पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, June 30, 2010




गुरु आराधनावली पुस्तक से - Guru Aaradhnavali pustak se

प्रार्थना - Prarthana

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलम गुरो पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं। द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।

आरती

ज्योत से ज्योत जगाओ....

ज्योत से ज्योत जगाओ सदगुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ।।

मेरा अन्तर तिमिर मिटाओ सदगुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ।।

हे योगेश्वर ! हे परमेश्वर !हे ज्ञानेश्वर ! हे सर्वेश्वर !

निज कृपा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से.....

हम बालक तेरे द्वार पे आये, मंगल दरस दिखाओ सदगुरु ! ज्योत से....

शीश झुकाय करें तेरी आरती, प्रेम सुधा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से....

साची ज्योत जगे जो हृदय में, सोऽहं नाद जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....

अन्तर में युग युग से सोई, चितिशक्ति को जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....

जीवन में श्रीराम अविनाशी, चरनन शरन लगाओ सदगुरु ! ज्योत से...


स्वामी मोहे ना बिसारियो चाहे लाख लोग मिल जायें।

हम सम तुमको बहुत हैं तुम सम हमको नांहीं।।

दीन दयाल की बेनती सुन हो गरीब नवाज।

जो हम पूत कपूत हैं तो हे पिता तेरी लाज।।

गुरु वंदना

जय सदगुरु देवन देववरं निज भक्तन रक्षण देहधरम्।

परदुःखहरं सुखशांतिकरं निरुपाधि निरामय दिव्य परम्।।1।।

जय काल अबाधित शांति मयं जनपोषक शोषक तापत्रयम्।

भयभंजन देत परम अभयं मनरंजन भाविक भावप्रियम्।।2।।

ममतादिक दोष नशावत हैं। शम आदिक भाव सिखावत हैं।

जग जीवन पाप निवारत हैं। भवसागर पार उतारत हैं।।3।।

कहुँ धर्म बतावत ध्यान कहीं। कहुँ भक्ति सिखावत ज्ञान कहीं।

उपदेशत नेम अरु प्रेम तुम्हीं। करते प्रभु योग अरु क्षेम तुम्हीं।।4।।

मन इन्द्रिय जाही न जान सके। नहीं बुद्धि जिसे पहचान सके।

नहीं शब्द जहाँ पर जाय सके। बिनु सदगुरु कौन लखाय सके।।5।।

नहीं ध्यान न ध्यातृ न ध्येय जहाँ। नहीं ज्ञातृ न ज्ञान न ज्ञेय जहाँ।

नहीं देश न काल न वस्तु तहाँ। बिनु सदगुरु को पहुँचाय वहाँ।।6।।

नहीं रूप न लक्षण ही जिसका। नहीं नाम न धाम कहीं जिसका।

नहीं सत्य असत्य कहाय सके। गुरुदेव ही ताही जनाय सके।।7।।

गुरु कीन कृपा भव त्रास गई। मिट भूख गई छुट प्यास गई।

नहीं काम रहा नहीं कर्म रहा। नहीं मृत्यु रहा नहीं जन्म रहा।।8।।

भग राग गया हट द्वेष गया। अघ चूर्ण भया अणु पूर्ण भया।

नहीं द्वैत रहा सम एक भया। भ्रम भेद मिटा मम तोर गया।।9।।

नहीं मैं नहीं तू नहीं अन्य रहा। गुरु शाश्वत आप अनन्य रहा।

गुरु सेवत ते नर धन्य यहाँ। तिनको नहीं दुःख यहाँ न वहाँ।।10।।

गुरुदेव दया कर दो मुझ पर

गुरुदेव दया कर दो मुझ पर, मुझे अपनी शरण में रहने दो।

मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी, अब निर्मल गागर भरने दो।।1।।

तुम्हारी शरण में जो कोई आया, पार हुआ वो एक ही पल में।

इसी दर पे हम भी आये हैं, इस दर पे गुजारा करने दो।।2।।

मुझे ज्ञान के...

सर पे छाया घोर अँधेरा, सूझत नाँही राह कोई।

ये नयन मेरे और ज्योत तेरी, इन नयनों को भी बहने दो।।3।।

मुझे ज्ञान के..

चाहे डुबा दो चाहे तैरा दो मर भी गये तो देंगे दुआएँ।

ये नाव मेरी और हाथ तेरे, मुझे भवसागर से तरने दो।।4।।

मुझे ज्ञान के ....

अजन्मा है अमर आत्मा

व्यर्थ चिंतित हो रहे हो, व्यर्थ डरकर रो रहे हो।

अजन्मा है अमर आत्मा, भय में जीवन खो रहे हो।।

जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।

होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।

'गर भुला दो बोझ कल का,आज तुम क्यों ढो रहे हो?

अजन्मा है...

हुई भूलें-भूलों का फिर, आज पश्चाताप क्यों?

कल् क्या होगा? अनिश्चित है, आज फिर संताप क्यों?

जुट पड़ो कर्त्तव्य में तुम, बाट किसकी जोह रहे हो?

अजन्मा है...

क्या गया, तुम रो पड़े? तुम लाये क्या थे, खो दिया?

है हुआ क्या नष्ट तुमसे, ऐसा क्या था खो दिया?

व्यर्थ ग्लानि से भरा मन, आँसूओं से धो रहे हो।।

अजन्मा है....

ले के खाली हाथ आये, जो लिया यहीं से लिया।

जो लिया नसीब से उसको, जो दिया यहीं का दिया।

जानकर दस्तूर जग का, क्यों परेशां हो रहे हो?

अजन्मा है...

जो तुम्हारा आज है, कल वो ही था किसी और का।

होगा परसों जाने किसका, यह नियम सरकार का।

मग्न ही अपना समझकर, दुःखों को संजो रहे हो।

अजन्मा है.....

जिसको तुम मृत्यु समझते, है वही जीवन तुम्हारा।

हो नियम जग का बदलना,क्या पराया क्या तुम्हारा?

एक क्षण में कंगाल हो, क्षण भर में धन से मोह रहे हो।।

अजन्म है....

मेरा-तेरा, बड़ा छोटा, भेद ये मन से हटा दो।

सब तुम्हारे तुम सभी के, फासले मन से हटा दो।

कितने जन्मों तक करोगे, पाप कर तुम जो रहे हो।

अजन्मा है....

है किराये का मकान, ना तुम हो इसके ना तुम्हारा।

पंच तत्त्वों का बना घर, देह कुछ दिन का सहारा।

इस मकान में हो मुसाफिर, इस कदर क्यों सो रहे हो?

अजन्मा है..

उठो ! अपने आपको, भगवान को अर्पित करो।

अपनी चिंता, शोक और भय, सब उसे अर्पित करो।

है वो ही उत्तम सहारा, क्यों सहारा खो रहे हो?

अजन्मा है....

जब करो जो भी करो, अर्पण करो भगवान को।

सर्व कर दो समर्पण, त्यागकर अभिमान को।

मुक्ति का आनंद अनुभव, सर्वथा क्यों खो रहे हो?

अजन्मा है....

संत मिलन को जाइये

कबीर सोई दिन भला जो दिन साधु मिलाय।

अंक भरै भरि भेंटिये पाप शरीरां जाय।।1।।

कबीर दरशन साधु के बड़े भाग दरशाय।

जो होवै सूली सजा काटै ई टरी जाय।।2।।

दरशन कीजै साधु का दिन में कई कई बार।

आसोजा का मेह ज्यों बहुत करै उपकार।।3।।

कई बार नहीं कर सकै दोय बखत करि लेय।

कबीर साधू दरस ते काल दगा नहीं देय।।4।।

दोय बखत नहीं करि सकै दिन में करु इक बार।

कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार।।5।।

दूजै दिन नहीं कर सकै तीजै दिन करू जाय।

कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल जाय।।6।।

तीजै चौथे नहीं करै सातैं दिन करु जाय।

या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय।।7।।

सातैं दिन नहीं करि सकै पाख पाख करि लेय।

कहै कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय।।8।।

पाख पाख नहीं करि सकै मास मास करु जाय।

ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय।।9।।

मात पिता सुत इस्तरी आलस बंधु कानि।

साधु दरस को जब चलै ये अटकावै खानि।।10।।

इन अटकाया ना रहै साधू दरस को जाय।

कबीर सोई संतजन मोक्ष मुक्ति फल पाय।।11।।

साधु चलत रो दीजिये कीजै अति सनमान।

कहै कबीर कछु भेंट धरूँ अपने बित अनुमान।।12।।

तरुवर सरोवर संतजन चौथा बरसे मेह।

परमारथ के कारणे चारों धरिया देह।।13।।

संत मिलन को जाइये तजी मोह माया अभिमान।

ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।14।।

तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग।

हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।15।।

चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।

चलाचली के वक्त में भलाभली कर लेह।।16।।

सुखी सुखी हम सब कहें सुखमय जानत नाँही।

सुख स्वरूप आतम अमर जो जाने सुख पाँहि।।17।।

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।18।।

दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ।

सुख में जो सोये रहे वा को दुःखी बनाऊँ।।19।।

माला श्वासोच्छ्वास की भगत जगत के बीच।

जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच।।20।।

अरब खऱब लों धन मिले उदय अस्त लों राज।

तुलसी हरि के भजन बिन सबे नरक को साज।।21।।

साधु सेव जा घर नहीं सतगुरु पूजा नाँही।

सो घर मरघट जानिये भूत बसै तेहि माँहि।।22।।

निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव।

जो चाहे आकार को साधू परतछ देव।।23।।

साधू आवत देखि के चरणौ लागौ धाय।

क्या जानौ इस भेष में हरि आपै मिल जाय।।24।।

साधू आवत देख करि हसि हमारी देह।

माथा का ग्रह उतरा नैनन बढ़ा सनेह।।25।

श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम्

गुर्वष्टकम्

शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।1।।

यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।2।।

सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।3।।

वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।4।।

जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।5।।

जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्ज गद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।6।।

दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।7।।

जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।8।।

जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?

अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्स मालिंगिता कामिनी यामिनीषु।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।9।।

अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।

लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्।।10।।

जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।

हे प्रभु ! आनन्ददाता

हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।

लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।

हे प्रभु....

निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।

ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।।

हे प्रभु....

सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।

दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।

हे प्रभु....

जाये हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।

हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।

हे प्रभु....

मातृभूमि मातृसेवा हो अधिक प्यारी हमें।

देश की सेवा करें निज देश हितकारी बनें।।

हे प्रभु....

कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा !

मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।

हे प्रभु....

प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।

प्रेम से हम दुःखीजनों की नित्य ही सेवा करें।।

हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।

Sunday, June 27, 2010




हमारे आदर्श पुस्तक से - Humare Aadarsh pustak se

सबसे श्रेष्ठ संपत्ति : चरित्र - Sabse shreshth sampatti : Charitra

चरित्र मानव की श्रेष्ठ संपत्ति है, दुनिया की समस्त संपदाओं में महान संपदा है। पंचभूतों से निर्मित मानव-शरीर की मृत्यु के बाद, पंचमहाभूतों में विलीन होने के बाद भी जिसका अस्तित्व बना रहता है, वह है उसका चरित्र।
चरित्रवान व्यक्ति ही समाज, राष्ट्र व विश्वसमुदाय का सही नेतृत्व और मार्गदर्शन कर सकता है। आज जनता को दुनियावी सुख-भोग व सुविधाओं की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी चरित्र की। अपने सुविधाओं की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी की चरित्र की। अपने चरित्र व सत्कर्मों से ही मानव चिर आदरणीय और पूजनीय हो जाता है।
स्वामी शिवानंद कहा करते थेः
"मनुष्य जीवन का सारांश है चरित्र। मनुष्य का चरित्रमात्र ही सदा जीवित रहता है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी किया जा सकता। अतः निष्कलंक चरित्र का निर्माण करें।"
अपने अलौकिक चरित्र के कारण ही आद्य शंकराचार्य, महात्मा बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, पूज्य लीलाशाह जी बापू जैसे महापुरुष आज भी याद किये जाते हैं।
व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। बाह्य रूप से व्यक्ति कितना ही सुन्दर क्यों न हो, कितना ही निपुण गायक क्यों न हो, बड़े-से-बड़ा कवि या वैज्ञानिक क्यों न हो, पर यदि वह चरित्रवान न हुआ तो समाज में उसके लिए सम्मानित स्थान का सदा अभाव ही रहेगा। चरित्रहीन व्यक्ति आत्मसंतोष और आत्मसुख से वंचित रहता है। आत्मग्लानि व अशांति देर-सवेर चरित्रहीन व्यक्ति का पीछा करती ही है। चरित्रवान व्यक्ति के आस-पास आत्मसंतोष, आत्मशांति और सम्मान वैसे ही मंडराते हैं. जैसे कमल के इर्द-गिर्द भौंरे, मधु के इर्द-गिर्द मधुमक्खी व सरोवर के इर्द-गिर्द पानी के प्यासे।
चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण है जो शांति, धैर्य, स्नेह, प्रेम, सरलता, नम्रता आदि दैवी गुणों को निखारता है। यह उस पुष्प की भाँति है जो अपना सौरभ सुदूर देशों तक फैलाता है। महान विचार तथा उज्जवल चरित्र वाले व्यक्ति का ओज चुंबक की भाँति प्रभावशाली होता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर सम्पूर्ण मानव-समुदाय को उत्तम चरित्र-निर्माण के लिए श्रीमद् भगवद् गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी गुणों का उपदेश किया है, जो मानवमात्र के लिए प्रेरणास्रोत हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म अथवा संप्रदाय का हो। उन दैवी गुणों को प्रयत्नपूर्वक अपने आचरण में लाकर कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है।
निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि तथा दुःखों के प्रति अंतर्दृष्टि, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग-परायणता, अलोलुपता, ईर्ष्या, अभिमान, कुटिलता व क्रोध का अभाव तथा शाँति और शौर्य जैसे गुण विकसित करने चाहिए।
कार्य करने पर एक प्रकार की आदत का भाव उदय होता है। आदत का बीज बोने से चरित्र का उदय और चरित्र का बीज बोने से भाग्य का उदय होता है। वर्तमान कर्मों से ही भाग्य बनता है, इसलिए सत्कर्म करने की आदत बना लें।
चित्त में विचार, अनुभव और कर्म से संस्कार मुद्रित होते हैं। व्यक्ति जो भी सोचता तथा कर्म करता है, वह सब यहाँ अमिट रूप से मुद्रित हो जाता है। व्यक्ति के मरणोपरांत भी ये संस्कार जीवित रहते हैं। इनके कारण ही मनुष्य संसार में बार-बार जन्मता-मरता रहता है।
दुश्चरित्र व्यक्ति सदा के लिए दुश्चरित्र हो गया – यह तर्क उचित नहीं है। अपने बुरे चरित्र व विचारों को बदलने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। आम्रपाली वेश्या, मुगला डाकू, बिल्वमंगल, वेमना योगी, और भी कई नाम लिये जा सकते हैं। एक वेश्या के चँगुल में फँसे व्यक्ति बिल्वमंगल से संत सूरदास हो गये। पत्नी के प्रेम में दीवाने थे लेकिन पत्नी ने विवेक के दो शब्द सुनाये तो वे ही संत तुलसीदास हो गये। आम्रपाली वेश्या भगवान बुद्ध की परम भक्तिन बन कर सन्मार्ग पर चल पड़ी।
बिगड़ी जनम अनेक की सुधरे अब और आज।
यदि बुरे विचारों और बुरी भावनाओं का स्थान अच्छे विचारों और आदर्शों को दिया जाए तो मनुष्य सदगुणों के मार्ग में प्रगति कर सकता है। असत्यभाषी सत्यभाषी बन सकता है, दुष्चरित्र सच्चरित्र में परिवर्तित हो सकता है, डाकू एक नेक इन्सान ही नहीं ऋषि भी बन सकता है। व्यक्ति की आदतों, गुणों और आचारों की प्रतिपक्षी भावना (विरोधी गुणों की भावना) से बदला जा सकता है। सतत अभ्यास से अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है। दृढ़ संकल्प और अदम्य साहस से जो व्यक्ति उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है, सफलता तो उसके चरण चूमती है।
चरित्र-निर्माण का अर्थ होता है आदतों का निर्माण। आदत को बदलने से चरित्र भी बदल जाता है। संकल्प, रूचि, ध्यान तथा श्रद्धा से स्वभाव में किसी भी क्षण परिवर्तन किया जा सकता है। योगाभ्यास द्वारा भी मनुष्य अपनी पुरानी क्षुद्र आदतों को त्याग कर नवीन कल्याणकारी आदतों को ग्रहण कर सकता है।
आज का भारतवासी अपनी बुरी आदतें बदलकर अच्छा इन्सान बनना तो दूर रहा, प्रत्युत पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते हुए और ज्यादा बुरी आदतों का शिकार बनता जा रहा है, जो राष्ट्र के सामाजिक व नैतिक पतन का हेतु है।
जिस राष्ट्र में पहले राजा-महाराजा भी जीवन का वास्तविक रहस्य जानने के लिए, ईश्वरीय सुख प्राप्त करने के लिए राज-पाट, भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागकर ब्रह्मज्ञानी संतों की खोज करते थे, वहीं विषय-वासना व पाश्चात्य चकाचौंध पर लट्टू होकर कई भारतवासी अपना पतन आप आमंत्रित कर रहे हैं।

सफलता की कुंजी

साधक के जीवन में, मनुष्य मात्र के जीवन में अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता होनी ही चाहिए। जो काम जिस समय करना चाहिए कर ही लेना चाहिए। संयम और तत्परता सफलता की कुंजी है। लापरवाही और संयम का अनादर विनाश का कारण है। जिस काम को करें, उसे ईश्वर का कार्य मान कर साधना का अंग बना लें। उस काम में से ही ईश्वर की मस्ती का आनंद आने लग जायेगा।
दो किसान थे। दोनों ने अपने-अपने बगीचे में पौधे लगाये। एक किसान ने बड़ी तत्परता से और ख्याल रखकर सिंचाई की, खाद पानी इत्यादि दिया। कुछ ही समय में उसका बगीचा सुंदर नंदनवन बन गया। दूर-दूर से लोग उसके बगीचे में आने लगे और खूब कमाई होने लगी।
दूसरे किसान ने भी पौधे तो लगाये थे लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया, लापरवाही की, अनियमित खाद-पानी दिये। लापरवाही की तो उसको परिणाम वह नहीं मिला। उसका बगीचा उजाड़ सा दिखता था।
अब पहले किसान को तो खूब यश मिलने लगा, लोग उसको सराहने लगे। दूसरा किसान अपने भाग्य को कोसने लगा, भगवान को दोषी ठहराने लगा। अरे भाई ! भगवान ने सूर्य कि किरणें और वृष्टि तो दोनों के लिए बराबर दी थी, दोनों के पास साधन थे, लेकिन दूसरे किसान में कमी थी तत्परता व सजगता की, अतः उसे वह परिणाम नहीं मिल पाया।
पहले किसान का तत्पर व सजग होना ही उसकी सफलता का कारण था और दूसरे किसान की लापरवाही ही उसकी विफलता का कारण थी। अब जिसको यश मिल रहा है वह बुद्धिमान किसान कहता है कि 'यह सब भगवान की लीला है' और दूसरा भगवान को दोषी ठहराता है। पहला किसान तत्परता व सजगता से काम करता है और भगवान की स्मृति रखता है। तत्परता व सजगता से काम करने वाला व्यक्ति कभी विफल नहीं होता और कभी विफल हो भी जाता है तो विफलता का कारण खोजता है। विफलता का कारण ईश्वर और प्रकृति नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी बेवकूफी निकालते हैं और तत्परता तथा सजगता से कार्य करते हैं।
एक होता है आलस्य और दूसरा होता है प्रमाद। पति जाते-जाते पत्नी को कह गयाः "मैं जा रहा हूँ। फैक्टरी में ये-ये काम हैं। मैनेजर को बता देना।" दो दिन बाद पति आया और पत्नी से पूछाः "फैक्टरी का काम कहाँ तक पहुँचा?"
पत्नी बोलीः "मेरे तो ध्यान में ही नहीं रहा।"
यह आलस्य नहीं है, प्रमाद है। किसी ने कुछ कार्य कहा कि इतना कार्य कर देना। बोलेः "अच्छा, होगा तो देखते हैं।" ऐसा कहते हुए काम भटक गया। यह है आलस्य।
आलस कबहुँ न कीजिए, आलस अरि सम जानि।
आलस से विद्या घटे, सुख-सम्पत्ति की हानि।।
आलस्य और प्रमाद मनुष्य की योग्याताओं के शत्रु हैं। अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी तत्परता से कार्य करना चाहिए। जिसकी कम समय में सुन्दर, सुचारू व अधिक-से-अधिक कार्य करने की कला विकसित है, वह आध्यात्मिक जगत में जाता है तो वहाँ भी सफल हो जायगा और लौकिक जगत में भी। लेकिन समय बरबाद करने वाला, टालमटोल करने वाला तो व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में तो सफल हो ही नहीं सकता।
लापरवाह, पलायनवादी लोगों को सुख सुविधा और भजन का स्थान भी मिल जाय लेकिन यदि कार्य करने में तत्परता नहीं है, ईश्वर में प्रीति नहीं है, जप में प्रीति नहीं है तो ऐसे व्यक्ति को ब्रह्माजी भी आकर सुखी करना चाहें तो सुखी नहीं कर सकते। ऐसा व्यक्ति दुःखी ही रहेगा। कभी-कभी दैवयोग से उसे सुख मिलेगा तो आसक्त हो जायेगा और दुःख मिलेगा तो बोलेगाः "क्या करें? जमाना ऐसा है।" ऐसा करकर वह फरियाद ही करेगा।
काम-क्रोध तो मनुष्य के वैरी हैं ही, परंतु लापरवाही, आलस्य, प्रमाद – ये मनुष्य की योग्याओं के वैरी हैं।
अदृढ़ं हतं ज्ञानम्।
'भागवत' में आता है कि आत्मज्ञान अगर अदृढ़ है तो मरते समय रक्षा नहीं करता।
प्रमादे हतं श्रुतम्।
प्रमाद से जो सुना है उसका फल और सुनने का लाभ बिखर जाता है। जब सुनते हैं तब तत्परता से सुनें। कोई वाक्य या शब्द छूट न जाय।
संदिग्धो हतो मंत्रः व्यग्रचित्तो हतो जपः।
मंत्र में संदेह हो कि 'मेरा यह मंत्र सही है कि नहीं? बढ़िया है कि नहीं?' तुमने जप किया और फिर संदेह किया तो केवल जप के प्रभाव से थोड़ा बहुत लाभ तो होगा लेकिन पूर्ण लाभ तो निःसंदेह होकर जप करने वाले को हो ही होगा। जप तो किया लेकिन व्यग्रचित्त होकर बंदर-छाप जप किया तो उसका फल क्षीण हो जाता है। अन्यथा एकाग्रता और तत्परतापूर्वक जप से बहुत लाभ होता है। समर्थ रामदास ने तत्परता से जप कर साकार भगवान को प्रकट कर दिया था। मीरा ने जप से बहुत ऊँचाई पायी थी। तुलसीदास जी ने जप से ही कवित्व शक्ति विकसित की थी।
जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः।
जब तक लापरवाही है, तत्परता नहीं है तो लाख मंत्र जपो, क्या हो जायेगा? संयम और तत्परता से छोटे-से-छोटे व्यक्ति को महान बना देती है और संयम का त्याग करके विलासिता और लापरवाही पतन करा देती है। जहाँ विलास होगा, वहाँ लापरवाही आ जायेगी। पापकर्म, बुरी आदतें लापरवाही ले आते हैं, आपकी योग्यताओं को नष्ट कर देते है और तत्परता को हड़प लेते हैं।
किसी देश पर शत्रुओं ने आक्रमण की तैयारी की। गुप्तचरों द्वारा राजा को समाचार पहुँचाया गया कि शत्रुदेश द्वारा सीमा पर ऐसी-ऐसी तैयारियाँ हो रही हैं। राजा ने मुख्य सेनापति के लिए संदेशवाहक द्वारा पत्र भेजा। संदेशवाहक की घोड़ी के पैर की नाल में से एक कील निकल गयी थी। उसने सोचाः 'एक कील ही तो निकल गयी है, कभी ठुकवा लेंगे।' उसने थोड़ी लापरवाही की। जब संदेशा लेकर जा रहा था तो उस घोड़ी के पैर की नाल निकल पड़ी। घोड़ी गिर गयी। सैनिक मर गया। संदेश न पहुँच पाने के कारण दुश्मनों ने आक्रमण कर दिया और देश हार गया।
कील न ठुकवायी.... घोड़ी गिरी.... सैनिक मरा.... देश हारा।
एक छोटी सी कील न लगवाने की लापरवाही के कारण पूरा देश हार गया। अगर उसने उसी समय तत्पर होकर कील लगवायी होती तो ऐसा न होता। अतः जो काम जब करना चाहिए, कर ही लेना चाहिए। समय बरबाद नहीं करना चाहिए।
आजकल ऑफिसों में क्या हो रहा है? काम में टालमटोल। इंतजार करवाते हैं। वेतन पूरा चाहिए लेकिन काम बिगड़ता है। देश की व मानव-जाति की हानि हो रही है। सब एक-दूसरे के जिम्मे छोड़ते हैं। बड़ी बुरी हालत हो रही है हमारे देश की जबकि जापान आगे आ रहा है, क्योंकि वहाँ तत्परता है। इसीलिए इतनी तेजी से विकसित हो गया।
महाराज ! जो व्यवहार में तत्पर नहीं है और अपना कर्तव्य नहीं पालता, वह अगर साधु भी बन जायेगा तो क्या करेगा? पलायनवादी आदमी जहाँ भी जायेगा, देश और समाज के लिए बोझा ही है। जहाँ भी जायेगा, सिर खपायेगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव, सात्यकि, कृतवर्मा से चर्चा करते-करते पूछाः "मैं तुम्हें पाँच मूर्खों, पलायनवादियों के साथ स्वर्ग में भेजूँ यह पसंद करोगे कि पाँच बुद्धिमानों के साथ नरक में भेजूँ यह पसंद करोगे?"
उन्होंने कहाः "प्रभु ! आप कैसा प्रश्न पूछते हैं? पाँच पलायनवादी-लापरवाही अगर स्वर्ग में भी जायेंगे तो स्वर्ग की व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी और अगर पाँच बुद्धिमान व तत्पर व्यक्ति नरक में जायेंगे तो कार्यकुशलता और योग्यता से नरक का नक्शा ही बदल जायेगा, उसको स्वर्ग बना देंगे।"
पलायनवादी, लापरवाही व्यक्ति घर-दुकान, दफ्तर और आश्रम, जहाँ भी जायेगा देर-सवेर असफल हो जायेगा। कर्म के पीछे भाग्य बनता है, हाथ की रेखाएँ बदल जाती हैं, प्रारब्ध बदल जाता है। सुविधा पूरी चाहिए लेकिन जिम्मेदारी नहीं, इससे लापरवाह व्यक्ति खोखला हो जाता है। जो तत्परता से काम नहीं करता, उसे कुदरत दुबारा मनुष्य-शरीर नहीं देती। कई लोग अपने-आप काम करते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनसे काम लिया जाता है लेकिन तत्पर व्यक्ति को कहना नहीं पड़ता। वह स्वयं कार्य करता है। समझ बदलेगी तब व्यक्ति बदलेगा और व्यक्ति बदलेगा तब समाज और देश बदलेगा।
जो मनुष्य-जन्म में काम कतराता है, वह पेड़ पौधा पशु बन जाता। फिर उससे डंडे मार-मार कर, कुल्हाड़े मारकर काम लिया जाता है। प्रकृति दिन रात कार्य कर रही है, सूर्य दिन रात कार्य कर रहा है, हवाएँ दिन रात कार्य कर रही हैं, परमात्मा दिन रात चेतना दे रहा है। हम अगर कार्य से भागते फिरते हैं तो स्वयं ही अपने पैर पर कुल्हाड़ा मारते हैं।
जो काम, जो बात अपने बस की है, उसे तत्परता से करो। अपने कार्य को ईश्वर की पूजा समझो। राजव्यवस्था में भी अगर तत्परता नहीं है तो तत्परता बिगड़ जायेगी। तत्परता से जो काम अधिकारियों से लेना है, वह नहीं लेते क्योंकि रिश्वत मिल जाती है और वे लापरवाह हो जाते हैं। इस देश में 'ऑपरेशन' की जरूरत है। जो काम नहीं करता उसको तुरंत सजा मिले, तभी देश सुधरेगा।
शत्रु या विरोधी पक्ष की बात भी यदि देश व मानवता के हित की हो तो उसे आदर से स्वीकार करना चाहिए और अपने वाले की बात भी यदि देश के, धर्म के अनुकूल नहीं हो तो उसे नहीं मानना चाहिए।
आप लोग जहाँ भी हो, अपने जीवन को संयम और तत्परता से ऊपर उठाओ। परमात्मा हमेशा उन्नति में साथ देता है। पतन में परमात्मा साथ नहीं देता। पतन मे हमारी वासनाएँ, लापरवाही काम करती है। मुक्ति के रास्ते भगवान साथ देता है, प्रकृति साथ देती है। बंधन के लिए तो हमारी बेवकूफी, इन्द्रियों की गुलामी, लालच र हलका संग ही कारणरूप होता है। ऊँचा संग हो तो ईश्वर भी उत्थान में साथ देता है। यदि हम ईश्वर का स्मरण करें तो चाहे हमें हजार फटकार मिलें, हजारों तकलीफें आयें तो भी क्या? हम तो ईश्वर का संग करेंगे, संतों-शास्त्रों की शरण जायेंगे, श्रेष्ठ संग करेंगे और संयमी व तत्पर होकर अपना कार्य करेंगे-यही भाव रखना चाहिए।
हम सब मिलकर संकल्प करें कि लापरवाही, पलायनवाद को निकालकर, संयमी और तत्पर होकर अपने को बदलेंगे, समाज को बदलेंगे और लोक कल्याण हेतु तत्पर होकर देश को उन्नत करेंगे।

Tuesday, June 8, 2010



जो जागत है सो पावत है पुस्तक से - Jo jaagat hai so pavat hai pustak se

जब भगवान के सिवाय सब बेकार लगे तो समझो कि वह पहली भूमिका पर पहुँचा है । उसके लिए विघ्न-बाधाएँ साधन बन जाएँगी । विघ्न-बाधाएँ जीवन का संगीत है । विघ्न-बाधाएँ नहीं आयें तो संगीत छिड़ेगा नहीं ।
भौंरी कीड़े को उठाकर अपने बिल में रखती है । एक डंक मारती है, वह कीड़ा छटपटाता है । उसके शरीर से पसीने जैसा कुछ प्रवाह निकलता है । फिर भौंरी जब दूसरा डंक मारती है तब कीड़ा तेजी से छटपटाता है और वह पसीना कड़ा हो जाता है, जाला बन जाता है । जब तीसरा डंक मारती है तो कीड़ा खूब छटपटाता है, बहुत दुःखी होता है मगर उस डंक के कारण पसीने से जो जाला बना है उसी में से पंख फूट निकलते हैं और वह उड़ान भरता है ।
वैज्ञानिकों ने कीड़े में से मकड़ी बनने की इस प्रक्रिया को देखा । भौंरी के द्वारा तीसरे डंक सहने की तीव्र पीड़ा से उन कीड़ों को बचाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक बारीक कैंची बनाई और तीसरे डंक से कीड़ा छटपटाकर जाला काटे उसकी अपेक्षा उन्होंने कैंची से वह जाला काट दिया । कीड़े को राहत मिली, पीड़ा तो नहीं हुई, मगर फिर उसके पंख नहीं फूटे । उड़ान भरने की योग्यता उसमें नहीं आयी ।

ऐसे ही परमात्मा जब अपने साधक को अपनी दिव्य अनुभूति में उड़ान भरवाते हैं तब उसको चारों तरफ से विघ्न-बाधाएँ देते हैं ताकि उसका विचारबल, मनोबल, समझशक्ति एवं आत्मशक्ति बढ़ जाये । मीरा के लिए परमात्मा ने राणा को तैयार कर दिया । नरसिंह मेहता का भाई ही उनका विरोध करता था, साथ में पूरी नगरी जुड़ गयी । शबरी भीलनी हो, चाहे संत कबीर हो, चाहे एकनाथ जी हों या संत तुकाराम हों, कोई भी हो, लोग ऐसे भक्तों के लिए एक प्रकार का जाला बना लेते हैं । एकनाथ जी महाराज के खिलाफ हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर एक चांडाल चौकड़ी बनायी थी ।
जैसे कीड़े के लिए तीसरा डंक पंख फूट निकलने के लिए होता है ऐसे ही प्रकृति की ओर से यह सारा खिलवाड़ साधक के उत्थान के लिए होता है । जिन्हे सत्संग का सहारा नहीं है, पहली दूसरी भूमिका में दृढ़ता नहीं है वे हिल जाते हैं ।

बुद्ध के मन में एक बार आया कि यहाँ तो कोई पहचानता भी नहीं, खाने का भी ठिकाना नहीं है, लोग मुझ पर थूकते हैं, हालाँकि मैं उन्हें कुछ कहता भी नहीं । यह भी कोई ज़िन्दगी है ! चलो, वापस घर चलें । उस समय वे सिद्धार्थ थे । सत्संग का सहारा नहीं था । पहली भूमिका में दृढ़ता चाहिए । बचपन का वैराग्य हो तो ठीक है मगर बुढ़ापे में वैराग्य जगा है या फिर भी भोग भोगने के बाद, बच्चों को जन्म देने के बाद पहली भूमिका मिली हो तो जरा कमजोर है । बुद्ध के मन में आया कि चलो घर जायें । उन्हीं विचारों में खोये से बैठे थे । इतने में देखते हैं कि सामने पेड़ पर एक कीड़ा चड़ रहा है । हवा का झोंका आया और गिर पड़ा । फिर उसने चढ़ना शुरु किया । हवा का दूसरा झोंका आया और फिर गिर पड़ा । ऐसे वह कीड़ा सात बार गिरा और चढ़ा । आखिर वह आठवीं बार में चढ़ गया । सिद्धार्थ उसको ध्यान से देख रहे थे । उन्होंने सोचा कि यह कोई झूठी घटना नहीं है । यह तो संदेश है । एक साधारण कीड़ा अपने लक्ष्य पर पहुँच जाता है और मैं इन्सान होकर पीछे हट जाऊँ?
सिद्धार्थ की पहली भूमिका थी । अपने आप संस्कार जग गये । सिद्धार्थ ने निश्चय कर लियाः "कार्यं साधयामि व देहं पातयामि । या तो कार्य साध लूँगा या मर जाऊँगा । महल में भी एक दिन मर ही जाना है । साधना करते-करते भी मर जाऊँगा तो हर्ज नहीं । ऐसा सोचकर पक्की गाँठ बाँध ली और चल पड़े । सात साल के अन्दर ही उन्हें परम शांति मिल गयी ।

जब आदमी के शुभ विचार जगते हैं तब स्नान, दान, सेवा, स्मरण, सत्संग परहित उसे अच्छे लगते हैं । जिसे पहली भूमिका प्राप्त नहीं हुई उसे इन सब कार्यों के लिए फुर्सत ही नहीं मिलेगी । वहाँ से वह पलायन हो जायेगा । उसे वह सब अच्छा नहीं लगेगा । वाह-वाही पाने, यश कमाने को तो आगे आ जायेगा पर फिर खिसक जायेगा । ऐसे लोग फिर पशु, पक्षी, कीट की निम्न योनियों में जाते हैं ।
दूसरी भूमिका होती है शुभेच्छा । 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि परमात्मा मिले, ऐसे दिन कब आयेंगे कि देह से देहातीत तत्त्व का साक्षात्कार हो जाये? अफसर, साहब, सेठ, साहूकार बन गये मगर आखिर क्या?' ऐसा विचार उसे आता रहता है ।

यह दूसरी भूमिका जिसे प्राप्त हो गई वह घर में भी है तो घर वाले उसे दबा नहीं सकेंगे । सत्संग और सत्कर्म में रूचि रहेगी । भोग-वासना फीकी पड़ जायेगी । मगर फिर रोकने वाले आ जायेंगे । उसे महसूस होगा कि ईश्वर के रास्ते में जाने में बहुत सारे फायदे हैं । विघ्न करने वाले साधक के आगे आखिर हार मान जायेंगे । ईश्वर का दर्शन तो इतने में नहीं होगा मगर जो संसार कोसता था वह अनुकूल होने लगेगा ।
उसके बाद तीसरी भूमिका आयेगी, उसमें सत्संग के वचन बड़े मीठे लगेंगे । उन्हीं वचनों का निदिध्यासन करेगा, ध्यान करेगा, श्वासोच्छोवास को देखेगा । 'मैं आत्मा हूँ, चैतन्य हूँ' ऐसा चिन्तन-ध्यान करेगा । गुरुदेव का ध्यान करेगा तो गुरुदेव दिखने लगेंगे । गुरुदेव से मानसिक बातचीत भी होगी, प्रसन्नता और आनंद आने लगेगा । संसार का आकर्षण बिल्कुल कम हो जायेगा । फिर भी कभी-कभी संसार लुभाकर गिरा देगा । फिर से उठ खड़ा होगा । फिर से गिरायेगा, फिर खड़ा होगा । परमात्मा का रस भी मिलता रहेगा और संसार का रस कभी-कभी खींचता रहेगा । ऐसा करते-करते चौथी भूमिका आ जाती है तब साक्षात्कार हो जाता है फिर संसार का आकर्षण नहीं रहता । जब स्वप्न में से उठे तो फिर स्वप्न की चीजों का आकर्षण खत्म हो गया । चाहे वे चीज़ें अच्छी थीं या बुरी थीं । चाहे दुःख मिला, चाहे सुख मिला, स्वप्न की चीज़ें साथ में लेकर कोई भी आदमी जग नहीं सकता । उन्हें स्वप्न में ही छोड़ देता है । ऐसे ही जगत की सत्यता साथ में लेकर साक्षात्कार नहीं होता । चौथी भूमिका में जगत का मिथ्यात्व दृढ़ हो जाता है । वृत्ति व्यापक हो जाती है । वह महापुरुष होते हुए भी अनेक ब्रह्माण्डों में फैल जाता है । उसको यह अनुभव होता है कि सूरज मुझमें है, चन्द्र मुझमें है, नक्षत्र मुझमें हैं । यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पद भी मुझमें हैं । ऐसा उन महापुरुषों का अनुभव होता है । उनको कहा जाता है ब्रह्मवेत्ता । वे ब्रह्मज्ञानी बन जाते हैं।

ब्रह्मज्ञानी को खोजे महेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी मुगत जुगत का दाता ।
ब्रह्मज्ञानी पूरण पुरुष विधाता ।
ब्रह्मज्ञानी का कथ्या न जाईं आधा आखर ।
नानक! ब्रह्मज्ञानी सबका ठाकुर ।

चौथी भूमिका में वह सबका ठाकुर हो जाता है । फिर उसके लिए कोई देवी-देवता पूजनीय नहीं रहते, नरक में ले जाने वाले यम नहीं रहते । उसके लिए सब अपने अंग हो जाते हैं । जैसे, रोमकूप आपको कभी चुभता? आपका पैर, अंगूठा, ऊँगली आपको चोट पहुँचाती है? नहीं । सब आप ही हो । ऐसे ही वह ब्रह्मज्ञानी व्यापक हो जाता है । ब्रह्म-साक्षात्कार करके ब्रह्ममय हो जाता है । फिर उसके लिए कोई रीति-रिवाज, कोई मजहब, कोई पंथ, कोई भगवान या देवी-देवता शेष नहीं रहते । वह जो बोलता है वह शास्त्र बन जाता है । संत तुकाराम ने जो अभंग गाये थे वे महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी में, एम.ए. के विद्यार्थियों के पाठ्यपुस्तक में हैं । संत तुकाराम अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे मगर नरेन्द्र जैसे, केशवचन्द्र सेन जैसे, कई विद्वानों को मार्गदर्शन देने में समर्थ हो गये । व्यक्ति जब चौथी भूमिका में पहुँच जाता है तब उसकी वाणी वेदवाणी हो जाती है । संत तुकाराम कहते हैं- "अमी सांगतो वेद सांगते । हम बोलते हैं वह वेद बोलते हैं ।"
ब्रह्मज्ञान हो गया फिर ब्रह्मज्ञानी शास्त्र का आधार लेकर बोलें कि ऐसे ही बोलें, उनकी वाणी वेदवाणी हो जाती है । वे जिस धरती पर पैर रखते हैं वह धरती काशी हो जाती है । वे जिस जल को निहारते हैं वह जल उनके लिए गंगाजल हो जाता है । जिस वस्तु को छूते हैं वह वस्तु प्रसाद हो जाती है और जो अक्षर बोलते हैं वे अक्षर मंत्र हो जाते हैं । वे महापुरुष मात्र 'ढें...ढें... करो' ऐसा कह दें और करने वाला श्रद्धा से करता रहे, तो उसको अवश्य लाभ हो जाता है । हालांकि ढें... ढें... कोई मंत्र नहीं है मगर उन महापुरुष ने कहा है और जपने वाले को पक्का विश्वास है कि मुझे फायदा होगा तो उसे फायदा होकर ही रहता है ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्.....
जिनका वचन मंत्र हो जाता है उन्हें संसार की कौन-सी चीज़ की जरूरत पड़ेगी? उन्हें कौन-सी चीज़ अप्राप्य रहेगी? 'ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति....' ईश्वर के ध्यान से भी ज़्यादा महापुरुष के ध्यान से हमारा कल्याण होता है । जब तक ऐसे जीवित महापुरुष नहीं मिलते तब तक ईश्वर की मूर्ति का ध्यान किया जाता है । जब ऐसे महापुरुष मिल गये तो फिर उन्हीं का ध्यान करना चाहिए ।
मैंने पहले श्री कृष्ण का, माँ काली का, भगवान झूलेलाल का, भगवान शिव का ध्यान करते हुए न जाने कितने पापड़ बेले । थोड़ा-थोड़ा फायदा हुआ मगर सब देवी-देवता एक में दिखें ऐसे गुरुजी जब मिल गये तो मेरा परम प्राप्तव्य मुझे शीघ्र प्राप्त हो गया । मेरे डीसा के निवास में जहाँ मैं सात साल रहा था वहाँ, मेरी कुटिया में एक मात्र गुरुदेव का ही फोटो रहता था । अभी भी वही है और किसी देवी देवता का चित्र नहीं है । गुरु के ध्यान में सब ध्यानों का फल आ जाता है ।
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः ।
'विचारसागर' में यह बात आती है । वेदान्त का एक बड़ा ऊँचा ग्रन्थ है 'विचारसागर' । उसमें कहा है कि पहली, दूसरी या तीसरी भूमिका में जिसको भी ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल जायें वह ब्रह्मज्ञानी गुरु का ध्यान करे, उनके वचन सुने । उसमें तो यहाँ तक कह दिया है किः
ईश ते अधिक गुरु में धारे भक्ति सुजान ।
बिव गुरुकृपा प्रवीनहुँ लहे न आतम ज्ञान ।।
ईश्वर से भी ज़्यादा गुरु में प्रेम होना चाहिए । फिर सवाल उठाया गया किः "ईश्वर में प्रेम करने से भी अधिक गुरु में प्रेम करना चाहिए । इससे क्या लाभ होगा?
उत्तर में कहाः 'ईश्वर में प्रेम करके सेवा पूजा करोगो तो हृदय शुद्ध होगा और जीवित महापुरुष में प्रीति करोगे, सेवा-पूजा, ध्यान करोगे तो हृदय तो शुद्ध होगा ही, वे तुम्हारे में कौन सी कमी है वह बताकर ताड़न करके वह गलती निकाल देंगे । मूर्ति तो गलती नहीं निकालेगी । मूर्ति से तुम्हारा भाव शुद्ध होगा परन्तु तुम्हारी क्रिया और ज्ञान की शुद्धि के लिए, अनुमति के लिए मूर्ति क्या करेगी?
भावशुद्धि के लिए ध्यान चिन्तन करते हैं । गुरु में जब प्रीति हो जायेगी तो गुरु हमें अपना मानेंगे, हम गुरु को अपना मानेंगे । गुरुजी हमारी गलती दिखायेंगे तो हम आसानी से स्वीकार करके गलती को निकालेंगे । गुरुजी के सामने नहीं पड़ेंगे, क्योंकि अपनत्व है । शिष्य विचार करेगा कि कौन गलती दिखा रहा है? मेरे गुरुदेव दिखा रहे हैं । तो फिर मेरे हित में ही है । फिर प्रतिशोध की भावना नहीं होगी । दूसरा कोई डाँट दे, अपमान करे तो प्रतिशोध की भावना उठेगी और गुरुजी डाँट दें तो खुशी होगी कि गुरुजी मुझे अपना समझते हैं, मेरी घड़ाई करते हैं, कितने दयालू हैं !
'विचारसागर' कहता हैः
ईश ते अधिक गुरु में धारे भक्ति सुजान ।
ईश्वर का भजन करने से केवल भाव शुद्ध होंगे, हृदय शुद्ध होगा गुरुदेव का भजन करने से क्रिया और ज्ञान शुद्ध होगा । गुरु का दैवी कार्य करना भी गुरुदेव का भजन है । गुरु का चिन्तन करना भी गुरु का भजन है । जो काम करने से गुरु प्रसन्न हों वह सारा काम भजन हो जाता है । हनुमानजी ने रावण की लंका जलाई फिर भी वह भजन हो गया । ताड़का वध भी राम जी का भजन हो गया । राक्षसों का संहार करना भी राम जी का विश्वामित्र के प्रति भजन हो गया । क्रिया तुम कैसी कर रहे हो, अच्छी या बुरी, यह नहीं परन्तु क्रिया करने के पीछे तुम्हारा भाव क्या है यह महत्व रखता है । जैसे माँ बच्चे को कभी कटु दवा पिलाती है कभी मिठाई खिलाती है मगर उसका भाव तो बच्चे की तन्दरुस्ती का है । ऐसे ही गुरु में हमारा भाव अगर शुद्ध है तो कभी कुछ करना पड़े तो कोई दोष नहीं लगता । कभी किसी से स्नेह से चलना हो या रोष करके चलना पड़े फिर भी भगवान के, गुरु के मार्ग पर चलते हैं, गुरुकार्य में लगे हैं तो वह भजन, पूजा, साधना हो जाती है । उस समय तुम्हारी क्रिया के पीछे जो भाव है उसका मूल्य है । जब तक ऐसा भाव नहीं जगा तब तक क्रिया मुख्य रहती है । भाव जग गया तब क्रिया गौण हो जाती है ।
पहली भूमिका में तुम्हें विषय, विकार, विलास बहुत कम अच्छे लगते हैं । चित्त में कुछ खोज बनी रहती है । दूसरी भूमिका में खोज करके तुम सत्संग में जाओगे । लोगों से तुम्हारा शुभ व्यवहार होने लगेगा । पहले संसार के ऐश-आराम में जो रुचि थी वह अब गायब हो जायेगी ।
तीसरी भूमिका में आनन्द आने लगेगा । ध्यान जमने लगेगा । समाधि का सुख प्रगाढ़ होने लगेगा । ब्रह्माकार वृत्ति की थोड़ी झलक आयेगी, मगर सत्संग, साधन, भजन छोड़ दोगे तो फिर नीचे आ जाओगे ।
चौथी भूमिका में सिद्ध बना हुआ साधक नीचे नहीं आता, गिरता नहीं । जैसे पदार्थ गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के पार चला गया तो फिर वापस नहीं गिरेगा । मगर गुरुत्वाकर्षण के अन्दर रहा, दूसरों की अपेक्षा वह ऊँचे तो है, फिर भी गिरने का डर है । वैसे ही जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक संसार के कीचड़ में गिरने का डर रहता है । आत्म-साक्षात्कार होने के बाद तो संसार के कीचड़ में होते हुए भी वह निर्लेप है । दही बिलोते हैं तब मक्खन निकलने से पहले झाग दिखती है । अगर गर्मी ज़्यादा है तो थोड़ा ठंडा पानी डालना पड़ता है, ठंड ज्यादा हो तो थोड़ा गर्म पानी मिलाना पड़ता है और मक्खन निकाल लेना पड़ता है । अगर छोड़ देंगे तो फिर मक्खन हाथ नहीं आयेगा । जब मक्खन निकालकर उसका पिण्ड बना लिया फिर उसे छाछ में रखो तो कोई चिन्ता नहीं । पहले एक बार उसे दही में से निकाल लेना पड़ता है । ऐसे ही संसार से न्यारे होकर एक बार अपने हृदय में परमात्म-साक्षात्कार का अनुभव कर लेना पड़ता है । फिर भले संसार में रहो, कोई बात नहीं । छाछ में मक्खन तैरता रहता है । पहले तो छाछ में मक्खन दिखता भी नहीं था, अब डूबता ही नहीं है । दोनों अवस्था में मक्खन है उसी छाछ में ही |
रहत माया में फिरत उदासी ।
कहत कबीर मैं उसकी दासी ।।
ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा ।
जैसे जल में कमल अलेपा ।।
फिर उन ब्रह्मज्ञानी के शरीर से दिव्य परमाणु निकलते हैं । उनकी निगाहों से दिव्य रश्मियाँ निकलती हैं । विचारों से भी दिव्यता निःसृत होती है । मंद और म्लान जगत को वह कांति और तेजस्विता प्रदान करता है । जैसे चन्द्रमा स्वाभाविक शीतल है, औषधि को पुष्ट करता है वैसे ही वे पुरुष स्वाभाविक ही समाज की आध्यात्मिकता पुष्ट करते हैं । ऐसे पुरुष बार-बार आते हैं इसीलिए संस्कृति टिकी रहती है । धर्म टिका हुआ है । नहीं तो धर्म के नाम पर दुकानदारी बढ़ जाती है । मजहब के नाम पर मारकाट बढ़ जाती है ।
चौथी भूमिका प्राप्त हो जाये तो साक्षात्कार तो हो गया, परन्तु उसके बाद एकान्त में रहते हैं, अपनी मस्ती में ही रहते हैं तो पाँचवीं भूमिका हो जाती है । वह जीवन्मुक्त पुरुष हो जाता है । चौथी भूमिका वाले को कभी-कभी विक्षेप होगा मगर अपने आप सँभल जायेगा । पाँचवी भूमिका वाला विक्षेप करने वाले लाखों लोगों के बीच रहे फिर भी विक्षेप उसके अंदर तक नहीं पहुँचता, कभी हलका सा, बहते पानी में लकीर जैसा लगे परन्तु तुरन्त ज्ञान के बल से विक्षेप हट जायेगा ।
छठी भूमिका में तो जगत का पता भी नहीं चलेगा । कोई मुँह में कौर दे-देकर खिलावे ऐसी अवस्था हो जाती है । ज्यों-ज्यों ज्ञान में जायेगा त्यों-त्यों लोगों की, जगत की पहचान भूलता जायेगा । पाँचवी भूमिका में भी थोड़ी-थोड़ी विस्मृति होती है मगर छठी में विस्मृति गहरी हो जाती है । दस दिन पहले कुछ कहा और आज वह सब भूल गया ।
एक तो होती है विस्मृति और तत्त्वज्ञान की इतनी गहराई होती है कि बोलते समय भी उस वचन की सत्यता नहीं है, देखते समय भी सामने वाले व्यक्ति के नामरूप की सत्यता नहीं है । उसके ज्ञान में नाम, रूप का हिस्सा कम हो जाता है । उस अवस्था में और भी ज्यादा डूबा रहे तो उसे जब कोई कहे कि 'यह रोटी है, मुँह खोलो' तब वह मुँह खोलेगा । ऐसी अवस्था भी आ जाती है ।
घाटवाले बाबा का कहना हैः "भगवान श्रीकृष्ण की चौथी भूमिका थी । इसलिए उनको बाहर का ज्ञान भी था, ब्रह्मज्ञान भी था । रामजी की चौथी भूमिका थी । जड़भरत की पाँचवीं भूमिका थी । जब कभी, जहाँ कहीं चल दिया । पता भी नहीं चलता था ऋषभदेव की छठी भूमिका हो गई । वे वन में गये । वन में आग लगी है तो भी पता नहीं । कौन बताये? उसी आग में वे चले गये । शरीर शांत हो गया । वे स्वयं ब्रह्म में मिल गये ।
पहली भूमिकाः यूँ मान लो कि दूर से दरिया की ठंडी हवाएँ आती प्रतीत हो रही है ।
दूसरी भूमिकाः आप दरिया के किनारे पहुँचे हैं ।
तीसरी भूमिकाः आपके पैरों को दरिया का पानी छू रहा है ।
चौथी भूमिकाः आप कमर तक दरिया में पहुँच गये हैं । अब गर्म हवा आप पर प्रभाव नहीं डालेगी । शरीर को भी पानी छू रहा है आसपास भी ठंडी लहरें उभर रही हैं ।
पाँचवीं भूमिकाः छाती तक, गले तक आप दरिया में आ गये ।
छठी भूमिकाः जल आपकी आँखों को छू रहा है, बाहर का जगत दिखता नहीं । पलकों तक पानी आ गया । कोशिश करने पर बाहर का जगत दिखता है ।
सातवीं भूमिकाः आप पूरे दरिया में डूब गये ।
ऐसी अवस्था में कभी-कभी हजारों, लाखों वर्षों में कोई महापुरुष की होती है । कई वर्षों के बाद चौथी भूमिका वाले ब्रह्मज्ञानी पुरुष पैदा होते हैं । करोड़ों में से कोई ऐसा चौथी भूमिका तक पहुँचा हुआ वीर मिलता है । कोई उन्हें महावीर कह देते हैं । कोई उन्हें भगवान कह देते हैं । कोई उन्हें ब्रह्म कहते हैं, कोई अवतारी कहते हैं, कोई तारणहार कहते हैं । उनका कभी कबीर नाम पड़ा, कभी रमण नाम पड़ा, कभी रामतीर्थ नाम पड़ा, मगर जो भगवान कृष्ण हैं वही कबीर हैं । जो शंकराचार्य हैं, राजा जनक, भगवान बुद्ध हैं वही कबीर हैं । ज्ञान में सबकी एकता होती है । चौथी भूमिका में आत्म-साक्षात्कार हो जाता है । फिर उसके विशेष आनंद में पाँचवीं-छठी भूमिका में रहें या लोकसंपर्क में अपना समय लगायें उनकी मौज है । जो चार-साढ़े चार भूमिका में रहते हैं, उनके द्वारा लोककल्याण के काम बहुत ज्यादा होते हैं । इसलिए वे लोग प्रसिद्ध होते हैं और जो पाँचवीं, छठी भूमिका में चले जाते हैं वे प्रसिद्ध नहीं होते । मुक्ति सबकी एक जैसी होती है । चौथी भूमिका के बाद ही पाँचवी में पहुँच सकता है । ऐसा नहीं कि कोई आलसी है, बुद्धु है और उसे हम समझ लें कि छठी भूमिका में है । दिखने में तो पागल और छठी भूमिका वाला दोनों एक जैसे लगेंगे । मगर पागल और इसमें फर्क है । पागल के हृदय में एकदम अँधेरा है इसलिए पागल है और ज्ञानी अंदर से पूरी ऊँचाई प्राप्त है इसलिए उन्हें दुनिया का स्मरण नहीं । जैसे कार्बन में ही हीरा बनता है । कच्ची अवस्था में कोयला है और ऊँची अवस्था में हीरा है । वैसे ही ज्ञानी ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए होते हैं । अनुभूति के दूसरे छोर पर होते हैं ।
ब्रह्मज्ञान सुनने से जो पुण्य होता है वह चान्द्रायण व्रत करने से नहीं होता । ब्रह्मज्ञानी के दर्शन करने से जो शांति और आनंद मिलता है, पुण्य होता है वह गंगा स्नान से, तीर्थ, व्रत, उपवास से नहीं होता । इसलिए जब तक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष नहीं मिलते तब तक तीर्थ करो, व्रत करो, उपवास करो, परंतु जब ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल गये तो व्यवहार में से और तीर्थ-व्रतों में से भी समय निकाल कर उन महापुरुषों के दैवी कार्य में लग जाओ क्योंकि वह हजार गुना ज़्यादा फलदायी होता है