पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, January 13, 2010



ईश्वर की ओर पुस्तक से - Ishwar ki Or pustak se

दलदल में पहले आदमी का पैर धँस जाता है । फिर घुटने, फिर जाँघें, फिर नाभि, फिर छाती, फिर पूरा शरीर धँस जाता है । ऐसे ही संसार के दलदल में आदमी धँसता है । ‘थोड़ा सा यह कर लूँ, थोड़ा सा यह देख लूँ, थोड़ा सा यह खा लूँ, थोड़ा सा यह सुन लूँ ।’ प्रारम्भ में बीड़ी पीनेवाला जरा सी फूँक मारता है, फिर व्यसन में पूरा बँधता है । शराब पीनेवाला पहले जरा सा घूँट पीता है, फिर पूरा शराबी हो जाता है ।

ऐसे ही ममता के बन्धनवाले ममता में फँस जाते हैं । ‘जरा शरीर का ख्याल करें, जरा कुटुम्बियों का ख्याल करें … ।’ ‘जरा … जरा …’ करते करते बुद्धि संसार के ख्यालों से भर जाती है । जिस बुद्धि में परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, जिस बुद्धि में परमात्मशांति भरनी चाहिए उस बुद्धि में संसार का कचरा भरा हुआ है । सोते हैं तो भी संसार याद आता है, चलते हैं तो भी संसार याद आता है, जीते हैं तो संसार याद आता है और मरते… हैं … तो … भी … संसार… ही… याद… आता… है ।

सुना हुआ है स्वर्ग के बारे में, सुना हुआ है नरक के बारे में, सुना हुआ है भगवान के बारे में । यदि बुद्धि में से मोह हट जाए तो स्वर्ग नरक का मोह नहीं होगा, सुने हुए भोग्य पदार्थों का मोह नहीं होगा । मोह की निवृत्ति होने पर बुद्धि परमात्मा के सिवाय किसी में भी नहीं ठहरेगी । परमात्मा के सिवाय कहीं भी बुद्धि ठहरती है तो समझ लेना कि अभी अज्ञान जारी है । अमदावादवाला कहता है कि मुंबई में सुख है । मुंबईवाला कहता है कि कलकत्ते में सुख है । कलकत्तेवाला कहता है कि कश्मीर में सुख है । कश्मीरवाला कहता है कि मंगणी में सुख है । मंगणीवाला कहता हैं कि शादी में सुख है । शादीवाला कहता है कि बाल बच्चों में सुख है । बाल बच्चोंवाला कहता है कि निवृत्ति में सुख है । निवृत्तिवाला कहता है कि प्रवृत्ति में सुख है । मोह से भरी हुई बुद्धि अनेक रंग बदलती है । अनेक रंग बदलने के साथ अनेक अनेक जन्मों में भी ले जाती है ।
संसारी आदमी द्वेषी होता है । पामर आदमी को जितना राग होता है, उतना द्वेष होता है । भक्त होता है रागी । भगवान में राग करता है, आरती पूजा में राग करता है, मंदिर मूर्ति में राग करता है । जिज्ञासु में होती है जिज्ञासा । ज्ञानी में कुछ नहीं होता है । ज्ञानी गुणातीत होते हैं । मजे की बात है कि ज्ञानी में सब दिखेगा लेकिन ज्ञानी में कुछ होता नहीं । ज्ञानी से सब गुजर जाता है ।

बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आत्मविचार की जरुरत है, ध्यान की जरुरत है, जप की जरुरत है । बुद्धि शुद्ध हो तो जैसे दूसरे शरीर को अपनेसे पृथक् देखते हैं वैसे ही अपने शरीर को भी आप अपनेसे अलग देखेंगे । ऐसा अनुभव जब तक नहीं होता, तब तक बुद्धि में मोह होने की संभावना रहती है ।

पक्षियों से जरा सीख लो । उनको आज खाने को है, कल का कोई पता नहीं फिर भी पेड़ की डाली पर गुनगुना लेते हैं, कोलाहल कर लेते हैं । कब कहाँ जायेंगे, कोई पता नहीं फिर भी निश्चिंतता से जी लेते हैं । हमारे पास रहने को घर है, खाने को अन्न है - महीने भर का, साल भर का । फिर भी दे धमाधम ! सामान सौ साल का, पता पल का नहीं ।
जिनको बैठने का ठिकाना नहीं, डाल पर बैठ लेते हैं, दूसरे पल कौन सी डाल पर जाना है, कोई पता नहीं, ऐसे पक्षी भी आनंद से जी लेते हैं । क्या खायेंगे, कहाँ खायेंगे, कोई पता नहीं। उनका कोई कार्यक्रम नहीं होता कि आज वहाँ ‘डिनर’ (भोज) है । फिर भी जी लेते हैं । भूख के कारण नहीं मरते, रहने का स्थान नहीं मिलता इसके कारण नहीं मरते । मौत जब आती है तब मरते हैं ।

आत्म प्राप्ति के राही के लिए महापुरुषों की सेवा अत्यंत कल्याणकारी है। बिना सेवा के ब्रह्मविधा मिलती या फलीभूत नहीं होती । ब्रह्मविधा के ठहराव के लिए शुद्ध अंत करण की आवश्यकता है । सेवा से अंत करण शुद्ध होता है, नम्रता आदि सद्गुण आते हैं। शाखाओं का झुकना फलयुक्त होने का चिह्न है, इसी तरह नम्र तथा शुद्ध अंत करण में ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । यही ब्रह्मविधा की पहचान है।

ईश्वर के मार्ग पर चलनेवाले सौभाग्यशाली भक्तों को ये छ: बातें जीवन में अपना लेनी चाहिए:
1) ईश्वर को अपना मानो । ‘ईश्वर मेरा है । मैं ईश्वर का हूँ।’

2) जप, ध्यान, पूजा, सेवा खूब प्रेम से करो।

3) जप, ध्यान, भजन, साधना को जितना हो सके उतना गुप्त रखो।

4) जीवन को ऐसा बनाओ कि लोगों में आपकी माँग हुआ करे। उन्हें आपकी अनुपस्थिति चुभे। कार्य में कुशलता और चतुराई बढ़ाये । प्रत्येक क्रिया कलाप, बोल चाल सुचारु रुप से करें। कम समय में, कम खर्च में सुन्दर कार्य करें। अपनी आजीविका के लिए, जीवननिर्वाह के लिए जो कार्य करें उसे कुशलतापूर्वक करें, रसपूर्वक करें। इससे शक्तियों का विकास होगा । फिर वह कार्य भले ही नौकरी हो। कुशलतापूर्वक करने से कोई विशेष बाह्म लाभ न होता हो फिर भी इससे आपकी योग्यता बढ़ेगी, यही आपकी पूँजी बन जाएगी । नौकरी चली जाए तो भी यह पूँजी आपसे कोई छीन नहीं सकता । नौकरी भी इस प्रकार करो कि स्वामी प्रसन्न हो जाये । यह सब रुपयों पैसों के लिए, मान बड़ाई के लिए, वाहवाही के लिए नहीं परंतु अपने अंत : करण को निर्मल करने के लिए करें जिससे परमात्मा के लिए आपका प्रेम बढ़े । ईश्वरानुराग बढ़ाने के लिए ही प्रेम से सेवा करें, उत्साह से काम धंधा करें।

5) व्यक्तिगत खर्च कम करें। जीवन में संतोष लाएँ।

6) सदैव श्रेष्ठ कार्य में लगे रहें। समय बहुत ही मूल्यवान् है। समय के बराबर मूल्यवान् अन्य कोई वस्तु नहीं है। समय देने से सब मिलता है
परंतु सब कुछ देने से भी समय नहीं मिलता । धन तिजोरी में संग्रहीत कर सकते हैं परंतु समय तिजोरी में नहीं संजोया जा सकता । ऐसे अमुल्य समय को श्रेष्ठ कार्यों में लगाकर सार्थक करें। सबसे श्रेष्ठ कार्य है सत्पुरुषों का संग, सत्संग ।

1 comment:

  1. aPKE DWARA KI GAYI YE SEWA KITNO KA MARG DARSHAN KARGI YE SHYAD AAPKO BE NAI PATA.
    HARIOMG

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