पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 27, 2012

योगयात्रा-3 पुस्तक से - Yog-yatra-3 pustak se

प्राणायाम से सिद्धियाँ - Pranayam se sidhiyan

प्राणों के द्वारा ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सारी क्रियाएँ संचालित होती हैं। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा प्राणों को नियिंत्रित करके योगी विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। सामान्यतया मनुष्य का श्वास नासिका से बारह अंगुल तक चलता है। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा इसे एक अंगुल कम कर देने पर अर्थात् ग्यारह अंगुल कर देने पर उसे निष्कामता की सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह षडविकारों से मुक्त हो जाता है।
यदि श्वास की गति दो अंगुल कम हो जाये तो साधक को निर्विषय सुख एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। तीन अंगुल गति कम होने पर उसे स्वाभाविक ही कवित्व शक्ति प्राप्त होती है। आजकल के आधुनिक कवि नहीं, अपितु कवि कालिदास जैसी लयबद्ध, छन्दबद्ध कविताएँ उसके हृदय में स्फुरित होती है।
चार अंगुल श्वास की गति कम करने पर उसे वाचाशक्ति प्राप्त होती है। पाँच अंगुल पर दूर दृष्टि तथा छः अंगुल गति नियंत्रित करने पर आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है।
यदि साधक प्राणायाम द्वारा श्वास की गति सात अंगुल कम कर ले तो उसे शीघ्र वेग की प्राप्ति होती है। आठ अंगुल कम करने पर उसे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
श्वासों की गति नौ अंगुल कम करने पर उसे नवनिधि की प्राप्ति होती है। दस अंगुल गति नियंत्रित करने पर दस अवस्थाएँ प्राप्त होती है। यदि साधक ग्यारह अंगुल तक श्वास नियंत्रित कर ले तो उसे छाया निवृत्ति की सिद्धि प्राप्त होती है जिससे उसके शरीर की छाया नहीं दिखाई पड़ती है।
बारह अंगुल श्वास का नियंत्रण कर लेने वाले महायोगी साधक की हंसगति अर्थात् कैवल्य पद की प्राप्ति होती है।
प्राणायाम का अभ्यास करने वाले साधकों के लिए विशेष सावधानी की बात यह है कि वह किसी अनुभवी एवं कुशल सदगुरू के मार्गदर्शन में ही प्राणायाम की साधना करे, अन्यथा इससे लाभ की अपेक्षा मानसिक उन्माद आदि विकार उत्पन्न हो सकते हैं।

ध्यान की महिमा

नास्ति ध्यानसमं तीर्थम्। नास्ति ध्यानसमं दानम्।।
नास्ति ध्यानसमो यज्ञः। नास्ति ध्यानसमं तपम्।।
तस्मात् ध्यानं समाचरेत्।।
ध्यान के चार भेद बतलाये गये हैं-
पादस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यान।
श्रीहरि अथवा श्रीसदगुरूदेव के पावन श्रीचरणों का ध्यान पादस्थ ध्यान, शरीरस्थ मूलाधार इत्यादि चक्रों के अधिष्ठाता देवों के अथवा सदगुरूदेव के ध्यान को पिंडस्थ ध्यान, नेत्रों में सूर्यचन्द्र का ध्यान करके हृदय में विराट स्वरूप के ध्यान को रूपस्थ ध्यान तथा सबसे परे रहकर उस एक परमात्मा का ध्यान करना यह रूपातीत ध्यान कहलाता है।
स्वाभाविक रीति से होनेवाला ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है। गर्भवती स्त्री को गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जिस तरह उठते-बैठते स्वाभाविक रीति से यही ध्यान होता है कि 'मैं गर्भवती हूँ...' उसी तरह साधक का भी स्वाभाविक ध्यान होना चाहिए।
पिंडस्थ ध्यान के अन्तर्गत शरीरस्थ जिन सप्तचक्रों का ध्यान किया जाता है उनसे होने वाले लाभों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है।
मूलाधार चक्र
प्रयत्नशील योगसाधक जब किसी महापुरूष का सान्निध्य प्राप्त करता है तथा अपने मूलाधार चक्र का ध्यान उसे लगता है तब उसे अनायास ही क्रमशः सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। वह योगी देवताओं द्वारा पूजित होता है तथा अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर वह त्रिलोक में इच्छापूर्वक विचरण कर सकता है। वह मेधावी योगी महावाक्य का श्रवण करते ही आत्मा में स्थिर होकर सर्वदा क्रीड़ा करता है। मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाला साधक दादुरी सिद्धि प्राप्त कर अत्यंन्त तेजस्वी बनता है। उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा सरलता उसका स्वभाव बन जाता है। वह भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सभी वस्तुओं के कारण को जान लेता है। जो शास्त्र कभी सुने न हों, पढ़े न हों, उनके रहस्यों का भी ज्ञान होने से उन पर व्याख्यान करने का सामर्थ्य उसे प्राप्त हो जाता है। मानो ऐसे योगी के मुख में देवी सरस्वती निवास करती है। जप करने मात्र से वह मंत्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसे अनुपम संकल्प-सामर्थ्य प्राप्त होता है।
जब योगी मूलाधार चक्र में स्थित स्वयंभु लिंग का ध्यान करता है, उसी क्षण उसके पापों का समूह नष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु की इच्छा करने मात्र से उसे वह प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य आत्मदेव को छोड़कर बाह्य देवों की पूजा करते हैं, वे हाथ में रखे हुए फल को छोड़कर अन्य फलों के लिए इधर-उधर भटकते हैं। अतः सुज्ञ सज्जनों को आलस्य छोड़कर शरीरस्थ शिव का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान परम पूजा है, परम तप है, परम पुरूषार्थ है।
मूलाधार के अभ्यास से छः माह में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इससे सुषुम्णा नाड़ी में वायु प्रवेश करती है। ऐसा साधक मनोजय करके परम शांति का अनुभव करता है। उसके दोनों लोक सुधर-सँवर जाते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र
इस चक्र के ध्यान से कामांगना काममोहित होकर उसकी सेवा करती है। जो कभी सुने न हों ऐसे शास्त्रों का रहस्य वह बयान कर सकता है। सर्व रोगों से विमुक्त होकर वह संसार में सुखरूप विचरता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने वाला योगी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमर हो जाता है। अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर उसके शरीर में वायु का संचार होता है जो सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट होता है। रस की वृद्धि होती है। सहस्रदल पद्म से जिस अमृत का स्राव होता है उसमें भी वृद्धि होती है।
मणिपुर चक्र
इस चक्र का ध्यान करने वाले को सर्वसिद्धिदायी पातालसिद्धि प्राप्त होती है। उसके सब दुःखों की निवृत्ति होकर सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं। वह काल को भी जीत लेता है अर्थात् काल को भी टाल सकता है। ऋषि कागभुशंडिजी ने काल की वंचना करके सैंकड़ों युगों की परम्परा देखी थी। चांगदेवजी ने इसी सिद्धि के बल पर 1400 वर्ष का आयुष्य प्राप्त किया था। जिनको आत्मसाक्षात्कार हो गया ऐसे महापुरूष भी चाहें तो इस सिद्धि से दीर्घजीवी हो सकते हैं लेकिन आत्मवेत्ताओं में लम्बे जीवन की चाह होती ही नहीं है। शास्त्रों में ऐसे कई दृष्टान्त पाये जाते हैं।
ऐसे योगसाधक को परकाया-प्रवेश की सिद्धि प्राप्त होती है। यह स्वर्ण बना सकता है। वह देवों के द्रव्य भंडारों को और दिव्य औषधियों तथा भूमिगत गुप्त खजानों को भी देख सकता है।
अनाहत चक्र
इस चक्र का ध्यान करने वाले साधक पर कामातुर स्त्री, अप्सरा आदि मोहित हो जाते हैं। उस साधक को अपूर्व ज्ञान प्राप्त होता है। वह त्रिकालदर्शी होकर दूरदर्शन, दूरश्रवण की शक्ति प्राप्त कर यथेच्छा आकाशगमन करता है। अनाहत चक्र का नित्य निरंतर ध्यान करने से उसे देवता और योगियों के दर्शन होते हैं तथा उसे भूचरी सिद्धि प्राप्त होती है। इस चक्र के ध्यान की महिमा का कोई पूरा बयान नहीं कर सकता। ब्रह्मादि देवता भी उसे गुप्त रखते हैं।
विशुद्धाख्य चक्र
जो योगी इस चक्र का ध्यान करता है उसे चारों वेदों के रहस्य की प्राप्ति होती है। इस चक्र में यदि योगी मन और प्राण स्थिर करके क्रोध करे तो तीनों लोक कम्पायमान होते हैं जैसा विश्वामित्र ने किया था। इसमें कोई संदेह नहीं। इस चक्र में मन जब लय होता है तब योगी के मन और प्राण अन्तस में रमण करने लगते हैं। उस योगी का शरीर वज्र से भी अधिक कठोर हो जाता है।
आज्ञाचक्र
इस चक्र का ध्यान करने से पूर्वजन्म के सकल कर्मों का बन्धन छूट जाता है। यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर आदि उस ध्यानयुक्त योगी के वश हो जाते हैं। आज्ञाचक्र में ध्यान करते समय जिह्वा ऊर्ध्वमुखी (तालू की ओर) रखनी चाहिए। इससे सर्वपातक नष्ट होते हैं। ऊपर बताये हुए पाँचों चक्रों के ध्यान का फल इस चक्र के ध्यान से ही प्राप्त होता है। वह वासना के बन्धन से मुक्त होता है। इस चक्र का ध्यान करने वाला राजयोग का अधिकारी बनता है।
सहस्रार चक्र
इस सहस्रदल कमल में स्थित ब्रह्मरंध्र का ध्यान करने से योगी को परमगति मोक्ष की प्राप्ति होती है।

जप-ध्यान से जीवनविकास

जापक चार प्रकार के होते हैं- उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और कनिष्ठतर जापक।
कनिष्ठतर जापक वे होते हैं जिन्होंने जप की महिमा सुन ली और थोड़े दिन मंत्रजाप कर लिया..... कभी दस माला तो कभी पाँच माला... और जप बन्द कर दिया कि 'भाई, अब तो यह अपने बस का नहीं है।'
कनिष्ठ जापक वह होता है कि भाई, अब छः माला पूरी हुई, सात हुई, नौ हुई, दस हुई..... अच्छा हुआ, जप तो हो गया, नियम तो हो गया.... बोझा उतरा।
मध्यम जापक वह है जो जप तो करता ही है, जप के साथ ध्यान भी करता जाता है, जप के अर्थ में तल्लीन होता जाता है। जप करता जाता है और अन्दर कुछ भाव बनते जाते हैं।
उत्तम जापक वह है जिसकी उपस्थिति मात्र से ही औरों के जप चलने लगे। एक उत्तम जापक हो और उसके इर्दगिर्द लाख आदमियों की भीड़ हो और अगर वह कीर्तन कराये तो लाख के लाख आदमी उसके कीर्तन तथा उसके जप के प्रभाव में, भगवान की मस्ती में या भगवान के नाम में झूमने लग जायेंगे। यही उसकी सिद्धाई है। एक तत्त्वसम्पन्न उत्तम जापक महफिल में हो तो महफिल में रंग आ जाता है।
सामूहिक सत्संग का लाभ यह है कि उससे तुमुल ध्वनि उत्पन्न होती है तथा साधारण मन एवं साधारण योग्यतावालों को भी उत्तम जापक की आध्यात्मिक तरंगों का प्रभाव पवित्र कर देता है।
मंत्रजाप करते-करते थोड़ा-थोड़ा बहुत होने वाला ध्यान स्थूल ध्यान या आरंभिक ध्यान कहलाता है। इसकी अपेक्षा चिन्तनमय ध्यान सूक्ष्म ध्यान होता है। परमात्मा का, आत्मा का चिन्तन यह सूक्ष्म ध्यान है। सतत् अभ्यास से जब आगे चलकर चिन्तनमय ध्यान परिपक्व होकर चिन्तनरहित अवस्था में परिणत हो जाता है तो उसमें रसास्वाद, निद्रा, तन्द्रा, चिन्तन आदि नहीं होता। केवल एक..... अखंड.... शांत...चिन्तनरहित ध्यान.....। यही उत्तम भक्ति है, यही ब्रह्मज्ञान होता है।
उस चिन्तनरहित ध्यान की अवस्था में यदि तीन मिनट भी कोई व्यक्ति टिक जाय तो उसे दोबारा गर्भावास नहीं होगा। चिन्तनरहित ध्यान में टिकने से वह सर्वव्यापक ब्रह्म के साथ एक हो जायेगा। ईश्वर और वह, दो नहीं बचेंगे, ब्रह्म और वह दो नहीं रहेंगे, एक हो जायेंगे। फिर वह किसी भी वस्तु, व्यक्ति के चित्त को जान लेगा क्योंकि वह अन्तारात्मस्वरूप में टिकता है।
जो सबका अन्तरात्मा बना बैठा है उसके लिए देशकाल की दूरी नहीं बचती है। जिसकी चिन्तनरहित ध्यान में स्थिति हो गई, उसके आगे रिद्धि-सिद्धि का आकर्षण भी कुछ महत्त्व नहीं रखता है। उसको इन्द्र का राज्य और इन्द्र का वैभव अपने आप में ही दिखता है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के लोक और पद भी उसे अपने आत्मपद में भासता है, ऐसे अवाच्य पद में वह पहुँच जाता है तथा यह मनुष्य जन्म ही वह जन्म है जिसमें अवाच्य पद प्राप्त करने की क्षमताएँ हैं।
आपका यह जीवन कहीं व्यर्थ ही न बीत जाय ! अतः आज से ही दृढ़ पुरूषार्थ का अवलम्बन लेकर कमर कसो और चल पड़ो उस राह पर, जहाँ आत्मतत्त्व की कुंजी पड़ी है। उसे प्राप्त कर लो और दिव्य ज्ञान का खजाना हथिया लो, फिर तो महाराज ! आपके सम्पूर्ण कार्य पूर्ण हो गये......। ॐ आनन्द..... ॐ....ॐ....ॐ.....

Sunday, March 18, 2012

आंतर ज्योत पुस्तक से - Aantar Jyot pustak se

मानव धर्म - Manav Dharm

'मानव' शब्द का अर्थ है मनु की संतान। 'मनु' शब्द का मूल है – मनन। मननात् मनुः। मनु की पत्नी है शतरूपा। मानवजीवन में ज्ञान की पूर्णता एवं श्रद्धा अनेक रूपों में प्रगट होती है। कहीं आँखों से प्रगट होती है, कहीं हाथ जोड़ने से प्रगट होती है, कहीं सिर झुकाने से, कहीं बोलने से और कहीं आदर देने से प्रगट होती है। श्रद्धा ज्ञान की सहचारिणी है। कभी अकेला ज्ञान शुष्क हो जाता है तो श्रद्धा ज्ञान को मधुरता प्रदान करती है, सदभाव प्रदान करती है, भक्ति प्रदान करती है।
जीवन में न शुष्क ज्ञान चाहिए और न ही अज्ञानपूर्ण श्रद्धा। श्रद्धा में चाहिए तत्त्वज्ञान एवं संयम तथा ज्ञान में चाहिए श्रद्धा। मनु एवं शतरूपा के संयोग से बनता है मानव। मानव के जीवन में चाहिए ज्ञान एवं श्रद्धा का समन्वय। केवल श्रद्धा की प्रधानता से वह अंधा न बने और केवल ज्ञान की प्रधानता से वह उद्दण्ड और उच्छृंखल न बने – इस हेतु दोनों का जीवन में होना अनिवार्य है।
शास्त्रों में आया है कि सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है किन्तु केवल इतने से ही आप मान लो कि 'हाँ, हम वास्तव में मानव हैं एवं इतर (अन्य) प्राणियों से श्रेष्ठ हैं' – यह पर्याप्त नहीं है। इस श्रेष्ठता को सिद्ध करने की जवाबदारी भी मानव के ऊपर है। केवल दस्तावेज के बल पर कोई मनुष्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता। उसे तो अपनी जीवन-शैली एवं रहन-सहन से साबित करना पड़ता हैः "मैं मानव हूँ, मानव कहलाने के लिए ये गुण मेरे जीवन में हैं और मानवता से पतित करने वाले इन-इन दुर्गुणों से मैं दूर रहता हूँ।"
यहाँ हम मानवता में जो दोष प्रविष्ट हो जाते हैं, उनकी चर्चा करेंगे। 'मनुस्मृति' कहती है कि मानवजीवन में दस दोष का पाप नहीं होने चाहिए – चार वाणी के पाप, तीन मान के पाप एवं तीन शरीर के पाप। अब क्रमानुसार देखें।
वाणी के चार पापः
परुष भाषण अर्थात् कठोर वाणीः कभी-भी कड़वी बात नहीं बोलनी चाहिए। किसी भी बात को मृदुता से, मधुरता से एवं अपने हृदय का प्रेम उसमें मिलाकर फिर कहना चाहिए। कठोर वाणी का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
गुरु ने शिष्य को किसी घर के मालिक की तलाश करने के लिए भेजा। शिष्य जरा ऐसा ही था – अधूरे लक्षणवाला। उसने घर की महिला से पूछाः
"ए माई ! तेरा आदमी कहाँ है ?"
महिला क्रोधित हो गयी और उसने चेले को भगा दिया। फिर गुरुजी स्वयं गये एवं बोलेः
"माता जी ! आपके श्रीमान् पतिदेव कहाँ है ?"
उस महिला ने आदर के साथ उन्हें बिठाया एवं कहाः "पतिदेव अभी घर आयेंगे।"
दोनों ने एक ही बात पूछी किन्तु पूछने का ढंग अलग था। इस प्रकार कठोर बोलना यह वाणी का एक पाप है। वाणी का यह दोष मानवता से पतित करवाता है।
अनृत अर्थात् अपनी जानकारी से विपरीत बोलनाः हम जो जानते हैं वह न बोलें, मौन रहें तो चल सकता है किन्तु जो बोलें वह सत्य ही होना चाहिए, अपने ज्ञान के अनुसार ही होना चाहिए। अपने ज्ञान का कभी अनादर न करें, तिरस्कार न करें। जब हम किसी के सामने झूठ बोलते हैं तब उसे नहीं ठगते, वरन् अपने ज्ञान को ही ठगते हैं, अपने ज्ञान का ही अपमान करते हैं। इससे ज्ञान रूठ जाता है, नाराज हो जाता है। ज्ञान कहता है कि 'यह तो मेरे पर झूठ का परदा ढाँक देता है, मुझे दबा देता है तो इसके पास क्यों रहूँ ?' ज्ञान दब जाता है। इस प्रकार असत्य बोलना यह वाणी का पाप है।
पैशुन्य अर्थात् चुगली करनाः इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करना। क्या आप किसी के दूत हैं कि इस प्रकार संदेशवाहक का कार्य करते हैं ? चुगली करना आसुरी संपत्ति के अंतर्गत आता है। इससे कलह पैदा होता है, दुर्भावना जन्म लेती है। चुगली करना यह वाणी का तीसरा पाप है।
असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् असंगत भाषणः प्रसंग के विपरीत बात करना। यदि शादी-विवाह की बात चल रही हो तो वहाँ मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए। यदि मृत्यु के प्रसंग की चर्चा चल रही हो तो वहाँ शादी-विवाह की बात नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार मानव की वाणी में कठोरता, असत्यता, चुगली एवं प्रसंग के विरुद्ध वाणी – ये चार दोष नहीं होने चाहिए। इन चार दोषों से युक्त वचन बोलने से बोलनेवाले को पाप लगता है।
मन के तीन पापः
परद्रव्येष्विभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।।
दूसरे के धन का चिंतन करनाः दूसरे के पास इतना सारा धन है ! उसे कैसे हड़प कर लें ? इसका चिन्तन न करें। वरन् स्वयं परिश्रम करें, द्रव्य उत्पन्न करें, आदान-प्रदान करें, विनिमय करें। दूसरे के धन की चिन्ता करते रहोगे तो मन जलने लगेगा। परिणामस्वरूप न जाने वह कैसा कुकर्म करवा दे ! दूसरे के धन-वैभव का चिंतन करना यह मानसिक पाप है, इससे बचना चाहिए
दूसरे के अनिष्ट का चिंतन करनाः ऐसा मत समझना कि केवल मन में ऐसा विचारने से कोई पाप नहीं लगता। नहीं, मन में दूसरे के नुक्सान का विचार करने से भी पाप लगता है क्योंकि मन में संकल्प होता है तब उसका मंथन भी होने भी लगता है। शरीर में भी वैसे ही रसायन बनने लगते हैं एवं वैसी ही क्रियाएँ भी होने लगती हैं। किसी के लिए अनिष्ट विचार आया तो समझो आपके मन में पाप का बीज बो दिया गया ! वह अंकुरित होकर धीरे-धीरे वृक्ष का रूप भी ले सकता है, आपको पापपरायण बना सकता है। अतः किसी को तकलीफ हो ऐसा मन में विचार तक नहीं करना चाहिए। यह मानसिक पाप है, इससे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए।
वितथाभिनिवेशः जो बात हम नहीं जानते उसे सत्य मानकर चलना। ऐसी मान्यता बना लेना यह मन का तीसरा पाप है।
सत्य क्या है ? अबाधित्वं सत्यत्वं। जिसका कभी बाध न हो वह है सत्य। हम उस सत्य को नहीं जानते किंतु जानने का दावा करने लग जाते हैं। आत्मारामी संतों का अनुभव ही सचोट होता है, बाकी तो सब लोग मन-इन्द्रियों के जगत में अपने-अपने मत-पंथ-मजहब को महत्त्व देकर अपनी मान्यता पुष्ट करते हैं। सत्य मान्यताओं के आधार पर नहीं टिका होता परंतु जो तमाम मान्यताएँ मानता है उस मन को जहाँ से सत्तास्फूर्ति मिलती है वह है अबाधित सत्यस्वरूप आत्मदेव। उसी में महापुरुष विश्रांति पाये हुए होते हैं एवं उन महापुरुषों के वचन प्रमाणभूत माने जाते हैं जिन्हें शास्त्र 'आप्तवचन' कहते हैं।
जिस धर्म में ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं का मार्गदर्शन नहीं लिया जाता, उस धर्म-संप्रदाय के लोग जड़ मान्यताओं में ही जकड़कर जिद्दी एवं जटिल हो जाते हैं। यह जिद और जटिलता मन का तीसरा दोष है। दूसरे को तुच्छ मानता, जिद्दी एवं जटिल रहना यह इस दोष के लक्षण हैं।
शरीर के तीन पापः
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।।
'पराये हक का लेना, अवैधानिक हिंसा करना, पर-स्त्री का संग करना – ये तीन शारीरिक पाप कहे जाते हैं।'
लोभकृत पापः आपके पास जो भी चीज है, वह आपके हक की होनी चाहिए। पिता-पितामह की तरफ से वसीयत के रूप में मिली हो, अपने परिश्रम से न्यायपूर्वक प्राप्त की हो, खरीदी हो, किसी ने दी हो अथवा किसी राज्य पर विजय हासिल कर प्राप्त की हो तो भी ठीक है। किंतु किसी की वस्तु को उसकी अनुमति अथवा जानकारी के बिना ले लेना यह शारीरिक पाप है। जो वस्तु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नहीं गयी है ऐसी दूसरे की वस्तु को हड़प लेना यह लोभकृत पाप है।
क्रोधकृत पापः हिंसा चैवाविधानतः। जो धर्मानुसार एवं संविधानुसार नहीं है ऐसे कृत्य का आचरण यह शारीरिक पाप है। जिससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की लौकिक, पारलौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो, उसमें रूकावट न आये ऐसा कर्म धर्म है और ऐसे धर्म को भंग करना यह पाप है।
हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।
कामकृत पापः पर-स्त्री के साथ संबंध यह कामकृत पाप है।
न ही दृशं अनावेश्यं लोके किंचन विद्यते।
पर स्त्री के साथ संबंध से बढ़कर शरीर को रोग देने वाला, मृत्यु देने वाला, आयुष्य घटाने वाला अन्य कोई दोष नहीं है। मानव की मर्यादा का यह उल्लंघन है। यह मर्यादा मानव की खास-विशेषता है। पशु, पक्षी, देवता अथवा दैत्यों में यह मर्यादा नहीं होती।
जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परंपरा से आता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है। मनुष्य जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है। उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं। 'पत्नी' शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – 'त्युनो यज्ञसंयोग।' यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी। यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती है उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए। मर्यादा अर्थात् क्या ? 'मर्यि' अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्म-दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे। जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन कहलाता है।
यहाँ हमने मानवता को दूषित करने वाली चीजों की मीमांसा की। उनसे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए। अब मनुष्यता को उज्जवल करने वाली बातों के विषय में विचार करेंगे। इन बातों को, मानवता की इन विशेषताओं को समझे। धर्म को कहीं से उधार नहीं लेना है अपितु वह हमारे ही अंदर स्थित है, उसे प्रगट करना पड़ता है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी पड़ती, किंतु हीरे को घिसकर उसके भीतर की चमक को प्रगट करना पड़ता है।
धर्म में चार बातें-
अनुशासनः धर्म में पहली बात यह है कि वह मनमाना नहीं होना चाहिए। शास्त्र एवं गुरु के अनुशासन के बिना जिसे अपने मन से ही धर्म मान लेते हैं वह धर्म अहंकार बढ़ाने वाला होता है एवं गलत मार्ग पर ले जाता है। अभिमान ऐसे ही गलत मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। मनमुख होकर स्वीकार किया गया धर्म सफलता मिलने पर अहंकार बढ़ाता है और असफलता मिलने पर दूसरों पर दोषारोपण की कुबुद्धि जगाता है।
धर्म में अनुशासन होना अत्यंत जरूरी है। वह अनुशासन चाहे शास्त्र का हो, सदगुरु का हो, माता-पिता का हो या अन्य किसी सुज्ञ हितैषी का हो लेकिन होना जरूर चाहिए। किसी के अनुशासन में कोई कार्य किया जाता है तो सफलता मिलने पर अधिमान नहीं आता और विफल होने पर दूसरों पर दोषारोपण की कुबुद्धि नहीं जगती।
आश्रयः धर्म में दूसरी बात है आश्रय की। ईश्वर का आश्रम लेकर जिस धर्म का आचरण करेंगे उससे हमारी क्रियाशक्ति बनी रहेगी, क्षीण नहीं होगी। किसी बड़े का आश्रय न हो तो मन में सफलता के विषय में शंका उठती है, कार्य पूर्ण होने में संदेह होता है। कार्य के परिणाम में संदेह उठने से निष्क्रियता आ जाती है, हमारी शक्ति क्षीण हो जाती है। अतः अनुशासन के साथ-साथ धर्म में ईश्वर एवं सदगुरु का आश्रय आवश्यक है।
संयमः धर्म में तीसरी बात आती है – अमर्यादित रूप से बढ़ती हुई वासना को रोकना अर्थात् संयम करना। जो लोग अपने जीवन में बिना किसी मर्यादा के वासना बढ़ा देते हैं, वे बड़े दुःखी हो जाते हैं। उदाहरण के लिये, किसी की वार्षिक आय एक लाख रूपये है। उसकी आय बढ़ी तो वासना बढ़ी और खर्च के रंग-ढंग भी बढ़े। वार्षिक व्यय तीन लाख तक पहुँचा जबकि आय डेढ़ लाख हो गयी थी। तीन लाख का व्यय डेढ़ लाख पर लाना कठिन हो गया। अतः आशा एवं इच्छा के पैर धीरे-धीरे पसारने चाहिए। एकाएक ऐसी आशा न करें जिससे आधा कार्य होने पर सुख मिलने की जगह आधा कार्य न होने का दुःख सताने लगे।
कर्म की उत्तमताः धर्म में चौथी महत्वपूर्ण बात हैः "मैं ही धर्म पूरा कर लूँगा।" ऐसा मानकर किसी धर्म का प्रारंभ न करें। "मैं ही करूँगा, मेरे भाई करेंगे, मेरी संतानें करेंगी। कोई उत्तम धर्मकार्य मेरे द्वारा पूर्ण हो जाय तो अच्छी बात है। वह कार्य किन्हीं अन्य लोगों के द्वारा पूर्ण हो तो भी एषणीय है।" कोई कार्य 'केवल मेरे लिए ही अच्छा है' ऐसा निर्णय करके ही न करें। 'जो कोई जब भी यह कार्य करेगा तो वह कार्य उसके लिए भी अच्छा ही होगा।' इस प्रकार कर्म के स्वरूप की उत्तमता का बोध होना चाहिए।
स्वर्ग से गंगाजी को धरती पर लाना था। राजा अंशुमान ने पुरुषार्थ किया, कार्य पूरा न हुआ। अंशुमान के पुत्र ने कार्य चालू रखा किन्तु उनका भी जीवन पूरा हो गया। गंगाजी को पृथ्वी पर लाना – यह उत्तम कार्य था तो तीसरी पीढ़ी में भगीरथ ने यह कार्य पूरा किया। यदि राजा अंशुमान विचारते कि 'यह कार्य मेरे जीवनकाल में पूर्ण हो जाय, ऐसा नहीं है' तो कार्य का प्रारंभ ही न हो पाता।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः।
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना।
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।
'कार्य में विघ्न आयेगा' ऐसे भय से कार्य का प्रारंभ ही न करना यह हीन पुरुष का लक्षण है। मध्यम पुरुष कार्य का प्रारंभ तो कर देता है किंतु बीच में विघ्न आने पर कार्य छोड़ देता है। उत्तम पुरुष का यह लक्षण है कि बार-बार विघ्न आये, आघात पड़े, घायल हो जाय फिर भी कार्य को अधूरा नहीं छोड़ता। उसकी दृष्टि में यदि कार्य उत्तम होता है तो बीच में आने वाले विघ्नों की वह कोई परवाह नहीं करता।
हम जो सत्कार्य करते हैं उससे हमें कुछ मिले – यह जरूरी नहीं है। किसी भी सत्कार्य का उद्देश्य हमारी आदतों को अच्छी बनाना है। हमारी आदते अच्छी बनें, स्वभाव शुद्ध, मधुर हो और उद्देश्य शुद्ध आत्मसुख पाने का हो। जीवन निर्मल बने इस उद्देश्य से ही सत्कार्य करने चाहिए।
किसी को पानी पिलायें, भोजन करायें एवं बदले में पच्चीस-पचास रूपये मिल जायें – यह अच्छे कार्य करने का फल नहीं है। अच्छे कार्य करने का फल यह है कि हमारी आदतें अच्छी बनें। कोई ईनाम मिले तभी सुखी होंगे क्या ? प्यासे को पानी एवं भूखे को भोजन देना यह कार्य क्या स्वयं ही इतना अच्छा नहीं है कि उस कार्य को करने मात्र से हमें सुख मिले ? है ही। उत्तम कार्य को करने के फलस्वरूप चित्त में जो प्रसन्नता होती है, निर्मलता का अनुभव होता है उससे उत्तम फल अन्य कोई नहीं है। यही चित्त का प्रसाद है, मन की निर्मलता है, अंतःकरण की शुद्धि है कि कार्य करने मात्र से प्रसन्न हो जायें। अतः जिस कार्य को करने से हमारा चित्त प्रसन्न हो, जो कार्य शास्त्रसम्मत हो, महापुरुषों द्वारा अनुमोदित हो वही कार्य धर्म कहलाता है। मनु महाराज कहते हैं-
यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात् परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
'जिससे अंतःकरण निर्मल हो, हृदय परितृप्त हो, उस कार्य को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए, उससे विपरीत कार्य का त्याग करना चाहिए।'
जिस प्रकार सरोवर में जा मिलने वाला गंदा पानी ठहरकर निर्मल हो जाता है, उसकी तरंगे शांत हो जाती हैं ऐसे ही सत्कृत्य करते-करते हमारा मन निर्मल होने लगता है, शांत होने लगता है – यह सबसे बड़ा फल है। कार्य के बदले में दूसरा कुछ पाने की इच्छा रखना यह घाटे का धंधा करने के समान है।
तात्पर्य यह है कि कर्म में अनुशासन होना चाहिए – यह है बुद्धि के लिए आश्रय। कर्म में बड़ों का सहारा होना चाहिए – यह है श्रद्धा के लिए आश्रय। कर्म को अच्छे ढंग से पूर्ण करना चाहिए। हम जो-जो कार्य करें, उसका हमें सतोंष होना चाहिए।
मानव जीवन कर्म एवं ज्ञान के समन्वय से ही ठीक से चलता है। हम आँख से देखते हैं वह ज्ञान है, पैर से चलते हैं वह कर्म हैं। हम जितना-जितना आगे देखेंगे उतना-उतना चल सकेंगे। जैसे-जैसे चलते जायेंगे, वैसे-वैसे आगे दिखता जायेगा। इस प्रकार कर्म एवं ज्ञान के समन्वय से ही जीवन-रथ परम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता रहता है। जीवन में केवल कर्म होगा तो जीवन यंत्रवत् बन जायेगा एवं केवल ज्ञान होगा तो जीवन में अकर्मण्यता आ जायेगी। अतः जीवन को यदि सही रूप से चलाना हो तो ज्ञान एवं कर्म का समन्वय करके चलाना चाहिए।
जीवन में इतनी भावुकता न आ जाय कि हम समझदारी से ही परे हो जायें ! जीवन में भावुकता भले रहे, प्रेम रहे, भक्ति रहे परंतु अति भावुकता, अति पक्षपात भले रहे, प्रेम रहे, भक्ति रहे परंतु अति भावुकता, अति पक्षपात न हो जिससे विवेक ही छूट जाय। विवेकशून्य होने से तो बड़ी हानि होती है। ऐसी बुद्धिहीन भावुकता तो पशुओं में भी दृष्टिगोचर होती है। अतः सदैव सावधानी एवं बुद्धिपूर्वक जीवन-सरिता का प्रवाह प्रवाहित होना चाहिए।