प्रभु-रसमय जीवन पुस्तक से
स्नेह है मधुर मिठास
सारी सृष्टि का आधार है सर्वव्यापक परमेश्वर और उसकी बनायी इस सृष्टि का नियामक, शासक बल है स्नेह, विशुद्ध प्रेम। निःस्वार्थ स्नेह यह सत्य, धर्म, कर्म सभी का श्रृंगार है अर्थात् ये सब तभी शोभा पाते हैं जब स्नेहयुक्त हों।
जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।
आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।
हम अपना देखने का दृष्टिकोण बदल दें तो हमारे लिए यह सारा संसार स्वर्ग से भी सुंदर बन जाय। अपने पराये का भेद मिट जाय, मेरे तेरे की भावना विलीन हो जाय और सुख का साम्राज्य छा जाय। हम सबको स्नेह दें, सबका मंगल चाहें। तिलांजलि दें परदोष-दर्शन को। किसी के हित की भावना से उसके दोष देखकर उसे सावधान करना अलग बात है किंतु दूसरों को सुधारने की धुन में हम खुद पतन की खाई में न गिरें, इसका ख्याल रहे।
परिवार के सदस्यों में पारस्परिक संबंध, भाव कैसे होने चाहिए, इसके विश्लेषण के लिए हम सास बहू का रिश्ता लें।
सास का कर्तव्य है कि बहू को बेटी जैसा ही स्नेह दे। बहू माँ-बाप का घर छोड़कर आयी है। उसे ससुराल में भी अपने मायके जैसा ही अनुभव हो, परायापन न लगे ऐसा उसके स्नेहमय व्यवहार करे। उसकी कमीबेशियों को डाँटकर नहीं प्यार से समझाकर दूर करे। बहू आने के बाद घर की जिम्मेदारी उसे सौंपकर केवल एक मार्गदर्शिका की भूमिका निभाये। ढलती उम्र में भी अपना अधिकार बनाये रखने की कोशिश न करें। सांसारिक बातों-व्यवहारों से विरक्त होकर भगवद-आराधन, सत्संग-श्रवण में समय बितायें। भगवान श्रीराम की माता कौशल्याजी का आदर्श सामने रखकर परलोक सँवारने का यत्न करें।
दूसरी ओर बहू का कर्तव्य है कि सास को अपनी माँ ही समझें, ʹमाँʹ कहकर पुकारे। विदेशियों जैसे ‘She is my mother-in-law’ कहने वाली बहुएँ अपने इस पावन रिश्ते में कायदे-कानून को घसीटकर इसे कानूनी रिश्ता बना देती हैं। फिर उऩ्हें अपनी सास से माँ के प्यार की आशा भी नहीं रखनी चाहिए। हम दूसरों से स्नेह चाहते हैं तो पहले हमें दूसरों से स्नेहभरा आचरण करना चाहिए। बहू घर के कार्यों में सास-ससुर की सलाह ले, अन्य बुजुर्गों की सलाह लें। इससे उनके प्रदीर्घ अनुभव का लाभ उसे मिलेगा। बड़ों से आदरयुक्त व्यवहार करे, उन्हें सम्मान दे और छोटों को स्नेह दे। रसोई बनाते समय घर के सभी सदस्यों के स्वास्थ्य को महत्ता दे व रुचिकर, ऋतु-अनुकूल, प्रकृति-अनुकूल भोजन बनाये।
सास-बहू दोनों का कर्तव्य है कि बच्चों को उत्तम संस्कार दें। अपनी पावन संस्कृति एवं सनातन धर्म के अनुसार उचित-अनुचित की शिक्षा दें। अपनी भारतीय संस्कृति की हितकारी, पावन परम्पराओं को नष्ट न होने दें, आदरपूर्वक उनका पालन करें और आगे की पीढ़ियों को उनकी महत्ता बताकर यह धरोहर आगे बढ़ायें।
घर आने वाले व्यक्ति का मीठे वचनों से स्वागत करें। प्रसन्नता व मीठे, हितकारी वचनों से किया गया स्वागत फूल-हारों एवं मेवे-मिठाइयों से किये गये स्वागत से कई गुना श्रेष्ठ होता है। मधुर वाणी बोलने में हमारा जाता क्या है ? रूखे या कटु शब्दों के दूसरों के हृदय को दुःख पहुँचता है और मीठे वचनों से सुख।
व्यक्तिगत इच्छा को नहीं सद्भाव को पोषण दें। अपने-अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करें और स्नेह की मधुर मिठास छलकाते जायें। ऐसा करने से आपसी मनमुटाव, स्वार्थ-भावना मिट जायेगी और घर-बाहर का सारा वातावरण मधुमय, स्नेहमय हो जायेगा। मन, निर्मल, आनंदमय हो जायेगा।
निर्दोष-निःस्वार्थ प्रेम ही वशीकरण-मंत्र है, जो मनुष्य को ऊँची मंजिल तक ले जाता है। सच्ची-ऊँची मंजिल क्या है ? अपने प्रेम को पारिवारिक प्रेम के दायरे से बाहर निकालकर व्यापक बनाते हुए वैश्विक प्रेम में, भगवत्प्रेम में परिणत करना।
अपने कर्तव्य का तत्परतापूर्वक पालन और दूसरे के अधिकारों की प्रेमपूर्वक रक्षा-यही पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उन्नति का सूत्र है। और भी स्पष्ट रूप से कहें तो ʹअपने लिए कुछ न चाहो और भगवद्भाव से दूसरों की सेवा करो।ʹ यही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक उन्नति का महामंत्र है। क्या आप इसका आदर कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे ? यदि हाँ तो आपका जन्म-कर्म दिव्य हो ही गया मानो।
स्नेह है मधुर मिठास
सारी सृष्टि का आधार है सर्वव्यापक परमेश्वर और उसकी बनायी इस सृष्टि का नियामक, शासक बल है स्नेह, विशुद्ध प्रेम। निःस्वार्थ स्नेह यह सत्य, धर्म, कर्म सभी का श्रृंगार है अर्थात् ये सब तभी शोभा पाते हैं जब स्नेहयुक्त हों।
जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।
आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।
हम अपना देखने का दृष्टिकोण बदल दें तो हमारे लिए यह सारा संसार स्वर्ग से भी सुंदर बन जाय। अपने पराये का भेद मिट जाय, मेरे तेरे की भावना विलीन हो जाय और सुख का साम्राज्य छा जाय। हम सबको स्नेह दें, सबका मंगल चाहें। तिलांजलि दें परदोष-दर्शन को। किसी के हित की भावना से उसके दोष देखकर उसे सावधान करना अलग बात है किंतु दूसरों को सुधारने की धुन में हम खुद पतन की खाई में न गिरें, इसका ख्याल रहे।
परिवार के सदस्यों में पारस्परिक संबंध, भाव कैसे होने चाहिए, इसके विश्लेषण के लिए हम सास बहू का रिश्ता लें।
सास का कर्तव्य है कि बहू को बेटी जैसा ही स्नेह दे। बहू माँ-बाप का घर छोड़कर आयी है। उसे ससुराल में भी अपने मायके जैसा ही अनुभव हो, परायापन न लगे ऐसा उसके स्नेहमय व्यवहार करे। उसकी कमीबेशियों को डाँटकर नहीं प्यार से समझाकर दूर करे। बहू आने के बाद घर की जिम्मेदारी उसे सौंपकर केवल एक मार्गदर्शिका की भूमिका निभाये। ढलती उम्र में भी अपना अधिकार बनाये रखने की कोशिश न करें। सांसारिक बातों-व्यवहारों से विरक्त होकर भगवद-आराधन, सत्संग-श्रवण में समय बितायें। भगवान श्रीराम की माता कौशल्याजी का आदर्श सामने रखकर परलोक सँवारने का यत्न करें।
दूसरी ओर बहू का कर्तव्य है कि सास को अपनी माँ ही समझें, ʹमाँʹ कहकर पुकारे। विदेशियों जैसे ‘She is my mother-in-law’ कहने वाली बहुएँ अपने इस पावन रिश्ते में कायदे-कानून को घसीटकर इसे कानूनी रिश्ता बना देती हैं। फिर उऩ्हें अपनी सास से माँ के प्यार की आशा भी नहीं रखनी चाहिए। हम दूसरों से स्नेह चाहते हैं तो पहले हमें दूसरों से स्नेहभरा आचरण करना चाहिए। बहू घर के कार्यों में सास-ससुर की सलाह ले, अन्य बुजुर्गों की सलाह लें। इससे उनके प्रदीर्घ अनुभव का लाभ उसे मिलेगा। बड़ों से आदरयुक्त व्यवहार करे, उन्हें सम्मान दे और छोटों को स्नेह दे। रसोई बनाते समय घर के सभी सदस्यों के स्वास्थ्य को महत्ता दे व रुचिकर, ऋतु-अनुकूल, प्रकृति-अनुकूल भोजन बनाये।
सास-बहू दोनों का कर्तव्य है कि बच्चों को उत्तम संस्कार दें। अपनी पावन संस्कृति एवं सनातन धर्म के अनुसार उचित-अनुचित की शिक्षा दें। अपनी भारतीय संस्कृति की हितकारी, पावन परम्पराओं को नष्ट न होने दें, आदरपूर्वक उनका पालन करें और आगे की पीढ़ियों को उनकी महत्ता बताकर यह धरोहर आगे बढ़ायें।
घर आने वाले व्यक्ति का मीठे वचनों से स्वागत करें। प्रसन्नता व मीठे, हितकारी वचनों से किया गया स्वागत फूल-हारों एवं मेवे-मिठाइयों से किये गये स्वागत से कई गुना श्रेष्ठ होता है। मधुर वाणी बोलने में हमारा जाता क्या है ? रूखे या कटु शब्दों के दूसरों के हृदय को दुःख पहुँचता है और मीठे वचनों से सुख।
व्यक्तिगत इच्छा को नहीं सद्भाव को पोषण दें। अपने-अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करें और स्नेह की मधुर मिठास छलकाते जायें। ऐसा करने से आपसी मनमुटाव, स्वार्थ-भावना मिट जायेगी और घर-बाहर का सारा वातावरण मधुमय, स्नेहमय हो जायेगा। मन, निर्मल, आनंदमय हो जायेगा।
निर्दोष-निःस्वार्थ प्रेम ही वशीकरण-मंत्र है, जो मनुष्य को ऊँची मंजिल तक ले जाता है। सच्ची-ऊँची मंजिल क्या है ? अपने प्रेम को पारिवारिक प्रेम के दायरे से बाहर निकालकर व्यापक बनाते हुए वैश्विक प्रेम में, भगवत्प्रेम में परिणत करना।
अपने कर्तव्य का तत्परतापूर्वक पालन और दूसरे के अधिकारों की प्रेमपूर्वक रक्षा-यही पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उन्नति का सूत्र है। और भी स्पष्ट रूप से कहें तो ʹअपने लिए कुछ न चाहो और भगवद्भाव से दूसरों की सेवा करो।ʹ यही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक उन्नति का महामंत्र है। क्या आप इसका आदर कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे ? यदि हाँ तो आपका जन्म-कर्म दिव्य हो ही गया मानो।