पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, January 14, 2010



जीवनोपयोगी कुंजियाँ पुस्तक से - Jeevanopayogi Kunjiya pustak se

महानता के चार सिद्धांत - Mahanta ke chaar sidhant
हृदय की प्रसन्नता: जिसका हृदय जितना प्रसन्न, वह उतना ज्यादा महान होता है । जैसे- श्रीकृष्ण प्रसन्नता की पराकाष्ठा पर हैं । ॠषि का शाप मिला है, यदुवंशी आपस में ही लड़कर मार काट मचा रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं, फिर भी श्रीकृष्ण की बंसी बज रही हैं…
उदारता: श्रीकृष्ण प्रतिदिन सहस्रों गायों का दान करते थे । कुछ न कुछ देते थे । धन और योग्यता तो कईयों के पास होती है, लेकिन देने का सामर्थ्य सबके पास नहीं होता । जिसके पास जितनी उदारता होती है, वह उतना ही महान होता है ।
नम्रता: श्रीकृष्ण नम्रता के धनी थे । सुदामा के पैर धो रहे हैं श्रीकृष्ण ! जब उन्होंने देखा कि पैदल चलने से सुदामा के पैरों में काँटें चुभ गये हैं, उन्हें निकालने के लिए उन्होंने रुक्मिणीजी से सुई मँगवायी । सुई लाने में देर हो रही थी तो अपने दाँतों से ही काँटें खींचकर निकाले और सुदामा के पैर धोये… कितनी नम्रता !
युधिष्ठिर आते तो श्रीकृष्ण उठकर खड़े हो जाते थे । पांडवो के संधिदूत बनकर गये और वहाँ से लौटे तब भी उन्होंने युधिष्ठिर को प्रणाम करते हुए कहा: “महाराज ! हमने तो कौरवों से संधि करने का प्रयत्न किया, किंतु हम विफल रहे |”
ऐसे तो चालबाज लोग और सेठ लोग भी नम्र दिखते हैं | परंतु केवल दिखावटी नम्रता नहीं, हृदय की नम्रता होनी चाहिए । हृदय की नम्रता आपको महान बना देगी ।
समता: श्रीकृष्ण तो मानो, समता की मूर्ति थे । महाभारत का इतना बड़ा युद्ध हुआ, फिर भी कहते हैं कि “कौरव-पांडवों के युद्ध के समय यदि मेरे मन में पांडवों के प्रति राग न रहा हो और कौरवों के प्रति द्वेष न रहा हो तो मेरी समता के परीक्षार्थ यह बालक जीवित हो जाय | और बालक (परीक्षित) जीवित हो उठा…
जिसके जीवन में ये चार सदगुण हैं, वह अवश्य महान हो जाता है ।

साधना के छः विघ्न

निद्रा,

तंद्रा,

आलस्य,

मनोराज,

लय और

रसास्वाद

ये छ: साधना के बड़े विध्न हैं । अगर ये विध्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले ।
“जब हम माला लेकर जप करने बैठते हैं, तब मन कहीं से कहीं भागता है । फिर ‘मन नहीं लग रहा…’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं । घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है । काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है |” ऐसा क्यों होता है? यह एक व्यक्ति का नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है ।
कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा के दर्शन नहीं होते किंतु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया । ध्यान में से उठते है तो जम्हाई आने लगती है । यह ध्यान नहीं, लय हुआ । वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किंतु लय में ऐसा नहीं होता ।
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है । साधना करते-करते थोड़ा बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है ।
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते है तो नींद नहीं आती । यह भी साधना का एक विघ्न है ।
तंद्रा भी एक विघ्न है । नींद तो नहीं आती किंतु नींद जैसा लगता है । यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।
साधना करने में आलस्य आता है । “अभी नहीं, बाद में करेंगे…” ऐसा सोचते हैं तो यह भी एक विघ्न है ।
इन विघ्नों को जीतने के उपाय भी हैं ।
मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ॐ का जप करना चाहिए ।
स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए । सूक्ष्म निद्रा यानी तंद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए ।
आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए । सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा

निराशा के क्षणों में

अपने मन में हिम्मत और दृढ़ता का संचार करते हुए अपने आपसे कहो कि “मेरा जन्म परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने के लिए हुआ है, पराजित होने के लिए नहीं । मैं इश्वर का, चैतन्य का सनातन अंश हूँ । जीवन में सदैव सफलता व प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए ही मेरा जन्म हुआ है, असफलता या पराजय के लिए नहीं । मैं अपने मन में दीनता हीनता और पलायनवादिता के विचार कभी नहीं आने दूँगा । किसी भी कीमत पर मैं निराशा के हाथों अपनी शक्तियों का नाश नहीं होने दूँगा |”
दु:खाकार वृत्ति से दु:ख बनता है । वृत्ति बदलने की कला का उपयोग करके दु:खाकार वृत्ति को काट देना चाहिए ।
आज से ही निश्चय कर लो कि “आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता रहूँगा । नकारात्मक या फरियादात्मक विचार करके दु:ख को बढ़ाऊँगा नहीं, अपितु सुख दु:ख से परे आनंदस्वरुप आत्मा का चिन्तन करुँगा |”

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