पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 30, 2010



पुरुषार्थ परमदेव पुस्तक से - Purusharth Paramdev pustak se

ज्ञानवान जो संत हैं और सत्शास्त्र जो ब्रह्मविद्या है उसके अनुसार प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ से पाने योग्य आत्मज्ञान है जिससे जीव संसार समुद्र से पार होता है।
हे राम जी! जो कुछ सिद्ध होता है वह अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं। जो लोग कहते हैं कि दैव करेगा, सो होगा, यह मूर्खता है। जिस अर्थ के लिए दृढ़ संकल्प के साथ पुरुषार्थ करे और उससे फिरे नहीं तो उसे अवश्य पाता है।
संतजन और सत्शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है। मूर्ख और पामर लोग उसी में अपना जन्म गँवा देते हैं। उन जैसे अभागों का संग करना यह अपने हाथों से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है।
हे रघुकुलतिलक श्री राम ! केवल चैतन्य आत्मतत्त्व है। उसमें चित्त संवेदन स्पन्दनरूप है। यह चित्त-संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूप होता है और नारायण कहलाता है। यही चित्त-संवेदन अपने पुरुषार्थ से रूद्ररूप हो परमशान्तिरूप को धारण करता है। चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्त्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है। एक जीव पुरुषार्थ बल से ही त्रिलोकपति इन्द्र बनकर चमकता है और देवताओं पर आज्ञा चलाता है। मनुष्य तो क्या देवताओं से भी पूजा जाता है। कहाँ तो साधारण जीव और कहाँ त्रिलोकी में इन्द्रदेव बन कर पूजा जाना ! सब पुरुषार्थ की बलिहारी है।
बृहस्पति ने दृढ़ पुरुषार्थ किया इसलिए सर्वदेवताओं के गुरु हुए। शुक्रजी अपने पुरुषार्थ के द्वारा सब दैत्यों के गुरु हुए हैं। दीनता और दरिद्रता से पीड़ित नल और हरिश्चन्द्र जैसे महापुरुष पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। पुरुषार्थ से जो सुमेरू का चूर्ण करना चाहो तो वो भी हो सकता है। अपने हाथ से जो चरणामृत भी नहीं ले सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड-खण्ड करने में समर्थ हो जाता है। पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड करने में समर्थ हो जाता है।
हे रामजी ! चित्त जो कुछ वांछा करता है और शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ नहीं करता सो सुख न पालेगा, क्योंकि उसकी उनुमत्त चेष्टा है।
पौरूष भी दो प्रकार का है। एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्रविरुद्ध।
जो शास्त्र को त्यागकर अपने इच्छा के अनुसार विचरता है सो सिद्धता न पावेगा और जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करेगा वह सिद्धता को पावेगा। वह कदाचित दुःखी न होगा।
हे राम ! पुरुषार्थ ही परम देव है। पुरुषार्थ से ही सब कुछ सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं है। जो कहता है कि "जो कुछ करेगा सो देव करेगा।" वह मनुष्य नहीं गर्दभ है। उसका संग करना दुःख का कारण है।
मनुष्य को प्रथम तो यह करना चाहिए कि अपने वर्णाश्रम के शुभ आचारों को ग्रहण करे और अशुभ का त्याग करे। फिर संतों का संग और सत्शास्त्रों का विचार करे। अपने गुण और दोष भी विचारे कि दिन और रात्रि में अशुभ क्या है। फिर गुण और दोषों का साक्षी होकर संतोष, धैर्य, विराग, विचार और अभ्यास आदि गुणों को बढ़ावे और दोषों का त्याग करे। जीव जब ऐसे पुरुषार्थ को अंगीकार करेगा तब परमानन्दरूप आत्मतत्त्व को पावेगा।
वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानकर खाता है। विवेकी मनुष्य को उस मृग की भांति स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न नहीं होना चाहिए। इनसे विरक्त होकर, दाँत भीँचकर संसारसमुद्र से पार होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही संसार की कैद से निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है। नश्वर चीजें बढ़ाकर, अहं को बढ़ाकर, चीख-चीखकर मर जाने का नाम पुरुषार्थ नहीं है।
एक भगतड़ा था सब देवी देवताओं का मानता था और आशा करता थाः "मुझे कोई मुसीबत पड़ेगी तब देवी देवता मेरी सहायता करेंगे।" शरीर से हट्टाकट्टा, मजबूत था। बैलगाड़ी चलाने का धन्ध करता था।
एक दिन उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह भगतड़ा बैलगाड़ी पर बैठा-बैठा एक-एक देव को पुकारता था कि- 'हे देव! मुझे मदद करो। मेरी नैया पार करो। मैं दीन हीन हूँ। मैं निर्बल हूँ। मेरा जगत में कोई नहीं। मैं इतने वर्षों में तुम्हारी सेवा करता हूँ... फूल चढ़ाता हूँ... स्तुति भजन गाता हूँ। इसलिए गाता था कि ऐसे मौके पर तुम मेरी सहाय करो।"
इस प्रकार भगतड़ा एक-एक देव को गिड़गिड़ाता रहा। अन्धेरा उतर रहा था। निर्जन और सन्नाटे के स्थान में कोई चारा न देखकर आखिर उसने हनुमान जी को बुलाया। बुलाता रहा.... बुलाता रहा....। बुलाते-बुलाते अनजाने में चित्त शान्त हुआ। संकल्प सिद्ध हुआ। हनुमान जी प्रकट हुए। हनुमान जी को देखकर बड़ा खुश हुआ।
"और सब देवों को बुलाया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। आप ही मेरे इष्टदेव हैं। अब मैं आपकी ही पूजा करूँगा।"
हनुमान जी ने पूछाः "क्यों बुलाया है?"
भगतड़े ने कहाः "हे प्रभु ! मेरी बैलगाड़ी कीचड़ में फँसी है। आप निकलवा दो।"
पुरुषार्थमूर्ति हनुमान जी ने कहाः "हे दुर्बुद्धि ! तेरे अन्दर अथाह सामर्थ्य है, अथाह बल है। नीचे उतर। जरा पुरुषार्थ कर। दुर्बल विचारों से अपनी शक्तियों का नाश करने वाले दुर्बुद्धि ! हिम्मत कर नहीं तो फिर गदा मारूँगा।"
निदान, वह हट्टाकट्टा तो था ही। लगाया जोर पहिए को। गाड़ी कीचड़ से निकालकर बाहर कर दी।
हनुमान जी ने कहाः "यह बैलगाड़ी तो क्या, तू पुरुषार्थ करे तो जन्मों-जन्मों से फँसी हुई तेरी बुद्धिरूपी बैलगाड़ी संसार के कीचड़ से निकालकर परम तत्त्व का साक्षात्कार भी कर सकता है, परम तत्त्व में स्थिर भी हो सकता है।
तस्य प्रज्ञा प्रतिहिता
जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नही होती। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और दैव (भाग्य) के आश्रय होकर समझता है कि "दैव हमारा कल्याण करेगा" तो वह कभी सिद्ध नहीं होगा। पत्थर से कभी तेल नहीं निकलता, वैसे ही दैव से कभी कल्याण नहीं होता। वशिष्ठजी कितना सुन्दर कहते हैं !
"हे निष्पाप श्री राम ! तुम दैव का आश्रय त्याग कर अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो। जिसने अपना पुरुषार्थ त्यागा है उसको सुन्दरता, कान्ति और लक्ष्मी त्याग जाती है।"
जिस पुरुष ने ऐसा निश्चय किया है कि 'हमारा पालने वाला दैव है' वह पुरुष है जैसे कोई अपनी भुजा को सर्प जानकर भय खा के दौड़ता है और दुःख पाता है।
पुरुषार्थ यही है कि संतजनों का संग करना और बोधरूपी कलम और विचाररूपी स्याही से सत्शास्त्रों के अर्थ को हृदयरूपी पत्र पर लिखना। जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसार रूपी जालल में न गिरोगे। अपने पुरुषार्थ के बिना परम पद की प्राप्ति नहीं होती। जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अमृत के भी अमृत अन्तर्यामी के पास बैठकर भी यदि विवेक.... वैराग्य जगाकर इस आत्मरस का पान नहीं करते तब तक अमर आनन्द की प्राप्ति नहीं होती।
हे राम जी ! अज्ञानी जीव अपना जन्म व्यर्थ खोते हैं। जब बालक होते हैं तब मूढ़ अवस्था में लीन रहते हैं, युवावस्था में विकार को सेवते हैं और वृद्धावस्था में जर्जरीभूत हो जाते हैं। जो अपना पुरुषार्थ त्याग कर दैव का आश्रय लेते हैं वे अपने हन्ता होते हैं। वे कभी सुख नहीं पाते। जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ में आलसी होकर तथा पुरुषार्थ को त्याग कर मूढ़ हो रहे हैं सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त होते हैं।
पूर्व में जो कोई पाप किया होता है उसके फलस्वरूप जब दुःख आता है तब मूर्ख कहता है किः 'हा दैव....! हा दैव....!' उसका जो पूर्व का पुरुषार्थ है उसी का नाम दैव है, और कोई दैव नहीं। जो कोई दैव कल्पते हैं सो मूर्ख हैं। जो पूर्व जन्म में सुकृत कर आया है वही सुकृत सुख होकर दिखाई देता है। जो पूर्व जन्म मे दुष्कृत कर आया है वही दुष्कृत दुःख होकर दिखाई देता है। जो वर्त्तमान में शुभ का पुरुषार्थ करता, सत्संग और सत्शास्त्र को विचारता है, दृढ़ अभ्यास करता है वह पूर्व के दुष्कृत को भी जीत लेता है। जैसे पहले दिन पाप किया हो और दूसरे दिन बड़ा पुण्य करे तो पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। जैसे बड़े मेघ को पवन नाश करता है, वर्षा के दिनों में पके खेत को ओले नष्ट कर देते हैं वैसे ही पुरुष का वर्त्तमान प्रयत्न पूर्व के संस्कारों को नष्ट करता है।
हे रघुकुलनायक ! श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसार-समुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है वह पुरुष नीच से नीच गति को पावेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष है वे अपने पुरुषार्थ से परमानन्द पद को पावेंगे, जिसके पाने से फिर दुःखी न होंगे। देखने में जो दीन होता है वह भी सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करता है तो उत्तम पदवी को प्राप्त होता है। जैसे समुद्र रत्नों से पूर्ण है वैसे ही जो उत्तम प्रयत्न करता है उसको सब सम्पदा आ प्राप्त होती है और परमानन्द से पूर्ण रहता है।
हे राम जी ! इस जीव को संसार रूपी विसूचि का रोग लगा है। उसको दूर करने का यही उपाय है कि संतजनों का संग करे और सत्शास्त्रों में अर्थ में दृढ़ भावना करके, जो कुछ सुना है उसका बारंबार अभ्यास करके, सब कल्पना त्याग कर, एकाग्र होकर उसका चिन्तन करे तब परमपद की प्राप्ति होगी और द्वैत भ्रम निवृत्त होकर अद्वैतरूप भासेगा। इसी का नाम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के बिना पुरुष को आध्यात्मिक आदि ताप आ प्राप्त होते हैं और उससे शान्ति नहीं पाता।
हे रामजी ! तुम भी रोगी न होना। अपने पुरुषार्थ के द्वारा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना। कोई दैव मुक्ति नहीं करेगा। अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही संसारबन्धन से मुक्त होना है। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है, किसी और को भाग्य मानकर उसके आश्रय हुआ है उसके धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते हैं। वह नीच से नीच गति को प्राप्त होता है। जब किसी पदार्थ को ग्रहण करना होता है तो भुजा पसारने से ही ग्रहण करना होता है और किसी देश को जाना चाहे तो वह चलने से ही पहुँचता है, अन्यथा नहीं। इससे पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। 'जो भाग्य में होगा वही मिलेगा' ऐसा जो कहता है वह मूर्ख है। पुरुषार्थ ही का नाम भाग्य है। 'भाग्य' शब्द मूर्खों का प्रचार किया हुआ है।
हे अनघ ! जिस पुरुष ने संतों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ नहीं किया उसका बड़ा राज्य, प्रजा, धन और विभूति मेरे देखते ही देखते क्षीण हो गई और वह नरक में गया है। इससे मनुष्य को सत्शास्त्रों और सत्संग से शुभ गुणों को पुष्ठ करके दया, धैर्य, संतोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिए। जैसे बड़े ताल से मेघ पुष्ट होता है और फिर मेघ वर्षा करके ताल को पुष्ट करता है वैसे ही शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से गुण पुष्ट होते हैं।
हे राघव ! शुद्ध चैतन्य जो जीव का अपना आप वास्तवरूप है उसके आश्रय जो आदि चित्त-संवेदन स्फुरता है सो अहं-ममत्व संवेदन होकर फुरने लगता है। इन्द्रियाँ भी अहंता से स्फुरती हैं। जब यह स्फुरता संतों और शास्त्रों के अनुसार हो तब पुरुष परम शुद्धि को प्राप्त होता है और जो शास्त्रों के अनुसार न हो तो जीव वासना के अनुसार भाव-अभावरूप भ्रमजाल में पड़ा घटीयंत्र की नाई भटककर कभी शान्तिमान नहीं होता। अतः हे राम जी ! ज्ञानवान पुरुषों और ब्रह्मविद्या के अनुसार संवेदन और विचार रखना। जो इनसे विरुद्ध हो उसको न करना। इससे तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा और सबसे निर्लेप रहोगे।
हे निष्पाप श्रीराम ! जिन पुरुष से शांति प्राप्त हो उनकी भली प्रकार सेवा करनी चाहिए, क्योंकि उनका बड़ा उपकार है कि वे संसार समुद्र से निकाल लेते हैं। संतजन और सत्शास्त्र भी वे ही हैं जिनकी संगति और विचार से चित्त संसार से उपराम होकर उनकी ओर हो जाये। मोक्ष का उपाय वही है जिससे जीव और सब कल्पना को त्याग कर अपने पुरुषार्थ को अंगीकार करे और जन्म मरण का भय निवृत्त हो जाये।
जीव जो वांछा करता है और उसके निमित्त दृढ़ पुरुषार्थ करता है तो अवश्य वह उसको पाता है। बड़े तेज और विभूति से सम्पन्न जो देखा और सुना जाता है वह अपने पुरुषार्थ से ही हुआ है और जो महा निकृष्ट सर्प, कीट आदि तुमको दृष्टि में आते हैं उन्होंने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है तभी ऐसे हुए हैं।
हे रामजी ! अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो नहीं तो सर्प, कीटादिक नीच योनि को प्राप्त होंगे। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ त्यागा है और किसी दैव का आश्रय लिया है वह महामूर्ख है। यह जो शब्द है कि "दैव हमारी रक्षा करेगा" सो किसी मूर्ख की कल्पना है। हमको दैव का आकार कोई दृष्टि नहीं आता और न दैव कुछ करता ही है। क्योंकि अग्नि में जा पड़े और दैव निकाल ले तब जानिये कि कोई देव भी है, पर सो तो नहीं होता। स्नान, दान, भोजन आदि को त्याग करके चुप हो बैठे और आप ही दैव कर जावे सो भी किये बिना नहीं होता। जीव का किया कुछ नहीं होता और दैव ही करने वाला होता तो शास्त्र और गुरु का उपदेश भी नहीं होता।
हे राघव ! जीव जब शरीर को त्यागता है और शरीर नष्ट हो जाता है, तब जो दैव होता तो चेष्टा करता, पर सो तो चेष्टा कुछ नहीं होती। इससे जाना जाता है कि दैव शब्द व्यर्थ है। पुरुषार्थ की वार्ता अज्ञानी जीव को भी प्रत्यक्ष है कि अपने पुरुषार्थ बिना कुछ नहीं होता । गोपाल भी जानता है कि मैं गौओं को न चराऊँ तो भूखी रहेंगी। इससे वह और दैव के आश्रय नहीं बैठता। आप ही चरा ले आता है। दैव यदि पढ़े बिना पण्डित करे तो जानिये कि दैव ने किया, पर पढ़े बिना पण्डित तो नहीं होता। जो अज्ञानी ज्ञानवान होते हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही होते हैं। ये जो विश्वामित्र है, इन्होंने दैव शब्द दूर से ही त्याग दिया है और अपने पुरुषार्थ से ही क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए हैं।
यदि कुछ पुरुषार्थ न किया होता तो पाप करने वाले नरक न जाते और पुण्य करने वाले स्वर्ग न जाते। पर सो तो होता नहीं। जो कोई ऐसा कहे कि कोई दैव करता हैं तो उसका सिर काटिये तब वह दैव के आश्रय जीता रहे तो जानिये कि कोई दैव है, पर सो तो जीता नहीं। इससे हे रामजी ! दैव शब्द मिथ्या भ्रम जानकर संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार अपने पुरुषार्थ से आत्मपद में स्थित हो।"

Tuesday, March 23, 2010



सत्संग सुमन पुस्तक से - Satsang Suman pustak se

जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।
कबीर जी के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा। कबीर जी लिखते हैं-
राम परवाना भेजिया, वाँचत कबीरा रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।
ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है, काम, क्रोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी, मंथरा, शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदि ईश्वर का दर्शन करते थे फिर भी उनमें दुर्गुण मौजूद थे क्योंकि भगवान का दर्शन आत्मरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उन्होंने नहीं किया।
शरीर की आँखों से भले ही कितना भी दर्शन करो, लेकिन जब तक ज्ञान की आँख नहीं खुलती तब तक आदमी थपेड़े खाता ही रहता है। दर्शन तो अर्जुन ने भी किये थे श्री कृष्ण के, परंतु जब श्रीकृष्ण ने उपदेश देकर कृष्ण तत्त्व का दर्शन कराया तब अर्जुन कहता हैः
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।'
(गीताः 18.73)
शिवजी का दर्शन हो जाय, राम जी का हो जाय या श्री कृष्ण का हो जाय लेकिन जब तक सदगुरू आत्मा-परमात्मा का दर्शन नहीं कराते तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंड और अहंकार रह सकता है। सदगुरू के तत्त्वज्ञान को पाये बिना इस जीव की, बेचारे की साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह मन के ही जगत् में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो कभी नहीं आया। इसलिये कबीर जी ने कहा हैः
भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।
यह जीव चाहता है तो शांति, मुक्ति और अपने नाथ से मिलना। मृत्यु आकर शरीर छीन ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसके पहले अपने नाथ से मिलना चाहिए, परंतु मन भटका देता है बाहर की, संसार की वासनाओं में। कोई-कोई भाग्यशाली होते हैं वे ही दान-पुण्य करना समझ पाते होंगे। उनसे कोई ऊँचा होता होगा वह सत्संग में आता है और उनसे भी ऊँचाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह सत्यस्वरूप आत्मा परमात्मा में पहुँचता, उसे परम शांति मिलती है, जिस परम शांति के आगे, इन्द्र का वैभव भी कुछ नहीं।
आपूर्यमाणचलं प्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
'जैसे जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।'
(गीताः 2.70)
जैसे समुद्र में सारी नदियाँ चली जाती हैं फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, सबको समा लेता है, ऐसे ही उस निर्वासनिक पुरूष के पास सब कुछ आ जाय फिर भी वह परम शांति में निमग्न पुरूष ज्यों का त्यों रहता है। ऐसी अवस्था का ध्यान कर अगर साधन-भजन किया जाय तो मनुष्य शीघ्र ही अपनी उस मंजिल पर पहुँच ही जाता है।
निम्न तीन बातें सब लोगों को अपने जीवन में लानी ही चाहिए। ये तीन बातें जो नहीं जानता वह मनुष्य के वेश में पशु ही हैः
पहली बातः मृत्यु कभी भी, कहीं भी हो सकती है, यह बात पक्की मानना चाहिए।
दूसरी बातः बीता हुआ समय पुनः लौटता नहीं है। अतः सत्यस्वरूप ईश्वर को पाने के लिए समय का सदुपयोग करो।
तीसरी बातः अपना लक्ष्य परम शांति यानि परमात्मा होना चाहिए।
यदि आप लक्ष्य बना कर नहीं आते तो क्या सत्संग में पहुँच पाते? अतः पहले लक्ष्य बनाना पड़ता है फिर यात्रा शुरू होती है। भगवान की भक्ति का उच्च लक्ष्य बनाते नहीं है इसलिये हम वर्षों तक भटकते-भटकते अंत में कंगले के कंगले ही रह जाते हैं।
आप पूछेंगेः "महाराज ! कंगले क्यों? भक्ति की तो धन मिला, यश मिला।"
भैया ! यह तो मिला लेकिन मरे तो कंगले ही रह गये। सच्चा धन तो परमात्मा की प्राप्ति है। यह तो बाहर का धन है जो यहीं पड़ा रह जायेगा। इस शरीर को भी कितना ही खिलाओ-पिलाओ, यह भी यहीं रह जायेगा। सच्चा धन तो आत्मधन है। कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः
कबीरा यह जग निर्धना, धनवंता नहीं कोई।
धनवंता तेहुँ जानिये, जाको राम नाम धन होई।।
जिसके जीवन में रोम-रोम में रमने वाला परम शांति परम सुख व आनंदस्वरूप रामनाम का धन नहीं है वह धनवान होते हुए भी कंगाल ही तो है।
मनुष्य में इतनी सम्भावनाएँ हैं कि वह भगवान का भी माता-पिता बन सकता है। दशरथ-कौशल्या ने भगवान राम को जन्म दिया और देवकी-वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बने। मनुष्य में इतनी सम्भावनाएँ हैं लेकिन यदि वह सदगुरू के चरणों में नहीं जाता और सूक्ष्म साधना में रूचि नहीं रखता तो मनुष्य भटकता रहता है।
आज भोगी भोग में भटक रहा है, त्यागी त्याग में भटक रहा है और भक्त बेचारा भावनाओं में भटक रहा है। हालाँकि भोगी से और त्याग के अहंकारी से तो भक्त अच्छा है लेकिन वह भी बेचारा भटक रहा है। इसीलिए नानकजी ने कहाः
संत जना मिल हर जस गाइये।
उच्च कोटि के महापुरूषों के चरणों में बैठकर हरिगुण गाओ, उनसे मार्गदर्शन लेकर चलो। कबीर जी ने कहा हैः
सहजो कारज संसार को, गुरू बिना होत नाहीं।
हरि तो गुरू बिन क्या मिले, समझ ले मन मांहीं।।
संसार का छोटे-से-छोटा कार्य भी सीखने के लिए कोई न कोई तो गुरू चाहिए और फिर बात अगर जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार करने की आती है तो उसमें सदगुरू की आवश्यकता क्यों न होगी भैया ?
मेरे आश्रम में एक महंत रहता है। मुझे एक बार सत्संग के लिए कहीं जाना था। मैंने उस महंत से कहाः "रोटी तुम अपने हाथों से बना लेना, आटा-सामान यहाँ पड़ा है।"
उसने कहाः "ठीक है।"
वह पहले एक सेठ था, बाद में महंत बन गया। तीन दिन के बाद जब मैं कथा करके लौटा तो महंत से पूछाः "कैसा रहा? भोजन बनाया था कि नहीं?"
महंतः "आटा भी खत्म और रोटी एक भी नहीं खाई।"
मैंने पूछाः "क्यों, क्या हुआ?"
महंतः "एक दिन आटा थाल में लिया और पानी डाला तो रबड़ा हो गया। फिर सोचाः थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर बनाऊँ तो बने ही नहीं। फिर सोचाः वैसे भी रोटी बनाते हैं तो आटा ही सिकता है तो क्यों न तपेली में डालकर जरा हलवा बना लें ? हलवा बनाने गया तो आटे में गाँठें ही गाँठें हो गई तो गाय को दे दिया। फिर सोचाः चलो मालपूआ जैसा कुछ बनावें लेकिन स्वामी जी ! कुछ जमा ही नहीं। आटा सब खत्म हो गया और रोटी का एक ग्रास भी नहीं खा पाया।"
जब आटा गूँथने और सब्जी बनाने के लिए भी बेटी को, बहू को किसी न किसी से सीखना पड़ता है तो जीवात्मा का भी यदि परमात्मा का साक्षात्कार करना है तो अवश्य ही सदगुरू से सीखना ही पड़ेगा।
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई।
चाहे विरंचि संकर सम होई।।
गुरू की कृपा के बिना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता। ऐसे महापुरूषों को पाने के लिए भगवान से मन ही मन बातचीत करो किः "प्रभु ! जिंदगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भक्ति, तेरा ध्यान और परम शांति का प्रसाद लुटाने वाले किसी सदगुरू की कृपा का दीदार करा दे।"
दुनिया भर की बातें तो तुमने बहुत सुनी, लाला ! बहुत कही.... बहुत कहोगे.... लेकिन अंत में उससे कुछ न मिलेगा, रोते रह जाओगे.... इसलिए कभी कभी उस दुनिया के स्वामी के साथ बातचीत किया करो। कभी रोना नहीं आता है तो इस बात पर रोओ कि पैसों के लिए रोता है, वाह-वाही के लिए रोता है, लेकिन ऐ मेरे पापी मन ! परमात्मा के लिए तुझे रोना ही नहीं आता ? कभी उसको प्यार करते-करते हँसो, फिर देखो कि धीरे-धीरे कैसे तुम्हारी चेतना जागृत होती है। कोई सच्चे सदगुरू ब्रह्मवेत्ता मिल जाएँगे और उनकी सम्प्रेक्षण शक्ति का यदि थोड़ा सा अंश भी मिल गया तो आप लोग जिस तरह यहाँ शिविरों में सहज ही ध्यानमग्न हो जाते हो, ऐसा अनुभव आप अपने घर में भी पूजनकक्ष में कर सकते हो।
आप जितनी अधिक अन्तरंग साधना उपासना करेंगे, अन्दर के देवता का दर्शन करने जाएँगे, उतनी ही आपकी पर्ते हटती जाएँगी। बाहर के देव के दर्शन करने में तो तुम्हें लाईन लगानी पड़ेगी, पर्ची कटवाने पर भी चाहे दर्शन हो या न हो लेकिन इस अंदर के देव के दर्शन एक बार ठीक से हो गये तो फिर बाहर के देव के दर्शन तुमने नहीं किये तो भी चिन्ता की बात नहीं। तुम जहाँ भी हो, वहाँ देव ही देव है।
उस परमात्मा की कृपा पाने के लिए आप छटपटाओ, कभी यत्न करो। जिन्दगी का इतना समय बीता चला जा रहा है, अब कुछ ही शेष बचा है...... डेढ़ साल..... दो साल..... पाँच.... दस..... बीस या तीस साल और अंत में क्या....? यह जीवन बहती गंगा की तरह बह रहा है। उसमें से अपना समय बचाकर काम कर लो भैया.....!
उस सत्यस्वरूप का संग करो। सुबह नींद से उठते ही संकल्प करोः "प्रभु ! तेरा संग कैसे हो?" कभी व्यवहार करते-करते बार-बार सोचो किः "ऐ मेरे परमात्मा ! तू मेरे साथ है लेकिन मैं अभी तक तेरा संग नहीं कर रहा हूँ और मिटने वाली चीजों और मरने वाले दोस्तों के संग में पड़ा हूँ लेकिन हे मेरे अमिट-अमर मालिक ! तेरी दोस्ती का रंग मुझे कब लगेगा ? तू क्या कर दे प्रभु !"
अगर आपने सच्चे हृदय से ऐसी प्रार्थना की है तो वह काम कर लेगी। यदि हृदय से सच्ची प्रार्थना नहीं निकल पाती है तो कम से कम ऐसे-वैसे ही प्रार्थना करो, धीरे-धीरे वह भी सच्ची बन जाएगी।
हल्की कामनाओं को निकालने के लिए अच्छी कामना करनी चाहिए। जैसे काँटे से काँटा निकलता है, वैसे ही हल्की वासना और हल्के कर्मों से अपने दिल को पवित्र करने के लिए अपने दिल को अच्छे कर्म में लगा दो। हल्की आदतें दूर करने के लिए अच्छी आदतें, देवदर्शन की आदतें डाल दो, अच्छा है। संसार आँखों और कानों से भीतर प्रवेश कर अशांति पैदा करता है, इसकी अपेक्षा भगवान के श्रीविग्रह को देखकर उसी को भीतर प्रवेश कराओ, अच्छा है। भगवान के प्यारे संतों के वचन सुनकर उनका चिंतन-मनन करो तो जैसे काँटे से काँटा निकलता है ऐसे ही सत्संग से कुसंग निकलता है। सुदर्शन से कुदर्शन का आकर्षण निवृत्त होता है। यदि कुदर्शन हट गया तो सुदर्शन तुम्हारा स्वभाव हो जाएगा।
भगवान के दर्शन से मोह हो सकता है लेकिन भगवान के सत्संग से मोह दूर होता है। दर्शन से भी सत्संग ऊँचा है। सत्संग मनुष्य को सत्यस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित कर शांतस्वरूप परमात्मा का अनुभव कराता है।
अन्तर्आराम अन्तर्सुख अन्तर्ज्योतिरेव च।
सत्संग आन्तरिक आराम, आंतरिक सुख व आंतरिक ज्ञान की ज्योति जगाता है। दीपक की ज्योति गर्म होती है जो वस्तुओं को जलाती है लेकिन भीतर के ज्ञान की ज्योति जब सदगुरू प्रज्वलित कर देते हैं तो वह वस्तुओं को नहीं वरन् पाप ताप को जलाकर अज्ञान और आवरण को मिटाकर जीवन में प्रकाश लाती है, शांति और माधुर्य ले आती है।
जिनके हृदय में वह अचल शांति प्रगट हुई है उनकी आँखों में जगमगाता आनन्द, संतप्त हृदयों को शांति देने का सामर्थ्य, अज्ञान में उलझे हुए जीवों को आत्मज्ञान देने की उनकी शैली अपने-आप में अद्वितीय होती है।
ऐसे पुरूष संसार में जीते हुए लाखों लोगों का अन्तःकरण भगवदाकार बना देते हैं। आप भी ऐसा करने में सक्षम हो सकते हैं बशर्ते आप सत्संग के सहारे दिलमंदिर में जाने का प्रयास करें तो। आपके जीवन में कोई सुखद घटना घटे या दुःखद, आप अपने ही ज्ञान का सहारा लीजिये।
एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है !
आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार मिल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"
वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"
सेठ जीः "एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए ? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा ?"
सेठ जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।।
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।
वशिष्ठजी कहते हैः "हे राम जी! सुमेरू पर्वत के शिखर तक गंगा का प्रवाह चले और फिर रूक जाए तो उसके बालू के कण तो शायद गिने जा सके लेकिन इस जीव ने कितने जन्म लिये हैं, कितनी माताओं के गर्भों से बेचारा भटका है उसकी कोई गिनती नहीं। अगर उसे सदगुरू मिल जाएँ, परमात्मा में प्रीति हो जाए और परमपद की प्राप्ति हो जाए तो यह जीव अचल शांति को, परमात्मा को पा सकता है। इस प्रकार यदि हम अपने हृदयमंदिर में पहुँचकर अन्तर्यामी ईश्वर का ज्ञान-प्राप्त कर लें तो फिर माताओं के गर्भों में भटकना नहीं पड़ता।
सुख-शांति को खोजते-खोजते युग बीत गये हैं। तुम घर से उत्साहित होकर निकलते हो कि इधर जाएँगे..... उधर जाएँगे लेकिन जब वापस लौटते हो तो थककर सोचते हो कि कब घर पहुँचे.... कब घर पहुँचे ? हो गया, बहुत हो गया.....
आदमी अपने घर से निकलता है तो बड़े उत्साह से, परंतु लौटता है तो थककर ही लौटता है। कहीं भी जाये लेकिन अन्त में घर आना ही पड़ता है। ऐसे ही जीवात्मा कितने ही शरीर में चला जाय, अंत में जब तक आत्मा-परमात्मारूपी घर में नहीं आएगा तब तक उसे पूर्ण विश्रांति प्राप्त नहीं होगी।
होटल चाहे कितनी भी बढ़िया हो, धर्मशाला में चाहे मुफ्त में रहने को मिले परंतु अपने घर तो पहुँचना ही पड़ता है। ऐसे ही शरीररूपी होटल चाहे कितनी भी बढ़िया मिल जाये अथवा शरीररूपी सराय कितनी भी सुन्दर और सुहावनी मिल जाए फिर भी इस जीवात्मा को अपने परमात्मारूपी घर में पहुँचना ही पड़ेगा। इस जन्म में पहुँचे या दस जन्म के बाद पहुँचे, दस हजार जन्म के बाद पहुँचे या दस लाख जन्म के बाद, चाहे करोड़ों जन्मों के बाद पहुँचे..... पहुँचना तो वहीं पड़ेगा। ॐ......ॐ......ॐ.......

Tuesday, March 16, 2010



मुक्ति का सहज मार्ग पुस्तक से - Mukti ka Sahaj Marg pustak se

जितने अंश में तुम्हारी प्राणशक्ति उन्नत है उतने अंश में तुम व्यवहार में, समाज में, स्वास्थ्य में उन्नत हो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से यह शरीर बना है। इसका संचालन वायु तत्त्व से विशेष होता है। हमारे प्राण जितने सूक्ष्म होते हैं उतना हमारा मन बढ़िया होता है। प्राणशक्ति को जितनी-जितनी सूक्ष्मता होती है उतना-उतना योगी महान् हो जाता है। जिसने प्राणजय कर लिया वह योगी चाहे तो नक्षत्रों को, तारों को, चाँद और सूर्य को गेंद की तरह अपनी जगह से हिला सकता है। जिसने प्राणशक्ति पर विजय पा लिया वह अपने शरीर की आरोग्यता, मन की प्रसन्नता और बुद्धि की विलक्षणता में प्रवेश कर लेता है।
प्राणायाम प्राणशक्ति के विकास का एक नमूना है। जिनकी निगाहों से लोगों के चित्त में प्रसन्नता आ जाती है उन्होंने जाने या अनजाने प्राणशक्ति या मनःशक्ति की साधना की हुई है। इस्लाम धर्म हो, यहूदी धर्म हो, ईसाई धर्म हो, सिक्ख धर्म हो, जैन धर्म हो, बौद्ध धर्म हो या और कोई धर्म हो, उस धर्म के जो भी पीर, पैगम्बर, साधू, बाबा, फकीर, तीर्थंकर, भिक्षु आदि समाज में कुछ उन्नत हुए हैं उन्होंने जाने-अनजाने प्राणोपासना की है।
किसी वस्तु को एकटक देखते-देखते, शाम्भवी मुद्रा करते-करते मन रूका। मन रूकने से प्राण की गति रूकी और प्राणशक्ति का विकास हुआ। निष्काम भाव से सेवा करते-करते मन निर्वासनिक हुआ। मन निर्वासनिक होने से संकल्प-विकल्प कम हुए। संकल्प-विकल्प कम होने से प्राणशक्ति का विकास हुआ। आदमी उन्नत हुए।
सत्संग सुनते-सुनते, जगत की असारता विचारते-विचारते मन वासना रहित हुआ, प्राणशक्ति का विकास हुआ। व्यक्ति उन्नत हुआ।
हमारी सुषुप्त जीवन-शक्ति को चितिशक्ति कहते हैं, कुण्डलिनी शक्ति भी कहते हैं। यह शक्ति शरीर की नाभि के नीचे मूलाधार केन्द्र में सुषुप्त रहती है, सोयी पड़ी रहती है। ध्यान के द्वारा, संकल्प के द्वारा, कीर्तन के द्वारा हमारी प्राणशक्ति के धक्के उसको लगते हैं और वह जागृत होती है। हमारी नाड़ियों में जो विजातीय द्रव्य, मल आदि होता है उसका शोधन करती है। फिर प्राणोत्थान के प्रभाव से कुण्डलिनी शक्ति ज्यों-ज्यों ऊपर के केन्द्रों में आती है हमारे प्राण सूक्ष्म होते जाते हैं। हमें पता नहीं चलता इस बात का। जिन योगियों को पता चलता है वे शीघ्रता से साधना करते हैं। हमें पता नहीं चलता और स्वाभाविक थोड़ी-बहुत साधना होती है। हमारा प्राण जितने अंश में शुद्ध होता है, उन्नत होता है उतने अंश में हमारा चित्त प्रसन्न होता है, बुद्धि में दिव्यता आती है और संकल्प में सामर्थ्य आता है।
कीर्तन करते-करते लोग फिर ध्यान नहीं करते तो कीर्तन का विशेष लाभ नहीं उठा पाते। ध्यान करते-करते फिर आत्म-विचार नहीं करते तो ध्यान का पूरा लाभ नहीं उठा पाते। तुलसीदास जी कहाः
तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।
तुलसी मिटै न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
मनुष्य शरीर को सुखा दे, पिंजर बना दे, जब तक आत्मज्ञान का विचार नहीं करेगा तब तक आखिरी मंजिल पर नहीं पहुँचेगा। आखिरी मंजिल पर जाने के लिए बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना ही पड़ेगा। बुद्धि को आध्यात्मिक बनाने के लिए नश्वर भोगों की पोल को जानना पड़ेगा और शाश्वत परमात्मा के रस की महिमा को जानना पड़ेगा। महिमा केवल सिद्धांतिक ही नहीं, ध्यान करके प्रत्यक्ष अनुभव करना पड़ेगा।
मन जितना-जितना अन्तर आराम, अन्तर सुख और अन्तर ज्योत के तरफ जायगा उतना-उतना बाहर के विकारी सुख से हटेगा।
एक होता है इन्द्रियगत ज्ञान, दूसरा होता है बुद्धिगत ज्ञान तीसरा होता है वास्तविक ज्ञान। इन्द्रियगत ज्ञान और बुद्धिगत ज्ञान के बीच मन की वृत्ति काम करती है। आँख देखने का काम करती है। आँख ने एक आदमी दिखाया। मन ने कहाः यह ब्राह्मण है। बुद्धि ने कहाः यह विद्वान है। श्रद्धा ने कहाः यह सज्जन है। और साधन भजन किया तो पता चला कि यह सज्जन भी है, विद्वान भी है, ब्राह्मण भी है और इसके आचार, विचार और गुण ऐसे हैं कि संत से मिलते जुलते हैं। आँखों ने नहीं बताया कि यह संत है। आँखों ने नहीं बताया कि यह विद्वान है, आँखों ने नहीं बताया कि यह सज्जन है। आँखों ने तो मनुष्य बता दिया।
इन्द्रियगत ज्ञान और बुद्धिगत ज्ञान के बीच मन की धारा है। मन की धारा अगर इन्द्रियों से सहमत हो जाती है तो उसका ज्ञान छोटा रह जाता है। मन की धारा बुद्धि से सहमत होती है तो उसके ज्ञान का विकास होता है। ज्ञान का जब विकास होता है तब बुद्धि परिणाम पर ध्यान देती है। जैसे पानी का स्वभाव है नीचे बहना ऐसे इन्द्रियों का स्वभाव है विषय-सुख दिखे वहाँ रूक जाना। अब इतने लोग शान्ति से सत्संग सुन रहे हैं, गुरूजी को एकटक निहार रहे हैं। अगर यहाँ कोई सिंगार की हुई नटी आ जाय तो उस चंचला की ओर आँखें घूम जाएँगी। इन्द्रियों ने ऐसी चंचलाएँ कई बार देखी। इन्द्रियों का स्वभाव है गिरना। उस समय अगर बुद्धि का उपयोग करेंगे तो विचार जागृत होगा। अन्यथा आँखों के पीछे मन लगेगा। कई प्रकार के मनोराज खड़ा करेगा।
इन्द्रियाँ और बुद्धि के बीच मन की धारा है। इस धारा का आप नियंत्रण नहीं करते हैं तो यह धारा इन्द्रियों से जुड़कर बुद्धि को क्षीण कर देती है। मन में जब भगवान का प्रेम भरते हैं तो मन बुद्धि के पक्ष में हो जाता है और बुद्धि परिणाम का विचार करती है। 'यह देख लिया फिर क्या ? यह खा लिया फिर क्या ? इतना इकट्ठा कर लिया फिर क्या ? इतना भोग लिया फिर क्या ?' इस प्रकार बुद्धि परिणाम का विचार करती है तो संसार की असारता समझ में आ जाती है, विकारों का दुःखद परिणाम याद आ जाता है। जरा से सुख के पीछे काफी दुःख सहना पडता है और जरा सा दुःख सह लो तो काफी समता और सामर्थ्य मिलता है। जो सुख को पचा लेता है, दुःख को पचा लेता है वह परम पद को पा लेता है। ऐसा बुद्धि में योग आता है तो बुद्धि जहाँ से ज्ञान लाती है उस सत्य के ज्ञान का प्रकाश होता है। रोम रोम में सत्यस्वरूप की चेतना बस रही है इसलिए उस सत्य का नाम राम रखा गया है। वह खुद ही है इसलिए इस्लाम ने उसे खुदा कहा। वह कल्याणस्वरूप है इसलिए उसका नाम शिव रखा गया। अपना आपा है इसलिए उसे आत्मा कहा गया। वैसे का वैसा सबकी आँख के द्वारा, सबकी बुद्धि के द्वारा वह प्रकाशित होता है, सबकी बुद्धियाँ उसी से ही प्रकाश लाती हैं इसलिए उसका नाम परमात्मा रखा गया।
प्रीतिपूर्वक भगवान का भजन-यजन-स्मरण करने से बुद्धियोग मिलता है। बुद्धियोग को प्राप्त होने वाला साधक भी कभी-कभी फिसलता है, चढ़ता है, उतरता है।
तीन प्रकार के लोग होते हैं- पशुधर्मा, मध्यधर्मा और सिद्धधर्मा।
एक होते हैं, जैसा इन्द्रियों ने दिखाया उसी के पीछे सारा जीवन बिता दें। वे हैं पशुधर्मा लोग। शरीर का आकार तो मनुष्य का लेकिन बुद्धि पशुओं से आगे नहीं बढ़ी। जैसे गाय ने हरा घास देखा तो मुँह डाल दिया, खा लिया। किसका है, कैसा है कुछ नहीं देखा। पशु इन्द्रियगत ज्ञान के प्रभाव में ही जीते हैं। इस प्रकार के आदमी बाहर से चाहे बड़े दिखते हों, वे छोटे विचार के होते हैं। छोटे विचार के बड़े आदमी बड़ा काम नहीं कर सकते। बड़े विचार के छोटे आदमी बड़ा काम कर लेते हैं।
पाशवी धर्मा मनुष्य अपने आहार, निद्रा, भय, मैथुन में समय और जीवन बिता देते हैं। जो जितना ज्यादा भीतर से कंगाल होता है वह उतना ही बाहर से धन की, मान की आवश्यकता महसूस करता है। ऐसा ब्रह्मवेत्ताओं का कहना है, शास्त्रों का कहना है। जो भीतर से जितना गिरा हुआ होता है उसे उतना ही बाहर के आडम्बर की आवश्यकता पड़ती है। भीतर से जितना कंगाल होता है उतना बाहर से चीजों की गुलामी करनी पड़ती है। भीतर से जितना उन्नत होता है उतना बाहर की चीजों से लापरवाही रहती है।
भीतर से उन्नत वे लोग होते हैं जिनके मन की धारा बुद्धि के तरफ है और बुद्धि की धारा चैतन्य के तरफ है।
दूसरे तरफ हैं सिद्धधर्मा लोग, शुकदेवजी महाराज जैसे, कौपीन पहने हुए। भीतर की मस्ती में इतने सराबोर हैं कि कौपीन का भी पता नहीं। त्याग की पराकाष्ठा है। दूसरी ओर परीक्षित हैं, भोग की पराकाष्ठा पर। वे ऐहिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं। शुकदेव जी आध्यात्मिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं। शुकदेवजी आध्यात्मिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं।
परीक्षित ऐहिक जगत में उन्नत शिखर पर हैं लेकिन उन चीजों में उनकी आसक्ति नहीं है, ममता नहीं है। मृत्यु आने वाली है, तक्षक डँसने वाला है। यह सब समझकर जीवन्मुक्त के शरण में आये हैं।
जीवन्मुक्त के जीवन में ऐसा कुछ अदभुत खजाना होता है कि वे भोगी को भी देते हैं, साधक को भी देते हैं, धर्मात्मा को भी देते हैं और परमात्मा को भी प्यार कर देते हैं। परमात्मा प्यार के प्यासे हैं। जीवन्मुक्त परमात्मा को भी प्यार देते हैं।
भोगी आदमी प्रेम नहीं कर सकता। जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ सेवा का मजा चला गया। स्वार्थी आदमी न सेवा कर सकता है न प्रेम कर सकता है। जिसका स्वार्थ चला गया है, जिसकी बुद्धि में योग मिल गया है वह सेवा भी बढ़िया कर सकता है, प्यार भी बढ़िया कर सकता है। वह 'पर' की सेवा करते-करते 'पर' में 'स्व' को देखता है, 'स्व' में 'पर' को देखता है. 'स्व' और 'पर' की भ्रांति मिटाकर एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति के अनुभव में जग जाता है।
प्रीति 'स्व' से की जाती है, सेवा 'पर' की की जाती है। ऐसा करते-करते 'पर' में 'स्व' के दर्शन होने लगते हैं। प्रारम्भ में 'पर' लगता है लेकिन आगे चलकर पता चलता है कि पर दिखता था, वास्तव में पर जैसा कुछ है नहीं। पर और स्व ये अन्तःकरण की सीमाएँ बनी इसलिये दिखता है। अन्तःकरण की छोटी अवस्था के कारण दिख रहा है। वास्तव में जिससे आप बात करते हैं उसमें भी स्वयं आप ही हो। जब दूसरे का हितचिंतन करते हो तब तुम्हारा हृदय कितना पवित्र होता है ! दूसरों के काम में आते हो तो तुम्हारा हृदय कितना उन्नत होता है !
दायाँ और बायाँ हाथ अलग-अलग दिखते हैं, दोनों हैं तो तुम्हारे ही। ऐसे ही समग्र चराचर विश्व में भिन्न-भिन्न दिखता है, मूल में अभिन्न है। जिसकी बुद्धि में योग मिल जाता है वह भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हुए, भिन्न-भिन्न आचरण करते हुए भी अभिन्न की स्मृति बनाये रखता है। उसका भजन निरन्तर हो जाता है।
कुण्डलिनी योग के जगत में जो लोग जाते हैं उनका प्रारम्भ में प्राणोत्थान होता है। जीवन की अधोगामी धारा ऊर्ध्वगामी बनती है। कुण्डलिनी योग की साधना में त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मूलबन्ध करने से साधक विकारी जीवन से बचकर निर्विकारी जीवन के तरफ उठता है। उड्डियान बन्ध करने से साधक आध्यात्मिकता में उड़ान कर लेता है। शीघ्र उन्नति होती है। जालन्धर बन्ध करने से बुद्धि का विकास होता है। ये त्रिबन्ध करके साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है और ब्रह्मवेत्ता सदगुरू का सान्निध्य मिलता है तो भीतर का रस प्रकट होने लगता है। ज्यों-ज्यों भीतर का रस निखरने लगता है त्यों-त्यों विकारी रस में मन की फिसलाहट कम होती है।
तीन प्रकार के लोग हमने देखेः पशुधर्मा लोग, सिद्धधर्मा लोग शुकदेवजी महाराज जैसे और तीसरे होते हैं मध्यधर्मा। मध्यधर्मा साधक होता है। कभी वह इन्द्रियों के बहाव में बह जाता है कभी साधु पुरूषों का संग करके संयमी बनता है। कभी लगता है मैं ठीक चलता हूँ, कभी महसूस करता है मेरा पतन हो रहा है। जब छोटे व्यक्तियों के बीच होता है तब सोचता है वे लोग चाय पीते हैं, मैं नहीं पीता, वे संसारी वासना में गिरे हुए हैं, हम बचे हुए हैं। उन लोगों से हम उन्नत हैं। कभी-कभी साधक इन्द्रियत आकर्षणों में बह जाता है। जब सत्पुरूषों का सान्निध्य मिलता है तो उन्नत जीवन में चलता है।
साधक लोगों के मन में दोनों प्रकार की धाराएँ चलती हैं- इन्द्रियगत जगत का भी आकर्षण है और आध्यात्मिकता का भी आकर्षण है। जीवन की गाड़ी कभी इधर को जाती है कभी उधर को जाती है। गाड़ी जब उन्नति की ओर जाती है तब मन में लगता है कि हाश ! आज का दिन बढ़िया गया। आज कुछ अच्छी कमाई की। जब उन्नति से थोड़ा लथड़ गये तो परेशानी नहीं लगती। उनको लगता है किः "हम मौज करते हैं। तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं। ये लोग तो भगतड़े हैं....।'
उनको तो पता ही नहीं कि बाद में वे कैन्सर का शिकार बनेंगे। दूसरे जन्मों में वृक्ष होकर कुल्हाड़े के प्रहार सहन करने पड़ेंगे। कूकर-शूकर बनकर जो भोगना पड़ेगा बाद में, उसका ख्याल ही नहीं है। अभी तो जो मन में आया खा लिया, जो मन में आया पहन लिया, जो मन में आया कर लिया लेकिन परिणाम का पता नहीं। वे मानते हैं कि हम स्वतंत्र हैं। ऐसी स्वतन्त्रता तो कीट, पतंग, मक्खी मच्छर को भी मिलती है। यह कोई स्वतन्त्रता नहीं है।
'स्व' के सुख में, आत्म-सुख में रमण करना यह स्वतन्त्रता है। वस्तुएँ पाकर जो सुखी होते हैं वे स्वतन्त्र नहीं है। वे तो लाचार हैं। सुख होता है क्षणभर का और परिणाम में लम्बी मुसीबत है। जरा सा सुख भोगे और लम्बा दुःख। जरा सा संयम करे तो शाश्वत सुख।
शाश्वत सुख की खबर उसी को पड़ती है जिसको भगवान बुद्धियोग देते हैं। बुद्धियोग उसी को मिलता है जो भगवान को स्नेह करता है, भगवत्प्रीति की तीव्र आकांक्षा रखता है।
रीत-रिवाज जानने वाले लोग बहुत हैं, यज्ञ याग करके सिद्धियाँ पाने की इच्छावाले लोग बहुत हो सकते हैं। भगवान की प्रीति के लिए जो कर्म करते हैं, यज्ञ करते हैं वे विरले हैं। काम-विकार से प्रेरित होकर बच्चों को जन्म देने वाले लोग तो कई होते हैं, भगवान की प्रसन्नता के लिए संसार का कार्य करने वाले कोई विरले हैं।
जो कुछ करो, भगवान की प्रसन्नता के लिए करो।

Monday, March 8, 2010




निश्चिन्त जीवन पुस्तक से - Nishchint Jeevan pustak se

ब्रह्माकार वृत्तिवाला भगवद् पद से, भगवत् तत्त्व से एक क्षण भी वह चलित नहीं होता। सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण की वृत्तियों से काम लेता होगा लेकिन अपनी ऊँचाई पर टिका रहता है। सनकादिक ऋषि पाँच वर्ष के बालक.... क्रीड़ा करते हैं, यात्रा करते हैं लेकिन एक क्षण भी ब्रह्माकार वृत्ति से, भगवदानुभव से दूर नहीं जाते। वशिष्ठजी महाराज उपदेश करते हैं, आश्रम चलाते हैं लेकिन एक क्षण भी ब्रह्माकार वृत्ति से दूर नहीं होते। शुकदेवजी महाराज जंगल छोड़कर बस्ती में आते हैं, रास्ते से गुजरते हैं, लोग कंकड़-पत्थर मारते हैं, अपमान करते हैं लेकिन शुकदेव जी महाराज के लिए सब ब्रह्म है। उन्हें कोई क्षोभ नहीं होता। राजा परीक्षित के दरबार में सोने के सिंहासन पर बैठते हैं तो कोई हर्ष नहीं होता। हर्षाकार, शोकाकार, दुःखाकार वृत्ति का कोई महत्त्व ही नहीं है उनके लिए। ये सारी वृत्तियाँ बाधित हो जाती हैं। ऐसा नहीं कि ज्ञानी को ठण्ड नहीं लगती, ज्ञानी को सज्जन सज्जन नहीं दिखेगा, दुर्जन दुर्जन नहीं दिखेगा। दिखेगा तो सही लेकिन उसमें सत्य बुद्धि नहीं होगी। उसकी शाश्वतता नहीं दिखेगी।
रस्सी में साँप दिखा। टॉर्च जलाकर देख लिया कि साँप नहीं है, रस्सी है। फिर टॉर्च बंद करके दूर जाकर बैठे तो वहाँ से दिखेगा कि साँप जैसा ही लेकिन साँप की सत्यता गायब हो गई।
ठूँठे में चोर दिखा। टॉर्च जलाकर देख लिया कि चोर नहीं है, ठूँठा है ! फिर दूर से चोर जैसा ही दिखेगा लेकिन वास्तविकता जान ली है।
मरूभूमि में पानी दिखा। वहाँ गये। मरूभूमि को मरूभूमि जान लिया। वापस आ गये। तुम्हारे दोस्त आकर बोलते हैं- 'चलो, उस पानी में नहाकर आयें।' तुम समझाते हो कि वहाँ पानी नहीं है, मैं देखकर आया हूँ। मित्र आग्रह करते हैं तो तुम भी चल पड़ते हो। दस आदमी वे हैं, ग्यारहवें तुम भी तौलिया लेकर साथ में हो लिये। वे लोग जा रहे हैं सत्य बुद्धि से, तुम जा रहे हो, विनोद-बुद्धि से। वे सब जानते हैं कि पानी नहीं है, मरूभूमि है तब वे दुःखी होते हैं जबकि तुम्हें तो विनोद होगा और कहोगे किः मैं तो पहले से ही जानता था।
ऐसे ही ब्रह्माकार वृत्ति बनने के बाद तुम जगत के साथ यथायोग्य व्यवहार करोगे लेकिन जगत के लोग जगत से सुख पाने की कोशिश करते हैं जबकि तुम्हें पता है कि जगत से सुख नहीं मिल सकता। जैसे मरूभूमि से पानी नहीं मिल सकता ऐसे ही संसार से कोई वास्तविक शाश्वत सुख नहीं मिल सकता। यह तुम्हें पता है इसलिए संसार का कोई आकर्षण नहीं होगा।
तुम वही होते हो जैसी तुम्हारी वृत्ति होती है। दुकान की वृत्ति करते हो तो तुम दुकान पर हो, घर की वृत्ति करते हो तो तुम घर पर हो, बाजार की वृत्ति करते हो तो बाजार में हो, देह की वृत्ति करते हो तो तुम देह में हो, जाति की वृत्ति की गाँठ बाँधते हो तो जाति वाले हो, सम्प्रदाय की वृत्ति की गाँठ बाँधते हो तो सम्प्रदाय वाले बन जाते हो, भगवदाकार वृत्ति बनाते हो तो भगवान में आ जाते हो, दुःखाकार वृत्ति करते हो तो दुःखी होते हो, सुखाकार वृत्ति बनाते हो तो सुखी होते हो।
ऐसे ही तुम ब्रह्माकार वृत्ति बनाओगे तो ब्रह्म हो जाओगे, बेड़ा पार हो जाएगा।
जो इस ब्रह्माकार वृत्ति को जानते हैं, जानकर उसे बढ़ाते हैं वे सत्पुरूष धन्य हैं। वे तीनों लोकों में वन्दनीय हैं।
वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।
मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।
तुम जब अपने-अपने घर जाओगे, अपने-अपने व्यवहार में जाओगे तब अपनी गली याद रखना कि यह तुम्हारा घर नहीं है शरीर का घर है... तुम्हारा व्यवहार नहीं है, शरीर का व्यवहार है।
तुम्हारा घर तो... जो प्रभु का घर है वही तुम्हारा घर है।
वास्तव में तो जिस ईंट, चूने, लोहे, लक्कड़ के घर को तुम 'मेरा' घर मान रहे हो वह घर भी प्रभु का है। जिन चीजों से घर बना है वे चीजें प्रकृति की हैं। प्रकृति परमात्मा की है। कुम्हार ने ईंटें बनाईं मिट्टी, अग्नि, पानी से। मिट्टी, अग्नि, पानी किसी व्यक्ति के नहीं हैं, ये ईश्वर की चीजें हैं। ईश्वर की चीजों से चूना बना, ईश्वर की चीजों से लक्कड़ बना। ईश्वर की ईंट, चूना, लोहा, लक्कड़ के मिश्रण से घर बना तो यह घर किसका हुआ ? ईश्वर का हुआ।
"बरसात तुम बनाते हो ?"
"नहीं, ईश्वर बनाता है।"
"जमीन तुमने बनाई ?"
"नहीं, ईश्वर ने बनाई।"
"अन्न किसका हुआ ?"
"ईश्वर का हुआ।"
ईश्वर का अन्न खाकर बच्चे पैदा किये। इस बच्चों में ममता हो गई कि ये मेरे बच्चे हैं। अपने बच्चों में से ममता हटाकर उन्हें ईश्वर के बच्चे समझकर उनका लालन-पालन करो तो अन्तःकरण शुद्ध हो जाएगा। लेकिन होता क्या है ? ये मेरे बच्चे हैं... उन्हें अच्छा बनाऊँ... उन्हें अच्छा पढ़ाऊँ... दूसरे किसी के बेटे अनपढ़ रह जाएँ तो कोई हर्ज नहीं लेकिन मेरे बेटे बढ़िया हों...... यह ममता है। यह देहाकार वृत्ति का परिणाम है। 'दूसरों के बेटे जिस तत्त्व के हैं उसी तत्त्व के ये मेरे बेटे हैं।' इस प्रकार की वृत्ति बनाओगे तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न होने में सहाय मिलेगी।
जो पराये हैं उन्हें अपना मानो और जो अपने हैं उन्हें ठाकुर जी के मानो, तुम्हारा व्यवहार, धन्धा, घर-गृहस्थी सब बन्दगी हो जाएगी।
उधार लेकर, करप्शन करके, झूठ बोलकर, काला बाजार करके लोग अपने बच्चों को खिलाते हैं, पिलाते हैं, पढ़ाते हैं, परिवार को सुखी करने का प्रयास करते हैं लेकिन उनको कभी ऐसा नहीं लगता कि मैं अपने घर में, अपने परिवार में हर महीने दो हजार, पाँच हजार आदि का दान करता हूँ। क्योंकि वे यह खर्च ममतावश होकर कर रहे हैं इसलिए दान का फल नहीं मिलता। पाँच रूपये भी अगर किसी अजनबी की सेवा में लगा देते हैं तो अन्तःकरण प्रसन्न हो जाता है कि आज अच्छा काम किया। क्योंकि वहाँ ममता नहीं है।
सत्त्वगुण से बुद्धि में सब प्रकार के ज्ञान का प्रकाश पाने की योग्यता बढ़ती है। ऋषि दीर्घ काल तक जीते थे, दीर्घजीवी होते थे लेकिन पहलवान दीर्घायु नहीं सुने गये।
आसन करने से, प्राणायाम करने से नाड़ी तंत्र को, स्वास्थ्य तंत्र को, जठराग्नि को, मस्तिष्क को ठीक से व्यायाम मिलता है। उनमें ठीक से क्षमताएँ विकसित होती हैं। ऋषि पद्धति से जो लोग आसन, प्राणायाम करते हैं उनको डॉक्टरों के इन्जैक्शन एवं केप्सूलों के कारण दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती। जो लोग स्वास्थ्य के नियम तथा आसन-प्राणायाम जानते हैं उनको बार-बार हकीमों, डॉक्टरों को परेशान करने का समय नहीं आता है। वे सहज ही स्वस्थ रहते हैं।
मन में जितनी हल्की इच्छाएँ ज्यादा होती हैं उतना चित्त में विक्षेप ज्यादा होता है। मन ज्यादा विक्षिप्त रहता है तो तन बार-बार बीमार पड़ता है। मन में इच्छाएँ, वासनाएँ जोर मारती हैं तो मन विक्षिप्त रहता है, इसको आधि कहते हैं। जिसके मन में आधि आती है उसका तन व्याधियों से घिर जाता है। शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है तब एलौपैथी दवाइयों से उन व्याधियों को थोड़ा दबाया जा सकता है। लेकिन मन में अगर आधि है तो व्याधियाँ फिर से पनप उठती हैं। एलौपैथी की दवाइयों से रिएक्शन होने की संभावना रहती है। एक व्याधि जाती है तो दूसरी व्याधि आने की संभावना बहुत रहती है। आयुर्वैदिक ढंग से व्याधियों को दूर हटाते हैं तो उसमें थोड़ा समय लगता है लेकिन व्याधियाँ मिटती हैं और बदले में दूसरी व्याधि नहीं आती, अगर आयुर्वेदिक नियम जानने वाला सही वैद्य हो और परहेज पालने वाला मरीज हो तो।
रोग उत्पन्न कैस होते हैं और कुदरती ढंग से निर्मूल कैसे किये जा सकते हैं यह जानना चाहिए। बहुत सारे रोग तो हमारी बेवकूफी की देन हैं। न चिन्तन करने जैसा मन में चिन्तन करते हैं, भय न जगाने जैसा भय जगाते हैं, अनावश्यक उद्वेग जगाते हैं इससे भी शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मानो, हमारा कोई मित्र चला गया या किसी ने हमें कुछ किया तो बार-बार उसका दुःखद चिन्तन करने से हमारा स्वास्थ्य बिगड़ जाता है कभी भी दुःखद चिन्तन को महत्त्व नहीं देना चाहिए। मानो हमारे पिता चल बसे। मोह के कारण हम रोयेंगे लेकिन बुद्धि भी है तो उनकी उत्तर क्रिया करके उनकी जीवात्मा को प्रेरणा देंगे कि आपका शरीर नश्वर था। हे पिता ! आपकी आत्मा तो शाश्वत है। आप कभी मरते नहीं। इस जन्म में आपका और मेरा बाप-बेटे का सम्बन्ध था परन्तु ऐसे तो तुम्हारे कई बेटे और हमारे कई बेटे और हमारे कई पिता भी हो गये। आप कौन-कौन से बेटे को याद करेंगे और हम कौन कौन से पिता को याद करेंगे ? इसलिए आप अमरता की ओर चलिये और मुझे भी आशीर्वाद दीजिए की मैं इस शरीर को मरने वाला समझूँ और स्वयं आत्मा को अमर जानकर मुक्तता का प्रसाद पाऊँ और आप भी अमर हो जाओ। अन्य किसी गर्भ में मत जाओ।
मानो, मेरा इकलौता बेटा मर गया। अखबारों में खबर छप गई कि आसाराम जी महाराज के पुत्र का निधन हो गया। लोग मिलने को आयें और मैं रोता रहूँ तो वह मेरी बेवकूफी है। मैं आपसे कहूँ- "मेरा बेटा मर गया, व्यावहारिक जगत में यह कहना ठीक होगा शायद, लेकिन वास्तव में मेरा बेटा कभी पैदा ही नहीं हुआ था। पैदा हुआ था पंचभौतिक शरीर और पंचभौतिक शरीर पाँच भूतों में लीन हो गया। बाकी आत्मा-परमात्मा तो अद्वितीय स्वरूप है। उसमें कौन जन्मा और कौन मरा ? सामाजिक मान्यताओं के कारण हम एक दूसरों को आश्वासन देते हैं क्योंकि हम बहुत नीचे जगत में जीते हैं। बुद्ध पुरूषों के, ज्ञानवानों के अथवा सत्शास्त्रों के विचारों में हम नहीं जीते इसलिए हमें परेशानी होती है। आपकी शुभ भावना से मुझे ऐसी परेशानी नहीं है। आप लोग बैठिये, सत्संग सुनिये, प्रसाद पाइये, आनन्द में रहिए।"
आने वालों को मैंने सान्तवना दे दी क्योंकि मेरे अन्तःकरण में बेवकूफी के बदले गुरू की कृपा का प्रसाद है।
धन से बेवकूफी नहीं मिटती है, सत्ता से बेवकूफी नहीं मिटती है, तपस्या से बेवकूफी नहीं मिटती है, व्रत रखने से बेवकूफी नहीं मिटती है। बेवकूफी मिटती है ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों के कृपा-प्रसाद से और सत्संग से, सत्शास्त्रों की रहमत से।
दुनियाँ में जो भी दुःख हैं उनके मूल में बेवकूफी काम करती है। जितनी बेवकूफी प्रगाढ़ होगी उतना दुःख प्रगाढ़ होगा। जितनी बेवकूफी शिथिल होगी उतना दुःख शिथिल होगा। बेवकूफी चली गई तो तुम आनन्दस्वरूप बन जाते हो। हमारी और ईश्वर की जात एक होते हुए भी हम बेवकूफी के कारण अपने को दीन, हीन, दुःखी, जन्मने-मरनेवाला बनाकर परेशान हो रहे हैं।

Tuesday, March 2, 2010



बाल संस्कार केन्द्र: एक महत्त्वपूर्ण कदम पुस्तक से - Baal Sanskaar Kendra: Ek Mehevapurna Kadam pustak se

बाल्यकाल के संस्कार एवं चरित्रनिर्माण ही मनुष्य के भावी जीवन की आधारशिला हैं।
बालक ही देश का असली धन है। भारत का भविष्य, विश्व का गौरव और अपने माता-पिता की शान हैं। बच्चे देश के भावी नागरिक हैं और आगे चलकर उन्हीं के कंधों पर देश की स्वतंत्रता, संस्कृति की रक्षा तथा उसकी परिपुष्टि का भार पड़ने वाला है।
आज प्रत्येक माता-पिता यह चाहते हैं कि उनके बच्चे न केवल स्कूली विद्या में ही सफल हों, अपितु अन्य कलाओं जैसे – खेलकूद, वक्तृत्व आदि तथा विभिन्न सामाजिक प्रवृत्तयों में भी आगे आयें और सफल बनें। विद्यालय में शिक्षक एवं प्रधानाचार्य भी अपने विद्यार्थियों से अपेक्षा रखते हैं कि उनकी बुद्धि कुशाग्र बने एवं वे परीक्षा में अच्छे परिणाम लायें ताकि समाज में उनकी संस्था का गौरव बढ़े। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि आज पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण के दौर में विदेशी टी.वी. चैनलों, चलचित्रों, व्यसनों, अशुद्ध खान-पान आदि ने वातावरण इतना दूषित बना दिया है कि हमारे बच्चे अगर जीवन में अच्छे संस्कार पाना भी चाहें तो उन्हें ऐसी कोई राह ही नहीं दिखती, जिस पर चलकर वे सुसंस्कारी बालक बन सकें।
ऐसे समय में ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसाराम जी बापू के मार्गदर्शन से हो रही विभिन्न सेवा-प्रवृत्तियों द्वारा बच्चों को ओजस्वी, तेजस्वी, यशस्वी बनाने हेतु भारतीय संस्कृति की अनमोल कुंजियाँ प्रदान की जा रही हैं। इन्हीं सत्प्रवृत्तियों में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं देश में व्यापक स्तर पर चल रहे बाल संस्कार केन्द्र।
बाल संस्कार केन्द्र माता पिता एवं गुरूजनों का आदर व आज्ञापालन जैसे उच्च संस्कार, प्राणायाम, योगासन, सूर्यनमस्कार, ध्यान, स्मरणशक्ति बढ़ाने की युक्तियाँ, बाल कथाएँ, पर्व-महिमा, देशभक्तों व संतों-महापुरूषों के दिव्य जीवनचरित्र बताना, श्रीमद् भगवद् गीता के श्लोक, संतों द्वारा कही गयी साखियाँ, भिन्न-भिन्न स्पर्धाएँ, खेल, वार्षिकोत्सव आदि के द्वारा विद्यार्थियों की सुषुप्त शक्तियों को जागृत करके उनके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक-सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ प्रदान की जाती हैं। अभ्यासक्रम पूरा होने के बाद बालक को प्रमाणपत्र भी दिया जाता है।
अपने बालकों के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु बालकों
में सुसंस्कार सिंचन करना हम सबका नैतिक कर्त्तव्य है।
पूज्य बापू जी

बाल्यकाल ही जीवन की नींव है और बालक-बालिकाएँ ही घर, समाज व देश की धरोहर हैं। नींव सँभली तो सब सँभला, बाल्यकाल को सँवारा तो समझो जीवन सँवरा। अतः बालकों में सुसंस्कारों का सिंचन करना हम सबका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।
जिस दीपक में तेल नहीं वह प्रकाशित नहीं हो सकता, इसी प्रकार जिस शरीर में संयम-बल नहीं, ओज-वीर्य नहीं, उसकी इन्द्रियों, मन, बुद्धि में विशेष निखार नहीं आ पाता। अतः हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी युवावस्था में संयम-सदाचारपूर्वक रहकर अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्ति का विकास करे।
भारत का सर्वांगीण विकास व उज्जवल भविष्य सुसंस्कारी बालकों व चारित्र्यवान एवं संयमी युवानों पर आधारित है। अपने देश के विद्यार्थियों में सुसंस्कार सिंचन हेतु, उनका विवेक जाग्रत करने हेतु एवं उनके जीवन को संयमी, सदाचारी, स्वस्थ व सुखी बनाकर उनके सुंदर भविष्य निर्माण हेतु परम पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू के पावन प्रेरक मार्गदर्शन में देशभर में संस्कार सिंचन अभियान व्यापक रूप से चलाया जा रहा है।
संत श्री आसाराम जी आश्रम द्वारा बाल संस्कार व युवाधन सुरक्षा पुस्तकें आज लाखों विद्यार्थियों को सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ प्रदान कर रही हैं। संस्कार सिंचन अभियान के अंतर्गत इन दो पुस्तकों को विद्यार्थियों तक पहुँचाया जाता है। आप भी इस अभियान में, राष्ट्र-जागृति के दैवी कार्य में सहभागी होकर ऋषिज्ञान की पावन गंगा विद्यार्थियों के जीवन में बहायें।

कार्यप्रणाली
प्रार्थना (10 मिनट)- हरिनाम उच्चारणः हरि ॐ का 7 अथवा 11 बार दीर्घ उच्चारण करवायें। मंत्रोच्चारण। ॐ गं गणपतये नमः। ॐ श्री सरस्वत्यै नमः। ॐ श्री गुरूभ्यो नमः। इसके पश्चात गुरूवन्दना, सरस्वती वंदना करायें।
प्राणायाम (5 मिनट)- (भ्रामरी, अनुलोम, विलोम, ऊर्जायी) महत्त्व, विधि, प्रायोगिक प्रशिक्षण। बच्चों के लिए विशेष उपयोगी भ्रामरी प्राणायाम हर सत्र में 5-7 बार करवायें तथा इसे घर भी नियमित रूप से करने के लिए प्रेरित करें। अनुलोम-विलोम प्राणायाम और ऊर्जायी प्राणायाम का भी अभ्यास करवायें।
योगासन, सूर्यनमस्कार, मुद्राएँ (15 मिनट)- महत्त्व, विधि, प्रायोगिक प्रशिक्षण। आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों योगासन और बालसंस्कार से आसन, सूर्यनमस्कार एवं मुद्रायें सिखाएँ। विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए 2 सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, शशांकासन, पादपश्चिमोत्तानासन एवं अंत में श्वासन नियमित रूप से करने जैसे हैं।
पर्व महिमा, ऋतुचर्या (10 मिनट)- विभिन्न पर्वों पर उनका सामाजिक, धार्मिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व कथासहित रूचिपूर्ण ढंग से बतायें। वर्त्तमान ऋतु के अनुसार बच्चों को जानकारी दें कि किस ऋतु में खान-पान, रहन सहन से सम्बन्धित क्या-क्या सावधानियाँ रखनी हैं, कौन-सा आहार स्वास्थ्य के लिए हितकारी है और कौन सा हानिकारक है।
श्लोक, स्तोत्रपाठ, साखियाँ, प्राणवान पंक्तियाँ (10 मिनट)- बाल संस्कार पुस्तक में से साखियाँ एवं प्राणायाम पंक्तियाँ सिखायें तथा साथ ही उनसे जुड़ी कुछ वार्ता अथवा कथा सुनायें एवं चर्चा करें। बालक इन्हें जीवन में गहरा उतार लें ऐसा प्रयास केन्द्र संचालक करें। श्रीमद् भगवद् गीता के 2-5श्लोकों का उच्चारण करवायें और अर्थ बतायें। गुर्वष्टकम का पाठ भी कंठस्थ करा सकते हैं।
कथा प्रसंग, अन्य महत्त्वपूर्ण विषय (25 मिनट)- देशभक्तों एवं संतों के प्रेरक जीवन-प्रसंग बताकर बच्चों को अपने जीवन में दिव्य गुण अपनाने की प्रेरणा दें।
सदगुण अपनोओः एकाग्रता, संयम, सत्यप्रियता, श्रद्धा, दया, परोपकार, धर्म-रक्षा, ब्रह्मचर्य, देशप्रेम, अडिगता, भक्ति, त्याग, सेवा, अहिंसा, ईमानदारी, सत्संग श्रवण आदि सदगुण कथाओं एवं प्रसंगों के द्वारा समझायें।
दुर्गुण त्यागोः दुर्गुणों से होने वाली हानि यथासंभव कथा द्वारा बतायें तथा दुर्व्यसनों के घातक प्रभाव पर प्रकाश डालकर बच्चों को उनसे सावधान करें। उन्हें अपने जीवन में कभी भी न अपनाने का संकल्प करायें।
सुषुप्त शक्तियाँ जगाने का प्रयोगः मौन, त्राटक, जप, ध्यान, संध्या-वंदन आदि।
शिष्टाचार के कुछ नियम, दिनचर्या, आदर्श बालक की पहचान, मातृ-पितृ भक्ति, सदगुरू-महिमा, मंत्र-महिमा, यौगिक चक्र, भारतीय संस्कृति की परंपराओं का महत्त्व, परीक्षा में सफलता कैसे पायें ? विद्यार्थी छुट्टियाँ कैसे मनायें ? जन्मदिन कैसे मनायें ?
प्रश्नोत्तरीः (10 मिनट)- कार्यक्रम के अंत में अथवा बीच-बीच में सिखाये हुए विषयों पर प्रश्न पूछें।
मनोरंजन के साथ ज्ञान (20 मिनट)- इसमें विभिन्न प्रकार के खेल, ज्ञानप्रद चुटकुले, पहेलियाँ, शौर्यगीत तथा भजन-कीर्तन के माध्यम से बच्चों का ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन भी करायें।
व्यक्तित्व-विकास के प्रयोग- वक्तृत्व स्पर्धा, लेखन स्पर्धा, चित्रकला प्रतियोगिता इत्यादि के द्वारा बालक की छुपी हुई योग्यता विकसित हो ऐसा प्रयास करें।
स्वास्थ्य संजीवनी (5 मिनट) ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, तथा आरोग्यनिधि 1, 2 से बालकोपयोगी स्वास्थ्यप्रद बातें, सरल व सचोट घरेलु नुस्खे बच्चों को बतायें।
आरती, प्रसाद-वितरण (10 मिनट)- पूज्य श्री की आरती तथा प्रसाद वितरण करके कार्यक्रम की पूर्णाहूति करें।
नोटः यह सारणी मार्गदर्शन हेतु है, आवश्यकतानुसार समय कम-ज्यादा कर सकते हैं। आश्रम द्वारा प्रकाशित हमारे आदर्श, तू गुलाब होकर महक, परम तप, जीवन विकास, मधुर व्यवहार, योगलीला, मन को सीख, नशे से सावधान, योगयात्रा-4, पुरूषार्थ परमदेव, यौवन-सुरक्षा- भाग 1 व 2 आदि पुस्तकों का अध्ययन करें। विद्यार्थियों से सम्बन्धित ऑडियो कैसेट विद्यार्थियों के लिए – भाग 1 से 5, भाग 6 से 10, विनोद में वेदान्त, बाल-भक्तों की कहानियाँ – भाग 1 व 2, ज्ञान के चुटकुले – भाग 1 व 2, सफलता के सूत्र, आदि का नित्य श्रवण करें तथा कभी-कभी इस कार्यक्रम में बच्चों को भी 15 से 20 मिनट तक पूज्यश्री का सत्संग सुनाकर प्रश्न पूछें। विद्यार्थियों के लिए भाग 1 से 5 विडियो सी.डी. भी दिखा सकते हैं।
उत्साही एवं जागरूक साधकों द्वारा किया गया प्रयास एवं उनकी निःस्वार्थ सेवापरायणता उन्हें इस दिशा में कार्यरत करके पूज्यश्री के दैवी कार्यों में सहभागी बनने का सुअवसर प्रदान कर रही है। तो आप भी इस सेवाकार्य में जुडकर हर घर हो बाल संस्कार केन्द्र अभियान में सम्मिलित होकर अपना तथा भारत के नौनिहालों, हमारे देश के इन भावी कर्णधारों का भविष्य उज्जवल बनायें।
अधिक जानकारी हेतु अहमादबाद आश्रम में संपर्क करें।

बाल संस्कार केन्द्र के 21 अनमोल रत्न
प्रतिदिन पालनीय नियम
1. सूर्योदय से पहले ब्रह्ममुहूर्त में उठना।
2. प्रातः शुभ चिंतन, शुभ संकल्प, इष्टदेव अथवा गुरूदेव का ध्यान।
3. करदर्शन।
4. प्रार्थना, जप, ध्यान, आसन, प्राणायाम।
5. सूर्य को अर्घ्य एवं सूर्यनमस्कार।
6. तुलसी के 5 पत्तों का सेवन कर 1 गिलास पानी पीना।
7. माता-पिता एवं गुरूजनों को प्रणाम।
8. नियमित अध्ययन।
9. अच्छी संगत।
10. भोजन से पूर्व गीता के पंद्रहवें अध्याय का पाठ व सात्त्विक, सुपाच्य तथा स्वास्थ्कर भोजन।
11. त्रिकाल संध्या।
12. सत्शास्त्र-पठन और सत्संग-श्रवण।
13. सेवा, कर्त्तव्यपालन व परोपकार।
14. सत्य एवं मधुर भाषण, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना)।
15. समय का सदुपयोग।
16. परगुणदर्शन (दूसरों के अच्छे गुणों पर दृष्टि रखना)।
17. घरकाम में मदद और स्वच्छता।
18. खेलकूद।
19. त्राटक, मौन।
20. जल्दी सोना-जल्दी उठना।
21. सोने से पहले आत्मनिरीक्षण, ईश्वर-गुरूदेव का चिंतन, धन्यवाद।