पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, December 31, 2012

योग व उच्च संस्कार पुस्तक से

विद्यार्थियों के महान आचार्य

"हे  विद्यार्थियो ! तुम्हारे लिए असम्भव कुछ नहीं है, तुम सब कुछ कर सकते हो। दुर्बल विचारों को झाड़ फेंको। उठो, जागो.... जिनके जीवन में ऐहिक शिक्षा के साथ दीक्षा हो, प्रार्थना, ध्यान एवं उपासना के संस्कार हों, उनका जीवन महानता की सुवास से महक उठता है।" पूज्य बापू जी।
स्कूलों कॉलेजों में जो सिखाया जाता है वह आजीविका पाने के लिए उपयोगी हो सकता परंतु जीवन-निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण इस काल में यदि विद्यार्थी को उसकी सुषुप्त शक्तियों को जगाने की युक्तियाँ न मिलें, उद्यम, साहस, धैर्य आदि को जीवन में लाने की कुंजियाँ न मिलें, माता-पिता व गुरुजनों के आदर के सुसंस्कार न मिलें तो वह विद्यार्थी छोटी-छोटी बात में आत्महत्या करने पर उतारू होने वाला, सुशिक्षित विफल नागरिक बनेगा। खिन्न, व्यसनी, विकृत-स्वार्थी सोचवाला अशांत आत्मा बनेगा।
विद्यार्थियों को अपने सर्वांगीण विकास हेतु सर्व विद्याओं की जननी ब्रह्मविद्या के अनुभवनिष्ठ आचार्य पूज्य बापूजी के सत्संग-सान्निध्य में एवं विद्यार्थी तेजस्वी तालीम शिविरों में अवश्य जाना चाहिए। वहाँ हमें माता-पिता की सेवा के संस्कार एवं अपने जीवन-उत्थान का राजमार्ग मिल जाता है।

पूज्य श्री देश के विभिन्न स्थानों में घूम-घूमकर ʹविद्यार्थी तेजस्वी तालीम शिविरों के द्वारा तथा आपश्री की प्रेरणा से चलाये जा रहे 17000 बाल संस्कार केन्द्रों, विद्यालयों में चलाये जाने वाले ʹयोग व उच्च संस्कार शिक्षा कार्यक्रमों, ʹयुवाधन सुरक्षा अभियानोंʹ, ʹयुवा सेवा संघोंʹ व ʹमहिला उत्थान मंडलोंʹ के द्वारा राष्ट्र में बाल, युवा एवं नारी जागृति का शंखनाद कर रहे हैं। आप ʹसंयम-शिक्षाʹ के प्रबल पक्षधर हैं। आपके संयम-शिक्षा सदग्रंथ ʹदिव्य प्रेरणा-प्रकाशʹ की एक करोड़ बहत्तर लाख से भी अधिक प्रतियाँ बंट चुकी हैं। अखिल भारतीय साधु समाज के सचिव व संत समिति के महामंत्री श्री हंसदासजी महाराज ने भी इस सदग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

क्रिकेट मैचों में भारत की विजय में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले सफल तेज बॉलर इशांत शर्मा कहते हैं- "जब से मैंने पूज्य बापू जी का मार्गदर्शन व आशीर्वाद पाया है, तब से मेरे जीवन में सफलता का द्वार खुल गया है। ʹदिव्य प्रेरणा-प्रकाशʹ ग्रंथ देश के हर युवक-युवती को अवश्य पढ़ना चाहिए।"

पूज्यश्री की समझाने की शैली इतनी सूत्रात्मक, स्नेहात्मक, हितभरी और अदभुत है कि कितना भी कमजोर विद्यार्थी हो, उसे सफल जीवन की कुंजियाँ अच्छी तरह से के अनुभवनिष्ठ आचार्य हैं तो दूसरी और बाल मनोविज्ञान के समर्थ ज्ञाता भी। आप ʹबाले बालवताम्ʹ अर्थात् बालकों में बालवत् होकर हँसते-मुस्कराते उन्हें गीता और वेदान्त का सार भाग अत्यन्त सरल, सुलभ भाषा में बताते हैं।

न स्रेधन्तं रविर्नशत्। ʹअवसर चूकने वाले को श्री नहीं मिलती।ʹ (सामवेद, उत्तरार्धिकः 4.4.7)
पूज्य श्री की सारस्वत्य मंत्रदीक्षा, यौगिक प्रयोगों व सफलता की कुंजियों के अदभुत परिणाम आज समाज में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं- अनेक राष्ट्रस्तरीय संगीत प्रतियोगिताओं में प्रथम विजेता संगीत जगत की नवोदित गायिका भव्या पंडित अपनी सफलता का सम्पूर्ण श्रेय बापूजी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रदीक्षा व गुरुकृपा को देती हैं। ʹनेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कॉरपोरेशनʹ के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित युवा वैज्ञानिक एवं फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. राहुल कत्याल अपने कमजोर विद्यार्थी-जीवन को याद कर कहते हैं कि ʹʹपूज्य बापू जी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रदीक्षा प्रतिभा-विकास की संजीवनी बूटी है।" ऐसा ही कहना है अजय मिश्रा का, जिन्होंने दीक्षा द्वारा स्मृति की कमजोरी को भगाकर नोकिया में ʹग्लोबल प्रॉडक्ट मैनेजरʹ पद प्राप्त किया। वे सालाना करीब 30 लाख रूपये वेतन पाते हैं।

भैंसे चराने वाला व ढाई रूपये की टायर की चप्पल खरीदने में भी कठिनाई अनुभव करने वाला गरीब बालक क्षितिज सोनी पूज्य श्री से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र के अनुष्ठान व ʹश्री आसारामायण पाठʹ के प्रभाव से आज ʹगो एयरʹ (हवाई जहाज कम्पनी) में एयरक्रॉफ्ट इंजीनियर है व सालाना 21.60 लाख रूपये वेतन पा रहे हैं। एक ऐसे भी युवक हैं जिन्हें पूज्य श्री से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रदीक्षा व स्मृतिवर्धक यौगिक प्रयोगों ने विश्व के 25 अदभुत व्यक्तियों में स्थान दिला दिया है। वे हैं विरेन्द्र मेहता, जिन्होंने ऑक्सफोर्ड एडवास्ड लर्नर्स डिक्शनरीʹ के 80000 शब्दों को उनकी पृष्ठ-संख्यासहित याद कर विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है।

इसके सिवा लाखों ऐसे विद्यार्थी हैं जिन्हें ब्रह्मविद्या के आचार्य पूज्यश्री का मार्गदर्शन मिला और उनकी स्मृतिशक्ति, निर्णयक्षमता एवं अनेक सुषुप्त योग्यताओं का विलक्षण विकास हुआ है तथा हर क्षेत्र में सफलता उनके चरण चूमने लगी है। तभी तो बापूजी से दीक्षित सभी विद्यार्थियों का यह घोषवाक्य हैः बापूजी के बच्चे, नहीं रहते कच्चे।

पूज्य श्री के मार्गदर्शन में स्कूलों में गरीब विद्यार्थियों को पेन, पेंसिल, नोटबुक, स्कूल बैग, यूनिफार्म एवं प्रेरक सत्साहित्य आदि का निःशुल्क वितरण किया जाता है। आदिवासी क्षेत्रों के छात्रों में बिछायत, फर्नीचर, कपड़े वितरण के साथ बाल-भोज (भंडारा) का भी आयोजन किया जाता है।

छुट्टियों में विद्यार्थियों की दीनता हीनता व दुर्बलता की छुट्टी करने हेतु ʹविद्यार्थी उज्जवल भविष्य निर्माण शिविरोंʹ का एवं स्कूलों में योग व संस्कार शिक्षा प्रदान करने हेतु ʹयोग व उच्च संस्कार शिक्षाʹ अभियानों का आयोजन जोर-शोर से भी किया जा रहा है। छात्रों के विकास के लिए राष्ट्रस्तरीय ʹज्ञानप्रतियोगिताओंʹ का आयोजन भी किया जा रहा है, जिनसे मात्र चार वर्षों में 30 लाख से अधिक विद्यार्थी लाभान्वित हो चुके हैं।

देश के युवाओं को ʹवेलेन्टाइन डेʹ की पाश्चात्य आँधी से बचाने व माता-पिता एवं उनकी संतानों के बीच आपसी प्रेम बढ़ाने हेतु पूज्य बापू जी की पहल हैः ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ। यह हर वर्ष 14 फरवरी को घरों में एवं अनेक विद्यालयों में मनाया जाता है। विश्वप्रसिद्ध विभिन्न विभूतियों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

विद्यार्थियों के लिए पूज्य श्री के सत्संग की वी.सी.डी., एमपीथ्री तथा सत्साहित्य भी उपलब्ध है, जिनमें यादशक्ति बढ़ाने व परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने की युक्तियाँ तथा जीवन को सही दिशा देने वाले छोटे-छोटे प्रेरक प्रसंग हैं। इनका लाभ लेकर लाखों-लाखों युवानों का जीवन उन्नत हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। पूज्य बापू जी के विद्यार्थी-विशेष सत्संग, कीर्तन, सफल विद्यार्थियों के अनुभव आदि आप http://www.bsk.ashram.org पर देख सकते हैं।

समर्थ मार्गदर्शक पूज्य बापू जी संयम की शिक्षा देकर युवकों को सुदृढ़ शरीर, कुशाग्र बुद्धि, महान आत्मबल व बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न बनाकर राष्ट्र एवं विश्व को आदर्श नागरिक देना चाहते हैं। पूज्य श्री कहते हैं- ʹʹजिन व्यक्तियों के जीवन में संयम-व्यवहार नहीं है, वे न तो स्वयं की ठीक से उन्नति कर पाते हैं और न ही समाज में कोई महान कार्य कर पाते हैं। भौतिकता की विलासिता और अहंकार उनको ले डूबता है। वे रावण और कंस की परम्परा में जा डूबते हैं। ऐसे व्यक्तियों से बना हुआ समाज और देश भी सच्ची सुख-शांति व आध्यात्मिक उन्नति में पिछड़ जाता है।

हे भारत के विद्यार्थियो ! तुम संयम-सदाचारयुक्त जीवन जीकर अपना जीवन तो समुन्नत करो ही, साथ ही देश की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहो। वही सफल होता है जो आत्म-उन्नति करना जानता है। अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने वाले विदेशियों की कुचालों से सावधान रहो और अपनी संस्कृति की गरिमा बढ़ाओ। इसी में तुम्हारा व परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता का हित निहित है।"
धर्मणा वायुमा विश। ʹहे मानव ! तू धर्म के द्वारा ऊँचा उठ।ʹ (ऋग्वेदः 9.15.2)
प्रेता जयता नर। ʹआगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।ʹ (ऋग्वेदः 10.103.13)

Friday, November 9, 2012

प्रभु-रसमय जीवन  पुस्तक से

स्नेह है मधुर मिठास

सारी सृष्टि का आधार है सर्वव्यापक परमेश्वर और उसकी बनायी इस सृष्टि का नियामक, शासक बल है स्नेह, विशुद्ध प्रेम। निःस्वार्थ स्नेह यह सत्य, धर्म, कर्म सभी का श्रृंगार है अर्थात् ये सब तभी शोभा पाते हैं जब स्नेहयुक्त हों।

जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।

आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।

हम अपना देखने का दृष्टिकोण बदल दें तो हमारे लिए यह सारा संसार स्वर्ग से भी सुंदर बन जाय। अपने  पराये का भेद मिट जाय, मेरे तेरे की भावना विलीन हो जाय और सुख का साम्राज्य छा जाय। हम सबको स्नेह दें, सबका मंगल चाहें। तिलांजलि दें परदोष-दर्शन को। किसी के हित की भावना से उसके दोष देखकर उसे सावधान करना अलग बात है किंतु दूसरों को सुधारने की धुन में हम खुद पतन की खाई में न गिरें, इसका ख्याल रहे।

परिवार के सदस्यों में पारस्परिक संबंध, भाव कैसे होने चाहिए, इसके विश्लेषण के लिए हम सास बहू का रिश्ता लें।

सास का कर्तव्य है कि बहू को बेटी जैसा ही स्नेह दे। बहू माँ-बाप  का घर छोड़कर आयी है। उसे ससुराल में भी अपने मायके जैसा ही अनुभव हो, परायापन न लगे ऐसा उसके स्नेहमय व्यवहार करे। उसकी कमीबेशियों को डाँटकर नहीं प्यार से समझाकर दूर करे। बहू आने के बाद घर की जिम्मेदारी उसे सौंपकर केवल एक मार्गदर्शिका की भूमिका निभाये। ढलती उम्र में भी अपना अधिकार बनाये रखने की कोशिश न करें। सांसारिक बातों-व्यवहारों से विरक्त होकर भगवद-आराधन, सत्संग-श्रवण में समय बितायें। भगवान श्रीराम की माता कौशल्याजी का आदर्श सामने रखकर परलोक सँवारने का यत्न करें।

दूसरी ओर बहू का कर्तव्य है कि सास को अपनी माँ ही समझें, ʹमाँʹ कहकर पुकारे। विदेशियों जैसे ‘She is my mother-in-law’ कहने वाली बहुएँ अपने इस पावन रिश्ते में कायदे-कानून को घसीटकर इसे कानूनी रिश्ता बना देती हैं। फिर उऩ्हें अपनी सास से माँ के प्यार की आशा भी नहीं रखनी चाहिए। हम दूसरों से स्नेह चाहते हैं तो पहले हमें दूसरों से स्नेहभरा आचरण करना चाहिए। बहू घर के कार्यों में सास-ससुर की सलाह ले, अन्य बुजुर्गों की सलाह लें। इससे उनके प्रदीर्घ अनुभव का लाभ उसे मिलेगा। बड़ों से आदरयुक्त व्यवहार करे, उन्हें सम्मान दे और छोटों को स्नेह दे। रसोई बनाते समय घर के सभी सदस्यों के स्वास्थ्य को महत्ता दे व रुचिकर, ऋतु-अनुकूल, प्रकृति-अनुकूल भोजन बनाये।

सास-बहू दोनों का कर्तव्य है कि बच्चों को उत्तम संस्कार दें। अपनी पावन संस्कृति एवं सनातन धर्म के अनुसार उचित-अनुचित की शिक्षा दें। अपनी भारतीय संस्कृति की हितकारी, पावन परम्पराओं को नष्ट न होने दें, आदरपूर्वक उनका पालन करें और आगे की पीढ़ियों को उनकी महत्ता बताकर यह धरोहर आगे बढ़ायें।
घर आने वाले व्यक्ति का मीठे वचनों से स्वागत करें। प्रसन्नता व मीठे, हितकारी वचनों से किया गया स्वागत फूल-हारों एवं मेवे-मिठाइयों से किये गये स्वागत से कई गुना श्रेष्ठ होता है। मधुर वाणी बोलने में हमारा जाता क्या है ? रूखे या कटु शब्दों के दूसरों के हृदय को दुःख पहुँचता है और मीठे वचनों से सुख।
व्यक्तिगत इच्छा को नहीं सद्भाव को पोषण दें। अपने-अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करें और स्नेह की मधुर मिठास छलकाते जायें। ऐसा करने से आपसी मनमुटाव, स्वार्थ-भावना मिट जायेगी और घर-बाहर का सारा वातावरण मधुमय, स्नेहमय हो जायेगा। मन, निर्मल, आनंदमय हो जायेगा।

निर्दोष-निःस्वार्थ प्रेम ही वशीकरण-मंत्र है, जो मनुष्य को ऊँची मंजिल तक ले जाता है। सच्ची-ऊँची मंजिल क्या है ? अपने प्रेम को पारिवारिक प्रेम के दायरे से बाहर निकालकर व्यापक बनाते हुए वैश्विक प्रेम में, भगवत्प्रेम में परिणत करना।

अपने कर्तव्य का तत्परतापूर्वक पालन और दूसरे के अधिकारों की प्रेमपूर्वक रक्षा-यही पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उन्नति का सूत्र है। और भी स्पष्ट रूप से कहें तो ʹअपने लिए कुछ न चाहो और भगवद्भाव से दूसरों की सेवा करो।ʹ यही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक उन्नति का महामंत्र है। क्या आप इसका आदर कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे ? यदि हाँ तो आपका जन्म-कर्म दिव्य हो ही गया मानो।

Wednesday, September 26, 2012

प्रेरणा ज्योत पुस्तक से

वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य बनी पूज्य संत श्री आशारामजी की आभा

हरेक व्यक्ति के शरीर से एक आभा (ओरा) निकलती है। अब विज्ञान ने इसको मापने के लिए विशेष प्रकार के कैमरे व यंत्र विकसित कर लिये हैं। विश्वप्रसिद्ध आभा विशेषज्ञ डॉ. हीरा तापड़िया ने विश्वप्रसिद्ध संत श्री आशारामजी बापू का आभा चित्र खींचा तो वे आश्चर्यचकित रह गये। डॉ. तापड़िया कहते हैं-
"मैंने अब तक लगभग सात लाख से भी ज्यादा लोगों की आभा ली है, जिनमें एक हजार विशिष्ट व्यक्ति शामिल हैं जैसे बड़े संत, साध्वियाँ, प्रमुख व्यक्ति आदि।

संत श्री आशारामजी की आभा का अध्ययन कर मैंने पाया कि वह इतनी अधिक प्रभावशाली है कि कोई भी उनके पास आयेगा तो वह उनकी आभा से अभिभूत हो जायेगा, उनकी आभा के प्रभाव में रहेगा।
बापूजी की आभा में बैंगनी (वायलट रंग) है, जो यह दर्शाता है कि बापू जी आध्यात्मिकता के शिरोमणि हैं। यह सिद्ध ऋषि मुनियों में ही पाया जाता है। लालिमा यह दर्शाती है कि बापू जी शक्तिपात करते हैं, दूसरों की क्षीणता को पूर्णतः हर लेते हैं तथा अपनी शक्ति देते हैं। आसमानी रंग  उन्नत ऊँचाइयों में रहने वाली बापू जी की आभा का परिचायक है।

बापू जी का आभा में यह प्रमुखता मैंने पायी कि वे सम्पर्क में आये व्यक्ति की ऋणात्मक ऊर्जा को ध्वस्त कर धनात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं। बापूजी की आभा की एक खासियत यह भी है कि वे दूर से किसी को भी शक्ति दे सकते हैं। बापू जी के सत्संग में जब मैं गया था तो वहाँ जाँच करने पर मैंने देखा कि बापूजी की आभा अपने-आप रबड़ की तरह खिंचकर खूब लम्बी हो जाती है और वहाँ उपस्थित समूची भीड़ पर छा जाती है।

बापूजी की आभा देखकर मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य हुआ क्योंकि लगातार पिछले कम-से-कम दस जन्मों से बापू जी की समाजसेवा का यह पुनीत कार्य करते आ रहे हैं, जैसे – लोगों पर शक्तिपात करके उन्हें आध्यात्मिकता में लगाना, व्यसनमुक्त करना, स्वस्थ करना, समाज की बुराइयों को दूर करना, ज्ञानामृत बाँटना, आनंद बरसाना आदि। मुझे पिछले दस जन्मों तक का ही पता चल पाया, उसके पहले का पढ़ने की क्षमता मशीन में नहीं थी।
आज तक जितने भी लोगों की आभाएँ मैंने ली हैं, किसी को भी इतना उन्नत नहीं पाया है।"

Friday, September 7, 2012


बाल संस्कार केन्द्र कैसे चलायें  पुस्तक से - Bal Sanskar Kender kaise chalaye

प्रार्थना का प्रभाव - Prarthna Ka Prabhav

श्री लीलारामजी का जन्म जिस गाँव में हुआ था, वह महराब चांडाई नामक गाँव बहुत छोटा था। उस ज़माने में दुकान में बेचने के लिए सामान टँगेबाग से ताँगे द्वारा लाना पड़ता था। भाई लखुमल वस्तुओं की सूचि एवं पैसे देकर श्री लीलाराम जी को खरीदारी करने के लिए भेजते थे।

एक समय की बात हैः उस वर्ष मारवाड़ एवं थर में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। लखुमल ने पैसे देकर श्री लीलारामजी को दुकान के लिए खरीदारी करने को भेजा। श्री लीलारामजी खरीदारी करके माल-सामान की दो बैलगाड़ियाँ भर अपने गाँव लौट रहे थे। गाड़ियों में आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि था। रास्ते में एक जगह पर गरीब, अकाल-पीड़ित, अनाथ एवं भूखे लोगों ने श्री लीलाराम जी को घेर लिया। दुर्बल एवं भूख से व्याकुल लोग अनाज के लिए गिड़गिड़ाने लगे तो श्री लीलारामजी का हृदय पिघल उठा। वे सोचने लगे, ‘इस माल को मैं भाई की दुकान पर ले जाऊँगा। वहाँ से इसे खरीदकर भी मनुष्य ही खायेंगे न...? ये सब भी तो मनुष्य ही हैं। बाकी बची पैसे के लेन-देन की बात.. तो प्रभु के नाम पर भले ये लोग ही खा लें।’
श्री लीलारामजी ने बैलगाड़ियाँ खड़ी करवायीं और उन क्षुधापीड़ित लोगों से कहाः "यह रहा सब सामान। तुम लोग इसमें से भोजन बनाकर खा लो।

भूख से कुलबुलाते लोगों ने तो तुरंत ही दोनों बैलगाड़ियों को खाली कर दिया। श्री लीलारामजी भय से काँपते, थरथराते गाँव में पहुँचे। खाली बोरों को गोदाम में रख दिया। कुंजियाँ लखुमल के दे दीं। लखुमल ने पूछाः
"माल लाया?"
"हाँ।"
"कहाँ है?"
"गोदाम में।"
"अच्छा बेटा! जा, तू थक गया होगा। सामान का हिसाब कल देख लेंगे।"

दूसरे दिन श्री लीलारामजी दूकान पर गये ही नहीं। उन्हें तो पता था कि गोदाम में क्या माल रखा है। वे घबराये काँपने लगे। उनको काँपते देखकर लखुमल ने कहाः "अरे! तुझे तो बुखार आ गया? आज घर पर ही आराम कर।"

एक दिन... दो दिन... तीन दिन... श्री लीलारामजी बुखार के बहाने दिन बिता रहे हैं और भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं- "हे भगवान! अब तो तू ही जान। मैं कुछ नहीं जानता। हे करन-करावनहार स्वामी! तू ही सब कराता है। तूने ही भूखे लोगों को खिलाने की प्रेरणा दी। अब सब तेरे ही हाथ में है, प्रभु! तू मेरी लाज रखना। मैं कुछ नहीं, तू ही सब कुछ है..... "
एक दिन शाम को लखुमल अचानक श्री लीलारामजी के पास आये और बोलेः "लीला....लीला! तू कितना अच्छा माल लेकर आया है।"
श्री लीलारामजी घबराये। काँप उठे कि ‘अच्छा माल.... अच्छा माल.... कहकर अभी मेरा कान पकड़कर मारेंगे।’ वे हाथ जोड़ कर बोलेः
"मेरे से गलती हो गयी।"
"नहीं बेटा! गलती नहीं हुई। मुझे लगता था कि व्यापारी तुझे कहीं ठग न लें। ज़्यादा कीमत पर घटिया माल न पकड़ा दें किंतु सभी चीजें बढ़िया हैं। पैसे तो नहीं खूटे न?"
"नहीं पैसे तो पूरे हो गये और माल भी पूरा हो गया।"
"माल किस तरह से पूरा हो गया?"
श्री लीलारामजी जवाब देने में घबराने लगे तो लखुमल ने कहाः "नहीं बेटा! सब ठीक है। चल तुझे दिखाऊँ।"
ऐसा कहकर लखुमल श्री लीलारामजी का हाथ पकड़कर गोदाम में ले गये। श्री लीलाराम जी ने वहाँ जाकर देखा तो सभी बोरे माल-सामान से भरे हुए मिले! वे भावविभोर हो उठे और गदगद होते हुए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दियाः ‘प्रभु! तू कितना दयालु है... कितना कृपालु है!’

परोपकारी व्यक्ति का परमात्मा अवश्य मदद करते हैं। निर्दोष भाव से हृदयपूर्वक की गयी प्रार्थना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं, बिगड़े काम भी सँवर जाते हैं।

Tuesday, August 21, 2012

जीते जी मुक्ति पुस्तक से - Jitey ji Mukti Pustak se

विश्वास करोगे तो जागोगे..... vishvaas karoge to jagoge......

आत्मशक्ति क्षीण करने वाली दो मुख्य चीजें हैं- सुख की लालसा और दुःख का भय। जहाँ-जहाँ आकर्षण होता है, सुख लेने की इच्छा जगती है  वहाँ अन्तःकरण कमजोर होता है। आदमी सुख के लिए बेईमानी करता है, झूठ बोलता है, कपट करता है, न जाने कितने बखेड़े खड़े करता है। मूल में है सुख का आकर्षण।
दुःख का भय भी जीव को ऐसा ही कराता है।
तो आज से गाँठ बाँध लो कि, 'सुख के आकर्षण के समय सावधान रहूँगा और दुःख के भय के समय भी सावधान रहूँगा। हो होकर क्या होगा ? हजार हजार प्रलय हो गये आज तक, फिर भी मुझ अमर आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा। तो फिर गरीबी आये तो क्या और मृत्यु आये तो भी क्या ?'
ऐसा करके अपने आत्म-स्वरूप में आ जाओ। दुःख के भय से भयभीत मत बनो।
दो प्रकार के आदमी भयभीत नहीं होते हैं-
एक तो समझदार भयभीत नहीं होते क्योंकि वे शुद्ध आचरण में चले आते हैं। दूसरे बेशर्म लोग भयभीत नहीं होते, नक्कट्टे। वे दुराचार करते रहते हैं और मानते हैं कि हम निर्भय हैं। बाहर से वे निर्भय दिखते होंगे लेकिन भीतर से उनके कर्म  उनको कुरेद कुरेदकर खाते हैं। जो गुन्डा तत्व हैं वे निर्भय जैसे लगते हैं, वास्तव में वे निर्भय नहीं होते। उनकी तामसिक निर्भयता है। तामसिक और राजसिक निर्भयता नहीं अपितु सात्त्विक निर्भयता टिकती है। तामसिक और राजसिक निर्भयता तो ऊपर ऊपर से थोपी जाती है।
'मेरे पक्ष में इतने लोग हैं.... मेरी कुर्सी को हरकत नहीं होगी।' यह सत्तावालों की अपने ऊपर थोपी हुई और पराधीन निर्भयता है।

हमने ऐसे लोगों को देखा-सुना है जो कुर्सी पर थे, प्रधानमंत्री के पद पर थे और फिर जेल में जाते हुए भी सुना। जो जेल में थे वे प्रधानमंत्री हुए यह भी हमने देखा-सुना।
परिस्थितियाँ तो सदा बदलती रहती हैं। जो कैदी है वे राजा हो जाते हैं और जो राजा हैं वे कैदी हो जाते हैं। जो कंगाल हैं वे धनवान हो जाते हैं और जो धनवान हैं वे कंगाल हो जाते हैं। प्रसिद्ध व्यक्ति अप्रसिद्ध हो जाते हैं और अप्रसिद्ध लोग प्रसिद्ध हो जाते हैं। छोटे बड़े हो जाते हैं और बड़े छोटे हो जाते हैं। सुखी दुःखी हो जाते हैं। और दुःखी सुखी हो जाते है। ये परिस्थितियाँ तो आती ही रहेंगी। इन परिस्थितियों का ठीक उपयोग करने की कला आ जाय तो अपना साक्षी चैतन्य आँखमिचौली पूरी करके प्रकट हो जाता है।
'बापू....! वह प्रकट हो जाय इसलिए हममें व्याकुलता जग जाए.... कुछ आशीर्वाद दो.... तब प्रकट होगा....।'
अभी वह प्रकट है भैया। उसे देखने की कला सीख। यह कला सीखेगा तो तेरा स्नेह... तेरा भीतर का रस जागेगा। भीतर का रस जागेगा तो प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग करने की कला अपने आप आयेगी। जब तू सबमें उसको देखेगा, नहीं जानता है फिर भी वह सबमें है ऐसा तू विश्वास करेगा तो तेरे द्वारा अन्याय का व्यवहार कम हो जायेगा, तेरे द्वारा पक्षपात दूर होने लगेगा। तू बिलकुल आसानी से अपने चालू व्यवहार में परम पद का अनुभव करने में सफल हो जाएगा।

प्रारंभ में वह चैतन्य परमात्मा सर्वत्र नहीं दिखेगा। इसलिए उसको किसी मूर्ति में अथवा अपने शरीर के किसी केन्द्र में ध्यान करके अथवा उपासना के द्वारा एक जगह प्रकट करके देखो। जब परमात्मा एक जगह प्रकट हो गया फिर.... फिर वह रस, वह आनन्द, वह चेतना और वह 'मैं' सर्वत्र प्रकट दिखेगा।
फिर भी तुम सर्वत्र प्राकट्य की स्थिति में नहीं पहुँच सकते हो तो एक जगह तक तो पहुँचो। जैसे गीता में विभूति योग आता है। भगवान कहते हैं 'सब ऋषियों में कपिल मैं हूँ, सब गायों में कामधेनु गाय मैं हूँ, शब्दों में प्रणव मैं हूँ, वृक्षों में पीपल मैं हूँ.....' आदि आदि। भगवान सर्वत्र हैं फिर वृक्षों में पीपल में ही क्यों ? भगवान सबमें है तो एक कपिल मुनि में ही क्यों ?

भगवान सर्वत्र हैं यह ज्ञान पचाने की क्षमता नहीं है इसलिए भगवद प्रसाद जहाँ विशेष रूप से प्रकट हुआ है वहाँ तो कम से कम भगवान को देखो। इससे क्रमशः दृष्टि व्यापक हो जायेगी।
जैसे दूज का चन्द्रमा देखना है। जिसको ऐसे ही दिख जाता है उसके लिए कोई प्रश्न नहीं है लेकिन जिसको नहीं दिखता है उसको दिखाने के लिए सहारे देने पड़ते हैं- 'चाचा ! वहाँ देखो। वह मंदिर का शिखर है न, उसके पासवाली बरगद की डाली के ऊपर वाली टहनी के ऊपरी छोर के पास आकाश में पतली-सी लकीर जैसा है वह चन्द्रमा है।'

लक्ष्य तो चाँद दिखाना था, सूक्ष्म था। जिसको जैसे दिख जाय वैसे दिखाना है। ऐसे ही दिख जाय या शिखर के सहारे दिख जाय या वृक्ष की टहनी के सहारे दिख जाय। चश्मा सीधा करके दिख जाय या टेढ़े करके दिख जाय। कैसे भी करके देखना तो दूज का चाँद है।
ऐसे ही जीवन में देखना तो है चाँदों का भी चाँद आत्मा-परमात्मा, अपना वास्तविक स्वरूप, अपना आपा, अपना नित्य मुक्त स्वभाव। अपने आनन्द स्वभाव का, मुक्त स्वभाव का अनुभव करना है। अभी वह नहीं किया तो जिन्होंने किया है उनमें विश्वास करना पड़ता है।
उत्तम साधक को जब-जब विह्वलता, दुःख, चिन्ता, भय सताते हैं तब अपने आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हैं। 'दुःख मन में हुआ... मैं निर्दुःख हूँ। चिन्ता मन की कल्पना है। मैं सब कल्पनाओं से परे हूँ। ॐ....ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....ॐ.....।

जाति शरीर की होती है, 'मेरी कोई जाति नहीं। मैं शांत आत्मा हूँ। विकारों से मैं परेशान हो रहा था लेकिन अब विकारो को पोसूँगा नहीं। अपने निर्विकार स्वरूप में विश्वास करके मैं जरूर जगूँगा।'
विश्वास करोगे तो जागोगे। विश्वास अगर पत्थर की  मूर्ति में है तो भी कल्याण होगा ही, क्योंकि तात्त्विक रूप से तो पत्थर में भी वह तुम्हारा चैतन्यदेव छुपा है घन सुषुप्ति में। भक्त लोगों ने पत्थर की प्रतिमाओं से अपने मन चाहे इष्टदेवों को प्रकट किये हैं। मूर्ति तो वही की वही है काली की लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने भगवती काली को वहाँ प्रकट किया था। रामकृष्ण पुजारी बने थे उसके पहले भी वह मूर्ति थी और रामकृष्ण चल दिये उसके बाद भी मूर्ति है।
विश्वासो फलदायकः।
जब पत्थर में से तुम्हारे विश्वास के बल से चैतन्य स्वरूप ईश्वर की चेतना प्रकट हो जाती है तो तुम्हारी चेतना और ईश्वर की चेतना एक ही है। तुम अपने अन्तःकरण में सावधान रहकर व्यवहार करो तो भी वह ईश्वरीय चेतना प्रकट हो सकती है अथवा किसी ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के प्रति अहोभाव करके, वहाँ से प्रेम और प्रकाश पाने के भाव से उनके प्रति विश्वास करके चलते हो तभी भी वह परमात्म चैतन्य प्रकट हो सकता है।

1983 या 1984 में दिल्ली की 'हिन्दुस्तान' अखबार में एक घटित घटना छपी थी।
एक पैडल रिक्शावाला किसी बाबाजी को रेलवे स्टेशन से बिठाकर बस अड्डे ले जा रहा था। कई लोग खड़िया पलटनवाले बाबाजी बन जाते हैं, यात्रा करते रहते हैं, कुछ माँग लेते हैं, सीताराम.... सीताराम... कर लेते हैं। ये बाबाजी भी ऐसे ही थे। उनके पास डेढ़ सौ रुपये का रेडियो था। उस रेडियो पर फिल्म अभिनेत्री हेमामालिनी का स्टिकर लगा हुआ था।
रिक्शावाले ने बाबाजी से कहाः "महात्मा जी ! आप रिक्शा का किराया दो चाहे मत दो लेकिन ऐसा कुछ जंतर-मंतर, ऐसी कोई चीज दे जाओ कि मैं रोज पूजा करूँ और मेरे धन्धे में बरकत पड़े।"
वे तो खड़िया पलटन के बाबाजी थे। उनको किसी ने रेडियो दे दिया था। उनको भी पता नहीं था कि रेडियो पर लगा हुआ स्टीकर किसी एक्ट्रैस का है या फलानी का है। उन्होंने वह स्टीकर निकालकर रिक्शावे को दे दियाः
"ले, इसी की पूजा करना। तेरा कल्याण हो जायगा।"
रिक्शावाला झोपड़पट्टी में आया और अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी के एक कोने में देवी जी की स्थापना की। कभी फूल चढ़ा देता था, अगरबत्ती करता था, फल धर देता था। 'माता जी... माता जी..... माता जी....' जप लेता था।
छुपा हुआ परम चैतन्य तो जानता है कि वह किस निमित्त से कर रहा है। स्टीकर नहीं जानता है, हेमामालिनी नहीं जानती है लेकिन परमात्मा तो जानता है। जीव के साथ आँख मिचौली खेलने वाला तो जानता है कि वह किसलिए करता है।
रिक्शावाला रोज आँखें बन्द करके प्रार्थना करता किः 'हे मेरी कुलदेवी ! मेरा धन्धा अच्छा चले। आज धन्धा अच्छा चलेगा तो रात को आकर मवा धरूँगा, लड्डू धरूँगा।
दैवयोग से उसकी ग्राहकी ऐसी चली कि बस ! स्टेशन से बस अड्डे पर.... बस अड्डे से स्टेशन पर। धन्धा ऐसा चला कि उसने टैम्पो खरीदा। धम....धम....धम...धम..।
दूसरे रिक्शावाले चकित रह गये। बोलेः "तेरा इतना तेजी से धन्धा...! और हम मक्खियाँ उड़ा रहे हैं। यह कैसे होता है ?"
उसने राज बताते हुए कहाः "एक बार एक बाबाजी मेरी रिक्शा में बैठे थे। उनकी बड़ी कृपा हो गई।"
वे बाबाजी तो सुलफाछाप थे। उनको पता भी नहीं था कि मैं क्या दे रहा हूँ। ऐसा नहीं कि वे योगी थे या तत्त्वविद् थे या रहस्यवादी थे। ऐसा कुछ नहीं था। रिक्शावाले का विश्वास, उसकी एकाकारता ऐसी थी कि महाराज ! उसके चित्त के द्वारा चेतना ने काम किया।
लोगों ने कहाः "यार ! हमें भी दिखा, वह कौन सी देवी है। वे बाबाजी कौन सी देवी दे गये हैं ?"
वह रिक्शावाला उन लोगों को अपने घर ले आया। वे लोग तो सिनेमा जगत के शौकीन थे। इस देवीजी को देखकर गाली के साथ बोल उठेः "अरे यह ? यह तो फलानी एक्ट्रैस है।यह माता जी कहाँ है ?"
"जा जा... यह तो मेरी कुलदेवी है इसकी पूजा से मेरा धन्धा बढ़ा है।"

अगर नगण्य वस्तु में भी तुम विश्वास करते हो तो तुम्हारा चैतन्य वहाँ से भी तुम्हें सहाय करता है तो सचमुच में विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा हुई हो ऐसी मूर्ति की आराधना उपासना से अथवा सच्चे कोई आत्मवेत्ता संत, जो अमूर्त आत्मा में टिके हो, रमण महर्षि जैसे, रामकृष्ण जैसे, लीलाशाह बापू जैसे ब्रह्मवेत्ता आत्म-साक्षात्कारी पुरुषों के प्रति श्रद्धा-भक्ति से इस लोक और परलोक में लाभ सहज में होने लगे इसमें क्या आश्चर्य है ? गुरु ने विधिवत् मंत्र दिया हो उसका जप करें, जिन्होंने अपने आत्म-स्वरूप को पाया है ऐसे महापुरुषों के मार्गदर्शन पर चलने लग जायें तो कल्याण होने में कोई सन्देह नहीं है। तुम्हारी भावना के बल से खड़िया पलटनवाले बाबाजी का स्टीकर इतना काम कर सकता है तो जो सचमुच में जगे हैं ऐसे वेदव्यासजी, श्रीकृष्ण, श्रीरामजी, संत कबीर जी, ज्ञानेश्वर महाराज, एकनाथजी महाराज, पूज्यपाद लीलाशाहजी भगवान आदि आदि सत्पुरुषों की बात को पकड़कर चलने लग जायें तो कितना काम हो जायेगा ! उसको तो पैडल रिक्शा में से टैम्पो मिला लेकिन तुमको तो जीव में से ब्रह्म मिल जायेगा।

गीता ने कहाः
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
"जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के, तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।"
(गीताः 4.39)
श्रद्धालु को आत्मज्ञान होता लेकिन श्रद्धा तुम्हारी कैसी है उसकी कसौटी है कि श्रद्धेय के वचन पर तुम्हारा विश्वास कैसा है.... तत्परता कितनी है ? श्रद्धेय के वचन को तुम अपने जीवन में कितना उतारते हो ? जितने अंश में उतारते हो उसने अंश में ही तुम उन्नत होते हो और उतने अंश में ही तुम्हारी श्रद्धा है।
एक मूर्धन्य प्रसिद्ध नेता ने कह दियाः "मैं गाँधी जी को तो मानता हूँ लेकिन गाँधी जी के विचारों से मैं सहमत नहीं हूँ....।"
तो क्या खाक गाँधी जी को माना तुमने ?
ऐसे ही 'मैं भगवान को तो मानता हूँ लेकिन भगवान के साथ एक नहीं होऊँगा। गुरु को तो मानता हूँ लेकिन गुरु के ज्ञान के साथ एक नहीं होऊँगा।' अगर तुम भगवान को मानते हो और भगवान के ज्ञान के साथ एक होने को राजी नहीं हो तो तुम्हारे पास अज्ञान है। सही ज्ञान तो भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों का होता है। तुम्हारे पास अज्ञान है और अज्ञान को तुम पकड़े रखे हो।'

ईश्वर के ज्ञान के साथ तुम अपना ज्ञान मिला दो। गुरु के अनुभव के साथ अपना अनुभव मिला दो। जल्दी कल्याण होगा।
इतना तो चौथी-पाँचवीं कक्षावाले विद्यार्थी भी जानता है कि शिक्षक की बात पर विश्वास करना होता है। भूगोल का कथन है कि पृथ्वी गोल है। विद्यार्थी जानता नहीं है कि सीधी दिखने वाली यह पृथ्वी गोल कैसे हो। फिर भी शिक्षक की बात मान कर परीक्षा में लिख देता है और मार्क्स ले लेता है। आगे चलकर उच्च कक्षाओं में पहुँचता है तब पता चलता है कि पृथ्वी गोल कैसे है।
जिसके बारे में तुम नहीं जानते हो और केवल सुना है उसमें विश्वास करना होता है। एक विश्वास होता है सुनी-सुनाई सामाजिक काल्पनिक बातों पर। जैसे, यह रिक्शावाले की देवी काल्पनिक थी। अभी जो संतोषी माँ है वह काल्पनिक देवी है, वास्तव में वह कुछ नहीं है। लोगों ने कल्पना करके संतोषी माता को खड़ी कर दी। संतोषी माता जैसी चिड़िया का वर्णन किसी भी शास्त्रपुराण में नहीं है।

दूसरा होता है शास्त्रीय विश्वास।
देवी और भगवान कैसे होते हैं ? शुद्ध बुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा में जब सृष्टि का फुरना हुआ तो उस फुरने में... 'एको ऽहं बहु स्याम्' में...'बहु स्याम्' होते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं भूले वे हो गये भगवान कोटि के, देवी कोटि के, देवता कोटि के और अपना मूल स्वरूप भूलकर स्थूल शरीर में मैं पना किया वे जीवभाव में आ गये। भगवान कोटि से, देवी देवता कोटि के आत्मा स्थूल में भी जी सकते हैं और सूक्ष्म में भी पहुँच सकते हैं, जैसे जगदँबा है या और भगवदीय देवियाँ हैं अथवा भगवद् तत्त्व को पाये हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं।
यह है शास्त्रीय विश्वास। दूसरा होता है अशास्त्रीय विश्वास। जैसे, धन्ना जाट को भाँग घोटने वाले पण्डित ने भाँग घोटने का सिलबट्टा देते हुए कह दियाः "यह ठाकुरजी है। नहाकर नहलैयो.... खिलाकर खइयो।' हालाँकि वे ठाकुर जी नहीं थे, प्राणप्रतिष्ठा नहीं की गई थी। उसमें चेतन प्रकट हो ऐसी विधिवत् चेष्टा पण्डित की ओर से नहीं थी। लेकिन धन्ना जाट का अत्यंत विश्वास था तो वे ठाकुरजी देखते हैं कि अब आँखमिचौली में इसके आगे अप्रकट रहना इससे सहा नहीं जायगा तो वे धन्ना के आगे साक्षात प्रकट हो गये।
वह चैतन्य स्वरूप परमात्मा पत्थर में से भी प्रकट हो सकता है तो तुम्हारे दिल में क्यों प्रकट नहीं होगा ?
वे शास्त्रीय ठाकुरजी नहीं थे, अशास्त्रीय थे। सिलबट्टा था सिलबट्टा भाँग घोंटने का। पण्डितजी कुछ दिन तक गाँव में कथा करके जा रहे थे तो रास्ते में धन्ना जाट ने, एक लड़के ने उनको रोका। प्रार्थना कीः "महाराज ! मुझे ठाकुरजी दे जाओ। मैं रोज पूजा करूँगा।"
पण्डितजी ना ना करते रहे पर धन्ना का आग्रह जारी रहा। बहुत खींचातानी के बाद उसने पण्डित को विवश कर दिया। पण्डित ने उस जिद्दी जाट से जान छुड़ाने के लिए अपना भाँग घोंटने का सिलबट्टा दे दिया कि ले, ये ठाकुरजी हैं। बच्चे ने तो कभी ठाकुरजी को देखा नहीं था, सिर्फ कथा सुनी थी कि ठाकुर जी की पूजा करने से कल्याण होता है।
धन्ना जाट का कल्याण हो गया।

जिसको आपने देखा नहीं उसमें विश्वास करना होता है। विश्वास हो तो बिल्कुल अन्धा हो और विचार करो तो बिल्कुल निष्ठुर, तर्कयुक्त, तीक्षण, तलवार की धार जैसा। उसमें फिर कोई पक्षपात नहीं।
श्रद्धा करो तो अन्धी करो । काम करो तो मशीन होकर करो, बिल्कुल व्यवस्थित, क्षति रहित। विश्वास करो तो बस.... धन्ना जाट की नाँईं। आत्मविचार करो तो बिल्कुल तटस्थ।
लोग श्रद्धा करने की जगह पर विचार करते हैं, तर्क लड़ाते हैं और आत्म विचार की जगह पर श्रद्धा करते हैं। अपनी 'मैं' के विषय में विचार चाहिए और भगवान को मानने में विश्वास चाहिए। वस्तु का उपयोग करने में तटस्थता चाहिए। ये तीन बाते आ जाय तो कल्याण हो जाय।

Wednesday, August 8, 2012

इष्टसिद्धि पुस्तक से - Isht-Sidhi pustak se


निद्रा-तन्द्रा-मनोराज से बचो - Nidra-tandra-manoraaj se bacho

अनुष्ठान में मंत्रजप करते समय नींद आती हो, तन्द्रा आती हो, आलस्य आता हो अथवा मनोराज में खो जाते हो तो अनुष्ठान का पूरा लाभ नहीं पा सकोगे।
निद्रा दो प्रकार की होती हैः स्थूल एवं सूक्ष्म। शरीर में थकान हो, रात्रि का जागरण हो, भोजन में गरिष्ठ पदार्थ लिये हों, ठूँस-ठूँसकर भरपेट खाया हो तो जो नींद आती है वह स्थूल निद्रा है।

गहरी नींद भी नहीं आयी और पूर्ण जाग्रत भी नहीं रहे, जरा सी झपकी लग गई, असावधानी हो गई, माला तो चलती रही यंत्रवत् लेकिन कितनी माला घूमी कुछ ख्याल नहीं रहा। यह सूक्ष्म निद्रा है। इसे तन्द्रा बोलते हैं।

असमय सूक्ष्म निद्रा आने लगे तो उसके कारणों को जानकर उनका निवारण करना चाहिए। पादपश्चिमत्तोनासन, मयूरासन, पद्मासन, चक्रासन आदि आसन शरीर के रोग दूर करते हैं, आरोग्यता प्रदान करते हैं और निद्रा का भी नियंत्रण करते हैं। इन सब आसनों में पादपश्चिमोत्तानासन अत्यधिक लाभदायक है।

सूक्ष्म निद्रा माने तन्द्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए। प्राणायाम से शरीर की नाड़ीशुद्धि होती है, रक्त का मल बाहर निकलता है, फेफड़ों का पूरा हिस्सा सक्रिय बनता है, शरीर में प्राणवायु अधिक प्रमाण में एवं ठीक-ठीक प्रकार से फैलता है, ज्ञानतंतु पुष्ट होते हैं, दिमाग खुलता है। शरीर में ताजगी-स्फूर्ति का संचार होता है। इससे तन्द्रा नहीं घेरती।
मनोराज का अर्थ हैः आप कर तो कुछ रहे हैं और मन कुछ और ही सोच रहा है, जाल बुन रहा है। कोई काम करते हैं, मन कहीं और जगह घूमने चला जाता है। हाथ में माला घूम रही है, जिह्वा मंत्र रट रही है और मन कुछ अन्य बातें सोच रहा है, कुछ आयोजन कर रहा है। यह है मनोराज।

एक पुरानी कहानी हैः एक सेठ के घर उनके बेटे की शादी का प्रसंग था। एक मजदूर के सिर पर घी का घड़ा उठवाकर सेठ घर जा रहे थे। आज मजदूर को रोज की अपेक्षा ज्यादा पैसे मिलाने वाले थे। सेठ के वहाँ खुशहाली का प्रसंग था न ! ....तो मजदूर सोचने लगाः
"मैं इन पैसों से मुर्गियाँ लूँगा.... मुर्गियाँ अण्डे देंगी..... अण्डों से बच्चे बनेंगे..... बच्चे मुर्गियाँ बन जायेंगे.... मुर्गियों से अण्डे... अण्डों से मुर्गियाँ... मेरे पास बहुत सारी मुर्गियाँ हो जायेंगी...."
सिर पर घड़ा है। कदम पड़ रहे हैं और मन में मनोराज चल रहा हैः
"फिर मुर्गियाँ बेचकर गाय खरीदूँगा... दूध बेचूँगा और खूब पैसे इकट्ठे हो जायेंगे तब यह सब धंधा छोड़कर किराने की दुकान खोलूँगा... एक बढ़िया विस्तार में व्यापार करूँगा.... शादी होगी.... बाल-बच्चे होंगे... आगे दुकान पीछे मकान.... दुकान पर खूब ग्राहक होंगे... मैं सौदे में व्यस्त होऊँगा.... घर से लड़का बुलाने आयेगाः "पिताजी ! पिताजी ! चलो, माँ भोजन करने के लिए बुला रही है...' मैं गुस्से में कहूँगा की चल हट्...!
'चल हट्...' कहते ही मजदूर ने मारा हाथ का झटका तो सिर का घड़ा नीचे.... घड़ा फूट गया। घी ढुल गया। मजदूर के भविष्य का सुहावना स्वप्न हवा हो गया।
सेठ आगबबूला होकर तिलमिला उठेः "रे दुष्ट ! यह क्या कर दिया? चल हट्...' मेरे सैंकड़ों रूपये का घी बिगाड़ दिया?"
मजदूर बोलाः "सेठजी ! आपका तो केवल घी बिगड़ा लेकिन मेरा तो घर-बार, पुत्र-परिवार, व्यापार-धंधा सब चौपट हो गया।"

यह है मनोराज। आदमी काम कुछ करता है और मन कुछ और कल्पनाओं में घूमता है। सामान्यतया हम किसी कार्य में व्यस्त होते हैं तो मनोराज कम होता है लेकिन जप, ध्यान करने बैठते हैं तो मनोराज हो ही जाता है। उस समय कोई बाह्य क्रिया नहीं होती है, इससे मन अपनी जाल बुनना शुरु कर देता है।

इस मनोराज को हटाने के लिए उच्च स्वर से ॐ का उच्चारण कर लो। सावधानी से मन को देख लो और उससे पूछोः 'अरे मनीराम ! क्या कर रहा है?' ....तो मन कल्पना का जाल बुनना छोड़ देगा। उसे फिर जप में, मंत्र के अर्थ में लगा दो।

संक्षेप में- स्थूल निद्रा को जीतने के लिए आसन, सूक्ष्म निद्रा-तन्द्रा को जीतने के लिए प्राणायाम और मनोराज को जीतने के लिए ॐ का दीर्घ स्वर से जप करना चाहिए। जो लोग सूर्यास्त एवं सूर्योदय के समय सोते हैं वे अपने जीवन का ह्रास करते हैं। बुद्धि पर इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। बुद्धि का सम्बन्ध सूर्य के साथ है और मन का सम्बन्ध चन्द्र के साथ हैं। अतः उनके अनुकूल आचार बनाने से लाभ होता है। जो लोग अनुष्ठान सफल करना चाहते हैं, इष्ट्मंत्र सिद्ध करना चाहते हैं,जीवन में चमकना चाहते हैं, महकना चाहते हैं उनके लिए ये बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। सन्धिकाल उनके लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। सूर्योदय के 10-15 मिनट पूर्व व पश्चात्,  मध्यान्ह १२बजने के १०-१५ मिनट पूर्व व पश्चात, सूर्यास्त के १०-१५ मिनट पूर्व व पश्चात एवं रात्रि के पौने बारह से सवा बारह बजे के बीच..... इन सन्धिकालों के समय जप करके कुछ मिनटों के लिए तन और मन के परिश्रम से रहित हो जाना चाहिए। जप छोड़कर श्रमरहित स्थिति में आने से अमाप लाभ होता है।

Sunday, July 22, 2012


क्या करें, न करें ?  पुस्तक से - Kya karen, Kya na Karen ?  pustak se

अन्य उपयोगी बातें - Anya upyogi baaten

आरती के समय कपूर जलाने का विधान है। घर में नित्य कपूर जलाने से घर का वातावरण शुद्ध रहता है, शरीर पर बीमारियों का आक्रमण आसानी से नहीं होता, दुःस्वप्न नहीं आते और देवदोष तथा पितृदोषों का शमन होता है।

कपूर मसलकर घर में (खासकर कर ध्यान-भजन की जगह पर) थोड़ा छिड़काल कर देना भी हितावह है।

दीपज्योति अपने से पूर्व या उत्तर की ओर प्रगटानी चाहिए। ज्योति की संख्या 1,3,5 या 7 होनी चाहिए।

दिन में नौ बार की हुई किसी भी वक्तवाली प्रार्थना अंतर्यामी तक पहुँच ही जाती है।

सूर्य से आरोग्य की, अग्नि से श्री की, शिव से ज्ञान की, विष्णु से मोक्ष की, दुर्गा आदि से रक्षा की, भैरव आदि से कठिनाइयों से पार पाने की, सरस्वती से विद्या के तत्त्व की, लक्ष्मी से ऐश्वर्य-वृद्धि की, पार्वती से सौभाग्य की, शची से मंगलवृद्धि की, स्कंद से संतानवृद्धि की और गणेश से सभी वस्तुओं की इच्छा (याचना) करनी चाहिए। (लौगाक्षि स्मृति)

उत्तरायण देवताओं का प्रभातकाल है। इस दिन तिल के उबटन व तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल का भोजन तथा तिल का दान – ये सभी पापनाशक प्रयोग हैं।

धनतेरस के दिन दीपक का दान करने से अकाल मृत्यु नहीं होती। पक्षियों को दाना डालने वाले को मृत्यु के पहले जानकारी हो जाती है।

महर्षि पुष्कर कहते हैं- 'परशुरामजी ! प्रणव परब्रह्म है। उसका जप सभी पापों का हनन करने वाला है। नाभिपर्यन्त जल में स्थित होकर ॐकार का सौ बार जप करके अभिमंत्रित किये गये जल को जो पीता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।'
(अग्नि पुराणः अ. 251)

जो जलाशय में स्नान नहीं कर सकते वे कटोरी में जल लेकर घर पर ही यह प्रयोग कर सकते हैं।

बाल तथा नाखून काटने के लिए बुधवार और शुक्रवार के दिन योग्य माने जाते हैं। एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, सूर्य-संक्रान्ति, शनिवार, मंगलवार, गुरुवार, व्रत तथा श्राद्ध के दिन बाल एवं नाखून नहीं काटने चाहिए, न ही दाढ़ी बनवानी चाहिए।

तुम चाहे जितनी मेहनत करो परंतु तुम्हारी नसों में जितना अधिक ओज होगा, जितनी ब्रह्मचर्य की शक्ति होगी उतना ही तुम सफल होओगे।

प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय के बाद नीम व तुलसी के पाँच-पाँच पत्ते चबाकर ऊपर से थोड़ा पानी पीने से प्लेग तथा कैंसर जैसे खतरनाक रोगों से बचा जा सकता है।

सुबह खाली पेट चुटकी भर साबुत चावल (अर्थात् चावल के दाने टूटे हुए न हों) ताजे पानी के साथ निगलने से यकृत (लीवर) की तकलीफें दूर होती हैं।

केले को सुबह खाने से उसकी कीमत ताँबे जैसी, दोपहर को खाने से चाँदी जैसे और शाम खाने से सोने जैसी होती है। शारीरिक श्रम न करने वालों को केला नहीं खाना चाहिए। केला सुबह खाली पेट भी नहीं खाना चाहिए।

भोजन के बाद दो केला खाने से पतला शरीर मोटा होने लगता है।

जलनेति करने से आँख, नाक, कान और गले की लगभग 1500 प्रकार की छोटी-बड़ी बीमारियाँ दूर होती हैं।

रोज थोड़ा-सा अजवायन खिलाने से प्रसूता की भूख खुलती है, आहार पचता है, अपान वायु छूटती है, कमरदर्द दूर होता है और गर्भाशय की शुद्धि होती है।

रात का शंख में रखा हुआ पानी तोतले व्यक्ति को पिलाने से उसका तोतलापन दूर होने में आशातीत सफलता मिलती है। चार सूखी द्राक्ष रात को पानी में भिगोकर रख दें। उसे सबेरे खाने से अदभुत शक्ति मिलती है।

पश्चिम दिशा की हवा, शाम के समय की धूप स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

बालकों की निर्भयता के लिए गाय की पूँछ का उतारा करें।

ग्रीष्मकाल में एक प्याज को (ऊपर का मरा छिलका हटाकर) अपनी जेब में रखने मात्र से लू नहीं लगती।

क्रोध आये उस वक्त अपना विकृत चेहरा आईने में देखने से भी लज्जावश क्रोध भाग जायेगा।

लम्बी यात्रा शुरू करते समय बायाँ स्वर चलता हो तो शुभ है, सफलतापूर्वक यात्रा पूरी होगी व विघ्न नहीं आयेगा। छोटी मुसाफिरी के लिए दायाँ स्वर चलता हो तो शुभ माना जाता है।

व्रत-उपवास में औषधि ले सकते हैं।

सात्त्विकता और स्वास्थ्य चाहने वाले एक दूसरे से हाथ मिलाने की आदत से बचें। अभिवादन हेतु दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करना उत्तम है।

बेटी की विदाई बुधवार के दिन न करें। अन्य दिनों में विदाई करते समय एक लोटा पानी में हल्दी मिलाकर लोटे से सिर का उतारा देकर भगवन्नाम लेते हुए घर में छाँटे। इससे बेटी सुखी और खुशहाल रहेगी।

सदगुरु के सामने, आश्रम में, मंदिर में, बीमार व्यक्ति के सामने तथा श्मशान में सांसारिक बातें नहीं करनी चाहिए।

Tuesday, July 3, 2012

भगवन्नाम जप-महिमा  पुस्तक से - Bhagvannam Jap Mahima pustak se

मंत्रजाप की 15 शक्तियाँ - Mantra Jaap ki 15 Shaktiyan

भगवन्नाम में 15 विशेष शक्तियाँ हैं-

संपदा शक्तिः भगवन्नाम-जप में एक है संपदा शक्ति। लौकिक संपदा में, धन में भी कितनी शक्ति है – इससे मिठाइयाँ खरीद लो, मकान खरीद लो, दुकान खरीद लो। वस्त्र, हवाई जहाज आदि दुनिया की हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इस प्रकार भगवन्नाम जप में दारिद्रयनाशिनी शक्ति अर्थात् लक्ष्मीप्राप्ति शक्ति है।

भुवनपावनी शक्तिः भगवन्नाम-जप करोगे तो आप जहाँ रहोगे उस वातावरण में पवित्रता छा जायेगी। ऐसे संत वातावरण में (समाज) में जाते हैं तो पवित्रता के प्रभाव से हजारों लोग खिंचकर उनके पास आ जाते हैं। भुवनपावनी शक्ति विकसित होती है नाम-कमाई से। नाम कमाई वाले ऐसे संत जहाँ जाते हैं, जहाँ रहते हैं, यह भुवनपावनी शक्ति उस जगह को तीर्थ बना देती है, फिर चाहे कैसी भी जगह हो। यहाँ (मोटेरा में) तो पहले शराब की 40 भट्ठियाँ चलती थीं, अब वहीं आश्रम है। यह भगवन्नाम की भुवनपावनी शक्ति का प्रभाव है।

सर्वव्याधिविनाशिनी शक्तिः भगवन्नाम में रोगनाशिनी शक्ति है। आप कोई औषधि लेते हैं। उसको अगर दाहिने हाथ पर रखकर 'ॐ नमो नारायणाय' का 21 बार जप करके फिर लें तो उसमें रोगनाशिनी शक्ति का संचार होगा।
एक बार गाँधीजी बीमार पड़े। लोगों ने चिकित्सक को बुलाया। गाँधी जी ने कहा कि "मैं चलते-चलते गिर पड़ा। तुमने चिकित्सक को बुलाया इसकी अपेक्षा मेरे इर्द-गिर्द बैठकर भगवन्नाम-जपते तो मुझे विशेष फायदा होता और विशेष प्रसन्नता होती।'
मेरी माँ को यकृत (लीवर), गुर्दे (किडनी), जठरा, प्लीहा आदि की तथा  और भी कई जानलेवा बीमारियों ने घेर लिया था। उसको 86 साल की उम्र में चिकित्सकों ने कह दिया था कि 'अब एक दिन से ज्यादा नहीं निकाल सकती हैं।'
23 घंटे हो गये। मैंने अपने 7 दवाखाने सँभालने वाले वैद्य को कहाः "महिला आश्रम में माता जी हैं। तू कुछ तो कर, भाई ! " थोड़ी देर बात मुँह लटकाते आया और बोलाः अब माता जी एक घंटे से ज्यादा समय नहीं निकाल सकती हैं। नाड़ी विपरीत चल रही है।"
मैं माता जी के पास गया। हालाँकि मेरी माँ मेरी गुरु थीं, मुझे बचपन में भगवत्कथा सुनाती थीं। परंतु जब मैं गुरुकृपा पाकर 7 वर्ष की साधना के बाद गुरुआज्ञा के घर गया, तबसे माँ को मेरे प्रति आदर भाव हो गया। वे मुझे पुत्र के रूप में नहीं देखती थीं वरन् जैसे कपिल मुनि की माँ उनको भगवान के रूप में, गुरु के रूप में मानती थीं, वैसे ही मेरी माँ मुझे मानती थीं। मेरी माँ ने कहाः "प्रभु ! अब मुझे जाने दो।"
मैंने कहाः "मैं नहीं जाने दूँगा।"
उनकी श्रद्धा का मैंने सात्त्विक फायदा उठाया।
माः "मैं क्या करूँ?"
मैंने कहाः "मैं मंत्र देता हूँ आरोग्यता का।"
उनकी श्रद्धा और मंत्र भगवान का प्रभाव... माँ ने मंत्र जपना चालू किया। मैं आपको सत्य बोलता हूँ कि एक घंटे के बाद स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। फिर तो एक दिन, दो दिन... एक सप्ताह... एक महीना... ऐसा करते-करते 72 महीने तक उनका स्वास्थ्य बढ़िया रहा। कुछ खान-पान की सावधानी बरती गयी, कुछ औषध का भी उपयोग किया गया।
अमेरिका का चिकित्सक पी.सी.पटेल (एम.डी.) भी आश्चर्यचकित हो गया कि 86 वर्ष की उम्र में माँ के यकृत, गुर्दे फिर से कैसे ठीक हो गये? तो मानना पड़ेगा कि सर्वव्याधिविनाशिनी शक्ति, रोगहारिणी शक्ति मंत्रजाप में छुपी हुई है।
बंकिम बाबू (वंदे मातरम् राष्ट्रगान के रचयिता) की दाढ़ दुखती थी। ऐलौपैथीवाले थक गये। आयुर्वेदवाले भी तौबा पुकार गये... आखिर बंकिम बाबू ने कहाः 'छोड़ो।'
और वे भगवन्नाम-जप में लग गये। सर्वव्याधिविनाशिनी शक्ति का क्या अदभुत प्रभाव ! दाढ़ का दर्द कहाँ छू हो गया पता तक न चला !

सर्वदुःखहारिणी शक्तिः किसी भी प्रकार का दुःख हो भगवन्नाम जप चालू कर दो, सर्वदुःखहारिणी शक्ति उभरेगी और आपके दुःख का प्रभाव क्षीण होने लगेगा।

कलिकाल भुजंगभयनाशिनी शक्तिः कलियुग के दोषों को हरने की शक्ति भी भगवन्नाम में छुपी हुई है।
तुलसीदास जी ने कहाः
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।
कलजुग केवल नाम आधारा।
जपत नर उतरहिं सिंधु पारा।।
कलिजुग का यह दोष है कि आप अच्छाई की तरफ चलें तो कुछ-न-कुछ बुरे संस्कार डालकर, कुछ-न-कुछ बुराई करवाकर आपका पुण्यप्रभाव क्षीण कर देता है। यह उन्हीं को सताता है जो भगवन्नाम-जप में मन नहीं लगाते। केवल ऊपर-ऊपर से थोड़ी माला कर लेते हैं। परंतु जो मंत्र द्रष्टा आत्मज्ञानी गुरु से अपनी-अपनी पात्रता व उद्देश्य के अनुरूप ॐसहित वैदिक मंत्र लेकर जपते हैं, उनके अंदर कलिकाल भुजंगभयनाशिनी शक्ति प्रकट हो जाती है।

नरकोद्धारिणी शक्तिः व्यक्ति ने कैसा भी नारकीय कर्म कर लिया हो परंतु भगवन्नाम की शरण आ जाता है और अब बुरे कर्म नहीं करूँगा – ऐसा ठान लेता है तो भगवन्नाम की कमाई उसके नारकीय दुःखों का अथवा नारकीय योनियों का अंत कर देती है। अजामिल की रक्षा इसी शक्ति ने की थी। अजामिल मृत्यु की आखिरी श्वास गिन रहा था, उसे यमपाश से भगवन्नाम की शक्ति ने बचाया। अकाल मृत्यु टल गयी तथा महादुराचारी से महासदाचारी बन गये और भगवत्प्राप्ति की। 'श्रीमद् भागवत' की यह कथा जग जाहिर है।

दुःखद प्रारब्ध-विनाशिनी शक्तिः मेटत कठिन कुअंक भाल के.... भाग्य के कुअंकों को मिटाने की शक्ति है मंत्रजाप में। जो आदमी संसार से गिराया, हटाया और धिक्कारा गया है, जिसका कोई सहारा नहीं है वह भी यदि भगवन्नाम का सहारा ले तो तीन महीने के अंदर अदभुत चमत्कार होगा। जो दुत्कारने वाले और ठुकरानेवाले थे, आपके सामने देखने की भी जिनकी इच्छा नहीं थी, वे आपसे स्नेह करेंगे और आपसे ऊँचे अधिकारी भी आपसे सलाह लेकर कभी-कभी अपना काम बना लेंगे। ध्यानयोग शिविर में लोग ऐसे कई अनुभव सुनाते हैं।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।

कर्म संपूर्तिकारिणी शक्तिः कर्मों को सम्पन्न करने की शक्ति है मंत्रजाप में। आने वाले विघ्न को हटाने का मंत्र जपकर कोई कर्म करें तो कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है।
कई रामायण की कथा करने वाले, भागवत की कथा करने वाले प्रसिद्ध वक्ता तथा कथाकार जब कथा का समय देते हैं तो पंचांग देखते हैं कि यह समय कथा के लिए उपयुक्त है, यह मंडप का मुहूर्त है, यह कथा की पूर्णाहूति का समय है... मेरे जीवन में, मैं आपको क्या बताऊँ? मैं 30 वर्ष से सत्संग कर रहा हूँ, मैंने आज तक कोई पंचांग नहीं देखा। भगवन्नाम-जप कर गोता मारता हूँ और तारीख देता हूँ तो सत्संग उत्तम होता है। कभी कोई विघ्न नहीं हुआ। केवल एक बार अचानक किसी निमित्त के कारण कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा। बाद में दूसरी तिथि में वहाँ सत्संग दिया। वह भी 30 वर्ष में एक-दो बार।

सर्ववेदतीर्थादिक फलदायिनी शक्तिः जो एक वेद पढ़ता है वह पुण्यात्मा माना जाता है परंतु उसके सामने यदि द्विवेदी या त्रिवेदी आ जाता है तो वह उठकर खड़ा हो जाता है और यदि चतुर्वेदी आ जाये तो त्रिवेदी भी उसके आगे नतमस्तक हो जाता है, क्योंकि वह चार वेद का ज्ञाता है। परंतु जो गुरुमंत्र जपता है उसे चार वेद पढ़ने का और सर्व तीर्थों का फल मिल जाता है। सभी वेदों का पाठ करो, तीर्थों की यात्रा करो तो जो फल होता है, उसकी अपेक्षा गुरुमंत्र जपें तो उससे भी अधिक फल देने की शक्ति मंत्र भगवान में है।

सर्व अर्थदायिनी शक्तिः जिस-जिस विषय में आपको लगना हो भगवन्नाम-जप करके उस-उस विषय में लगो तो उस-उस विषय में आपकी गति-मति को अंतरात्मा प्रेरणा प्रदान करेगा और आपको उसके रहस्य एवं सफलता मिलेगी।
हम किसी विद्यालय-महाविद्यालय अथवा संत या कथाकार के पास सत्संग करना सीखने नहीं गये। बस, गुरुजी ने कहाः 'सत्संग किया करो।' हालाँकि गुरुजी के पास बैठकर भी हम सत्संग करना नहीं सीखे। हम तो डीसा में रहते थे और गुरुजी नैनीताल में रहते थे। फिर गुरुआज्ञा में बोलने लगे तो आज करोड़ों लोग रोज सुनते हैं। कितने करोड़ सुनते हैं, वह हमें भी पता नहीं है।

जगत आनंददायिनी शक्तिः जप करोगे तो वैखरी से मध्यमा, मध्यमा से पश्यंति और पश्यंति से परा में जाओगे तो आपके हृदय में जो आनंद होगा, आप उस आनंद में गोता मारकर देखोगे तो जगत में आनंद छाने लगेगा। उसे गोता मारकर बोलोगे तो लोग आनंदित होने लगेंगे और आपके शरीर से भी आनंद के परमाणु निकलेंगे।

जगदानदायिनी शक्तिः कोई गरीब-से-गरीब है, कंगाल-से-कंगाल है, फिर भी मंत्रजाप करे तो जगदान करने के फल को पाता है। उसकी जगदानदायिनी शक्ति प्रकट होती है।

अमित गदिदायिनी शक्तिः उस गति की हम कल्पना नहीं कर सकते कि हम इतने ऊँचे हो सकते हैं। हमने घर छोड़ा और गुरु की शरण में गये तो हम कल्पना नहीं कर सकते थे कि ऐसा अनुभव होता होगा ! हमने सोचा था कि 'हमारे इष्टदेव हैं शिवजी। गुरु की शरण जायें तो वे शिवजी के दर्शन करा दें, शिवजी से बात करा दें। ऐसा करके हमने 40 दिना का अनुष्ठान किया और कुछ चमत्कार होने लगे। हम विधिपूर्वक मंत्र जपते थे। फिर अंदर से आवाज आतीः 'तुम लीलाशाह जी बापू के पास जाओ। मैं वहाँ सब रूपों में तुम्हें मिलूँगा।'
हम पूछतेः "कौन बोल रहा है?"
तो उत्तर आताः "जिसका तुम जप कर रहे हो, वही बोल रहा है।"
मंदिर में जाते तो माँ पार्वती के सिर पर से फूर गिर पड़ता, शिवजी की मूर्ति पर से फूल गिर पड़ता। यह शुभ माना जाता है। कुबेरेश्वर महादेव था नर्मदा किनारे। अनुष्ठान के दिनों में कुछ ऐसे चमत्कार होने लगते थे और अंदर से प्रेरणा होती थी कि 'जाओ, जाओ लीलाशाह बापू के पास जाओ।'
हम पहुँचे तो गुरु की कैसी-कैसी कृपा हुई... हम तो मानते थे कि इतना लाभ होगा... जैसे, कोई आदमी 10 हजार का लाभ चाहे और उसे करोड़ों-अरबों रूपये की संपत्ति मिल जाय ! ऐसे ही हमने तो शिवजी का साकार दर्शन चाहा परंतु जप ने और गुरुकृपा ने ऐसा दे दिया कि शिवजी जिससे शिवजी हैं वह परब्रह्म-परमात्मा हमसे तनिक भी दूर नहीं है और हम उससे दूर नहीं। हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इतना लाभ होगा।
जैसे, कोई व्यक्ति जाय क्लर्क की नौकरी के लिए और उसे राष्ट्रपति बना दिया जाये तो....? कितना बड़ा आश्चर्य हो, उससे भी बड़ा आश्चर्य है यह। उससे भी बड़ी ऊँचाई है अनुभव की।
मंत्रजाप में अगतिगतिदायिनी शक्ति भी है। कोई मर गया और उसकी अवगति हो रही है और उसके कुटंबी भजनानंदी हैं अथवा उसके जो गुरु हैं, वे चाहें तो उसकी सदगति कर सकते हैं। नामजपवाले में इतनी ताकत होती है कि नरक में जानेवाले जीव को नरक से बचाकर स्वर्ग में भेज सकते हैं !

मुक्ति प्रदायिनी शक्तिः सामीप्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, सायुज्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति – इन चारों मुक्तियों में से जितनी तुम्हारी यात्रा है वह मुक्ति आपके लिए खास आरक्षित हो जायेगी। ऐसी शक्ति है मंत्रजाप में।

भगवत्प्रीतिदायिनी शक्तिः आप जप करते जाओ, भगवान के प्रति प्रीति बनेगी, बनेगी और बनेगी। और जहाँ प्रीति बनेगी, वहाँ मन लगेगा और जहाँ मन लगेगा वहाँ आसानी से साधन होने लगेगा।
कई लोग कहते हैं कि ध्यान में मन नहीं लगता। मन नहीं लगता है क्योंकि भगवान में प्रीति नहीं है। फिर भी जप करते जाओ तो पाप कटते जायेंगे और प्रीति बढ़ती जायेगी।
हम ये इसलिए बता रहे हैं कि आप भी इसका लाभ उठाओ। जप को बढ़ाओ तथा जप गंभीरता, प्रेम तथा गहराई से करो।

Thursday, June 14, 2012


अनन्य योग  पुस्तक से - Ananya Yog pustak se

रूचि और आवश्यकता - Ruchi aur Avashyakta

ऐसा कोई मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसके पास कुछ भी योग्यता न हो, जो किसी को मानता न हो। हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को मानता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो। वह कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो करता ही है। करने की, मानने की और जानने की यह स्वतः सिद्ध पूँजी है हम सबके पास। किसी के पास थोड़ी है तो किसी के पास ज्यादा है, लेकिन है जरूर। खाली कोई भी नहीं।
हम लोग जो कुछ करते हैं, अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। गलती क्या होती है कि हम आवश्यकता के अनुसार नहीं करते। रूचि के अनुसार मानते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं मानते हैं। रूचि के अनुसार जानते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं जानते । बस, यही एक गलती करते हैं। इसे अगर हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आराम से, बिल्कुल मजे से सफल हो सकते हैं। केवल यह एक बात कृपा करके जान लो।
एक होती है रूचि और दूसरी होती है आवश्यकता। शरीर को भोजन करने की आवश्यकता है। वह तन्दुरूस्त कैसे रहेगा, इसकी आवश्यकता समझकर आप भोजन करें तो आपकी बुद्धि शुद्ध रहेगी। रूचि के अनुसार भोजन करेंगे तो बीमारी होगी। अगर रूचि की आसक्ति से बन्धायमान होकर आप भोजन करेंगें तो कभी रुचि के अनुसार भोजन नहीं मिलेगा और यदि भोजन मिलेगा तो रूचि नहीं होगी। जिसको रूचि हो और वस्तु न हो तो कितना दुःख ! वस्तु हो और रूचि न हो तो कितनी व्यर्थता !
खूब ध्यान देना कि हमारे पास जानने की, मानने की और करने की शक्ति है। इसको आवश्यकता के अनुसार लगा दें तो हम आराम से मुक्त हो सकते हैं और रूचि के अनुसार लगा दें तो एक जन्म नहीं, करोड़ों जन्मों में भी काम नहीं बनता। कीट, पतंग, साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष माँग के अनुसार करते हैं और साधारण मनुष्य रूचि के अनुसार करते हैं।
जीवन की माँग है योग। जीवन की माँग है शाश्वत सुख। जीवन की माँग है अखण्डता। जीवन की माँग है पूर्णता।
आप मरना नहीं चाहते, यह जीवन की माँग है। आप अपमान नहीं चाहते। भले सह लेते हैं पर चाहते नहीं। यह जीवन की माँग है। तो अपमान जिसका न हो सके, वह ब्रह्म है। अतः वास्तव में आपको ब्रह्म होने की माँग है। आप मुक्ति चाहते हैं। जो मुक्त स्वरूप है, उसमें अड़चन आती है काम, क्रोध आदि विकारों से।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुदभव: ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।
'रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।'
(भगवद् गीताः ३-३७)
काम और क्रोध महाशत्रु हैं और इसमें स्मृतिभ्रम होता है, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश होता है। बुद्धिनाश से सर्वनाश हो जाता है। अगर रूचि को पोसते हैं तो स्मृति क्षीण होती है। स्मृति क्षीण हुई तो सर्वनाश।
एक लड़के की निगाह पड़ोस की किसी लड़की पर गई और लड़की की निगाह लड़के पर गई। अब उनकी एक दूसरे के प्रति रूचि हुई। विवाह योग्य उम्र है तो माँग भी हुई शादी की। अगर हमने माँग की ओर, कुल शिष्टाचार की ओर ध्यान नहीं दिया और लड़का लड़की को ले भागा अथवा लड़की लड़के को ले भागी तो मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे। किसी होटल में रहे, कभी कहाँ रहे – अखबारों में नाम छपा गया, 'पुलिस पीछे पड़ेगी,' डर लग गया। इस प्रकार रूचि में अन्धे होकर कूदे तो परेशान हुए। अगर विवाह योग्य उम्र हो गई है, गृहस्थ जीवन की माँग है, एक दूसरे का स्वभाव मिलता है तो माँ-बाप से कह दिया और माँ-बाप ने खुशी से समझौता करके दोनों की शादी करा दी। यह हो गई माँग की पूर्ति और वह थी रूचि की पूर्ति। रूचि की पूर्ति में जब अन्धी दौड़ लगती है तो परेशानी होती है, अपनी और अपने रिश्तेदारों की बदनामी होती है। ...तो शादी करने में बुद्धि चाहिए कि रूचि की पूर्ति के साथ माँग की पूर्ति हो।
माँग आसानी से पूरी हो सकती है और रूचि जल्दी पूरी होती नहीं। जब होती है तब निवृत्त नहीं होती, अपितु और गहरी उतरती है अथवा उबान और विषाद में बदलती है। रूचि के अनुसार सदा सब चीजें होंगी नहीं, रूचि के अनुसार सब लोग तुम्हारी बात मानेंगें नहीं। रूचि के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर टिकेगा नहीं। अन्त में रूचि बच जायेगी, शरीर चला जायगा। रूचि बच गई तो कामना बच गई। जातीय सुख की कामना, धन की कामना, सत्ता की कामना, सौन्दर्य की कामना, वाहवाही की कामना, इन कामनाओं से सम्मोह होता है। सम्मोह से बुद्धिभ्रम होता है, बुद्धिभ्रम से विनाश होता है।
करने की, मानने की और जानने की शक्ति को अगर रूचि के अनुसार लगाते हैं तो करने का अंत नहीं होगा, मानने का अंत नहीं होगा, जानने का अंत नहीं होगा। इन तीनों योग्यताओं को आप अगर यथा योग्य जगह पर लगा देंगे तो आपका जीवन सफल हो जायगा।
अतः यह बात सिद्ध है कि आवश्यकता पूरी करने में शास्त्र, गुरू, समाज और भगवान आपका सहयोग करेंगे। आपकी आवश्यकता पूरी करने में प्रकृति भी सहयोग देती है। बेटा माँ की गोद में आता है, उसकी आवश्यकता होती है दूध की। प्रकृति सहयोग देकर दूध तैयार कर देती है। बेटा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो दाँत आ जाते हैं।
मनुष्य की आवश्यकता है हवा की, जल की, अन्न की। यह आवश्यकता आसानी से यथायोग्य पूरी हो जाती है। आपको अगर रूचि है शराब की, अगर उस रूचि पूर्ति में लगे तो वह जीवन का विनाश करती है। शरीर के लिए शराब की आवश्यकता नहीं है। रूचि की पूर्ति कष्टसाध्य है और आवश्यकता की पूर्ति सहजसाध्य है।
आपके पास जो करने की शक्ति है, उसे रूचि के अनुसार न लगाकर समाज के लिए लगा दो। अर्थात् तन को, मन को, धन को, अन्न को, अथवा कुछ भी करने की शक्ति को 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' में लगा दो।
आपको होगा कि अगर हम अपना जो कुछ है, वह समाज के लिए लगा दें तो फिर हमारी आवश्यकताएँ कैसे पूरी होंगी?
आप समाज के काम में आओगे तो आपकी सेवा में सारा समाज तत्पर रहेगा। एक मोटरसाइकल काम में आती है तो उसको संभालने वाले होते हैं कि नहीं ? घोड़ा गधा काम में आता है तो उसको भी खिलाने वाले होते हैं। आप तो मनुष्य हो। आप अगर लोगों के काम आओगे तो हजार-हजार लोग आपकी आवश्यकता पूरी करने के लिए लालायित हो जायेंगे। आप जितना-जितना अपनी रूचि को छोड़ोगे, उतनी उतनी उन्नति करते जाओगे।
जो लोग रूचि के अनुसार सेवा करना चाहते हैं, उनके जीवन मे बरकत नहीं आती। किन्तु जो आवश्यकता के अनुसार सेवा करते हैं, उनकी सेवा रूचि मिटाकर योग बन जाती है। पतिव्रता स्त्री जंगल में नहीं जाती, गुफा में नहीं बैठती। वह अपनी रूचि पति की सेवा में लगा देती है। उसकी अपनी रूचि बचती ही नहीं है। अतः उसका चित्त स्वयमेव योग में आ जाता है। वह जो बोलती है, ऐसा प्रकृति करने लगती है।
तोटकाचार्य, पूरणपोडा, सलूका-मलूका, बाला-मरदाना जैसे सत् शिष्यों ने गुरू की सेवा में, गुरू की दैवी कार्यों में अपने करने की, मानने की और जानने की शक्ति लगा दी तो उनको सहज में मुक्तिफल मिल गया। गुरूओं को भी ऐसा सहज में नहीं मिला था जैसा इन शिष्यों को मिल गया। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य को गुरूप्राप्ति के लिए कितना कितना परिश्रम करना पड़ा ! कहाँ से पैदल यात्रा करनी पड़ी ! ज्ञानप्राप्ति के लिए भी कैसी-कैसी साधनाएँ करनी पड़ी ! जबकि उनके शिष्य तोटकाचार्य ने तो केवल अपने गुरूदेव के बर्तन माँजते-माँजते ही प्राप्तव्य पा लिया।
अपनी करने की शक्ति को स्वार्थ में नहीं अपितु परहित में लगाओ तो करना तुम्हारा योग हो जायेगा। मानने की शक्ति है तो विश्वनियंता को मानो। वह परम सुहृद है और सर्वत्र है, अपना आपा भी है और प्राणी मात्र का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वे परमात्मा का अनादर करते हैं।  जो बहन अपने को विधवा मानती है, वह परमात्मा का अनादर करती है। अरे ! जगतपति परमात्मा विद्यमान होते हुए तू विधवा कैसे हो सकती है ? विश्व का नाथ साथ में होते हुए तुम अनाथ कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, विधवा इत्यादि मानते हो तो तुमने अपने मानने की शक्ति का दुरूपयोग किया। विश्वपति सदा मौजूद है और तुम आँसू बहाते हो ?
"मेरे पिता जी स्वर्गवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"
"गुरुजी आप चले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"
नहीं नहीं....। तू वीर पिता का पुत्र है। निर्भय गुरू का चेला है। तू तो वीरता से कह दे कि, 'आप आराम से अपनी यात्रा करो। हम आपकी उत्तरक्रिया करेंगे और आपके आदर्शों को, आपके विचारों को समाज की सेवा में लगाएँगे ताकि आपकी सेवा हो जाय।' यह सुपुत्र और सत् शिष्य का कर्त्तव्य होता है। अपने स्वार्थ के लिये रोना, यह न पत्नी के लिए ठीक है न पति के लिए ठीक है, न पुत्र के लिए ठीक है न शिष्य के लिए ठीक है और न मित्र के लिए ठीक है।
पैगंबर मुहम्मद परमात्मा को अपना दोस्त मानते थे, जीसस परमात्मा को अपना पिता मानते थे और मीरा परमात्मा को अपना पति मानती थी। परमात्मा को चाहे पति मानो चाहे दोस्त मानो, चाहे पिता मानो चाहे बेटा मानो, वह है मौजूद और तुम बोलते हो कि मेरे पास बेटा नहीं है.... मेरी गोद खाली है। तो तुम ईश्वर का अनादर करते हो। तुम्हारी हृदय की गोद में परमात्मा बैठा है, तुम्हारी इन्द्रियों की गोद में परमात्मा में बैठा है।
तुम मानते तो हो लेकिन अपनी रूचि के अनुसार मानते हो, इसलिए रोते रहते हो। माँग के अनुसार मानते हो तो आराम पाते हो। महिला आँसू बहा रही है कि रूचि के अनुसार बेटा अपने पास नहीं रहा। उसकी जहाँ आवश्यकता थी, परमात्मा ने उसको वहाँ रख लिया क्योंकि उसकी सृष्टि केवल उस महिला की गोद या उसका घर ही नहीं है। सारी सृष्टि, सारा ब्रह्माण्ड उस परमात्मा की गोद में है। तो वह बेटा कहीं भी हो, वह परमात्मा की गोद में ही है। अगर हम रूचि के अनुसार मन को बहने देते हैं तो दुःख बना रहता है।
रूचि के अनुसार तुम करते रहोगे तो समय बीत जायगा, रूचि नहीं मिटेगी। यह रूचि है कि जरा-सा पा लें..... जरा सा भोग लें तो रूचि पूरी हो जाय। किन्तु ऐसा नहीं है। भोगने से रूचि गहरी उतर जायगी। जगत का ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो रूचिकर हो और मिलता भी रहे। या तो पदार्थ नष्ट हो जाएगा या उससे उबान आ जाएगी।
रूचि को पोसना नहीं है, निवृत्त करना है। रूचि निवृत्त हो गई तो काम बन गया, फिर ईश्वर दूर नहीं रहेगा। हम गलती यह करते हैं कि रूचि के अनुसार सब करते रहते हैं। पाँच-दस व्यक्ति ही नहीं, पूरा समाज इसी ढाँचे में चल रहा है। अपनी आवश्यकता को ठीक से समझते नहीं और रूचि पूरी करने में लगे रहते हैं। ईश्वर तो अपना आपा है, अपना स्वरूप है। वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
"हे रामजी ! फूल, पत्ते और टहनी तोड़ने में तो परिश्रम है, किन्तु अपने आत्मा-परमात्मा को जानने में क्या परिश्रम है ? जो अविचार से चलते हैं, उनके लिए संसार सागर तरना महा कठिन है, अगम्य है। तुम सरीखे जो बुद्धिमान हैं उनके लिए संसार सागर गोपद की तरह तरना आसान है। शिष्य में जो सदगुण होने चाहिए वे तुम में हैं और गुरू में जो सामर्थ्य होना चाहिए वह हममें है। अब थोड़ा सा विचार करो, तुरन्त बेड़ा पार हो जायगा।"
हमारी आवश्यकता है योग की और जीते हैं रूचि के अनुसार। कोई हमारी बात नहीं मानता तो हम गर्म हो जाते हैं, लड़ने-झगड़ने लगते हैं। हमारी रूचि है अहं पोसने की और आवश्यकता है अहं को विसर्जित करने की। रूचि है अनुशासन करने की, कुछ विशेष हुक्म चलाने की और आवश्यकता है सबमें छुपे हुए विशेष को पाने की।
आप अपनी आवश्यकताएँ पूरी करो, रूचि को पूरी मत करो। जब आवश्यकताएँ पूरी करने में लगेंगे तो रूचि मिटने लगेगी। रूचि मिट जायगी तो शहंशाह हो जाओगे। आपमें करने की, मानने की, जानने की शक्ति है। रूचि के अनुसार उसका उपयोग करते हो तो सत्यानाश होता है। आवश्यकता के अनुसार उसका उपयोग करोगे तो बेड़ा पार होगा।
आवश्यकता है अपने को जानने की और रूचि है लंदन, न्यूयार्क, मास्को में क्या हुआ, यह जानने की।
'इसने क्या किया... उसने क्या किया.... फलाने की बारात में कितने लोग थे.... उसकी बहू कैसी आयी....' यह सब जानने की आवश्यकता नहीं है। यह तुम्हारी रूचि है। अगर रूचि के अनुसार मन को भटकाते रहोगे तो मन जीवित रहेगा और आवश्यकता के अनुसार मन का उपयोग करोगे तो मन अमनीभाव को प्राप्त होगा। उसके संकल्प-विकल्प कम होंगे। बुद्धि को परिश्रम कम होगा तो वह मेधावी होगी। रूचि है आलस्य में और आवश्यकता है स्फूर्ति की। रूचि है थोड़ा करके ज्यादा लाभ लेने में और आवश्यकता है ज्यादा करके कुछ भी न लेने की। जो भी मिलेगा वह नाशवान होगा, कुछ भी नहीं लोगे तो अपना आपा प्रकट हो जायगा।
कुछ पाने की, कुछ भोगने की जो रूचि है, वही हमें सर्वेश्वर की प्राप्ति से वंचित कर देती है। आवश्यकता है 'नेकी कर कुएँ में फेंक'। लेकिन रूचि होती है, 'नेकी थोड़ी करूँ और चमकूँ ज्यादा। बदी बहुत करूँ और छुपाकर रखूँ।' इसीलिए रास्ता कठिन हो गया है। वास्तव में ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता रास्ता ही नहीं है, क्योंकि रास्ता तब होता है जब कोई चीज वहाँ और हम यहाँ। दोनों के बीच में दूरी हो। हकीकत में ईश्वर ऐसा नहीं है कि हम यहाँ हों और ईश्वर कहीं दूर हो। आपके और ईश्वर के बीच एक इंच का भी फासला नहीं, एक बाल जितना भी अंतर नहीं लेकिन अभागी रूचि ने आपको और ईश्वर को पराया कर दिया है। जो पराया संसार है, मिटने वाला शरीर है, उसको अपना महसूस कराया। यह शरीर पराया है, आपका नहीं है। पराया शरीर अपना लगता है। मकान है ईंट-चूने-लक्कड़-पत्थर का और पराया है लेकिन रूचि कहती है कि मकान मेरा है।
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं-
"हे मूर्ख मनुष्यों ! अपना धन, बल व शक्ति बड़े-बड़े भवन बनाने में मत खर्चो, रूचि की पूर्ति में मत खर्चो। अपनी आवश्यकता के अनुसार सीधा सादा निवास स्थान बनाओ और बाकी का अमूल्य समय जो आपकी असली आवश्यकता है योग की, उसमें लगाओ। ढेर सारी डिजाइनों के वस्त्रों की कतारें अपनी अलमारी में मत रखो लेकिन तुम्हारे दिल की अलमारी में आने का समय बचा लो। जितनी आवश्यकता हो उतने ही वस्त्र रखो, बाकी का समय योग में लग जायेगा। योग ही तुम्हारी आवश्यकता है। विश्रान्ति तुम्हारी आवश्यकता है। अपने आपको जानना तुम्हारी आवश्यकता है। जगत की सेवा करना तुम्हारी आवश्यकता है क्योंकि जगत से शरीर बना है तो जगत के लिए करोगे तो तुम्हारी आवश्यकता अपने आप पूरी हो जायगी।
ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारे प्यार की, जगत को आवश्यकता है तुम्हारी सेवा की और तुम्हें आवश्यकता है अपने आपको जानने की।
शरीर को जगत की सेवा में लगा दो, दिल में परमात्मा का प्यार भर दो और बुद्धि को अपना स्वरूप जानने में लगा दो। आपका बेड़ा पार हो जायगा। यह सीधा गणित है।
मानना, करना और जानना रूचि के अनुसार नहीं बल्कि, आवश्यकता के अनुसार ही हो जाना चाहिए। आवश्यकता पूरी करने में नहीं कोई पाप, नहीं कोई दोष। रूचि पूरी करने में तो हमें कई हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। जीवन खप जाता है किन्तु रूचि खत्म नहीं होती, बदलती रहती है। रूचिकर पदार्थ आप भोगते रहें तो भोगने का सामर्थ्य कम हो जायगा और रूचि रह जायगी। देखने की शक्ति खत्म हो जाय और देखने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! सुनने की शक्ति खत्म हो जाय और सुनने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुर्भाग्य ! जीने की शक्ति क्षीण हो जाय और जीने की रूचि बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! इसलिए मरते समय दुःख होता है। जिनकी रूचि नहीं होती उन आत्मरामी पुरूषों को क्या दुःख ? श्रीकृष्ण को देखते-देखते भीष्म पितामह ने प्राण ऊपर चढ़ा दिये। उन्हें मरने का कोई दुःख नहीं।
सूँघने की रूचि बनी रहे और नाक काम न करे तो ? यात्रा की रूचि बनी रहे और पैर जवाब दे दें तो ? पैसों की रूचि बनी रहे और पैसे न हों तो कितना दुःख ? वाहवाही की रूचि है और वाहवाही न मिली तो ?
अगर रूचि के अनुसार वाहवाही मिल भी जाय तो क्या रूचि पूरी हो जायगी ? नहीं, और ज्यादा वाहवाही की इच्छा होगी। हम जानते ही हैं कि जिसकी वाहवाही होती है उसकी निन्दा भी होती है। अतः वाहवाही से रूचिपूर्ति का सुख मिलता है तो निन्दा से उतना ही दुःख होगा। और इतने ही निन्दा करने वालों के प्रति अन्यायकारी विचार उठेंगे। अन्यायकारी विचार जिस हृदय में उठेंगे, उसी हृदय को पहले खराब करेंगे। अतः हम अपना ही नुकसान करेंगे।
एक होता है अनुशासन, दूसरा होता है क्रोध। जिन्हें अपने सुख की कोई रूचि नहीं, जो सुख देना चाहते हैं, जिन्हें अपने भोग की कोई इच्छा नहीं है, उनकी आवश्यकता सहज में पूरी होती है। जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगे हैं, वे अगर डाँटते भी हैं तो वह अनुशासन हो जाता है। जो रूचिपूर्ति के लिए डाँटते हैं वह क्रोध हो जाता है। आवश्यकतापूर्ति के लिए अगर पिटाई भी कर दी जाय तो भी प्रसाद बन जाता है।
माँ को आवश्यकता है बेटे को दवाई पिलाने की तो माँ थप्पड़ भी मारती है, झूठ भी बोलती है, गाली भी देती है फिर भी उसे कोई पाप नहीं लगता। दूसरा कोई आदमी अपनी रूचि पूर्ति के लिए ऐसा ही व्यवहार उसके बेटे से करे तो देखो, माँ या दूसरे लोग भी उसकी कैसी खबर ले लेते हैं ! किसी की आवश्यकतापूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध भी अनुशासन बन जाता है। रूचि पूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध कई मुसीबतें खड़ी कर देता है।
एक विनोदी बात है। किसी जाट ने एक सूदखोर बनिये से सौ रूपये उधार लिये थे। काफी समय बीत जाने पर भी जब उसने पैसे नहीं लौटाये तो बनिया अकुलाकर उसके पास वसूली के लिए गया।
"भाई ! तू ब्याज मत दे, मूल रकम सौ रूपये तो दे दे। कितना समय हो गया ?"
जाट घुर्राकर बोलाः "तुम मुझे जानते हो न ? मैं कौन हूँ?"
"इसीलिए तो कहता हूँ कि ब्याज मत दो। केवल सौ रूपये दे दो।"
"सौ-वौ नहीं मिलेंगे। मेरा कहना मानो तो कुछ मिलेगा।"
बनिये ने सोचा कि खाली हाथ लौटने से बेहतर है, जो कुछ मिले वही ले लूँ।
अच्छा, तो तू जितना चाहे उतना दे दे ।
जाट ने कहाः "देखो, मगर आपको पैसे लेने हो तो मेरी इतनी सी बात मानो। आपके सौ रूपयें हैं ?"
"हाँ"।
"तो सौ के कर दो साठ।"
"ठीक है, साठ दे दो।"
"ठहरो, मुझे बात पूरी कर लेने दो। सौ के कर दो साठ.... आधा कर दो काट.. दस देंगे... दस छुड़ायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ। अभी दुकान पर पहुँच जाओ।"
मिला क्या ? बनिया खाली हाथ लौट गया।
ऐसे ही मन की जो इच्छाएँ होती हैं, उसको कहेंगे कि भाई ! इच्छाएँ पूरी करेंगे लेकिन अभी तो सौ की साठ कर दे, और उसमें से आधा काट कर दे। दस इच्छाएँ तेरी पूरी करेंगे धर्मानुसार आवश्यकता के अनुसार। दस इच्छाओं की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है और शेष दस से जोड़ेंगे हाथ। अभी तो भजन में लगेंगे, औरों की आवश्यकता पूरी करने में लगेंगे।
जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगता है, उसकी रूचि अपने आप मिटती है और आवश्यकता पूरी होने लगती है। आपको पता है कि जब सेठ का नौकर सेठ की आवश्यकताएँ पूरी करने लगता है तो उसके रहने की आवश्यकता की पूर्ति सेठ के घर में हो जाती है। उसकी अन्न-वस्त्रादि की आवश्यकताएँ पूरी होने लगती हैं। ड्रायवर अपने मालिक की आवश्यकता पूरी करता है तो उसकी घर चलाने की आवश्यकतापूर्ति मालिक करता ही है। फिर वह आवश्यकता बढ़ा दे और विलासी जीवन जीना चाहे तो गड़बड़ हो जायगी, अन्यथा उसकी आवश्यकता जो है उसकी पूर्ति तो हो ही जाती है। आवश्यकता पूर्ति में और रूचि की निवृत्ति में लग जाय तो ड्रायवर भी मुक्त हो सकता है, सेठ भी मुक्त हो सकता है, अनपढ़ भी मुक्त हो सकता है, शिक्षित भी मुक्त हो सकता, निर्धन भी मुक्त हो सकता है, धनवान भी मुक्त हो सकता है, देशी भी मुक्त हो सकता है, परदेशी भी मुक्त हो सकता है। अरे, डाकू भी मुक्त हो सकता है।
आपके पास ज्ञान है, उस ज्ञान का आदर करो। फिर चाहे गंगा के किनारे बैठकर आदर करो या यमुना के किनारे बैठकर आदर करो या समाज में रहकर आदर करो। ज्ञान का उपयोग करने की कला का नाम है सत्संग।
सबके पास ज्ञान है। वह ज्ञानस्वरूप चैतन्य ही सबका अपना आपा है। लेकिन बुद्धि के विकास का फर्क है। ज्ञान तो मच्छर के पास भी है। बुद्धि की मंदता के कारण रूचिपूर्ति में ही हम जीवन खर्च किये जाते हैं। जिसको हम जीवन कहते हैं, वह शरीर हमारा जीवन नहीं है। वास्तव में ज्ञान ही हमारा जीवन है, चैतन्य आत्मा ही हमारा जीवन है।
ॐकार का जप करने से आपकी आवश्यकतापूर्ति की योग्यता बढ़ती है और रूचि की निवृत्ति में मदद मिलती है। इसलिए ॐकार (प्रणव) मंत्र सर्वोपरि माना जाता है। हालांकि संसारी दृष्टि से देखा जाय तो महिलाओं को एवं गृहस्थियों को अकेला ॐकार का जप नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने रूचियों को आवश्यकता का जामा पहनाकर ऐसा विस्तार कर रखा है कि एकाएक अगर वह सब टूटने लगेगा तो वे लोग घबरा उठेंगे। एक तरफ अपनी पुरानी रूचि खींचेगी और दूसरी तरफ अपनी मूलभूत आवश्यकता – एकांत की, आत्मसाक्षात्कार की इच्छा आकर्षित करेगी। प्रणव के अधिक जप से मुक्ति की इच्छा जोर मारेगी। इससे गृहस्थी के इर्द-गिर्द जो रूचि पूर्ति करने वाले मंडराते रहते हैं, उन सबको धक्का लगेगा। इसलिए गृहस्थियों को कहते हैं कि अकेले ॐ का जप मत करो। ऋषियों ने कितना सूक्ष्म अध्ययन किया है।
समाज को आपके प्रेम की, सान्त्वना की, स्नेह की और निष्काम कर्म की आवश्यकता है। आपके पास करने की शक्ति है तो उसे समाज की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो। आपकी आवश्यकता माँ, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर देंगे। अन्न, जल और वस्त्र आसानी से मिल जायेंगे। पर टेरीकोटन कपड़ा चाहिए, पफ-पॉवडर चाहिए तो यह रूचि है। रूचि के अनुसार जो चीजें मिलती हैं, वे हमारी हानि करती हैं। आवश्यकतानुसार चीजें हमारी तन्दुरूस्ती की भी रक्षा करती है। जो आदमी ज्यादा बीमार है, उसकी बुद्धि सुमति नहीं है।
चरक-संहिता के रचयिता ने अपने शिष्य को कहा कि तंदुरूस्ती के लिए भी बुद्धि चाहिए। सामाजिक जीवन जीने के लिए भी बुद्धि चाहिए और मरने के लिय भी बुद्धि चाहिए। मरते समय भी अगर बुद्धि का उपयोग किया जाय कि, 'मौत हो रही है इस देह की, मैं तो आत्मा चैतन्य व्यापक हूँ।' ॐकार का जप करके मौत का भी साक्षी बन जायें। जो मृत्यु को भी देखता है उसकी मृत्यु नहीं होती। क्रोध को देखने वाले हो जाओ तो क्रोध शांत हो जायेगा। यह बुद्धि का उपयोग है। जैसे आप गाड़ी चलाते हो और देखते हुए चलाते हो तो खड्डे में नहीं गिरती और आँख बन्द करके चलाते हो तो बचती भी नहीं। ऐसे ही क्रोध आया और हमने बुद्धि का उपयोग नहीं किया तो बह जायेंगे। काम, लोभ और मोहादि आयें और सतर्क रहकर बुद्धि से काम नहीं लिया तो ये विकार हमें बहा ले जायेंगे।
लोभ आये तो विचारों कि आखिर कब तक इन पद-पदार्थों को संभालते रहोगे। आवश्यकता तो यह है कि बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय इनका उपयोग किया जाये और रूचि है इनका अम्बार लगाने की। अगर रूचि अनुसार किया तो मुसीबतें पैदा कर लोगे। ऐसे ही आवश्यकता है कहीं पर अनुशासन की और आपने क्रोध की फूफकार मार दिया तो जाँच करो कि उस समय आपका हृदय तपता तो नहीं। सामने वाले का अहित हो जाये तो हो जाये किन्तु आपकी बात अडिग रहे – यह क्रोध है। सामने वाला का हित हो, अहित तनिक भी न हो, अगर यह भावना गहराई में हो तो फिर वह क्रोध नहीं, अनुशासन है। अगर जलन महसूस होती है तो क्रोध घुस गया। काम बुरा नहीं है, क्रोध बुरा नहीं है, लोभ-मोह और अहंकार बुरा नहीं है। धर्मानुकूल सबकी आवश्यकता है। अगर बुरा होता तो सृष्टिकर्ता बनाता ही क्यों ? जीवन-विकास के लिए इनकी आवश्यकता है। दुःख बुरा नहीं है। निन्दा, अपमान, रोग बुरा नहीं है। रोग आता है तो सावधान करता है कि रूचियाँ मत बढ़ाओ। बेपरवाही मत करो। अपमान भी सिखाता है कि मान की इच्छा है, इसलिए दुःख होता है। शुकदेव जी को मान में रूचि नहीं है, इसलिए कोई लोग अपमान कर रहे हैं फिर भी उन्हें दुःख नहीं होता। रहुगण राजा कितना अपमान करते हैं, किन्तु जड़भरत शांतचित्त रहते हैं।
अपमान का दुःख बताता है कि आपको मान में रूचि है। दुःख का भाव बताता है कि सुख में रूचि है। कृपा करके अपनी रूचि परमात्मा में ही रखो।
सुख, मान और यश में नहीं फँसोगे तो आप बिल्कुल स्वतंत्र हो जाओगे। योगी का योग सिद्ध हो जायेगा, तपी का तप और भक्त की भक्ति सफल हो जायगी। बात अगर जँचती है तो इसे अपनी बना लेना। तुम दूसरा कुछ नहीं तो कम से कम अपने अनुभव का तो आदर करो। आपको रूचि अनुसार भोग मिलते हैं तो भोग भोगते-भोगते आप थक जाते हैं कि नहीं ? ऊबान आ जाती है कि नहीं ? ... तो इस ज्ञान का आदर करो। योगमार्ग पर चलते हुए या आवश्कतानुसार 'बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय' काम करते हो तो आपको आनन्द आता है। आपका मन एवं बुद्धि विकसित होती है। यह भी आपका अनुभव है। सत्संग के बाद आपको यह महसूस होता है कि बढ़िया कार्य किया। शांति, सुख एवं सुमति मिली। ....तो अपने अनुभव की बात को आप पक्की करके हृदय की गहराई में उतार लो कि रूचि की निवृत्ति में ही आनन्द है और आवश्यकता तो स्वतः पूरी हो जायेगी।

Sunday, May 27, 2012

अलख की ओर  पुस्तक से - Alakh Ki Or pustak se

आत्मानुसंधान - Atmanusandhan

भागवत की कथा करने वाले एक पण्डित कथा के बाद बहुत थक जाते थे। मस्तिष्क भारी-भारी रहता था। काफी इलाज किये लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। श्री घाटवाले बाबा ने उनको ज्ञानमुद्रा में बैठने की विधि बतायी। कुछ ही समय में पण्डित जी को चमत्कारिक लाभ हुआ। ज्ञानमुद्रा से मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलती है और चित्त जल्दी शांत हो जाता है। आत्म-कल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशांति व आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए यह ज्ञानमुद्रा बड़ी सहायक है। इस मुद्रा में प्रतिदिन थोड़ी देर बैठना चाहिए।

ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गरम आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। आन्तर कुम्भक व बहिर्कुम्भक तथा मूलबन्ध, उड्डियानबन्ध व जालन्धरबन्ध-इस त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली उँगली के नाखून को अँगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीन उँगलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गरदन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मीलित। शरीर अडोल।

अब गहरा श्वास लेकर 'ॐ का दीर्घ गुंजन करो। प्रारम्भ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी। फिर गहराई में जाकर हृदय से 'ॐ...' की ध्वनि निकालो। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाओ। इस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनन्द प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा जब तक उसे भीतर का आनन्द नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा के अभ्यास व 'ॐ...' के गुंजन से मन की भटकान शीघ्रता से कम होने लगेगी।

ध्यान में बैठने से पहले जो कार्य करना नितान्त आवश्यक हो उसे पूरा कर लो। ध्यान के समय जो काम करने की कोई जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाये तो 'ॐ...' का पावन गुंजन करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

वर्त्तमान का आदर करने से चित्त शुद्ध होता है। भूत-भविष्य की कल्पना छोड़कर वर्त्तमान में स्थित रहना यह वर्त्तमान का आदर हुआ। निज अनुभव का आदर करने से चित्त की अशुद्धि दूर होती है। निज अनुभव यह है कि जो भी काम होते हैं, सब वर्त्तमान में ही किया जाता है। पीछे की कल्पना करो तो भूतकाल और आगे की कल्पना करो तो भविष्य काल। भूत और भविष्य दोनों वर्त्तमान काल में ही सिद्ध होते हैं। वर्त्तमानकाल की सिद्धि भी 'मैं हूँ' इस अनुमति पर निर्भर है।

'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।

मंगलमय यात्रा पर प्रस्थान करते समय वर्त्तमान का आदर करो। वर्त्तमान का आदर करने से आदमी भूत व भविष्य की कल्पना में लग जाना यह मन का स्वभाव है। अतः ज्ञानमुद्रा में बैठकर संकल्प करो कि अब हम 'ॐ...' की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा.... फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से 'ॐ...' का गुंजन करके मन को खींचकर पुनः वर्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार 'ॐ....' का गुँजन करके शांत हो जाओ। वक्षःस्थल के भीतर तालबद्ध रूप से धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो.... निहारते रहो..... मानों शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ 'ॐ... राम.... ॐ....राम....' मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को उससे जोड़ दो। हृदय की धड़कन को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूत-भविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर रस चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है, शहद का बिन्दु पाकर जैसे चींटी वहाँ आस्वाद लेने के लिए चिपक जाती है वैसे ही चित्तरूपी भ्रमर को परमात्मा के प्यार से प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदय कमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो।

सागर की सतह पर दौड़ती हुई तरंगे कम हो जाती हैं तो सागर शांत दिखता है। सागर की गरिमा का एहसास होता है। चित्तरूपी सागर में वृत्तिरूपी लहरियाँ दौड़ रही हैं। वर्त्तमान का आदर करने से वे वृत्तियाँ कम होने लगेंगी। एक वृत्ति पूरी हुई और दूसरी अभी उठने को है, उन दोनों के बीच जो सन्धिकाल है वह बढ़ने लगा। बिना वृत्तियों की अनुपस्थिति में भी हम हैं। इस अवस्था में केवल आनंद-ही-आनंद है। वही हमारा असली स्वरूप है। इस निःसंकल्पावस्था का आनन्द बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ॐ का प्यार गुंजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसी निर्विषय, निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि आत्मा आनन्दस्वरूप है।

यह आनन्द संसार के सुख या हर्ष जैसा नहीं है। संसार के सुख में और आत्मसुख में बड़ा फासला है। संसार का सुख क्रिया से आता है, उपलब्ध फल का भोग करने से आता है जबकि आत्मसुख तमाम स्थूल-सूक्ष्म क्रियाओं से उपराम होने पर आता है। सांसारिक सुख में भोक्ता हर्षित होता है और साथ ही साथ बरबाद होता है। आत्मसुख में भोक्ता शांत होता है और आबाद होता है।

इस आत्म-ध्यान से, आत्म-चिन्तन से भोक्ता की बरबादी रुकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है.... अनादि काल से परमात्मा था ही, यह जानने लगता है।

तरंगे सागर में लीन होने लगती है तो वे अपना तरंगपना छोड़कर जलरूप हो जाती है। हमारी तमाम वृत्तियों का मूल उदगम्-स्थान.... अधिष्ठान परमात्मा है। 'हम यह शरीरधारी हैं.... हमारा यह नाम है.... हमारी वह जाति है..... हमारे ये सगे-सम्बन्धी हैं.... हम इस जगत में रहते हैं....' ये तमाम प्रपंच हमारी वृत्तियों के खेल हैं। हमारी वृत्ति अपने मूल उदगम्-स्थान आनन्दस्वरूप परमात्मा में डूब गई, लीन हो गई तो न यह शरीर है न उसका कोई नाम है, न उसकी कोई जाति है, न उसके कोई सगे सम्बन्धी हैं और न कोई जगत ही है। केवल आनंदस्वरूप परमात्मा ही परमात्मा है। वह परमात्मा मैं हूँ। एक बार यह सत्य आत्मसात हो  गया, भली प्रकार निजस्वरूप का बोध हो गया, फिर चाहे करोड़ों-करोड़ों वृत्तियाँ उठती रहें, करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते रहें..... बिगड़ते रहें फिर भी उस बुद्ध पुरुष को कोई हानि नहीं। वह परिपक्व अवस्था जब तक सिद्ध न हो तब तक आत्मध्यान का अभ्यास करते रहो।

पानी में जितनी तरंगे कम हो गईं उतनी पानी में समाहित हो गईं। हमारी वृत्तियाँ जितनी शांत हुईं उतनी परमात्मा से मिल गईं, स्वरूप में लीन हो गईं, उतना आत्मस्वरूप प्रकट हो गया।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनन्द और अनुपम शांति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व शांति का एहसास होगा। आत्मबलकी प्राप्त होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। क्रियाजनित व फलभोगजनित सुख के पीछे जो भटकाव है वह कम हो जायेगी। अपने अस्तित्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। पाप नष्ट हो जायेंगे। आत्मदेव में स्थिति होने लगेगी। परमात्म-साक्षात्कार करने की योग्यता बढ़ जायेगी।

ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्म-खजाना जता देने में कोई देर नहीं लगती। साधक को अपनी योग्यता विकास करने भर की देर है।

प्रधानमंत्री का चपरासी उसको प्रसन्न कर ले, खूब राजी कर ले फिर भी प्रधानमंत्री उसको कलेक्टर नहीं बना सकता क्योंकि उसकी योग्यता विकसित नहीं हो पायी है। स्कूल का पूरा ट्रस्टीमण्डल भेड़ चराने वाले किसी अहीर पर राजी हो जाय, उसको निहाल करना चाहे फिर भी उसको स्कूल का आचार्य नहीं बना सकता।

त्रेता युग में राजा मुचकुन्द गर्गाचार्य के दर्शन सत्संग के फलस्वरूप भगवान का दर्शन पाते हैं। भगवान से स्तुति करते हुए कहते हैं किः "प्रभो ! मुझे आपकी दृढ़ भक्ति दो।" तब भगवान कहते हैं- "तूने जवानी में खूब भोग भोगे हैं, विकारों में खूब डूबा रहा है। विकारी जीवन जीनेवाले को दृढ़-भक्ति नहीं मिलती। मुचकन्द ! दृढ़भक्ति के लिए जीवन में संयम बहुत जरूरी है। तेरा यह क्षत्रिय शरीर समाप्त होगा तो दूसरे जन्म में तुझे दृढ़ भक्ति प्राप्त होगी।"

वही राजा मुचकन्द कलियुग में नरसिंह मेहता हुए। मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री या परमात्मा किसी पर राजी हो जायँ फिर भी कुछ पाने के लिए, पाया हुआ पचाने  के लिए अपनी योग्यता तो चाहिए ही। अपनी वासनावाली वृत्तियाँ बदलती रहेंगी, विषयों में फैलती रहेंगी, तो भगवान या सदगुरु की कृपा हमें परम पद नहीं पहुँच पायेगी। उस करूणा में वह ताकत तो है लेकिन उसको हजम करने की ताकत हममें नहीं है। मक्खन में ताकत है लेकिन हमें वह हजम नहीं होता तो हम उसका लाभ नहीं उठा पाते। उसको हजम करने के लिए हमें व्यायाम करना होगा, परिश्रम करना होगा। इसी प्रकार सदगुरु या परमात्मा का कृपा-अमृत हजम करने के लिए हमें साधना द्वारा योग्यता विकसित करनी होगी।

अपने पुण्यों का प्रभाव कहो चाहे परमात्मा की कृपा कहो, हमारा परम सौभाग्य खुल रहा है कि हम ब्रह्मचिन्तन के मार्ग की ओर अभिमुख हो रहे हैं।

व्यर्थ के भोगों से बचने के लिए परोपकार करो और व्यर्थ चिन्तन से दूर रहने के लिए ब्रह्मचिन्तन करो। व्यर्थ के भोगों और व्यर्थ चिन्तन से बचे तो ब्रह्मचिन्तन करना नहीं पड़ेगा, वह स्वतः ही होने लगेगा। आगे चलकर ब्रह्मचिन्तन पूर्णावस्था में पहुँचकर स्वयं भी पूरा हो जायेगा। ब्रह्म-परमात्मा में स्थिति हो जायेगी। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मवेत्ता ब्रह्ममय हो जाता है। तरंग का तरंगपना विलीन होने पर जलरूप रह जाता है। वह अपना सहज स्वरूप प्राप्त कर लेती है।

रामायण में कहा हैः
मम दर्शन फल परम अनूपा।
जीव पावहिं निज सहज स्वरूपा।।
ब्रह्माभ्यास के लिए ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् सुबह 3 बजे के बाद का समय अत्यंत उपयोगी होता है। इस अमृतवेला में प्रकृति के निम्न कोटि के जीव प्रकृति में लीन रहते हैं। समग्र वातावरण में अपार शांति का साम्राज्य छाया हुआ रहता है। संत, महात्मा, योगी और उच्च कोटि के साधकों के मंगल आध्यात्मिक आन्दोलन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमारा चित्तसरोवर भी रात्रि की नींद के बाद शांत बन जाता है। वृत्तियों की दौड़ कम हो जाती है। ऐसी अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर प्राणायाम करके ज्ञानमुद्रा में बैठकर ब्रह्माभ्यास किया जाय, मन को ब्रह्मचिन्तन में लगाया जाय तो साधक शीघ्र ही सिद्ध हो सकता है, आत्मानन्द में मग्न हो सकता है। ब्रह्माभ्यास तो कहीं भी करें, किसी भी समय करें, लाभ होता है लेकिन ब्रह्ममूहूर्त की तो बात ही निराली है।

ब्रह्माभ्यास में, ब्रह्मचिन्तन में, आत्म-ध्यान में मन शांत नहीं होता तो मन जो सोचता है, जहाँ जाता है, उसको देखो। चंचल मन की चंचलता को देखोगे तो मन चंचलता छोड़कर शांत होने लगेगा। प्राणायाम का अभ्यास छोड़कर फिर जो स्वाभाविक श्वासोच्छ्वास चलते हैं उनको देखते रहो.... निहारते रहो तो भी मन शांत होने लगेगा। मन ज्यों शांत होगा त्यों आनंद आने लगेगा। जब ऐसा आनंद आने लगे तब समझो आत्मदर्शन हो रहा है।

देवी-देवताओं के दर्शन का फल भी सुख है। देवी-देवता राजी होंगे तो वरदान देंगे। उनके वरदान से भोग की वस्तुएँ मिलेंगी। वस्तु के भोग से सुख ही तो चाहते हैं। उस संयोगजन्य भोग-सुख से निराला आत्म-सुख ब्रह्माभ्यास से मिल रहा है। 'आत्मा आनंदस्वरूप है। वह आत्मा ही मैं हूँ। मेरा मुझको नमस्कार है।' इस प्रकार अपने आपको धन्यवाद देते जाओ.... आनंदमय होते जाओ। हजारों-हजारों देवी-देवताओं को मनाते आये हो... अब थोड़ा अपने आपको मना लो। हजारों देवी-देवताओं को पूजते आये हो.... अब आत्मध्यान के द्वारा अपने आत्मदेव को पूज लो। 'मैं आनंदस्वरूप आत्मा हूँ.... ॐ आनंद ! ॐ आनंद...! ॐ आनंद....!' इस प्रकार भाव बढ़ाते जाओ। बीच-बीच में मन विक्षेप डाले, इधर-उधर दौड़े तो ॐ की पावन ध्वनि करके मन को वापस लौटा लो।

सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् कहता है कि जिस आनंद को तू खोज रहा है वह आनंद तू ही है। तत्त्वमसि। वह तू है। तू पहले आनंदस्वरूप आत्मा था अथवा भविष्य में होगा ऐसी बात नहीं, अभी भी तू वही है। यह वेदवचन का आखिरी फैसला है। आध्यात्मिक जगत के जाने-माने शास्त्र, पुराण, बाइबिल, कुरान आदि सब बाद में हुए हैं और किसी न किसी व्यक्ति के द्वारा रचे गये हैं, जबकि वेद अनादि काल से हैं- तत्त्वमसि। वह तू है। उस आनंदस्वरूप सच्चिदानंदघन विश्वचैतन्य और तुझमें कोई भेद नहीं।

इन वेदवचनों को केवल मान लो नहीं, उनकी सत्यता का अनुभव करते चलो। 'मैं वह आनंदस्वरूप आत्मा हूँ...' चार वेद के चार महावाक्य हैं-

प्रज्ञानं ब्रह्म। अयं आत्मा ब्रह्म। अहं ब्रह्मास्मि। तत्त्वमसि। इन वेदवाक्यों का तात्पर्य यही है।

नानकदेव भी कहते हैं-
सो प्रभ दूर नहीं... प्रभ तू है।
सो साहेब सद सदा हजूरे।
अन्धा जानत ता को दूरे।।
तुलसीदास जी कहते हैं-

घट में है सूझे नहीं, लानत ऐसे जिन्द।
तुलसी ऐसे जीव को, भयो मोतियाबिन्द।।
गहरा श्वास लेकर ॐ का गुंजन करो.... बार-बार गुंजन करो और आनन्दस्वरूप आत्मरस में डूबते जाओ। कोई विचार उठे तो विवेक जगाओ कि, मैं विचार नहीं हूँ। विचार उठ रहा है मुझ चैतन्यस्वरूप आत्मा से। एक विचार उठा.... लीन हो गया.. दूसरा विचार उठा... लीन हो गया। इन विचारों को देखने वाला मैं साक्षी आत्मा हूँ। दो विचारों के बीच में जो चित्त की प्रशांत अवस्था है वह आत्मा मैं हूँ। मुझे आत्मदर्शन की झलक मिल रही है....। ॐ आनंद.... खूब शांति। मन की चंचलता मिट रही है.... आनंदस्वरूप आत्मा में मैं विश्राम पा रहा हूँ।

वाह वाह ! वाह मेरे प्रभु....! वाह मेरे पुण्य...! वाह मेरे सदगुरु...! इसी आनंद के लिए सारे देव, दानव और मानव लालायित हैं। इसी आनंद की खोज में कई जन्मों से मैं भी भटक रहा था। अब पता चला कि आनंद तो मेरा आत्मस्वरूप है। वाह वाह...!

चित्त में प्रशांति बढ़ रही है। 'रोम-रोम पुलकित हो रहे हैं.... पवित्र हो रहे हैं।'

आप जिन आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरषों को अपने सदगुरु मानते हो उनको पूरे प्राणों से.... पूरे हृदय से प्यार करते जाओ, धन्यवाद देते जाओ। इस पवित्र प्रेम की राह पर चलते-चलते आप बहुत गहरे पहुँच जाओगे.... अपने असली घर के द्वार को देख लोगे। अपने घर में, निज स्वरूप में पहुँचे हुए महापुरुषों को प्यार करते-करते आप भी वहीं पहुँच जाओगे।

अपने को धन्यवाद दो कि हमने प्रभु के दर्शन नहीं किये लेकिन जिनके हृदय में प्रभु पूर्ण चैतन्य के साथ प्रकट हुए हैं ऐसे संतों का दर्शन करने का सौभाग्य हमें मिल रहा है। ऐसे महापुरुषों के बारे में कबीरजी कहते हैं-

अलख पुरुष की आरसी, साधू का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।

Friday, May 11, 2012

आरोग्यनिधि  पुस्तक से - Aarogyanidhi pustak se

प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार - Prakritik Chikitsa dwara upchar

दुर्घटना एवं महामारी को छोड़कर प्रत्येक रोग की उत्पत्ति का कारण शरीर में विजातीय दूषित द्रव्यों का जमा होना है और इन दूषित द्रव्यों के शरीर में जमा होने का कारण है रोगी द्वारा प्रकृति के विरुद्ध खान-पान एवं रहन-सहन। इस बात की पुष्टि करते हुए ऋषि चरक ने कहा हैः "समस्त रोगों का कारण कुपित हुआ मल है और उसके प्रकोप का कारण अनुचित आहार-विहार है।"
अनुचित आहार-विहार से पाचनक्रिया बिगड़ जाती है और यदि पाचनक्रिया ठीक न हो तो मल पूर्ण रूप से शरीर से बाहर नहीं निकल पाता और वही मल धीरे-धीरे शरीर में जमा होकर बीमारी का रूप ले लेता है।
जिनकी जठराग्नि मंद है, खान-पान अनुचित है, जो व्यायाम एवं उचित विश्राम नहीं करते उनके शरीर में विजातीय द्रव्य अधिक बनते हैं। मल-मूत्र, पसीने आदि के द्वारा जब पूर्ण रूप से ये विजातीय द्रव्य बाहर नहीं निकल पाते और शरीर के जिस अंग में जमा होने लगते हैं उसकी कार्यप्रणाली खराब हो जाती है। परिणामस्वरूप उससे संबंधित रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रोगों के नाम चाहे अलग-अलग हों किन्तु सबका मूल कारण कुपित मल ही है।

तीव्र रोगः
शरीर की जीवनशक्ति हमारे अंदर एकत्रित हुए मल को यत्नपूर्वक बाहर निकालकर शरीर की सफाई करने की कोशिश करती है। समस्त तीव्र रोग जैसे कि सर्दी, दस्त, कॉलरा, आँव एवं प्रत्येक प्रकार के बुखार वास्तव में शरीर से गंदे एवं विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालने की क्रिया है जो कि रोगरूप से प्रगट होती है। उसे ही हम तीव्र रोग कहते हैं।

जीर्ण रोगः
जहरीली एवं धातुयुक्त दवाएँ लेने के कारण तीव्र रोग शरीर में ही दब जाते हैं। फलस्वरूप शरीर के किसी न किसी अंग में जमा होकर वे पुराने एवं घातक रोग का रूप ले लेते हैं। उन्हें ही जीर्ण रोग कहा जाता है।

प्राकृतिक चिकित्साः
प्राकृतिक चिकित्सा रोगों को दबाती नहीं है वरन् जड़मूल से निकालकर शरीर को पूर्णरूप से नीरोग कर देती है एवं इसमें एलोपैथी दवाइयों की तरह 'साइड इफैक्ट' की संभावना भी नहीं रहती। जल चिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, मिट्टी चिकित्सा, मालिश, सेंक आदि ऐसी ही प्राकृतिक चिकित्साएँ हैं जो मनुष्य को पूरी तरह से स्वस्थ करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

जल से चिकित्सा
हमारे देश का स्वास्थ्य तथा उसकी चिकित्सा एलौपैथी की मंहगी दवाइयों से उतनी सुरक्षित नहीं, जितना हमें आयुर्वैदिक तथा ऋषिपद्धति के उपचारों से लाभ मिलता है। आज विदेशी लोग भी हमारे आयुर्वैदिक उपचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हमें भी चाहिए कि हम 'साइड इफैक्ट' करने वाली एलोपैथी की मँहगी दवाओं से बचकर प्राकृतिक आयुर्वैदिक उपचार को ही अपने जीवन में उतारें।
हम यहाँ अपने पाठकों के लिए विभिन्न रोगों के उपचार के रूप में चार प्रकार के जल-निर्माण की विधि बता रहे हैं जो अनुभूत एवं असरकारक नुस्खे हैं।

सोंठ जलः पानी की तपेली में एक पूरी साबूत सोंठ डालकर पानी गरम करें। जब अच्छी तरह उबलकर पानी आधा रह जाये तब उसे ठंडा कर दो बार छानें। ध्यान रहे कि इस उबले हुए पानी के पैंदे में जमा क्षार छाने हुए जल में न आवे। अतः मोटे कपड़े से दो बार छानें। यह जल पीने से पुरानी सर्दी, दमा, टी.बी., श्वास के रोग, हाँफना, हिचकी, फेफड़ों में पानी भरना, अजीर्ण, अपच, कृमि, दस्त, चिकना आमदोष, बहुमूत्र, डायबिटीज (मधुमेह), लो ब्लडप्रेशर, शरीर का ठंडा रहना, मस्तक पीड़ा जैसे कफदोषजन्य तमाम रोगों में यह जल उपरोक्त रोगों की अनुभूत एवं उत्तम औषधि है। यह जल दिनभर पीने के काम में लावें। रोग में लाभप्राप्ति के पश्चात भी कुछ दिन तक यह प्रयोग चालू ही रखें।

धना-जलः एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच सूखा (पुराना) खड़ा धनिया डालकर पानी उबालें। जब 750 ग्राम जल बचे तो ठंडा कर उसे छान लें। यह जल अत्यधिक शीतल प्रकृति का होकर पित्तदोष, गर्मी के कारण होने वाले रोगों में तथा पित्त की तासीरवाले लोगों को अत्यधिक वांछित लाभ प्रदान करता है। गर्मी-पित्त के बुखार, पेट की जलन, पित्त की उलटी, खट्टी डकार, अम्लपित्त, पेट के छाले, आँखों की जलन, नाक से खून टपकना, रक्तस्राव, गर्मी के पीले-पतले दस्त, गर्मी की सूखी खाँसी, अति प्यास तथा खूनी बवासीर (मस्सा) या जलन-सूजनवाले बवासीर जैसे रोगों में यह जल अत्यधिक लाभप्रद है। अत्यधिक लाभ के लिए इस जल में मिश्री मिलाकर पियें। जो लोग कॉफी तथा अन्य मादक पदार्थों का व्यसन करके शरीर का विनाश करते हैं उनके लिए इस जल का नियमित सेवन लाभप्रद तथा विषनाशक है।

अजमा जलः एक लीटर पानी में ताजा नया अजवाइन एक चम्मच (करीब 8.5 ग्राम) मात्रा में डालकर उबालें। आधा पानी रह जाय तब ठंडा करके छान लें व पियें। यह जल वायु तथा कफदोष से उत्पन्न तमाम रोगों के लिए अत्यधिक लाभप्रद उपचार है। इसके नियमित सेवन से हृदय की शूल पीड़ा, पेट की वायु पीड़ा, आफरा, पेट का गोला, हिचकी, अरुचि, मंदाग्नि, पेट के कृमि, पीठ का दर्द, अजीर्ण के दस्त, कॉलरा, सर्दी, बहुमूत्र, डायबिटीज जैसे अनेक रोगों में यह जल अत्यधिक लाभप्रद है। यह जल उष्ण प्रकृति का है।

जीरा जलः एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच जीरा डालकर उबालें। जब 750 ग्राम पानी बचे तो उतारकर ठंडा कर छान लें। यह जल धना जल के समान शीतल गुणवाला है। वायु तथा पित्तदोष से होने वाले रोगों में यह अत्यधिक हितकारी है। गर्भवती एवं प्रसूता स्त्रियों के लिए तो यह एक वरदान है। जिन्हें रक्तप्रदर का रोग हो, गर्भाशय की गर्मी के कारण बार-बार गर्भपात हो जाता हो अथवा मृत बालक का जन्म होता हो या जन्मने के तुरंत बाद शिशु की मृत्यु हो जाती हो, उन महिलाओं को गर्भकाल के दूसरे से आठवें मास तक नियमित जीरा-जल पीना चाहिए।
एक-एक दिन के अंतर से आनेवाले, ठंडयुक्त एवं मलेरिया बुखार में, आँखों में गर्मी के कारण लालपन, हाथ, पैर में जलन, वायु अथवा पित्त की उलटी (वमन), गर्मी या वायु के दस्त, रक्तविकार, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिक स्राव गर्भाशय की सूजन, कृमि, पेशाब की अल्पता इत्यादि रोगों में इस जल के नियमित सेवन से आशातीत लाभ मिलता है। बिना पैसे की औषधि.... इस जल से विभिन्न रोगों में चमत्कारिक लाभ मिलता है।

Sunday, April 15, 2012

बाल संस्कार केन्द्र पाठ्यक्रम पुस्तक से - Baal Sanskar Kendra Pathyakram pustak se

विद्यार्थियों के लिए विशेष - Vidyarthiyon ke liye Vishesh

गुरू वशिष्ठजी महाराज भगवान श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं-
येन केन प्रकारेण यस्य कस्यापि देहीनः।
संतोषं जनयेद्राम तदेवेश्वरपूजनम्।।
'किसी भी प्रकार से किसी भी देहधारी को सन्तोष देना यही ईश्वर-पूजन है।'
(श्री योग वाशिष्ठ महारामायण)
कैसे भी करके किसी भी देहधारी को सुख देना, सन्तोष देना यह ईश्वर का पूजन है, क्योंकि प्रत्येक देहधारी में परमात्मा का निवास है।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
चलाचली के वक्त में भला भली कर लेय।।
हमारा शरीर चल है, इसका कोई भरोसा नहीं। किसकी किस प्रकार, किस निमित्त से मृत्यु होने वाली है कोई पता नहीं।
मोरबी (सौराष्ट्र) में मच्छू बाँध टूटा और हजारों लोग बेचारे यकायक चल बसे। भोपाल गैस दुर्घटना में एक साथ बीस-बीस हजार लोग काल के ग्रास बन गये। कहीं पाँच जाते हैं कहीं पच्चीस जाते हैं। बद्रीनाथ के मार्ग पर बस उल्टी होकर गिर पड़ी, कई लोग मौत का शिकार बन गये। इस देह का कोई भरोसा नहीं।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
वैभव चल है। करोड़पति, अरबपति आदमी कब फूटपाथति हो जाय, कोई पता नहीं। यौवन कब वृद्धावस्था में परिवर्तित हो जायेगा, कब बीमारी पकड़ लेगी कोई पता नहीं। आज का जवान और हट्टाकट्टा दिखने वाला आदमी दो दिन के बाद कौन-सी परिस्थिति में जा गिरेगा, कोई पता नहीं। अतः हमें अपने शरीर का सदुपयोग कर लेना चाहिए।
शरीर का सदुपयोग यही है कि किसी देहधारी के काम आ जाना। मन का सदुपयोग है किसी को आश्वासन देना, सान्तवना देना। अपने पास साधन हों तो चीज़-वस्तुओं के द्वारा जरूरतमन्द लोगों की यथायोग्य सेवा करना। ईश्वर की दी हुई वस्तु ईश्वर-प्रीत्यर्थ किसी के काम में लगा देना। सेवा को सुवर्णमय मौका समझकर सत्कर्म कर लेना।
वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- "हे राम जी ! येन केन प्रकारेण....।" किसी भी देहधारी को कैसे भी करके सुख देना चाहिए, चाहे वह पाला हुआ कुत्ता हो या अपना तोता हो, पड़ोसी हो या अपना भाई या बहन हो, मित्र हो या कोई अजनबी इन्सान हो। अपनी वाणी ऐसी मधुर, स्निग्ध और सारगर्भित हो कि जिससे हम सभी की सेवा कर सके।
शरीर से भी किसी की सेवा करनी चाहिए। रास्ते में चलते वक्त किसी पंगु मनुष्य को सहायरूप बन सकते हों तो बनना चाहिए। किसी अनजान आदमी को मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो सेवा का मौका उठा लेना चाहिए। कोई वृद्ध हो, अनाथ हो तो यथायोग्य सेवा कर लेने का अवसर नहीं चूकना चाहिए। सेवा लेने वाले की अपेक्षा सेवा करने वाले को अधिक आनन्द मिलता है।
भूखे को रोटी देना, प्यासे को जल पिलाना, हारे हुए, थके हुए को स्नेह के साथ सहाय करना, भूले हुए को मार्ग दिखाना, अशिक्षित को शिक्षा देना और अभक्त को भक्त बनाना चाहिए। बीड़ी, सिगरेट, शराब और जुआ जैसे व्यसनों में कैसे हुए लोगों को स्नेह से समझाना चाहिए। सप्ताह में पन्द्रह दिन में एक बार निकल पड़ना चाहिए अपने पड़ोस में, मुहल्लों में। अपने से हो सके ऐसी सेवा खोज लेनी चाहिए। इससे आपका अन्तःकरण पवित्र होगा, आपकी छुपी हुई शक्तियाँ जागृत होंगी।
आपके चित्त में परमात्मा की असीम शक्तियाँ हैं। इन असीम शक्तियों का सदुपयोग करना आ जाय तो बेड़ा पार हो जाय।
कलकत्ता में 1881 में प्लेग की महामारी फैल गयी। स्वामी विवेकानन्द सेवा में लग गये। उन्होंने अन्य विद्यार्थियों एवं संन्यासियों से कहाः
"हम लोग दीन-दुःखी, गरीब लोगों की सेवा में लग जायें।"
उन लोगों ने कहाः "सेवा में तो लग जायें लेकिन दवाइयाँ कहाँ से देंगे ? उनको पौष्टिक भोजन कहाँ से देंगे ?"
विवेकानन्द ने कहाः "सेवा करते-करते अपना मठ भी बेचना पड़े तो क्या हर्ज है ? अपना आश्रम बेचकर भी हमें सेवा करनी चाहिए।"
विवेकानन्द सेवा में लग गये। आश्रम तो क्या बेचना था ! भगवान तो सब देखते ही हैं कि ये लोग सेवा कर रहे हैं। लोगों के हृदय में प्रेरणा हुई और उन्होंने सेवाकार्य उठा लिया।
स्वामी विवेकानन्द का निश्चय था कि सेवाकार्य के लिए अपना मठ भी बेचना पड़े तो साधु-संन्यासियों को तैयारी रखना चाहिए। जनता-जनार्दन की सेवा में जो आनन्द व जीवन का कल्याण है वह भोग भोगने में नहीं है। विलासी जीवन में, ऐश आराम के जीवन में वह सुख नहीं है।
बिहार में 1967 में अकाल पड़ा। रविशंकर महाराज गुजरात में अहमदाबाद के किसी स्कूल में गये और बच्चों से उन्होंने कहाः
"बच्चों ! आप लोग युनिफार्म पहनकर स्कूल में पढ़ने के लिए आते हैं। आपको सुबह में नाश्ता मिलता है, दोपहर को भोजन मिलता है, शाम को भी भोजन मिलता है। किंतु बिहार में ऐसे बच्चे हैं कि जिन बेचारों को नाश्ता तो क्या, एक बार का भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता। ऐसे भी गरीब बच्चे हैं जिन बेचारों को पहनने के लिए कपड़े नहीं मिलते। ऐसे भी बच्चे हैं जिनको पढ़ने का मौका नहीं मिलता।
मेरे प्यारे बच्चों ! आपके पास तो दो-पाँच पोशाक होंगे किन्तु बिहार में आज ऐसे भी छात्र हैं जिनके पास दो जोड़ी कपड़े भी नहीं हैं। बिहार में अकाल पड़ा है। लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं।
सबके देखते ही देखते एक निर्दोष बालक उठ खड़ा हुआ। हिम्मत से बोलाः
"महाराज ! आप यदि वहाँ जाने वाले हों तो मैं अपने ये कपड़े उतार देता हूँ। मैं एक सप्ताह तक शाम का भोजन छोड़ दूँगा और मेरे हिस्से का वह अनाज घर से माँग कर ला देता हूँ। आप मेरी इतनी सेवा स्वीकार करें।"
बच्चों के भीतर दया छुपी हुई है, प्रेम छुपा हुआ है, स्नेह छुपा हुआ है, सामर्थ्य छुपा हुआ है। अरे ! बच्चों के भीतर भगवान योगेश्वर, परब्रह्म परमात्मा छुपे हुए हैं।
देखते ही देखते एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा.... करते-करते सब बच्चे गये अपने घर अनाज लाकर स्कूल में ढेर कर दिया।
रविशंकर महाराज ने थोड़ी सी शुरूआत की। वे जेतलपुर के स्कूल में गये और वहाँ प्रवचन किया। वहाँ एक विद्यार्थी खड़ा होकर बोलाः
"महाराज ! कृपा करके आप हमारे स्कूल में एक घण्टा ज्यादा ठहरें।"
"क्यों भाई ?"
"मैं अभी वापस आता हूँ।"
कहकर वह विद्यार्थी घर गया। दूसरे भी सब बच्चे घर गये और वापस आकर स्कूल में अनाज व कपड़ों का ढेर कर दिया।
बाद में सेठ लोग भी सेवा में लग गये। लाखों रूपयों का दान मिला और बिहार में सेवाकार्य शुरू हो गया।
रविशंकर महाराज कहते हैं-
"मुझे इस सेवाकार्य की प्रेरणा अगर किसी ने दी है तो इन नन्हें-मुन्ने बच्चों ने दी। मुझे आज पता चला कि छोटे-छोटे विद्यार्थियों में भी कुछ सेवा कर लेने की तत्परता होती है, कुछ देने की तत्परता होती है। हाँ, उनकी इस तत्परता को विकसित करने की कला, सदुपयोग करने की भावना होनी चाहिए।"
विद्यार्थियों में देने की तैयारी होती है। और तो क्या, अपना अहं भी देना हो तो उनके लिये सरल है। अपना अहं देना बड़ों को कठिन लगता है। बच्चे को अगर कहें कि ''बैठ जा" तो बैठ जायेगा और कहें 'खड़ा हो जा' तो खड़ा हो जायगा। उठ बैठ करायेंगे तो भी करेगा क्योंकि अभी वह निखालस है।
यह बाल्यावस्था आपकी बहुत उपयोगी अवस्था है, बहुत मधुर अवस्था है। आपको, आपके माता-पिता को, आचार्यों को इसका सदुपयोग करने की कला जितनी अधिक आयेगी उतने अधिक आप महान बन सकेंगे।
राजा विक्रमादित्य अपने अंगरक्षकों के स्थान पर, अपने निजी सेवकों के स्थान पर किशोर वय के बच्चों को नियुक्त करते थे। राजा जब निद्रा लेते तब छोटी-सी तलवार लेकर चौकी करने वाले किशोर उम्र के बच्चे उनके पास ही रहते थे।
किसी को कहीं सन्देश भेजना हो, कोई समाचार कहलवाना हो तो किशोर दौड़ते हुए जायेगा। बड़ा आदमी किशोर की तरह भागकर नहीं जाता।
आपकी किशोरावस्था बहुत ही उपयोगी अवस्था है, साहसिक अवस्था है, दिव्य कार्य कर सको ऐसी योग्यता प्रकट करने की अवस्था है।
भगवान रामचन्द्रजी जब सोलह साल के थे उन दिनों में गुरू वशिष्ठजी ने उपदेश दिया है किः 'येन केने प्रकारेण.....'
आपसे हो सके उतने प्रेम से बात करो। आप माँ की थकान उतार सकते हो। पिता से कुछ सलाह पूछो, उनकी सेवा करो। पिता के हृदय में अपना स्थान ऊँचा बना सकते हो। पड़ोसी की सहाय करने पहुँच जाओ। आपके पड़ोसी फिर आपको देखकर गदगद हो जायेंगे। स्कूल में तन्मय होकर पढ़ो, समझो, सोचो, तो शिक्षक का हृदय प्रसन्न होगा।
प्रातःकाल उठकर पहले ध्यानमग्न हो जाओ। दस मिनट मौन रहो। संकल्प करो कि आज के दिन खूब तत्परता से कार्य करना है, उत्साह से करना है। 'येन केन प्रकारेण.....।' किसी भी प्रकार से किसी के भी काम में आना है, उपयोगी होना है। ऐसा संकल्प करेंगे तो आपकी योग्यता बढ़ेगी। आपके भीतर ईश्वर की असीम शक्तियाँ हैं। जितने अंश में आप निखालस होकर सेवा में लग जायेंगे उतनी वे शक्तियाँ जागृत होंगी।