पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, August 21, 2012

जीते जी मुक्ति पुस्तक से - Jitey ji Mukti Pustak se

विश्वास करोगे तो जागोगे..... vishvaas karoge to jagoge......

आत्मशक्ति क्षीण करने वाली दो मुख्य चीजें हैं- सुख की लालसा और दुःख का भय। जहाँ-जहाँ आकर्षण होता है, सुख लेने की इच्छा जगती है  वहाँ अन्तःकरण कमजोर होता है। आदमी सुख के लिए बेईमानी करता है, झूठ बोलता है, कपट करता है, न जाने कितने बखेड़े खड़े करता है। मूल में है सुख का आकर्षण।
दुःख का भय भी जीव को ऐसा ही कराता है।
तो आज से गाँठ बाँध लो कि, 'सुख के आकर्षण के समय सावधान रहूँगा और दुःख के भय के समय भी सावधान रहूँगा। हो होकर क्या होगा ? हजार हजार प्रलय हो गये आज तक, फिर भी मुझ अमर आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा। तो फिर गरीबी आये तो क्या और मृत्यु आये तो भी क्या ?'
ऐसा करके अपने आत्म-स्वरूप में आ जाओ। दुःख के भय से भयभीत मत बनो।
दो प्रकार के आदमी भयभीत नहीं होते हैं-
एक तो समझदार भयभीत नहीं होते क्योंकि वे शुद्ध आचरण में चले आते हैं। दूसरे बेशर्म लोग भयभीत नहीं होते, नक्कट्टे। वे दुराचार करते रहते हैं और मानते हैं कि हम निर्भय हैं। बाहर से वे निर्भय दिखते होंगे लेकिन भीतर से उनके कर्म  उनको कुरेद कुरेदकर खाते हैं। जो गुन्डा तत्व हैं वे निर्भय जैसे लगते हैं, वास्तव में वे निर्भय नहीं होते। उनकी तामसिक निर्भयता है। तामसिक और राजसिक निर्भयता नहीं अपितु सात्त्विक निर्भयता टिकती है। तामसिक और राजसिक निर्भयता तो ऊपर ऊपर से थोपी जाती है।
'मेरे पक्ष में इतने लोग हैं.... मेरी कुर्सी को हरकत नहीं होगी।' यह सत्तावालों की अपने ऊपर थोपी हुई और पराधीन निर्भयता है।

हमने ऐसे लोगों को देखा-सुना है जो कुर्सी पर थे, प्रधानमंत्री के पद पर थे और फिर जेल में जाते हुए भी सुना। जो जेल में थे वे प्रधानमंत्री हुए यह भी हमने देखा-सुना।
परिस्थितियाँ तो सदा बदलती रहती हैं। जो कैदी है वे राजा हो जाते हैं और जो राजा हैं वे कैदी हो जाते हैं। जो कंगाल हैं वे धनवान हो जाते हैं और जो धनवान हैं वे कंगाल हो जाते हैं। प्रसिद्ध व्यक्ति अप्रसिद्ध हो जाते हैं और अप्रसिद्ध लोग प्रसिद्ध हो जाते हैं। छोटे बड़े हो जाते हैं और बड़े छोटे हो जाते हैं। सुखी दुःखी हो जाते हैं। और दुःखी सुखी हो जाते है। ये परिस्थितियाँ तो आती ही रहेंगी। इन परिस्थितियों का ठीक उपयोग करने की कला आ जाय तो अपना साक्षी चैतन्य आँखमिचौली पूरी करके प्रकट हो जाता है।
'बापू....! वह प्रकट हो जाय इसलिए हममें व्याकुलता जग जाए.... कुछ आशीर्वाद दो.... तब प्रकट होगा....।'
अभी वह प्रकट है भैया। उसे देखने की कला सीख। यह कला सीखेगा तो तेरा स्नेह... तेरा भीतर का रस जागेगा। भीतर का रस जागेगा तो प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग करने की कला अपने आप आयेगी। जब तू सबमें उसको देखेगा, नहीं जानता है फिर भी वह सबमें है ऐसा तू विश्वास करेगा तो तेरे द्वारा अन्याय का व्यवहार कम हो जायेगा, तेरे द्वारा पक्षपात दूर होने लगेगा। तू बिलकुल आसानी से अपने चालू व्यवहार में परम पद का अनुभव करने में सफल हो जाएगा।

प्रारंभ में वह चैतन्य परमात्मा सर्वत्र नहीं दिखेगा। इसलिए उसको किसी मूर्ति में अथवा अपने शरीर के किसी केन्द्र में ध्यान करके अथवा उपासना के द्वारा एक जगह प्रकट करके देखो। जब परमात्मा एक जगह प्रकट हो गया फिर.... फिर वह रस, वह आनन्द, वह चेतना और वह 'मैं' सर्वत्र प्रकट दिखेगा।
फिर भी तुम सर्वत्र प्राकट्य की स्थिति में नहीं पहुँच सकते हो तो एक जगह तक तो पहुँचो। जैसे गीता में विभूति योग आता है। भगवान कहते हैं 'सब ऋषियों में कपिल मैं हूँ, सब गायों में कामधेनु गाय मैं हूँ, शब्दों में प्रणव मैं हूँ, वृक्षों में पीपल मैं हूँ.....' आदि आदि। भगवान सर्वत्र हैं फिर वृक्षों में पीपल में ही क्यों ? भगवान सबमें है तो एक कपिल मुनि में ही क्यों ?

भगवान सर्वत्र हैं यह ज्ञान पचाने की क्षमता नहीं है इसलिए भगवद प्रसाद जहाँ विशेष रूप से प्रकट हुआ है वहाँ तो कम से कम भगवान को देखो। इससे क्रमशः दृष्टि व्यापक हो जायेगी।
जैसे दूज का चन्द्रमा देखना है। जिसको ऐसे ही दिख जाता है उसके लिए कोई प्रश्न नहीं है लेकिन जिसको नहीं दिखता है उसको दिखाने के लिए सहारे देने पड़ते हैं- 'चाचा ! वहाँ देखो। वह मंदिर का शिखर है न, उसके पासवाली बरगद की डाली के ऊपर वाली टहनी के ऊपरी छोर के पास आकाश में पतली-सी लकीर जैसा है वह चन्द्रमा है।'

लक्ष्य तो चाँद दिखाना था, सूक्ष्म था। जिसको जैसे दिख जाय वैसे दिखाना है। ऐसे ही दिख जाय या शिखर के सहारे दिख जाय या वृक्ष की टहनी के सहारे दिख जाय। चश्मा सीधा करके दिख जाय या टेढ़े करके दिख जाय। कैसे भी करके देखना तो दूज का चाँद है।
ऐसे ही जीवन में देखना तो है चाँदों का भी चाँद आत्मा-परमात्मा, अपना वास्तविक स्वरूप, अपना आपा, अपना नित्य मुक्त स्वभाव। अपने आनन्द स्वभाव का, मुक्त स्वभाव का अनुभव करना है। अभी वह नहीं किया तो जिन्होंने किया है उनमें विश्वास करना पड़ता है।
उत्तम साधक को जब-जब विह्वलता, दुःख, चिन्ता, भय सताते हैं तब अपने आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हैं। 'दुःख मन में हुआ... मैं निर्दुःख हूँ। चिन्ता मन की कल्पना है। मैं सब कल्पनाओं से परे हूँ। ॐ....ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....ॐ.....।

जाति शरीर की होती है, 'मेरी कोई जाति नहीं। मैं शांत आत्मा हूँ। विकारों से मैं परेशान हो रहा था लेकिन अब विकारो को पोसूँगा नहीं। अपने निर्विकार स्वरूप में विश्वास करके मैं जरूर जगूँगा।'
विश्वास करोगे तो जागोगे। विश्वास अगर पत्थर की  मूर्ति में है तो भी कल्याण होगा ही, क्योंकि तात्त्विक रूप से तो पत्थर में भी वह तुम्हारा चैतन्यदेव छुपा है घन सुषुप्ति में। भक्त लोगों ने पत्थर की प्रतिमाओं से अपने मन चाहे इष्टदेवों को प्रकट किये हैं। मूर्ति तो वही की वही है काली की लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने भगवती काली को वहाँ प्रकट किया था। रामकृष्ण पुजारी बने थे उसके पहले भी वह मूर्ति थी और रामकृष्ण चल दिये उसके बाद भी मूर्ति है।
विश्वासो फलदायकः।
जब पत्थर में से तुम्हारे विश्वास के बल से चैतन्य स्वरूप ईश्वर की चेतना प्रकट हो जाती है तो तुम्हारी चेतना और ईश्वर की चेतना एक ही है। तुम अपने अन्तःकरण में सावधान रहकर व्यवहार करो तो भी वह ईश्वरीय चेतना प्रकट हो सकती है अथवा किसी ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के प्रति अहोभाव करके, वहाँ से प्रेम और प्रकाश पाने के भाव से उनके प्रति विश्वास करके चलते हो तभी भी वह परमात्म चैतन्य प्रकट हो सकता है।

1983 या 1984 में दिल्ली की 'हिन्दुस्तान' अखबार में एक घटित घटना छपी थी।
एक पैडल रिक्शावाला किसी बाबाजी को रेलवे स्टेशन से बिठाकर बस अड्डे ले जा रहा था। कई लोग खड़िया पलटनवाले बाबाजी बन जाते हैं, यात्रा करते रहते हैं, कुछ माँग लेते हैं, सीताराम.... सीताराम... कर लेते हैं। ये बाबाजी भी ऐसे ही थे। उनके पास डेढ़ सौ रुपये का रेडियो था। उस रेडियो पर फिल्म अभिनेत्री हेमामालिनी का स्टिकर लगा हुआ था।
रिक्शावाले ने बाबाजी से कहाः "महात्मा जी ! आप रिक्शा का किराया दो चाहे मत दो लेकिन ऐसा कुछ जंतर-मंतर, ऐसी कोई चीज दे जाओ कि मैं रोज पूजा करूँ और मेरे धन्धे में बरकत पड़े।"
वे तो खड़िया पलटन के बाबाजी थे। उनको किसी ने रेडियो दे दिया था। उनको भी पता नहीं था कि रेडियो पर लगा हुआ स्टीकर किसी एक्ट्रैस का है या फलानी का है। उन्होंने वह स्टीकर निकालकर रिक्शावे को दे दियाः
"ले, इसी की पूजा करना। तेरा कल्याण हो जायगा।"
रिक्शावाला झोपड़पट्टी में आया और अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी के एक कोने में देवी जी की स्थापना की। कभी फूल चढ़ा देता था, अगरबत्ती करता था, फल धर देता था। 'माता जी... माता जी..... माता जी....' जप लेता था।
छुपा हुआ परम चैतन्य तो जानता है कि वह किस निमित्त से कर रहा है। स्टीकर नहीं जानता है, हेमामालिनी नहीं जानती है लेकिन परमात्मा तो जानता है। जीव के साथ आँख मिचौली खेलने वाला तो जानता है कि वह किसलिए करता है।
रिक्शावाला रोज आँखें बन्द करके प्रार्थना करता किः 'हे मेरी कुलदेवी ! मेरा धन्धा अच्छा चले। आज धन्धा अच्छा चलेगा तो रात को आकर मवा धरूँगा, लड्डू धरूँगा।
दैवयोग से उसकी ग्राहकी ऐसी चली कि बस ! स्टेशन से बस अड्डे पर.... बस अड्डे से स्टेशन पर। धन्धा ऐसा चला कि उसने टैम्पो खरीदा। धम....धम....धम...धम..।
दूसरे रिक्शावाले चकित रह गये। बोलेः "तेरा इतना तेजी से धन्धा...! और हम मक्खियाँ उड़ा रहे हैं। यह कैसे होता है ?"
उसने राज बताते हुए कहाः "एक बार एक बाबाजी मेरी रिक्शा में बैठे थे। उनकी बड़ी कृपा हो गई।"
वे बाबाजी तो सुलफाछाप थे। उनको पता भी नहीं था कि मैं क्या दे रहा हूँ। ऐसा नहीं कि वे योगी थे या तत्त्वविद् थे या रहस्यवादी थे। ऐसा कुछ नहीं था। रिक्शावाले का विश्वास, उसकी एकाकारता ऐसी थी कि महाराज ! उसके चित्त के द्वारा चेतना ने काम किया।
लोगों ने कहाः "यार ! हमें भी दिखा, वह कौन सी देवी है। वे बाबाजी कौन सी देवी दे गये हैं ?"
वह रिक्शावाला उन लोगों को अपने घर ले आया। वे लोग तो सिनेमा जगत के शौकीन थे। इस देवीजी को देखकर गाली के साथ बोल उठेः "अरे यह ? यह तो फलानी एक्ट्रैस है।यह माता जी कहाँ है ?"
"जा जा... यह तो मेरी कुलदेवी है इसकी पूजा से मेरा धन्धा बढ़ा है।"

अगर नगण्य वस्तु में भी तुम विश्वास करते हो तो तुम्हारा चैतन्य वहाँ से भी तुम्हें सहाय करता है तो सचमुच में विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा हुई हो ऐसी मूर्ति की आराधना उपासना से अथवा सच्चे कोई आत्मवेत्ता संत, जो अमूर्त आत्मा में टिके हो, रमण महर्षि जैसे, रामकृष्ण जैसे, लीलाशाह बापू जैसे ब्रह्मवेत्ता आत्म-साक्षात्कारी पुरुषों के प्रति श्रद्धा-भक्ति से इस लोक और परलोक में लाभ सहज में होने लगे इसमें क्या आश्चर्य है ? गुरु ने विधिवत् मंत्र दिया हो उसका जप करें, जिन्होंने अपने आत्म-स्वरूप को पाया है ऐसे महापुरुषों के मार्गदर्शन पर चलने लग जायें तो कल्याण होने में कोई सन्देह नहीं है। तुम्हारी भावना के बल से खड़िया पलटनवाले बाबाजी का स्टीकर इतना काम कर सकता है तो जो सचमुच में जगे हैं ऐसे वेदव्यासजी, श्रीकृष्ण, श्रीरामजी, संत कबीर जी, ज्ञानेश्वर महाराज, एकनाथजी महाराज, पूज्यपाद लीलाशाहजी भगवान आदि आदि सत्पुरुषों की बात को पकड़कर चलने लग जायें तो कितना काम हो जायेगा ! उसको तो पैडल रिक्शा में से टैम्पो मिला लेकिन तुमको तो जीव में से ब्रह्म मिल जायेगा।

गीता ने कहाः
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
"जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के, तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।"
(गीताः 4.39)
श्रद्धालु को आत्मज्ञान होता लेकिन श्रद्धा तुम्हारी कैसी है उसकी कसौटी है कि श्रद्धेय के वचन पर तुम्हारा विश्वास कैसा है.... तत्परता कितनी है ? श्रद्धेय के वचन को तुम अपने जीवन में कितना उतारते हो ? जितने अंश में उतारते हो उसने अंश में ही तुम उन्नत होते हो और उतने अंश में ही तुम्हारी श्रद्धा है।
एक मूर्धन्य प्रसिद्ध नेता ने कह दियाः "मैं गाँधी जी को तो मानता हूँ लेकिन गाँधी जी के विचारों से मैं सहमत नहीं हूँ....।"
तो क्या खाक गाँधी जी को माना तुमने ?
ऐसे ही 'मैं भगवान को तो मानता हूँ लेकिन भगवान के साथ एक नहीं होऊँगा। गुरु को तो मानता हूँ लेकिन गुरु के ज्ञान के साथ एक नहीं होऊँगा।' अगर तुम भगवान को मानते हो और भगवान के ज्ञान के साथ एक होने को राजी नहीं हो तो तुम्हारे पास अज्ञान है। सही ज्ञान तो भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों का होता है। तुम्हारे पास अज्ञान है और अज्ञान को तुम पकड़े रखे हो।'

ईश्वर के ज्ञान के साथ तुम अपना ज्ञान मिला दो। गुरु के अनुभव के साथ अपना अनुभव मिला दो। जल्दी कल्याण होगा।
इतना तो चौथी-पाँचवीं कक्षावाले विद्यार्थी भी जानता है कि शिक्षक की बात पर विश्वास करना होता है। भूगोल का कथन है कि पृथ्वी गोल है। विद्यार्थी जानता नहीं है कि सीधी दिखने वाली यह पृथ्वी गोल कैसे हो। फिर भी शिक्षक की बात मान कर परीक्षा में लिख देता है और मार्क्स ले लेता है। आगे चलकर उच्च कक्षाओं में पहुँचता है तब पता चलता है कि पृथ्वी गोल कैसे है।
जिसके बारे में तुम नहीं जानते हो और केवल सुना है उसमें विश्वास करना होता है। एक विश्वास होता है सुनी-सुनाई सामाजिक काल्पनिक बातों पर। जैसे, यह रिक्शावाले की देवी काल्पनिक थी। अभी जो संतोषी माँ है वह काल्पनिक देवी है, वास्तव में वह कुछ नहीं है। लोगों ने कल्पना करके संतोषी माता को खड़ी कर दी। संतोषी माता जैसी चिड़िया का वर्णन किसी भी शास्त्रपुराण में नहीं है।

दूसरा होता है शास्त्रीय विश्वास।
देवी और भगवान कैसे होते हैं ? शुद्ध बुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा में जब सृष्टि का फुरना हुआ तो उस फुरने में... 'एको ऽहं बहु स्याम्' में...'बहु स्याम्' होते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं भूले वे हो गये भगवान कोटि के, देवी कोटि के, देवता कोटि के और अपना मूल स्वरूप भूलकर स्थूल शरीर में मैं पना किया वे जीवभाव में आ गये। भगवान कोटि से, देवी देवता कोटि के आत्मा स्थूल में भी जी सकते हैं और सूक्ष्म में भी पहुँच सकते हैं, जैसे जगदँबा है या और भगवदीय देवियाँ हैं अथवा भगवद् तत्त्व को पाये हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं।
यह है शास्त्रीय विश्वास। दूसरा होता है अशास्त्रीय विश्वास। जैसे, धन्ना जाट को भाँग घोटने वाले पण्डित ने भाँग घोटने का सिलबट्टा देते हुए कह दियाः "यह ठाकुरजी है। नहाकर नहलैयो.... खिलाकर खइयो।' हालाँकि वे ठाकुर जी नहीं थे, प्राणप्रतिष्ठा नहीं की गई थी। उसमें चेतन प्रकट हो ऐसी विधिवत् चेष्टा पण्डित की ओर से नहीं थी। लेकिन धन्ना जाट का अत्यंत विश्वास था तो वे ठाकुरजी देखते हैं कि अब आँखमिचौली में इसके आगे अप्रकट रहना इससे सहा नहीं जायगा तो वे धन्ना के आगे साक्षात प्रकट हो गये।
वह चैतन्य स्वरूप परमात्मा पत्थर में से भी प्रकट हो सकता है तो तुम्हारे दिल में क्यों प्रकट नहीं होगा ?
वे शास्त्रीय ठाकुरजी नहीं थे, अशास्त्रीय थे। सिलबट्टा था सिलबट्टा भाँग घोंटने का। पण्डितजी कुछ दिन तक गाँव में कथा करके जा रहे थे तो रास्ते में धन्ना जाट ने, एक लड़के ने उनको रोका। प्रार्थना कीः "महाराज ! मुझे ठाकुरजी दे जाओ। मैं रोज पूजा करूँगा।"
पण्डितजी ना ना करते रहे पर धन्ना का आग्रह जारी रहा। बहुत खींचातानी के बाद उसने पण्डित को विवश कर दिया। पण्डित ने उस जिद्दी जाट से जान छुड़ाने के लिए अपना भाँग घोंटने का सिलबट्टा दे दिया कि ले, ये ठाकुरजी हैं। बच्चे ने तो कभी ठाकुरजी को देखा नहीं था, सिर्फ कथा सुनी थी कि ठाकुर जी की पूजा करने से कल्याण होता है।
धन्ना जाट का कल्याण हो गया।

जिसको आपने देखा नहीं उसमें विश्वास करना होता है। विश्वास हो तो बिल्कुल अन्धा हो और विचार करो तो बिल्कुल निष्ठुर, तर्कयुक्त, तीक्षण, तलवार की धार जैसा। उसमें फिर कोई पक्षपात नहीं।
श्रद्धा करो तो अन्धी करो । काम करो तो मशीन होकर करो, बिल्कुल व्यवस्थित, क्षति रहित। विश्वास करो तो बस.... धन्ना जाट की नाँईं। आत्मविचार करो तो बिल्कुल तटस्थ।
लोग श्रद्धा करने की जगह पर विचार करते हैं, तर्क लड़ाते हैं और आत्म विचार की जगह पर श्रद्धा करते हैं। अपनी 'मैं' के विषय में विचार चाहिए और भगवान को मानने में विश्वास चाहिए। वस्तु का उपयोग करने में तटस्थता चाहिए। ये तीन बाते आ जाय तो कल्याण हो जाय।

Wednesday, August 8, 2012

इष्टसिद्धि पुस्तक से - Isht-Sidhi pustak se


निद्रा-तन्द्रा-मनोराज से बचो - Nidra-tandra-manoraaj se bacho

अनुष्ठान में मंत्रजप करते समय नींद आती हो, तन्द्रा आती हो, आलस्य आता हो अथवा मनोराज में खो जाते हो तो अनुष्ठान का पूरा लाभ नहीं पा सकोगे।
निद्रा दो प्रकार की होती हैः स्थूल एवं सूक्ष्म। शरीर में थकान हो, रात्रि का जागरण हो, भोजन में गरिष्ठ पदार्थ लिये हों, ठूँस-ठूँसकर भरपेट खाया हो तो जो नींद आती है वह स्थूल निद्रा है।

गहरी नींद भी नहीं आयी और पूर्ण जाग्रत भी नहीं रहे, जरा सी झपकी लग गई, असावधानी हो गई, माला तो चलती रही यंत्रवत् लेकिन कितनी माला घूमी कुछ ख्याल नहीं रहा। यह सूक्ष्म निद्रा है। इसे तन्द्रा बोलते हैं।

असमय सूक्ष्म निद्रा आने लगे तो उसके कारणों को जानकर उनका निवारण करना चाहिए। पादपश्चिमत्तोनासन, मयूरासन, पद्मासन, चक्रासन आदि आसन शरीर के रोग दूर करते हैं, आरोग्यता प्रदान करते हैं और निद्रा का भी नियंत्रण करते हैं। इन सब आसनों में पादपश्चिमोत्तानासन अत्यधिक लाभदायक है।

सूक्ष्म निद्रा माने तन्द्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए। प्राणायाम से शरीर की नाड़ीशुद्धि होती है, रक्त का मल बाहर निकलता है, फेफड़ों का पूरा हिस्सा सक्रिय बनता है, शरीर में प्राणवायु अधिक प्रमाण में एवं ठीक-ठीक प्रकार से फैलता है, ज्ञानतंतु पुष्ट होते हैं, दिमाग खुलता है। शरीर में ताजगी-स्फूर्ति का संचार होता है। इससे तन्द्रा नहीं घेरती।
मनोराज का अर्थ हैः आप कर तो कुछ रहे हैं और मन कुछ और ही सोच रहा है, जाल बुन रहा है। कोई काम करते हैं, मन कहीं और जगह घूमने चला जाता है। हाथ में माला घूम रही है, जिह्वा मंत्र रट रही है और मन कुछ अन्य बातें सोच रहा है, कुछ आयोजन कर रहा है। यह है मनोराज।

एक पुरानी कहानी हैः एक सेठ के घर उनके बेटे की शादी का प्रसंग था। एक मजदूर के सिर पर घी का घड़ा उठवाकर सेठ घर जा रहे थे। आज मजदूर को रोज की अपेक्षा ज्यादा पैसे मिलाने वाले थे। सेठ के वहाँ खुशहाली का प्रसंग था न ! ....तो मजदूर सोचने लगाः
"मैं इन पैसों से मुर्गियाँ लूँगा.... मुर्गियाँ अण्डे देंगी..... अण्डों से बच्चे बनेंगे..... बच्चे मुर्गियाँ बन जायेंगे.... मुर्गियों से अण्डे... अण्डों से मुर्गियाँ... मेरे पास बहुत सारी मुर्गियाँ हो जायेंगी...."
सिर पर घड़ा है। कदम पड़ रहे हैं और मन में मनोराज चल रहा हैः
"फिर मुर्गियाँ बेचकर गाय खरीदूँगा... दूध बेचूँगा और खूब पैसे इकट्ठे हो जायेंगे तब यह सब धंधा छोड़कर किराने की दुकान खोलूँगा... एक बढ़िया विस्तार में व्यापार करूँगा.... शादी होगी.... बाल-बच्चे होंगे... आगे दुकान पीछे मकान.... दुकान पर खूब ग्राहक होंगे... मैं सौदे में व्यस्त होऊँगा.... घर से लड़का बुलाने आयेगाः "पिताजी ! पिताजी ! चलो, माँ भोजन करने के लिए बुला रही है...' मैं गुस्से में कहूँगा की चल हट्...!
'चल हट्...' कहते ही मजदूर ने मारा हाथ का झटका तो सिर का घड़ा नीचे.... घड़ा फूट गया। घी ढुल गया। मजदूर के भविष्य का सुहावना स्वप्न हवा हो गया।
सेठ आगबबूला होकर तिलमिला उठेः "रे दुष्ट ! यह क्या कर दिया? चल हट्...' मेरे सैंकड़ों रूपये का घी बिगाड़ दिया?"
मजदूर बोलाः "सेठजी ! आपका तो केवल घी बिगड़ा लेकिन मेरा तो घर-बार, पुत्र-परिवार, व्यापार-धंधा सब चौपट हो गया।"

यह है मनोराज। आदमी काम कुछ करता है और मन कुछ और कल्पनाओं में घूमता है। सामान्यतया हम किसी कार्य में व्यस्त होते हैं तो मनोराज कम होता है लेकिन जप, ध्यान करने बैठते हैं तो मनोराज हो ही जाता है। उस समय कोई बाह्य क्रिया नहीं होती है, इससे मन अपनी जाल बुनना शुरु कर देता है।

इस मनोराज को हटाने के लिए उच्च स्वर से ॐ का उच्चारण कर लो। सावधानी से मन को देख लो और उससे पूछोः 'अरे मनीराम ! क्या कर रहा है?' ....तो मन कल्पना का जाल बुनना छोड़ देगा। उसे फिर जप में, मंत्र के अर्थ में लगा दो।

संक्षेप में- स्थूल निद्रा को जीतने के लिए आसन, सूक्ष्म निद्रा-तन्द्रा को जीतने के लिए प्राणायाम और मनोराज को जीतने के लिए ॐ का दीर्घ स्वर से जप करना चाहिए। जो लोग सूर्यास्त एवं सूर्योदय के समय सोते हैं वे अपने जीवन का ह्रास करते हैं। बुद्धि पर इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। बुद्धि का सम्बन्ध सूर्य के साथ है और मन का सम्बन्ध चन्द्र के साथ हैं। अतः उनके अनुकूल आचार बनाने से लाभ होता है। जो लोग अनुष्ठान सफल करना चाहते हैं, इष्ट्मंत्र सिद्ध करना चाहते हैं,जीवन में चमकना चाहते हैं, महकना चाहते हैं उनके लिए ये बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। सन्धिकाल उनके लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। सूर्योदय के 10-15 मिनट पूर्व व पश्चात्,  मध्यान्ह १२बजने के १०-१५ मिनट पूर्व व पश्चात, सूर्यास्त के १०-१५ मिनट पूर्व व पश्चात एवं रात्रि के पौने बारह से सवा बारह बजे के बीच..... इन सन्धिकालों के समय जप करके कुछ मिनटों के लिए तन और मन के परिश्रम से रहित हो जाना चाहिए। जप छोड़कर श्रमरहित स्थिति में आने से अमाप लाभ होता है।