पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, June 20, 2013

हम भारत के लाल हैं पुस्तक से - Hum Bharat Ke Lal Hai.

पूज्य बापू जी का पुण्य संदेश - Pujya Bapuji ka Punya Sandesh

मेरे लाल ! तुम्हीं हो सच्चे विद्यार्थी... हो न !
सच्चा विद्यार्थी कौन ? जिसके मन में शांति हो, हृदय में उत्तम भावना हो, इन्द्रियाँ वश में हों, जो सत्साहित्य का सेवन करता हो और अपने हर कार्य में प्रभु को साक्षी मानता हो वही ʹसच्चा विद्यार्थीʹ है। आप भी सच्चे विद्यार्थी बनो।

दिन की शुरुआत.... सुप्रभात !
सुबह जल्दी (प्रातः 3 से 5 बजे) उठो। लेटे-लेटे शरीर को खींचो। कुछ समय बैठकर इष्टदेव, गुरुदेव का ध्यान करो। फिर शशक आसन करते हुए उन्हें नमन करो। दोनों हथेलियों के दर्शन करो। बाद में बिस्तर का त्याग करो। माता-पिता का प्रणाम करो। यशस्वी जीवन जियो।

चिरंजीवी भव !
जो आस्तिक हैं, आलस्य-प्रमाद छोड़कर सत्कार्यों में लगे रहते हैं, गुरु एवं शास्त्रों की आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, ऐसे सदभागी बच्चे चिरंजीवी होते हैं। सत्पुरुषों का सत्संग-सान्निध्य तेजस्वी और दीर्घ जीवन जीने की कुंजी देता है।
जो झुककर बैठे, तिनके तोड़े, दाँतों से नाखून कुतरे, हाथ-मुँह जूठे रखे, अशुद्ध रहे, गाली बोले या सुने, चाय-कॉफी, पान-मसाला जैसी हल्की चीजों का सेवन करे उसका आयुष्य कम होता है।

खाना नहीं खाना, प्रसाद पाना
भोजन के समय पैर गीले होने चाहिए लेकिन सोते समय कदापि नहीं। भोजन के पूर्व इस श्लोक का उच्चारण करें-
ʹहरिर्दाता हरि र्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः। हरिः सर्वशरीरस्थो भुंक्ते भोजयते हरिः।।ʹ
फिर ʹૐ प्राणाय स्वाहा। ૐ अपानाय स्वाहा। ૐ व्यानाय स्वाहा। ૐ उदानाय स्वाहा। ૐ समानाय स्वाहाʹ। - इन मंत्रों से पंच-प्राणों को आहुतियाँ अर्पण करें। ʹगीता के 15वें अध्याय का भी पाठ करें, फिर भगवान का स्मरण करके प्रसन्नचित्त होकर भोजन करें। इससे भोजन प्रसाद बन जाता है। रात्रि का भोजन हल्का और सुपाच्य होना चाहिए।

तेजस्वी भव ! यशस्वी भव !
दूसरों के वस्त्र तथा जूते न पहनो। किसी के दिल को ठेस न पहुँचाओ। संध्या के समय तथा रात्रि को देर तक (9 बजे के बाद) न पढ़ो। प्रातः काल जल्दी उठकर थोड़ी देर ध्यान करके पढ़ना अधिक लाभदायक होता है। यशस्वी-तेजस्वी जीवन जीने की आकांक्षावालों को चाहिए कि वे आँखों तथा चारित्र्य-बल का नाश करें ऐसी वेब-साइटों, पुस्तकों, अश्लील चित्रों, फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, धर्मविरोधी चैनलों से दूर रहें। आपके अध्यापकों को गुस्सा दिलाये ऐसा हास्य या कृत्य मत करो। अध्यापक जो गृहकार्य दें, वह सावधान होकर एकाग्रतापूर्वक करो। जो विद्यार्थी नियमित अभ्यास करता है, निश्चिंत और निर्भय होकर पढ़ता है तथा मन इन्द्रियों को संयम में रखता है, वह अवश्य सफल होता है।

आराम से बनोगे महान
उत्तर तथा पश्चिम दिशा की ओर सिर करके सोनेवालों के स्वास्थ्य की हानि होती है। पूर्व तथा दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोने वालों के स्वास्थ्य की रक्षा होती है। रात्रि के समय परमात्मा का स्मरण करते-करते उसी में खो और सो जाने से रात की निद्रा योगनिद्रा बन जाती है और इस प्रकार का आराम-विश्राम महानता का द्वार खोल देता है। स्वयं की मेहनत से करोड़पति बनने में समय लग सकता है किंतु करोड़पति पिता के गोद चले जाने मात्र से सहज में करोड़पति हो जाता है। उसी प्रकार एक-एक सफलता को पाने में बहुत समय लगता है परंतु जो मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पा चुके हैं, ऐसे महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य में जाने से सहज में ही ढेरों सफलताएँ मिल जाती हैं।

Monday, May 20, 2013


दैवी संपदा पुस्तक से - Daivi Sampada pustak se

ज्ञानयोग

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में 'अर्जुनोपदेश' नामक सर्ग में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
"हे भारत ! जैसे दूध में घृत और जल में रस स्थित होता है वैसे ही सब लोगों के हृदय में तत्त्व रूप से स्थित हूँ। जैसे दूध में घृत स्थित है वैसे ही सब पदार्थों के भीतर मैं आत्मा स्थित हूँ। जैसे रत्नों के भीतर-बाहर प्रकाश होता है वैसे ही मैं सब पदार्थों के भीतर-बाहर स्थित हूँ। जैसे अनेक घटों के भीतर-बाहर एक ही आकाश स्थित है वैसे ही मैं अनेक देहों में भीतर बाहर अव्यक्त रूप स्थित हूँ।"
जैसे आकाश में सब व्याप्त है वैसे मैं चिदाकाश रूप में सर्वत्र व्याप्त हूँ। बन्धन और मुक्ति दोनों प्रकृति में होते हैं। पुरुष को न बन्धन है न मुक्ति है। जन्म-मृत्यु आदि जो होता है वह सब प्रकृति में खेल हो रहा है। पानी में कुछ नहीं, तरंगों में टकराव है। आकाश में कुछ नहीं, घड़ों में बनना बिगड़ना होता है।
तुम चिदघन चैतन्य आत्मा हो। जैसे दूध में घी होता है, मिठाई में मिठाश होती है, तिलों में तेल होता है ऐसे ही चैतन्य सर्वत्र व्याप्त होता है, सबमें ओतप्रोत है। तिलों में से तेल निकाल दो तो तेल अलग और फोतरे अलग हो जाएँगे लेकिन चैतन्य में ऐसा नहीं है। जगत में से ब्रह्म अलग निकाल लो, ऐसा नहीं है। तिलों में से तो तेल निकल सकता है लेकिन जगत में से ब्रह्म नहीं निकल सकता।
जैसे जगत में से आकाश नहीं निकल सकता ऐसे ही आकाश में से भी चिदाकाश नहीं निकल सकता। यह चिदाकाश ही परमात्म-तत्त्व है। वही हर जीव का अपना आपा है लेकिन जीव 'मैं' और 'मेरा' करके इन्द्रियों के राज्य में भटक गया है इसलिए जन्म-मरण हो रहा है। नहीं तो जर्रा-जर्रा खुदा है। खुदा की कसम, जर्रा-जर्रा खुदा है। कोई उससे जुदा नहीं है।

सब घट मेरा साँईया खाली घट ना कोय।
बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।
कबीरा कुँआ एक है पनिहारि अनेक।
न्यारे न्यारे बर्तनों में पानी एक का एक।।

ज्ञानयोग में निष्ठुर होकर ज्ञान का विचार करें। वहाँ लिहाज नहीं करना है। श्रद्धा करें, उपासना करें तो अन्धा होकर श्रद्धा करें। उपासना में अन्धश्रद्धा चाहिए, गहरी श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा में विचार की जरूरत नहीं है, अन्यथा श्रद्धा तितर-बितर हो जायेगी। है तो पत्थर, है तो शालिग्राम लेकिन भगवान है। वहाँ विचार मत करो। है तो मिट्टी का पिंड, लेकिन दृढ़ भावना रखो कि शिवलिंग है, साक्षात भगवान शिव हैं। श्रद्धा में विचार को मत आने दो।
हम लोग क्या करते हैं? श्रद्धा में विचार घुसेड़ देते हैं.... विचार में श्रद्धा घुसेड़ देते हैं। नहीं...। जब आत्मविचार करो तब निष्ठुर होकर करो। 'जगत कैसे बना ? ब्रह्म क्या है ? आत्मा क्या है ? मैं आत्मा कैसे ?' कुतर्क तो नहीं लेकिन तर्क अवश्य करो। 'तर्क्यताम्... मा कुतर्क्यताम्।' विचार करो तो निष्ठुर होकर करो और श्रद्धा करो तो बिल्कुल अन्धे होकर करो। अपने निश्चय में अडिग। चाहे कुछ भी हो, सारी दुनिया, सारी खुदाई एक तरफ हो लेकिन मेरा इष्ट, मेरा खुदा, मेरा भगवान अनन्य है, मेरे गुरु का वचन आखिरी है।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

श्रद्धा करो तो ऐसी। विचार करो तो निष्ठुर होकर। श्रद्धालु अगर कहे किः 'अच्छा ! मैं सोचूँगा.... विचार करूँगा....' तो 'मैं' बना रहेगा, फिर रोता रहेगा।
कर्म करो तो एकदम मशीन होकर करो। मशीन कर्म करती है, फल की इच्छा नहीं करती। वह तो धमाधम चलती है। यंत्र की  पुतली की तरह कर्म करो। काम करने में ढीले न बनो। झाड़ू लगाओ तो ऐसा लगाओ कि कहीं कचरा रह न जाय। रसोई बनाओ तो ऐसी बनाओ कि कोई दाना फालतू न जाय, कोई तिनका बिगड़े नहीं।  कपड़ा धोओ तो ऐसा धोओ कि साबुन का खर्च व्यर्थ न हो, कपड़ा जल्दी न फटे फिर भी चमाचम स्वच्छ बन जाय। कर्म करो तो ऐसे सतर्क होकर करो। ऐसा कर्मवीर जल्दी सफल जो जाता है। हम लोग थोड़े कर्म में, थोड़े आलस्य में, थोड़े Dull थोड़े Lazy थोड़े पलायनवादी होकर रह जाते हैं। न ही इधर के रहते हैं नहीं उधर के।

कर्म करो तो बस, मशीन होकर, बिल्कुल सतर्कता से, Up-to-date काम करो।
प्रीति करो तो बस, लैला मजनूँ की तरह।
एक बार लैला भागी जा रही थी। सुना था कि मजनूँ कहीं बैठा है। मिलन के लिए पागल बनकर दौड़ी जा रही थी। रास्ते में इमाम चद्दर बिछाकर नमाज पढ़ रहा था लैला उसकी चद्दर पर पैर रखकर दौड़ गई। इमाम क्रुद्ध हो गया। उसने जाकर बादशाह को शिकायत कीः "मैं खुदा की बन्दगी कर रहा था.... मेरी चद्दर बिछी थी उस पर पैर रखकर वह पागल लड़की चली गई। उसने खुदाताला का और खुदा की बन्दगी करने वाले इमाम का, दोनों का अपमान किया है। उसे बुलाकर सजा दी जाय।"
इमाम भी बादशाह का माना हुआ था। बादशाह ने लैला को बुलाया, उसे डाँटते हुए कहाः
"मूर्ख पागल लड़की ! इमाम चद्दर बिछाकर खुदाताला की बन्दगी कर रहा था और तू उसकी चद्दर पर पैर रखकर चली गई ? तुझे सजा देनी पड़ेगी। तूने ऐसा क्यों किया ?"
"जहाँपनाह ! ये बोलते हैं तो सही बात होगी कि मैं वहाँ पैर रखकर गुजरी होऊँगी लेकिन मुझे पता नहीं था। एक इन्सान के प्यार में मुझे यह नहीं दिखा लेकिन ये इमाम सारे जहाँ के मालिक खुदाताला के प्यार में निमग्न थे तो इनको मैं कैसे दिख गई ? मजनूँ के प्यार में मेरे लिए सारा जहाँ गायब हो गया था जबकि इमाम सारे जहाँ के मालिक खुदाताला के प्यार में निमग्न थे तो इनको मैं कैसे दिख गई ? मजनूँ के प्यार में मेरे लिये सारा जहाँ गायब हो गया था जबकि इमाम सारे जहाँ के मालिक से मिल रहे थे फिर भी उन्होंने मुझे कैसे देख लिया ?"
बादशाह ने कहाः "लैला ! तेरी मजनूँ में प्रीति सच्ची और इमाम की बन्दगी कच्ची। जा तू मौज कर।"
श्रद्धा करो तो ऐसी दृढ़ श्रद्धा करो। विश्वासो फलदायकः।

आत्मविचार करो तो बिल्कुल निष्ठुर होकर करो। उपासना करो तो असीम श्रद्धा से करो। कर्म करो तो बड़ी तत्परता से करो, मशीन की तरह बिल्कुल व्यवस्थित और फलाकांक्षा से रहित होकर करो। भगवान से प्रेम करो तो बस, पागल लैला की तरह करो, मीरा की तरह करो, गौरांग की तरह करो।

गौरांग की तरह कीर्तन करने वाले आनंदित हो जाते हैं। तुमने अपनी गाड़ी का एक पहिया ऑफिस में रख दिया है, दूसरा पहिया गोदाम में रखा है। तीसरा पहिया पंक्चरवाले के पास पड़ा है। स्टीयरिंग व्हील घर में रख दिया है। इंजिन गेरेज में पड़ा है। अब बताओ, तुम्हारी गाड़ी कैसी चलेगी?
ऐसे ही तुमने अपनी जीवन-गाड़ी का एक पुर्जा शत्रु के घर रखा है, एक पुर्जा मित्र के घर रखा है, दो पुर्जे फालतू जगह पर रखे हैं। तो यह गाड़ी कैसी चलेगी यह सोच लो। दिल का थोड़ा हिस्सा परिचितों में, मित्रों में बिखेर दिया, थोड़ा हिस्सा शत्रुओं, विरोधियों के चिन्तन में लगा दिया, थोड़ा हिस्सा ऑफिस में में, दुकान में रख दिया। बाकी दिल का जरा सा हिस्सा बचा उसका भी पता नहीं कि कब कहाँ भटक जाय ? बताओ, फिर उद्धार कैसे हो?

Saturday, April 6, 2013

अनन्य योग  पुस्तक से - Ananya Yog pustak se

जीवन-मीमांसा - Jivan Mimansa

आज तक जो कुछ मैंने देख लिया, भोग लिया, उससे मुझे आनन्द है। सैंकड़ों-सैंकड़ों सुख मैंने भोगे.... देखे.... उससे मुझे आनन्द है। मैं आह्लादित हूँ। हजारों गलतियाँ की होगी, दुःख भोगे होंगे उसका भी मुझे आनन्द है... क्योंकि गलतियों ने मुझे सिखा दिया कि जीवन जीने का यह तरीका ठीक नहीं। दुःखों ने मुझे सिखा दिया कि विकारी सुखों में आसक्त होना ठीक नहीं।
हम घर-बार छोड़कर भाग गये, सब सगे सम्बन्धियों का ठुकराते रहे, अपने शरीर को भी सताते रहे, कष्ट सहते रहे, दुःख भोगते रहे.... यह भी ठीक नहीं। भोग-विलास में लट्टू होकर गिरे रहना भी जीवन जीने का ढंग नहीं।
न भोग ठीक है, न अति त्याग ठीक है। विवेकपूर्ण मध्यम मार्ग ही ठीक है। शरीर को औषधवत खिलाना पिलाना चाहिए। जीवन जीने के साधनों का औषधवत् उपयोग करना चाहिए।
जीवन का पुष्प जीवनदाता के स्वभाव में खिलने के लिए है। मेरा चैतन्य आत्मा जो भीतर है, वही बाहर भी है। जो आज है वही कल भी है और परसों भी है। आज और कल मन की कल्पना है। आज और कल को जानने वाला चिदाकाश चैतन्य.... हर दिल में 'मैं.... मैं....' करता हुआ, मन  बुद्धि को सत्ता देता हुआ सत्ताधीश.... मन बुद्धि से परे भी वही चिदाकाश आत्मा मैं हूँ। यह आत्मदृष्टि ही एकमात्र सार है, और सब परिश्रम है।
आत्मज्ञान ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, जीवन का आदर्श होना चाहिए। जिसके जीवन का कोई आदर्श नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, उसका जीवन घोर अन्धकार में भटक जाता है। आत्मज्ञान ही जिसके जीवन का लक्ष्य है, वह चाहे सैंकड़ों गलतियाँ कर ले, फिर भी वह कभी-न-कभी उस लक्ष्य को पा लेगा। जिसका लक्ष्य आत्मज्ञान नहीं है, वह हजारों-हजारों गलतियाँ करता रहेगा, हजारों-हजारों जन्मों में भटकता रहेगा।
सर्वत्र ओतप्रोत चैतन्यघन परमात्मा का अनुभव करना जिसके जीवन का लक्ष्य है, वह देर सवेर परमात्मामय हो जाता है।
परमात्मा आनन्दस्वरूप है, चैतन्य स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है। कीड़ी में भी ज्ञान है कि क्या खाना, क्या नहीं खाना, कहाँ रहना और कहाँ से भाग जाना। कीड़ी में चेतना भी है। कीड़ी भी सुख के लिए ही यत्न करती है।

सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।
ब्रह्म सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, अनन्त है। ब्रह्म स्थूल से भी स्थूल है और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। कीड़ी मकोड़ा, बैक्टीरिया में भी मेरे परमेश्वर की चेतना है। अर्थात् परमेश्वर ही अनेक रूप होकर बाह्य चेष्टा और आभ्यान्तर प्रेरणा का प्रकाशक है। वही सबका अधिष्ठान है। उसी से इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि चेष्टा करते है। उन्हें खट्टा-मीठा अनुभव होता है। फिर भी उन सब अनुभवों से परे जो मेरा आत्मा है, वही चैतन्य सब अनुभवों का भी आधार है।
बुद्धि बदलती है, मन बदलता है, चित्त बदलता है, शरीर बदलता है, दरिया बदलता है.... दरिया के किनारे बदलते हैं। यह सब उस चैतन्य की लीला है, चैतन्य की स्फुरणा है। उसी को आह्लादिनी शक्ति बोलते हैं, माया बोलते हैं। जैसे दूध और दूध की सफेदी अभिन्न है, ऐसे ही मेरा चैतन्य आत्मा और उसकी स्फुरणा शक्ति अभिन्न है।
यह जगत हरिरूप है। हरि ही जगत रूप होकर दिखते है।
स्फुरणा स्फुर-स्फुरकर बदल जाता है, पर स्फुरणा का आधार अस्फुर है। जैसे सागर में तरंग उत्पन्न हो होकर लीन हो जाते है, पर सागर के तल में शांत जल है। विशाल उदधि में कोई बड़ी तरंग है, कोई छोटी तरंग है, कोई शुद्ध तरंग है तो कोई मलिन तरंग है। ये सारी छोटी बड़ी, मलिन-शुद्ध तरंगे उसी सागर में हैं। ऐसे ही मेरे आत्म सागर में कहीं शुद्ध तो कहीं अशुद्ध, कहीं छोटा तो कहीं बड़ा स्फुरणा दिखता है।
जैसे जल की तरंग सड़क पर नहीं दौड़ती। वह जल में ही पैदा होती है, जल पर ही दौड़ती है और आखिर जल में ही समा जाती है, फिर जल से ही उठती है। ठीक वैसे ही विश्व के तमाम जीव उसी एक ब्रह्म समुद्र की तरंगे हैं। कोई छोटा है कोई बड़ा है, कोई पवित्र है कोई अपवित्र है, कोई अपना है कोई पराया है। सब उसी विराट-विशाल मुझ चैतन्य सागर की तरंगे हैं। तरंगे उठती हैं, नाचती हैं, आपस में टकराती है, लड़ती-झगड़ती हैं, किल्लोल करती हैं, मिटती हैं। वे कदापि सागर से अलग नहीं हो सकतीं। ऐसे ही संसार में सब चेष्टाएँ करने वाले कोई व्यक्ति परमात्मा से कभी अलग हुए नहीं, अलग हैं नहीं, अलग हो नहीं सकते।
हम उसी परमात्मा में विश्रान्ति पा रहे हैं, उसी में हँस रहे हैं, खेल रहे हैं।

जीवन में होने वाली हजार-हजार गलतियों से हमें सबक सीखने को मिलता है। जब-जब ईश्वर दृष्टि की तब-तब सुख पाया, आनन्द पाया, शान्ति पाई। विचार उन्नत बने। जब-जब अच्छे बुरे की दृष्टि की, अपने और पराये की दृष्टि की, नाम और रूप में आस्था की, तब तब धोखा खाया।
मुझे आनन्द है कि धोखा खाने पर भी हम कुछ सीखे हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता से भी कुछ सीखे हैं। अनुकूलता कहती है कि परमात्मा आनन्दस्वरूप है। धोखा खाने से जो दुःख मिला उसने बताया कि अज्ञान की दृष्टि दुःखदायी है।
हमने जो प्रतिकूलताएँ सही, दुःख सहा या धोखे खाये, उसका भी हमें मजा है। अगर ये गलतियाँ और दुःख, प्रतिकूलताएँ, विघ्न और बाधाएँ न होती तो शायद हम उतने उन्नत भी नही हो पाते। यह हमारे सारे जीवन का अनुभव है कि प्रतिकूलताएँ और दुःख भी हमें कुछ सीख दे जाते हैं। अनुकूलता भी कुछ आनन्द और उल्लास दे जाती है।
अपनी जीवन की सारी यात्राओं की मीमांसा यह है कि हमारे पास अनुभव का फल है। अनुभव रूपी फल का हम आदर करते हैं।
जब-जब देहभाव से आक्रान्त होकर, जब-जब संसार की चलित तरंगों को ही सार समझकर तरंगों के आधार को भूले हैं, तब-तब दुःख उठाये हैं। जब-जब तरंगों को लीलामात्र समझकर, उनके आधार को सत्य समझकर संसार में विचरे हैं, तब-तब आनन्द, सुख और ईश्वरीय मस्ती का अनुभव हुआ है।
सारे धर्म उसी सुखस्वरूप ईश्वर की ओर ले जाने की चेष्टा करते हैं। उनकी भाषा अपनी-अपनी है। जहाँ दृष्टि सीमित हो जाती है, इन्द्रियगत सुख में आबद्ध हो जाते हैं, विकारी सुख में फिसलते हैं, तब प्रकृति थप्पड़ मारती है.... तरंगें टकराती हैं। जब गहन शांत जल में तरंगें विलीन होती हैं, तो कोई कोलाहल नहीं रहता।
दरिया के किनारे पर खड़ा आदमी उछलती-कूदती तरंगों को देखकर यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि इनका आधार शांत उदधि है। उसके तले में बिल्कुल शांत स्थिर जल है। उसी के अचल सहारे यह चल दिख रहा है। तरंगित होना वाला जल बहुत थोड़ा है.... उसकी गहराई में शांत जल अगाध है, अमाप है।
ऐसे ही तरंगायमान होनेवाला माया का हिस्सा तो बहुत थोड़ा है..... मेरा शान्त ब्रह्म ही अमाप है।

ऐसी कोई बूँद नहीं जो जल से भिन्न हो। ऐसा कोई जीव नहीं जो परमात्मा से भिन्न हो। ऐसी कोई तरंग नहीं जो बिना पानी के रह सके। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो चैतन्य परमात्मा के बिना रह सके। जिन्दा है तब भी उसमें चैतन्य परमात्मा है और मृत्यु के बाद भी सुषुप्तघन अवस्था में परमात्मा तत्त्व मौजूद रहता है।
प्राण रहित शव जला दिया जाता है, तब उसका जल वाष्पीभूत होकर विराट जल तत्त्व में मिल जाता है। शव का आकाश विराट महाकाश में मिल जाता है। उसका श्वास विराट वायुतत्त्व में मिल जाता है। उसका पृथ्वी का हिस्सा पृथ्वी तत्त्व में मिल जाता है। उसका तेज अग्नितत्त्व में मिल जाता है।

जैसे सागर की तरंगे जल से उत्पन्न होकर फिर सागर जल में ही लीन होती हैं ऐसे ही हम लोग भी ईश्वर से ही उत्पन्न होकर ईश्वर में ही खेलते हैं और फिर ईश्वर में ही मिल जाते हैं। हम दुःख तब उठाते हैं कि जब उसको ईश्वर नहीं मानते, ईश्वर नहीं जानते, नहीं समझते। हममें ईश्वरतत्त्व का भाव नहीं जागता। मेरे तेरे का भाव ही हमें दुःख देता है, परेशान करता है। इस भाव को बदला तो बेड़ा पार हो जायेगा।
जिसके पास खूब विचार है, तर्क है, तगड़ी खोपड़ी है किन्तु हृदय नहीं है तो उसका जीवन रूखा है। ऐसे जीवन में अशांति, उद्वेग, तर्क-वितर्क, कुतर्क होते हैं। रूखे मस्तिष्क से जीने का मजा नहीं। जीवन में हृदय की नितान्त अनिवार्यता है। जिसके पास विशाल हृदय है, विशाल सहानुभूति है, विशाल प्रेम है, वह परम प्रेमास्पद की विशालता का अनुभव करके आनन्दित रहता है, सुखी रहता है।
केवल हृदय की भावना से भी काम नहीं चलता। अज्ञानता के कारण भावना-भावना में बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं। केवल भावना भी उपयुक्त नहीं। भावना के साथ विशाल ज्ञाननिधि भी चाहिए।
तो क्या थोड़ा हिस्सा भावनात्मक हृदय का और थोड़ा हिस्सा ज्ञानात्मक मस्तिष्क का हो ?
नहीं....। हृदय की पूर्ण विशालता हो और मस्तिष्क में ज्ञानमय विशाल समझ हो।

यस्य ज्ञानमयं तपः।
आप लोगों के साथ जो कुछ करें, अपने साथ करें। आप ही उन सब के रूप में खेल रहे हो, यह जानते हुए सब करें। आप एक परिच्छिन्न शरीर नहीं हैं। आप जो कुछ देख रहे हैं, अपने आपको ही देख रहे हैं, जिससे देख रहे हैं वह भी आप हैं और जिसको देख रहे हैं वह भी आप ही हैं। जिसके लिए देख रहे हैं वह भी आप हैं और जिसके लिए कर रहे हैं वह भी आप हैं। ऐसा विशाल ज्ञान.... ! ऐसा विशाल प्रेम... ! इन दोनों का जब प्राकट्य होता है, तब आदमी अनन्त महासागर में सुखानुभूतियाँ करता है। संसार दुःखदायी नहीं। दुःखदायी अज्ञान है। संसार सुखदायी भी नहीं। सुखदायी भी अपनी मान्यताएँ हैं। संसार तो ईश्वरमय है। सुख दुःख तो मन की तरंगें हैं। संसार में सुख नहीं, सुख अपनी वासना के कारण है। वह सुखाभास होता है, वास्तविक सुख नहीं होता है। संसार में दुःख नहीं, दुःख अपनी मलिन वासनाओं के कारण है, अपनी बेवकूफी के कारण है। अपनी बेवकूफी मिटी तो न सुख है न दुःख है। सब परिपूर्ण परमात्मा है, आनन्द का भी आनन्द है। फिर हर हाल में खुश, हर में खुश, हर देश में खुश।
कुसंग से बचें। कुसंग माने संकीर्ण और कुवासना को पोसने में उलझे हुए लोगों का संग। ऐसे व्यक्तियों के प्रभाव से बचकर सुसंग में रहें। श्रीकृष्ण ने एकान्त और अज्ञातवास में तेरह वर्ष बिताये थे अपने व्यापक स्वरूप में रमण करते हुए। 70 वर्ष की उम्र से लेकर 83 वर्ष की उम्र तक वे घोर अंगीरस ऋषि के आश्रम में अपने आत्मस्वरूप में मस्त रहे।
युद्ध के मैदान में अर्जुन को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पड़ी तो उस पूर्णता में रमण करने वाले श्रीकृष्ण ने वह भी कर दिया। दुर्योधन की संकीर्ण दृष्टि तोड़नी थी, उसके निमित्त विश्व को सबक सिखाना था तो श्रीकृष्ण ने यह भी मजे से किया। दुर्योधन को ठीक कर दिया और उसके पक्षवालों को भी ठिकाने लगा दिया। फिर भी श्रीकृष्ण कहते हैं-
"युद्ध के मैदान में आने के पहले, संधिदूत होकर गया था तब से लेकर अभी तक मेरे हृदय में पाण्डवों के प्रति राग न रहा हो तो और कौरवों के प्रति मेरे चित्त में द्वेष न रहा हो तो इस समता की परीक्षा के निमित्त यह मृतक बालक (अभिमन्यु का नवजात पुत्र) जिन्दा हो जाय।" वह बालक जिन्दा हो गया। समता की परीक्षा के फलस्वरूप वह जिन्दा हुआ, इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा।
आपके जीवन में समता आ जाय, ज्ञान आ जाय। राग से प्रेरित होकर नहीं, द्वेष से प्रेरित होकर नहीं..... सहज स्वभाव जीवन का क्रिया-कलाप चले।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
ज्ञानवान सदा सहज कर्म करते हैं। उनकी दृष्टि में दोषयुक्त या गुणयुक्त होना बच्चों का खिलवाड़ मात्र है। जैसे जल की तरंग कभी स्वच्छ तो कभी मलिन, कभी छोटी तो कभी मोटी होती है। यह जल की लीला मात्र है। ऐसे ही अपने आत्मस्वरूप में बैठकर आपकी जो चेष्टा होगी, वह परम चैतन्य की आह्लादिनी लीला है। वह चैतन्य का विवर्त मात्र है। ऐसा समझकर ज्ञानी, जीवन्मुक्त पुरूष संसार में सुख से विचरते हैं।
सः तृप्तो भवति अमृतो भवति....।
सः तरति लोकान् तारयति....।।
'वे तृप्त होते है, अमृतमय होते हैं। वे तरते है, औरों को तारते हैं।'
ॐ आनन्द....! ॐ शान्ति.....!! सचमुच परमानन्द....!!!
अन्दर बाहर वही का वही सुखस्वरूप मेरा परमात्मा है। अन्दर-बाहर, आगे-पीछे, अधः-ऊर्ध्व वही सारा का सारा भरा है। जैसे मछली के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, अगल-बगल जल ही जलभरा है, मछली के पेट में भी जल है। इसी प्रकार आपके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, अन्दर-बाहर वही चिदाकाश परम चैतन्य परमात्मा ही परमात्मा है। ऐसा विशाल भाव, ज्ञान और व्यापक दृष्टि, इनकी एकता होती है तो अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार हो जाता है।
परमात्मा सदा साक्षात् है। वह कभी दूर नहीं, कभी पराया नहीं। संकीर्णता और अज्ञान के कारण उसे हम दूर मान लेते हैं, पराया मान लेते हैं और अपने को अनाथ मान लेते हैं। तुम अनाथ नहीं हो। सर्वनियन्ता नाथ, विश्वेश्वर तुम्हारा आत्मा बनकर बैठा है। विश्वनियन्ता नाथ ही तुम्हारे आगे अनेक रूप होकर बैठा है। विश्वनियन्ता परमात्मा ही तुम्हारे आगे सुख और  दुःख के स्वांग करके तुम्हें अपनी असलियत को जतलाने का यत्न कर रहा है।
अतः जो प्रतिकूलता आ रही है उसे धन्यवाद दो और कहो कि यार ! तू मुझे धोखा नहीं दे सकता।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में सन् 1942 की एक घटना है।
किसी जीवन्मुक्त महापुरूष ने संकल्प कर लिया कि सब तू ही है तो अब बोलेंगे नहीं। जीवन के अंतिन श्वास के क्षण कुछ बोल लेंगे तो बोल लेंगे।
दूसरे विश्वयुद्ध में सैनिकों के द्वारा जासूसी के शक में वे पकड़े गये। पूछने पर कुछ बोले नहीं तो और सन्देह हुआ। ले गये अपने मेजर के पास। डाँट-डपटकर उनसे पूछा गयाः "तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ?" आदि आदि। जबरदस्ती करने के कई तरीके आजमाये गये लेकिन इन महापुरूष ने संकल्प कर रखा था। जीवन्मुक्त को भय कहाँ ? वे जानते थे किः "डाँटने वालों में भी मेरी ही चेतना है। शरीर का जैसा प्रारब्ध होगा वैसा ही होकर रहेगा। भयभीत क्यों होना ? उनके प्रति उद्विग्न क्यों होना ?"
महात्मा ज्यों के त्यों खड़े रहे। पूछने वाले पूछ-पूछकर थक गये। आखिर सूचना दी गई कि अगर नहीं बोलोगे तो गले में भाला भोंक देंगे... सदा के लिए चुप कर देंगे।
फिर भी महात्मा शांत....। उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। उन मूर्ख लोगों ने उठाया भाला। महात्मा के कण्ठकूप में भाले की नोंक रखी। फिर भी जीवन्मुक्त पुरूष को भय नहीं लगा। वे जानते थे कि सब परमात्मा की आह्लादिनी लीला है। जैसे सागर में तरंगे होती हैं, ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा में सब लीलाएँ हो रही हैं।
आखिर उस क्रूर मेजर ने सैनिकों को आदेश दे दिया। भाला गले में भोंक दिया गया। रक्त की धार बही। तब वे महात्मा अमृतवचन बोलेः
"यार ! तू सैनिक बनकर आयेगा, भाला बनकर आयेगा, तो भी अब मुझे धोखा नहीं दे सकता क्योंकि मैं पहचानता हूँ कि उसमें भी तू ही तू है। शरीर का अन्त जिस निमित्त से होने वाला है, वह होगा लेकिन अब तू मुझे धोखा नहीं दे सकता।"
चैतन्यरूपी सागर की सब तरंगे हैं। ना कोई शत्रु ना कोई मित्र, ना कोई अपना ना कोई पराया। सब परमेश्वर ही परमेश्वर है.... नारायण ही नारायण है। मेरा चैतन्य आत्मा-परमात्मा ही सब कुछ बना बैठा है।  ॐ....ॐ....ॐ..... नारायण.... नारायण..... नारायण... तू ही तू.... तू ही तू....।
ऐसे विशाल ज्ञान और विशाल हृदय वाले ज्ञानवान को मृत्यु भी दिखती है तो समझते हैं  कि : मृत्यु भी तू ही है। यमदूत भी तू ही है और पार्षद भी तू ही है। वैकुण्ठ भी तुझ ही में है, स्वर्ग भी तुझ ही में है और नर्क भी तुझ ही में है।
जिसके लिये स्वर्ग और नर्क अपना आपा हो गया, उसके लिए स्वर्ग का आकर्षण कहाँ और नर्क का भय कहाँ ? उसके लिये परमात्मा ही परमात्मा है।
"ॐ....ॐ....ॐ.... आनन्द.... खूब आनन्द.... विशाल हृदय, विशाल ज्ञान... दिव्य ज्ञान... विशाल प्रेम.... ॐ....ॐ..... सर्वोऽहम्... सुखस्वरूपोऽहम्। मैं सर्व हूँ.... मैं सुख स्वरूप हूँ.... मैं आनन्दस्वरूप हूँ... मैं चैतन्यरूप हूँ... ।"

सेवा इस आत्मज्ञान को व्यवहार में ले आती है। भावना इस आत्मज्ञान को भावशुद्धि में ले आती है। वेदान्त इस जीवन को व्यापक स्वरूप से अभिन्न बना देता है।
इस विशाल अनुभव से चाहे हजार बार फिसल जाओ, डरो नहीं। चलते रहो इसी ज्ञानपथ पर। एक दिन जरूर सनातन सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा। दृष्टि जितनी विशाल रहेगी, मन जितना विशाल रहेगा, बुद्धि जितनी विशाल रहेगी, उतना ही विशाल चैतन्य का प्रसाद प्राप्त होता है। उस प्रसाद से सारे दुःख दूर हो जाते हैं।
जगत में जो भी दुःख हैं, सारे अज्ञानजनित हैं, संकीर्णताजनित हैं, बेवकूफीजनित हैं। वास्तव में दुःख का कोई अस्तित्व नहीं और सुख कोई सार चीज नहीं। परमात्मा तो परमानन्द हैं, परम सुखस्वरूप हैं। जहाँ सुख और दुःख दोनों तुच्छ दिखते है, ऐसा शांत चैतन्य आत्मा अपना स्वरूप है।
हवा चलती है तभी भी हवा है और स्थिर है तभी भी हवा है। ऐसे ही परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति से जगत बनते हैं और मिटते हैं। जगत की स्थिति में भी वही आनन्दघन परमात्मा है और जगत के प्रलय में भी वही परमात्मा। प्रवृत्ति में भी वही है और शान्त भाव में भी वही है।
ऐसा जो जानता है, वह वास्तविक में जानता है। ऐसा जो देखता है, वह वास्तविक में देखता है। ऐसा जो सोचता है, वह वास्तविक में सोचता है। ऐसा जो समझता है, वही वास्तविक में समझदार है। बाकी सब नासमझों का खिलवाड़ है।
ॐ.....ॐ.....ॐ......
खूब आनन्द....! मधुर आनन्द.....!! परमानन्द....!!!
शांति ही शांति...... !  आनन्द ही आनन्द.......... !!
निश्चिन्त नारायण स्वभाव.......! ॐ....ॐ.....ॐ....।

जो लोग बाहर की चीजों में, मेरे तेरे में उलझे हैं, उनके लिए शास्त्र विधान करते हैं कि इतने इतने सत्कर्म करो तो भविष्य में स्वर्ग मिलेगा। कुकर्म करोगे तो नर्क मिलेगा।
जिनको ज्ञान में रूचि है, ईश्वरत्व के प्रकाश में जो जीते हैं, उनको कुछ करके स्वर्ग में जाकर सुख लेने की इच्छा नहीं। नर्क के दुःख के भय से पीड़ित होकर कुछ करना नहीं। वे तो समझते हैं कि सब मेरे ही अंग है। दायाँ हाथ बायें की सेवा कर ले तो क्या अभिमान करे और बायाँ हाथ दाहिने हाथ की सेवा कर ले तो क्या बदला चाहेगा ? पैर चलकर शरीर को कहीं पहुँचा दे तो क्या अभिमान करेंगे और मस्तिष्क सारे शरीर के लिए अच्छा निर्णय ले तो क्या अपेक्षा करेगा ? सब अंग भिन्न भिन्न दिखते हैं फिर भी हैं तो सभी एक शरीर के ही।
ऐसे ही सब जातियाँ, सब समाज, सब देश भिन्न-भिन्न दिखते हैं, वे सत्य नहीं हैं। जातिवाद सत्य नहीं है। स्त्री और पुरूष सत्य नहीं है। बाप और बेटा सत्य नहीं है। बेटा और बाप, पुरूष और स्त्री, जाति और उपजाति तो केवल तरंगें हैं। सत्य तो उनमें चैतन्यस्वरूप जलराशि ही है।
ॐ....ॐ...ॐ.... नारायण... नारायण....नारायण....
नारायण का मतलब है पूर्ण चैतन्य ही चैतन्य.....राम ही राम...आनन्द ही आनन्द....।
तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है ।
कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है ।।
ॐ....ॐ....ॐ....
हे दुःख देने वाले लोग और हे दुःख के प्रसंग ! हे सुख देने वाले लोग और सुख के प्रसंग ! तुम दोनों की खूब कृपा हुई। दोनों ने मुझे यह ज्ञानरूपी फल दे दिया कि सुख भी सच्चा नहीं और दुःख भी सच्चा नहीं। सुख देने वाला भी सच्चा नहीं और दुःख देनेवाला भी सच्चा नहीं। सुख और दुःख देने वालों के मन की तरंगें ही थीं। मन की तरंगों का आधार मेरा चैतन्य आत्मदेव वहाँ भी पूर्ण का पूर्ण था। ॐ....ॐ.....ॐ..... नारायण.... नारायण.... नारायण....।
दिव्य आनन्द.....। मधुर आनन्द.... ! परमानन्द.... ! निर्विकारी आनन्द....! निरन्जन आनन्द...! ॐ.....ॐ.....ॐ....
नर-नारी में बसा हुआ... सुखी-दुःखी में बसा हुआ... अपने पराये में छुपा हुआ परमात्मा में छुपा हुआ भी है, जाहिर भी है.... अन्नत है... निर्विकार है.... निरंजन है....।

ऐसी भूल दुनियाँ के अन्दर साबूत करणी करता तू ।
ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता ज्यों देखूँ वा तू को तू ।।
कीड़ी में नानो बन बैठो हाथी में तू मोटो क्यूँ ?
बन महावत ने माथे बेठो हांकणवालो तू को तू ।।
दाता में दाता बन बैठो भिखारी के भेळो तू ।
ले झोळी ने मागण लागो देवावाळो दाता तू ।।
चोरों में तू चोर बन बेठो बदमाशों के भेळो तू ।
कर चोरी ने भागण लागो पकड़ने वाळो तू को तू ।।
नर नारी में एक विराजे दुनियाँ में दो दिखे क्यूँ ।
बन बालक ने रोवा लागो राखणवाळो तू को तू ।।
जल थल में तू ही विराजे जंत भूत के भेळो तू ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो गुरू भी बन के बेठो तू ।।

विशाल उदधि की जलराशि में भँवर भी तू ही है और तरंग भी तू ही है। बुलबुले भी तू ही है और जल के टकराने से बनने वाली फेन भी तू ही है। जल में पैदा होने वाली शैवाल भी तू ही है।

Sunday, February 24, 2013

हमें लेने हैं अच्छे संस्कार

आदर्श दिनचर्या

जीवन विकास और सर्व सफलताओं की कुंजी है एक सही दिनचर्या। सही दिनचर्या द्वारा समय का सदुपयोग करके तन को तंदरूस्त, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को कुशाग्र बनाकर बुद्धि को बुद्धिदाता की ओर लगा सकते हैं।

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण
प्रातः 4.30 बजे से 5 बजे के बीच उठें, लेटे-लेटे शरीर को खींचें। कुछ समय बैठकर ध्यान करें। शशक आसन करते हुए इष्टदेव, गुरुदेव को नमन करें।
करदर्शनः दोनों हाथों के दर्शन करते हुए यह श्लोक बोलें।
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।
देवमानव हास्य प्रयोगः तालियाँ बजाते हुए तेजी से भगवन्नाम लेकर दोनों हाथ ऊपर उठाकर हँसें।
भूमिवंदनः धरती माता को वंदन करें और यह श्लोक बोलें।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।

पानी प्रयोगः सुबह खाली पेट एक अथवा दो गिलास रात का रखा हआ पानी पियें।

शौच विज्ञानः स्नान करते समय यह मंत्र बोलें। ૐ ह्रीं गंगायै। ૐ ह्रीं स्वाहा।
ऋषि स्नानः ब्राह्म मुहूर्त में। मानव स्नानः सूर्योदय से पूर्व। दानव स्नानः सूर्योदय के बाद चाय, नाश्ता लेकर 8-9 बजे।
शौच जाते समय कानों तथा सिर पर कपड़ा बाँधें, दाँत भींचकर मल त्याग करें। शौच के समय पहने हुए कपड़े शौच के बाद धो लें।

दंत सुरक्षाः नीम की दातुन अथवा आयुर्वैदिक मंजन से दाँत साफ करें।

स्नानः ठंडे पानी से नहा रहे हों तो सर्वप्रथम सिर पर पानी डालें। रगड़-रगड़कर स्नान करें।

हमें भी सुसंस्कारी जीवन जीना है।

ईश्वर उपासना
"हे विद्यार्थी ! ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य बना लो। बार-बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर का नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीति करो। और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो। वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते हैं, बिल्कुल करते हैं।" – पूज्य बापू जी।
आरतीः हमें यह अनमोल जीवन ईश्वरकृपा से मिला है। अतः आप रोज के 24 घंटों में से कम-से-कम एक घंटा ईश्वर-उपासना के लिए दें। प्रातः शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर सर्वप्रथम भ्रूमध्य में तिलक करें। तत्पश्चात प्राणायाम, प्रार्थना, जप-ध्यान, सरस्वती उपासना, त्राटक, शुभ संकल्प, आरती आदि करें।
ये भी करें
नियमित रूप से व्यायाम, योगासन एवं सूर्योपासना करें।
5-7 तुलसी के पत्ते चबाकर एक गिलास पानी पियें।
माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करें। हलका-पौष्टिक नाश्ता करें या दूध (गोदुग्ध) पियें।
प्रतिदिन विद्यालय जायें और एकाग्रतापूर्वक पढ़ाई करें।

हमें भी फूल की तरह महकना है।

भोजन प्रसाद
हाथ पैर धोकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके मौनपूर्वक भोजन करें।
स्वास्थ्यकारक, सुपाच्य व सात्त्विक आहार लें।
बाजारू चीज-वस्तुएँ न खायें।
भोजन से पूर्वः इस श्लोक का उच्चारण करें-
हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः।
हरिः सर्वशरीररथो भुक्ते भोजयते हरिः।।
श्रीमद् भगवद् गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ अवश्य करें।
इन मंत्रों से प्राणों को 5 आहूतियाँ अर्पण करें।
ૐ प्राणाय स्वाहा।
ૐ अपानाय स्वाहा।
ૐ व्यानाय स्वाहा।
ૐ उदानाय स्वाहा।
ૐ समानाय स्वाहा।

अध्ययनः
विद्या ददाति विनयम्।
ʹविद्या से विनयशीलता आती है।ʹ
सर्वप्रथम हाथ-पैर-धोकर, तिलक कर ʹहरि ૐʹ का उच्चारण करें। अब शांत होकर निश्चिंत होकर पढ़ने बैठें।
अध्ययन के बीच-बीच में एवं अंत में शांत हों और पढ़े हुए का मनन करें।
कमर सीधी रखें। मुख ईशान कोण (पूर्व और उत्तर के बीच) की दिशा में हो।
जीभ की नोक को तालु में लगाकर पढ़ने से पढ़ा हुआ जल्दी याद होता है।
खेलकूद के बाद नियत समय पर पढ़ाई करें।
संध्याकाल में प्राणायाम, जप, ध्यान व त्राटक करें।
सदग्रंथों का नियमित पठन करें।

हमें भी उच्च शिक्षा प्राप्त करनी है।

शयन
सोने से पहलेः सत्संग की पुस्तक, सत्शास्त्र पढ़ें अथवा कैसेट या सीडी सुनें।
ईश्वर या गुरुमंत्र से प्रार्थना तथा ध्यान करके सोयें।
सिर पूर्व या दक्षिण की ओर हो।
मुँह ढककर न सोयें।
जल्दी सोयें, जल्दी उठें।
श्वासोच्छवास की गिनती करते हुए सीधा (मुँह ऊपर की ओर करके) सोयें। फिर जैसी आवश्यकता होगी वैसे स्वाभाविक करवट ले ली जायेगी।