पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, December 11, 2011

अपने रक्षक आप - Apne Rakshak Aap

विद्यार्थी और ब्रह्मचर्य - Vidyarthi aur Brahmcharya

"यौवन में शक्ति जरूर है परंतु सजगतापूर्वक संयम का पालन नहीं किया तो छोटी-सी गलती भी बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकती है।"
विद्यार्थी काल शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास का समय है और इस विकास का मुख्य आधार है वीर्यरक्षा ! विद्यार्थी को अपने अध्ययन और प्रवृत्ति  लिए उत्साह, बुद्धिशक्ति, स्मृतिशक्ति, एकाग्रता, संकल्पबल आदि गुणों के विकास की बहुत आवश्यकता होती है। इन सबमें वीर्यरक्षा द्वारा बहुत प्रगति प्राप्त की जा सकती है। इसके विपरीत वीर्यनाश से तन और मन को बहुत नुकसान होता है। वीर्यनाश से निर्बलता, रोग, आलस्य, चंचलता, निराशा और पलायनवादिता के दुर्गुण आ धमकते हैं। इस दुष्प्रवृत्ति का शिकार विद्यार्थी अपने विकासकाल के अति महत्त्वपूर्ण समय को गँवा बैठता है।
विद्यार्थीकाल जीवनरूपी इमारत को बनाने के लिए नींव का पत्थर है। क्या विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है ? यह प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पूछेः 'क्या इमारत के लिए मजबूत नींव की जरूरत है ? मछली को पानी की आवश्यकता है ?'
जीवन में दो विरोधियों को साथ में रखना यह प्रकृति का नियम है। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विवेक होना जरूरी है। विद्यार्थीकाल में जहाँ एक ओर जगत को कँपाने में सक्षम, चाहे जो करने में समर्थ ऐसी प्रचंड वीर्यशक्ति और मौका प्रकृति युवान को देती है, वहीं दूसरी ओर उसके यौवन को लूट लेने वाली विजातीय आकर्षण की सृष्टि भी उसके सामने आ खड़ी होती है।
जिस देश के युवक गुरुकुलों में रहकर 25 वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करके चक्रवर्ती सम्राट, वीर योद्धा आदि बन कर असम्भव जैसे कार्य भी सहज ही कर लेते थे, उसी देश के निस्तेज युवक अपने परिवार को और खुद को भी नहीं सँभाल पाते यह कैसा दुर्भाग्य है। गोलियाँ बरसा के खुद को और अपने परिवार को अकाल मौत के घाट उतार देते हैं।
युवा पीढ़ी को निस्तेज बनाने वाले सेक्सोलॉजिस्टों एवं अखबारों को डॉ निकोलस के इस कथन को पढ़कर अपनी बुद्धि का सुधार करना चाहिए।
डॉ. निकोलस कहते हैं- "वीर्य को पानी की तरह बहाने वाले आजकल के अविवेकी युवाओं के शरीर को भयंकर रोग इस प्रकार घेर लेते हैं कि डॉक्टर की शरण में जाने पर भी उनका उद्धार नहीं होता। अंत में बड़ी कठिन विपत्तियों का सामना करने के बाद असमय ही उन अभागों का महाविनाश हो जाता है।"
यौवन में शक्ति जरूर है परंतु सजगतापूर्वक संयम का पालन नहीं किया तो छोटी-सी गलती भी बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकती है, खिलते फूल-सदृश विद्यार्थी-जीवन को निचोड़कर नरकतुल्य बना सकती है। अतः सावधान ! इस संबंध में फैल रही भ्रांत धारणाओं के निर्मूलन के लिए आश्रम से प्रकाशित पुस्तक - 'दिव्य प्रेरणा प्रकाश' और पूज्य संत स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के सत्संग-प्रवचनों की पुस्तकें 'निरोगता का साधन' व 'मन को सीख' अवश्य पढ़ें-पढ़ायें।

Monday, November 7, 2011


सत्संग अमृत  पुस्तक से - Satsang Amrit pustak se

नाव पानी में रहे, पानी नाव में नहीं... - Naav pani me rahe, Pani naav me nahi...


सुबह नींद में से उठ के श्वास गिनो और शांत हो जाओ। अपने परमात्मा में, आत्मा मे ही खुश रहना। 'मेरा पैसा कहाँ है ? मेरा छोरा कहाँ है ?' नश्वर दुनिया की चीजों की क्या इच्छा करना ! 'मैं अमर आत्मा हूँ। शरीर मरेगा, मैं तो अपने-आप में मस्त हूँ। मुझे मारे ऐसी कोई तलवार नहीं, कोई मौत नहीं। अमर आत्मा के आगे तो मौत की मौत हो जाये। मैं तो अमर आत्मा हूँ। ॐ....हरिॐ....ॐ....' – इस प्रकार अमर आत्मा का विचार करे तो अमर आत्मा को पायेगा और बेट-बेटी का विचार करे, नाती-पोते का विचार करे तो अंत में उन्हीं की याद आयेगी और वहीं जन्मेगा।
भगवान ने गीता में कहा हैः
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तदभावभावितः।।
' हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस उस को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।' (8.6)
एक बार संत कबीर जी ने एक किसान से कहाः "तुम सत्संग में आया करो।"
किसान बोलाः "हाँ महाराज ! मेरे लड़के की सगाई हो गयी है, शादी हो जाये फिर आऊँगा।"
लड़के की शादी हो गयी। कबीर जी बोलेः "अब तो आओ।"
"मेहमान आते जाते हैं। महाराज ! थोड़े दिन बाद आऊँगा।"
ऐसे दो साल बीत गये। बोलेः "अब तो आओ।"
"महाराज ! मेरी बहू है न, वह माँ बनने वाली है। मेरा छोरा बाप बनने वाला है। मैं दादा बनने वाला हूँ। घऱ में पोता आ जाय, फिर कथा में आऊँगा।"
पोता हुआ। "अब तो सत्संग में आओ।"
"अरे महाराज ! आप मेरे पीछे क्यों पड़े हैं ? दूसरे नहीं मिलते हैं क्या ?"
कबीर जी ने हाथ जोड़ लिये। कुछ वर्ष के बाद कबीरजी फिर गये, देखा कि कहाँ गया वह खेतवाला ? दुकानें भी थीं, खेत भी था। लोग बोलेः "वह तो मर गया !"
"मर गया।"
"हाँ।"
मरते-मरते वह सोच रहा था कि 'मेरे खेत का क्या होगा, दुकान का क्या होगा ?' कबीर जी ने ध्यान लगा के देखा कि दुकान में चूहा बना है कि खेत में बैल बना है ? देखा कि अरहट में बँधा है, बैल बन गया है। उसके पहले हल में जुता था, फिर गाड़ी में जुता। अब बूढ़ा हो गया है। कबीर जी थोड़े-थोड़े दिन में आते जाते रहे। फिर उस बूढ़े बैल को, अब काम नहीं करता इसलिए तेली के पास बेच दिया गया। तेली ने भी काम लिया फिर बेच दिया कसाई को और कसाई ने 'बिस्मिल्लाह !' करके छुरा फिरा दिया। चमड़ा उतार के नगाड़ेवाला को बेच दिया और टुकड़े-टुकड़े कर के मांस बेच दिया।
कबीर जी ने साखी बनायीः
कथा में तो आया नहीं, मरकर
बैल बने हल में जुते, ले गाड़ी में दीन।
हल नहीं खींच सका तो गाड़ी, छकड़े को खींचने में लगा दिया।
तेली के कोल्हू रहे, पुनि घर कसाई लीन।
मांस कटा बोटी बिकी, चमड़न मढ़ी नगार।
कुछ एक कर्म बाकी रहे, तिस पर पड़ती मार।।
नगारे पर डंडे पड़ रहे हैं। अभी कर्म बाकी हैंतो उसे डंडे पड़ रहे हैं। मेरा बेटा कहाँ है ? मेरी बेटी कहाँ है ?....' डंडे पड़ेंगे फिर। 'मेरा परमात्मा कहाँ है ? अमर आत्मा कहाँ है ? यह तो मरने वाला शरीर मर रहा है, सपने जैसा है। कई बेटे-बेटी सपना हो गये, संसार सपना हो रहा है लेकिन जो बचपन में मेरे साथ था, शादी में साथ था, बुढ़ापे में साथ है, मरने के बाद भी जो साथ नहीं छोड़ेगा वह मेरा प्रभु आत्मा कैसा है ? ॐ आनंद.... ॐ शांति...' – ऐसा करके उस आत्मा को जाने तो मुक्त हो जाये और 'छोरे क्या क्या होगा ? खेती का क्या होगा ?' किया तो बैल बनो बेटा ! जाओ।
इसलिए मन को संसार में नहीं लगाना। नाव पानी में रहे लेकिन पानी नाव में नहीं रहे। शरीर संसार में रहे किंतु अपने दिमाग में संसार नहीं घुसे। अपने दिमाग में तो 'ॐ आनन्द... ॐ शांति.... ॐ माधुर्य... संसार सपना, परमात्मा अपना....' – ऐसा चिंतन चलता रहे। चिंतन करके निश्चिंत नारायण में विश्रान्ति पायें, निश्चिंत नारायण-व्यापक ब्रह्म में आयें।

Thursday, October 20, 2011


सच्चा सुख पुस्तक से - Sachha Sukh pustak se

संयम से ही सफलता - Saiyam se hi Safalta

ब्रह्माजी ने जब आँख खोली तो भगवान विष्णु की विचित्र रचनाओं पर बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगेः 'यह सब क्या है ? कैसे हुआ ?'
ब्रह्माजी ज्यों-ज्यों सोचते गये त्यों-त्यों उनका मन गहरा चलता गया। भीतर से आवाज आयीः तप.... तप..... तप..... (अर्थात् तप करो)
तप करने का मतलब है कि इन्द्रियों को मन में लीन करो। मन को बुद्धि में लीन करो। बुद्धि को परिश्रम नहीं होगा। बुद्धि को शान्ति मिलेगी तो वह शान्त स्वरूप परमात्मा में टिकेगी। शान्त स्वरूप परमात्मा में टिकने से मति का गाढ़ापन हो जाता है। यदि मति हल्की वस्तुओं में उलझती है तो छीछरी हो जाती है।
पीपल का पत्ता हल्का-सा है। थोड़ी सी हवा लगती है तो वह फड़कता रहता है। सुमेरू पर्वत कैसी भी आँधी में स्थिर रहता है। ऐसे ही जिसने तप किया है वह परब्रह्म परमात्मा में स्थित होता है। सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। जो सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, जिसका कभी अन्त नहीं होता उस परब्रह्म परमेश्वर में मति प्रतिष्ठित हो जाती है। परब्रह्म परमेश्वर में मति जब प्रतिष्ठित हो जाती है तो उस मति का नाम बदल जाता है, वह प्रज्ञा बन जाती है, ऋतंभरा प्रज्ञा। ऋत माने सत्य। सत्यस्वरूप परमेश्वर से भरी हुई प्रज्ञा है ऋतंभरा प्रज्ञा।
मनुष्य जब प्राण छोड़ता है, मरता है तब उसके चित्त में जैसी-जैसी वासना होती है, उसकी मति में जैसा-जैसा निश्चय होता है उसी के अनुसार उसका मन और प्राण लोक-लोकान्तर में गति करता है। जैसे, आपकी मति में निश्चय हो गया कि हम शिविर में जाएँगे, फिर चाहे उत्तरायण की ठण्ड लगे या मार्च-अप्रैल की गर्मी बरसे, हम तो शिविर में जाएँगे ही। सत्संग सुनेंगे, साधना करेंगे और जो कुछ कठिनाइयाँ होगी उन्हें सहेंगे तो तप हो जाएगा। सत्संग-कीर्तन से आनन्द होगा और साधन से मति की शुद्धि होगी, परमात्मा के मार्ग में आगे बढ़ जाएँगे !
यह निर्णय मति ने किया कि ध्यान योग साधना शिविर में जाना है। मन ने और प्राण ने योजना बनायी कि फलानी तारीख को, फलानी गाड़ी से जाना है। हाथों ने हिलचाल की, पैरों ने यात्रा की, आँखों ने देखने का काम किया। बाद में सब काम में लग गये लेकिन प्रारंभ में निर्णय मति का था।
इन्द्रियों को जैसा मिलेगा उस प्रकार का इन्द्रियों का आकर्षण और मन का मनन बनेगा। इन्द्रियों के आकर्षण और मन के मनन का निष्कर्ष बुद्धि के आगे पहुँचेगाः अच्छा हुआ कि बुरा हुआ..... दूसरी बार यह करेंगे, यह नहीं करेंगे....यह लाएँगे, यह नहीं लाएँगे......आदि। मति में अगर अच्छे संस्कार हैं, मति अगर तप से युक्त है तो वह मन इन्द्रियों की अच्छी बात को हाँ बोलेगी और घटिया बात को काटकर फेंक देगी। मति घटिया है तो वह मन इन्द्रियों की घटिया बात को हाँ बोल देगी और बढ़िया बात की ओर ध्यान नहीं देगी।
तुम्हारे पास समाचार तो लाती हैं इन्द्रियाँ। आँख दृश्य के समाचार भरती है, कान शब्द के समाचार भरते हैं, नाक दुर्गन्ध-सुगन्ध के समाचार भरता है, जीभ रस का समाचार भरती है। मन ये सब समाचार लेकर मति के पास जाता है। मति में अगर तप है तो वह सारासार का विवेक करती है। मति में अगर तप नहीं है तो वह मन इन्द्रियों को जो अच्छा लगे वही निर्णय देती है। ऐसा करते-करते मति मन्द हो जाती है। चपरासी और कारकून अपने को जैसा अच्छा लगे वैसा साहब से काम करवाते रहे, कागजों पर साहब के हस्ताक्षर करवाते रहे तो साहब कभी न कभी उनकी जाल में फँस मरता है। ऐसे ही मन-इन्द्रियों की साहब मति देवी मन-इन्द्रियों की बातों में आकर फँसती है। वह साहब तो फँसता है तब नौकरी गँवाता है, घर बैठता है लेकिन यह मति देवी चौरासी लाख योनियों की जेल भोगती है। जब देखने, सुनने, चखने, भोगने की वासना मति ने स्वीकार कर ली तो मति का स्वभाव हो जाता है कि अभी वह चखना है, यह खाना है, यह भोगना है। ऐसा करते-करते जीवन पूरा हो जाता है फिर भी कुछ न कुछ करना-भोगना, खाना-पीना बाकी रह जाता है।
जब प्राण निकलते है तब भोग की वासनायुक्त मति में जिस भोग का आकर्षण होता है उसी प्रकार के वातावरण में वह फिर से जन्म लेती है। वही भोग भोगते-भोगते दूसरे संस्कार संचित होते रहते हैं। एक वासना मिटी न मिटी वहाँ दूसरी खड़ी हो जाती है।
जैसे, कोई सोचता है कि तीन घण्टे का समय है। चलो, सिनेमा देख लें। सिनेमा में दूसरी सिनेमा के एवं दूसरी कई चीजों के विज्ञापन भी दिखाये जाते हैं। इससे एक सिनेमा देखते-देखते दूसरी सिनेमा देखने की एवं दूसरी चीजें खरीदने की वासना जाग उठती है। वासनाओं का अन्त नहीं होता। वासनाओं का अन्त नहीं होता। इसलिए यह जीव बेचारा परमात्मा तक नहीं पहुँच पाता। वासना से ग्रस्त मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती है तो जीव जीने की और भोगने की वासना से आक्रान्त रहता है।
जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।
जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।
जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।
इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।
इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।
इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशेभ्यः।
उस देव को जानने से जीव सारे पाशों से, सारी जंजीरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म में ऐसी मति मिली है कि इससे वह भूत का, भविष्य का चिन्तन-विचार कर सकता है। पशु तो कुछ समय के बाद अपने माँ-बाप को भी भूल जाते हैं, भाई-बहन को भी भूल जाते है और संसार व्यवहार कर लेते हैं। मनुष्य की मति में स्मृति रहती है।
इन्द्रियाँ तुम्हें संसार की ओर आकर्षित करेंगी लेकिन मति परिणाम का विचार करेगी। मति का आदर करोगे तो विकारों में से निर्विकारिता की ओर जाना बिल्कुल जरूरी दिखेगा। मति का आदर नहीं करोगे, मन-इन्द्रियाँरूपी चपरासी और कारकूनों के कहने में मति को बहाते रहोगे तो जगत सच्चा लगेगा। जगत सच्चा लगेगा तो जगत के भोगों में आकर्षण होगा। जगत के भोगों में आकर्षण होने से राग-द्वेष पनपेंगे। राग-द्वेष पनपने से इच्छा, भय, क्रोध, अशान्ति, जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि बने ही रहेंगे। अगर मति का आदर करोगे तो मति परिणाम का विचार करेगी। परिणाम का विचार करोगे तो मति मन को, इन्द्रियों को खाने-पीने की, देखने सुनने की इजाजत तो देती है लेकिन औषधवत्। खाना पीना, देखना-सुनना आदि सब औषधवत् हो जाय तो इन्द्रियों और मन का परिश्रम कम हो जाता है। उससे भी मति को थोड़ी पुष्टि मिलती है। ज्यों-ज्यों मति को पुष्टि मिलती है त्यों-त्यों मति देखने-सुनने आदि की इच्छाएँ कम करके अपने आप में तृप्त रहती है। तृप्त मति की योग्यता बढ़ जाती है। योग्यता बढ़ जाती है तो मन और इन्द्रियाँ मति के आधीन हो जाते हैं।
मनुष्य जन्म में ही ऐसी अवस्था आ जाती है कि जब चाहा तब इन्द्रियों को समेटकर मन में ले आये, मन को समेटकर परमात्मा में गोता मार दिया।
दिले तस्वीरे है यार.....
जबकि गरदन झुका ली, मुलाकात कर ली।
जब चाहा, आत्मसुख पा लिया।
मति में आत्मसुख पाने की आदत पड़ जाती है तो जब शरीर छूटता है तब मति में, अन्तःकरण में कोई वासना नहीं रहती। जब वासना नहीं रहती तो प्राण लोक-लोकान्तर में जाने के लिए उत्क्रमण नहीं करते। अभी तुम्हें चाय पीने की या कुछ खाने पीने की वासना जाग जाय तो तुम यहाँ से खिसक जाओगे। जब कोई वासना नहीं है तो भाग-दौड़ करने की जरूरत क्या है ? वासना जोर करती है तो आदमी की नजर इधर उधर जाती है। वह बेईमानी भी करता है, पैसे भी खर्च करता है। सब वासना के लिए ही करता है। जिसकी मति में कोई वासना नहीं होती उसकी मति परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है।
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठति।
वह साधक जीते जी सिद्ध पद को पा लेता है।
ज्ञानीनाम् प्राणाः न उत्क्रामन्ते-अत्रैव प्रवीलियन्ते।।
जिनको आत्मा, परब्रह्म परमात्मा का सुख मिल गया है, आत्म-साक्षात्कार हो गया है ऐसे ज्ञानी के प्राण देहोत्सर्ग के बाद उत्क्रमण नहीं करते हैं। शरीर का प्रारब्ध पूरा होते ही स्थूल शरीर पाँच भूतों में लीन हो जाता है, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म भूतों में लीन हो जाता है। आत्मा तो पहले से ही परब्रह्म परमात्मा में मिली हुई है। वह तो आत्म-साक्षात्कार के दिन ही सत् चित् आनन्दस्वरूप, आकाश भी अत्यन्त सूक्ष्म परब्रह्म परमात्मा से एक हो गई थी। केवल देह की बाधा थी। प्रारब्ध ने देह की बाधा को निवृत्त कर दिया। ज्ञानी व्यापक ब्रह्म हो गया।
अब हमारे हिस्से क्या कर्त्तव्य आता है ?
हमारे हिस्से आता है कि हम मन और इन्द्रियों का अधिक आदर न करें। तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा हैः
देखिये सुनिये गुनिये मन माँही।
मोहमूल परमारथ नाँही।।
देखने, सुनने और विचार करने में जो आता है वह सब मोहमूलक है। वह परमारथ माने वास्तविक सत्य नहीं है।
पतंगे को दिये में सत्य सुख दिखता है और वह उसमें कूदकर जल मरता है। मछली को काँटे में सत्य सुख दिखता है और वह फँस मरती है। हाथी को कृत्रिम हथिनी में सत्य सुख दिखता है और वह खड्डे में जा गिरता है, सदा के लिए बन्दी हो जाता है। भौंरे को कमल में सत्य सुख दिखता है और वह वहीं लिप्त रहता है। शाम होते ही कमल की पंखुड़ियाँ मुँद जाती हैं, भ्रमर कैद हो जाता है। हालाँकि लकड़ी में भी छेद करने वाले भौंरे में कमल की कोमल पँखुड़ियाँ छेदने की ताकत है लेकिन प्रमाद में सुख का एहसास करता हुआ पड़ा रहता है। इन्द्रियों के आकर्षण में फँसा रहता है। हाथियों का झुण्ड आता है, तालाब में उतरकर कमल को उखाड़ फेंकता है, पैरों तले कुचला जाता है, मारा जाता है।
ऐसा नहीं है कि हम बिल्कुल अज्ञानी हैं। क्या अच्छा है क्या बुरा है यह सब लोग जानते हैं। क्या पुण्य है क्या पाप है यह भी हम काफी हिस्से में जानते हैं। क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए यह भी हम लोग जानते हैं। फिर भी जो नहीं करना चाहिए वह करते हैं। उसके पीछे एक ही कारण है सुख का लालच। कुछ काम भयभीत होकर भी करने पड़ते हैं- लोग क्या बोलेंगे ? समाज क्या कहेगा ?
सुख के लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को कमजोर कर दिया। उन्होंने मति को अपने नियंत्रण में ला दिया। मन और इन्द्रियाँ मति की कमजोरी को जान लेते हैं। इससे उसको घसीटते रहते हैं। मन और इन्द्रियाँ नीति का और मुक्ति का आदर नहीं करते, सुख का लालच रखते हैं, मति भी सुख के लालच में फिसलने लगती है, दुःख के भय से भयभीत होती है तो न चाहते हुए भी मति को हल्के निर्णय करने पड़ते हैं, न चाहते हुए हल्के कामों में जुड़ना पड़ता है। इससे मति का स्वभाव हल्का बन जाता है।
ब्रह्मा जी को प्रेरणा हुई किः 'तपः....।'
तप करने से तेज बढ़ेगा, शक्ति बढ़ेगी। तप करने से 'स्व' का ख्याल आयेगा कि मैं इन मन इन्द्रियों का गुलाम नहीं हूँ। शरीर के मिटने से भी मैं नहीं मिटता हूँ। न मरने का डर, न जीने का लालच, न भोगने की वासना। ये तीनों झंझटें जब निकल जाती हैं तब जीव अपने वास्तविक आत्मा, परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।
मम दरशन फल परम अनूपा।
जीव पावहिं निज सहज स्वरूपा।।
भगवान राम कहते है कि मेरे दर्शन का परम फल क्या है ? परम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को, जो सत् चित् आनन्दस्वरूप है, जो रोम-रोम में रमा हुआ है उस राम को पा लेता है।
थका, हारा, नौकरों से सताया हुआ सेठ अपने निकट के मित्र सेठ से मिलता है तो उसका बल बढ़ जाता है। ऐसे ही जब हम जप करते हैं, तप करते हैं, ध्यान करते हैं, तो सेठों का भी सेठ, सारे विश्व का मालिक जो हमारा आत्मा होकर बैठा है उस विश्वेश्वर का सहयोग मति को मिल जाता है। मति में शक्ति आ जाती है और वह मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ती है।
तपःषु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।
सब तपस्याओं में एकाग्रता परम तपस्या है।
हम जब इन्द्रियगत ज्ञान का आदर करते हैं तब हम पर विकारों का हमला अवश्य होता है। हम जब बुद्धिगत ज्ञान का आदर करते हैं तब हम विकारी सुखों का आदर नहीं करते, विकारी वस्तुओं का उपयोग करेंगे। जैसे कहीं जाना है तो आँख से मार्ग देख लिया, शरीर को टिकाना है तो तन्दुरूस्ती का ख्याल करके खा लिया, सुनना है तो सार-सार बात सुन ली, बाकी पर ध्यान नहीं दिया। इससे हमारी शक्ति बच जाती है।
बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से इन्द्रियों का, मन का झंझट कम हो जाता है और बुद्धि को कम परिश्रम पड़ता है। बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से हमारा विवेक बढ़ता जाता है। विवेक बढ़ने से वैराग्य बढ़ेगा। संसार से राग उठ जायगा। देखेंगे कि संसार की कितनी वस्तुओं को सँभाला..... आखिर सब छोड़कर मरना है तो फिर बहुत पसारा क्यों करना ? शरीर को इतना अधिक खिलाया पिलाया तो बीमारी हुई। अतः संयम से खाना चाहिए। इन आँखों को आज तक कितना सारा दिखाया लेकिन अभी तृप्ति नहीं हुई। कानों को कितना सुनाया ? जीभ को कितना खिलाया ? आखिर क्या ? ऐसा विवेक जागेगा। विवेक जागेगा तो वैराग्य आयगा।
बुद्धि जब परिणाम का विचार करती है तब उसका परिश्रम कम होता है। उसको परमात्मा में प्रतिष्ठित होने का, समता में आने का समय मिलता है।
भगवान को बुलाना भी नहीं है और भगवान को प्रकट भी नहीं करना है। भगवान हाजराहजूर हैं।
आद् सत् जुगात् सत् है भी सत् नानक ! होसे भी सत्।
वर्षा की ऋतु में बादलों के कारण सूरज नहीं दिखता है। सूरज को बुलाना भी नहीं है, प्रकट भी नहीं करना है। केवल हवाएँ चलें, बादल बिखरें, सूरज दिख जाएगा। सूरज तो पहले से ही है और शाम तक दिखेगा।
यह आकाश का सूरज तो शाम तक दिखेगा लेकिन आत्म-सूर्य के लिए तो कोई शाम ही नहीं है। परमात्मारूपी सूर्य से हम कभी अलग नहीं होते। उस सत्यस्वरूप परमात्मा में बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाय, बस। सागर में तरंग विलय हो जाती है तो तरंग सागर बन जाती है। तरंग पानी तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था लेकिन इस बेचारे जीव को इन्द्रियों के आकर्षणों ने, जगत की सत्यता ने, बेवकूफी ने कई जन्मों तक भटकाया।
जीव को माता का गर्भ सीधा ही मिल जाता है ऐसी बात नहीं है। कई जीव माता के गर्भ में वीर्यबिन्दु के रूप में गिरते है लेकिन बाथरूम के द्वारा नालियों में बह जाते हैं। क्या दुर्दशा होती है जीवों की ? इस पृथ्वी पर जितने हम लोग घूमते हैं इससे अधिक मनुष्य जीव नालियों में बहते होंगे। इस बात को कोई भी तार्किक या नास्तिक भी अस्वीकार नहीं कर सकता है।
'मेरे दो बेटे हैं।'
'कैसे तुम्हारे बेटे ?'
'क्योंकि मेरे शरीर से पैदा हुए हैं।'
'तुम्हारे शरीर से पैदा क्या हुए, केवल गुजरे।'
हम लोग अन्न-जल-फल आदि खाते हैं। उसमें स्थित जीव वीर्य के द्वारा पत्नी के गर्भ में जाते हैं। कई जीवों में से एक जीव बेटा होकर जन्म लेता है, बाकी के जीव नाली में बह जाते हैं। वीर्य के एक बिन्दु में करीब तीन हजार जीव होते हैं। माता के उदर में जो जीव नहीं टिक पाते वे कहाँ जाएँगे ? रज-वीर्य के रूप में बहकर बाथरूम के द्वारा नाली में जाएँगे।
ऐसी कितनी ही दुःखद अवस्थाएँ हम लोग कितनी ही बार भोग चुके हैं। यह बात अगर मति को समझ में आ जाय तो मति में संसार का आकर्षण कम हो जाएगा। फिर राग नहीं रहेगा। राग नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा। राग में कोई विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। बड़ा आदमी विघ्न डालता है तो उससे भय होता है, छोटा आदमी विघ्न डालता है तो क्रोध होता है, बराबर का आदमी विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। जब वासना ही नहीं है तो भय कहाँ ? वासना ही  नहीं तो उद्वेग कहाँ ? वासना ही नहीं तो द्वेष कहाँ ? निर्वासनिक मनुष्य के राग, द्वेष, क्रोध, भय, उद्वेग आदि सब शिथिल हो जाते हैं। जब राग, द्वेष, भय, उद्वेग, चिन्ता आदि सब शिथिल हो जाते हैं। तो जीव निश्चिन्त हो जाता है। वस्तु मिलेगी कि नहीं मिलेगी.... काम होगा कि नहीं होगा.... मेरा आखिर क्या होगा ? पहले यह चिन्ता थी। जीव जब निर्वासनिक हो जाता है तो हिम्मत आ जाती है कि हो होकर मेरा क्या होगा ? जो होगा सो शरीर, मन, इन्द्रियों को होगा, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। शरीर, मन, इन्द्रियों का कितना भी लालन-पालन करो, आखिर तो छूटना ही है। रोटी तो भगवान देता ही है और साथ में कुछ ले जाना नहीं है। फिर चिन्ता किस बात की ? जो बना है और जो बनाएँगे वह सब मृत्यु के एक झटके में छोड़ना है। मति अगर यह दृढ़ निश्चय कर ले तो आदमी की चिन्ता टिक नहीं सकती। आदमी निश्चिन्त होकर मति में टिकेगा तो जिस बात का वह चिन्तन करता है वह काम अपने आप हो जाएगा।
आदमी जितना निश्चिन्त होता है उतनी उसकी मति परमात्मा में टिकती है। मति जितनी परमात्मा में टिकती है उतनी प्रकृति और लोग अनुकूल होने लगते हैं। यही कारण है कि जो दुरात्मा होता है उसकी इच्छाएँ जल्दी पूरी नहीं होती। थोड़ी-बहुत इच्छाएँ पूरी होती हैं फिर भी वह दुःखी का दुःखी ही रहता है। जो धर्मात्मा है, पवित्रात्मा है उसकी ज्यादा इच्छाएँ होती नहीं जो होती हैं वे तो पूरी हो ही जाती हैं, जो उसके नाम की मनौती मानते हैं उन लोगों की इच्छाएँ भी कुदरत पूरी कर देती है।
तप से ही जगत को धारण किया जाता है, तप से ही जगत चलता है और तप से ही जगत के आकर्षण से छूटकर जगदीश्वर को प्राप्त किया जाता है। अतः हमारे जीवन में तप का स्थान होना चाहिए, तप के लिए नियत समय रखना चाहिए। बाईस घण्टे भले व्यवहार एवं अन्य प्रवृत्ति के लिए रखो लेकिन ज्यादा नहीं तो कम से कम दो घण्टे तप करो, ध्यान करो। छः घण्टे नींद करो, आठ घण्टे नौकरी – धन्धा करो, फिर भी दस घण्टे बचते हैं। उन दस घण्टों में सत्कर्म और तप आदि करो, सेवा करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो लेकिन कम से कम दो घण्टों तप करो, ध्यान करो।
पानी को गर्म किया जाता है तो वह वाष्प बन जाता है और उसमें 1300 गुनी शक्ति आ जाती है। ऐसे ही तप से, ध्यान से मति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम बन गई तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसी शक्तिशाली मति आत्म-सूर्य के आगे आये हुए बादलों को हटा देगी। बादल फटते हीः
डीठो मुख शहनशाह जो हींयरें थ्योमकरार।
लथा रोग शरीर जा मुझे सत्गुर जे दीदार।।
अविद्या-अज्ञान के बादल हटते ही ब्रह्मविद्या के बल से मति परब्रह्म परमात्मा का प्रसाद पा लेती है। उस प्रसाद से जीव के सारे दुःख दूर हो जाते हैं। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, माताओं के गर्भों में जाना-आना तो दूर हो जाएगा, इस जन्म के कर्म भी जलकर भस्म हो जाएँगे।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरूतेऽर्जुन।
ज्ञानग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूते तथा।।
'हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर  देती है वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।'
(भगवद् गीताः 4.37)
जैसे सूर्य को दीमक नहीं लगती ऐसे ही जब आत्मसूर्य से एक होकर मति संसार में जीती है तो उसे कर्मों की दीमक नहीं लगती। पहले के कर्म ज्ञानाग्नि से जलकर भस्म हो जाते हैं और नये कर्म बनते नहीं हैं। मति में कर्त्ताभाव नहीं रहता। मति अब वास्तविक सत्ता को जानती है कि सब परमेश्वर में हो रहा है। मति को अपनी वासना नहीं है।
अष्टावक्र मुनि ने जनक से कहाः
अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
'जब पुरूष अपने आत्मा के अकर्त्तापने को, अभोक्तापने को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्त की वृत्तियाँ निश्चय करके नाश होती है।'
(अष्टावक्रगीताः 18.51)
चित्त की वृत्तियों से ही जीव को जन्म-मरण हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही राग-द्वेष हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही भय-शोक हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही काम-क्रोध हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही लोभ-मोह हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही परेशानियों का प्रादुर्भाव हो रहा है। जब चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाएँगी या बाधित हो जाएँगी तब जीव परम शांति को प्राप्त होगा।
चित्तवृत्तियाँ क्षीण होना या बाधित होना माने क्या ?
नारियल की रस्सी दिख रही है। उसे जला दो। फिर उसका आकार तो वैसा ही दिखेगा लेकिन वह रस्सी अब बाँध नहीं सकेगी। मरूभूमि में दूर से पानी दिख रहा है। पास में जाकर देख लो तो रेत ही रेत है, पानी का नामोनिशान नहीं है। अब अपनी गद्दी पर पुनः बैठकर देखो तो वैसा ही पानी दिखेगा लेकिन पहले वाला आकर्षण नहीं रहेगा। ठूँठे में किसी को चोर दिखता है किसी को साहूकार दिखता है लेकिन बैटरी जलाकर देख लिया कि यह ठूँठा है। न चोर है न साहूकार है।
ऐसे ही जगत में न सुख है न दुःख है, न पुण्य है न पाप है, न अपना है न पराया है। एक ही परब्रह्म परमात्मा का सब विवर्त है। मति ने ऐसा जान लिया तो जगत का न आकर्षण होगा न द्वेष होगा, न राग होगा न द्वेष होगा। जो किसी से राग नहीं करता वह सबसे प्रीति करता है। जो किसी से राग नहीं करेगा वह किसी से द्वेष भी नहीं करेगा। जो सबसे प्रीति करता है वह किसी में प्रीति नहीं करता।
दुकानदार मोहवश परिवार से प्रीति करता है तो ग्राहकों का धन खींचता है। जिसको अपने परिवार से मोहजन्य प्रीति नहीं है वह ग्राहकों का धन खींचने में नहीं लगेगा। वह सारे विश्व का प्रेमपात्र बन जाएगा। सारे विश्व का प्रेमपात्र बन जायेगा तो कुटुम्बियों का भी प्रेमपात्र बन जाएगा। उनका भी कल्याण होगा।
लोगों को लगता है कि हम बच्चों से प्रेम करते है, पत्नी से प्रेम करते हैं। वास्तव में हम वासना से प्रेम करते हैं, इन्द्रियों से प्रेम करते है। वासनापूर्ति में जो सहयोग करते हैं उनको अपने खिलौने बनाते हैं। पत्नी पति से प्रेम करती हुई दिखती है लेकिन वह अपनी वासना से प्रेम करती है। जब वासना से प्रेम होता है तब प्रेम के नाम से एक दूसरे का  शोषण होता है। वासनारहित जब प्रेम होता है तब वह परमात्मा हो जाता है और उद्धार कर देता है।
जीव को प्रेम करने की तो आदत है, वासना है। इस प्रेम को ऊर्ध्वमुखी बनाना है। देखने की वासना है तो ठाकुरजी को देखो। किसी का होने की वासना है तो भगवान के हो जाओ। 'मैं पत्नी का हूँ.... मैं पति की हूँ...' इसके स्थान पर 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं' यह भाव बना लो। जैसे गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील घुमाने से गाड़ी की दिशा बदल जाती है ऐसे ही अपनी अहंता और ममता को, 'मैं' और 'मेरे' पने को बदलने से बहुत सारा बदल जाएगा। 'मैं घनश्याम हूँ..... मैं पत्नी का हूँ.... मैं संसारी हूँ..... मैं गृहस्थी हूँ.......' ऐसा भान रखने से उस प्रकार की वासना और जवाबदारी रहेगी। 'मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं......' यह अहंता बदलने से जीवन बदल जाएगा। हम स्वयं को आत्मा मानेंगे, परमात्मा का अंश मानेंगे तो अपने में आत्मा की अहंता करेंगे, देह की अहंता मिट जाएगी। देह की अहंता मिटते ही जाति की संकीर्णता मिट जाएगी। अपने मन की मान्यताओं की संकीर्णताएँ मिट जाएगी। 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं....।' भगवान सत् चित् आनन्दस्वरूप हैं तो सुख के लिए, आनन्द के लिए हमें इन्द्रियों की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी। इन्द्रियों का उपयोग करने की ताकत बढ़ जाएगी। इन्द्रियों की गुलामी के बजाय इन्द्रियों का उपयोग करोगे तो इन्द्रियों में जल्दी से बीमारी भी नहीं आयेगी। शरीर तंदुरूस्त रहेगा, मन-बुद्धि में लाचारी नहीं रहेगी। जब इन्द्रियों का सुख लेते हो तो बकरी बन जाते हो।
सुख आत्मा का लो और उपयोग इन्द्रियों का करो। जीवन सिंह जैसा बन जाएगा, व्यवहार और परमार्थ सब ठीक हो जाएगा।
ये सब बातें सत्संग के बिना समझ में भी नहीं आतीं, इन बातों में रूचि भी नहीं होती और इनके रहस्य हृदय में प्रकट भी नहीं होते। इसीलिए सत्संग की बड़ी महिमा है।
वशिष्ठ जी कहते हैं कि चाहे चण्डाल के घर की भिक्षा ठीकरे में माँगकर खानी पड़े और आत्मा-परमात्मा के ज्ञान का सत्संग मिलता हो तो उस जगह का त्याग नहीं करना चाहिए। राज वैभव-ऐश्वर्य हो लेकिन आत्मज्ञान न मिलता हो तो उस ऐश्वर्य और राज वैभव को लात मार दो। ये भोग शरीर तक ही सुखाभास देंगे, फिर जन्म-मरण के चक्कर में जाना पड़ेगा, नालियों में कीड़ा होकर बहना पड़ेगा। आत्मा-परमात्मा को पाने के लिए राज वैभव का त्याग करना पड़े तो भी कोई खतरा नहीं है। क्योंकि एक दिन मरकर तो सब कुछ छोड़ना ही है। मरकर, लाचार होकर छोड़ें और वासना लेकर भटकें, फिर कहीं न कहीं कैसी भी योनि में जन्म लें इससे तो जीते जी वासना मिटाकर निर्वासनिक आत्मा परमात्मा का सुख पाने का अभ्यास शुरू कर दें यह अच्छा है।
सत्संग समझने के लिए भी तप की जरूरत पड़ती है। एकाग्रता चाहिए, विवेक चाहिए। तप करने के लिए तप में रस आना चाहिए, तब मन तप करेगा। मन को जहाँ रस नहीं आता वह तप नहीं करता। इन्द्रियों से सुख लेने में मन को जल्दी रस आ जाता है, भले वह नकली हो, भ्रांति मात्र हो। मिट्टी के खिलौने का आम बारह महीनों मिलता है। बच्चा उसी में खेलता रहता है। असली आम तो केवल ऋतु में ही मिलता है, पहले कच्चा और खट्टा होता है, फिर खटमीठा होता है, फिर पकता है, पूरा समय होता है तब मीठा बनता है। खिलौने का आम तो पहले से ही पूरा पीला होता है। जगत भी एक खिलौना है। इन्द्रियों के सुख सब पहले से ही तैयार हैं रस देने के लिए लेकिन बाद में सत्यानाश करते हैं। अंगारा चमचम चमकता है। बच्चे को वह दूर से बढ़िया खिलौना लगता है। जब हाथ डालता है तब चिल्लाता है। ऐसे ही संसार के सुख भोगे नहीं तब तक आकर्षक लगते हैं भोगते ही पछताना पड़ता है। एक बार ही नहीं कई बार पछताने के बाद भी हम लोग फिर वहीं जाते हैं क्योंकि सच्चा सुख विवेक नहीं है, सच्चे सुख का ज्ञान नहीं है। सच्चे सुख का थोड़ा बहुत विवेक है, थोड़ा बहुत ज्ञान है लेकिन उस सच्चे सुख का स्वाद लेने की क्षमता नहीं है इसलिए बार-बार हल्के स्वाद में गिर जाते हैं।
अब बात यह रही किः
मिल जाए कोई पीर फकीर।
पहुँचा दे भव पार....।।
ऐसे कोई महापुरूष मिल जाएँ तो उस तत्त्व का स्वाद दिला दें।
मन को अगर अच्छी तरह शिक्षित किया जाय तो वह हमारा बड़ा, भारी में भारी, ऊँचे में ऊँचा मित्र है। सारे विश्व में ऐसा कोई मित्र नहीं हो सकता। इसके विपरीत, मन हमारा भारी में भारी शत्रु भी है। मन जैसा शत्रु सारे विश्व में नहीं हो सकता। मन शत्रु क्यों है ?
मन अगर इन्द्रियों के विकारी सुखों में भटकता रहा तो चौरासी लाख योनियों में युगयुगान्तर तक हमें भटकना पड़ेगा। ऐसा वह खतरनाक शत्रु है।
मन मित्र कैसे है ?
मन अगर तप और परमात्मा के ध्यान की तरफ मुड़ गया तो वह ऐसा मित्र बन जाता है कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों के अरबों-अरबों संस्कारों को मिटाकर, इसी जन्म में ज्ञानाग्नि जलाकर, आत्मा-परमात्मा की मुलाकात कराकर मुक्ति का अनुभव करा देता है।
इसलिए शास्त्र कहते हैं किः
मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धनमोक्षयोः।
हमारा मन ही हमारे बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
बन्धुरात्मानस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।
'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है आप ही अपना शत्रु है।'
'जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ नहीं जीती गई हैं, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।'
(भगवद् गीताः 6.5.6)
जब इन्द्रियाँ और मन अनात्म वस्तुओं में सत्यबुद्धि करके सुख पाने की मजदूरी करते हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका शत्रु है। जब मन और इन्द्रियाँ आत्मा-परमात्मा के सुख में अन्तर्मुख होती हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका मित्र है। हम जब विकारों का सुख लेते हैं तब हम अपने आपसे शत्रुता करते हैं और जब निर्विकारी सुख की ओर आते हैं तब हम अपने आपके मित्र हैं।
भगवान कहते हैं कि अपने आपको अधोगति की ओर नहीं ले जाना चाहिए। अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को परमात्मा की ओर ले जाना चाहिए। हम जब परमात्मा के विषय में सुनेंगे, उनकी महिमा और गुण सुनेंगे, उनके नाम का जप, ध्यान आदि करेंगे तब भीतर का सुख मिलेगा। भीतर का सुख मिलेगा तो हम आपके मित्र बन गये।
भीतर का सुख मिल जाता है लेकिन विकारी सुख में गिरने की पुरानी आदत है इसलिए बार-बार उधर चले जाते हैं। इसलिए हमें विवेक जगाना चाहिए, थोड़े नियम, थोड़े व्रत ले लेने चाहिए। व्रत ले लेते हैं तो मन धोखेबाजी कम करता है। सच्चा सुख पाने का आपका संकल्प नहीं होता, उसके लिए व्रत नहीं करते इसलिए मन और इन्द्रियाँ अपने पुराने अभ्यास के मुताबिक बुद्धि को वहीं घसीट ले जाते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञावाले महापुरूषों का संग करने से अपनी मति में, बुद्धि में शक्ति बढ़ती है।
भगवान शिवजी पार्वती से कहते हैं-
उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।
यह भी हरि की अहैतुकी कृपा है कि हमें ऊँचे में ऊँची चीज, ब्रह्मज्ञान का सत्संग सहज में मिल रहा है। जो हल्की चीज होती है उसके लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जो ऊँची चीज होती है उसके लिए परिश्रम करो, सौ रूपये कमाओ फिर दारू खरीद सकते हो। शरीर के लिए दारू बिल्कुल आवश्यक नहीं है। पानी शरीर के लिए बहुत जरूरी है और वह मुफ्त में मिल जाता है।
प्रवास पर जाते हैं तो भोजन का टिफिन घर से ले जाते हैं लेकिन भोजन से भी अधिक आवश्यक पानी घर से  नहीं ले जाते। वह स्टेशन पर भी मिल जाता है। पानी के लिए भी बर्तन तो लेना पड़ता है जबकि पानी से भी अधिक आवश्यक हवा के लिए कुछ नहीं लेना पड़ता, कुछ नहीं करना पड़ता। पानी के बिना तो कुछ घण्टे चल सकता है लेकिन हवा के बिना शरीर जी नहीं सकता। ऐसी मूल्यवान हवा सर्वत्र निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में सबको प्राप्त है।
ऐसे ही जो अत्यंत जरूरी हैं, महान हैं वे परमात्मा स्वर्ग-नरक में सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल मति को उन्हें देखने की कला आ जाय, बस। परमात्मा को देखने की कला आ जाय तो सदा सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है।
हररोज खुशी हरदम खुशी हर हाल खुशी
जब आशिक मस्त फकीर हुआ
तो फिर क्या दिलगिरी बाबा ?
जैसे हवा सर्वत्र है ऐसे ही ज्ञानी जहाँ कभी जाएगा वहाँ उसके लिए सत् चित् आनन्दस्वरूप परमात्मा हाजिर हैं। उसके लिए इन्द्रियों और शरीर में रहते हुए मन, इन्द्रियों और शरीर के आकर्षण से जो पार है, अपने परमात्मानन्द में है, ब्रह्मानन्द में है ऐसे महापुरूष की तुलना तुम किससे करोगे ?
तस्य तुलना केन जायते।
ऐसा महापुरूष संसार की किसी भी परिस्थिति से द्वेष नहीं करता क्योंकि उसको किसी के लिए राग नहीं है तो द्वेष भी कहाँ से लायगा ? रागी को द्वेष होता है।
ज्ञानी का राग तो संसार में है नहीं। उसका राग तो परमात्मा में है और परमात्मा सब जगह मिलते हैं, परमात्मा सर्वत्र मौजूद हैं, परमात्मा ज्ञानी का अपना आपा होकर बैठे हैं। इसलिए ज्ञानी को कोई भी सासांरिक परिस्थिति का राग नहीं है। राग नहीं है तो द्वेष भी नहीं है। राग द्वेष नहीं है तो उसका चित्त सदा समाहित है।
सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।
जिसकी वासनाओं का, अज्ञान का अन्त हो गया है उनको संत बोलते हैं। ऐसे संत इन्द्र के वैभव को भी तुच्छ गिनते हैं। ऐसा वैभव उनको प्राप्त हो गया है।

Friday, October 7, 2011

परम तप  पुस्तक से - Param Tap pustak se


दृश्य से अदृश्य की ओर - Drishya se Uddeshya ki or

एकाग्रता साधने के कई उपाय हैं। जैसेः हम छत पर सोये हैं। पलकें गिराये बिना चाँद को निहारते-निहारते लेटे हैं। कुछ समय के बाद एक के बदले दो चाँद दिखने लग जायेंगे। फिर तीन दिखने लग जायेंगे। आँखे खुली होंगी और तीनों के तीनों अदृश्य भी हो जायेंगे। हम दृश्य में फँसे हैं। दृश्य को देखते-देखते हम अदृश्य में पहुँच जायेंगे। व्यक्त में फँसे हैं लेकिन व्यक्त को निहारते-निहारते हमारी चेतना अव्यक्त में चली जायेगी।
रमण महर्षि के पास ऐसी योग्यता थी। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री जैसे व्यक्ति को उन्होंने ऐसी शांति दी कि वर्षों तक उनके द्वारा महर्षि की प्रशंसा के गीत गाये गये। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजीभाई देसाई देश-विदेश में अपना यह अनुभव कहा करते थे किः "मैं कलेक्टर से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद पर रहा लेकिन रमण महर्षि के चरणों में जो सुख-शांति मिली वह किसी पद के भोग में नहीं मिली।"
रमण महर्षि के चित्त में जो अव्यक्त का आनन्द छा जाता था वह एकाग्रता के द्वारा सारी सभा को भी मिल जाता था।
कभी दीये की जलती लौ पर पलकें गिराये बना देखते जाओ। भूत-प्रेत को देखने के लिए भी लोग लौ का उपयोग करते हैं। लेकिन तुम भूत-प्रेत के चक्कर में मत पड़ना। उसमें कोई सार नहीं।
लौ को निहारते जाओ... निहारते जाओ, फिर आँखे बन्द कर दो तो वही लौ ललाट में दिखेगी। थोड़ी देर के बाद वह अदृश्य हो जायेगी। आँखें खोलकर फिर से लौ को निहारो। ऐसे भी एकाग्रता बढ़ती है।
ऊपर नीचे के दाँतों के बीच जिह्वा के अग्र भाग को रोक दो। मुँह ऐसे बन्द करो कि जिह्वा न ऊपर तालू में लगे न नीचे लगे। मुँह के अवकाश में टिक जाये। ऐसा करके जिह्वा को मन से निहारते जाओ... निहारते जाओ। इससे भी एकाग्रता में मदद मिलेगी।
घड़ी का काँटा सेकण्ड-सेकण्ड करके घूम रहा है। इस काँटे को देखते हुए सेकण्डों को गिनते जाओ। इससे भी एकाग्रता की साधना हो सकती है।
मन में  विचार चल रहे हैं। एक विचार उठा और गया। दूसरा अभी उठने को है। इसके बीच की जो निर्विचार अवस्था है उसको बढ़ाते जाओ तो तुरन्त साक्षात्कार का स्वाद आने लगेगा। दो विचारों के बीच की जो मध्यावस्था है उसको बढ़ाते जाओ तो चन्द दिनों में ऐसी ऊँचाई को पा लोगे की तुम्हारे आगे इन्द्र का राज्य भी कुछ नहीं लगेगा।
कभी तुम नदी, सरोवर या सागर के तट पर बैठे हो तब पानी को निहारते-निहारते चित्त को एकाग्र करो। कभी घर में ही त्राटक का अभ्यास करो। दीवार पर लगे हुए काले गोलाकार के बीच पीले बिन्दु को निहारते जाओ.... निहारते जाओ। आँखों की पलकें न गिरें। जब तक आँखों से पानी न गिरे तब तक निहारते जाओ। दिनोंदिन अभ्यास बढ़ाते जाओ। कुछ ही दिनों में शक्ति आने लगेगी। सामर्थ्य का एहसास होगा। उस शक्ति या सामर्थ्य को पढ़ाई में खर्च करो, धन्धे में खर्च करो, कहीं भी खर्च करो लेकिन हम तो चाहते हैं कि उस शक्ति को शक्तिदाता परमात्मा के साक्षात्कार के लिए खर्च करके तुम उसको पा लो।
अनेक प्रकार के प्रयोग हैं जिनके अभ्यास से तुम सर्वोच्च तपस्या में सफल हो सकते हो। सारी सृष्टि का जो आधार है वह भी एकाग्रता से प्राप्त हो सकता है। महावीर इतने एकाग्र हो गये कि कानों में कीलें लगाई गईं फिर भी उनके चित्त में क्षोभ न हुआ। यह एकाग्रता का ही प्रभाव है कि क्षत्रिय राजकुमार वर्धमान, भगवान महावीर होकर पूजे जा रहे हैं।
हर व्यक्ति ऊँचा होना चाहता है, हर इन्सान अदभुत होना चाहता है, सबसे निराला होना चाहता है लेकिन जिससे निराला बना जाता है उस पर ध्यान नहीं है।
एकाग्रता साधने के लिए ध्यान की भिन्न-भिन्न रीतियाँ अपनायी जाती हैं। अपने मूलाधार चक्रपर चित्त एकाग्र करने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। काम का केन्द्र राम में बदल सकता है, भय निर्भयता में, घृणा प्रेम में, हिंसा अहिंसा में, स्पर्धा समता में बदल सकती है।
बार-बार किसी रूप को निहारते-निहारते उसी में चित्त को एकाग्र किया जाता है। गुरु, गोबिन्द, भगवान जो भी रूप प्यारा लगे उसको देर तक एकटक निहारते-निहारते आँखें बन्द करके भ्रूमध्य में उसी रूप को देखा जाये। ऐसा अभ्यास करने वाले साधक भी अदभुत सिद्धियाँ और सामर्थ्य पा सकते हैं। किसी रोग को निवृत्त करने के लिए इसी प्रकार एकाग्र होकर बार-बार संकल्प करने से रोग निवृत्त होते हैं। जन्म-मृत्यु का भवरोग निवृत्त करने के लिए एकाग्रता का उपयोग साक्षीभाव में किया जाता है।
भक्तों की भक्ति, जपी का जप, योगी का योग तब फलता है जब एकाग्रता होती है। भोगी को भी सफलता तब मिलती है जब कुछ घड़ियों के लिए, कुछ समय के लिए वह एकाग्र होता है।

Saturday, September 24, 2011



बाल संस्कार केन्द्र पाठ्यक्रम पुस्तक से - Baal Sanskar Kendra Pathyakram

मांसाहार छोड़ो... स्वस्थ रहो - Mansahaar chhodo... Swasth raho

"यदि हृदयरोग, कैन्सर, मधुमेह, रक्तचाप, अस्थमा तथा नपुंसकता जैसी बीमारियों से बचना हो अथवा उनकी असंभावना करनी हो तो आज से ही मांसाहार पूर्णरूप से बंद करके पूर्ण शाकाहारी बन जाइये।"
यह चेतावनी अमेरिका के 'फिजिशियन कमेटी फॉर रिस्पॉन्सिबल मेडिसन' के चेयरमैन डॉ. नील बर्नार्ड ने अमदावाद के 'एन. एच. एल. म्युनिसिप मेडिकल कॉलेज' में दी। जो भारतीय मांसाहार करते हैं उनके प्रति आश्चर्य व्यक्त करते हुए डॉ. बर्नार्ड ने कहाः "संसार के अत्यंत ठंडे देशों की जनता मौसम के अनुकूल होने की दृष्टि से मांसाहार का सेवन करती है परन्तु वह जनता भी अब जागृत होकर सम्पूर्ण रूप से शाकाहारी बन रही है। ऐसे में भारत जैसे गर्म देश की जनता मांसाहार किसलिए करती है, यह समझ में नहीं आता।
मांसाहार से शरीर में चर्बी की परतें जम जाती हैं और धीरे-धीरे रक्त की गाँठें बनने लगती हैं। रक्तसंचरण की क्रिया पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके फलस्वरूप अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके अलावा प्राणियों के मांस में विद्यमान हानिकारक रासायनिक पदार्थ भी कैन्सर की संभावना बढ़ाते हैं। प्राणियों के मांस में कौन-कौन से जहरीले पदार्थ होते हैं, यह एक आम आदमी नहीं जानता। पूर्ण शाकाहारी एवं संतुलित आहार लेनेवाले व्यक्ति की तुलना में मांसाहारी व्यक्ति में हृदयरोग एवं कैन्सर की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है, यह प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है।
हृदय रोग का शिकार मांसाहारी मरीज भी यदि शाकाहारी बन जाय तो वह अपने हृदय को पुनः तन्दुरूस्त बना सकता है। प्राणियों की चर्बी और कोलस्टरोल मानव शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है। प्राणियों का मांस वास्तव में शरीर को धीरे-धीरे कब्रिस्तान में बदल देता है। यदि स्त्रियाँ मांसाहार अधिक करती हैं तो उनमें स्तन कैन्सर की संभावना बढ़ जाती है। मांसाहारियों की शाकाहारियों की अपेक्षा 'कोलोना कैन्सर' अधिक होता है।
अण्डे भी इस विषय में इतने ही हानिकारक हैं। प्रोस्टेट कैन्सर में मांसाहार एवं अण्डे कारणरूप साबित हो चुके हैं। अधिक चर्बीयुक्त पदार्थ शरीर में 'एस्ट्रोजन' की मात्रा बढ़ाते हैं। इससे यौन हार्मोन्स में गड़बड़ी होती है तथा स्तन एवं गर्भाशय के कैन्सर और नपुंसकता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
शाकाहारी व्यक्तियों के रक्त में कैन्सर कोषों से लड़ने वाले प्राकृतिक कोषों एवं श्वेत रक्तकणों का उत्तम संयोजन होता है।
यदि पूर्ण मांसाहारी मनुष्य भी मात्र तीन सप्ताह तक के लिए शाकाहारी बन जाय तो उसका कोलेस्टरोल, रक्तचाप, हायपरटेंशन आदि काफी मात्रा में नियंत्रित हो सकता है।
मांसाहारी व्यक्ति के शरीर में कैल्शियम, ऑक्सेलेट एवं युरिक अम्ल अधिक मात्रा में पैदा होते हैं जिससे पथरी होने का खतरा बना रहता है। शरीर में कैल्शियम का होना जरूरी है परन्तु उसके लिए मांसाहार की आवश्यकता नहीं है। विटामिन बी-12 भी कंदमूल से बहुत अधिक मात्रा में मिल जाता है। इस संदर्भ में हजारों वर्ष पहले भारत का शुद्ध-सात्त्विक आहार आदर्श माना जा सकता है।"

कोलस्टरोल नियंत्रित करने का आयुर्वैदिक उपचार

आधुनिक भाषा में जिसे कोलेस्टरोल कहते हैं, उसे नियंत्रित करने का सुगम उपाय यह है कि दालचीनी (तज) का पाउडर बना लें। एक से तीन ग्राम तक पाउडर पानी में उबालें। उबला हुआ पानी कुछ ठंडा होने पर उसमें शहद मिलाकर पीने से कोलेस्टरोल जादुई ढंग से नियंत्रित होने लगता है। एक माह तक यह प्रयोग करें। तज का पाउडर गर्म प्रकृति का होता है। इसका ज्यादा प्रयोग करने से शरीर में अधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। सर्दियों में यह प्रयोग बहुत ही लाभदायक है। अतः ठण्डी में इसकी मात्रा बढ़ा सकते हैं किन्तु गर्मी में कम कर देना चाहिए।
तज के पाउडर को दूध में लेना हो तो दूध उबालने के पहले उसमें उसे डाल लें। दूध के साथ शहद विरूद्ध आहार है, अतः हानिकारक है। डायबिटीजवाले उसमें मिश्री मिला सकते हैं अथवा उसे फीका भी पी सकते हैं। इससे धातु भी पुष्ट होती है तथा वीर्यक्षय को रोकने में मदद मिलती है।

मांसाहारः गंभीर बीमारियों को बुलावा

मांसाहार से होने वाले घातक परिणामों के विषय में सभी धर्मग्रन्थों में बताया गया है परन्तु आज के समाज का अधिकांश प्रत्येक पहलू को विज्ञान की दृष्टि से देखना पसन्द करता है। देखा जाय तो प्रायः सभी धर्म ग्रन्थों के प्रेरणास्रोत ऐसे महापुरूष रहे हैं जिन्होंने प्रकृति के रहस्यों को जानने में सफलता प्राप्त की थी तथा प्रकृति से भी आगे की यात्रा की थी। फलतः उनके प्रकृति से भी आगे के रहस्य को जानने वाला आज का विज्ञान भला कैसे झुठला सकता है, अर्थात् विज्ञान ने भी अपनी भाषा में शास्त्रों की उसी बात को दोहराया है।
मांसाहार पर हुए अनेक परीक्षणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा है कि मांसाहार का अभिप्राय है गम्भीर बीमारियों को बुलावा देना। मांसाहार से कैन्सर, हृदय रोग, चर्म रोग, कुष्ठरोग, पथरी एवं गुर्दों से सम्बन्धित बीमारियाँ बिना बुलाये ही चली आती हैं।
व्यापारिक लाभ की दृष्टि से पशुओं का वजन बढ़ाने के लिए उन्हें अनेक रासायनिक मिश्रण खिलाये जाते हैं। इन्ही मिश्रणों में से एक का नाम है डेस(डायथिस्टिल-बेस्ट्राल)। इस मिश्रण को खाने वाले पशु के मांस के सेवन से गर्भवती महिला के आनेवाली संतान को कैन्सर हो सकता है। यदि कोई पुरूष इस प्रकार के मांस का भक्षण करता है तो उसमें 'स्त्रैणता' आ जाती है अर्थात् उसमें स्त्री के हारमोन्स अधिक विकसित होने लगते है तथा पुरूषत्व घटता जाता है।
मांस में पौष्टिकता के नाम पर यूरिक अम्ल होता है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. अलेक्जेण्डर के अनुसार यह अम्ल शरीर में जमा होकर गठिया, मूत्रविकार, रक्त विकार, फेफड़ों की रूग्णता, यक्षमा, अनिद्रा, हिस्टीरिया, एनिमीया, निमोनिया, गर्दन दर्द तथा यकृत की अनेक बीमारियों को जन्म देता है।
मांसाहार से शरीर में कोलेस्ट्रोल की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। यह कोलेस्ट्रोल धमनियों में जमा हो जाता है तथा उनको मोटा कर देता है जिससे रक्त के परिवहन में अवरोध पैदा होता है। धमनियों मे रक्त-परिवहन सुचारू तथा प्राकृतिक रूप से न होने के कारण हृदय पर घातक असर पड़ता है तथा दिल का दौरा, उच्च रक्तचाप आदि की संभावना शत-प्रतिशत बढ़ जाती है।
जापान के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर बेंज के अनुसार, 'बूचड़खानों में मृत्यु के झूले में  झूलते तथा यातनायें सहते प्राणी के शरीर में दुःख, भय तथा क्रोध आदि आवेशों से युक्त हारमोन्स तीव्र गति से पैदा होते हैं। ये हारमोन्स कुछ ही क्षणों में रक्त घुल जाते हैं तथा मांस पर भी उनका नियमित प्रभाव पड़ता है। ये ही हारमोन्स जब मांस के माध्यम से मनुष्य के शरीर तथा रक्त में जाते हैं तो उसकी सुप्त तामसिक प्रवृत्तियों को उत्तेजित करने का कार्य बड़ी तेजी से करते हैं।"
डॉ. बेंज ने तो अपने अनेक प्रयोगों के आधार पर यहाँ तक कह दिया है कि, "मनुष्य में क्रोध, उद्दण्डता, आवेग, आवेश, अविवेक, अमानुषिकता, आपराधिक प्रवृत्ति तथा कामुकता जैसे दुष्टकर्मों को भड़काने में मांसाहार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण हाथ है।"
मांसाहार में प्रोटीन की व्यापकता की दुहाई देने वालों के लिए वैज्ञानिक कहते हैं कि, "मांसाहार से प्राप्त प्रोटीन समस्या नहीं, अपितु समस्याएँ की कतारें खड़ी कर देता है। इससे कैल्शियम के संचित कोष खाली हो जाते हैं तथा गुर्दों को बेवजह परिश्रम करना पड़ता है जिससे वे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।"
मांसाहार कब्ज का जनक है क्योंकि इसमें रेशे (फाइबर) की अनुपस्थिति होती है जिससे आँतों की सफाई नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त कत्लखाने में कई प्रकार की संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त पशुओं का भी कत्ल हो जाता है। ये रोग मांसाहारी के पेट में मुफ्त में पहुँच जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से मांसाहार इतना मंहगा है कि एक मांसाहारी की खुराक में लगे पैसों से कई शाकाहारियों का पेट भरा जा सकता है।
इस प्रकार मांसाहार की हानियों को उजागर करने वाले सैंकड़ों तथ्य हैं। अस्तु मांसाहार कि विरोध तो आर्षदृष्टा ऋषियों ने, सन्तों-कथाकारों ने सत्संग में भी किया, वही विरोध अब विज्ञान के क्षेत्र में भी हुआ है। फिर भी आपको मांसाहार करना है, अपनी आनेवाली पीढ़ी को कैन्सर ग्रस्त करना है, अपने को बीमारियों का शिकार बनाना है तो आपकी मर्जी। अगर आपको अशान्त-खिन्न-तामसी होकर जल्दी मरना है, तो करिये मांसाहार, नहीं तो त्यागिये मांसाहार। गुटखा, पान-मसाला, शराब को त्यागिये भैया ! हिम्मत कीजिये.... अपनी सोई हुई सज्जनता जगाइये.... अपनी महानता में जागिये.....

मांसाहारी मांस खाता है परंतु मांस उसकी हड्डियों को ही खा जाता है !

सेन फ्रांसिका स्थित कैलिफौर्निया विश्वविद्यालय के मेडिकल सेन्टर, माउण्ट जीओन में डॉ. सेलमायर द्वारा किये गये एक नवीन शोध के अनुसारः "पशुओं की चर्बी से मिलने वाले प्रोटीन का अस्थिक्षय एवं हड्डियाँ टूटने के रोगों से घनिष्ट संबंध है।"
अम्ल को क्षार में रूपान्तरित करने वाला रसायन (बेज़) सिर्फ फल एवं शाकाहार से ही प्राप्त होता है। मांसाहार से शरीर में अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। उसे क्षार में रूपान्तरित करने के लिए हड्डियों की मज्जा में स्थित बेज़ को काम में लाना पड़ता है, क्योंकि हड्डियाँ मज्जा एवं कैल्शियम से बनी होती हैं अतः मज्जा के क्षय होने से हड्डियाँ धीरे-धीरे गलने लगती हैं। इससे अस्थिक्षय की बीमारी उत्पन्न होती है अथवा छोटी-सी चोट लगने पर भी व्यक्ति की हड्डियाँ टूटने की समस्या पैदा हो जाती है।

Tuesday, August 30, 2011

क्या करें, न करें ?  पुस्तक से -  Kya Karen, na Karen ?  pustak se
नीतिज्ञान - Nitigyan

भगवान ब्रह्माजी के तीसरे मानसपुत्र भृगु के पुत्र महर्षि शुक्राचार्य ने नीतियों में श्रेष्ठ नीतिशास्त्र को कहा, जिसे भगवान ब्रह्मा ने लोकहितार्थ पूर्व में ही शुक्राचार्य से कहा था। इस 'शुक्रनीति' के वचन प्रत्येक जटिल परिस्थिति में सुपथ दिखाने वाले, समाज को एक नयी दिशा प्रदान करने वाले हैं।

गुरुजनों के तथा राजा के आगे उनसे ऊँचे आसन पर या पैर के ऊपर पैर रखकर नहीं बैठना चाहिए और उनके वाक्यों का तर्क द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए। दान, मान और सेवा से अत्यंतत पूज्यों की सदा पूजा करें।

किसी भी प्रकार से सूर्य की ओर देर तक न देखें। सिर पर बहुत भारी बोझ लेकर न चलें। इसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म, अत्यंत चमकीली, अपवित्र और अप्रिय वस्तुओं को देर तक नहीं देखना चाहिए।

मल-मूत्रादि वेगों को रोके हुए किसी कार्य को करने में प्रवृत्त न हो और उक्त वेगों को बलपूर्वक न रोके।

परस्पर बातचीत करते हुए दो व्यक्तियों के बीच में से नहीं निकलना चाहिए।

गुरुजन, बलवान, रोगी, शव, राजा, माननीय व्यक्ति, व्रतशील और यान (सवारी) पर जाने वाले के लिए स्वयं हटकर मार्ग दे देना चाहिए।

परस्त्री की कामना करने वाले बहुत से मनुष्य संसार में नष्ट हो गये, जिनमें इन्द्र, दण्डक्य, नहुष, रावण आदि के उदाहरण प्रसिद्ध हैं।

महान ऐश्वर्य प्राप्त करके भी पुत्र को पिता की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए क्योंकि पुत्र के लिए पिता की आज्ञा का पालन करना परम भूषण है। (शुक्रनीतिः 2.37.38)

मनुष्य को सदा दूर का सोचने वाला, समयानुसार सूझबूझवाला तथा साहसी बनना चाहिए, आलसी और दीर्घसूत्री नहीं होना चाहिए।

चाहे वह कुबेर ही क्यों न हो, किसी का भी संचित धन नित्य धनागमन के बिना इच्छानुसार व्यय करने के लिए पर्याप्त नहीं होता अर्थात् एक दिन समाप्त हो जाता है, अतः आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए।

सर्वदा विश्वासपात्र किसी व्यक्ति का यहाँ तक कि पुत्र, भाई, स्त्री, अमात्य (मंत्री) या अधिकारी पुरुष का भी अत्यन्त विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यक्ति को धन, स्त्री तथा राज्य का लोभ अधिक रूप से होता है। अतः प्रामाणिक, सुपरिचित एवं हितैषी लोगों का सर्वत्र विश्वास करना चाहिए।

छिपकर विश्वासपात्र के कार्यों की परीक्षा करें और परीक्षा करने के बाद विश्वासपात्र निकले तो उसके वचनों को निःसंदेह सर्वताभावेन मान लें।

मनुष्य अपने आपत्काल में किसी बलवान मनुष्य की बुरी सत्य बात भी कहने के लिए मूक (गूँगा) बन जाये, किसी के दोष देखने के लिए अंधा, बुराई सुनने के लिए बहरा र बुराई प्रकट करने के लिए भागदौड़ में लँगड़ा बन जाय। इससे विपरीत आचरण करने पर मनुष्य दुःख उठाता है और व्यवहार से गिर जाता है।

जिस समय जो कार्य करना उचित हो, उसे शंकारहित होकर तुरंत कर डाले क्योंकि समय पर हुई वृष्टि धान्य आदि की अत्यन्त पुष्टि और समृद्धि का कारण बनती है तथा असमय की वृष्टि धान्य आदि का महानाश कर देती है।

स्वजनों के साथ विरोध, बलवान के साथ स्पर्धा तथा स्त्री, बालक, वृद्ध और मूर्खों के साथ विवाद नहीं करना चाहिए।

बुद्धिमान पुरुष अपमान को आगे और सम्मान को पीछे रखकर अपने कार्य को सिद्ध करे क्योंकि कार्य का बिगड़ जाना ही मूर्खता है।

एक साथ अनेक कार्यों का आरम्भ करना कभी भी सुखदायक नहीं होता। आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरे कार्य को आरम्भ नहीं करना चाहिए।

आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरा कार्य आरम्भ करने से पहला कार्य संपन्न नहीं हो पाता और दूसरा कार्य भी पड़ा रह जाता है, अतः बुद्धिमान मनुष्य उसी कार्य को आरम्भ करे जो सुखपूर्वक समाप्त हो जाये।

अत्यधिक भ्रमण, बहुत अधिक उपवास, अत्यधिक मैथुन और अत्यंत परिश्रम – ये चारों बातें सभी मनुष्यों के लिए बहुत शीघ्र बुढ़ापा लाने वाली होती है।

जिसको जिस कार्य पर नियुक्त किया गया हो, वह उसी कार्य को करने में तत्पर रहे, किसी दूसरे के अधिकार को छीनने की इच्छा न करे और किसी के साथ ईर्ष्या न करे।

जो मनुष्य मधुर वचन बोलते हैं और अपने प्रिय का सत्कार करना चाहते हैं, ऐसे प्रशंसनीय चरित्रवाले श्रीमान लोग मनुष्यरूप में देवता ही है।

Tuesday, August 16, 2011



श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Sri Krishna Darshan pustak se


अदभुत प्राणोपासना - Adbhut Pranopasna

श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण में श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
"जो अपने आत्मदेव में स्फुरण पैदा होता है वह क्षणमात्र में योजनपर्यंत जाता है। उस स्फुरण के आधार को जानकर हे रामजी ! तुम स्थिर हो जाओ।"
बहुत ऊँची बात है। हम होते यहाँ   हैं और मीलों दूर हमारा मन जाता है। .....वापस आता है.... दूसरी जगह जाता है.... वापस आता है....तीसरी जगह जाता है। अभी मन में कुछ विचार चल रहे हैं, दस मिनट के बाद कौन-से विचार आयेंगे कोई पता नहीं। इस प्रकार असंख्य विचार मन से बहते रहते हैं... असंख्य। जैसे सरोवर या सागर के जल में तरंग उठते हैं वैसे ही हमारे शुद्ध आत्मदेव की सत्ता लेकर मन में असंख्य विचार-तरंग उठते हैं जिसे मन का स्फुरण कहा जाता है। जहाँ से यह स्फुरण उठता है उस आत्मदेव को सिर्फ तीन मिनट के लिए भी अगर कोई जान लेता है तो वह धर्म के फल को प्राप्त कर लेता है। वह योगी हो तो उसका योग सिद्ध हो जाता है, तपस्वी हो तो उसका तप सफल हो जाता है, जपी हो तो उसका जपानुष्ठान सार्थक हो जाता है, वह त्यागी हो तो उसका त्याग पूर्णत्व को पा लेता है। ऐसा ऊँचा अनुभव होता है।
ऐसी बात पढ़ जाते हैं, सुन लेते हैं लेकिन सूक्ष्मता से यह बात अगर पकड़ में आ जाय तो निहाल हो जायें, बेड़ा पार हो जाय।
ऐसी बातें सूक्ष्मता से पकड़ नहीं पाते इसका क्या कारण है ? कारण यह है कि अपने चित्त में बिनजरूरी कचरा खूब भर लेते हैं। इसलिए सूक्ष्म सत्त्व, सूक्ष्म तत्त्व में हमारा चित्त प्रवेश नहीं कर पाता। वह सत्त्व उपासकों का ईश्वर होकर दिखता है, भक्तों का भगवान होकर दिखता है। शक्ति के उपासक उसको शक्ति मानते हैं, जगदम्बा के आराधक उसे माँ मानते हैं, गुरूभक्त उसे गुरू मानते हैं। है वही एक ही सत्त्व।
शुद्ध चैतन्य में से जो स्पन्दन पैदा होते हैं वे स्पन्दन बेमाप होते हैं। अगर चैतन्य की स्पन्दनरहित अवस्था में पहुँच जायें तो बेड़ा पार हो जाय। नहीं जा पाते, इसका कारण यह है कि उसके लिए तत्परता नहीं है। वहाँ ले जानेवाले महापुरूषों का समागम जल्दी से हो नहीं पाता। महापुरूष भी मिल गये और थोड़ी बहुत तत्परता भी है लेकिन चित्त में बिनजरूरी कचरा भरने की आदत पुरानी है।
आधुनिक युग के चाणक्य नीतिवाले, मानो आधुनिक चाणक्य सरदार वल्लभाई पटेल किशोरावस्था में नड़ियाद की स्कूल में पढ़ते थे तब की घटना है। एक दिन स्कूल में मास्टर कुछ बोले जा रहे थे। वल्लभ को लगा कि सब व्यर्थ प्रलाप हो रहा है। वे सुना-अनसुना करके मीठी नींद लेने लगे। मास्टर को लगा कि मैं छात्रों को पढ़ा रहा हूँ, बोले जा रहा हूँ और उद्दण्ड लड़का सो रहा है बेपरवाह होकर ? जगाकर धमकायाः
"ऐ लड़के ! क्या कर रहा है ? मैं इतना सिखा रहा हूँ और तू खर्राटे भर रहा है, बदतमीज !"
विवेकी और अपने मस्तिष्क में व्यर्थ बातें नहीं भरने वाले वल्लभ ने बढ़िया जवाब दियाः
"मास्टर जी ! बुरा न मानना। आप जो बोलते हैं वह सब अपने दिमाग में भरता रहूँ तो आप जो नहीं जानते हैं वह भरने के लिए जगह कहाँ से लाऊँ ? इसलिए जानबूझकर दिमाग को विश्रांति दे रहा हूँ।"
ऐसे लोगों में आत्मविश्वास होता है। व्यर्थ बातें अपनी खोपड़ी में नहीं भरो। सामने वाला जो जानता है वह सब अपनी खोपड़ी में भरना है ? हलवाई की दुकान पर जाकर सब मिठाई लेने की है ? किराने की दुकान पर जाओ तो सारी चीजें ले लोगे ?
तुम कहीं भी जाते हो, वहाँ जो कुछ मिलता है, अपने चित्त में भरते रहते हो। बस में बैठे तो सभी विज्ञापनों के चित्रों को देखने लग गये। इधर यह देखा, उधर वह देखा, यह सुना, वह सुना। सब दिमाग में भरते गये। बाहर निकालकर खाली हो जाने की तो बात ही नहीं।
....तो फिर जगत के लोग जो ज्ञान नहीं जानते उसको तो अपने चित्त में प्रवेश ही नहीं मिलेगा - No Entry. तत्त्वज्ञान की बात के लिए अपने दिमाग में No Entry है। दिमाग पूरा भरा हुआ है संसार के कचरे से। इसीलिए तत्त्वज्ञान की सूक्ष्म बातें ग्रहण नहीं कर पाते। चित्त शांत- स्थिर नहीं हो पाता।
भगवान बुद्ध के पास कोई सेठ गया। कहने लगाः
"भन्ते ! अब मुझे पचास वर्ष पूरे हुए हैं। अब वन में जाने का प्रारम्भ हुआ है, एकावन.... बावन.... आदि। कृपा करके आप मुझे अपने जीवन का अनुभव बताएँ। दो वचन सुनाएँ जिससे मेरा उद्धार हो।" तब तक तो सेठ ने इधर नजर घुमाई, उधर दृष्टि की। अपनी अँगूठी की ओर देखा। कुछ-की-कुछ प्रवृत्तियाँ कर डाली।
बुद्ध समझ गये कि चित्त में बहुत कचरा उभरा हुआ है। अभी सिर्फ दवाई देने से रोग मिटेगा नहीं, ऑपरेशन करना पड़ेगा। वे बोलेः
"भाई ! हमने इतनी सारी मेहनत की, वर्षों तक भूख, प्यास और कष्ट सहे और जो अनुभव पाया वह यों ही मुफ्त में तुम्हें दे दें ? बिना सेवा के ज्ञान पचेगा कैसे ? सेवा करो सेवा।"
सेठ: "भन्ते ! आज्ञा कीजिए।"
बुद्ध: "आज्ञा क्या करें ? साधू-संतों को भोजन कराओ।"
सेठ: "आप हमारे घर भोजन लेंगे ?"
बुद्ध: "क्यों नहीं ? तुमने निमंत्रण तो दिया नहीं। सेवा तो किया नहीं, केवल लूटने को आये हो। हम ऐसे पागल थोड़े ही हैं कि लूटे जाएँ ?"
बुद्ध यह सब उस व्यक्ति को देखकर कहते हैं। स्वयं को खाने की कोई इच्छा नहीं, कुछ लेने की इच्छा नहीं। लेकिन उसको कुछ अनुभव कराना है।
"आप मेरे घर भिक्षा ग्रहण करने आयेंगे ! बड़ी खुशी की बात है।" सेठ खुश हो गये। सारा इन्तजाम करने लगे। रसोइयों को बुलाया, मित्रों से बात की। 'भगवान बुद्ध भिक्षा ग्रहण करने आनेवाले हैं ! राजकुमार में से साधू बने थे, कोई साधारण साधू तो थे नहीं। खूब तैयारियाँ की, खीर बनायी, पूड़ी बनायी, मालपूआ बनाया, क्या-क्या पकवान बनाये, व्यंजन बनाये। 'हमारे द्वार पर संत आने वाले हैं.....!'
भिक्षा का समय हुआ और बुद्ध भिक्षापात्र उठाकर चल दिये। रास्ते में कुछ सामान ढूँढते चले। उनकी नजर में पड़ गया किसी गाय का गोबर। उसे उठाकर अपना भिक्षापात्र भर लिया। सेठ के द्वार पर पहुँचे तो सेठ ले आया सब भोजन सामग्री।
"महाराज ! लो।"
गोबर से भरा हुआ भिक्षापात्र आगे बढ़ाते हुए बुद्ध बोलेः
"डाल दो इसमें।"
सेठ: "भन्ते ! यह तो गोबर से भरा है।"
बुद्ध: "भरा है तो भरा है, तुम अपनी खीर उसमें डाल दो।"
सेठ: "स्वामी ! खीर आपको काम नहीं लगेगी और मेरी खीर खराब होगी।"
बुद्ध: "भिक्षा लेने बुलाया है तो भिक्षा दो न !"
सेठ: "दूँ तो सही लेकिन अपना भिक्षापात्र मुझे दो। गोबर निकाल कर फिर ठीक से धो लूँ, बाद में भिक्षा दूँ।"
"तुम चार पैसे की खीर डालने से पहले बर्तन साफ करते हो तो मैं अपना ब्रह्मरस तुम्हारे अन्तःकरण में भरने से पहले तुम्हारा अन्तःकरण साफ करूँ कि नहीं ?"
प्रारम्भ में जो योगवाशिष्ठ की बात आयी थी वह बहुत सूक्ष्म थी लेकिन अपने कानों से टकराकर चली गई, अपनी नहीं रही। क्यों ? क्योंकि जगत का गोबर अपने अन्तःकरण में भरा हुआ है न !
सूक्ष्म बुद्धि के आदमी को इशारे से कह दो, वह काम बढ़िया कर देता है लेकिन मोटी बुद्धि के आदमी को बार-बार कहो तो भी समझ में नहीं आता।
कबीरजी की पत्नी बड़ी सूक्ष्म बुद्धि की थी। कबीर जी ने कहाः
"लोई ! एक बात सुन। मैं एक प्रज्ञाचक्षु (अंध) व्यक्ति को भोजन का निमंत्रण दे आया हूँ। अपना भोजन बने, साथ-साथ उस व्यक्ति का भोजन भी बना देना।"
लोई ने भोजन बनाया। प्रज्ञाचक्षु व्यक्ति आये उसके पहले दो थालियाँ भोजन परोसकर तैयार कर दिया। पहले अतिथि भोजन कर लें बाद में घरवाले सब। कबीरजी ने दो थालियाँ देखकर पूछाः
"दो थालियाँ क्यों ? एक ही व्यक्ति आने वाला है तो अधिक भोजन क्यों बनाया ?"
लोई: "एक ही व्यक्ति आने वाले थे और आपने कहा कि प्रज्ञाचक्षु (अंध) हैं तो अकेले तो आयेंगे नहीं, किसी को साथ में लेकर आयेंगे इसलिए दो थालियाँ परोसी हैं।"
कबीरजी बड़े प्रसन्न हुए की आखिर तो लोई कबीर की पत्नी है।
व्यवहार में आदमी अनुमान लगाकर किसी विषय में पूर्व तैयारी कर लेता है ऐसे ही आयुष्य पूरा होगा तो तन और मन कहीं चले जायें उसकी अपेक्षा पहले से ही तैयारी रखें।
फुरने जहाँ से उत्पन्न होते हैं, संकल्प और विकल्प जहाँ से उठते हैं और योजनों तक चले जाते हैं, वापस आते है, बार-बार आते जाते हैं, उसको जो देखता है उस अधिष्ठान को जानने के लिए जो यत्न करता है...... अहाहा....! उसकी सारी पूजाएँ सफल हो गयी। उसको फिर आकाश से भगवान को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मरकर भगवान के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह स्वयं भगवन्मय हो जायेगा, साक्षात् नारायण का स्वरूप हो जायेगा।
जहाँ से फुरना उठता है और मीलों तक चला जाता है उसमें थोड़ी विश्रांति मिल जाय। इस विश्रांति में आलस्य नहीं, प्रमाद नहीं, मनोराज्य नहीं, निद्रा नहीं। इसमें थोड़ी सूक्ष्मता, तत्परता और गुरूकृपा। यह मौका अगर मिल जाय तो घोड़े के रकाब में पैर डालते-डालते आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है। अन्यथा, वर्षों तक करता रहे फिर भी पूर्ण नहीं होता। वर्षों तक करके भी बुद्धि सूक्ष्म बनाकर फिर यहीं आना है। संसार के सब व्यवहार करके भी इसी जन्म में या हजारों जन्म के बाद भी यहाँ तो आना ही पड़ेगा।
आपका संकल्प, फुरना उठकर चलता है, क्षणभर में मीलों तक जाता है, फिर दूसरा उठता है... तीसरा उठता है....। तो फुरना या सकल्प जहाँ से उठता है उसमें जरा टिक जायें, बस। एक विचार उठा.... दूसरा अभी उठने को है, दोनों के मध्य में रूक जायें, बेड़ा पार हो जाय। यह रूकना इतना जरूरी है जितना नवजात शिशु को माँ का दूध जरूरी है या हमारे शरीर को प्राण जरूरी है। मुक्ति के लिए फुरनों के अधिष्ठान में रूकना, वहाँ विश्रांति पाना अनिवार्य है। बिना प्राण का शरीर व्यर्थ है ऐसे ही बिना विश्रांति के, बाकी की सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं। इसीलिए नरसिंह मेहता ने ठीक कहाः
ज्यां लगी आत्मातत्त्व चीन्यो नहीं, त्यां लगी साधना सर्व जूठी।
अर्थात् तब तक किसी साधन में रूक न जाएँ, चलते ही जाएँ, ऊपर उठते ही जाएँ, आगे बढ़ते ही जाएँ। अगर इस साधन में गति हो गई तो दूसरे सब साधन सफल हो गये ।
मन को, बुद्धि को भागने की, दौड़ने की आदत पुरानी है और आप उनसे जुड़ जाते हो यही भी आदत पुरानी है। इसीलिए बहुत कठिन भी लगता है।
अगर डटकर बैठ जायें और यही करें तो उत्तम जिज्ञासु को ज्यादा समय नहीं लगता। सत्पात्र हो, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हो, सदाचारी हो, गुरूआज्ञा शिरोधार्य करता हो, संसार की लोलुपता न हो उस साधक के लिए ईश्वर तो अपने घर की चीज है।
दिले तस्वीर है यार।
जबकि गरदन झुका ली, मुलाकात कर ली।।
उसके लिए यह चीज है। जैसे सुन्दरी को अपना मुख देखने में कितनी देर ? अरे, झट पर्स से आयना निकाला, मुख देख लिया।
जैसे व्यक्ति आईने में अपना मुख देखने में देर नहीं करता ऐसे ही जिसके पास दिल का आइना है वह दिलबर को जब चाहे, जितनी बार चाहे, देख सकता है। किसी वेदान्तिक संत ने ठीक ही कहा हैः
ऐ तालिबे मंजिले तू मंजिल किधर देखता है।
दिल ही तेरी मंजिल है तू अपने दिल की ओर देख।।
एक विचार उठा.... दूसरा उठने को है..... उसके बीच की अवस्था को देख। अपने भीतर उठते हुए संकल्पों को सूक्ष्मता से देख।
कई लोगों ने तप किया, जप किया, कई घर छोड़कर हिमालय गये, कोई कहीं गया कोई कहीं गया, इस देव को रिझाया, उस देव को रिझाया। अंत में जिस किसीको भी ईश्वर-प्राप्ति हुई तो अपने हृदय में ही हुई। चाहे राम जी के उपासक हो चाहें कृष्णजी के हों चाहे शिवजी के हों चाहे कालीजी के हों चाहे गुरूजी के हों अथवा और किसी के हों लेकिन ईश्वर जब मिला है तब दिल में ही मिला है।
अंतर्यामी देव को छोड़कर जो बाहर के देव को पूजता फिरता है वह तो कर्मलेढ़ी कहा जाता है। जैसे, हाथ में मक्खन का पिण्ड आये उसको गिराकर छाछ चाटने लग जाय, ऐसे ही अंतरतम चैतन्य आत्मदेव का रस, सुख और आनन्द छोड़कर बाहर किसी वस्तु या व्यक्ति को रिझाने में लग जाय उसको क्या कहेंगे ? 'यह मिले तो सुखी हो जाऊँ, वह मिले तो सुखी हो जाऊँ, यह देव आवे तो वरदान दे, वह देव आवे तो सहाय करे....' वह देव भी इस आत्मदेव में मन लगेगा तब खिंचकर आयेगा, नहीं तो सबके पास क्यों नहीं जाता ? बुलाते तो कई हैं ! काली आ जाय, श्रीकृष्ण आ जायें, शिवजी आ जायें, रामजी आ जायें, रहेमान आ जाय.... लेकिन जितन तुम भीतर के देव से वफादार होगे उतने ही बाहर के देव सहज में प्रकट होंगे।
अहमद शाह नाम का एक सूफी फकीर हो गया। वह कृष्णभक्ति में बड़ा मस्त रहता था। श्रीकृष्ण से बड़ा प्यार था उसको। कोई पुजारी की तरह वह प्यार नहीं करता था। उसके पास कोई आरती नहीं थी, टकोरी नहीं थी, श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी नहीं थी। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो आकर्षित कर ले, आनंदित कर दे वह कृष्ण। वह अहमद शाह ऐसे श्रीकृष्ण को खूब स्नेह करता था। सदा उसके ध्यान में तल्लीन रहता था।
अहमद शाह श्रीकृष्ण का ऐसा बढ़िया भक्त था कि श्रीकृष्ण भी उससे दिल्लगी करने प्रकट हो जाते। जैसे नामदेव के आगे भगवान बावन बार प्रकट हुए ऐसे ही अहमद शाह के आगे श्रीकृष्ण कई बार प्रकट हुए।
सर्दियों के दिन थे। अहमद शाह तापणा ताप रहा था। श्रीकृष्ण की इच्छा विनोद करने की हुई। वे युवक ब्राह्मण का रूप लेकर आये। उस वक्त अहमद शाह ने सिर पर तीलियों का टोपा पहना हुआ था। श्रीकृष्ण आकर बोलेः
"अहमद !"
अहमद शाह ने सोचा कि यह ब्राह्मण का बच्चा मेरा नाम ऐसे ही लेता है मानो कोई पुराना पहचान वाला है ! बोलाः
"क्या है ?"
श्रीकृष्ण: "इतना लम्बा-चौड़ा टोपा पहना है। बोलो, टोपा बेचोगे ?"
अहमद पहचान गया कि श्रीकृष्ण के सिवा दूसरे की हिम्मत नहीं है। उसने कह दियाः
"अहमद का टोपा खरीदनेवाला कोई पैदा ही नहीं हुआ।"
श्रीकृष्ण: "मैं खरीदता हूँ अहमद !"
अहमद: "तुम क्या खरीदोगे ? तुम्हारे पास है क्या ?"
तब ब्राह्मण वेशधारी नटखट नागर ने कहाः "मेरे पास क्या नहीं है ? जो मूल्य माँगो, मैं चुका सकता हूँ।"
अहमद: "तुम्हारे पास है क्या, मैं जानता हूँ। बहुत-बहुत तो यह लोक और परलोक। इन दो लोकों में अहमद का टोपा नहीं बिकता है। और कोई मिल्कियत हो तो बात करो।"
प्रेम में नेम (नियम) नहीं होता। अहमद का शुद्ध प्रेम था।
श्रीकृष्ण बोलेः "अहमद ! तुम तो अपने को इतना बड़ा मानते हो ? बड़े अभिमानी हो गये हो ?"
अहमद: "बड़े अभिमानी हो गये, छोटे अभिमानी हो गये, कुछ भी हो लेकिन अहमद का टोपा खरीदना कोई बच्चों का खेल है ?"
श्रीकृष्ण: "अहमद ! मैं लोगों को कह दूँगा कि अहमद पक्के फकीर नहीं हैं, बड़े अभिमानी हैं। ये पक्के संत नहीं हैं। यह जानकर लोग तुम्हारे को पूछेंगे भी नहीं।"
"जाओ जी जाओ, किसको दम भरते हो, किसको डांटी देते हो ? तुम्हारी दमदाटी में हम आने वाले नहीं हैं। किसको भय दिखाते हो ? जाओ-जाओ सब लोगों को कह दो। लेकिन आप भी सावधान रहना। आपके बारे में मेरे पास भी कुछ कहने को है। मैं भी लोगों को कह दूँगा कि, 'कन्हैया सिर्फ मठ-मंदिरों में ही नहीं है।  उसके लिये घंटियाँ बजा-बजाकर, आरतियाँ उतार-उतारकर मक्खन हाथ में धरके चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। भीतर गोता मारो। भीतर एक वृत्ति उठे, दूसरी अभी उठने को है उसके बीच जो उनका अधिष्ठान है, जो सबको आकर्षित करता है वह कृष्ण है। उसकी उपासना करो।' फिर आपके पूजा-उत्सवों का सब झमेला ठण्डा हो जायेगा।"
श्रीकृष्ण कहते हैं: "सबकी गति वहाँ नहीं हो पायेगी। अहमद ! ऐसा मत करना।"
अहमद: "ऐसा मत करना... तो आप भी ऐसा मत करना।"
श्रीकृष्ण: "अच्छा, मिलाओ हाथ।"
दोनों ने हाथ मिलाया, आलिंगन किया। समझौता हो गया।
आपको श्रीकृष्ण से मिलना है तब भी यह योगयुक्ति बहुत बढ़िया है, शिवजी से मिलना है तभी, विष्णुजी से मिलना है तभी, जगदम्बा से मिलना है तभी, ब्रह्मवेत्ता सदगुरू से मिलना है तभी और किसी मित्र से मिलना है तभी यह योगकला काम में आ सकती है। अंतर्यामी चैतन्य विश्वव्यापक है। अरे, विश्व तो इसके एक कोने में है। ब्रह्मचैतन्य के एक कोने में माया है और माया के एक कोने में जगत है।
इतना विश्वंभर तत्त्व तुम्हारा चैतन्य चिदाकाश है। उससे एक स्पन्दन उठता है। जैसे आपका श्वास अन्दर जाता है, उच्छवास बाहर आता है। अन्दर श्वास जाता है वह ठण्डा होता है जो बाहर आता है वह गर्म होता है। यह तुम्हारा अनुभव होगा।
तुम जानते हो कि स्टोव, पेट्रोमेक्स या सायकल, स्कूटर आदि के टायर में एकाध पंक्चर हो जाय, छोटा-सा सुराख हो जाय तो कंपनी का मालिक आकर हाथ जोड़े, फिर भी स्टोव नहीं जलेगा, सायकल-स्कूटर नहीं चलेंगे।
हमारे शरीर में कितने-कितने छेद हैं ? श्वास आता है, जाता है, श्वास का तो पसारा है। देहरूपी पुतली चल रही है श्वास पर। इस श्वास को खींचने की और छोड़ने की जहाँ से प्रक्रिया होती है उस प्रक्रिया के मूल में काम चैतन्य का होता है। इससे फेफड़े स्पन्दित होते हैं। ऐसा नहीं कि तुम्हारी रोटियों से वे स्पन्दित होते हों। नहीं, वह चिदाकाश चैतन्य है।
शांति से बैठ जाओ। आप देखो कि श्वास चल रहा है। कुछ दिन श्वास को देखते जाओ। अथवा गिनते जाओ, अथवा अजपा गायत्री करते जाओ। आपको धीरे-धीरे श्वास की गतिविधि का पता चलेगा। जिसके हाथ में श्वास की गति की युक्ति आ गयी उसको समर्थ होने में देर नहीं लगेगी। उसको निर्विकार होने में तकलीफ नहीं पड़ेगी।
कुछ न करो केवल श्वास को देखते रहो। इसको श्वास की माला बोलते हैं। लेकिन आलस्य नहीं होना चाहिए, दिमाग में कचरा भरने की आदत मिटाते रहना चाहिए। इस साधना में केवल तत्पर होने की कोशिश करे तभी भी आदमी सफल हो सकता है।
अपनी-अपनी जगह पर सब साधनाएँ ठीक हैं लेकिन यह आत्म-विचार का मार्ग तो अनूठा ही है। जिनका प्राणोत्थान होता है, क्रियाएँ होती हैं उनको तो ठीक है, नाड़ीशुद्धी होती है, आगे बढ़ते हैं। लेकिन कभी-कभी मौका मिले तो श्वास को देखो।
सारे जगत का आधार है प्राणशक्ति। पक्षियों की किलोल प्राणशक्ति पर आधारित, मनुष्य का चलना-फिरना भी प्राणशक्ति पर आधारित, वृक्षों का बढ़ना, फूलों का खिलना और फलों का बनना, इसमें भी प्राणशक्ति काम करती है।
अमावस्या और पूर्णिमा के दिन सागर में ज्वार आती है। एकम से लेकर क्रमशः हररोज पौना घण्टा ज्वार लेट होती चली जाती है। जो लोग सागरतट पर रहते हैं उनको पता होगा।
जिस समय समुद्र में ज्वार आती है उस समय काटे गये वृक्षों के अंगरस में जलतत्त्व अधिक जाने से उस लकड़ी में कीड़े जल्दी लगने की सम्भावना होती है। वृक्ष की डाली काटो तो डाली रूग्ण हो जाती है। भाटा के समय काटो तो रुग्ण नहीं होती।
चाँद आकाश में है और उसका प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। पूर्णिमा और अमावस्या का प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। सातम्, आठम, दूज या एकादशी का प्रभाव समुद्र पर पड़ता है। यह प्रभाव जैसे समुद्र पर पड़ता है वैसे हवाओं पर भी प्रभाव पड़ता है और वनस्पति पर भी पड़ता है। वृक्षों पर प्रभाव पड़ता है तो मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
दयालु ऋषियों ने खूब सूक्ष्म अध्ययन किया है। इसीलिए उन्होंने खोजा कि एकादशी का व्रत रखना चाहिए, पूनम का व्रत रखना चाहिए क्योंकि उन दिनों में चन्द्रमा विकसित होता है। सूर्य की किरणें सीधी चन्द्रमा पर पड़ती है इसलिए प्राणशक्ति कुछ कमजोर होती है। उन दिनों में व्यक्ति की जठराग्नि थोड़ी सी मंद रहती है। अष्टमी के बाद चाँद बढ़ता जाता है तो जठराग्नि मन्द होती चली जाती है। इसीलिए एकादशी से लेकर अमावस्या या पूनम तक व्रत करने से अजीर्ण की तकलीफ होगी तो ठीक हो जायगी। आप व्रत रखेंगे तो जठराग्नि तेज रहेगी, आपकी तंदुरूस्ती की रक्षा होगी। इसमें फिर भगवद्भाव और जागरण से आपके मन और प्राण ऊपर को उठेंगे, शायद आपकी आध्यात्मिक उन्नति सफल भी हो जाय।
लोक-व्यवहार में आपने देखा होगा कि बूढ़ा आदमी अगर बीमार पड़ गया, उसकी स्थिति चिन्ताजनक है तो पुराने लोग कहेंगे कि आज कौन-सी तिथि है ? तेरश है। अगर पूनम गुजार दे तो काका बच जायेगा। अमावस्या गुजार दे तो बच जायेगा।
प्रायः तुम देखोगे कि जिनकी जीवन-शक्ति क्षीण हो गयी है, जो बूढ़े हो गये हैं वे इन दिनों में रवाना होते हैं।
दूसरी बातः एकादशी से पूनम तक के दिनों में तुम कोई दवाई चालू करो तो इतना प्रभाव जल्दी नहीं होता लेकिन तीज से लेकर अष्टमी, नवमी तक के दिनों में दवाई चालू करो तो दवाई का अच्छा प्रभाव पड़ता है।
जो ज्यादा बीमार पड़ते है वे निरीक्षण करें तो पता चल सकता है कि प्रायः एकादशी से अमावस्या, पूनम, एकम, दूज के दिनों में ही ज्यादा दुर्बलता महसूस करते हैं। बाद में प्राणशक्ति बढ़ती है। प्रायः ऐसा होता है। कोई-कोई  लोग अपवाद भी हो सकते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आपके शरीर के संचालन की डोरी प्राणशक्ति के हाथ में है। प्राणशक्ति का सीधा सम्बन्ध उस चिदघन चैतन्य से है।
संसार का सार शरीर है। शरीर का सार इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार मन है। मन का सार प्राण है। प्राण निकल गये तो मन कहाँ रहेगा ? प्राण निकल गये तो आँखें होते हुए भी कुछ काम की नहीं। शरीर होते हुए भी किसी काम का नहीं।
आप जो श्वास लेते हैं वह प्राण नहीं है। वह तो बहुत स्थूल है। यह तो हवा ले रहे है। श्वासोच्छ्वास से जीवन जीने की शक्ति पाते हैं।
अगर आपकी श्वास-क्रिया में तालबद्धता हो जाय, तो आप जब चाहें, विकारों को बुला सकते हैं, जब चाहें, विकारों को भगा सकते हैं। चाहें तब मन को शांत कर सकते हैं, चाहें तब व्यवहार में लगा सकते हैं। आपके सामने प्रकृति रहस्य खोलने लग जायेगी, योग की कुंजियाँ हाथ लग जायेगी।
इसी कारण से योगी अपने भक्तों की रक्षा कर लेते हैं, दूर-दूर स्थानों में स्थित भक्तों को सहाय पहुँचा सकते हैं।
कोई पुरूष किसीका रोग दूर कर सकता है या चमत्कार करता है तो इसके पीछे भी प्राणशक्ति काम करती है। सामने कोई व्यक्ति आया, उसमें आदर भाव जगा, योगी ने उसके साथ बातचीत करते हुए अपनी प्राणशक्ति की किरण उसमें फेंकी और उसकी सुषुप्त प्राणशक्ति जगी, रोग-प्रतिकारक  शक्ति बढ़ी, कुछ दवा से कुछ दुआ से काम हो गया।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, प्रसिद्ध या छुपे हुए, जगत में जो उन्नत पुरूष हैं उनके प्राण सूक्ष्म हैं इसलिए उन्नत हैं। फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी मजहब के हों, किसी भी सम्प्रदाय के हों। वे इस रहस्य को जानते हों या नहीं जानते हों, अनजाने में ही उनके प्राण सूक्ष्म हुए तभी वे उन्नत पुरूष माने गये।
जिनके प्राण सूक्ष्म हैं उनकी वाणी हजारों लोगों को प्रभावित करने में सफल हो जाती है फिर चाहे नेता के मंच से बोलते हैं चाहे धर्म के मंच से बोलते हैं। व्यक्ति में जितनी सच्चाई होती है उतने प्राण रिधम से चलते हैं। बेईमान आदमी की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आप झूठ बोलते हैं तो आपके प्राण का ताल टूट जाता है। आप सत्य पर होते हैं तो प्राण का ताल बराबर जोर करता है, आप विजेता हो जाते हैं। आप चाहे मान लें कि अम्बाजी ने कहा, फलाना देव ने प्रेरणा की, लेकिन वास्तव में इसके मूल में योग विज्ञान के रहस्य छुपे हैं।
प्राणोपासना बड़ी रहस्यमय उपासना है।
मनुष्य अगर भगवान को भजना चाहे तो वह उत्तम मनुष्य के रूप में ही भगवान की कल्पना कर सकता है। अगर कोई भैंसा भगवान को भजना चाहे तो अपने से कोई मोटे-ताजे भैंसे के रूप में ही भगवान की कल्पना कर सकता है। आप जिस देह में रहते हैं उसके अनुरूप ही आप भगवान को भज सकते हैं या देख सकते हैं। अगर दूसरा देखेंगे, सोचेंगे तो आपकी कोरी कल्पना ही होगी। बड़े-बड़े भाषण करने वाले जो बोल देते हैं कि, 'भगवान निर्गुण है, भगवान निराकार है, भगवान ऐसा है, भगवान वैसा है.....' उनके पास सूचनाओं के सिवाय, माथापच्ची के सिवाय और कुछ नहीं। जब-जब जिनको-जिनको भगवान मिला है उनको मनुष्यरूपी भगवान के द्वारा ही मिला है। भगवान ने कहा कि, 'आचार्य मैं हूँ।' भगवान जब भी प्रकट हुए तब मनुष्य के तन में ही प्रकट हुए। मनुष्य भगवान ने ही दूसरों को भगवान के दीदार करवाये हैं। फिर चाहे जगदगुरू शंकराचार्य का रूप लेकर भगवान प्रकट हुए चाहे वल्लभाचार्य का चाहे रमण महर्षि का चाहे श्रीकृष्ण का चाहे और कोई अवतार।
जिन पुरूषों में भगवत्तत्त्व ज्यों का त्यों प्रकाशित हुआ है उन जीवित पुरूषों में जो लोग श्रद्धा-भक्ति रखते हैं वे लोग बहुत तेजी से आगे बढ़ते हैं। जिनका भगवान कुछ और कल्पा हुआ है, किसी देश में, किसी मंदिर में, किसी मस्जिद में, किसी और जगह पर, उनकी अपेक्षा वे लोग ज्यादा फायदे में हैं जिनको किसी जीवित ब्रह्मवेत्ता महापुरूष का सान्निध्य मिल गया।
गोरखनाथ किसी जगह पर गये तो वहाँ लोग किसी देवी-देवता को मना रहे थे, नारियल फोड़ रहे थे। गोरखनाथ हँसे।
एक भूला दूजा भूला भूला सब संसार।
वण भूल्या इक गोरखा जिसको गुरू का आधार।।
अखा भगत ने कहाः
सजीवाए निर्जिवाने घड्यो पछी कहे मने कंई दे।
अखो तमने इ पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?
सजीव मनुष्य निर्जीव मूर्ति को बनाता है, फिर उसे भगवान की जगह पर बैठाता है, प्राणप्रतिष्ठा करता है, पूजता है। फिर अपने बनाये हुए उस भगवान से ही माँगता है। अखाजी ऐसे मनुष्य की बेवकूफी देखकर कहते है कि अरे मानव ! तेरी दोनों आँखें फूट गई हैं क्या ? अर्थात् तू ज्ञानरूपी दृष्टि से क्यों वंचित हो गया है ?
जब भी तुम मूर्ति के आगे प्रार्थना करते हो तब जाने-अनजाने में तुम्हारे प्राण की रिधम तालबद्ध होती है, तुम्हारे संकल्प-विकल्प की भीड़ कम होती है तब तुम्हारे इष्ट को, गुरू को तुम्हारी प्रार्थना पहुँचती है। फिर कभी उनका संकल्प, कभी तुम्हारी तीव्र प्रार्थना प्रकृति में व्यवस्था कर देती है।
श्वास के द्वारा आप जो प्राण लेते हैं वे समष्टि से जुड़े हुए हैं।
दिल्ली में आकाशवाणी केन्द्र में या दूरदर्शन केन्द्र में जो कुछ 'ब्रोडकास्ट' होता है वह आप यहाँ बैठे सुन लेते हैं, देख लेते हैं। यह सन्देश यंत्रों के द्वारा भेजा जाता है पकड़ा जाता है। यंत्र से भी मन का संकल्प अत्यंत तेजी से चलता है। अमेरिका जाने के लिए अत्यंत गतिवाले विमान में बैठो चाहे रोकेट में ही बैठ जाओ फिर भी कुछ घण्टे लग ही जायेंगे लेकिन मन से जाओ तो कितनी देर लगेगी ? सोचा कि बस, पहुँच गये। इसी संकल्प की गति से 'टेलिपैथी' का कार्य किया जाता है। इसी के जरिये दूर-दूर के स्थान में स्थित भक्त को या मित्र को सहयोग दिया जा सकता है, अगर प्राण पर नियंत्रण कर लिया है तो।
स्वर्ग के पितरों को तृप्त करना है तब भी तुम्हारी प्राणशक्ति काम करती है और यहाँ के मित्रों को तृप्त करना है तब भी तुम्हारी प्राणशक्ति काम करती है। अपने आपको तृप्त करना है तब भी प्राणशक्ति काम करती है।
यही कारण है कि जिनकी प्राणशक्ति उन्नत है वे पुरूष मुर्दे को जिन्दा कर सकते हैं और जिन्दों को आज्ञा में चला सकते हैं। ऐसे जीवित महापुरूष कण्ठी देने वाले गुरूओं से बहुत-बहुत उन्नत हैं। जो धर्म का रास्ता दिखाते हैं, नीति-नियम बताते हैं वे गुरू धन्यवाद के पात्र हैं लेकिन वे महापुरूष पूजनीय हैं जो अपने संकल्पमात्र से दूसरों के हृदय में प्राण संचारित कर दें, दूसरों के मन के भाव को बदलकर ईश्वर में लगा दें। जो संकल्प मात्र से, दृष्टि मात्र से असाधु को साधु बना दें, दुराचारी को सदाचारी बना दें, अभक्त को भक्त बना दें वे तो साक्षात् ईश्वर-स्वरूप हैं, ईश्वर ही हैं। प्राण का संचालक तत्त्व ईश्वर है और ईश्वर में जो टिके हैं वे ईश्वररूप हो गये हैं।
ऐसे जो नर भगवान हैं उनके संपर्क में आने वाला साधक जल्दी नारायणमय हो सकता है। वशिष्ठ जी महाराज नर भगवान हैं इसीलिए नरलीला करते हुए रामजी भी उनके चरणों में आ बैठे। श्रीकृष्ण ७० से ८३ साल की उम्र तक एकान्तवास में अज्ञातवास में रहे। घोर आंगिरस ऋषि के पास उपनिषदों का अध्ययन किया था। तत्त्वज्ञान में परिनिष्ठित हुए। वही उपनिषद का ज्ञान महाभारत के युद्ध में अर्जुन को दिया। श्रीकृष्ण के पास प्राणशक्ति थी। सुदर्शन चक्र था। संकल्प सामर्थ्य से अदभुत कार्य कर लिया करते थे।
अभी भी तुम्हारे हवाई जहाज आदि जो चलते हैं उसमें क्या है ? वायु ही तो उसमें काम करता है, और क्या काम करता है ?
बच्चे को माँ कहने लगीः "देख बेटा ! मैं पड़ोस में जा रही हूँ। यह दीया जल रहा है। हवा आ रही है। कुछ भी करके दीये को बुझने नहीं देना।"
बच्चे ने देखा कि हवा आ रही है, अब क्या करूँ ? उसने छोटे-से दीये के ऊपर काँच की बरणी ढँक दी। दीया तूफान से तो बचा लेकिन ताजी हवा नहीं मिली तो बुझने से नहीं बचा। ऑक्सीजन नहीं मिला तो दीया बुझ गया।
प्राणशक्ति दीपक का भी आधार है, अग्नि का भी आधार है, पुष्पों और पत्तों का भी आधार है, वृक्षों और जड़ों का भी आधार है, पक्षियों का भी आधार है और पशुओं का भी आधार है, ग्रह और नक्षत्रों का भी आधार है। मेघ की वृष्टि का भी आधार वही प्राणशक्ति है।
जिसने अपने नजदीक के प्राण पर नियंत्रण पा लिया वह समष्टि के प्राण में उथल-पुथल कर सकता है। इसी कारण बरसात लाना, रोक देना, ट्रेन रोक देना आदि जो चमत्कार योगियों के जीवन में सुने जाते हैं वे कल्पित कहानियाँ नहीं हैं। किसी के पीछे ऐसे ही बातें जुड़ गयी हों तो वह बात अलग है लेकिन ये नितान्त झूठी नहीं हैं। उन्नत योग-अभ्यासियों के लिए तो ऐसे कार्य कर लेना खेल मात्र है। आप भी प्राणोपासना करो तो जान सकते हो।
हाँ, मैं यह राय नहीं दूँगा कि आप ये शक्तियाँ ही प्राप्त करो। मैं तो यह कहूँगा कि सारी शक्तियाँ जिस परमात्मा से स्पंदित होकर लीन हो जाती हैं उस आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाने की कला पा लो और यही वशिष्ठजी बता रहे हैं कि एक क्षण में मन मीलों दूर जाकर वापस आ जाता है तो जहाँ से गया और आया उस चिदघन चैतन्य में विश्रांति पाओ।
यह सूक्ष्म है इसलिए कठिन लग रहा है लेकिन पराया नहीं है, असंभव नहीं है, कालांतर में मिले ऐसा नहीं है। इसके लिए सदाचार चाहिए, गुरूआज्ञा शिरोधार्य करने की तत्परता चाहिए। अन्यथा थोड़ी शक्ति आते ही आदमी उलझ जायगा।
मैं तो आप लोगों के संकल्पों की बड़ी शक्ति महसूस करता हूँ। कई बार मुझे कुटिया से बाहर आने का कोई विचार नहीं होता, संकल्प नहीं होता। कुछ लोग ऐसे आ जाते हैं कि जिनका हृदय, श्रद्धा-भक्ति से भरा है। मुझे एकदम होता है, मैं बाहर जाऊँ। बाहर आकर उन लोगों को मुलाकात देनी पड़ती है।
कभी-कभी आप लोगों के मन में कुछ प्रश्न होते हैं, मुझे पता ही नहीं होता और उसका उत्तर अपने आप आ जाता है। ऐसा भी आप लोगों को अनुभव होगा।
मानना पड़ेगा कि हम सबके शरीर अलग दिखते हैं, सब शरीरों में अलग-अलग मन दिखते हैं लेकिन संचालक बल एक है। सब मनों का उदगम स्थान एक ही वह चिदाकाश है। लाखों घड़ों के घटाकाश का आधार महाकाश है, लाखों तरंगों के जल का आधार सागर है ऐसे ही लाखों मन के स्पन्दनों का आधार निस्पन्द चैतन्य है। जितने अंश में आप उस चैतन्य में अनजाने में ही टिक जाते हैं उतने ही आपके संकल्प फलित हो जाते हैं। इसलिए साधन में तत्परता चाहिए। मन को, प्राण को सूक्ष्म करने में तत्परता चाहिए। सदाचार चाहिए। झूठ, कपट और दुराचार से प्राण क्षीण हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं। आदमी और कोई साधना न करे, बारह साल केवल सत्य ही बोले तो फिर वह जो बोलेगा वह होने लगेगा। क्योंकि उसके प्राण में कोई विक्षेप नहीं हुआ।
छः महीना अगर कोई प्राणोपासना ठीक से करे तो उसके प्राण तालबद्ध होने लगेंगे। प्राण तालबद्ध हुए कि उसके पास योग की कुंजियाँ अपने-आप प्रकट होने लगेंगी। उसके आगे प्रकृति रहस्य खोलने लगेगी। भवितव्य का पता चलने लगेगा। दूसरों के मन को पढ़ सकने की योग्यता आने लगेगी। दूसरों के मन को वह मोड़ सकता है। बहुत कुछ होता है, अगर प्राण सूक्ष्म हो जायें तो। मैं छः महीना इसलिए कहता हूँ कि तत्परतावाला भी तब तक सफल हो सकता है, बाकी तीव्र तत्परतावाला दो महीने में भी काम बना सकता है।
जीवन जीने का मजा तो बाद में आयेगा। अभी तो तुमने सुख देखा ही नहीं। बहुत कुछ 'टेन्शन' देखे हैं और थोड़ा सा हर्ष देखा है, असली मजा तो देखा ही नहीं। प्राण जब तालबद्ध होंगे उस दिन आपको जो सुख महसूस होगा और आपका जो व्यवहार होगा तब आपको लगेगा कि जीवन अभी शुरू हो रहा है।

Tuesday, August 2, 2011


महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग पुस्तक से - Mahapurushon ke Prerak Prasang

प्राणिमात्र की आशाओं के राम - Pranimatra ke Ashaon ke Raam

श्रीरामचरित मानस में आता हैः
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवड़ नवनीता। पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
'संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है। परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है जबकि परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।" (उत्तर कां. 124.4)
संतों का हृदय बड़ा दयालु होता है। जाने अनजाने कोई भी जीव उनके सम्पर्क में आ जाता है तो उसका कल्याण हुए बिना नहीं रहता। एक उपनिषद में उल्लेख आता हैः
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।
'ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !'

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसारामजी बापू का पावन जीवन तो ऐसी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है, जिनमें उनकी करूणा-उदारता एवं परदुःखकातरता सहज में ही परिलक्षित होती है। आज से 30 वर्ष पहले की बात हैः
एक बार पूज्य श्री डीसा में बनास नदी के किनारे संध्या के समय ध्यान-भजन के लिए बैठे हुए थे। नदी में घुटने तक पानी बह रहा था। उसी समय जख्मी पैरवाला एक व्यक्ति नदी किनारे चिंतित-सा दिखायी दिया। वह नदी पार अपने गाँव जाना चाहता था। घुटने भर पानी वाली नदी, पैर में भारी जख्म, नदी पार कैसे करे ! इसी चिंता में डूबा सा दिखा। पूज्य श्री उसकी चिंता का कारण समझ गये और उसे अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करा दी। घाव से पीड़ित पैरवाला वह गरीब मजदूर दंग रह गया। साँईं की सहज करूणा-कृपा व दयाभरे व्यवहार से प्रभावित होकर डामर रोड बनाने वाले उस मजदूर ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए पूज्य बापू जी से कहाः
"पैर पर जख्म होने से ठेकेदार ने काम पर आने से मना कर दिया है। कल से मजदूरी नहीं मिलेगी।"
पूज्य बापू जी ने कहाः "मजदूरी न करना, मुकादमी करना। जा मुकादमी हो जा।"
दूसरे दिन ठेकेदार के पास जाते ही उस मजदूर को उसने ज्यादा तनख्वाहवाली, हाजिरी भरने की आरामदायक मुकादमी की नौकरी दी। किसकी प्रेरणा से दी, किसके संकल्प से दी यह मजदूर से छिपा न रह सका। कंधे पर बैठाकर नदी पार कराने वाले ने रोजी-रोटी की चिंता से भी पार कर दिया तो मालगढ़ का वह मजदूर प्रभु का भक्त बन गया और गदगद कंठ से डीसावासियों को अपना अनुभव सुनाने लगा।
ऐसे अनगणित प्रसंग हैं जब बापू जी ने निरोह, निःसहाय, जीवों को अथवा सभी ओर से हारे हुए, दुःखी, पीड़ित व्यक्तियों को कष्टों से उबारकर उनमें आनन्द, उत्साह भरा हो।

तुम्हारे रुपये पैसे, फूल-फल की मुझे आवश्यकता नहीं, लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस, मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है। मैं रोने वालों का रूदन भक्ति में बदलने के लिए, निराशों के जीवन में आशा के दीप जगाने के लिए, लीलाशाहजी की लीला का प्रसाद बाँटने के लिए आया हूँ और बाँटते-बाँटते कइयों को भगवदरस में छका हुआ देखने को आया हूँ। प्रभु प्रेम के गीत गुँजाकर आप भी तृप्त रहेंगे, औरों को भी तृप्ति के आचमन दिया करेंगे, ऐसा आज से आप व्रत ले लें, यही आसाराम की आशा है। ॐ गुरु...... ॐ गुरु..... ॐ गुरु.....ॐ....
चिंतन करो कि 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपने राम-स्वभाव में जगूँगा, सुख-दुःख में सम रहूँगा...? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे संसार स्वप्न जैसा लगेगा...? ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपनी देह में रहते हुए भी विदेही आत्मा में जगूँगा....?' ऐसा चिंतन करने से निम्न इच्छाएँ शांत होती जायेंगी और बाद में उन्नत इच्छाएँ भी शांत हो जायेंगी। फिर तुम इच्छाओं के दास नहीं, आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम हो जाओगे।

Wednesday, July 20, 2011


आरोग्यनिधि – 2  पुस्तक से - Aarogyanidhi-2 pustak se

भोजन विधि - Bhojan Vidhi

अधिकांश लोग भोजन की सही विधि नहीं जानते। गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन करने से जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रूका हुआ मल सड़कर दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यंत आवश्यक है। जैसे-
आलस तथा बेचैनी न रहें, मल, मूत्र तथा वायु का निकास य़ोग्य ढंग से होता रहे, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो एवं हलकापन महसूस हो, भोजन के प्रति रूचि हो तब समझना चाहिए की भोजन पच गया है। बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करता है। कोई कितना भी आग्रह करे या आतिथ्यवश खिलाना चाहे पर आप सावधान रहें।
सही भूख को पहचानने वाले मानव बहुत कम हैं। इससे भूख न लगी हो फिर भी भोजन करने से रोगों की संख्या बढ़ती जाती है। एक बार किया हुआ भोजन जब तक पूरी तरह पच न जाय एवं खुलकर भूख न लगे तब तक दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए। अतः एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम-से-कम छः घंटों का अंतर अवश्य रखना चाहिए क्योंकि इस छः घंटों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया सम्पन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस(आम) इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा। दोनों समय के भोजनों के बीच में बार-बार चाय पीने, नाश्ता, तामस पदार्थों का सेवन आदि करने से पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है, ऐसा व्यवहार में मालूम पड़ता है।
रात्रि में आहार के पाचन के समय अधिक लगता है इसीलिए रात्रि के समय प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रातें लम्बी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन लम्बे होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।
अपनी प्रकृति के अनुसार उचित मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हलके पदार्थ जैसे कि चचावल, मूँग, दूध अधिक मात्रा में ग्रहण करने सम्भव हैं परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी से बने पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।
भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि भी करता है।
भोजन गरम और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और शीघ्र पच जाता है। ऐसा भोजन अतिरिक्त वायु और कफ को निकाल देता है। ठंडा या सूखा भोजन देर से पचता है। अत्यंत गरम अन्न बल का ह्रास करता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।
चलते हुए, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।
दूध के झाग बहुत लाभदायक होते हैं। इसलिए दूध खूब उलट-पुलटकर, बिलोकर, झाग पैदा करके ही पियें। झागों का स्वाद लेकर चूसें। दूध में जितने ज्यादा झाग होंगे, उतना ही वह लाभदायक होगा।
चाय या कॉफी प्रातः खाली पेट कभी न पियें, दुश्मन को भी न पिलायें।
एक सप्ताह से अधिक पुराने आटे का उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है।
भोजन कम से कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके करें। अच्छी तरह चबाये बिना जल्दी-जल्दी भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं। भोजन अत्यन्त धीमी गति से भी नहीं करना चाहिए।
भोजन सात्त्विक हो और पकने के बाद 3-4 घंटे के अंदर ही कर लेना चाहिए।
स्वादिष्ट अन्न मन को प्रसन्न करता है, बल व उत्साह बढ़ाता है तथा आयुष्य की वृद्धि करता है, जबकि स्वादहीन अन्न इसके विपरीत असर करता है।
सुबह-सुबह भरपेट भोजन न करके हलका-फुलका नाश्ता ही करें।
भोजन करते समय भोजन पर माता, पिता, मित्र, वैद्य, रसोइये, हंस, मोर, सारस या चकोर पक्षी की दृष्टि पड़ना उत्तम माना जाता है। किंतु भूखे, पापी, पाखंडी या रोगी मनुष्य, मुर्गे और कुत्ते की नज़र पड़ना अच्छा नहीं माना जाता।
भोजन करते समय चित्त को एकाग्र रखकर सबसे पहले मधुर, बीच में खट्टे और नमकीन तथा अंत में तीखे, कड़वे और कसैले पदार्थ खाने चाहिए। अनार आदि फल तथा गन्ना भी पहले लेना चाहिए। भोजन के बाद आटे के भारी पदार्थ, नये चावल या चिवड़ा नहीं खाना चाहिए।
पहले घी के साथ कठिन पदार्थ, फिर कोमल व्यंजन और अंत में प्रवाही पदार्थ खाने चाहिए।
माप से अधिक खाने से पेट फूलता है और पेट में से आवाज आती है। आलस आता है, शरीर भारी होता है। माप से कम अन्न खाने से शरीर दुबला होता है और शक्ति का क्षय होता है।
बिना समय के भोजन करने से शक्ति का क्षय होता है, शरीर अशक्त बनता है। सिरदर्द और अजीर्ण के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। समय बीत जाने पर भोजन करने से वायु से अग्नि कमजोर हो जाती है। जिससे खाया हुआ अन्न शायद ही पचता है और दुबारा भोजन करने की इच्छा नहीं होती।
जितनी भूख हो उससे आधा भाग अन्न से, पाव भाग जल से भरना चाहिए और पाव भाग वायु के आने जाने के लिए खाली रखना चाहिए। भोजन से पूर्व पानी पीने से पाचनशक्ति कमजोर होती है, शरीर दुर्बल होता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से आलस्य बढ़ता है और भोजन नहीं पचता। बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना हितकर है। भोजन के बाद छाछ पीना आरोग्यदायी है। इससे मनुष्य कभी बलहीन और रोगी नहीं होता।
प्यासे व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। प्यासा व्यक्ति अगर भोजन करता है तो उसे आँतों के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। भूखे व्यक्ति को पानी नहीं पीना चाहिए। अन्नसेवन से ही भूख को शांत करना चाहिए।
भोजन के बाद गीले हाथों से आँखों का स्पर्श करना चाहिए। हथेली में पानी भरकर बारी-बारी से दोनों आँखों को उसमें डुबोने से आँखों की शक्ति बढ़ती है।
भोजन के बाद पेशाब करने से आयुष्य की वृद्धि होती है। खाया हुआ पचाने के लिए भोजन के बाद पद्धतिपूर्वक वज्रासन करना तथा 10-15 मिनट बायीं करवट लेटना चाहिए(सोयें नहीं), क्योंकि जीवों की नाभि के ऊपर बायीं ओर अग्नितत्त्व रहता है।
भोजन के बाद बैठे रहने वाले के शरीर में आलस्य भर जाता है। बायीं करवट लेकर लेटने से शरीर पुष्ट होता है। सौ कदम चलने वाले की उम्र बढ़ती है तथा दौड़ने वाले की मृत्यु उसके पीछे ही दौड़ती है।
रात्रि को भोजन के तुरंत बाद शयन न करें, 2 घंटे के बाद ही शयन करें।
किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहना लाभदायक है। इससे स्वास्थ्य के सुधार में मदद मिलती है। औषधि सेवन के साथ मौन का अवलम्बन हितकारी है।
कुछ उपयोगी बातें-
घी, दूध, मूँग, गेहूँ, लाल साठी चावल, आँवले, हरड़े, शुद्ध शहद, अनार, अंगूर, परवल – ये सभी के लिए हितकर हैं।
अजीर्ण एवं बुखार में उपवास हितकर है।
दही, पनीर, खटाई, अचार, कटहल, कुन्द, मावे की मिठाइयाँ – से सभी के लिए हानिकारक हैं।
अजीर्ण में भोजन एवं नये बुखार में दूध विषतुल्य है। उत्तर भारत में अदरक के साथ गुड़ खाना अच्छा है।
मालवा प्रदेश में सूरन(जमिकंद) को उबालकर काली मिर्च के साथ खाना लाभदायक है।
अत्यंत सूखे प्रदेश जैसे की कच्छ, सौराष्ट्र आदि में भोजन के बाद पतली छाछ पीना हितकर है।
मुंबई, गुजरात में अदरक, नींबू एवं सेंधा नमक का सेवन हितकर है।
दक्षिण गुजरात वाले पुनर्नवा(विषखपरा) की सब्जी का सेवन करें अथवा उसका रस पियें तो अच्छा है।
दही की लस्सी पूर्णतया हानिकारक है। दहीं एवं मावे की मिठाई खाने की आदतवाले पुनर्नवा का सेवन करें एवं नमक की जगह सेंधा नमक का उपयोग करें तो लाभप्रद हैं।
शराब पीने की आदवाले अंगूर एवं अनार खायें तो हितकर है।
आँव होने पर सोंठ का सेवन, लंघन (उपवास) अथवा पतली खिचड़ी और पतली छाछ का सेवन लाभप्रद है।
अत्यंत पतले दस्त में सोंठ एवं अनार का रस लाभदायक है।
आँख के रोगी के लिए घी, दूध, मूँग एवं अंगूर का आहार लाभकारी है।
व्यायाम तथा अति परिश्रम करने वाले के लिए घी और इलायची के साथ केला खाना अच्छा है।
सूजन के रोगी के लिए नमक, खटाई, दही, फल, गरिष्ठ आहार, मिठाई अहितकर है।
यकृत (लीवर) के रोगी के लिए दूध अमृत के समान है एवं नमक, खटाई, दही एवं गरिष्ठ आहार विष के समान हैं।
वात के रोगी के लिए गरम जल, अदरक का रस, लहसुन का सेवन हितकर है। लेकिन आलू, मूँग के सिवाय की दालें एवं वरिष्ठ आहार विषवत् हैं।
कफ के रोगी के लिए सोंठ एवं गुड़ हितकर हैं परंतु दही, फल, मिठाई विषवत् हैं।
पित्त के रोगी के लिए दूध, घी, मिश्री हितकर हैं परंतु मिर्च-मसालेवाले तथा तले हुए पदार्थ एवं खटाई विषवत् हैं।
अन्न, जल और हवा से हमारा शरीर जीवनशक्ति बनाता है। स्वादिष्ट अन्न व स्वादिष्ट व्यंजनों की अपेक्षा साधारण भोजन स्वास्थ्यप्रद होता है। खूब चबा-चबाकर खाने से यह अधिक पुष्टि देता है, व्यक्ति निरोगी व दीर्घजीवी होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि प्राकृतिक पानी में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सिवाय जीवनशक्ति भी है। एक प्रयोग के अनुसार हाइड्रोजन व ऑक्सीजन से कृत्रिम पानी बनाया गया जिसमें खास स्वाद न था तथा मछली व जलीय प्राणी उसमें जीवित न रह सके।
बोतलों में रखे हुए पानी की जीवनशक्ति क्षीण हो जाती है। अगर उसे उपयोग में लाना हो तो 8-10 बार एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उड़ेलना (फेटना) चाहिए। इससे उसमें स्वाद और जीवनशक्ति दोनों आ जाते हैं। बोतलों में या फ्रिज में रखा हुआ पानी स्वास्थ्य का शत्रु है। पानी जल्दी-जल्दी नहीं पीना चाहिए। चुसकी लेते हुए एक-एक घूँट करके पीना चाहिए जिससे पोषक तत्त्व मिलें।
वायु में भी जीवनशक्ति है। रोज सुबह-शाम खाली पेट, शुद्ध हवा में खड़े होकर या बैठकर लम्बे श्वास लेने चाहिए। श्वास को करीब आधा मिनट रोकें, फिर धीरे-धीरे छोड़ें। कुछ देर बाहर रोकें, फिर लें। इस प्रकार तीन प्राणायाम से शुरुआत करके धीरे-धीरे पंद्रह तक पहुँचे। इससे जीवनशक्ति बढ़ेगी, स्वास्थ्य-लाभ होगा, प्रसन्नता बढ़ेगी।
पूज्य बापू जी सार बात बताते हैं, विस्तार नहीं करते। 93 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जीने वाले स्वयं उनके गुरुदेव तथा ऋषि-मुनियों के अनुभवसिद्ध ये प्रयोग अवश्य करने चाहिए।
स्वास्थ्य और शुद्धिः
उदय, अस्त, ग्रहण और मध्याह्न के समय सूर्य की ओर कभी न देखें, जल में भी उसकी परछाई न देखें।
दृष्टि की शुद्धि के लिए सूर्य का दर्शन करें।
उदय और अस्त होते चन्द्र की ओर न देखें।
संध्या के समय जप, ध्यान, प्राणायाम के सिवाय कुछ भी न करें।
साधारण शुद्धि के लिए जल से तीन आचमन करें।
अपवित्र अवस्था में और जूठे मुँह स्वाध्याय, जप न करें।
सूर्य, चन्द्र की ओर मुख करके कुल्ला, पेशाब आदि न करें।
मनुष्य जब तक मल-मूत्र के वेगों को रोक कर रखता है तब तक अशुद्ध रहता है।
सिर पर तेल लगाने के बाद हाथ धो लें।
रजस्वला स्त्री के सामने न देखें।
ध्यानयोगी ठंडे जल से स्नान न करे।

भोजन को शुद्ध, पौष्टिक, हितकर व सात्त्विक बनाने के लिए हम जितना ध्यान देते हैं उतना ही ध्यान हमें भोजन बनाने के बर्तनों पर देना भी आवश्यक है। भोजन जिन बर्तनों में पकाया जाता है उन बर्तनों के गुण अथवा दोष भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। अतः भोजन किस प्रकार के बर्तनों में बनाना चाहिए अथवा किस प्रकार के बर्तनों में भोजन करना चाहिए, इसके लिए भी शास्त्रों ने निर्देश दिये हैं।
भोजन करने का पात्र सुवर्ण का हो तो आयुष्य को टिकाये रखता है, आँखों का तेज बढ़ता है। चाँदी के बर्तन में भोजन करने से आँखों की शक्ति बढ़ती है, पित्त, वायु तथा कफ नियंत्रित रहते हैं। काँसे के बर्तन में भोजन करने से बुद्धि बढ़ती है, रक्त शुद्ध होता है। पत्थर या मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने से लक्ष्मी का क्षय होता है। लकड़ी के बर्तन में भोजन करने से भोजन के प्रति रूचि बढ़ती है तथा कफ का नाश होता है। पत्तों से बनी पत्तल में किया हुआ भोजन, भोजन में रूचि उत्पन्न करता है, जठराग्नि को प्रज्जवलित करता है, जहर तथा पाप का नाश करता है। पानी पीने के लिए ताम्र पात्र उत्तम है। यह उपलब्ध न हों तो मिट्टी का पात्र भी हितकारी है। पेय पदार्थ चाँदी के बर्तन में लेना हितकारी है लेकिन लस्सी आदि खट्टे पदार्थ न लें।
लोहे के बर्तन में भोजन पकाने से शरीर में सूजन तथा पीलापन नहीं रहता, शक्ति बढ़ती है और पीलिया के रोग में फायदा होता है। लोहे की कढ़ाई में सब्जी बनाना तथा लोहे के तवे पर रोटी सेंकना हितकारी है परंतु लोहे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए इससे बुद्धि का नाश होता है। स्टेनलेस स्टील के बर्तन में बुद्धिनाश का दोष नहीं माना जाता है। सुवर्ण, काँसा, कलई किया हुआ पीतल का बर्तन हितकारी है। एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि  न करें।
केला, पलाश, तथा बड़ के पत्र रूचि उद्दीपक, विषदोषनाशक तथा अग्निप्रदीपक होते हैं। अतः इनका उपयोग भी हितावह है।
पानी पीने के पात्र के विषय में 'भावप्रकाश ग्रंथ' में लिखा है।
जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम्।
पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत्।
काचेन रचितं तद्वत् वैङूर्यसम्भवम्।
(भावप्रकाश, पूर्वखंडः4)
अर्थात् पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। सम्भव हो तो वैङूर्यरत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें। इनके अभाव में मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

तिथि अनुसार आहार-विहार एवं आचार संहिता
प्रतिपदा को कूष्मांड (कुम्हड़ा, पेठा) न खायें, क्योंकि यह धन का नाश करने वाला है।
द्विताया को बृहती (छोटा बैंगन या कटेहरी) खाना निषिद्ध है।
तृतिया को परवल खाने से शत्रुओं की वृद्धि होती है।
चतुर्थी को मूली खाने से धन का नाश होता है।
पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है।
षष्ठी को नीम की पत्ती, फल या दातुन मुँह में डालने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है।
सप्तमी को ताड़ का फल खाने से रोग होते हैं तथा शरीर का नाश होता है।
अष्टमी को नारियल का फल खाने से बुद्धि का नाश होता है।
नवमी को लौकी गोमांस के समान त्याज्य है।
एकादशी को शिम्बी(सेम) खाने से, द्वादशी को पूतिका(पोई) खाने से अथवा त्रयोदशी को बैंगन खाने से पुत्र का नाश होता है।
अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि, रविवार, श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल का तेल, लाल रंग का साग व काँसे के पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।
रविवार के दिन अदरक भी नहीं खाना चाहिए।
कार्तिक मास में बैंगन और माघ मास में मूली का त्याग कर देना चाहिए।
सूर्यास्त के बाद कोई भी तिलयुक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए।
लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए। यह नरक की प्राप्ति कराने वाला है।
बायें हाथ से लाया गया अथवा परोसा गया अन्न, बासी भात, शराब मिला हुआ, जूठा और घरवालों को न देकर अपने लिए बचाया हुआ अन्न खाने योग्य नहीं है।
जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए तैयार किया गया हो, जिसको किसी ने लाँघ दिया हो, जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो, जिसमें बाल या कीड़े पड़ गये हों, जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न राक्षसों का भाग है।
गाय, भैंस और बकरी के दूध के सिवाय अन्य पशुओं के दूध का त्याग करना चाहिए। इनके भी बयाने के बाद दस दिन तक का दूध काम में नहीं लेना चाहिए।
ब्राह्मणों को भैंस का दूध, घी और मक्खन नहीं खाना चाहिए।
लक्ष्मी चाहने वाला मनुष्य भोजन और दूध को बिना ढके नहीं छोड़े।
जूठे हाथ से मस्तक का स्पर्श न करे क्योंकि समस्त प्राण मस्तक के अधीन हैं।
बैठना, भोजन करना, सोना, गुरुजनों का अभिवादन करना और (अन्य श्रेष्ठ पुरुषों को) प्रणाम करना – ये सब कार्य जूते पहन कर न करें।
जो मैले वस्त्र धारण करता है, दाँतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोता है, वह यदि साक्षात् भगवान विष्णु भी हो उसे भी लक्ष्मी छोड़ देती है।
उगते हुए सूर्य की किरणें, चिता का धुआँ, वृद्धा स्त्री, झाडू की धूल और पूरी तरह न जमा हुआ दही – इनका सेवन व कटे हुए आसन का उपयोग दीर्घायु चाहने वाले पुरुष को नहीं करना चाहिए।
अग्निशाला, गौशाला, देवता और ब्राह्मण के समीप तथा जप, स्वाध्याय और भोजन व जल ग्रहण करते समय जूते उतार देने चाहिए।
सोना, जागना, लेटना, बैठना, खड़े रहना, घूमना, दौड़ना, कूदना, लाँघना, तैरना, विवाद करना, हँसना, बोलना, मैथुन और व्यायाम – इन्हें अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए।
दोनों संध्या, जप, भोजन, दंतधावन, पितृकार्य, देवकार्य, मल-मूत्र का त्याग, गुरु के समीप, दान तथा यज्ञ – इन अवसरों पर जो मौन रहता है, वह स्वर्ग में जाता है।
गर्भहत्या करने वाले के देखे हुए, रजस्वला स्त्री से छुए हुए, पक्षी से खाये हुए और कुत्ते से छुए हुए अन्न को नहीं खाना चाहिए।