पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, July 28, 2010



श्रीकृष्ण अवतार दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Avtaar Darshan pustak se

आत्म-साक्षात्कार करना बड़ा आसान है, सुगम है। राजा जनक को घोड़े के रकाब में पैर डालते-डालते हो गया था, खटवाँग को एक मुहूर्त में हो गया था, परीक्षित राजा को सात दिन में हो गया था। और भी कई नामी-अनामी महापुरूषों को आत्म-साक्षात्कार हुआ है। इतना सरल होने पर भी सबको आत्म-साक्षात्कार नहीं होता है। क्यों ?
भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
'यह अलौकि, अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरूष मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं, संसार से तर जाते हैं।'
(भगवद् गीताः 7.14)
यह अति अदभुत, त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है। इसका थाह नहीं पाया जा सकता है। यह माया लौकिक नहीं है, अलौकिक है। कोई आदमी अपनी लौकिक बुद्धि से, अपनी कल्पना के बल से, अपनी अक्ल-होशियारी का तुंबा बाँधकर इससे तरना चाहे तो नहीं तर सकता है। इस माया से कौन तर सकता है ? ज्यादा पढ़ा-लिखा या अनपढ़ ? निर्धन या धनवान ? देवी-देवता या भूत-प्रेत को रिझाने वाला या अवतार का सुमिरन करने वाला ? नहीं..... भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मुझ अन्तर्यामी की शरण रहेगा वह इस दुस्तर माया को आसानी से तर जायेगा।
अन्तर्यामी ईश्वर क्या है और ईश्वर की शरण जाना क्या है इस बात को जब हम ठीक से जान लेते हैं, तब शरणागति सफल होती है।
किसी तालाब में एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ने के लिए खड़ा था। वह दाँयी ओर, बाँयी ओर, पूरब की ओर, पश्चिम की ओर, चारों ओर जाल फेंकता था। उस जाल में छोटी-बड़ी, चतुर बुद्धु सब मछलियाँ फँस जाती थीं पर एक मछली ऐसी थी, जो मछुआरे के पैरों के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। मछुआरा वहाँ तो जाल फेंक नहीं सकता था। इसलिए वह उसके जाल में फँसने से बच जाती थी।
ऐसे ही त्रिगुणमयी माया के जाल में चतुर भी फँसे हैं, बुद्धू भी फँसे हैं, मूर्ख भी फँसे है और विद्वान भी फँसे हैं, भोगी भी फँसे हैं और त्यागी भी फँसे हैं। इतना ही नहीं, देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, भूचर, जलचर, नभचर सभी इस माया के तीन गुणों में से किसी न किसी गुण में फँसे हैं। पर माया का जो आधार है, उस ईश्वर की शरण में रहने वाला माया के जाल में फँसने से बच जाता है।
कोई कहता हैः "मैं तो भगवान की शरण हूँ।"
तू भगवान की शरण में है तो 'तू' कौन है ? यह पहले बता।
'मैं तो गोविन्दभाई हूँ।'
नहीं..... तुम वह नहीं हो। यह तुमने सुन-सुनकर मान लिया है। पहले तुम अपने को जानो और 'भगवान क्या है' यह समझो। तब 'शरण जाना क्या है' इस बात का पता चलेगा। मैं भगवान की शरण हूँ। यह मान लेना अलग बात है, सचमुच में भगवान की शरण जाना अलग बात है। अगर मानी हुई शरण ईमानदारी की है तो सचमुच में शरण जाने का सौभाग्य प्राप्त हो जायगा।
माया में रहकर माया से तरना कठिन है। पर यदि ईश्वर की शरण में रहे, आत्मा में रहे तो माया तो अति तुच्छ है। जैसे स्वप्न में तो बहुत कुछ होता दिखाई देता है, पर स्वप्न से जाग जाते हैं, तब पता चलता है कि उसमें कोई सार नहीं था, कुछ सत्य नहीं था। सब मेरी ही करामात थी। ऐसे ही जब तक हम माया के गुण में फँसे होते हैं तब तक बहुत कुछ करने कराने में लगे रहते हैं, संसारसागर में गोते खाते रहते हैं, बार-बार जन्मते और मरते रहते है। पर जगतरूपी स्वप्न से जब जाग जाते हैं, तब उसका कोई प्रभाव नहीं बचता है। हम मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं।
माया में रहकर जो आदमी सुखी होना चाहता है वह दुःख ही पाता है। जैसे कोई हाथी कीचड़ में फँसा है। वह निकलना तो चाहता है, पर ज्यों-ज्यों निकलने का प्रयत्न करता है त्यों-त्यों अधिक फँसता जाता है।
'मैं शरीर हूँ और कुटुंब-परिवार, नात-जात सब मेरा है' ऐसी जो मान्यता है वह माया का खिलवाड़ है। इसमें आदमी फँस मरता है। अपने को जानता नहीं है, देह को ही 'मैं' मानता है। इसलिए माया के गुण उसे बाँध लेते हैं। ऐसा नहीं है कि आलसी, प्रमादी आदमी ही डूबता है, रजोगुणी और सत्त्वगुणी तो क्या स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक तक जाने वाला आदमी भी माया के अन्तर्गत है, माया से पार नहीं हुआ है।
यह माया ऐसा अहं ले आती है कि आदमी जप-तप, सेवा-पूजा सत्कर्म नहीं करता है और अपने को पापी मानता है तो उसमें पापीपना आ जाता है। दान-पुण्य करता है तो दानीपना आ जाता है। साधन-भजन करता है, कुछ ज्ञान की बातें सुनता है और याद रखता है तो ज्ञानीपना आ जाता है, योगीपना आ जाता है। मन में हर्ष आता है तब खुश हो जाता है, अपने को भाग्यशाली मानता है। मन में शोक आता है तब अपने को अभागा मानता है। ऐहिक लाभ या हानि होती है तब अपने को लाभ या हानिवाला मानता है। कोई राजसी कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। कोई तामसी कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। कोई सात्त्विक कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। यह सब हो रहा है गुणों में, अहं में। पर गुणों को जो सत्ता दे रहा है उसका पता नहीं है, अपने निर्गुण स्वभाव का बोध नहीं है। इसलिए सब अपने में आरोपित कर लेता है। यहीं गड़बड़ हो जाती है। यह गड़बड़ कई सदियों से, कई जन्मों से होती चली आ रही है। यह आदत पुरानी हो गयी है, इसलिये सच्ची भी लग रही है। हर कोई व्यक्ति अपनी मान्यताएँ बताये रखता है, चाहे अच्छी हों या बुरी और उसका अहंकार भी करता है।
अहंकार के साथ कर्त्तापना भी आ जाता है। अच्छे कर्म करने का भी अहंकार, बुरे कर्म करने का भी अहंकार और कुछ नहीं करने का भी अहंकार होता है। 'मैं तो कुछ नहीं करता। सब भगवान करवाता है।' इसमें 'मैं नम्र हूँ' इस बात का अहंकार तो रहता ही है।
जेल में कोई नया कैदी आया तो जेलर ने उसे अन्य कैदियों के साथ रख दिया। वहाँ किसी पुराने कैदी ने उसे आवाज लगाईः
"अरे दोस्त ! कितने महीने की सजा मिली है ?"
नया कैदी बोलाः "छः महीने की।"
तब पुराने कैदी ने कहाः "अरे यह तो सिक्खड़ है। भाई ! तू दरवाजे पर ही अपना बिस्तर लगा। यहाँ तो 20 सालवाले बैठे हैं। तूने ज्यादा से ज्यादा किसकी टांग तोड़ी होगी। हम तो तीन-तीन खून करके बैठे हैं। तूने डाका कितने का डाला था।
नया कैदीः "5000 रूपये का।"
पुराना कैदीः "अरे ! इतना छोटा काम को हमारे बच्चे ही कर लेते हैं। हमने तो दो लाख का डाका डाला और तीसरी बार जेल में आया हूँ। मैं कोई ऐसा वैसा नहीं हूँ... पुराना खिलाड़ी हूँ इस मामले में तो। जेल को तो अपना घर ही बना लिया है, हाँ !"
अशुद्ध और निंदित कर्म में जो कर्त्तापना और अहंकार है वह तो भटकाता ही है पर साधारण अहंकार भी गिराने वाला होता है। जब भी तुममें कर्त्तापना आ जाता है, तब सहजता, सरलता खो जाती है। तुम आरती कर रहे हो और कोई उसे देख रहा है, उससे प्रभावित हो रहा है, ऐसा तुम्हें लगता है तो तुम्हारी आरती लम्बी हो जाती है। कोई गौर से किसी की भजन सुन रहा है तो भजन सुनाने वाले के राग लम्बे होते जाते है। ढोलक बजाने वाले के ताल में जोश आ जाता है। तुम साईकिल चला रहे हो और कोई देख रहा है तो तुम्हारे पेड़ल मारने में रौनक आ जाती है। यह माया का गुण है जो तुम्हारे कर्त्तृत्व को, अहंकार को जगा देता है। अकेले में तुम कुछ और होते हो।
रमण महर्षि के पास कई लोग आते थे। कभी-कभी रमण महर्षि किसी व्यक्ति की ओर बार-बार अथवा एकटक देखते थे तो उसका अहंभाव जग जाता था। वह सोचने लगता कि 'मैं कुछ विशेष हूँ..... महर्षि मुझ पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।' अतः महर्षि को उस पर से दृष्टि हटा देनी पड़ती थी। जब उसकी ओर देखते ही नहीं तो उसको दुःख होता था कि महर्षि पहले, शुरू-शुरू में हम आये तब तो खूब ध्यान देते थे, अब आँख उठाकर देखते भी नहीं।
मनुष्य की यह बड़ी कमजोरी है। जिस पर कोई थोड़ा विशेष ध्यान देता है तो उसे होता है कि मैं कुछ विशेष हूँ और ध्यान नहीं देते हैं तो उसे लगता है कि मैं तो कुछ नहीं हूँ। 'मैं' तो बना ही रहता है। जब तक 'मैं' बना रहेगा तब तक कभी हानि कभी लाभ, कभी सुख कभी दुःख, कभी जीवन कभी मृत्यु सताता रहेगा।
इस गुणमयी माया के तीन गुण हैं- सत्व, रजस, तमस। इन तीन गुणों के विभिन्न प्रकार के मिश्रण से विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों का अनुभव होता है। कई लोग ईंट-चूना, लोहे लक्कड़ के मकान-दुकान, फैक्ट्री पाकर अपने को सुखी मानते हैं। कई लोग बाह्य विद्या, ऐहिक विद्या पढ़कर अपने को विद्वान मानते हैं। कई लोग बाह्य धन पाकर अपने को धनवान मान लेते हैं। इन चीजों के शिकंजे से छूटकर, इस भ्रांतिपूर्ण माया से निकलकर, कोई भगवान के रास्ते चलता है तो तुष्टि नाम की अवस्था आ जाती है। वह भी माया का रूप है। साधना-भजन करने लगे तो लोग भगत कहने लगे। ध्यान-साधना आदि किया, कुछ अनुभव होने लगे, भगवान का रूप दिखने लगा। कुछ होने वाली बात का पहले पता चलने लगा तो आदमी समझने लगता है, बस मेरा भजन हो गया। यह तुष्टि है। जैसे कोई चौथी-पाँचवीं कक्षा तक पढ़ ले और अपने को विद्वान मानने लग जाय, ऐसे ही ईश्वर के रास्ते चलते समय थोड़ी ऊँची अवस्था आ जाती है तब सूक्ष्म अहंकार आ जाता है वह तुष्टि है, माया का खेल है।
माया क्या है ? कहाँ रहती है ? माया माने धोखा। या मा सा माया। जो नहीं है फिर भी सच्ची दिखती है। वह अज्ञान के कारण टिकती है, जीव की कल्पना में रहती है और तुष्टि आदि के रूप में आती है। थोड़ा सा आभासज्ञान हुआ, थोड़ी-सी झलक मिली, थोड़ी सी वाह वाही मिली तो आदमी उसी में रूक जाता है।
माया रची तू आप ही है, आप ही तू फँस गया।
कैसा महा आश्चर्य है, तू भूल अपने को गया।।
संसार सागर डूबकर गोते पड़ा है खा रहा।
अज्ञान से भवसिन्धु में बहता चला है जा रहा।।
जिसे यहाँ पर छोड़कर जाना है, उसके पीछे दिन-रात एक करके लगे रहते हैं और जो सदा साथ में है, जिसे जाने बिना दुर्भाग्य मिटने वाला नहीं, उसके लिये समय नहीं है। यही माया है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।
जो मेरी शरण आता है, वह माया से तर जाता है। श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा है कि 'कृष्ण-कृष्ण' करते रहो तो तर जाओगे। उनका कहना है कि जो अन्तर्यामी कृष्णतत्त्व है उसकी शरण में रहो। जिसने अंतर्यामी कृष्णतत्त्व को 'मैं' रूप में जान लिया उसने सारी दुनिया के 'मैं' को जान लिया, वह माया से पार हो गया।
ईश्वर की देने की कला ऐसी है कि लेने वाले को पता ही नहीं चलता है कि यह किसी का दिया हुआ है। लेने वाला हर चीज को अपनी मान लेता है। जिस शरीर को वह 'मैं' मानता है, वह पानी की एक बूँद ही तो है, जो पिता के शरीर से पसार हुआ, माता के गर्भ में विकसित हुआ और प्रकृति के अन्न जल से उसका पोषण होकर बड़ा हुआ। अब शरीर ही 'मेरा' नहीं है तो मेरा बेटा, मेरी बेटी, मेरा परिवार, धन, मकान, दुकान, पढ़ाई-लिखाई, सत्ता, पद-प्रतिष्ठा 'मेरी' कैसे हो सकती है ? ईश्वर इस ढंग से देता है कि वह दाता दिखता ही नहीं है, लेकिन लेने वाला उस चीज को अपनी मान लेता है और माया के जाल में फँस जाता है। बड़े-बड़े तीसमारखाँ भी इस माया के बहाव में बह गये। जो साक्षात् श्रीकृष्ण के दीदार करते थे ऐसे नारदजी भी माया के जाल से नहीं बच पाये।
एक बार नारदजी अपनी मस्ती में मस्त होकर कीर्तन कर रहे थे। श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। नारदजी की सेवा-भक्ति से श्रीकृष्ण संतुष्ट थे, प्रसन्न थे। उन्होंने नारदजी से कहाः
"देवर्षि ! तुम्हारे व्यवहार से मैं संतुष्ट हूँ। तुमको कुछ देना चाहता हूँ। तुम्हें क्या चाहिए ? जो भी इच्छा हो, वह माँग लो।"
नारदजीः "प्रभु ! मैं क्या माँगू ? मुझे आपके चरणों की भक्ति का वरदान दो।"
श्रीकृष्णः "वत्स ! तुम्हारी भक्ति से तो मैं संतुष्ट हूँ। तुम और कुछ माँग लो।"
नारदजीः "यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं तो मुझे आपकी माया दिखलाइये।"
श्रीकृष्णः "मैं, जो सदा तुम्हारे साथ हूँ, अंतर्यामीरूप से सत्ता, स्फूर्ति, प्रेरणा देता हूँ उसे तुम देखो। माया देखने की जिद मत करो।"
नारदजीः "भगवन् ! आपको तो मैं देख रहा हूँ।"
श्रीकृष्णः "तुम मुझे नहीं देख रहे हो। इस शरीर को देख रहे हो। तुम मुझे देखो।"
नारदजीः "आपको अंतर्यामी के रूप में तो कभी न कभी देख लूँगा। पहले आप अपनी माया दिखाइये। आपकी माया को देख लूँगा तो माया से तर जाऊँगा।"
नारदजी माया में जी रहे हैं फिर भी माया को देखना चाहते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं- "माया को देख लोगे तो माया से तर जाओगे ऐसा नहीं है। जब मुझे देख लोगे, मुझ अन्तर्यामी कृष्ण को जान लोगे तब तर जाओगे।"
नारदजीः "प्रभु ! आपको तो देख ही रहा हूँ। कृपा करके अब आपकी माया दिखाइये।"
श्रीकृष्णः "नारद ! यह तुष्टि है। मेरे साकार रूप का दर्शन किया और आनंद आया यह ठीक है। पर अभी तुमने मेरे पूर्ण व्यापक रूप को नहीं जाना है, उसे पहले जान लो।"
भक्त तो बालक जैसे होते हैं। बालक माता-पिता से अपनी बात मनवाता है ऐसे ही भक्त की बात भगवान को माननी पड़ती है।
नारदजी ने कहाः "प्रभु "! मुझे तो आपकी माया ही दिखलाइय़े। आप तो कहते हैं 'मैं संतुष्ट हुआ हूँ... तू कुछ माँग ले।' जब माँगता हूँ तो बात टालते हैं, देना नहीं चाहते हैं।"
श्रीकृष्ण ने देखा कि इसको अभी ठोकर खाने की मर्जी है। उन्होंने कहाः "अभी मुझे प्यास लगी है। तुम जरा सरस्वती से पानी भर कर लाओ।"
नारदजी गये पानी लेने के लिए। 'भगवान के लिए पानी भरना है तो शुद्ध होकर भरूँ' यह सोचकर उन्होंने पानी में जरा गोता मारा तो नारद में से नारदी बन गये। स्त्री का शरीर, कपड़े-गहने, हाव-भाव सब आ गया। बड़ी सुंदर शर्मीली कन्या हो गई। वे भूल ही गये कि मैं नारद हूँ। किसी मल्लाह ने उसे अपनी ओर आकर्षित किया। उसी मल्लाह के साथ शादी हो गई। वह अब मल्लाहन बन गयी। अब वह मल्लाह के लिए रोटी बनाती, फिर भोजन देने जाती। दिन बीते, सप्ताह बीते, साल बीते। ऐसा करते-करते तेरह साल में नौ बच्चे हो गये। अब नारदी का परिवार बहुत बड़ा हो गया। इतने बड़े परिवार के पालन पोषण की चिन्ता में मल्लाह बीमार रहने लगा और जल्दी ही मर गया तो नारदी रोने लगीः "अरे ! मुझे अकेली छोड़कर कहाँ चले गये.... अब मेरा क्या होगा रे....!' उसे रोती हुई देखकर बच्चे भी रोने लगे।
इतने में श्रीकृष्ण वहाँ आये। उन्होंने कहाः "अरे ! तुम क्या करते हो ? मैंने तुम्हें पानी भरकर लाने को कहा था। अभी तक नहीं लाये ?"
नारदी होने की भ्रांति थी तो अपने कपड़े संभालते हुए गोता मारकर नारदजी बाहर निकले। देखते हैं तो न बच्चे हैं न मरा हुआ मल्लाह। नारदजी कुछ खोये-खोये से लगते थे। नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहाः
"भगवन् ! यह लो पानी..... लेकिन मुझे कुछ हो गया।"
"क्या हुआ ?"
"मैं किसी मल्लाह की स्त्री बन गया था, मेरे कितने ही बच्चे हो गये थे। यह सब क्या था ?"
भगवानः "इसी का नाम माया है। तुम वही के वही थे पर तुम्हें यह सब महसूस हो रहा था। जो महसूस हुआ वह रहा नहीं, तुम तो रहे। तो तुम असलियत हो, बाकी जो दिख रहा था वह मिथ्या आभास था। यही तो मेरी माया है। इसे तरना आसान भी है और कठिन भी है। माया में रहकर माया से तरना चाहो तब कठिन है पर जब अपने-आप में ठहरते हो, तो माया से तरना आसान है।"
हमारे शरीर मन बुद्धि प्रकृति के हैं, हमारा व्यवहार प्रकृति में हो रहा है। प्रकृति में बदलाहट होती रहती है। प्रकृति में उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हमारे मन, बुद्धि आदि भी बदलते रहते हैं। बचपन के मन-बुद्धि जवानी में वैसे ही नहीं रहते हैं और जवानी के मन-बुद्धि बुढ़ापे में बदल जाते हैं। बुढ़ापे में स्मृति में भ्रम हो जाता है, लेकिन इन सब बदलाहट को देखने वाला जो अबदल, अविनाशी आत्मा है वह मैं हूँ, इस बात का पता चल जाय तो हम प्रकृति के प्रभाव से मुक्त हो जायेंगे। सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ कुछ भी हो, इनसे प्रभावित नहीं होते हैं तो हमारा भीतर का आनंद, भीतर का हौसला बना रहता है।
कभी-कभी तो लोग भगवान का भजन तो करते है साथ में सुविधाओं का भजन भी करते हैं। सुंदर वातावरण है, ठंडी-ठंडी हवा आ रही है, भगवान का भजन कर रहे हैं, बड़ा आनंद आ रहा है। पर यदि जरा किसी की कोहनी लग गई तो भजन-भगवान सब गायब ! ध्यान कर रहे हैं.... भगवान की मस्ती में हैं.....'अहा... हा... वाह..... प्रभु ! देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया.... आ..... हा.... आनंद ही आनंद है....' पर किसी ने जरा अपमान कर दिया कि आनंद गायब ! तो भगवान का भजन तो होता है, साथ में देह का भजन भी होता है, अपनी मान्यताओं का भजन भी साथ में चालू रहता है।
जो केवल अपनी मान्यताओं को पकड़कर बैठे हैं, उसमें ही उलझे हैं उनसे तो भगवान के साथ मान्यताओं को भी भजने वाला ठीक है। लेकिन जब तक मान्यताएँ मौजूद हैं तब तक वह संसारसागर से पूरा तर नहीं सकेगा। युद्ध करता हो, आमने-सामने बाणों की बौछारें हो रही हों, फिर भी अपने में कर्त्तृत्व न दिखे। चाहे क्रॉस पर या शूली पर चढ़ा दिया जाये पर उसे शूली शूली न दिखाई दे व चढ़ाने वाला दिखाई दे। तीनों लोकों का नाश कर दे या तीनों लोकों को जीवन दे दे फिर भी 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा भाव न हो। 'सब माया में हो रहा है, तीन गुणों से प्रकृति में हो रहा है। मैं इनसे परे हूँ।' इस बात को ठीक से जान लेने वाला माया से तर जाता है। वह भले फिर माया में रहता हुआ दिखे लेकिन उसकी वृत्ति कुछ अलौकिक हो जाती है।
करता हुआ भी नहीं करे सो प्राज्ञ जीवन्मुक्त है।
जो लोग सतत भगवान का स्मरण करते हैं वे माया से पार हो गये हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। भगवान का स्मरण ही नहीं, साक्षात् भगवान जिनके साथ हैं, ऐसे उद्धवजी को श्रीकृष्ण कह रहे हैं-
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि माया मनोमयम्।।
"जो मन से, वाणी से, आँखों से, कानों से देखने में, सुनने में और सोच विचार में आता है, वह सब त्रिगुणमयी माया का खिलवाड़ है, सब मनोमय है, नश्वर है। इसलिए हे उद्धव ! तू बद्रिकाश्रम जा और एकान्त में जाकर ज्ञान का विचार करे। तू चाहता है कि मैं साथ चलूँ पर साथ में कोई आया नहीं है, साथ में कोई जायेगा भी नहीं। कितने भी साथ में रहे फिर भी अलगाव रहेगा लेकिन सब शरीरों के बीच मैं बस रहा हूँ यह जान ले।
मयि सर्वामिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।
यह संपूर्ण जगत सूत्र में मणियों के सदृश मेरे में गूँथा हुआ है। यह मुझ चैतन्य को, कृष्णतत्त्व को तू अपने में जान लेगा और उसकी शरण रहेगा तो फिर कभी मुझसे अलगाव होगा ही नहीं। जब तक तू मुझ अन्तर्यामी की शरण नहीं जायेगा तब तक माया के गुण तुझे बाँधते रहेंगे, माया अपने बहाव में तुझे बहाती रहेगी।"
माया का मतलब है धोखा। कभी सात्विक धोखा, कभी राजस धोखा, कभी कभी तामस धोखा। जिन गुणों का प्रमाण ज्यादा होता है उस अनुसार उसका प्रभाव दिखाई देता है। जब सत्त्वगुण बढ़ता है तो आदमी स्वस्थ, फुर्तीला, प्रसन्न लगता है। वह अपने को ज्ञानी-ध्यानी मानता है। जब सत्त्वगुण कम होता है और रजोगुण बढ़ता है तो अति प्रवृत्तिशील होता है, अपने को चतुर, चालाक, धनी, दानी मानता है। जब सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ जाता है तब आदमी आलसी-प्रमादी बन जाता है, क्षुद्र अहंकार में उलझा रहता है।
आदमी जिस गुण के प्रभाव में जीता है, ऐसी ही इच्छाएँ, वासनाएँ, रूचियाँ पैदा हो जाती हैं।
जैसे, किसी गडरिये का 11 साल का लड़का हो और भैंसे चराता हो, तो वह 15 भैंसे तो आसानी से चरा लेता है पर उसे 15 अक्षर लिखने में कठिनाई मालूम पड़ती है। ऐसे ही हम सदियों से प्रकृति के गुणों के आधीन जीते आये हैं। अभी भी प्रकृति के गुणों के आधीन जीते हैं। शरीर को 'मैं' और संसार को सच्चा मानते हैं तो बुद्धि संसार में ही उलझी रहती है, अपनी ओर नहीं आती। हलकी बुद्धिवाले, हलके कर्म करने वाले लोग सत्संग में नहीं आ पाते हैं। उन्हें सत्संग अच्छा नहीं लगाता है।
तामसी लोग कहते हैं- "मैं कोई जैसा-तैसा आदमी नहीं हूँ। चार चिलम पी जाता हूँ और हमारे दादागुरू सबके सरदार थे। मैं ऐसे गुरू का चेला हूँ। दो चिलम पीता हूँ, फिर तीन घंटे भजन में बैठता हूँ।"
भजन में क्या बैठता है खाक ? वीर्यनाश हो जाता है, ज्ञानतन्तु शून्य हो जाते हैं, तो पड़ा रहता है तीन घंटे सुनसान होकर। यह भजन हुआ क्या ? यह तो तामसी माया है।
रजोगुणी आदमी प्रवृत्तिपरायण रहता है। कुछ न कुछ करते रहना, घूमना फिरना, मिलना-जुलना, सिनेमा-थियेटर जाना आदि उसे अच्छा लगता है।
एक लड़का अपने दोस्त से कह रहा हैः "तुझे मिले बिना चैन नहीं आता। जब तक तेरा दीदार नहीं होता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। चाहे आँधी हो या तूफान, तुझे मिले बिना नहीं रह पाता हूँ।"
वह लड़का जब जाने लगा तब दोस्त ने उससे पूछाः
"जा रहे हो ? कल आओगे न ?"
लड़काः "आऊँगा......कोशिश करूँगा.....।"
अभी तो कहता था 'तेरे बिना चैन नहीं।' अब कहता है 'कोशिश करूँगा।' जीव को बेचारे को पता ही नही है कि वह करना क्या चाहता है और करता क्या है। यह भी माया का ही खेल है।
जो माया के खेल के पार होना चाहते है, उन्हें अपने अंतर्यामी की शरण जाना चाहिए, अपने असली स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! जो देह को 'मैं' मानते हैं उनके लिये तो संसारसागर पार करना बड़ा कठिन है। लेकिन जिनके पाप नष्ट हो गये है, जो विचार वान हैं, जिनका हृदय शुद्ध है, जो सत्त्वप्रधान हैं, जिनको सदगुरू की छाया मिली है, उनके लिये संसारसागर से तरना आसान है।"
सदगुरू की छाया तो मिले पर सदगुरू में अटूट श्रद्धा बनी रहे यह बात जरूरी है। ईश्वर में तो श्रद्धा हो सकती है लेकिन सदगुरू में श्रद्धा बनी रहे यह कठिन है। लाखों-लाखों शिष्यों में से कोई विरला ऐसा मिलेगा जिसको गुरूओं में कोई दोष न दिखे क्योंकि गुरू तो देहधारी होते हैं और हमारी तरह ही उठते-बैठते, खाते-पीते, लेते देते दिखते हैं। पर उनकी भीतर की स्थिति हम नहीं जान पाते है। वे देह में होते हुए भी देह से पार, तीनों गुणों से पार बैठे हुए होते हैं। हम देह में जीते हैं तो गुरू को भी देह बुद्धि के तराज में ही तोलते हैं। चाहे हजारों देवी देवताओं को मनाते रहो, रिझाते रहो, जब तक सदगुरू मे अटूट श्रद्धा नहीं हुई तब तक काम नहीं बनेगा। कोई कपड़े और गहने से अपने को सजाए रखने में मानता है, कोई पद-प्रतिष्ठा को मानता है, रूपये पैसे को मानता है। इनसे तो देवी देवता को मानने वाला ठीक है। लेकिन सारी मान्यताएँ जिस अंतःकरण से उत्पन्न होती हैं, उस अंतःकरण को सत्ता देने वाले आत्मा को जानना है। उसे जानना दुर्गम भी है और सुगम भी उतना ही है।
वशिष्ठ जी कहते है- "हे राम जी ! फूल पत्ती को तोड़ने में परिश्रम है, अपने आत्मा को जानने मे कोई परिश्रम नहीं है।"
......और कठिन भी उतना ही है कि आकाश चला जाय, पाताल चला जाय, स्वर्ग या नर्क चला जाय यह आसान है पर यहाँ, हृदय गुहा में केवल आधा इंच दूरी पर आना कठिन है।"
तुम बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, लंदन, अमेरिका जाओगे और लौटकर अपने घर आ जाओगे। लेकिन यहाँ आत्मा में आने में एक इंच भी दूरी नहीं और आज तक वहाँ पहुँचे नही हैं, क्योंकि कठिन है। सरल भी उतना ही है कि वहाँ पहुँचने में कोई झंझट नहीं है। न टिकट चाहिए न वीसा, न जाना है, न जाकर आना है। जहाँ है वहीं जरा भीतर गोता मार लिया कि पहुँच गये। एक बार ठीक से वहाँ पहुँच गये, फिर लौटने की बात ही नहीं। जहाँ जाओ वहाँ वही नजर आयेगा। संसार में इस देह से तो तुम अहमदाबाद मे होते हो तो बम्बई में नहीं होते हो और बंबई में होते हो तो अहमदाबाद में नहीं होते हो। जहाँ जाते हो वहाँ से अपने स्थान में लौटना पड़ता है लेकिन जब आत्मा में पहुँचोगे तो अपने को पूरे ब्रह्मांड में फैले हुए व्यापक स्वरूप में पाओगे।
यह ऊँचे में ऊँचा स्थान है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पद भी तुम्हारी व्यापकता में तुच्छ नजर आएँगे। यह रहस्य समझ में तो आता है, समझाया नहीं जाता है। इस ऊँचाई को पाना दुस्तर है, असंभव नहीं है। यह कठिन इसलिए लगता है कि हम गुणों में जी रहे हैं, गुणों से प्रभावित शरीरों में, ऐसे व्यक्तियों के बीच जीते हैं। सारा वक्त गुणों की बातों में, माया की बातों में गँवा देते हैं।
जो गुणों से पार हुए हों और हमें भी गुणों से पार ले जा सकें ऐसे ज्ञानी गुरूओं का, महापुरूषों का संग नही है। कइयों को संग मिल जाता है पर....'उसका लड़का ऐसा है... उसकी बहू वैसी है.....।' बस जहाँ देखो वहाँ, जब देखो तब यही आकृतियों की चर्चा होती है, मरने वाले हाड़-मांस के शरीरों की चर्चा होती है और बदलने वाली परिस्थितियों की चर्चा होती है। अबदल आत्मा का ज्ञान तो बड़े पुण्यों से सुनने को मिलता है। बहुमति गुणों में जीने वालों की है, उन्हें आत्मज्ञान की, तत्त्वज्ञान की बाते सुनाएँगे तो रूखापन आ जायगा पर गुणों की बात करेंगे तो रस आने लगेगा।
बड़ी उम्रवाले पति-पत्नी बम्बई की एक फाईव स्टार होटल में गये। हेयर डाई और मेक-अप आदि करने से कुछ बुढ़ापा भी छिप रहा था, वे कुछ जवान लग रहे थे। दोनों ने पहले आईस-क्रीम मँगवाया और खा लिया। फिर बैरे को आर्डर दियाः "एक डिनर प्लेट लाओ। बैरे ने डिनर प्लेट रख दी।
बैरा बड़े गौर से उन्हें देखता था। डिनर की प्लेट रखता जाय और टेढ़ी आँख से इन पति पत्नी की ओर देखता जाय। पति भोजन कर रहा है, पत्नी पंखा हाँक रही है। बैरे को लगा यह लैला मजनूँ की जोड़ी कहाँ से आई ! थोड़ी देर बाद उन्होंने दूसरी प्लेट मँगवाई। अब पत्नी खा रही है और पति पंखा हाँक रहा है। बैरे से रहा नहीं गया। आखिर उसने पूछ ही लियाः "आप दोनों में इतना स्नेह है तो आपने दोनों डिनर प्लेट साथ में क्यों नहीं मँगवाई ?"
उन्होंने कहाः "तेरी बात तो ठीक है, लेकिन हम दोनों के बीच दाँत की चौखट एक ही है। इसलिए बारी-बारी से अलग-अलग डिनर मँगवाये।"
ऐसी बातें तो रसीली लगेंगी क्योंकि हम गुणों में जीते हैं। निर्गुण तत्त्व में शुरू में तो रस नहीं आता है, पर सारे रस उसी से आते हैं।
जिनका हृदय शुद्ध है, जो ज्ञानवान हैं तथा जो इस त्रिगुणात्मक माया से तर चुके हैं ऐसे सदगुरूओं की बातों में हमारी रूचि पैदा नहीं होती है। उनके श्रीचरणों में श्रद्धा नहीं होती है। श्रद्धा हो भी जाय उनकी बातों में, रूचि भी पैदा हो जाये पर उसमें लगे रहने की दृढ़ता नहीं होती है तो जीव बेचारा माया में ही अटक जाता है। माया से पार नहीं हो पाता है।
जो देह को 'मैं' मानते हैं ऐसे लोग देह से संबंधित व्यवहार में और चीज वस्तु की उपलब्धियों में ही अपने को सुखी मानते हैं। देह से संबंधित व्यवहार में कुछ गड़बड़ हुई या चीज वस्तुएँ चली गई तो अपने को अभागा मानते हैं। ऐसे अभागों की तो भीड़ है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो देह से संबंधित व्यवहार भी संभालते हैं और भगवान का भजन भी करते हैं। ऐसे लोग मृत्यु के बाद ऊँचे लोक में जाते हैं लेकिन कोई-कोई ऐसे होते हैं जो देह को, देह से संबंधित व्यवहार और उपलब्धियों को तथा सभी लोकों को मायामात्र जानकर, अपने को अन्तर्यामी चैतन्य आत्मा, साक्षी, दृष्टा, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन जानकर उसी पद में स्थित रहते हैं। वे माया से पार होकर परम कार्य साध लेते हैं।

Sunday, July 18, 2010



व्यासपूर्णिमा पुस्तक से - Vyaas-purnima pustak se

अन्य देवी देवताओं की पूजा के बाद भी किसी की पूजा करना शेष रह जाता है लेकिन सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सदगुरू की पूजा के बाद और किसी की पूजा करना शेष नहीं रहता। गुरू वे हैं जो शिष्य को सदा के लिए शिष्य न रखे, शिष्य को संसार में डूबने वाला न रखें, शिष्य को जन्मने और मरने वाले न रखें। शिष्य को जीव में से ब्रह्म बनाने का मौका खोजते हों वे गुरू हैं, वे परम गुरू हैं, वे सदगुरू हैं। सच्चे गुरू शिष्य को शिष्यत्व से हटाकर, जीवत्व से हटाकर, ब्रह्मत्व में आराम और चैन दिलाने के लिए, ब्रह्मरस की परम तृप्ति और परमानन्द की प्राप्ति कराने की ताक में रहते हैं। ऐसे गुरू की आज्ञा को स्वीकार कर जो चल पड़े वह सच्चा शिष्य है।
दुनियाँ के सब धर्मग्रन्थ, संप्रदाय, मजहब रसातल में चले जायें फिर भी पृथ्वी पर एक सदगुरू और एक सत्शिष्य हैं तो धर्म फिर से प्रकट होगा, शास्त्र फिर से बन जाएंगे, क्योंकि सदगुरू शिष्य को अमृत-उपदेश दिये बिना नहीं रहेंगे। और वही अमृत-उपदेश शास्त्र बन जायेगा। जब तक पृथ्वी पर एक भी ब्रह्मवेत्ता सदगुरू हैं और उनको ठीक से स्वीकार करने वाला सत्शिष्य है तब तक धर्मग्रन्थों का प्रारंभ फिर से हो सकता है। मानव जाति को जब तक ज्ञान की पिपासा रहेगी तब तक ऐसे सदगुरूओं का आदर-पूजन बना रहेगा।
प्राचीन काल में उन महापुरूषों को इतना आदर मिलता था किः
गुरू गोविन्द दोनों खड़े किसको लागूं पाय।
बलिहारी गुरूदेव की गोविन्द दियो दिखाय।।
वे लोग अपने हृदय में गोविन्द से भी बढ़कर स्थान अपने गुरू को देते थे। गोविन्द ने जीव करके पैदा किया लेकिन गुरू ने जीव में से ब्रह्म करके सदा के लिए मुक्त कर दिया। माँ-बाप देह में जन्म देते हैं लेकिन गुरू उस देह में रहे हुए विदेही का साक्षात्कार कराके परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित कराते हैं, अपने आत्मा की जागृति कराते हैं।
न्यायाधीश न्याय की कुर्सी पर बैठकर, न्याय तो कर सकता है लेकिन न्यायालय की तौहीन नहीं कर सकता, उससे न्यायालय का अपमान नहीं किया जाता। उस ऋषिपद का, गुरूपद का उपयोग करके हम संसारी जाल से निकलकर परमात्म-प्राप्ति कर सकते हैं। ईश्वर अपना अपमान सह लेते हैं लेकिन गुरू का अपमान नहीं सहता ।
देवर्षि नारद ने वैकुण्ठ में प्रवेश किया। भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी उनका खूब आदर करने लगे। आदिनारायण ने नारदजी का हाथ पकड़ा और आराम करने को कहा। एक तरफ भगवान विष्णु नारद जी की चम्पी कर रहे हैं और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी पंखा हाँक रही हैं। नारद जी कहते हैं- "भगवान ! अब छोड़ो। यह लीला किस बात की है ? नाथ ! यह क्या राज समझाने की युक्ति है ? आप मेरी चम्पी कर रहे हैं और माता जी पंखा हाँक रही हैं ?"
"नारद ! तू गुरूओं के लोक से आया है। यमपुरी में पाप भोगे जाते हैं, वैकुण्ठ में पुण्यों का फल भोगा जाता है लेकिन मृत्युलोक में सदगुरू की प्राप्ति होती है और जीव सदा के लिए मुक्त हो जाता है। मालूम होता है, तू किसी गुरू की शरण ग्रहण करके आया है।"
नारदजी को अपनी भूल महसूस कराने के लिए भगवान ये सब चेष्टाएँ कर रहे थे।
नारद जी ने कहाः "प्रभु ! मैं भक्त हूँ लेकिन निगुरा हूँ। गुरू क्या देते हैं ? गुरू का माहात्म्य क्या होता है यह बताने की कृपा करो भगवान !"
"गुरू क्या देते हैं..... गुरु का माहात्म्य क्या होता है यह जानना हो तो गुरूओं के पास जाओ। यह वैकुण्ठ है, खबरदार....."
जैसे पुलिस अपराधियों को पकड़ती है, न्यायाधीश उन्हें नहीं पकड़ पाते, ऐसे ही वे गुरूलोग हमारे दिल से अपराधियों को, काम-क्रोध-लोभ-मोहादि विकारों को निकाल निकाल कर निर्विकार चैतन्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति में सहयोग देते हैं और शिष्य जब तक गुरूपद को प्राप्त नहीं होता है तब तक उस पर निगरानी रखते रखते जीव को ब्रह्मयात्रा कराते रहते हैं।
"नारद ! जा, तू किसी गुरू की शरण ले। बाद में इधर आ।"
देवर्षि नारद गुरू की खोज करने मृत्युलोक में आये। सोचा कि मुझे प्रभातकाल में जो सर्वप्रथम मिलेगा उसको मैं गुरू मानूँगा। प्रातःकाल में सरिता के तीर पर गये। देखा तो एक आदमी शायद स्नान करके आ रहा है। हाथ में जलती अगरबत्ती है। नारद जी ने मन ही मन उसको गुरू मान लिया। नजदीक पहुँचे तो पता चला कि वह माछीमार है, हिंसक है। (हालाँकि आदिनारायण ही वह रूप लेकर आये थे।) नारदजी ने अपना संकल्प बता दिया किः "हे मल्लाह ! मैंने तुमको गुरू मान लिया है।"
मल्लाह ने कहाः "गुरू का मतलब क्या होता है ? हम नहीं जानते गुरू क्या होता है ?"
"गु माने अन्धकार। रू माने प्रकाश। जो अज्ञानरूपी अन्धकार को हटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश कर दें उन्हें गुरू कहा जाता है। आप मेरे आन्तरिक जीवन के गुरू हैं।" नारदजी ने पैर पकड़ लिये।
"छोड़ो मुझे !" मल्लाह बोला।
"आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लो गुरूदेव!"
मल्लाह ने जान छुड़ाने के लिए कहाः "अच्छा, स्वीकार है, जा।"
नारदजी आये वैकुण्ठ में। भगवान ने कहाः
"नारद ! अब निगुरा तो नहीं है ?"
"नहीं भगवान ! मैं गुरू करके आया हूँ।"
"कैसे हैं तेरे गुरू ?"
"जरा धोखा खा गया मैं। वह कमबख्त मल्लाह मिल गया। अब क्या करें ? आपकी आज्ञा मानी। उसी को गुरू बना लिया।"
भगवान नाराज हो गयेः "तूने गुरू शब्द का अपमान किया है।"
न्यायाधीश न्यायालय में कुर्सी पर तो बैठ सकता है, न्यायालय का उपयोग कर सकता है लेकिन न्यायालय का अपमान तो न्यायाधीश भी नहीं कर सकता। सरकार भी न्यायालय का अपमान नहीं करती।
भगवान बोलेः "तूने गुरूपद का अपमान किया है। जा, तुझे चौरासी लाख जन्मों तक माता के गर्भों में नर्क भोगना पड़ेगा।"
नारद रोये, छटपटाये। भगवान ने कहाः "इसका इलाज यहाँ नहीं है। यह तो पुण्यों का फल भोगने की जगह है। नर्क पाप का फल भोगने की जगह है। कर्मों से छूटने की जगह तो वहीं है। तू जा उन गुरूओं के पास मृत्युलोक में।"
नारद आये। उस मल्लाह के पैर पकड़ेः "गुरूदेव ! उपाय बताओ। चौरासी के चक्कर से छूटने का उपाय बताओ।"
गुरूजी ने पूरी बात जान ली और कुछ संकेत दिये। नारद फिर वैकुण्ठ में पहुँचे। भगवान को कहाः "मैं चौरासी लाख योनियाँ तो भोग लूँगा लेकिन कृपा करके उसका नक्शा तो बना दो ! जरा दिखा तो दो नाथ ! कैसी होती है चौरासी ?
भगवान ने नक्शा बना दिया। नारद उसी नक्शे में लोटने-पोटने लगे।
"अरे ! यह क्या करते हो नारद ?"
"भगवान ! वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह चौरासी भी आपकी ही बनायी हुई है। मैं इसी में चक्कर लगाकर अपनी चौरासी पूरी कर रहा हूँ।"
भगवान ने कहाः "महापुरूषों के नुस्खे भी लाजवाब होते हैं। यह युक्ति भी तुझे उन्हीं से मिली नारद ! महापुरूषों के नुस्खे लेकर जीव अपने अतृप्त हृदय में तृप्ति पाता है। अशान्त हृदय में परमात्म शान्ति पाता है। अज्ञान तिमिर से घेरे हुए हृदय में आत्मज्ञान का प्रकाश पाता है।"
जिन-जिन महापुरूषों के जीवन गुरूओं का प्रसाद आ गया है वे ऊँचे अनुभव को, ऊँची शान्ति को प्राप्त हुए हैं। हमारी क्या शक्ति है कि उन महापुरूषों का, गुरूओं का बयान करे ? वे तत्त्ववेत्ता पुरूष, वे ज्ञानवान पुरूष जिसके जीवन में निहार लेते हैं, ज्ञानी संत जिसके जीवन में जरा-सी मीठी नजर डाल देते हैं उसका जीवन मधुरता के रास्ते चल पड़ता है।
ऐसे परम पुरूषों की हम क्या महिमा गायें ? जिन्होंने जितना सुना, जितना जाना, जितना वह कह सके उतना कहा लेकिन उन ज्ञानवान पुरूषों की महिमा का पूरा गान कोई नहीं कर सका। लोग गाते थे, गा रहे हैं और गाते ही रहेंगे। श्रीकृष्ण और श्रीरामचन्द्रजी अपने गुरूओं के द्वार पर जाकर ब्रह्मविद्या का पान करते थे। व्यासपुत्र शुकदेवजी ने जनक से ज्ञान पाया। जनक ने अष्टावक्र से पाया।
एक सत्शिष्य ने गौड़देश से पैदल चलकर आत्मज्ञान की जिज्ञासा व्यक्त की, शुकदेवजी के चरणों में आत्मलाभ हुआ तब उनका नाम गौड़पादाचार्य। गौड़पादाचार्या से आत्मलाभ पाया गोविन्दपादाचार्या ने। वे भगवान गोविन्दपादाचार्य नर्मदा किनारे ओंकारेश्वर तीर्थ में एकान्त अरण्य आत्मलाभ प्राप्त करके उसी आत्मशान्ति में, उसी अलौकिक परब्रह्म परमात्मा की शान्ति में ध्यानमग्न थे।
कई संन्यासियों को पता चला कि भगवान गोविन्दपादाचार्य परब्रह्म परमात्मा को पाये हुए आत्म-साक्षात्कारी महापुरूष हैं। उन्हें अपने स्वरूप का बोध हो गया है। उन्होंने अपने दिल में दिलबर का आराम पाया है। नर्मदा किनारे तप करने वाले तपस्वी गोविन्दपादाचार्य के दर्शन करने के लिए वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। रहते रहते बूढ़े हो गये लेकिन गोविन्दपादाचार्य की समाधि नहीं खुली। इतने में दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से पैदल चलते हुए दो महीने से भी अधिक समय तक यात्रा करने के बाद शंकर नाम का बालक पहुँचा उन संन्यासियों के पास।
"मैंने नाम सुना है भगवान गोविन्दपादाचार्य का। वे पूज्यपाद आचार्य कहाँ रहते हैं ?"
संन्यासियों ने बताया किः "हम भी उनके दर्शन का इन्तजार करते-करते बूढ़े हो चले। उनकी समाधि खुले, उनकी अमृत बरसाने वाली निगाहें हम पर पड़ें, उनके ब्रह्मानुभव के वचन हमारे कानों में पड़े और कान पवित्र हों इसी इन्तजार में हम भी नर्मदा किनारे अपनी कुटियाएँ बनाकर बैठे हैं।"
संन्यासियों ने उस बालक को निहारा। वह बड़ा तेजस्वी लग रहा था। इस बाल संन्यासी का सम्यक् परिचय पाकर उनका विस्मय बढ़ गया। कितनी दूर केरल प्रदेश ! यह बच्चा वहाँ से अकेला ही आया है श्रीगुरू की आश में। जब उन्होंने देखा कि इस अल्प अवस्था में ही वह भाष्य समेत सभी शास्त्रों में पारंगत है और इसके फलस्वरूप उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया है तो उन सबका मन प्रसन्नता से भर गया। मुग्ध होते हुए पूछाः
"क्या नाम है बेटे ?"
"मेरा नाम शंकर है।"
बच्चे की ओजस्वी वाणी और तीव्र जिज्ञासा देखकर उन्होंने समाधिस्थ बैठे महायोगी गुरूवर्य श्री गोविन्दपादाचार्य के बारे में कुछ बातें कही। वह निर्दोष नन्हा बालक भगवान गोविन्दपादाचार्य के दर्शन के लिए तड़प उठा। संन्यासियों ने कहाः
"वह दूर जो गुफा दिखाई दे रही है उसमें वे समाधिस्थ हैं। अन्धेरी गुफा में दिखाई नहीं पड़ेगा इसलिए यह दीपक ले जा।"
दीया जलाकर उस बालक ने गुफा में प्रवेश किया। विस्मय से विमुग्ध होकर देखा तो एक अति दीर्घकाय, विशाल-भाल-प्रदेशवाले, शान्त मुद्रा, लम्बी जटा और कृश देहवाले फिर भी पूरी आध्यात्मिकता के तेज से आलोकित एक महापुरूष पद्मासन में समाधिस्थ बैठे थे। शरीर की त्वचा सूख चुकी थी फिर भी उनका शरीर ज्योतिर्मय था। भगवान का दर्शन करते ही शंकर का रोम-रोम पुलकित हो उठा। मन एक प्रकार से अनिर्वचनीय दिव्यानन्द से भर उठा। अबाध अश्रुजल से उनका वक्षः स्थल प्लावित हो गया। उसकी यात्रा का परिश्रम सार्थक हो गया। सारी थकान उतर गयी। करबद्ध होकर वे स्तुति करने लगेः
"हे प्रभो ! आप मुनियों में श्रेष्ठ हैं। आप शरणागतों को कृपाकर ब्रह्मज्ञान देने के लिए पतंजली के रूप में भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं। महादेव के डमरू की ध्वनि के समान आपकी भी महिमा अनंत एवं अपार है। व्याससुत शुकदेव के शिष्य गौड़पाद से ब्रह्मज्ञान का लाभ पाकर आप यशस्वी हुए हैं। मैं भी ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति की कामना से आपके श्रीचरणों में आश्रय की भिक्षा माँगता हूँ। समाधि-भूमि से व्युत्थित होकर इस दीन शिष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदान कर आप कृतार्थ करें।"
इस सुललित भगवान की ध्वनि से गुफा मुखरित हो उठी। तब अन्य संन्यासी भी गुफा में आ इकट्ठे हुए। शंकर तब तक स्तवगान में ही मग्न थे। विस्मय विमुग्ध चित्त से सबने देखा कि भगवान गोविन्दपाद की वह निश्चल निस्पन्द देह बार-बार कम्पित हो रही है। प्राणों का स्पन्दन दिखाई देने लगा। क्षणभर में ही उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर चक्षु उन्मीलित किये।
शंकर ने गोविन्दपादाचार्य भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। दूसरे संन्यासी भी योगीश्वर के चरणों में प्रणत हुए। आनंदध्वनि से गुफा गुंजित हो उठी। तब प्रवीण संन्यासीगण योगीराज को समाधि से सम्पूर्ण रूप से व्यथित कराने के लिए यौगिक प्रकियाओं में नियुक्त हो गये। क्रम से योगीराज का मन जीवभूमि पर उतर आया। यथा समय आसन का परित्याग कर वे गुफा से बाहर निकले।
योगीराज की सहस्रों वर्षों की समाधि एक बालक संन्यासी के आने से छूट गई है, यह संवाद द्रुतगति से चतुर्दिक फैल गया। सुदूर स्थानों से यतिवर की दर्शनाकांक्षा से अगणित नर-नारियों ने आकर ओंकारनाथ को एक तीर्थक्षेत्र में परिणत कर दिया। शंकर का परिचय प्राप्त कर गोविन्दापादाचार्य ने जान लिया कि यही वह शिवावतार शंकर है, जिसे अद्वैत ब्रह्मविद्या का उपदेश करने के लिए हमने सहस्र वर्षों तक समाधि में अवस्थान किया और अब यही शंकर वेद-व्यास रचित ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर जगत में अद्वैत ब्रह्मविद्या का प्रचार करेगा।
तदनंतर एक शुभ दिन श्रीगोविन्दपादाचार्य ने शंकर को शिष्य रूप में ग्रहण कर लिया और उसे योगादि की शिक्षा देने लगे। अन्यान्य संन्यासियों ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। प्रथम वर्ष उन्होंने शंकर को हठयोग की शिक्षा दी। वर्ष पूरा होने के पूर्व ही शंकर ने हठयोग में पूर्ण सिद्ध प्राप्त कर ली। द्वितीय वर्ष में शंकर राजयोग में सिद्ध हो गये। हठयोग और राजयोग की सिद्धि प्राप्ति करने के फलस्वरूप शंकर बहुत बड़ी अलौकिक शक्ति के अधिकारी बन गये। दूरश्रवण, दूरदर्शन, सूक्ष्म देह से व्योममार्ग में गमन, अणिमा, लघिमा, देहान्तर में प्रवेश एवं सर्वोपरि इच्छामृत्यु शक्ति के वे अधिकारी हो गये। तृतीय वर्ष में गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य को विशेष यत्नपूर्वक ज्ञानयोग की शिक्षा देने लगे। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, धारणा, समाधि का प्रकृत रहस्य सिखा देने के बाद उन्होंने अपने शिष्य को साधनकर्मानुसार अपरोक्षनुभूति के उच्च स्तर में दृढ़ प्रतिष्ठित कर दिया।
ध्यानबल से समाधिस्थ होकर नित्य नव दिव्यानुभूति से शंकर का मन अब सदैव एक अतीन्द्रिय राज्य में विचरण करने लगा। उनकी देह में ब्रह्मज्योति प्रस्फुटित हो उठी। उनके मुखमण्डल पर अनुपम लावण्य और स्वर्गीय हास झलकने लगा। उनके मन की सहज गति अब समाधि की ओर थी। बलपूर्वक उनके मन को जीवभूमि पर रखना पड़ता था। क्रमशः उनका मन निर्विकल्प भूमि पर अधिरूढ़ हो गया।
गोविन्दपादाचार्य ने देखा कि शंकर की साधना और शिक्षा अब समाप्त हो चुकी है। शिष्य उस ब्राह्मी स्थिति में उपनीत हो गया है जहाँ प्रतिष्ठित होने से श्रुति कहती हैः
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।
यह परावर ब्रह्म दृष्ट होने पर दृष्टा का अविद्या आदि संस्काररूप हृदयग्रन्थि-समूह नष्ट हो जाता है एवं (प्रारब्धभिन्न) कर्मराशि का क्षय होने लगता है। शंकर अब उसी दुर्लभ अवस्था में प्रतिष्ठित हो गये।
वर्षा ऋतु का आगमन हुआ। नर्मदा-वेष्टित ओंकारनाथ की शोभा अनुपम हो गयी। कुछ दिनों तक अविराम दृष्टि होती रही। नर्मदा का जल क्रमशः बढ़ने लगा। सब कुछ जलमय ही दिखाई देने लगा। ग्रामवासियों ने पालतू पशुओं समेत ग्राम का त्यागकर निरापद उच्च स्थानों में आश्रय ले लिया।
गुरूदेव कुछ दिनों से गुफा में समाधिस्थ हुए बैठे थे। बाढ़ का जल बढ़ते-बढ़ते गुफा के द्वार तक आ पहुँचा। संन्यासीगण गुरूदेव का जीवन विपन्न देखकर बहुत शंकित होने लगे। गुफा में बाढ़ के जल का प्रवेश रोकना अनिवार्य था क्योंकि वहाँ गुरूदेव समाधिस्थ थे। समाधि से व्युत्थित कर उन्हे किसी निरापद स्थान पर ले चलने के लिये सभी व्यग्र हो उठे। यह व्यग्रता देखकर शंकर कहीं से मिट्टी का एक कुंभ ले आये और उसे गुफा के द्वार पर रख दिया। फिर अन्य संन्यासियों को आश्वासन देते हुए बोलेः "आप चिन्तित न हों। गुरूदेव की समाधि भंग करने की कोई आवश्यकता नहीं। बाढ़ का जल इस कुंभ में प्रविष्ट होते ही प्रतिहत हो जायेगा, गुफा में प्रविष्ट नहीं हो सकेगा।"
सबको शंकर का यह कार्य बाल क्रीड़ा जैसा लगा किन्तु सभी ने विस्मित होकर देखा कि जल कुंभ में प्रवेश करते ही प्रतिहत एवं रूद्ध हो गया है। गुफा अब निरापद हो गई है। शंकर की यह अलौकिक शक्ति देखकर सभी अवाक् रह गये।
क्रमशः बाढ़ शांत हो गई। गोविन्दपादाचार्य भी समाधि से व्युत्थित हो गये। उन्होंने शिष्यों के मुख से शंकर के अमानवीय कार्य की बात सुनी तो प्रसन्न होकर उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहाः
"वत्स ! तुम्हीं शंकर के अंश से उदभूत लोक-शंकर हो। गुरू गौड़पादचार्य के श्रीमुख से मैंने सुना था कि तुम आओगे और जिस प्रकार सहस्रधारा नर्मदा का स्रोत एक कुंभ में अवरूद्ध कर दिया है उसी प्रकार तुम व्यासकृत ब्रह्मसूत्र पर भाष्यरचना कर अद्वैत वेदान्त को आपात विरोधी सब धर्ममतों से उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित करने में सफल होंगे तथा अन्य धर्मों को सार्वभौम अद्वैत ब्रह्मज्ञान के अन्तर्भुक्त कर दोगे। ऐसा ही गुरूदेव भगवान गौड़पादाचार्य ने अपने गुरूदेव शुकदेव जी महाराज के श्रीमुख से सुना था। इन विशिष्ट कार्यो के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम समग्र वेदार्थ ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिपिबद्ध करने में सफल होंगे।"
श्री गोविन्दपादाचार्य ने जान लिया कि शंकर की शिक्षा समाप्त हो गई है। उनका कार्य भी सम्पूर्ण हो गया है। एक दिन उन्होंने शंकर को अपने निकट बुलाकर जिज्ञासा कीः
"वत्स ! तुम्हारे मन में किसी प्रकार का कोई सन्देह है क्या ? क्या तुम भीतर किसी प्रकार अपूर्णता का अनुभव कर रहे हो ? अथवा तुम्हें अब क्या कोई जिज्ञासा है ?"
शंकर ने आनन्दित हो गुरूदेव को प्रणाम करके कहाः
"भगवन ! आपकी कृपा से अब मेरे लिए ज्ञातव्य अथवा प्राप्तव्य कुछ भी नहीं रहा। आपने मुझे पूर्णमनोरथ कर दिया है। अब आप अनुमति दें कि मैं समाहित चित्त होकर चिरनिर्वाण लाभ करूँ।"
कुछ देर मौर रहकर श्री गोविन्दपादाचार्य ने शान्त स्वर में कहाः
"वत्स ! वैदिक धर्म-संस्थापन के लिए देवाधिदेव शंकर के अंश से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हें अद्वैत ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने के लिए मैं गुरूदेव की आज्ञा से सहस्रों वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। अन्यथा ज्ञान प्राप्त करते ही देहत्याग कर मुक्तिलाभ कर लेता। अब मेरा कार्य समाप्त हो गया है। अब मैं समाधियोग से स्वस्वरूप में लीन हो जाऊँगा। तुम अब अविमुक्त क्षेत्र में जाओ। वहाँ तुम्हें भवानिपति शंकर के दर्शन प्राप्त होंगे। वे तुम्हें जिस प्रकार का आदेश देंगे उसी प्रकार तुम करना।"
शंकर ने श्रीगुरूदेव का आदेश शिरोधार्य किया। तदनन्तर एक शुभ दिन श्रीगोविन्दपादाचार्य ने सभी शिष्यों को आशीर्वाद प्रदान कर समाधि योग से देहत्याग कर दिया। शिष्यों ने यथाचार गुरूदेव की देह का नर्मदाजल में योगीजनोचित संस्कार किया।
गुरूदेव की आज्ञा के अनुसार शंकर पैदल चलते-चलते काशी आये। वहाँ काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। भगवान वेदव्यास का स्मरण किया तो उन्होंने भी दर्शन दिये।
अपनी की हुई साधना, वेदान्त के अभ्यास और सदगुरू की कृपा से अपने शिवस्वरूप में जगे हुए शंकर 'भगवान श्रीमद् आद्य शंकराचार्य' हो गये।
बाद में वे मंडनमिश्र के घर शास्त्रार्थ करने गये। मंडनमिश्र बड़े विद्वान थे। उनके घर में पाले हुए तोते मैना भी वेद का पाठ करते थे वे ऐसे धुरन्धर पंडित थे। लेकिन शंकराचार्य सदगुरू प्रसाद से आत्मानुभव में परितृप्त थे। उन्होंने मंडनमिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। वे ही मंडनमिश्र फिर शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक हुए, सुरेश्वाचार्य। शंकराचार्य का दूसरा शिष्य तोटक तो अनपढ़ था। फिर भी शंकराचार्य की कृपा पचाने में सफल हो गया। तोटक, तोटक नहीं बचा, तोटकाचार्य हो गया।
देवगढ़ के दीवान साहब जनार्दन स्वामी से आत्मज्ञान पाकर एकनाथ, संत एकनाथ जी के रूप में प्रकट हुए। उनके आश्रम में एक विधवा माई का लड़का पूरणपोड़ी खाने के लिए रहा करता था। उसका नाम ही पड़ गया था पूरनपोड़ा। संत एकनाथ जी में उसकी अटूट श्रद्धा-भक्त थी। संत एकनाथजी जब संसार से प्रयाण करने को थे तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहाः "मैं एक ग्रन्थ लिख रहा हूँ जिसे पूरा नहीं कर सकूँगा। मेरे जाने के बाद पूरनपोड़ा से कहना, वह उस ग्रन्थ को पूरा कर देगा।"
व्यवस्थातंत्र के लोगों ने कहा किः "आपका बेटा हरि पण्डित पढ़ लिखकर शास्त्री हुआ है, वह ग्रंथ पूरा करेगा। यह अनपढ़ लड़का क्या पूरा करेगा ?"
एकनाथ जी ने कहाः "वह लड़का मुझे पिता मानता है, गुरू नहीं मानता। मेरे प्रति उसकी पिताबुद्धि है, गुरूबुद्धि नहीं है। मेरे प्रति उसमें श्रद्धा नहीं है और बिना श्रद्धा के ज्ञान हृदय में प्रविष्ट नहीं होता। पूरनपोड़ा पूरनपूड़ी खाने की आदतवाला तो है लेकिन साथ ही साथ उसके अन्दर श्रद्धा की सुहावनी धारा है। वही पूरनपोड़ा ग्रन्थ पूरा कर सकेगा। तुम चाहो तो पहले भले मेरे बेटे को ग्रंथ पूरा करने के लिए देना। लेकिन जब न कर पाये तो पूरनपोड़ा तो जरूर ही कर देगा।
हुआ भी ऐसा ही। वह शास्त्री बना हुआ लड़का ग्रंथ पूरा न कर सका लेकिन गुरू के वचनों में श्रद्धा रखकर यात्रा करने वाला वह अनपढ़ पूरनपोड़ा ने ग्रंथ पूरा कर दिया। यह है गुरूओं के कृपा-प्रसाद का चमत्कार।
ईशकृपा बिना गुरू नहीं गुरू बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं गावहिं वेद पुरान।।
उन गुरूओं का ज्ञान हम लोगों में अधिक से अधिक स्थिर हो, अधिक से अधिक फले फूले.......! गुरू की पूजा, गुरू का आदर कोई व्यक्ति की पूजा नहीं है, व्यक्ति का आदर नहीं है लेकिन गुरू की देह के अन्दर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा हैं उनका आदर है। किसी व्यक्ति की पूजा नही लेकिन व्यक्ति में जो लखा जाता है, उसमें जो अलख बैठा है उसका आदर है..... ज्ञान का आदर है..... ज्ञान का पूजन है..... ब्रह्मज्ञान का पूजन है।
गुरू तो यह इन्तजार करते हैं कि ऐसी घड़िया आ जाय कि शिष्य बदलकर गुरू के अनुभव से एक हो जाय। इसलिए जिन महापुरूषों ने शिष्यों के, साधकों के उद्धार के लिए संसार में ऐसे मार्ग प्रचलित किये हैं उन सबको पूरे-पूरे हृदय से कृतज्ञतापूर्वक, श्रद्धापूर्वक हम सब प्रणाम करते हैं। वे महापुरूष किसी रूप में हों...... दत्तात्रेय भगवान हों, शंकराचार्य भगवान हों, शुकदेव जी मुनि हों, जनक राजा हों, ज्ञानेश्वर महाराज हों, अखा भगत हों, संत तुकाराम हों, संत एकनाथ हों, जो संसार से पार हैं उन सब महापुरूषों को हम लोग बड़े प्यार से अपने हृदय में स्थापित करते हैं, उनके ज्ञान को अपने हृदय में धारण करते हैं। ॐ......ॐ.....ॐ......
हे आत्मारामी ब्रह्मवेत्ता गुरू ! हमारा हृदय खुला है। आप और आपका ज्ञान हमारे हृदय में प्रविष्ट हो। आपका हम आवाहन करते हैं, आपको बुलाते हैं, आपके ज्ञान को हम निमंत्रण देते हैं। हमारे हृदय में जिज्ञासा, ज्ञान और शान्ति का प्रागट्य हो। आपकी कृपा का सिञ्चन हो। हमारा हृदय उत्सक है। आप जैसे ब्रह्मवेत्ता के वचन हमारे हृदय में टिके।
गुरूपूर्णिमा के पावन पर्व पर हम यह पावन प्रार्थना करते हैं कि हे गुरूदेव ! वे दिन कब आयेंगे कि हमें यह संसार स्वप्न जैसा लगेगा ? वे दिन कब आयेंगे कि हर्ष के समय हमारे हृदय में हर्ष न होगा.... शोक के समय हमारे हृदय में शोक न होगा और हम सुख-दुःख दोनों के साक्षी हो जायेंगे। वे दिन कब आयेंगे कि ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों का अनुभव हमारा अनुभव हो जायेगा ?
हम भाग्यवान तो हैं..... सचमुच हम महाभाग्यवान हैं कि हम ब्रह्मविद्या सुन पाते हैं, ब्रह्मज्ञान सुन पाते हैं। ॐ...... ॐ......ॐ......
अब हम गुरूदेव की मानस पूजा कर लेंगे। मानसिक ढंग से, हृदय के भाव से उनकी प्रार्थना कर लेंगे। उनके प्रति हृदय में अहोभाव भरते-भरते पवित्र होते जायेंगे.... कृतज्ञता व्यक्त करते जायेंगे।
मन ही मन भावना करो कि हम उनके चरण धो रहे हैं। सप्ततीर्थों के जल से गुरूदेव के पदारविंद को नहला रहे हैं। बड़े आदर और कृतज्ञता के साथ गुरूदेव के श्रीचरणों में दृष्टि रखते हुए.... श्रीचरणों को प्यार करते हुए पैर पखार रहे हैं....। उनके पावन ललाट में शुद्ध चन्दन का तिलक कर रहे है.... अक्षत चढ़ा रहे हैं। अपने हाथों से बनायी हुई गुलाब के फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं.... हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनको अपना अहंकार भेंट कर रहे हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और ग्यारहवें मन की चेष्टाएँ उन गुरूदेव के चरणों में समर्पित कर रहे हैं.....।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।
करोमि यद् यद् संकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि।।
शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो-जो करते हैं वह सब समर्पित करते हैं। हमारे जो कुछ भी कर्म हैं। हे गुरूदेव ! वह सब आपके चरणों में समर्पित हैं.....। हमारा कर्त्तापन का भाव, भोक्तापन का भाव आपके चरणों में समर्पित है।
राजा जनक को जब बोध हुआ तब उनका हृदय कृतज्ञता से भर गया। गद् गद् कण्ठ होकर गुरूदेव अष्टावक्र मुनि से कहाः "गुरूदेव ! आपने मुझे शाश्वत का बोध दिया है.... शाश्वत के अमृत से परितृप्त किया है। बदले में मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? फिर भी मैं कृतघ्न न होऊँ इसलिए आपसे माफी माँगता हूँ कि आप नाराज न होना। मुझे फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी देने का मौका देना। हँसी मत उड़ाना, नाराज मत होना। आपने तो दिया है अखण्ड अमृत और मैं दे रहा हूँ मिटने वाली चीजें। फिर भी नाराज न होना। हे मेरे गुरूदेव ! आज तक जो मैंने सत्कृत्य किये हैं वे सब आपको समर्पित हों। आपकी दीर्घ आयु रहे। आपका सामर्थ्य और बढ़ता रहे। आपके श्रीचरणों में यह प्रार्थना करते हुए मैं, मेरा परिवार और मेरा राज्य आपको समर्पित हो रहे हैं। मैंने जो तालाब, बावड़ियाँ खुदवाई थी, गौशालाएँ खुलवाई थीं, प्याऊ लगवाये थे, अन्नक्षेत्र चालू करवाये थे, ये सब सत्कृत्य आपके पावन श्रीचरणों में अर्पित हैं। फिर भी हे नाथ ! मैं आपके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। सदगुरू के कर्जे से मुक्त होने की मुझे जरूरत भी नहीं दिखती है। गुरूदेव का कर्जा भले ही सिर पर रहे। संसार के कर्जदार होने की अपेक्षा गुरू के ज्ञान का कर्जा जिसके सिर पर है उसके सिर पर संसार का कर्जा, जन्म-मरण का कर्जा नहीं टिक सकता।"
"गुरूदेव ने कहाः "बेटा ! तू चिन्ता मत कर। मैंने ज्ञान दिया उसका कर्जा वसूल करने के लिए मैं तुझे किसी जन्म में नहीं डालूँगा। इस ज्ञान में तू निरन्तर प्रतिष्ठित रह और अगर कोई प्यासा आवे तो उसकी प्यास भी मिटाया कर। उसको भी आत्म-अमृत से तृप्त किया कर।"
क्या महापुरूषों की उदारता है ! क्या ब्रह्मवेत्ताओं की महानता है ! जीवन की बाजी लगाकर जो चीज पायी वह बीज प्रेम से सहज स्वाभाविक ढंग से हमारे दिलों में भर देते हैं। इससे लिए क्या-क्या नुस्खे आजमाते हैं ! क्या-क्या युक्तियाँ खोजते हैं ! न जाने क्या-क्या तरकीबें लड़ाते हैं ! ......ताकि यह जन्मों से सोया हुआ, युगों से कर्मों की जाल गूँथता हुआ जीव मुक्त हो जाय।
जिन मुक्त पुरूषों ने ऐसे मार्ग बनाये हैं, ब्रह्मज्ञान को प्रकट करने के नुस्खे पैदा किये हैं उन महापुरूषों में से एक थे अष्टावक्र। उनके चरणों में जनक अपना सर्वस्व सौंपकर भी कहता है किः "मैंने अभी कुछ नहीं दिया गुरूदेव ! क्योंकि आपने तो शाश्वत दिया और मैं जो भी दे रहा हूँ वह नश्वर है। यह देखकर आप नाराज न होना और मेरी हँसी न उड़ाना। प्रेम से स्वीकार करना नाथ !" ऐसा कहते हुए राजा जनक गुरूदेव के चरणों में मस्तक रख देते हैं। मानो कहते हैं कि अब यह मस्तक अन्यत्र कहीं नहीं झुकेगा। गुरूदेव की पूजा के बाद दूसरी कोई पूजा शेष नहीं बचती। देवी देवताओं की पूजा के बाद कोई पूजा रह जाय लेकिन ब्रह्मवेत्ताओं का ब्रह्मज्ञान जिसके जीवन में प्रतिष्ठित हो गया फिर उसके जीवन में किसकी पूजा बाकी रहे ? जिसने सदगुरू के ज्ञान को पचा लिया, सदगुरू की पूजा कर ली उसे संसार खेलमात्र प्रतीत होता है। राजा जनक ने संसार में खेल की नाँई व्यवहार करते हुए जीवन्मुक्त होकर परम पद में विश्रान्ति पायी।
ऐसे ही तुम भी उन महापुरूषों की, ब्रह्मवेत्ता गुरूओं की कृपा को हृदय में भरते हुए, ज्ञान को भरते हुए, आत्म-शान्ति को भरते हुए, उनके वचनों पर अडिगता से चलते हुए गुरूपूर्णिमा के इस पावन पर्व पर घड़ीभर अन्तर्मुख हो जाओ।
गुरूपूर्णिमा के पर्व पर परमात्मा स्वयं अपना अमृत बाँटते हैं। वर्ष भर के अन्य पर्व और उत्सव यथाविधि मनाने से जो पुण्य होता है उससे कई गुना ज्यादा पुण्य यह गुरूपूर्णिमा का पर्व दे जाता है।

Thursday, July 8, 2010



गुरू भक्ति योग पुस्तक से - Guru Bhaktiyog pustak se

गुरू और दीक्षा - Guru aur Diksha

योग का अभ्यास गुरू के सान्निध्य में करना चाहिए। विशेषतः तंत्रयोग के बारे में यह बात अत्यंत आवश्यक है। साधक कौन सी कक्षा का है यह निश्चित करना एवं उसके लिए योग्य साधना पसन्द करना गुरू का कार्य है।

आजकल साधकों में एक ऐसा खतरनाक एवं गलत ख्याल प्रवर्तमान है कि ‘वे साधना के प्रारंभ में ही उच्च प्रकार का योग साधने के लिए काफी योग्यता रखते हैं।’ प्रायः सब साधकों का जल्दी पतन होता है इसका यही कारण है। इसी से सिद्ध होता है कि अभी वह योगसाधना के लिए तैयार नहीं है। सचमुच में योग्यतावाला शिष्य नम्रतापूर्वक गुरू के पास आता है, गुरू को आत्मसमर्पण करता है, गुरू की सेवा करता है और गुरू के सान्निध्य में योग सीखता है।

गुरू और कोई नहीं है अपितु साधक की उन्नति के लिए विश्व में अवतरित परात्पर जगज्जननी दिव्य माता स्वयं ही हैं। गुरू को देव मानों, तभी आपको वास्तविक लाभ होगा। गुरू की अथक सेवा करो। वे स्वयं ही आपर पर दीक्षा के सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद बरसायेंगे।

गुरू मंत्र प्रदान करते हैं, यह दीक्षा कहलाती है। दीक्षा के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है, पापों का विनाश होता है। जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्जवलित होती है उसी प्रकार गुरू मंत्र के रूप में अपनी दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं। शिष्य उपवास करता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और गुरू से मंत्र ग्रहण करता है।

दीक्षा से रहस्य का पर्दा हट जाता है और शिष्य वेदशास्त्रों के गूढ़ रहस्य समझने में शक्तिमान बन जाता है। सामान्यतः ये रहस्य गूढ़ भाषा में छुपे हुए होते हैं। खुद ही अभ्यास करने से वे रहस्य प्रकट नहीं होते। खुद ही अभ्यास करने से तो मनुष्य अधिक अज्ञान के गर्क होता है। केवल गुरू ही आपको शास्त्राभ्यास के लिये योग्य दृष्टि दीक्षा के द्वारा प्रदान करते हैं। गुरू अपनी आत्म-साक्षात्कार की ज्योति का प्रकाश उन शास्त्रों के सत्य पर डालेंगे और वे सत्य आपको शीघ्र ही समझ में आ जाएँगे।

जप के लिए मंत्र

ॐ गुरूभ्यो नमः।

ॐ श्री सदगुरू परमात्मने नमः।

ॐ श्री गुरवे नमः।

ॐ श्री सच्चिदानन्द गुरवे नमः।

ॐ श्री गुरु शरणं मम।


मंत्रदीक्षा के लिए नियम

गुरू में सम्पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास रखना चाहिए तथा शिष्य को पूर्णरूपेण उनके प्रति आत्मसमर्पण करना चाहिए।

दीक्षाकाल में गुरू के द्वारा दिये गये तमाम निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। यदि गुरू ने विशेष नियमों की चर्चा न की हो तो निम्नलिखित सर्व सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए।

मंत्रजप से कलियुग में ईश्वर-साक्षात्कार सिद्ध होता है, इस बात पर विश्वास रखना चाहिए।

मंत्रदीक्षा की क्रिया एक अत्यन्त पवित्र क्रिया है, उसे मनोरंजन का साधन नहीं मानना चाहिए। अन्य की देखादेखी दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं। अपने मन को स्थिर और सुदृढ़ करने के पश्चात गुरू की शरण में जाना चाहिए।

मंत्र को ही भगवान समझना चाहिए तथा गुरू में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए।

मंत्रदीक्षा को सांसारिक सुख-प्राप्ति का माध्यम नहीं बनाना चाहिए, भगव्तप्राप्ति का माध्यम बनाना चाहिए।

मंत्रदीक्षा के अनन्तर मंत्रजप को छोड़ देना घोर अपराध है, इससे मंत्र का घोर अपमान होता तथा साधक को हानि होने की संभावना भी रहती है।

साधक को आसुरी प्रवृत्तियाँ – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि का त्याग करके दैवी सम्पत्ति सेवा, त्याग, दान, प्रेम, क्षमा, विनम्रता आदि गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

गृहस्थ को व्यवहार की दृष्टि से अपना कर्त्तव्य आवश्यक मानकर पूरा करना चाहिए, परन्तु उसे गौण कार्य समझना चाहिए। समग्र परिवार के जीवन को आध्यात्मिक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। मन, वचन तथा कर्म से सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

प्रति सप्ताह मंत्रदीक्षा ग्रहण किये गये दिन एक वक्त फलाहार पर रहना चाहिए और वर्ष के अंत में उस दिन उपवास रखना चाहिए।

भगवान को निराकार-निर्गुण और साकार-सगुण दोनों स्वरूपों में देखना चाहिए। ईश्वर को अनेक रूपों में जानकर श्रीराम, श्रीकृष्ण, शंकरजी, गणेशजी, विष्णु भगवान, दुर्गा, लक्ष्मी इत्यादि किसी भी देवी-देवता में विभेद नहीं करना चाहिए। सभी के इष्टदेव सर्वव्यापक, सर्वज्ञ सभी देवता के प्रति विरोधभाव प्रकट नहीं करना चाहिए। हाँ, आप अपने इष्टदेव पर अधिक विश्वास रख सकेत हो, उसे अधिक प्रेम कर सकते हो परन्तु उसका प्रभाव दूसरे के इष्ट पर नहीं पड़ना चाहिए। भगवद् गीता में कहा भी हैः

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

'जो पुरूष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिय अदृश्य नहीं होता' (6, 30)

इस प्रकार गोस्वामी जी ने भी लिखा है किः

सिया राम मय सब जग जानी।

करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

अपना इष्ट मंत्र गुप्त रखना चाहिए।

पति पत्नी यदि एक ही गुरू की दीक्षा लें तो यह अति उत्तम है, परन्तु अनिवार्य नहीं है।

लिखित मंत्रजप करना चाहिए तथा उसे किसी पवित्र स्थान में सुरक्षित रखना चाहिए। इससे वातावरण शुद्ध रहता है।

मंत्रजप के लिए पूजा का एक कमरा अथवा कोई स्थान अलग रखना संभव हो तो उत्तम है। उस स्थान को अपवित्र नहीं होने देना चाहिए।

प्रत्येक समय अपने गुरू तथा इष्टदेव की उपस्थिति का अनुभव करते रहना चाहिए.

प्रत्येक दीक्षित दम्पति को एक पत्नीव्रत तथा पतिव्रता धर्म का पालन करना चाहिए।

अपने घर के मालिक के रूप में गुरू तथा इष्टदेव को मानकर स्वयं अपने को उनके प्रतिनिधि के रूप में कार्य करना चाहिए।

मंत्र की शक्ति पर विश्वास रखना चाहिए। उससे सारे विघ्नों का निवारण हो जाता है।

प्रतिदिन कम से कम 11 माला का जप करना चाहिए। प्रातः और सन्ध्याकाल को नियमानुसार जप करना चाहिए।

माला फिराते समय तर्जनी, अंगूठे के पास की तथा कनिष्ठिका (छोटी) उंगली का उपयोग नहीं करना चाहिए। माला नाभि के नीचे जाकर लटकती हुई नहीं रखनी चाहिए। यदि सम्भव हो तो किसी वस्त्र (गौमुखी) में रखकर माला फिराना चाहिए। सुमेरू के मनके को (मुख्य मनके को) पार करके माला नहीं फेरना चाहिए। माला फेरते समय सुमेरू तक पहुँचकर पुनः माला घुमाकर ही दूसरी माला का प्रारम्भ करना चाहिए।

अन्त में तो ऐसी स्थिति आ जानी चाहिए कि निरन्तर उठते बैठते, खाते-पीते, चलते, काम करते तथा सोते समय भी जप चलते रहना चाहिए।

आप सभी को गुरू देव का अनुग्रह प्राप्त हो, यह हार्दिक कामना है। आप सभी मंत्रजप के द्वारा अपना ऐच्छिक लक्ष्य प्राप्त करने में सम्पूर्णतः सफल हों, ईश्वर आपको शान्ति, आनन्द, समृद्धि तथा आध्यात्मिक प्रगति प्रदान करें ! आप सदा उन्नति करते रहें और इसी जीवन में भगवत्साक्षात्कार करें। हरि ॐ तत्सत्।


जप के नियम

स्वामी शिवानन्द सरस्वती

जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र की अथवा किसी भी मंत्र की अथवा परमात्मा के किसी भी एक नाम की 1 से 200 माला जप करो।

रूद्राक्ष अथवा तुलसी की माला का उपयोग करो।

माला फिराने के लिए दाएँ हाथ के अँगूठे और बिचली (मध्यमा) या अनामिका उँगली का ही उपयोग करो।

माला नाभि के नीचे नहीं लटकनी चाहिए। मालायुक्त दायाँ हाथ हृदय के पास अथवा नाक के पास रखो।

माला ढंके रखो, जिससे वह तुम्हें या अन्य के देखने में न आये। गौमुखी अथवा स्वच्छ वस्त्र का उपयोग करो।

एक माला का जप पूरा हो, फिर माला को घुमा दो। सुमेरू के मनके को लांघना नहीं चाहिए।

जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक मानसिक जप करो। यदि मन चंचल हो जाय तो जप जितने जल्दी हो सके, प्रारम्भ कर दो।

प्रातः काल जप के लिए बैठने के पूर्व या तो स्नान कर लो अथवा हाथ पैर मुँह धो डालो। मध्यान्ह अथवा सन्ध्या काल में यह कार्य जरूरी नहीं, परन्तु संभव हो तो हाथ पैर अवश्य धो लेना चाहिए। जब कभी समय मिले जप करते रहो। मुख्यतः प्रातःकाल, मध्यान्ह तथा सन्ध्याकाल और रात्रि में सोने के पहले जप अवश्य करना चाहिए।

जप के साथ या तो अपने आराध्य देव का ध्यान करो अथवा तो प्राणायाम करो। अपने आराध्यदेव का चित्र अथवा प्रतिमा अपने सम्मुख रखो।

जब तुम जप कर रहे हो, उस समय मंत्र के अर्थ पर विचार करते रहो।

मंत्र के प्रत्येक अक्षर का बराबर सच्चे रूप में उच्चारण करो।

मंत्रजप न तो बहुत जल्दी और न तो बहुत धीरे करो। जब तुम्हारा मन चंचल बन जाय तब अपने जप की गति बढ़ा दी।

जप के समय मौन धारण करो और उस समय अपने सांसारिक कार्यों के साथ सम्बन्ध न रखो।

पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुँह रखो। जब तक हो सके तब तक प्रतिदिन एक ही स्थान पर एक ही समय जप के लिए आसनस्थ होकर बैठो। मंदिर, नदी का किनारा अथवा बरगद, पीपल के वृक्ष के नीचे की जगह जप करने के लिए योग्य स्थान है।

भगवान के पास किसी सांसारिक वस्तु की याचना न करो।

जब तुम जप कर रहे हो उस समय ऐसा अनुभव करो कि भगवान की करूणा से तुम्हारा हृदय निर्मल होता जा रहा है और चित्त सुदृढ़ बन रहा है।

अपने गुरूमंत्र को सबके सामने प्रकट न करो।

जप के समय एक ही आसन पर हिले-डुले बिना ही स्थिर बैठने का अभ्यास करो।

जप का नियमित हिसाब रखो। उसकी संख्या को क्रमशः धीरे-धीरे बढ़ाने का प्रयत्न करो।

मानसिक जप को सदा जारी रखने का प्रयत्न करो। जब तुम अपना कार्य कर रहे हो, उस समय भी मन से जप करते रहो।


मनुष्य के चार विभाग

साधारण संसारी मनुष्य दूध जैसा है। वह जबदुष्ट जनों के सम्पर्क में आता है तब उल्टे मार्ग में चला जाता है और फिर कभी वापस नहीं लौटता। उसी दूध में अगर थोड़ी सी छाछ डाली जाती है तो वह दूध दही बन जाता है। संसारी मनुष्य को गुरू दीक्षा देते हैं। अतः जो स्वयं सिद्ध हैं ऐसे गुरू दही जैसे हैं।

छाछ डालने के बाद दूध को कुछ समय तक रख दिया जाता है। इसी प्रकार दीक्षित शिष्य को एकान्त का आश्रय लेकर दीक्षा का मर्म समझना चाहिए। तभी दूध का दही बनेगा, अर्थात् शिष्य का परिवर्तन होगा और वह ज्ञानी बनेगा।

अब दही सरलता से पानी के साथ मिलजुल नहीं जायेगा। अगर दही में पानी डाला जायेगा तो वह तले में बैठ जाएगा। अगर दही को जोर से बिलोया जाएगा तो ही वह पानी के साथ मिश्रित होगा। इसी प्रकार विवेवकवाला मनुष्य जब बुरी संगत में आता है तब दुराचारी लोगों के साथ सरलता के मिलता जुलता नहीं है। लेकिन संगत अत्यंत प्रगाढ़ होगी तो वह भी उल्टे मार्ग में जाएगा। जब दही को सूर्योदय से पहले ब्राह्ममुहूर्त में अच्छी तरह बिलोया जाएगा तब उसमें से मक्खन मिलेगा। इसी प्रकार विवेकी साधक ब्राह्ममुहूर्त में ईश्वर का गहन चिन्तन करता है तो उसे आत्मज्ञान रूपी नवनीत प्राप्त होता है। फिर वह आत्म-साक्षात्कारी साधुरूप बन जाता है।

इस मक्खन (नवनीत) को अब पानी में डाल सकते हैं। वह पानी में मिश्रित नहीं होगा, पानी में डूबेगा नहीं अपितु तैरता रहेगा। आत्म-साक्षात्कार सिद्ध किये हुए साधु अगर दुर्जनों के सम्पर्क में आयेंगे तो भी उल्टे मार्ग में नहीं जाएँगे। दुनियावी बातों से अलिप्त रहकर आनन्द से संसार में तैरते रहेंगे। अगर इस नवनीत को पिघलाकर घी बनाया जाय और बाद में उसे पानी में डाला जाय तो वह सारे पानी को अपनी सुवास से सुवासित कर देगा। इस प्रकार साधु को निःस्वार्थ प्रेम की आग से पिघलाया जाय तो वह दैवी चैतना रूप घी बनकर अपने संग से सबको पावन करेगा, सबकी उन्नति करेगा। उसके सम्पर्क में आने वालों के जीवन में अपने ज्ञान, महिमा एवं दिव्यता का सिंचन करेगा।



'गुरूकृपा हि केवलं......'

साधक के जीवन में सदगुरू-कृपा का क्या महत्त्व है, इस विषय में पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू अपने सदगुरूदेव की अपार कृपा का स्मरण करते हुए कहते हैं-

"मैंने तीन वर्ष की आयु से लेकर बाईस वर्ष की आयु तक अनेकों साधनाएँ की, दस वर्ष की आयु में अनजाने ही रिद्धि-सिद्धियों के अनुभव हुए, भयानक वनों, पर्वतों, गुफाओं में यत्र-तत्र तपश्चर्या करके जो प्राप्त किया वह सब, सदगुरूदेव की कृपा से जो मिला उसके आगे तुच्छ है। सदगुरूदेव ने अपने घर में ही घर बता दिया। जन्मों की साधना पूरी हो गई। उनके द्वारा प्राप्त हुए आध्यात्मिक खजाने के आगे त्रिलोकी का साम्राज्य भी तुच्छ है।"

हम न हँसकर सीखे हैं न रोकर सीखे हैं।

जो कुछ भी सीखे हैं सदगुरू के होकर सीखे हैं।।