूर्ति थे । महाभारत का इतना बड़ा युद्ध हुआ, फिर भी कहते हैं कि “कौरव-पांडवों के युद्ध के समय यदि मेरे मन में पांडवों के प्रति राग न रहा हो और कौरवों के प्रति द्वेष न रहा हो तो मेरी समता के परीक्षार्थ यह बालक जीवित हो जाय | और बालक (परीक्षित) जीवित हो उठा…
जिसके जीवन में ये चार सदगुण हैं, वह अवश्य महान हो जाता है ।

साधना के छः विघ्न

निद्रा,

तंद्रा,

आलस्य,

मनोराज,

लय और

रसास्वाद

ये छ: साधना के बड़े विध्न हैं । अगर ये विध्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले ।
“जब हम माला लेकर जप करने बैठते हैं, तब मन कहीं से कहीं भागता है । फिर ‘मन नहीं लग रहा…’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं । घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है । काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है |” ऐसा क्यों होता है? यह एक व्यक्ति का नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है ।
कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा के दर्शन नहीं होते किंतु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया । ध्यान में से उठते है तो जम्हाई आने लगती है । यह ध्यान नहीं, लय हुआ । वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किंतु लय में ऐसा नहीं होता ।
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है । साधना करते-करते थोड़ा बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है ।
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते है तो नींद नहीं आती । यह भी साधना का एक विघ्न है ।
तंद्रा भी एक विघ्न है । नींद तो नहीं आती किंतु नींद जैसा लगता है । यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।
साधना करने में आलस्य आता है । “अभी नहीं, बाद में करेंगे…” ऐसा सोचते हैं तो यह भी एक विघ्न है ।
इन विघ्नों को जीतने के उपाय भी हैं ।
मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ॐ का जप करना चाहिए ।
स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए । सूक्ष्म निद्रा यानी तंद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए ।
आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए । सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा

निराशा के क्षणों में

अपने मन में हिम्मत और दृढ़ता का संचार करते हुए अपने आपसे कहो कि “मेरा जन्म परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने के लिए हुआ है, पराजित होने के लिए नहीं । मैं इश्वर का, चैतन्य का सनातन अंश हूँ । जीवन में सदैव सफलता व प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए ही मेरा जन्म हुआ है, असफलता या पराजय के लिए नहीं । मैं अपने मन में दीनता हीनता और पलायनवादिता के विचार कभी नहीं आने दूँगा । किसी भी कीमत पर मैं निराशा के हाथों अपनी शक्तियों का नाश नहीं होने दूँगा |”
दु:खाकार वृत्ति से दु:ख बनता है । वृत्ति बदलने की कला का उपयोग करके दु:खाकार वृत्ति को काट देना चाहिए ।
आज से ही निश्चय कर लो कि “आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता रहूँगा । नकारात्मक या फरियादात्मक विचार करके दु:ख को बढ़ाऊँगा नहीं, अपितु सुख दु:ख से परे आनंदस्वरुप आत्मा का चिन्तन करुँगा |”

Wednesday, January 13, 2010



ईश्वर की ओर पुस्तक से - Ishwar ki Or pustak se

दलदल में पहले आदमी का पैर धँस जाता है । फिर घुटने, फिर जाँघें, फिर नाभि, फिर छाती, फिर पूरा शरीर धँस जाता है । ऐसे ही संसार के दलदल में आदमी धँसता है । ‘थोड़ा सा यह कर लूँ, थोड़ा सा यह देख लूँ, थोड़ा सा यह खा लूँ, थोड़ा सा यह सुन लूँ ।’ प्रारम्भ में बीड़ी पीनेवाला जरा सी फूँक मारता है, फिर व्यसन में पूरा बँधता है । शराब पीनेवाला पहले जरा सा घूँट पीता है, फिर पूरा शराबी हो जाता है ।

ऐसे ही ममता के बन्धनवाले ममता में फँस जाते हैं । ‘जरा शरीर का ख्याल करें, जरा कुटुम्बियों का ख्याल करें … ।’ ‘जरा … जरा …’ करते करते बुद्धि संसार के ख्यालों से भर जाती है । जिस बुद्धि में परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, जिस बुद्धि में परमात्मशांति भरनी चाहिए उस बुद्धि में संसार का कचरा भरा हुआ है । सोते हैं तो भी संसार याद आता है, चलते हैं तो भी संसार याद आता है, जीते हैं तो संसार याद आता है और मरते… हैं … तो … भी … संसार… ही… याद… आता… है ।

सुना हुआ है स्वर्ग के बारे में, सुना हुआ है नरक के बारे में, सुना हुआ है भगवान के बारे में । यदि बुद्धि में से मोह हट जाए तो स्वर्ग नरक का मोह नहीं होगा, सुने हुए भोग्य पदार्थों का मोह नहीं होगा । मोह की निवृत्ति होने पर बुद्धि परमात्मा के सिवाय किसी में भी नहीं ठहरेगी । परमात्मा के सिवाय कहीं भी बुद्धि ठहरती है तो समझ लेना कि अभी अज्ञान जारी है । अमदावादवाला कहता है कि मुंबई में सुख है । मुंबईवाला कहता है कि कलकत्ते में सुख है । कलकत्तेवाला कहता है कि कश्मीर में सुख है । कश्मीरवाला कहता है कि मंगणी में सुख है । मंगणीवाला कहता हैं कि शादी में सुख है । शादीवाला कहता है कि बाल बच्चों में सुख है । बाल बच्चोंवाला कहता है कि निवृत्ति में सुख है । निवृत्तिवाला कहता है कि प्रवृत्ति में सुख है । मोह से भरी हुई बुद्धि अनेक रंग बदलती है । अनेक रंग बदलने के साथ अनेक अनेक जन्मों में भी ले जाती है ।
संसारी आदमी द्वेषी होता है । पामर आदमी को जितना राग होता है, उतना द्वेष होता है । भक्त होता है रागी । भगवान में राग करता है, आरती पूजा में राग करता है, मंदिर मूर्ति में राग करता है । जिज्ञासु में होती है जिज्ञासा । ज्ञानी में कुछ नहीं होता है । ज्ञानी गुणातीत होते हैं । मजे की बात है कि ज्ञानी में सब दिखेगा लेकिन ज्ञानी में कुछ होता नहीं । ज्ञानी से सब गुजर जाता है ।

बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आत्मविचार की जरुरत है, ध्यान की जरुरत है, जप की जरुरत है । बुद्धि शुद्ध हो तो जैसे दूसरे शरीर को अपनेसे पृथक् देखते हैं वैसे ही अपने शरीर को भी आप अपनेसे अलग देखेंगे । ऐसा अनुभव जब तक नहीं होता, तब तक बुद्धि में मोह होने की संभावना रहती है ।

पक्षियों से जरा सीख लो । उनको आज खाने को है, कल का कोई पता नहीं फिर भी पेड़ की डाली पर गुनगुना लेते हैं, कोलाहल कर लेते हैं । कब कहाँ जायेंगे, कोई पता नहीं फिर भी निश्चिंतता से जी लेते हैं । हमारे पास रहने को घर है, खाने को अन्न है - महीने भर का, साल भर का । फिर भी दे धमाधम ! सामान सौ साल का, पता पल का नहीं ।
जिनको बैठने का ठिकाना नहीं, डाल पर बैठ लेते हैं, दूसरे पल कौन सी डाल पर जाना है, कोई पता नहीं, ऐसे पक्षी भी आनंद से जी लेते हैं । क्या खायेंगे, कहाँ खायेंगे, कोई पता नहीं। उनका कोई कार्यक्रम नहीं होता कि आज वहाँ ‘डिनर’ (भोज) है । फिर भी जी लेते हैं । भूख के कारण नहीं मरते, रहने का स्थान नहीं मिलता इसके कारण नहीं मरते । मौत जब आती है तब मरते हैं ।

आत्म प्राप्ति के राही के लिए महापुरुषों की सेवा अत्यंत कल्याणकारी है। बिना सेवा के ब्रह्मविधा मिलती या फलीभूत नहीं होती । ब्रह्मविधा के ठहराव के लिए शुद्ध अंत करण की आवश्यकता है । सेवा से अंत करण शुद्ध होता है, नम्रता आदि सद्गुण आते हैं। शाखाओं का झुकना फलयुक्त होने का चिह्न है, इसी तरह नम्र तथा शुद्ध अंत करण में ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । यही ब्रह्मविधा की पहचान है।

ईश्वर के मार्ग पर चलनेवाले सौभाग्यशाली भक्तों को ये छ: बातें जीवन में अपना लेनी चाहिए:
1) ईश्वर को अपना मानो । ‘ईश्वर मेरा है । मैं ईश्वर का हूँ।’

2) जप, ध्यान, पूजा, सेवा खूब प्रेम से करो।

3) जप, ध्यान, भजन, साधना को जितना हो सके उतना गुप्त रखो।

4) जीवन को ऐसा बनाओ कि लोगों में आपकी माँग हुआ करे। उन्हें आपकी अनुपस्थिति चुभे। कार्य में कुशलता और चतुराई बढ़ाये । प्रत्येक क्रिया कलाप, बोल चाल सुचारु रुप से करें। कम समय में, कम खर्च में सुन्दर कार्य करें। अपनी आजीविका के लिए, जीवननिर्वाह के लिए जो कार्य करें उसे कुशलतापूर्वक करें, रसपूर्वक करें। इससे शक्तियों का विकास होगा । फिर वह कार्य भले ही नौकरी हो। कुशलतापूर्वक करने से कोई विशेष बाह्म लाभ न होता हो फिर भी इससे आपकी योग्यता बढ़ेगी, यही आपकी पूँजी बन जाएगी । नौकरी चली जाए तो भी यह पूँजी आपसे कोई छीन नहीं सकता । नौकरी भी इस प्रकार करो कि स्वामी प्रसन्न हो जाये । यह सब रुपयों पैसों के लिए, मान बड़ाई के लिए, वाहवाही के लिए नहीं परंतु अपने अंत : करण को निर्मल करने के लिए करें जिससे परमात्मा के लिए आपका प्रेम बढ़े । ईश्वरानुराग बढ़ाने के लिए ही प्रेम से सेवा करें, उत्साह से काम धंधा करें।

5) व्यक्तिगत खर्च कम करें। जीवन में संतोष लाएँ।

6) सदैव श्रेष्ठ कार्य में लगे रहें। समय बहुत ही मूल्यवान् है। समय के बराबर मूल्यवान् अन्य कोई वस्तु नहीं है। समय देने से सब मिलता है
परंतु सब कुछ देने से भी समय नहीं मिलता । धन तिजोरी में संग्रहीत कर सकते हैं परंतु समय तिजोरी में नहीं संजोया जा सकता । ऐसे अमुल्य समय को श्रेष्ठ कार्यों में लगाकर सार्थक करें। सबसे श्रेष्ठ कार्य है सत्पुरुषों का संग, सत्संग ।

Tuesday, January 12, 2010



इष्टसिद्धि पुस्तक से - Isht-Sidhi pustak se

मंत्र ऐसा साधन है कि हमारे भीतर सोयी हुई चेतना को वह जगा देता है, हमारी महानता को प्रकट कर देता है, हमारी सुषुप्त शक्तियों को विकसित कर देता है।
सदगुरु से प्राप्त मंत्र का ठीक प्रकार से, विधि एवं अर्थसहित, प्रेमपूर्ण हृदय से जप किया जाय तो क्या नहीं हो सकता? जैसे टेलिफोन के डायल पर नम्बर ठीक से घुमाया जाय तो विश्व के किसी भी देश के कोने में स्थित व्यक्ति से बातचीत हो सकती है वैसे ही मंत्र का ठीक से जप करने से सिद्धि मिल सकती है। जब टेलिफोन के इतने छोटे-से डायल का ठीक से उपयोग करके हम विश्व के किसी भी देश के कोने में स्थित व्यक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ सकते हैं तो भीतर के डायल का ठीक से उपयोग करके विश्वेश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लें इसमें क्या आश्चर्य है? विश्व का टेलिफोन तो कभी ‘एन्गेज’ मिलता है लेकिन विश्वेश्वर का टेलिफोन कभी ‘एन्गेज’ नहीं होता। वह सर्वत्र और सदा तत्पर है। हाँ... नम्बर घुमाने में जरा-सा हेर-फेर किया तो राँग नम्बर लगेगा। घण्टी बजानी है कहाँ और बजती है कहीं और । इस प्रकार मंत्र में भी थोड़ा सा हेर-फेर कर दें, मनमानी चला दें तो परिणाम ठीक से नहीं मिलेगा।
आज कल धर्म का प्रचार इतना होते हुए भी मानव के जीवन में देखा जाय तो वह तसल्ली नहीं, वह संगीत नहीं, वह आनन्द नहीं जो होना चाहिए। क्या कारण है ? विश्वेश्वर से संपर्क करने के लिए ठीक से नम्बर जोड़ना नहीं आता। मंत्र का अर्थ नहीं समझते, अनुष्ठान की विधि नहीं जानते या जानते हुए भी लापरवाही करते हैं तो मंत्र सिद्ध नहीं होता।
मंत्र जपने कि विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्रानुष्ठान की विधि हम जान लें तो हमारी योग्यता खिल उठती है। हम विश्वेश्वर के साथ एक हो सकते हैं। अरे ! 'हम स्वयं विश्वेश्वर हैं....' ऐसा साक्षात्कार कर सकते हैं।

घर में जप करने से जो फल होता है उससे दसगुना फल गौशाला में जप करने से होता है। हाँ, उस गौशाला में गायों के साथ बैल नहीं होना चाहिए। यदि वहाँ बैल होगा तो उनमें एक-दूसरे के चुम्बकत्व से 'वायब्रेशन' गन्दे होते हैं।
जंगल में जप करने से घर की अपेक्षा सौ गुना फल होता है। तालाब या सरोवर के किनारे हजारगुना फल होता है, नदी या सागर के तीर, पर्वत या शिवालय में लाखगुना फल होता है। जहाँ ज्ञान का सागर लहराया हो, ज्ञान की चर्चा हुई हो, जहाँ पहले कोई ज्ञानी हो गये हों ऐसे कोई तीर्थ में अनुष्ठान करना इन सबसे श्रेष्ठ है। यदि सदगुरु के पावन सान्निध्य में, जीवित ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के मार्गदर्शन में अनुष्ठान करने का सौभाग्य मिल जाय तो अनन्तगुना फल होता है।
प्रतिदिन नियमपूर्वक एकान्त में बैठकर मन से सम्पूर्ण संसार को भूल जाओ। इस प्रकार संसार को भुला देने से केवल एक चैतन्य आत्मा शेष रह जायेगा। तब उस चैतन्यस्वरूप का ध्यान करो। ध्यान करने से समाधि सिद्ध होगी और मुक्ति मिलेगी।
जो आदमी यम-नियम से चलता है उसकी वासनाएँ शुद्ध होती हैं। गलत कर्म रुक जाते हैं। धर्म से वासनाएँ शुद्ध होती हैं। उपासना से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं और ज्ञान से वासनाएँ बाधित होती हैं।

इष्ट मजबूत हो तो हमारा अनिष्ट नहीं होता। आत्मभाव मजबूत हो, 'सुदर्शन' ठीक हो तो कुदर्शन हम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। आत्मनिष्ठा मजबूत हो गई तो कोई देहधारी हमें परेशान नहीं कर सकता।
आनन्द परमात्मा का स्वरूप है। चारों तरफ बाहर-भीतर आनन्द-ही-आनन्द भरा हुआ है। सारे संसार में आनन्द छाया हुआ है। यदि ऐसा दिखलाई न दे तो वाणी से केवल कहते रहो और मन से मानते रहो। जल में गोता खा जाने, डूब जाने के समान निरन्तर आनन्द ही में डूबे रहो, आनन्द में गोता लगाते रहो। रात-दिन आनन्द में मग्न रहो। किसी की मृत्यु हो जाये, घर में आग लग जाय अथवा और भी कोई अनिष्ट कार्य हो जाये, तो भी आनन्द-ही-आनन्द... केवल आनन्द-ही-आनन्द...

शरीर का लालन-पालन थोड़ा कम करेंगे तो क्या हो जायेगा ? शरीर की सँभाल नहीं लेंगे तो क्या वग दो दिनों में गिर जायेगा? नहीं। ईश्वर में मस्त रहोगे तो शरीर के खान-पान प्रारब्ध वेग से चलते रहेंगे। ईश्वर को छोड़कर शरीर के पीछे अधिक समय व शक्ति लगाओ नहीं। 'यह शरीर ईश्वर का संदेश देने के लिए प्रकट हुआ है। जब तक यह कार्य पूरा नहीं होगा तब तक वह गिरेगा नहीं.....' ऐसा समझकर साधना, ध्यान भजन में लग जाओ। शरीर की चिन्ता छोड़ दो। मरने वाले तो पलंग पर भी मर जाते हैं और बचने वाले भयानक दुर्घटनाओं में भी बच जाते हैं।


गुरूभक्तियोग पुस्तक से - Guru Bhaktiyog Pustak se

प.पू. संत श्री आसारामजी बापूः एक अदभुत विभूति

ध्यान और योग के अनुभव कैसे प्राप्त किये जाएँ? पूजा पाठ, जप-तप ध्यान करने पर भी जीवन में व्याप्त अतृप्ति का कैसे निवारण करें? ईश्वर में कैसे मन लगायें? अपने अंदर ही निहित आत्मानंद के खजाने को कैसे खोलें? व्यावहारिक जीवन में परेशान करने वाले भय, चिन्ता, निराशा, हताशा, आदि को जीवन से दूर कैसे भगायें? निश्चिंतता, निर्भयता, निरन्तर प्रसन्नता प्राप्त करके जीवन को आनन्द से कैसे महकायें? अपने प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आनन्द-स्वरूप ईश्वर के अस्तित्व की झाँकी हम अपने हृदय में कैसे पायें? क्या आज भी यह सब सम्भव है?
हाँ, सम्भव है, अवश्यमेव। मानव को चिंतित बनाने वाले इन प्रश्नों का समाधान साधना के निश्चित परिणामों के द्वारा कराके पिपासु साधकों के जीवन को ईश्वराभिमुख करके उन्हें मधुरता प्रदान करने वाले ऋषि-महर्षि और संत-महापुरूष आज भी समाज में मौजूद है। 'बहुरत्ना वसुन्धरा।' इन संत महापुरूषों की सुगंधित हारमाला में पूज्य संत श्री आसारामजी बापू एक पूर्ण विकसित सुमधुर पुष्प हैं।
अहमदाबाद शहर में, किन्तु शहरी वातावरण से दूर साबरमती नदी की मनमोहक प्राकृतिक गोद में त्वरित गति से विकसित हुए उनके पावन आश्रम के अध्यात्मपोषक वातावरण में आज हजारों साधक जाकर भक्तियोग, नादानुसंधानयोग, ज्ञानयोग एवं कुण्डलिनी योग की शक्तिपात वर्षा का लाभ उठाकर अपने व्यक्तिगत पारमार्थिक जीवन को अधिकाधिक उन्नत एवं आनन्दमय बना रहे हैं। चित्त में समता का प्रसाद पाकर वे व्यावहारिक जीवन-नौका को बड़े ही उत्साह से खे-खेकर निहाल होते जाते हैं।
प्राचीन ऋषि कुलों का स्मरण कराने वाले इस पावन आश्रम में कुण्डलिनी योग की सच्ची अनुभूति कराके आत्मिक प्रेमसागर में डुबकी लगवाने वाले, मानव समुदाय को ईश्वरीय आनन्द में सराबोर करने वाले, तप्त हृदयवाले हजारो संसारयात्रियों के आश्रयदाता, वट-वृक्षतुल्य, प्रेमपूर्ण हृदयवाले, अगमनिगम के औलिया, परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू ने सहज सान्निध्य एवं सत्संग मात्र लोगो को वेदान्त के अमृत-रस का स्वाद चखा रहे हैं।
संत श्री के नाम को सुनकर, उनकी पुस्तकें पढ़कर अनेक सज्जन उनके दर्शन और मुलाकात के लिए कुतूहलवश एक बार उनके आश्रम में आते है, फिर तो वे नियमित आने वाले साधक बनकर योग और वेदान्त के रसिक बन जाते हैं। वे अपने जीवन-प्रवाह को अमृतमय आनन्द-सिन्धु की तरफ बहते हुए देखकर हृदय में गदगदित हो जाते हैं, आनन्द में सराबोर हो जाते हैं।

एक अजब योगी

आश्रम में जाकर पूज्यश्री के दर्शन और आध्यात्मिक तेज से उद्दीप्त नयनामृत से सिक्त एक सुप्रसिद्ध लेखक, वक्ता, तंत्री सज्जन ने लिखा हैः
"कोई मुझसे पूछे की अहमदाबाद के आसपास कौन सच्चा योगी है ? मैं तुरन्त संत श्री आसारामजी बापू का नाम दूँगा। साबरतट स्थित एक भव्य एवं विशाल आश्रम में विराजमान इन दिव्यात्मा महापुरूष का दर्शन करना, वास्तव में जीवन की एक उपलब्धि है। उनके निकट में पहुँचना, निश्चित ही अहोभाग्य की सीमा पर पहुँचना है।
योगियों की खोज में मैं काफी भटका हूँ, पर्वत और गुफाओं के चक्कर काटने में कभी पीछे मुड़कर देखा तक नहीं। परन्तु प्रभुत्वशाली व्यक्ति के महाधनी ऐसे संत श्री आसारामजी बापू से मिलते ही मेरे अन्तर में प्रतीति सी हो गई कि यहाँ तो शुद्धतम सुवर्ण ही सुवर्ण है।

प्रेम और प्रज्ञा के सागर

संत श्री की आँखों में ऐसा दिव्य तेज जगमगाया करता है कि उनके अन्दर की गहरी अतल दिव्यता में डूब जाने की कामना करने वाला क्षणभर में ही उसमें डूब जाता है। मानो, उन आँखों में प्रेम और प्रकाश का असीम सागर हिलौरें ले रहा है।
वे सरल भी इतने कि छोटे-छोटे बालकों की तरह व्यवहार करने लगें। उनमें ज्ञान भी ऐसा अदभुत कि विकट पहेली को पलभर में सुलझा कर रख दें। उनकी वाणी की बुनकार ऐसी कि सजगता के तट पर सोनेवाले को क्षणभर में जगाकर ज्ञान-
सागर की मस्ती में लीन कर दें।

अनेक शक्तियों के स्वामी

अन्यत्र कहीं देखी न गई हो ऐसी योगसिद्धि मैंने अनेक बार उनमें देखी है। अनेक दरिद्रों को उन्होंने सुख और समृद्धि के सागर में सैर करने वाले बना दिये हैं। उनके चुम्बकीय शक्ति-सम्पन्न पावन सान्निध्य में असंख्य साधकों द्वारा स्वानुभूत चमत्कारों और दिव्य अनुभवों का आलेखन करने लगूँ तो एक विराट भागवत कथा तैयार हो जाय। आगत व्यक्ति के मन को जान लेने की शक्ति तो उनमें इतनी तीव्रता से सक्रिय रहती है मानो समस्त नभमण्डल को वे अपने हाथों में लेकर देख रहे हों।
ऐसे परम सिद्ध पुरूष के सान्निध्य में, उनकी प्रेरक पावन अमृतवाणी में से आपकी जीवन-समस्याओं का सांगोपांग हल आपको अवश्य मिल जायगा।
साबरतट पर स्थित चैतन्य लोक तुल्य संत श्री आसारामजी आश्रम में प्रविष्ट होते ही एक अदभुत शान्ति की अनुभूति होने लगती है। प्रत्येक रविवार और बुधवार को दोपहर 11 बजे से और हररोज शाम 6 बजे से एवं ध्यानयोग शिविरों के दौरान आश्रम में ज्ञानगंगा उमड़ती रहती है। आध्यात्मिक अनुभूतियों के उपवन लहलहाते हैं। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण मानो एक चैतन्य विद्युत्तेज से छलछलाता है। परम चैतन्य मानो स्वयं ही मूर्त्त स्वरूप धारण कर प्रेम और प्रकाश का सागर लहराते है। विद्यार्थियों के लिए आयोजित योग शिविरों में अनेक विद्यार्थियों एवं अध्यापकों ने अपने जीवन विकास का अनोखा पथ पा लिया है।
पूज्य बापूजी का विद्युन्मय व्यक्तित्व, अन्तस्तल की गहराई में से उमड़ती हुई वाणी की गंगधारा और आश्रम के समग्र वातावरण में फैलती हुई दिव्यता का आस्वाद एक बार भी जिस किसी को मिल जाता है वह कदापि उसे भूल नहीं सकता। जो अपने उर के आँगन में अमृत ग्रहण करने के लिए तत्पर हो, उसे अमृत का आस्वाद अवश्य मिल जाता है।
ब्रह्मनिष्ठ, योगसिद्ध, माधुर्य के महासिन्धु समान संत श्री आसाराम जी बापू का सान्निध्य- सेवन करने वाले का और अमृतवर्षा को संग्रहित करने वाले का अल्प पुरूषार्थ भी व्यर्थ नहीं जायेगा ऐसा अनेकों का अनुभव बोल रहा है।

गुरूतत्त्व

जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने से पुत्र या पौत्र खुश होता है इसी प्रकार गुरू की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है। गुरू, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं मानना। गुरू ही ईश्वर हैं। उनको केवल मानव ही नहीं मानना। जिस स्थान में गुरू निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास हैं। जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है। उनके पावन चरणों का पानी गंगाजी स्वयं हैं। उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्त्ता ब्रह्मा स्वयं ही हैं।
गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।
गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं।
गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।
जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
बुरे चरित्रवाला व्यक्ति गुरू नहीं हो सकता। शक्तिशाली शिष्यों को कभी शक्तिशाली गुरूओं की कमी नहीं रहती। शिष्य को गुरू में जितनी श्रद्धा होती है उतने फल की उसे प्राप्ति होती है। किसी आदमी के पास अगर यूनिवर्सिटी की उपाधियाँ हों तो इससे वह गुरू की कसौटी करने की योग्यतावाला नहीं बन जाता। गुरू के आध्यात्मिक ज्ञान की कसौटी करना यह किसी भी मनुष्य के लिए मूर्खता एवं उद्दण्डता की पराकाष्ठा है। ऐसा व्यक्ति दुनियावी ज्ञान के मिथ्याभिमान से अन्ध बना हुआ है।

Monday, January 11, 2010


श्री नारायण स्तुति पुस्तक से - Shri Narayan Stuti pustak se

चतुःश्लोकी भागवत - Chatuh-shloki Bhagvat

ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किये जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों मे दिया था। वही मूल चतुःश्लोकी भागवत है।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽरम्यहम्।।1।।
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मया यथाऽऽभासो यथा तमः।।2।।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।3।।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।4।।

सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टिरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ।(1)

जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।(2)

जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे सम्पृक्त हूँ।(3)

आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है।(4)

इस चतुःश्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण से मनुष्य के अज्ञानजनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वास्तविक ज्ञानरूपी सूर्य का उदय होता है।

रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.
बापू मेरा चाँद वर्गा
एस दी कृपा बड़ी निराली
वेख लें दे मथा टेक लें दे
रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.

बापू सदगुरु बनकर आया मैंने वेख लें दे.रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.

बूटे बूटे पानी लावे
सूखे बुटे हरे बनावे
नि ओ माली बनकर आया मैनू वेख लें दे
मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.
रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.


चिट्टा चिट्टा चोला पावे
सिर ते सोणी टोपी लावे
हाथ विच फुल्ला दा हार मैनू वेख लें दे
रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.

नाम दी उसने पयाऊ लगाई
हरी ॐ नाल दुनिया झुमाई
नाम दा अमृत मैंने पीके वेख लें दे.
रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.


बर्हमज्ञान दी महक पिलावे
जो कोई धयावे ओही तर जावे
बर्हम दा प्रेम स्वरूप मैंने वेख लें दे.
रब मेरा सदगुरु बनके आया मैनू वेख लें दे. मैनू वेख लें दे मथा टेक लें दे.

जोगी रे हम तो लुट गये तेरे प्यार में

जोगी रे हम तो लुट गये तेरे प्यार में

जाने ना जाने ना तुझको खबर कब होगी

चन्दा भी देखा तारे भी देखे देखा सूरज बरसों

जब से मैंने तुमको देखा मन में फूली सरसों

हाय हाय जोगी रे हम तो लुट गये.......

सूरत तेरी बड़ी है प्यारी अखियाँ हैं मतवाली

नज़र उतारूँ तेरी गुरूवर जाऊँ वारी वारी

हाय हाय जोगी रे..............

तेरा रूप है सबसे न्यारा तू सबका रखवाला

सबको नाच नचावे जोगी कैसा भोला भाला

हाय हाय जोगी रे.............

जब से मैंने तुमको देखा छूट गयी मनमानी

साँस साँस में नाम रटूँ तेरा हो गई मैं दीवानी

हाय हाय जोगी रे............

मेरे दिलबर मेरे रहबर साथ सदा मेरे रहना

दूर न होना हमसे जोगी ऐसा तुमसे कहना

हाय हाय जोगी रे.....

तन मन में बस जाओ जोगी यह है मेरी मर्जी

इसको मेरा भाव समझ लो या समझो खुदगर्जी

हाय हाय जोगी रे......

तुम ही तुम हो मेरे दिल में और कोई न रहता

मेरी साँसों की सरगम में तेरा नाम है रहता

हाय हाय जोगी रे......

तेरे प्रेम में मैं बह जाऊँ मूरत मनवा बसाऊँ

तेरा सुमिरन करके जोगी भव सागर तर जाऊँ

हाय हाय जोगी रे.............

तुझसे ही है ये हरियाली महके डाली डाली

जो भी तुमको देखे जोगी छाये मुख पे लाली

हाय हाय जोगी रे............

ज्ञान की ज्योति तुम हो जगाते भक्ति की धारा बहाते

आनंद आनंद सबको आता दौड़ के द्वार पे आते

हाय हाय जोगी रे..........

तेरा दर्शन हर पल माँगू और न माँगू कुछ भी

तेरी इक मुस्कान पे वारूँ अपनी जिंदगी सारी

हाय हाय जोगी रे...........

बुरा हो इन बैरन अखियन का कर बैठीं नादानी

पहले मन में आग लगायी अब बरसाये पानी

हाय हाय जोगी रे................

तेरे प्रेम में नीर बहाऊँ मूरत मन में बसाऊँ

तेरी याद में मेरे जोगी मैं बलिहारी जाऊँ

हाय हाय जोगी रे..........

उलटी प्रीत है जग की जोगी हाथ पकड़ कर तजना

साँची प्रीत है तेरी जोगी हाथ पकड़ नहीं तजना

हाय हाय जोगी रे...........

तेरे दर्श से मन हो पुलकित आनंद आनंद आये

तेरी अखियाँ ऐसे लागें जैसे हमें बुलायें

हाय हाय जोगी रे.....

Tuesday, January 5, 2010



हे प्रभु ! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये |
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये ||
लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें |
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें ||
हे प्रभु ......
निंदा किसीकी हम किसीसे भूल कर भी न करें |
इर्षा कभीभी हम किसीसे भूल कर भी न करें ||
सत्य बोलें झूट त्यागें मेल आपस में करें |
दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें ||
हे प्रभु ......
जाये हमारी आयु हे प्रभु ! लोगों के उपकार में |
हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में ||
हे प्रभु ......
कीजिये हम पर कृपा अब ऐसी हे परमात्मा |
मोह मद मत्सररहित होवे हमारी आत्मा ||
हे प्रभु ......
प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें |
प्रेम से हम संस्कृति की नित्य ही सेवा करें ||
हे प्रभु ......
योगविद्या ब्रह्मविद्या हो अधिक प्यारी हमें |
ब्रह्मविद्या प्राप्त करके सर्व हितकारी बनें ||
हे प्रभु ....