पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, December 31, 2010


श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Darshan pustak se

जीव का सर्वांगी विकसित हो इसलिए भगवान के अवतार होते हैं। उस समय उन अवतारों से तो जीव को प्रेरणा मिलती है, हजारों वर्षों के बाद भी प्रेरणा मिलती रहती है।
ईश्वर के कई अवतार माने गये हैं- नित्य अवतार, नैमित्तिक अवतार, आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, स्फूर्ति अवतार, आविर्भाव अवतार, अन्तर्यामी रूप से अवतार, विभूति अवतार, आयुध अवतार आदि।
भगवान की अनन्त-अनन्त कलाएँ जिस भगवान की समष्टि कला से स्फुरित होती है, उन कलाओं में से कुछ कलाएँ जो संसार व्यवहार को चलाने में पर्याप्त हो जाती हैं वे सब कलाएँ मिलकर सोलह होती हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण को षोडश कलाधारी भी कहते हैं और पूर्णावतार भी कहते हैं। वास्तव में, भगवान में सोलह कलाएँ ही हैं ऐसी बात नहीं है। अनन्त-अनन्त कलाओं का सागर है वह। फिर भी हमारे जीवन को या इस जगत को चलाने के लिए भगवान-परब्रह्म-परमात्मा, सच्चिदानन्द की सोलह कलाएँ पर्याप्त होती हैं। कभी दस कलाओं से प्रकट होने की आवश्यकता पड़ती है तो कभी दो कलाओं से काम चल जाता है, कभी एक कला से। एक कला से भी कम में जब काम चल जाता है, ऐसा जब अवतार होता है उसे अंशावतार कहते हैं। उससे भी कम कला से काम करना होता है तो उसे विभूति अवतार कहते हैं।
अवतार का अर्थ क्या है ?
अवतरति इति अवतारः। जो अवतरण करे, जो ऊपर से नीचे आये। कहाँ तो परात्पर परब्रह्म, निर्गुण, निराकार, सत् चित् आनन्द, अव्यक्त, अजन्मा.... और वह जन्म लेकर आये ! अव्यक्त व्यक्त हो जाय ! अजन्मा जन्म को स्वीकार कर ले, अकर्त्ता कर्तृत्व को स्वीकार कर ले, अभोक्ता भोग को स्वीकार कर ले। यह अवतार है। अवतरति इति अवतारः। ऊपर से नीचे आना।
जो शुद्ध बुद्ध निराकार हो वह साकार हो जाय। जिसको कोई आवश्यकता नहीं वह छछियन भरी छाछ पर नाचने लग जाय। जिसको कोई भगा न सके उसको भागने की लीला करनी पड़े। ऐसा अवतार मनुष्य के हित केलिए है, कल्याण के लिए है।
भगवान का एक अवतार होता है प्रतीक अवतार, जैसे भक्त भगवान की प्रतिमा बना लेता है, जिस समय भोग लगाता है, जो भोग लगाता है, जिस भाव से भोग लगा देता है, पत्र, पुष्प और जो कुछ भी अर्पण करता है उस रूप में ग्रहण करके वह भगवान अन्तर्यामी प्रतिमा अवतार में भक्त की भावना और शक्ति पुष्ट करते हैं। कभी भगवान की मूर्ति से, प्रतिमा से, चित्र से फूल या फूलमाला गिर पड़ी तो वह भक्त की पूजा स्वीकार हो गयी इसका संकेत समझा जाता है।
हम जब साधना काल के प्रारंभ में पूजा करते थे तब कभी-कभी ऐसा होता था। फूल की माला भगवान को चढ़ा दी, फिर पूजा में तन्मय हो गये। एकाएक माला गिर पड़ी तो चित्त में बड़ी प्रसन्नता होती कि देव प्रसन्न हैं।
प्रतिमा में भगवद् बुद्धि करके उपासना की और प्रतिमा से शांति, आनंद और प्रेरणा मिलने लगी। यह प्रतिमा अवतार। कोई श्रीकृष्ण की प्रतिमा रखता है कोई श्रीराम की की, कोई किसी और की। धन्ना जाट जैसे को पण्डित जी ने भाँग घोटने का सिलबट्टा दे दिया ' ये ठाकुरजी हैं' कहकर। धन्ना जाट ने उसमें भगवान की दृढ़ भावना की तो भगवान प्रकट हो गये।
भगवान प्रतिमा के द्वारा हमारी उन्नति कर दें, प्रतिमा के द्वारा अवतरित हो जायें उसको कहते हैं प्रतिमा अवतार। जिस प्रतिमा को आप श्रद्धा-भक्ति से पत्र-पुष्प अर्पण करते हो, भोग लगाते हो, उस प्रतिमा से आपको प्रेरणा मिलती है।
अंतर्यामी अवतार दो प्रकार का होता है। सबके अंतर्यामी भगवान सबको सत्ता-स्फूर्ति देते हैं, कुछ कहते नहीं। जन-साधारण के साथ भी भगवान हैं। वह उन्हें माने चाहे न माने, आस्तिक हो या नास्तिक, भगवान को गालियाँ देता हो फिर भी भगवान उसकी आँख को देखने की सत्ता देते हैं, कान को सुनने की सत्ता देते हैं। पेट में उसका भोजन पचाने की शक्ति देते हैं। दुराचारी-से-दुराचारी, पापी से भी पापी, महापापी हो उसको भी अपनी सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देते हैं क्योंकि वे प्राणिमात्र के सुहृद हैं। वे सबके भीतर अंतर्यामी आत्मा होकर बैठे हैं। 'यह दुष्ट मुझे मानता नहीं, भजता नहीं.... चलो उसके हृदय को बंद कर दूँ...' ऐसा भगवान 'नहीं' कभी नहीं कहते। बिजली का बिल दो महीने तक नहीं भरो तो 'Connection Cut' हो जाता है, किन्तु भगवान को दस साल तक सलाम न भरो, रामनाम का बिल न भरो तो भी आपकी जीवन चेतना का Connection Cut नहीं होता। जितने श्वास उसके भाग्य में होते हैं उतने चलने देते हैं। यह भगवान का अंतर्यामी अवतार अंतर्यामी सत्ता स्वरूप से सब जनों के लिए होता है। भक्तजनों के लिए है अन्तर्यामी प्रेरणा अवतार। जो भक्त हैं, जो भक्ति करते हैं, उनका अंतर्यामी प्रेरक होता है, चित्त में प्रेरणा देता है किः 'अब यह करो, वह करो। सावन का महीना आया है तो अनुष्ठान करो। इतने जप-तप हो गये, अब आत्मज्ञान के सत्संग में जाओ। गुरूमुख बनो। निगुरे रहने से कोई काम नहीं बनेगा....' इस प्रकार अंतर्यामी भगवान प्रेरणा देते हैं।
इस प्रकार भगवान के कई तरह के अवतार होते हैं। युग-युग में, वक्त-वक्त पर, हर दिल और हर व्यक्ति की योग्यता पर भिन्न-भिन्न प्रेरणा और प्रकाश मिले ऐसे अवतार होते हैं।
श्रीकृष्ण का अवतार सोलह कला से सम्पन्न, सर्वांगी विकास कराने वाला, सब साधकों को, भक्तों को प्रकाश मिल सके, दुर्जनों का दमन हो सके, मदोन्मत्त राजाओं का मद चूर कर सके, माली, कुब्जा, दर्जी और तमाम साधारण जीवों पर अहैतुकी कृपा बरसा सके ऐसा पूर्ण लीला अवतार था। जो बँधे हुए को छुड़ा दे, निराश को आश्वासन दे, रूखे को रस से भर दे, प्यासे को प्रेम से भर दे ऐसा अवतार था श्रीकृष्ण का। कभी-कभी छोटे-मोटे काम के लिए आवेशावतार हो जाता है, कभी अंशावतार हो जाता है, जैसे वामन अवतार, नृसिंह अवतार, परशुराम अवतार। कभी आयुधावतार हो जाते हैं। कभी संकल्प किया और भगवान के पास आयुध आ जाता है, सुदर्शन चक्र आदि आ जाता है।
परात्पर परब्रह्म की शक्ति कभी अंशावतार में तो कभी आयुध-अवतार में तो कभी संतों के हृदय द्वारा संत-अवतार में तो कभी कारक अवतार में अवतरित होते हुए मानव-जात को अपने उन्नत शिखरों पर ले जाने का काम करती है। मानव अगर तत्पर होकर अपने उन्नत शिखरों पर पहुँचे तो उसे सुख और दुःख दोनों दिखाई पड़ता है खिलवाड़, उपलब्धि और हानि दोनों दिखाई पड़ता है खिलवाड़, शरीर और शरीर के सम्बन्ध दिखाई पड़ते हैं खिलवाड़। उसे अपनी आत्मा की सत्यता का अनुभव हो जाता है।
आत्मा की सत्यता का अनुभव हो जाये तो ऐसा कोई आदमी नहीं जो दुःख खोजे और उसे दुःख मिल जाय । ऐसा कोई आदमी नहीं जो मुक्त न हो। अपने आत्मा की अनुभूति हो जाय तो फिर आपको दुःख नहीं होगा, आपके संपर्क में आने वाले लोग भी निर्दुःख जीवन जीने के मार्ग पर आगे कूच कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण को जो प्रेम करे उसको तो वे प्रेम दें ही, उनको जो देखे नहीं उस पर भी प्रेम से बरस पड़े ऐसे श्रीकृष्ण दयालु थे। वे मथुरा में गये तो दर्जी से ग्वालबालों के कपड़े ठीक करवाकर उसका उद्धार किया। पर कुब्जा ? जिसने श्रीकृष्ण की ओर देखा तक नहीं फिर भी उसका कल्याण करना चूके नहीं।
विकारी व्यक्तियों का, भोग-वासना में फँसे हुए लोगों का संपर्क करने वाली बुद्धि कुब्जा है।
कुब्जा छोटी जाति की थी। राजा-महाराजाओं को तेल-मालिश करती, अंगराग लगाती, कंस की चाकरी करती। ऐसा उसका धंधा था।
श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए सारा मथुरा उमड़ पड़ा था लेकिन कुब्जा कृष्ण के साथ ही पैदल जा रही है फिर भी आँख उठाकर देखती नहीं। श्रीकृष्ण तो उदारता का उदधि थे। उन्होंने सोचाः जब इतने सारे लोग आनन्दित हो रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं तो यह क्यों थोबड़ा चढ़ाकर जाती है ? कृष्ण कहने लगेः
"हे सुन्दरी !"
कुब्जा सोचने लगी कि मैं सुन्दरी नहीं.... आज तक मुझे किसी ने सुन्दरी कहा ही नहीं। ये किसी और को बुलाते होंगे। कुब्जा ने सुना-अनसुना कर दिया। श्रीकृष्ण ने दुबारा कहाः
"हे सुन्दरी !"
कुब्जा ने सोचाः "कोई और सुन्दरी होगी। मगर ग्वालबालों के टोले में तो कोई स्त्री नहीं थी। जब तीसरी बार श्रीकृष्ण ने कहाः
"हे सुन्दरी !"
तब कुब्जा से रहा न गया। वह बोल उठीः
"बोलो सुन्दर ! क्या बोलते हो ?"
जो कुरूप में भी सौन्दर्य को देख लें वे कृष्ण हैं। सच पूछो तो कुरूप से कुरूप आदमी में भी आत्म-सौन्दर्य छुपा है। श्रीकृष्ण को उस कुरूप कुब्जा में भी अपना सौन्दर्य स्वरूप सच्चिदानंद दिखा। उन्होंने कुब्जा से कहाः
"यह चन्दन तू मुझे देगी ?"
"हाँ लो, लगा लो अपने बदन पर।"
उस कुब्जा को किसी ने सुन्दर कहा नहीं था और श्रीकृष्ण जो कुछ कहते, सच्चे हृदय से कहते। उनका व्यवहार कृत्रिम नहीं था। कुछ विनोद भले किसी से कर लें वह अलग बात है, बाकी भीतर से जो भी करते, गहराई से करते। पूर्णावतार तो जो कुछ करेगा, पूर्ण ही करेगा। विनोद करते तो पूरा, उपदेश करते तो पूरा, नरो वा कुंजरो वा का आयोजन किया तो पूरा, संधि-दूत होकर गये तो पूरे, शिशुपाल को क्षमा की तो पूरी की, पूरी सौ गालियाँ सुन ली। वे जो कुछ भी करते हैं, पूरा करते है फिर भी कभी कर्तृत्व भार से बोझिल नहीं होते। यह नारायण की लीला नर को जगा देती है कि हे नर ! तू भी बोझील मत हो। चार पैसे का कपड़ा, लकड़ा, किराना बेचकर, 'मैंने इतना सारा धंधा किया' यह अहंकार मत रख। पाँच-पच्चीस हजार की मिठाई बेचकर अपने को मिठाईवाला मत मान। तू तो ब्रह्मवाला है।
'मैं मिठाईवाला हूँ.... मैं कपड़े वाला हूँ.... मैं सोने-चाँदी वाला हूँ.... मैं मकानवाला हूँ... मैं दुकानवाला हूँ.... मैं ऑफिसवाला हूँ... मैं पेंटवाला हूँ..... मैं दाढ़ीवाला हूँ..... ' यह सब मन का धोखा है। 'मैं आत्मावाला हूँ... मैं ब्रह्मवाला हूँ...' इस प्रकार हे जीव ! तू तो परमात्मावाला है। तेरी सच्ची मूड़ी तो परमात्मा-रस है।
श्रीकृष्ण ऐसे महान नेता थे कि उनके कहने मात्र से राजाओं ने राजपाट का त्याग करके ऋषि-जीवन जीना स्वीकार कर लिया। ऐसे श्रीकृष्ण थे फिर भी बड़े त्यागी थे, व्यवहार में अनासक्त थे। हृदय में प्रेम.... आँखों में दिव्य दृष्टि....। ऐसा जीवन जीवनदाता ने जीकर प्राणीमात्र को, मनुष्य मात्र को सिखाया कि हे जीव ! तू मेरा ही अंश है। तू चाहे तो तू भी ऐसा हो सकता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
'इस देह में यह सनातन जीव मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है।'
(भगवद् गीताः १५.७)
तुम मेरे अंश हो, तुम भी सनातन हो। जैसे, मेरे कई दिव्य जन्म हो गये, मैं उनको जानता हूँ। हे अर्जुन ! तुम नहीं जानते हो, बाकी तुम भी पहले से हो।
अर्जुन को निमित्त करके भगवान सबको उपदेश देते हैं कि आप भी अनादि काल से हो। इस शरीर के पहले तुम थे। बदलने वाले शरीरों में कभी न बदलने वाले ज्ञानस्वरूप आत्मा को जान लेना ही मनुष्य जन्म का फल है।
'मैं हूँ' जहाँ से उठता है उस ज्ञानस्वरूप अधिष्ठान में जो विश्रांति पा लेता है वह श्रीकृष्ण के स्वरूप को ठीक से जान लेता है।
इस ज्ञान को पचाने के लिए बुद्धि की पवित्रता चाहिए। बुद्धि की पवित्रता के लिए यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब बहिरंग साधन हैं। धारणा-ध्यान आदि अंतरंग साधन हैं और आत्मज्ञान का सत्संग परम अंतरंग साधन हैं। सत्संग की बलिहारी है।
सत्संग सुनने से जितना पुण्य होता है उसका क्या बयान करें !
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।
तीर्थ में स्नान करो तो पुण्य बढ़ेगा। संत का सान्निध्य मिले तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों के द्वार खुल जाएँगे। वे ही संत जब सदगुरू के रूप में मिल जाते हैं तो उनकी वाणी हमारे हृदय में ऐसा गहरा प्रभाव डालती है कि हम अपने वास्तविक 'मैं' में पहुँच जाते हैं।
हमारा 'मैं' तत्त्व से देखा जाय तो अनन्त है। एक शरीर में ही नहीं बल्कि हरेक शरीर में जो 'मैं.... मैं.... मैं... मैं....' चल रहा है वह अनन्त है। उस अनन्त परमात्मा का ज्ञान जीव को प्राप्त हो जाता है। इसलिए कबीर जी न ठीक ही कहा है किः
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।
सदगुरू मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।
जीव को भ्रम हुआ है कि 'यह करूँ तो सुखी हो जाऊँ, यह मिले तो सुखी हो जाऊँ....' लेकिन आज तक जो मिला है, आज के बाद जो भी संसार का मिलेगा, आज तक जो भी संसार का जाना है और आज के बाद जो भी जानोगे, वह मृत्यु के एक झटके में सब पराया हो जायेगा।
मृत्यु झटका मारकर सब छीन ले उसके पहले, जहाँ मौत की गति नहीं उस अपने आत्मा को 'मैं' स्वरूप में जान ले, अपने कृष्ण तत्त्व को जान ले, तेरा बेड़ा पार हो जायेगा।
श्रीकृष्ण कहते हैं-
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।
'हे अर्जुन ! मैं अमृत हूँ, मैं मृत्यु हूँ, मैं सत् हूँ और मैं असत् हूँ।'
(गीताः ९.१९)
कितना दिव्य अनुभव ! कितनी आत्मनिष्ठा ! कितना सर्वात्मभाव ! सर्वत्र एकात्मदृष्टि ! जड़-चेतन में अपनी सत्ता, चेतनता और आनन्दरूपता जो विलस रही है उसक प्रत्यक्ष अनुभव !
आप दुनियाँ की मजहबी पोथियों, मत-मतांतरों, पीर-पैगम्बरों को पढ़ लीजिये, सुन लीजिये। उनमें से किसी में ऐसा कहने की हिम्मत है ? किन्तु श्रीकृष्ण भगवान के इस कथन से सर्वत्र एकात्मदृष्टि और उनके पूर्णावतार, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण समता आदि छलकते हैं।
श्रीकृष्ण जेल में पैदा हुए हैं, मुस्कुरा रहे हैं। मथुरा में धनुषयज्ञ में जाना पड़ता है तो भी मुस्करा रहे हैं। मामा के षडयंत्रों के समय भी मुस्करा रहे हैं। संधिदूत होकर गये तब भी मुस्करा रहे हैं। शिशुपाल सौ-सौ बार अपमान करता है, हर अपमान का बदला मृत्युदंड हो सकता है, फिर भी चित्त की समता वही की वही। युद्ध के मैदान में अपने ज्ञानामृत से मुस्कराते हुए उलझे, थके, हारे अर्जुन को भक्ति का, योग का, ज्ञान का आत्म-अमृतपान कराते हैं।
संसार की किसी भी परिस्थिति ने उन पर प्रभाव नहीं डाला। जेल में पैदा होने से, पूतना के विषपान कराने से, मामा कंस के जुल्मों से, मामा को मारने से, नगर छोड़कर भागने से, भिक्षा माँगते ऋषियों के आश्रम में निवास करने से, धरती पर सोने से, लोगों का और स्वयं अपने भाई का भी अविश्वास होने से, बच्चों के उद्दण्ड होने से, किसी भी कारण से श्रीकृष्ण के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ती। उनका चित्त कभी उद्विग्न नहीं हुआ। सदा समता के साम्राज्य में। समचित्त श्रीकृष्ण का चेहरा कभी मुरझाया नहीं। किसी भी वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति से, किसी भी व्यक्ति की निन्दा-स्तुति से श्रीकृष्ण की मुखप्रभा म्लान नहीं हुई।
नोदेति नास्तमेत्येषा सुखे दुःखे मुखप्रभा।
श्रीकृष्ण यह नहीं कहते कि आप मंदिर में, तीर्थस्थान में या उत्तम कुल में प्रगट होगे तभी मुक्त होगे। श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि अगर आप पापी से भी पापी हो, दुराचारी से भी दुराचारी हो फिर भी मुक्ति के अधिकारी हो।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
'यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह संपूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।'
(भगवद् गीताः ४.३६)
हे साधक ! इस जन्माष्टमी के प्रसंग पर तेजस्वी पूर्णावतार श्रीकृष्ण की जीवन-लीलाओं से, उपदेशों से और श्रीकृष्ण की समता और साहसी आचरणों से सबक सीख, सम रह, प्रसन्न रह, शांत हो, साहसी हो, सदाचारी हो। स्वयं धर्म में स्थिर रह, औरों को धर्म के मार्ग में लगाता रह। मुस्कराते हुए आध्यात्मिक उन्नति करता रह। औरों को सहाय करता रह। कदम आगे रख। हिम्मत रख। विजय तेरी है। सफल जीवन जीने का ढंग यही है।
जय श्रीकृष्ण ! कृष्ण कन्हैयालाल की जय....!

Monday, December 20, 2010


मुक्ति का सहज मार्ग पुस्तक से - Mukti ka Sahaj Marg pustak se

साधना में सत्संग की आवश्यकता - Sadhna me satsang ki avashyakta

जप, तप, व्रत, उपवास, ध्यान, भजन, योग आदि साधन अगर सत्संग के बिना किये जायें तो उनमें रस नहीं आता। वे तो साधन मात्र हैं। सत्संग के बिना वे व्यक्तित्व का सिंगार बन जाते हैं।
जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरूष का जीवंत सान्निध्य इन साधनों का सुहावना नहीं बनाता तब तक ये साधन श्रम मात्र रह जाते हैं। ये साधन सब अच्छे हैं फिर भी सत्संग के बिना रसमय नहीं बनते। सत्संग इनमें रस लाता है।
रसौ वै सः।
रस स्वरूप परमात्मा का बोध ब्रह्मवेत्ता अनुभवनिष्ठ महापुरूष की वाणी का शरण लिए बिना नहीं हो सकता। अकेले साधन-भजन करने से थोड़ी-बहुत सात्त्विकता आ जाती है, सच्चाई आ जाती है, साथ ही साथ सात्त्विकता और सच्चाई का अहं भी उतना ही आ जाता है। साधना का अहं खड़ा हो जाता है। अहं के अनुरूप घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो दुःख होता है। सुखी और दुःखी होने वाले हम मौजूद रहे।
सत्संग से क्या लाभ होता है ? हमारा माना हुआ जो परिच्छिन्न व्यक्तित्व है, जीव का अहं है उसका पोल खुल जाता है। जैसे प्याज की पर्तें उतारते जाओ तो भीतर से कुछ ठोस प्याज जैसा निकलेगा नहीं। केवल पर्तें ही पर्तें है। ऐसे ही जब तक सत्संग नहीं मिलता तब तक 'मैं' का ठोसपना दिखता है। सत्संग मिलते ही 'मैं' की पर्तें हटती हैं और अपने चिदाकाश स्वरूप का दीदार हो जाता है। जीव मुक्ति का अनुभव कर लेता है।
एक साधु ने 'कलिदोषनिवारक' ग्रन्थ में पढ़ा कि साढ़े तीन करोड़ नाम जपने से सद्योमुक्ति होती है। उसने अनुष्ठान शुरू किया। साढ़े तीन करोड़ राम नाम का जप कर लिया। कुछ हुआ नहीं। दूसरी बार अनुष्ठान किया। फिर भी सद्योमुक्ति जैसा कुछ नहीं हुआ। जिन सत्पुरूष के द्वारा उस ग्रन्थ की बात सुनी थी उनको जाकर कहाः
"महाराज ! मैंने साढ़े तीन करोड़ जप दो बार किये। कुछ हुआ नहीं।"
तीसरी बार कर। संत ने सूचन किया।
तीसरी बार करने पर भी सद्योमुक्ति का कोई अनुभव नहीं हुआ। उनकी श्रद्धा टूट गई। फिर किसी ब्रह्मवेत्ता के पास गया और अपना हाल बताते हुए कहाः
"स्वामी जी ! सुना था कि साढ़े तीन करोड़ मंत्रजप करने से सद्योमुक्ति होती है। मैंने एक बार नहीं, तीन बार किया। मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ।"
"सद्योमुक्ति का मतलब क्या है ?" संत श्री ने पूछा।
"शीघ्र मुक्ति। सद्यो मोक्षप्रदायकः। तुरन्त मुक्ति हो जाती है।"
"वत्स ! तू मनमाना होकर साधना करता था इसलिए अटूट दृष्टि नहीं रही। तू अभी मुक्त है, इसी समय तू मुक्त है। तुझे बाँध सके ऐसी कोई भी परिस्थिति तीनों लोकों में भी नहीं है। तू अभी मुक्त है। तूने जप तो किया लेकिन सत्संग का रंग नहीं लगा। अब सत्संग में बैठकर देख। दीये में तेल तो भर दिया, बाती भी रख दी लेकिन जले हुए दीये के नजदीक नहीं गया। अब सत्संग में बैठ। शान्ति से ध्यानपूर्वक सुन। श्रद्धा के साथ विचार कर। तेरी सद्योमुक्ति है ही। 'मेरी सद्योमुक्ति अब होगी' – ऐसा मत मान। अभी इसी समय, यहीं तेरी सद्योमुक्ति है। हम लोग बड़े में बड़ी गलती यह करते हैं कि साधनों के बल से भगवान को पाना चाहते हैं या मुक्त होना चाहते हैं। साधन करने वाले का व्यक्तित्व बना रहेगा। केवल भगवान की कृपा से भगवान को पाना चाहते हैं तो आलस्य आ जायेगा। अतः तुम्हारा पुरूषार्थ और भगवान की कृपा का समन्वय कर। 'भगवान ऐसे हैं.... वैसे हैं' ऐसी मान्यता मत पकड़। वे जैसे हैं उसी रूप में अपने आप प्रकट हों।"
तुम्हारी धारणा के मुताबिक भगवान प्रकट हों ऐसा चाहोगे तो तुम्हारी धारणा कभी कैसी होगी कभी कैसी होगी। मुसलमान खुदा को चाहेगा तो अपनी धारणा का, वाघरी भगवान को चाहेगा तो अपनी धारणा का, रामानुजाचार्य के भक्त भगवान को चाहेंगे तो अपनी धारणा का, देवी का भक्त अपनी धारणा का चाहेगा, पटेल अपनी धारणा का भगवान चाहेगा, सिंधी अपनी धारणा का झूलेलाल चाहेगा।
तुम्हारी धारणा के भगवान तो तुम्हारी अन्तःकरण की वृत्ति तदनुकूल होगी तो वही होकर दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति माता के आकार की होगी तो भगवान माता के स्वरूप में दिखेंगे, तुम्हारी वृत्ति श्रीरामचन्द्रजी के आकार की होगी तो भगवान रामचन्द्र जी के रूप मे दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति झुलेलाल के आकार की होगी तो भगवान झुलेलाल के स्वरूप में दिखेंगे। ऐसे भगवान दिखेंगे और फिर अन्तर्ध्यान हो जायेंगे।
उन महापुरूष ने साधू को कहाः "तू सत्संग में आ तब तुझे भगवत-रस की प्राप्ति होगी, इसके बिना नहीं होगी।"
यही घटना बिल्ख के सम्राट इब्राहीम के साथ हुई। वह राजपाट छोड़कर भारत में आया और संन्यास ले लिया। मजदूरी करके, लकड़ियाँ बेचकर दो पैसे कमा लेता। एक पैसे से गुजारा करता, एक पैसा बच जाता। जब ज्यादा पैसे इकट्ठे हो जाते तब साधुओं को भोजन करा देता। कहाँ तो बिल्ख का सम्राट और कहाँ लकड़हारा होकर परिश्रम करने वाला फकीर !
इब्राहीम के मन में आया कि, "मैं दान का नहीं खाता। इतना बड़ा राज्य छोड़ा, संन्यासी बना, फिर भी किसी के दान का नहीं खाता हूँ, अपना कमाकर खाता हूँष ऊपर से दान भी करता हूँ। फिर भी मालिक नहीं मिल रहा है, क्या बात है ?" वह प्रार्थना करने लगताः
"हे मेरे मालिक ! हे मेरे प्रभु ! हे भगवान ! हे खुदा ! हे ईश्वर ! मुझे कब मिलोगे ? मैं नहीं जानता कि आप कैसे हो। आप जैसे भी हो, मुझे सन्मार्ग दिखाओ।"
ऐसी प्रार्थना करते-करते ध्यानस्थ होने लगा। अंतर में प्रेरणा मिली कि, "जा ऋषिकेश के आगे। वहाँ अमुक संत हैं उनके पास जा।" बिल्खनरेश वहाँ पहुँच गया और बोलाः
"बाबाजी मैं बिल्ख का सम्राट था। राजपाट छोड़कर फकीर बना हूँ। अभी मेरा अहं नहीं छूटता। मैंने सुना है कि अहं मिटते ही मालिक मिलता है। पहले मैं राजा था ऐसा अहं था। फिर फकीर का अहं घुसा। अहं निकालने के लिए परीश्रम करके खाता हूँ, संग्रह न करके त्याग करता हूँ, बचा हुआ वित्त भंडारे में खर्च कर देता हूँ। पसीना बहाकर अपना अन्न खाता हूँ फिर भी मालिक क्यों नहीं मिलता ?"
बाबाजी ने कहाः "यह अपना खाने वाला" और "पराया खाने वाला" ही अड़चन है। मेरा और तेरा, अपना और पराया जो बनाता है वह अहं ही मालिक के दीदार में अड़चन है।"
सम्राट ने कहाः "महाराज ! मेरा वह अहं आप निकाल दीजिये। इतनी कृपा कीजिये।"
बाबाजी ने कहाः "हाँ, ठीक तू समझा है। अहं है तेरे पास ?"
"हाँ अहं है। वही दुष्ट परेशान कर रहा है।"
"तो देखो, कल प्रभात में चार बजे आ जाना। मैं तेरा अहं ले लूँगा।"
"जी महाराज !"
अनुभव-संपन्न ब्रह्मवेत्ता महापुरूष थे। सिद्धि के ऊँचे शिखर सर किये थे।
इब्राहीम जाने लगा। बाबाजी ने पीछे से कहाः "देख, अहं लाना, पूरा। कहीं आधा छोड़कर नहीं आना।"
इब्राहीम चकित रह गयाः "अहं छोड़कर कहाँ आऊँगा ? वह तो पूरे का पूरा साथ में रहता है।"
दूसरे दिन प्रभात में चार बजे इब्राहीम पहुँच गया बाबाजी के गुफा पर। बाबाजी डण्डा लेकर आये। बड़ी-बड़ी आँखे दिखाते हुए बोलेः "अहं लाया है ?"
"हाँ महाराज ! अहं है ।"
"कहीं छोड़कर तो नहीं आया ?"
"ना महाराज !"
"कहाँ है ?"
"हृदय में रहता है।"
"बैठ। निकाल उसको, मेरे को दिखा, उसको मैं ठीक कर देता हूँ। जब तक अहं को निकालकर मेरे सामने नहीं रखा तब तक उठने नहीं दूँगा। इस डण्डे से सिर फोड़ दूँगा। तू सम्राट था तो उधर था। इधर अभी तेरा कोई नहीं। यहाँ बाबाओं के राज्य की सीमा में आ गया है। सिर फोड़ दूँगा अहं दिये बिना गया तो। देना है न अहं ? तो खोज, कहाँ है अहं ?"
"कैसे खोजूँ अहं को ? वह कहाँ होता है ?"
"अहं कहाँ होता है – ऐसा करके भी खोज। जहाँ होता है वहाँ से निकाल। आज तेरे को नहीं छोड़ूँगा।"
ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों संतन की बात में बात बात में बात।।
कभी साधक का ताड़न करने से काम बन जाता है कभी पुचकार से काम हो जाता है। कभी किसी साधन से कभी किसी साधन से....। ये तो महापुरूष जानते हैं कि कौन से साधक की उन्नति किस प्रकार करनी चाहिए।
युक्ति से मुक्ति होती है, मजदूरी से मुक्ति नहीं होती।
इब्राहीम अहं को खोजते-खोजते अन्तर्मुख होता गया। प्रभात का समय। वातावरण शुद्ध था। बाबाजी की कृपा बरसती रही। मन की भाग दौड़ क्षीण होती गई। एक टक निहारते निहारते आँखें बन्द हुई। चेहरे पर अनुपम शांति छाने लगी। ललाट पर तेज उभरने लगा। डण्डे वाला बाबाजी तो गुफा के भीतर चले गये थे। डण्डा मारना तो था नहीं। जो कुछ भीतर से करना था वह कर दिया। इब्राहीम की सुरता की गति अन्तर्मुखी बना दी।
इब्राहीम को अहं खोजते-खोजते साढ़े चार बजे, पाँच बजे, छः बज गये। बैठा है ध्यानस्थ। बाहर का कोई पता नहीं। श्वासोच्छ्वास की गति मंद होती चली जा रही है।
सूर्योदय हुआ। सूर्य का प्रकाश पहाड़ियों पर फैल रहा है। अपने आत्मा का प्रकाश इब्राहीम के चेहरे पर दिव्य तेज ले आया है। बाबाजी देखकर प्रसन्न हो रहे हैं कि साधक ठीक जा रहा है।
घण्टों के बाद बाबाजी इब्राहीम के पास गयेः
"उठो उठो अब।"
इब्राहीम ने आँख खोली और चरणों में गिर पड़ा।
"अहं दे दो।"
"गुरू महाराज !....."
इब्राहीम के हृदय में भाव उमड़ रहा है लेकिन वाणी उठती नहीं। आँखों से भावविभोर होकर गुरू महाराज को निहार रहा है। विचार स्फुरता नहीं। आखिर बाबाजी ने उसकी बहिर्गति कराई। फिर बोलेः
"लाओ, कहाँ है अहं ?"
"महाराज ! अहं जैसी कोई चीज है ही नहीं। बस वही वह है। वाणी वहाँ जाती नहीं। यह तो आरोप करके बोल रहा हूँ।"
बाबाजी ने इब्राहीम को गले लगा लिया। "इब्राहीम ! तू गैर नहीं। तू इब्राहीम नहीं। तू मैं है, मैं तू हूँ।"
जब तक अहं को नहीं खोजा था तब तक परेशान कर रहा था। खोजो तो उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं रहता। आँख देखती है, हम जुड़ जाते हैं- "मैंने देखा।"
मनःवृत्ति शरीर के तरफ बहती है तो अहं बना देती है और अपने मूल के तरफ जाती है तो मन रहता ही नहीं। जैसे तरंग उछलती है तो अलग बनी रहती है और पानी को खोजती है तो शान्त होकर पानी बनकर रह जाती है, अलग अस्तित्व मिट जाता है। ऐसे ही 'मैं.... मैं..... मैं.... मैं....' परेशान करता है। वह 'मैं' अगर अपने मूल को खोजता है तो उसका परिच्छिन्न अहं मिलता ही नहीं।
तीन प्रकार का अहं होता हैः स्थूल अहं, सदगुरू की शरण से विलीन होता है। सूक्ष्म अहं वेदान्त के प्रतिपादित साधन की तरकीब से बाधित होता है। तीसरा है वास्तविक अहं, वह ब्रह्म है, परम सुख-स्वरूप है। उसी में अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड फुरफुरा के लीन हो रहे हैं।
वास्तविक हमारा जो 'मैं' है उसमें अनन्त अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, स्थित रहती हैं और लय हो जाती हैं। फिर भी हमारा बाल भी बाँका नहीं होता। हमारा वास्तविक अहं वह है। अपनी वास्तविकता का बोध नहीं है तो वहाँ की एक तरंग, एक धारा, एक वृत्ति को 'मैं' मानकर उलझ रहे हैं। उलझते-उलझते सदियाँ बीत गईं लेकिन विश्रांति नहीं मिली।
बिना सत्संग के साधन-भजन भीतर व्यक्तित्व को सजाये रखता है। 'पहले मैं संन्यासी था, अब मैं साधक हूँ। पहले मैं भोगी था, अब मैं त्यागी हूँ। पहले बहुत बोलनेवाला था, अब मौनी हूँ। पहले स्त्री-पुत्र-परिवार के चक्कर में था, अब अकेला शांत हूँ। कमरा बन्द कर देता हूँ बस, मौज है। न किसी से लेना न किसी को देना।'
खतरा पैदा करोगे। जो अकेले कमरे में नहीं बैठते, एकान्त में नहीं रहते उनकी अपेक्षा आप ठीक हो। लेकिन जब कमरा न होगा, एकान्त न होगा तब परेशानी चालू हो जायेगी। ....और मौत तुम्हें कमरे से भी तो पकड़कर ले जायेगी।
जीते जी मौत के सिर पर पैर रखने की कला आ जाना-इसी का नाम आत्म-साक्षात्कार है। साक्षात्कार होने से राग-द्वेष और अभिनिवेश का अत्यंत अभाव हो जाता है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से घृणा नहीं, द्वेष नहीं। अभिनिवेश यानी मृत्यु का भय, जीने की आस्था। आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तो जीने की आकांक्षा हट जाती है। जिसको अपने आपका बोध हो जाता है वह जान लेता है कि मेरी मौत तो कभी होती नहीं। एक शरीर तो क्या, हजारों शरीर लीन हो जायें, पैदा हो जायें, ब्रह्माण्डों की उथल-पुथल हो जाय फिर भी मुझ चिदाकाश स्वरूप को कोई आँच नहीं आती, ऐसा अपनी असली 'मैं' का साक्षात्कार हो जाता है।
देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीना चरणमां हो वन्दन अगणित।।

Friday, December 10, 2010



निर्भय नाद पुस्तक से - Nirbhay Naad pustak se

यदि तुमने शरीर के साथ अहंबुद्धि की तो तुममें भय व्याप्त हो ही जायेगा, क्योंकि शरीर की मृत्यु निश्चित है। उसका परिवर्तन अवश्यंभावी है। उसको तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं रोक सकते। परन्तु यदि तुमने अपने आत्मस्वरूप को जान लिया, स्वरूप में तुम्हारी निष्ठा हो गयी तो तुम निर्भय हो गये, क्योंकि स्वरूप की मृत्यु कभी होती नहीं। मौत भी उससे डरती है।
सुख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा तो दुःख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा। पर्दे को क्या? कई फिल्में और उनके दृश्य आये और चले गये, पर्दा अपनी महिमा में स्थित है। तुम तो छाती ठोककर कहोः ‘अनुकूलता या प्रतिकूलता, सुख या दुःख जिसे आना हो आये और जाय। मुझे क्या...?’ किसी भी दृश्य को सच्चा मत मानो। तुम दृष्टा बनकर देखते रहो, अपनी महिमा में मस्त रहो।
बाहर कैसी भी घटना घटी हो, चाहे वह कितनी भी प्रतिकूल लगती हो, परन्तु तुम्हें उससे खिन्न होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि अन्ततोगत्वा होती वह तुम्हारे लाभ के लिए ही है। तुम यदि अपने-आपमें रहो तो तुम्हें मिला हुआ शाप भी तुम्हारे लिए वरदान का काम करेगा। अर्जुन को ऊर्वशी ने वर्ष भर नपुंसक रहने का शाप दिया था परन्तु वह भी अज्ञातवास के समय अर्जुन के लिए वरदान बन गया।
प्रतिकूलता से भय मत करो। सदा शांत और निर्भय रहो। भयानक दृश्य (द्वैत) केवल स्वप्नमात्र है, डरो मत।
चिन्ता, भय, शोक, व्यग्रता और व्यथा को दूर फेंक दो। उधर कतई ध्यान मत दो।
सारी शक्ति निर्भयता से प्राप्त होती है, इसलिए बिल्कुल निर्भय हो जाओ। फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
देहाध्यास को छोड़ना साधना का परम शिखर है, जिस पर तुम्हें पहुँचना होगा। मौत के पूर्व देह की ममता को भी पार करना पड़ेगा, वर्ना कर्मबन्धन और विकार तुम्हारा पीछा न छोड़ेंगे। तुम्हारे भीतर प्रभु के गीत न गूँज पायेंगे, ब्रह्म-साक्षात्कार न हो पायेगा। जब तक तुम हड्डी-मांस-चाम को ही ‘मैं’ मानते रहोगे, तब तक दुर्भाग्य से पीछा न छूटेगा। बड़े-से-बड़ा दुर्भाग्य है जन्म-मृत्यु।
एक दिन तुम यह सब छोड़ जाओगे और पश्चाताप हाथ लगेगा। उससे पहले मोह-ममतारूपी पाश को विवेकरूपी कैंची से काटते रहना। बाहर के मित्रों से, सगे-सम्बन्धियों से मिलना, पर भीतर से समझनाः ‘न कोई मित्र है न सगे-सम्बन्धी, क्योंकि ये भी सब साथ छोड़ जायेंगे। मेरा मित्र तो वह है जो अन्त में और इस शरीर की मौत के बाद भी साथ न छोड़े’।
मन में भय, अशांति, उद्वेग और विषाद को स्थान मत दो। सदा शांत, निर्भय और प्रसन्न रहने का अभ्यास करो। अपनी महिमा में जागो। खामखाह क्यों दीन होते हो?
दीनता-हीनता पाप है। तुम तो मौत से भी निर्भयतापूर्वक कहोः ‘ऐ मौत ! मेरे शरीर को छीन सकती है, पर मेरा कुछ नहीं कर सकती। तू क्या डरायेगी मुझे? ऐ दुनिया की रंगीनियाँ ! संसार के प्रलोभनो ! तुम मुझे क्या फँसाओगे? तुम्हारी पोल मैंने जान ली है। ऐ दुनिया के रीत-रिवाजो ! सुख-दुःखो ! अब तुम मुझे क्या नचाओगे? अब लाख-लाख काँटों पर भी मैं निर्भयतापूर्वक कदम रखूँगा। हजार-हजार उत्थान और पतन में भी मैं ज्ञान की आँख से देखूँगा। मुझ आत्मा को कैसा भय? मेरा कुछ न बिगड़ा है न बिगड़ेगा। शाबाश है ! शाबाश है !! शाबाश है !!!
पारिवारिक मोह और आसक्ति से अपने को दूर रखो। अपने मन में यह दृढ़ संकल्प करके साधनापथ पर आगे बढ़ो कि यह मेरा दुर्लभ शरीर न स्त्री-बच्चों के लिए है, न दुकान-मकान के लिए है और न ही ऐसी अन्य तुच्छ चीजों के संग्रह करने के लिए है। यह दुर्लभ शरीर आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए है। मजाल है कि अन्य लोग इसके समय और सामर्थ्य को चूस लें और मैं अपने परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाऊँ? बाहर के नाते-रिश्तों को, बाहर के सांसारिक व्यवहार को उतना ही महत्त्व दो जहाँ तक कि वे साधना के मार्ग में विघ्न न बनें। साधना मेरा प्रमुख कर्त्तव्य है, बाकी सब कार्य गौण हैं – इस दृढ़ भावना के साथ अपने पथ पर बढ़ते जाओ।
किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। नाऽयमात्मा बलहीनेन लभ्यः।
इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बनकर करो। देवो भूत्वा देवं यजेत्।
जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनन्दस्वरूप हैं, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनन्द में रहो। यही उसकी महा पूजा है।
अपनी महिमा से अपरिचित हो, इसलिए तुम किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। कभी मसखरों से, कभी विद्वानों की वाणी से, कभी पहलवानों या नट-नटियों से, कभी भविष्यवक्ताओं से, कभी नेताओं से, कभी जादू का खेल दिखानेवालों से, कभी स्त्रियों से, कभी पुरुषों से तो कभी थियेटरों में प्लास्टिक की पट्टियों (चलचित्रों) से प्रभावित हो जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की गरिमा का पता नहीं है। आत्मस्वरूप ऐसा है कि उसमें लाखों-लाखों विद्वान, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, भविष्यवक्ता आदि आदि स्थित हैं। तुम्हारे अपने स्वरूप से बाहर कुछ भी नहीं है। तुम बाहर के किसी भी व्यक्ति से या परिस्थिति से प्रभावित हो रहे हो तो समझ लो कि तुम मालिक होते हुए भी गुलाम बने हुए हो। खिलाड़ी अपने ही खेल में उलझ रहा है। तमाशबीन ही तमाशा बन रहा है। हाँ, प्रभावित होने का नाटक कर सकते हो परन्तु यदि वस्तुतः प्रभावित हो रहे हो तो समझो, अज्ञान जारी है। तुम अपने-आप में नहीं हो।
मन को उदास मत करो। सदैव प्रसन्नमुख रहो। हँसमुख रहो। तुम आनन्दस्वरूप हो। भय, शोक, चिन्ता आदि ने तुम्हारे लिए जन्म ही नहीं लिया है, ऐसी दृढ़ निष्ठा के साथ सदैव अपने आत्मभाव में स्थिर रहो।
समस्त संसार आपकी रचना है। महापुरुषों का अनुभव इस बात को पुष्ट करता है, फिर भी तुम घबराते हो ! अपनी ही कृति से भयभीत होते हो ! सब प्रकार के भय को परे हटा दो। किसी भी भय-शोक-चिन्ता को पास मत फटकने दो । तुम संसार के शहंशाह हो। तुम परमेश्वर आप हो। अपने ईश्वरत्व का अनुभव करो।
अपने-आपको परमेश्वर अनुभव करो, फिर आपको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। सब मत-मतान्तर, पंथ-वाड़े उपनिषद् के ज्ञान के आगे क्षुद्रतर हैं। तुम अपने ख्यालों से उनको बड़ा कल्प लेते हो, इसलिए वे बड़े बन जाते हैं। अन्यथा राम-रहीम सब तुम्हारे आत्मस्वरूप हैं, तुमसे बड़ा कोई नहीं है।
जब तक तुम भीतर से भयभीत नहीं होते, तब तक बाहर की कोई भी परिस्थिति या धमकी तुम्हें भयभीत नहीं कर सकती। बाहर की किसी भी परिस्थिति में इतना बल ही कहाँ जो सर्वनियन्ता, सबके शासक, सब के सृष्टा को क्षण मात्र के लिए भी डगमगा सके। किसी भी परिस्थिति से डरना अपनी छाया से डरने के समान है।
हमने ही रची है ये रचना सारी। संसार न हुआ है, न होगा। यह दृढ़ निश्चय रखो। अपने को हीन समझना और परिस्थितियों के सामने झुक जाना आत्महनन के समान है। तुम्हारे अन्दर ईश्वरीय शक्ति है। उस शक्ति के द्वारा तुम सब कुछ करने में समर्थ हो। परिस्थितियों को बदलना तुम्हारे हाथ में है।
तुम हीन नहीं हो। तुम सर्व हो; पूज्य भगवान हो। तुम हीन नहीं हो, तुम निर्बल नहीं हो, सर्वशक्तिमान हो। भगवान का अनन्त बल तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत है। तुम विचार करो और हीनता को, मिथ्या संस्कारों को मारकर महान बन जाओ। ॐ...! ॐ.....! ॐ......! दुनिया मेरा संकल्प है, इसके सिवाय कुछ नहीं। इसमें जरा भी सन्देह नहीं। स्थावर-जंगम जगत के हम पिता हैं। हम उसके पूज्य और श्रेष्ठ गुरु हैं। सब संसार मनुष्य के आश्रय है और मनुष्य एक विशाल वन है। आत्मा सबके भीतर बसती है।
साकार मिथ्या है। निराकार सत्य है। सारा जगत निराकार है। सब जगत को एक शिव समझो।
निर्द्वन्द्व रह निःशंक रह, निर्भय सदा निष्काम रे।
चिंता कभी मत कीजिये, जो होय होने दीजिये।।
जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, सम्पूर्ण चराचर जगत एक ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ। इसलिए सब मेरा ही स्वरूप है। इसके सिवाय कुछ नहीं।
जो कुछ तू देखता है वह सब तू ही है। कोई शक्ति इसमें बाधा नहीं डाल सकती। राजा, देव, दानव, कोई भी तुम्हारे विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते।
तुम्हारी शंकाएँ और भय ही तुम्हारे जीवन को नष्ट करते हैं। जितना भय और शंका को हृदय में स्थान दोगे, उतने ही उन्नति से दूर पड़े रहोगे।
सदा सम रहने की तपस्या के आगे बाकी की सब तपस्याएँ छोटी हो जाती हैं। सदा प्रसन्न रहने की कुंजी के आगे बाकी की सब कुंजियाँ छोटी हो जाती हैं। आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे रह जाते हैं। इसलिए दुनिया में हर इज्जत वाले से ब्रह्मवेत्ता की ऊँची इज्जत होती है।
ब्रह्मवेत्ता भृगु की सेवा करने वाले शुक्र जब स्वर्ग में जाते हैं तब सहस्रनेत्रधारी इन्द्रदेव अपने सिंहासन से उठकर उन ब्रह्मवेत्ता के शिष्य शुक्र को बिठाते हैं और अर्घ्यपाद्य से उसका पूजन करके अपने पुण्य बढ़ाते हैं। आत्मपद के आगे और सब पद छोटे हो जाते हैं, आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे हो जाते हैं।
तुम्हारे स्वरूप के भय से चाँद-सितारे भागते हैं, हवाएँ बहती हैं, मेघ वर्षा करते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं, सूरज रात और दिन बनाता है, ऋतुएँ समय पर अपना रंग बदलती हैं। उस आत्मा को छोड़कर औरों से कब तक दोस्ती करोगे? अपने घर को छोड़कर औरों के घर में कब तक रहोगे? अपने पिया को छोड़कर औरों से कब तक मिलते रहोगे....?
जो एक से राग करता है, वह दूसरे से द्वेष करेगा। जो किसी से राग नहीं करता है, वह किसी से द्वेष भी नहीं करेगा। वह परम प्रेमी होता है। वह जीवन्मुक्त होता है। न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है। यही परमार्थ है।
आप सर्वत्र मंगलमय देखने लग जाइये, चित्त अपने-आप शान्त हो जायेगा।
जिस कृत्य से चित्त खिन्न हो ऐसा कृत्य मत करो। जो विचार भय, चिन्ता या खिन्नता पैदा करें उन विचारों को विष की नाईं त्याग दो।
अगर तुम सर्वांगपूर्ण जीवन का आनन्द लेना चाहते हो तो कल की चिन्ता को छोड़ो। कल तुम्हारा अत्यन्त आनन्दमय होगा, यह दृढ़ निश्चय रखो। जो अपने से अतिरिक्त किसी वस्तु को नहीं जानता, वह ब्रह्म है। अपने ख्यालों का विस्तार ही जगत है।
निश्चय ही सम्पूर्ण जगत तुमसे अभिन्न है, इसलिए मत डरो। संसार को आत्मदृष्टि से देखने लग जाओ फिर देखो, विरोध कहाँ रहता है, कलह कहाँ रहता है, द्वेष कहाँ रहता है।
जिसका मन अन्तर्मुख हो जाता है, वह चित्त थकान को त्याग कर आत्मविश्रान्ति का स्वाद लेता है। तुम जितना समाहित चित्त होते जाओगे, उतना जगत तुम्हारे चरणों के नीचे आता जायेगा।
आज तक तुम देवी-देवताओं को पूजते आये हो, मंदिर-मसजिद में नाक रगड़ते आये हो, लेकिन किसी बुद्ध पुरुष से अन्तर्मुख होने की कला पाकर अभ्यास करोगे तो वह दिन दूर नहीं जब देवी-देवता तुम्हारे दर्शन को आयेंगे।
प्रभात के समय साधकों को जो प्रेरणा होती है, वह शुभ होती है। तुम जब कभी व्यावहारिक परेशानियों में उलझ जाओ तो विक्षिप्त चित्त से कोई निर्णय मत लो। प्रातः काल जल्दी उठो। स्नानादि के पश्चात् पवित्र स्थान पर पूर्वाभिमुख होकर बैठो। फिर भगवान या गुरुदेव से, जिनमें आपकी श्रद्धा हो, निष्कपट भाव से प्रार्थना करोः 'प्रभु ! मुझे सन्मार्ग दिखाओ। मुझे सद्प्रेरणा दो। मेरी बुद्धि तो निर्णय लेने में असमर्थ है।' निर्दोष भाव से की गयी प्रार्थना से तुमको सही प्रेरणा मिल जायेगी।
शरीर की मौत हो जाना कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन श्रद्धा की मौत हुई तो समझो सर्वनाश हुआ।
अगर तुमने दस साल तक भी ब्रह्मनिष्ठ गुरु के आदेशानुसार साधना की हो, फिर भी यदि तुम्हारी श्रद्धा चली गयी तो वहीं पहुँच जाओगे जहाँ से दस साल पहले चले थे।
अपनी ही कृति से तुम गुरु को नजदीक या दूर अनुभव करते हो। ब्रह्मज्ञानी न तो किसी को दूर धकेलते हैं, न ही नजदीक लाते हैं। तुम्हारी श्रद्धा और व्यवहार ही तुम्हें उनसे नजदीक या दूर होने का एहसास कराते हैं।

Wednesday, December 1, 2010


सत्संग सुमन पुस्तक से - Satsang Suman pustak se

जागता नर सेवीए - Jaagta nar sewiye

नारायण..... नारायण.... नारायण.... भगवान के नामोच्चारण से जो लाभ होता है, यदि उस लाभ का अनुभव हो जाए तो मनुष्य फिर दूसरी ओर ध्यान ही न दे।
भगवान के नाम से हमारे अंतःकरण में, हमारे शरीर की नस-नाड़ियों में, रक्त में, हमारे विचारों में, बुद्धि में भगवान के नामोच्चारण से जो प्रभाव पड़ता है, उसका यदि ज्ञान हो जाये तो हम लोग फिर भगवन्नाम सुमिरन किये बिना रहेंगे ही नहीं। इतनी महान महिमा है भगवन्नाम की।
आदमी जब बोलता है तो क्रिया शक्ति काम करती है। जगत में देखा जाए तो क्रियाशक्ति से ही सारी चीजें होती हैं। क्रियाशक्ति का संचालन मन के संकल्प से होता है। मन जब भगवन्नाम लेता है तो भगवान की भावना मन में निर्मित होती है, जिसका प्रभाव हमारे किस-किस केन्द्र पर पड़ता है, इस बात का अगर पता चले तो आदमी साधारण से असाधारण पुरूष में परिवर्तित हो सकता है।
टेलिफोन नंबर का पता होता है तो आदमी विश्व में कहीं भी बात कर सकता है, यदि उसके पास कन्ट्री कोड, एरिया कोड और व्यक्ति के टेलिफोन का नम्बर हो। ऐसे ही विश्वेश्वर स संपर्क स्थापित करना हो तो मंत्र रूपी टेलिफोन नंबर का सही सही ज्ञान होना जरूरी है। हमारे अंदर मंत्र का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। वालिया लुटेरा मंत्रजाप के बल से ही वाल्मीकि ऋषि के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। हनुमानजी ने पत्थरों पर रामनाम का मंत्र लिखकर समुद्र में पत्थर तैरा दिये।
राम न सके नाम गुन गाई।
भगवान भी भगवन्नाम की महिमा नहीं गा सकते। भगवान से भी बड़ा भगवान का नाम कहा गया है। जिसके जीवन में मंत्रदीक्षा नहीं है, जिसके जीवन में नाम की कमाई नहीं है, उसने जो कुछ भी कमाया है, वह अपने लिये मुसीबत ही कमायी है, खतरा, चिन्ता और भय ही पैदा किया है।
नाम की कमाई निर्भय बना देती है, निर्द्वन्द्व बना देती है, निर्दुःख बना देती है। दुनिया में जितने भी दुःख हैं, वे न तो ईश्वर ने बनाये हैं, न ही कुदरत ने बनाये हैं, बल्कि सारे दुःख मन की बेवकूफी से बने है। भगवन्नाम मन की इस बेवकूफी को दूर करता है जिससे दुःख दूर हो जाते हैं।
जो लोग कहते हैं कि 'बाबा ! मैं बहुत दुःखी हूँ....' ऐसे लोगों से हम ज्यादा समय बात भी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि बहुत दुःख तो होता ही नहीं है। बहुत दुःख बनाने की, बेवकूफी की आदत हो गयी है।
"क्या दुःख है ?"
"बहुत दुःख है बाबा !"
"अच्छा भाई ! क्या दुःख है जरा बताओ ?"
"बाबा जी ! सब तरफ से मैं दुःखी हूँ... बहुत दुःखी हूँ।"
"अच्छा भाई ! जाओ, दूसरी बार मिलना।"
उसके जीवन में न श्रद्धा का सहारा है, न नाम का सहारा है, न समझ का सहारा है। ऐसा व्यक्ति दो-चार बार चक्कर काटेगा, सत्संग में आएगा, माहौल का लाभ लेगा, भगवन्नाम जपने वालों की बातों में आयेगा, फिर अगर उसे मुलाकात देता हूँ तो ऐसे व्यक्ति के जीवन में जल्दी ही चार चाँद लग जाते हैं। सत्संग में आकर बैठने से हजारों लोगों के हरिनाम के कीर्तन व प्रभु, नाम के गुँजन के संक्रामक वायब्रेशन मिलते हैं।
जो आदमी पहली बार यहाँ आए और 'मैं दुःखी हूँ..... बहुत दुःखी हूँ....' की रट लगाये उसको यदि कुँजी बता भी दो जल्दी उसका दुःख दूर नहीं होता। इसलिए मैं कहता हूँ- "अच्छा, दो तीन बार सत्संग में आना, फिर बताऊँगा।" वह भी इसलिए कि सत्संग में आने से उसके अन्तःकरण पर, उसके रक्तकणों पर, नस-नाड़ियों पर सात्त्विक असर पड़ता है, मन शुद्ध होता है, मन की भावना काम करती है, जिह्वा की शुद्धि होती है। सत्संग में बुद्धि काम करती है तो बुद्धि की शुद्धि होती है। हरिनाम की ताली बजाने से हाथों की शुद्धि होती है। फिर उसे कोई शुद्ध बात समझता हूँ तो जल्दी असर करती है, अन्यथा नहीं करती।
तुलसीदास जी ने कहा हैः
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सकृतिन चारहूँ अनघ उदारा।।
चहूँ चतरन कर नाम आधारा।
ज्ञानि प्रभु हि बिसेष पियारा।।
किसी भी प्रकार का जोगी हो, किसी भी प्रकार का भक्त हो, साधु हो, गृहस्थी हो या किसी भी प्रकार का व्यक्ति हो, उसके जीवन की उन्नति का मूल खोजो तो पता चलेगा कि उसने कभी न कभी किसी भी रूप में भगवन्नाम जपा है, रटा है। फिर चाहे वह संन्यासी हो, बैरागी हो, गिरी-पुरी-भारती हो या गृहस्थी हो। गृहस्थी वेश में भी बड़े-बड़े महापुरूष हो गये हैं।
मैंने सुना है कि एक बार गोरखनाथ को लगा कि हमने तो सिर में खाक डालकर इतने जोग-जतन किये हैं, योगविद्या, टेकविद्या की साधनाएँ कीं, इतने पापड़ बेले हैं तब कहीं जाकर लोग हमको बाबाजी कहते हैं। लेकिन ये संत कबीर ? इनके तो बेटा-बेटी हैं, फिर भी हमसे अधिक आदरणीय होकर बाबाजी के रूप में पूजे जा रहे हैं !
किन्हीं ईर्ष्यालु लोगों की सीख में आकर एक दिन गोरखनाथ ने संत कबीर को रास्ते में रोक लिया और कहने लगेः
"महाराज ! कुछ सिद्धाई दिखाओ।"
कबीर जी बोलेः "भाई ! हम तो कुछ भी सिद्धाई नहीं जानते हैं। हम तो ताना-बाना बुनकर गुजारा कर लेते हैं। बस, खुद जपते हैं, दूसरों को भी जपाते हैं। हम तो और कुछ नहीं जानते।"
सच्चे संतों के हृदय में "मैं बड़ा हूँ" ऐसा भूत होता ही नहीं। 'मैं छोटा हूँ.... मैं बड़ा हूँ....' यह देह के अभिमान से होता है। बाहर की वस्तुओं में अपने से बड़ों को देखोगे तो अपने में हीनता की भावना आएगी और यदि अपने से छोटे को देखोगे तो अपने में अहंकार आएगा। यह छोटा-बड़ा तो देह के भाव से होता है। देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, उसमें क्या छोटा और क्या बड़ा...? कबीर जी ऐसे ही थे।
देह में होते हुए, देह की गहराई में जो देह को चलाने वाला है, 'चम चम' चमकता हुआ जो चैतन्य परब्रह्म परमात्मा है, उस पर कबीर जी की निगाह थी।
कबीर जी ने तो हाथ जोड़ लियेः "बाबा ! आप तो बड़े त्यागी हैं। हम तो ऐसे ही साधारण हैं। चलो, झंझट-विवाद क्या करना महाराज !"
गोरखनाथ को तो कई अन्य साथियों ने बहका रखा था। उन्होंने कहाः "नहीं। तुम इतने बड़े महापुरूष होकर पूजे जाच रहे हो तो देख लो अब हमारी सिद्धाई।" गोरखनाथ ने अपना त्रिशूल भोंका जमीन में और योगसिद्धि का अवलम्बन लेकर, त्रिशूल पर ऊँचा आसन जमाकर बैठ गये और कबीर जी से बोलेः "अब हमारे साथ शास्त्रार्थ करो।"
कबीर जी ने देखा कि ये अब बाहर की चीजों से बड़प्पन दिखाना चाहते हैं। कबीर जी के हाथ में धागे का एक छोटा-मोटा पिंडा था। उसका एक सिरा धरती पर रखते हुए कबीर जी ने दूसरी ओर पिंडे को ऊपर फेंका। पिंडा खुलते-खुलते पूरे धागे का सिरा सीधा खड़ा हो गया।
कबीर जी ने अपनी संकल्पशक्ति से, मन शक्ति से खड़े रहे हुए सिरे के ऊपरी छोर पर जा बैठे और बोलेः "अच्छा महाराज ! आ जाओ।"
गोरखनाथः "चलो छोड़ो इसको। दूसरा खेल खेलते हैं।"
कबीर जीः "ठीक है महाराज।"
गोरखनाथः "चलो, गंगा किनारे चलते हैं। मैं भी गोता मारूँगा, तुम भी गोता मारना। मैं गोता मार के कुछ भी बन जाऊँगा। तुम मुझे खोजना।"
आदमी के तीन शरीर होते हैं। एक वह जो आँखों से दिखता है, उसे स्थूल शरीर कहते हैं। दूसरा होता है मन शरीर। स्थूल शरीर का किया कुछ नहीं होता, मन शरीर के संकल्प से ही स्थूल शरीर घूमता फिरता है। आपके मन में हुआ कि 'चलो सत्संग में जाएँ....' तो यह बेचार स्थूल शरीर में आ गया सत्संग में।
मन शरीर में, सूक्ष्मता में जिसकी स्थिति दृढ़ होती है, वह एक स्थूल शरीर होते हुए अनेक शरीर बना सकता है। जैसे रात्रि में अनजाने में हम लोग मन शरीर में चले जाते हैं। एक व्यक्ति होते हुए भी स्वप्न में अनेक व्यक्ति बना लेते हैं। आप भी स्वप्न में अनेक व्यक्ति बनाते हैं लेकिन वह स्वप्न की, क्षीण सुषुप्ति की अवस्था है। जो योगी हैं, उनके मन की एकाग्र अवस्था है। जोगी जाग्रत अवस्था में भी अपने अनेक स्थूल शरीर बना सकता है। मन शरीर में बहुत शक्ति है। जितना भी इसका विकास करो, कम है। लेकिन मन शरीर के बाद हमारा वास्तविक स्वरूप है।
.....तो एक शरीर यह हुआ जो दिखता है। मन शरीर में जैसे संस्कार डाल दिये – गुजराती, सिंधी, पंजाबी, गरीब-अमीर, मेरा तेरा, ऐसा ही लिबास पहनेगा और दिखेगा।
वास्तव में हमारी कोई जात नहीं है लेकिन मन में सब घुसा है। ललाट पर तो कुछ लिखा नहीं है कि यह जात है या हाथ में भी जात नहीं लिखी। किन्तु जात आदि की बात मन में बैठ गई कि हम गुजराती है, मारवाड़ी हैं, पंजाबी हैं, गृहस्थी हैं, व्यापारी हैं। ये संस्कार मन में पड़ जाते हैं और मन के संस्कारों के अनुरूप ही आदमी अपने को और अपने तन को मानता है।
इसी मन शरीर का यदि सूक्ष्मता के रास्ते पर जाकर विकास किया जाए तो मन जैसा संकल्प करे, ऐसा हो भी जाता है। उदाहरणार्थः रात को स्वप्नसृष्टि बन जाती है। ऐसे ही जाग्रत में भी एकाग्र मन में संकल्प करने की शक्ति होती है।
मन जितना शुद्ध और एकाग्र होगा, उसकी संकल्प शक्ति उतनी अधिक विकसित होगी। इस प्रकार मानसिक शक्तियाँ बढ़ाना एक बात है और मन जहाँ से शक्ति ले आता है उस परमात्मा को जानकर, इस शरीर और मन को माया समझकर इनसे सम्बन्ध विच्छेद करके ब्रह्मज्ञान पा लेना, यह सबसे ऊँची बात है।
किसी-किसी ब्रह्मज्ञानी महापुरूष की मानसिक शक्तियाँ विकसित होती है और किसी ऐसे वैसे व्यक्तियों की भी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती है। कोई ऐसे भी ज्ञानी होते हैं जिनकी मानसिक शक्ति विकसित नहीं होती फिर भी ब्रह्मज्ञानी तो ब्रह्मज्ञानी है, उसको मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
जैसे वेद व्यास जी महाराज। उनकी मानसिक शक्तियाँ इतनी अधिक विकसित हुई थीं कि उन्होंने प्रतिस्मृति विद्या के बल से एक बार मरे हुए कौरव-पाण्डव पक्ष के तमाम योद्धाओं को एवं कर्ण को बुलाया था।
युद्धोपरान्त धृतराष्ट्र, कुंती, गाँधारी और संजय वन में जाकर एकांतवास कर रहे थे लेकिन वे बड़े दुःखी मन से जीवन-यापन कर रहे थे। तब एकाएक वेद व्यासजी महाराज पधारे। वेद व्यासजी ने पूछाः "धृतराष्ट्र ! क्या चाहते हो ?"
धृतराष्ट्र बोलेः "और तो कुछ नहीं महाराज ! युद्ध में मारे गये पुत्रों के मुँह तक हमने नहीं देखे। हमारे बेटों से हमारा एक बार मिलन हो जाए, ऐसी कृपा कीजिए।"
वेद व्यासजी ने कहाः "मैं अमुक दिन फिर आऊँगा। इतने में तुम बहुओं को भी बुला लेना ताकि वे भी मिल लें।"
बहुएँ भी आ गईं, वेद व्यास जी महाराज भी पधारे। उन्होंने गंगा किनारे प्रतिस्मृति विद्या के बल से सन्ध्या समय के बाद मृतकों का आवाहन किया। कुछ ही पल में, गंगाजी से जैसे लोग नहाकर निकलते हैं ऐसे ही कौरव पक्ष और पांडव पक्ष के योद्धा, जो महाभारत के युद्ध के दौरान मृतक हुए थे, 'खलल....' करते हुए जल से बाहर निकले। जिस वेशभूषा में वे युद्ध के मैदान में गये थे वही वेशभूषा अब भी उन्होंने धारण कर रखी थी लेकिन एक विशेषता थी कि उन सभी के कानों में स्वर्ण के कुण्डल शोभायमान हो रहे थे और हृदय में राग-द्वेष नहीं था। उनमें सत्त्वगुण की प्रधानता थी।
कौरवों ने अपनी-अपनी पत्नी से, अपने पिता व माता से वार्तालाप किया। ऐसे वार्तालाप करते-करते शुभ भाव में ही रात्रि पूरी हो गई। प्रभात होने को थी तो वेद व्यास जी ने कहाः "अब इन्हें मैं विदा करता हूँ। जो पत्नियाँ पतिलोक को पाना चाहती हैं वे गंगा में प्रविष्ट हों। वे मेरे योगसामर्थ्य से सशरीर पतिलोक में पहुँचा दी जाएँगी।"
वेद व्यासजी ने गंगा से जिन मृतकों को प्रकट किया उनका शरीर हमारे ही स्थूल शरीर जैसा दिखता है लेकिन उसमें पृथ्वी तत्त्व एवं जल तत्त्व की कमी होती है। उस शरीर से केवल उनकी आभा नजर आती है। जो स्वर्ग में होते हैं उनका शरीर तेज, वायु और आकाश तत्त्वों से ही युक्त होता है। वे यदि संकल्प करें कि हम इन्हें दिखें तो वे हमें दिख सकते हैं अथवा हमारी इतनी सूक्ष्म अवस्था हो तो हम इन सूक्ष्म शरीरों को अथवा गंधर्व, किन्नरों को देख सकते हैं।
वेद व्यासजी महाराज प्रतिदिन आठ घंटे बैठकर बदरीकाश्रम में ध्यान करते थे और दीर्घ काल तक उन्होंने यह साधना की इसलिए उनके पास आत्मज्ञान तो था, साथ ही साथ मानसिक शक्तियाँ व रिद्धि-सिद्धियाँ भी कम नहीं थीं। इसी के बल पर उन्होंने प्रतिस्मृति विद्या का उपयोग करके मृतकों को बुलाया और उसी विद्या के बल से उनको बिदाई दी। जो पत्नियाँ पतिलोक को पाना चाहती थीं, वे भी गंगा में प्रविष्ट हुईं और पतिलोक को प्राप्त हो गई।
आदमी सपने में जैसे बहुत कुछ बनाता और समेट लेता है ऐसे ही जागृत में यदि मन शरीर में स्थिति विकसित हो जाए तो संकल्प के बल से बहुत कुछ बन सकता है और उसका विसर्जन भी हो सकता है। तांत्रिक मंत्रों का सहारा लो तब भी हो सकता है, साबरी मंत्रों का सहारा लो तब भी हो सकता है। यदि पुण्य बड़ा है तो वैदिक मंत्रों का सहारा लो तो सात्त्विकता और व्यवहार की पवित्रता भी बढ़ जाएगी।
तुम किसी भी मंत्र का सहारा लो, मंत्रों से तुम्हारी क्रियाशक्ति और मननशक्ति का विकास होता है और वह विकास जहाँ से आता है, वही है आत्मा..... वही है परमात्मा। जैसे गन्ना पैदा होता है तब भी रस धरती से आता है और मिर्च पैदा होता है तब भी रस धरती से आता है, मूँग, मटर, मसूर की दाल भी धरती के सहारे से है। यहाँ तक कि छोटी से छोटी घास-पात व जड़ी बूटी का सहारा भी धरती है।
ऐसे ही जिस किसी के मन में जो रिद्धि-सिद्धियाँ हैं, जो सिद्धाई आई है या ऊँचाई आई है, सभी ने उस अखंड भंडार में से ही लिया है। आज तक उस अखंड परमात्मारूपी भंडार में से ही तांत्रिकों को तंत्रसिद्धि, जापकों को जपसिद्धि, भक्तों को भक्ति, विद्वानों को विद्वता और चतुरों को चतुराई प्राप्त हुई। यहाँ तक कि सुंदरों को सुन्दरता भी उसी पिटारी से मिल रही है।
विद्वानों की विद्या उसी परमेश्वररूपी पिटारी से आती है, बुद्धिमानों की बुद्धि उसी परमात्मसत्ता से पोषित होती है। अरे ! ऐसी कोई चीज नहीं, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, ऐसा कोई देव नहीं, यश नहीं, गंधर्व नहीं, किन्नर नहीं, ऐसे कोई श्रीकृष्ण, श्रीराम, ईसा या मूसा नहीं, ऐसा कोई परमात्मा नहीं जिसने उस पिटारी के सिवाय अपना अलग से कुछ जलवा दिखाया हो।
जिसने दिखाया जलवा, वह तेरा ही दान था।
मिली जिनको मुक्ति, वह तेरा ही ज्ञान था।।
आये हो भले ही यहाँ बनके राम औ कृष्ण।
प्रकट हुआ जो उनमें भी, मेरा ही भगवान था।।
जिस किसी ने जलवा दिखाया है। उसे कहते हैं वास्तविक स्वरूप। वह आदि सत्य है। रामजी पधारे उसके पहले भी वह परमात्मा था, श्रीकृष्ण पधारे उसके पहले भी था, ईसा-मूसा तो बाद में आये। ये सब नहीं आए थे तब भी 'वह' था। आप हम नहीं थे तब भी वह परमात्मा था, आप हम हैं तब भी परमात्मा है और आपका हमारा यह शरीर चला जाएगा फिर भी वह आकाश से भी अधिक सूक्ष्म परमात्मा रहेगा। दुःख है तब भी है और सुख है तब भी है। दोनों बदल जाते हैं फिर भी वह अबदल है। गहरी नींद है तब भी है, नींद चली जाती है तब भी है.... है.... है.... है....। बस ! बदलने वाली चीजें नेति.... नेति...नेति। स्थूल-सूक्ष्म-कारण.....नेति। फिर परलोक और तपलोक नेति..... नेति हो जाते हैं। फिर भी वह रहता है। कहते हैं कि महाप्रलय में कुछ नहीं रहता। 'कुछ नही रहता' उसका ज्ञान रखने वाला तो जरूर रहता है। वह सच्चिदानंद परमात्मा है।
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नमः।।
'सच्चिदानंदस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु हैं तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक – तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं।'
(श्रीमद् भागवतः 1.1)
एक सेठ आया मेहमानों को लेकर। साथ ही जवान बेटा भी था। उसने सभी को अपनी पचास-पच्चीस कमरे वाली लंबी-चौड़ी कोठी दिखाई, जो अभी बन रही थी। 'यह पूजा का कमरा... यह ध्यान का कमरा.... यह भजन का.... यह अतिथि का.... यह बाथरूम....' आदि। सारा महल देखकर सब वापस आये। मुख्य द्वार पर ताला लगाया जा रहा था तो पिता ने अपने पुत्र से कहाः "जा एक बार फिर से देखा आ। इतने सारे मेहमान थे, कोई अन्दर तो नहीं रह गया !"
बेटा जाकर सभी कमरों की जाँच करके ऊपर से ही आवाज देता हैः "पिताजी ! यहाँ कोई नहीं है।"
यह सुनकर पिता द्वार को ताला लगाने लगा। यह देखकर बेटा बोलाः
"पिता जी ! ताला क्यों लगा रहे हो ?"
पिताः "तू बोलता है न कि अन्दर कोई नहीं है !"
बेटाः "कोई नहीं है ऐसा कहने वाला मैं तो हूँ ! मुझे तो बाहर आने दो पहले !"
"मकान के अन्दर कोई नहीं है' ऐसा कहने वाला बेटा तो अन्दर है ही।
इसी प्रकार 'महाप्रलय के समय कुछ नहीं रहता' यह जानने वाला तो कोई है ही।.....और वही है परमात्मा।
प्रलय चार प्रकार के होते हैं- नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, महाप्रलय और आत्यान्तिक प्रलय। आत्यान्तिक प्रलय में कुछ नहीं रहता है। सूरज भी नहीं रहता, चन्दा भी नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का वपु भी नहीं रहता। सब प्रलय हो जाता है। कुछ नहीं रहता।
'कुछ नहीं रहता' को जानने वाला तो रहता होगा ? उसी को कहते हैं अकाल पुरूष। आकृतियाँ सब काल में आ जाती हैं। यह हमारा शरीर भी काल में ही पैदा हुआ और काल में ही लीन हो जाएगा। इस शरीर को तो काल खा जाता है लेकिन यह शरीर जिसकी सत्ता से चलता है, मन जिसकी सत्ता से शक्तियाँ लाता है, वह परमात्मा अकाल पुरूष है। वेदान्त की भाषा में वह ब्रह्म है और भक्तों की भाषा में वह शाश्वत नारायण है।
यह बिल्कुल सत्य है कि साधन भजन करने वालों को सत्संग की बहुत जरूरत है। अकेले में कितना भी मौन रखो, कितना भी जप करो, तप करो लेकिन पर्दा दूर नहीं होता है, घमंड आ जाता हैः "मैं पापी हूँ..... मैं तपी हूँ... मै त्यागी हूँ.... मैं फलाहारी हूँ..... मैं मौनी हूँ।' 'मैं' की परिच्छिन्नता व्यक्तित्त्व बन जाता है और इस 'मैं' के व्यक्तित्त्व से ही सारे झगड़े पैदा होते हैं। एक कहेगा 'मैं बड़ा' तो दूसरा कहेगा 'मैं बड़ा'। लेकिन 'मैं-मैं' करने वाले इस मन में यदि ईमानदारी से परमात्मा के नाम में और परमात्मा के ज्ञान में गोता मारने की शक्ति आ जाय तो फिर 'मैं बड़ा' और 'मैं छोटा' का भूत चला जाता है। अपने से छोटों को देखकर अहंकार आता है और बड़ों को देखकर हीनता आती है। बड़ा और छोटा देह की नजर से दिखता है। देह में रहने वाले, देहातीत परमेश्वर की निगाह मिल जाए तो महाराज ! ये सारी झंझटें दूर हो जाती हैं।
"महाराज ! हम तो गृहस्थी लोग हैं।"
अरे भैया ! कबीरजी भी गृहस्थी ही थे !
कबीर जी की मनःशक्ति विकसित थी, कारक पुरूष रहे होंगे। गोरखनाथ जी ने कबीर जी से कहाः "चलो जल में स्नान करने के लिए। मैं गोता मारूँगा और मनःशक्ति से किसी भी स्वरूप का स्मरण करके वैसा ही बन जाऊँगा। फिर आप मुझे खोजना। आप मुझे खोज निकालें तो फिर आप गोता मारना, मैं आपको खोजूँगा। किसकी जीत होती है, यह देखा जाएगा।"
कबीर जी ने कहाः "छोड़ो भाई ! यह सब रहने दो महाराज ! आप तो बड़े जोगी महात्मा हैं..... बड़े संत हैं।"
गोरखनाथः "नहीं। सिद्ध करके दिखाओ। तुम संत-महात्मा होकर पूजे जाते हो, इतने लोग तुम्हारे पास आते हैं और हमारे लोग बेचारे भभूत रमा-रमाकर घूम रहे हैं लेकिन कोई पूछता नहीं।"
कबीर जीः "भाई ! कोई पूछता नहीं इसमें मेरा क्या दोष ? मैंने तो किसी को मना नहीं किया है महाराज। लोगों को जहाँ से लाभ मिलता है, शांति, ज्ञान और आनंद मिलता है, वहीं वे रूकेंगे। लोगों में भी तो अक्ल है, बुद्धि है, हृदयेश्वर है। लोग भी तो पारखी हैं, जग-जौहरी हैं।
यह जग जौहरी है। वह पुराना जमाना गया महाराज ! अब तो लोग बुद्धिशाली हो रहे हैं। जाँच लेते हैं, वक्ता की वाणी से ही पहचान लेते हैं कि कौन कितने पानी में है।"
गोरखनाथः "नहीं, चलो....मेरे साथ तैरना होगा।"
कबीर जीः "अच्छा तो घर से तौलिया ले चलें।"
गोरखनाथः "ठीक है।"
कबीर जी ने तौलिया लेकर पत्नी से कहा कि "मैं गंगा में स्नान के लिए जा रहा हूँ" और गोरखनाथ के साथ चल दिये।
गोरखनाथ ने जल में गोता मारा और मनःशरीर से चिंतन किया कि "मैं मेंढक हूँ.... मैं मेंढक हूँ... मैं मेंढक हूँ....' और उनकी आकृति मेंढक में बदल गई। जैसे रात में सपने में आप सोचते हैं कि 'मैं दुःखी हूँ..... मैं दुःखी हूँ....' तो दुःखद आकृति बन जाती है। 'मैं शादी कर रहा हूँ....' सोचते हो तो दूल्हा बन जाते हो, घोड़ी भी आ जाती है, बाराती भी आ जाते हैं।
आपके मन में बहुत शक्ति है क्योंकि मन जहाँ से उठता है उसका मूल छोर जो है वह सर्वशक्तिमान है। जैसे धरती से जो भी पौधा जुड़ा है वह बीज और संस्कार के अनुकूल ही सब लाता है। गुलाबवाला गुलाबी रंग लाता है, मोतिया का पौधा मोतियों की आकृति लाता है, इमली का पौधा खटाई ले आता है, गन्ना मिठास ले आता है, पपीते का पौधा भी फल में मिठास ले आता है लेकिन मिट्टी में यदि खोजोगे, चखोगे तो कुछ नहीं मिलेगा। न गुलाब दिखेगा, न इमली दिखेगी, न गन्ना दिखेगा न पपीता दिखेगा लेकिन आता सब इसी मिट्टी से है।
......और इस मिट्टी को जो सत्ता दे रहा है, वह सत्ताधीश तुम्हारे अन्तःकरण को भी सत्ता दे रहा है। अन्तःकरण मिट्टी की अपेक्षा अधिक साफ है, इसलिए मिट्टी में तो क्रियाशक्ति के साथ ज्ञानशक्ति और प्रेमशक्ति विकसित करने की भी योग्यताएँ हैं।
क्रियाशक्ति से तो तुम भी रोटी खाते हो, खून बना देते हो और खाद बना देते हो। भोजन के तीन हिस्से कर देते हो। भोजन करके उसका स्थूल हिस्सा रोज सुबह छोड़ आते हो, मध्यम हिस्से से माँसपेशियाँ बना लेते हो, सूक्ष्म हिस्से से मन और बुद्धि को सींच लेते हो। तुम ही तो यह सब कर रहे हो।
यह सब तुम कर रहे हो यह देहदृष्टि से नहीं। देह को लेकर जो चल रहा है, वह तुम हो। इस दृष्टि का यदि सहारा मिल जाय तो राग-द्वेष घट जाएगा और कबीर जी की नाई सत्पद में रूचि हो जाएगी। जैसे बिल्लौरी काँच अधिक स्थिर करते हो तो सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ दाहक शक्ति भी आ जाती है, ऐसे ही मन को अगर ध्यानस्थ किया जाए और खूब एकाग्र किया जाए तो आत्मिक शक्तियों का विकास होगा।
जैसे पेड़ अधिक समय तक धरती से चिपका रहता है तो उसमें फल-फूल बड़े-बड़े लगते हैं लेकिन पौधा दो-चार दिन ही रहे तो उसकी अपनी सीमित योग्यता है। अर्थात् एकाग्रता जितनी बढ़िया और लक्ष्य जितना बढ़िया उतने ही आप भी बढ़िया हो। बढ़िया में बढ़िया यह है कि आप आत्मरस में रहो और दूसरों को भी आत्मरस में रंग लो।
मैं चुटकी बजाकर भभूत निकालने वाले महात्माओं से भी मिला और वे मेरे मित्र हैं। उन्होंने मुझे हाथ घुमाकर सोने की अंगूठी निकाल कर दे दी। मैंने देखी भी लेकिन मैं उनसे प्रभावित न हुआ क्योंकि मुझे ब्रह्मज्ञानी लीलाशाह जी बापू ने अकाल पुरूष का जो प्रसाद दे दिया उसके आगे यह सब बच्चों का खेल लगता है।
आप सत्संग में क्यों खिंचकर चले आते हो बार-बार? इसलिए की आपको कुछ मिलता है। संशय मिटते हैं, शांति मिलती है, माधुर्य निखरता है, ज्ञान प्राप्त होता है। पचास वर्ष अकेले भक्ति करने से जो बात समझ नहीं सकते, वह मात्र दो घंटों में समझने के लिए मुफ्त में मिल जाती है। कितना फायदा हो रहा है....!
पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से भी हृदय का अंधकार दूर नहीं होता है और दो घड़ी आत्मज्ञानी संतों के चरणों में बैठने से हृदय का अज्ञान दूर हो सकता है, यह श्रीमद् भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषियों से कहा है।
श्रीकृष्ण साधु-संतों का जब स्वागत कर रहे थे, पत्तलें बाँट रहे थे तब ऋषियों ने कहाः "कन्हैया ! तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है ? तुम तो आदिनारायण हो ! यहाँ वसुदेव के बेटे होकर लीला कर रहे हो तो क्या हुआ ? हम तो तुम्हें पहचानते हैं। ये पत्तले बाँटने से और उठाने से तुमको क्या लाभ होगा ?"
श्रीकृष्ण कहते हैं- "पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से हृदय का अज्ञान नहीं मिटता है, लेकिन ब्रह्मवेत्ता सत्पुरूष की सेवा से वह कार्य हो जाता है। हजारों साधुओं में आप जैसे एकाध ब्रह्मज्ञानी महापुरूष भी मिल जाएगा तो मेरी सेवा सार्थक हो जाएगी। मेरे साथ जो सेवा कर रहे हैं उनका भी कल्याण हो जाएगा। इसलिए महाराज ! मुझे पैर धोने दो।"
श्रीकृष्ण के इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पचास वर्ष की अपने ढंग की तपस्या, व्रत या नियम भी दो घड़ी के सत्संग की बराबरी नहीं कर सकते इसलिए तुलसीदास जी की बात हमको यथार्थ और सचमुच में प्रिय लगती हैः
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।
सत्संग में आने से पाप तो नष्ट हो जाते हैं लेकिन हमारी पुरानी आदते हैं गलतियाँ करने की, उनसे हम पुनः पाप निर्मित कर लेते हैं। ईमानदारी से यदि सत्संग में बैठा जाए तो पाप नष्ट होते ही आनंद शुरू होता है। आनंद शुरू हो गया तो हम फिर से वासनाओं के अनुसार कर्म करने लगते हैं। जैसे, कपड़ा मैला था, साफ किया, फिर मैला किया, साफ किया, फिर मैला किया.... ऐसा हम लोग करते हैं।
यदि सत्संग सुनकर एकांत में चले जाएँ, ध्यान-भजन में चले जाएँ, दूसरा कोई पाप कर्म न करें और फिर सत्संग सुनें, ध्यान करें तो थोड़े ही दिन में मन शक्ति, बुद्धिशक्ति का अनुभव कर लेंगे।
कबीर जी की मनःशक्ति का अब थोड़ा सा वर्णन कर लें-
गोरखनाथ ने मनःशक्ति से संकल्प किया कि 'मैं मेंढक बन जाऊँ.... मैं मेंढक बन जाऊँ....' और गंगा में कूदे। चिन्तन की तीव्रता थी तो वे मेंढक बन गये और दूसरे मेंढकों के बीच में छटपटाने लगे।
जो नया आदमी होता है वह नकल में भी कुछ हिलचाल कर बैठता है। मेरे पास एक जेबकतरा आया और बोलाः
"बाबा जी ! सत्संग सुनने से मैंने यह पक्का किया है कि जेब काटने का धंधा नहीं करना चाहिए। मुझे आशीर्वाद दो कि मैं अब अमुक धंधा ठीक से शुरू कर सकूँ।"
मैंने कहाः "आशीर्वाद तो तुझे दूँगा लेकिन पहले तू बता कि तुझे पता कैसे चलता है कि फलाँ आदमी की जेब में पैसे हैं ? और जेब कैसे काटता है ? मुझे दिखा तेरा यह धंधा।"
उसने ब्लेड के दो टुकड़े दिखाये और कुछ ऐसी दवा भी थी। उसने बताया किः "बाबाजी ! कभी जरूरत पड़े तो हम इस दवा का भी उपयोग करते हैं ताकि जल्दी ही कपड़ा सड़ जाय और कट जाय।"
मैंने कहाः "ठीक है, कपड़ा सड़ जाय, कट जाय। ये साधन तो मैंने देख लिये, लेकिन तुम अन्तर्यामी तो हो नहीं, ब्रह्मज्ञानियों के चेले भी नहीं हो तो ब्रह्मज्ञान भी नहीं, फिर भला तुम्हें कैसे पता चलता है कि सामने वाले की जेब में पैसे हैं ?"
वह बोलः "बाबा जी ! यह तो सीधी सी बात है। जिस जेब में पैसे होते हैं न, आदमी वहाँ बार-बार हाथ रखेगा और सम्हालेगा। बस, इतना इशारा काफी है हमारे लिये। हम पीछा कर लेते हैं यह समझकर कि बस, यहाँ माल है।"
जोगी गोरखनाथ बार-बार छटपटाने लगे तो कबीरजी समझ गये कि यह नया बन्दा है। उन्होंने मेंढक को हथेली पर उठाया और कहाः
उथी जाग जोगियड़ा रांध कर्युं.... अब लिक छिप लिक छिप रांध कर्युं.... गोरख जल में डेडर थि वेड़ो..... कबीर तें के हाथ में खयड़ो..... हण जलदी-पलदी था जीत कयुँ.... उथी जाग जोगियड़ा रांध कर्युं... राँध कर्युं.... हणे राँध कर्युं।
"चलो जोगी, जागो। अब तुम्हारी बारी है।" कबीर जी की यह आवाज सुनकर गोरखनाथ ने संकल्प किया। सूक्ष्म शरीर तो वही था, मेंढक में से हो गये वापस गोरखनाथ।
वह कैसा युग रहा होगा कि आदमी इच्छानुसार शरीर बना लेता था। यह अभी भी कहीं-कहीं, कभी-कभी देखने को मिलता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने जब सखी संप्रदाय की उपासना की तब अन्य स्त्रीलक्षणों के प्रगट होने के साथ-साथ उनका मासिक धर्म भी शुरू हो गया।
किसी कैदी को जेल में फाँसी की सजा मिली। उस पर एक प्रयोग किया गया। उसको पता न चले इस प्रकार उसे चूहा कटवाया गया और उसे कहा गया कि तुझे साँप ने काटा है। वह डर कर गहराई से साँप का चिन्तन करने लगा कि मुझे साँप ने काटा है। परिणाम यह हुआ कि उसके खून में साँप का जहर बन गया। ऐसे ही आप सोचते रहेंगे किः "मैं दुःखी... मैं दुःखी...." तो आप भी दुःखी ही बन जाएँगे। सुबह उठकर भी यदि सोचते हैं कि "मैं दुःखी हूँ..... मेरा कोई नहीं... मैं लाचार हूँ...." तो देखिये कि आपका दिन कैसा गुजरता है। पूरा दिन परेशानी और दुःख में बीतेगा।
इसके विपरीत, सुबह उठकर यदि आप यह सोचें किः 'चाहे कुछ भी हो जाए, दुःख तो बेवकूफी का फल है। मैं आज दुःखी होने वाला नहीं। मेरा रब मेरे साथ है। मनुष्य जन्म पाकर भी दुःखी और चिंतित रहना बड़े दुर्भाग्य की बात है। दुःखी और चिन्तित तो वे रहें जिनके माई-बाप मर गये हों। मेरे माई-बाप तो ऐ रब ! तू ही है न ! प्रभु तेरी जय हो...! आज तो मैं मौज में रहूँगा।' फिर देखो, आपका दिन कैसा गुजरता है !?
आपका मन कल्पवृक्ष है। आप जैसा दृढ़ चिंतन करते हैं, ऐसा होने लगता है। हाँ, दृढ़ चिन्तन में आपकी सच्चाई होनी चाहिए।
स्वामी विवेकानंद शिकागो में प्रवचन कर रहे थेः "आपका दृढ़ चिन्तन हो, श्रद्धा पक्की हो तो आप अगर पहाड़ को हटने का कहते चले जाओ तो वह भी हटकर आपको रास्ता दे सकता है। जिसस ने भी कहा हैः आदमी की जितनी एकाग्रता और मनोबल होगा, श्रद्धा पक्की होगी वह उतना ही महान हो सकता है।"
एक माई ने सोचाः "श्रद्धा में इतनी शक्ति है, Faith में इतनी शक्ति है, बाईबिल मेरे घर में है और जिसस ने भी कहा है तो फिर मैं नाहक दुःख क्यों देख रही हूँ !"
वह माई चालू सत्संग में से उठकर चल दी क्योंकि उसे यह परेशानी थी कि उसके घर के पीछे एक पहाड़ होने के कारण उसके घर में सूरज की किरणें नहीं आ रही थीं। उसने सुन लिया विवेकानंद के मुख से कि अगर श्रद्धा पक्की हो तो पहाड़ से कहोः हट जा। तो वह भी हट जाएगा।
वह माई घर आई और खिड़की खोलकर पहाड़ से कहाः "ऐ पहाड़ ! आज तुझे भागना पड़ेगा। मेरे मन में श्रद्धा है, विवेकानंद ने भी कहा है और बाईबिल में भी लिखा है। मुझमें भी पक्की श्रद्धा है। मैं कहूँगी तो तुझे हटना ही पड़ेगा।"
माई ने आँख बन्द की और पुनः पहाड़ से कहाः "मैं तुम्हें श्रद्धा से कहती हूँ कि दूर हो जा..... दूर हो जा... दूर हो जा...." फिर आँख खोलकर देखा तो पर्वत वहीं का वहीं। व जोरों से हँस पड़ी और बोलीः "कमबख्त ! मुझे पता ही था कि तू जाने वाला नहीं है।"
स्पष्ट है कि व्यक्ति को गहराई में पता होता है कि काम नहीं होगा। ऊपर ऊपर से कहता रहे कि मुझे श्रद्धा है, काम हो जाएगा, तो काम नहीं होगा।
आपका सचेतन और अचेतन, दोनों ही मन, जब तदाकार होते हैं, तब यह घटना घटती है। अज्ञ लोग जिसे परमात्मा की प्रेरणा मानते हैं, देवता की प्रेरणा मानते हैं, भगवान की प्रेरणा मानते हैं, हकीकत में वह देवों के देव आत्मदेव का ही स्फुरण है। मन और प्राण जब सूक्ष्म होता है तब उस अंतर्यामी का स्फुरण होता है। इस बात को महात्मा पुरूष जानते हैं, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी जानते हैं। दूसरे लोग तो बेचारे भटक जाते हैं कि इस देवी ने कर दिया, इस कब्र-दरगाह से मेरी मनौती पूरी हुई।" अरे, वहाँ जो मुल्ला झाड़ू लगा रहा है उस बेचारे की तो कंगालियत दूर नहीं हुई और तू कैसे लखपति हो गया ?
समाज में ऐसा ज्ञान और ऐसे ज्ञान के पारखी बहुत कम होते हैं। अपना मजहब, अपना मत चलाने वालों की और 'कन्या-कन्या कुर्र.... तुम हमारे चेले..... हम तुम्हारे गुर्र....' करके दक्षिणा की लालच में चेले बनाने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
चले थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।
ऐसे हाल हो रहा है फिर भी अच्छे लोग तो अच्छे ऊँचे अनुभववाले महापुरूष को खोज ही लेते हैं और एक बार उनके श्रीचरणों में आ जाते हैं तो फिर उनका दिल कहीं भी नहीं झुकता है।
अगर सचमुच में ऊँचे ब्रह्मज्ञानी का आत्म साक्षात्कारी पुरूष का ठीक से एक बार सत्संग सुन ले तो फिर वह भले ही हजार-हजार जगह घूम ले लेकिन उसका दिल कभी धोखा नहीं खा सकता क्योंकि आत्मज्ञान बहुत ऊँची चीज है। और...
सुपात्र मिला तो कुपात्र को दान दिया न दिया।
सुशिष्य मिला तो कुशिष्य को ज्ञान दिया न दिया।
सूरज उदय हुआ तो और दीया किया न किया।
कहे कवि गंग सुन शाह अकबर ! पूरन गुरू मिला, तो और को नमस्कार किया न किया।
कबीर जी ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने जल में गोता मारा और दृढ़ संकल्प किया कि मैं जलतत्त्व में ही हूँ। पाँच तत्त्व हैं- चार तत्त्व को हटा लूँ तो जल ही जल हूँ... जल ही जल हूँ। उन मन शरीर नियंत्रित था अतः जल में जल हो गये।
अब गोरखनाथ किसको खोजें ? मेंढक हो, मछली हो, कूर्म हो, और कुछ हो तो खोजें। जल में जल को कहाँ खोजें ? जल तो जल ही है। गोरखनाथ खोजते खोजते थक गये। संध्या हो गई। सोचने लगेः "कबीर तो पानी में क्या पता धँस गये.... मर गये... लाश भी नहीं मिलीती। न जाने अब क्या करें ? माई बोलेगी कि बाबा ले गया था मेरे पति को, क्या कर दिया ? कहीं शाप न दे दे।
'सचमुच ! किसी की ईर्ष्या से प्रेरित होकर किसी संत की कसौटी करना यह हमारे लिये अनुचित था। हे भगवान ! हे भोलानाथ ! तू ही कुछ दया कर"। महादेव का स्मरण किया। गोरखनाथ की मति में थोड़ा प्रकाश हुआ। गोरखनाथ ने अपना तुम्बा भरा गंगाजी में से और जाकर लोई माता से कहाः "माता जी ! आपके पति गंगाजी में समा गये। उनकी अस्थियाँ तो मैं नहीं लाया लेकिन जिस जल में वे लीन हो गये, वह जल मैं लाया हूँ माता जी ! आप मुझे क्षमा कर दो।"
लोई हँसने लगीः "मेरा सुहाग गिरा नहीं तो मेरे पति कैसे मर सकते हैं ?"
आपका यश होने वाला होता है तो दाँयी आँख फड़कती है और अपयश होने वाला होता है तो बाँयी आँख फड़कती है। यह कौन फड़कता है ? कोई भूत-प्रेत आता है क्या ? सृष्टिकर्त्ता का नियम है.... उसी की लीला है यह। पुरूष की दाँयी और स्त्री की बाँयी आँख फड़कती है तो यश एवं शुभ होता है और स्त्री का दाँयी तथा पुरूष की बाँयी आँख फड़कती है तो कुछ न कुछ गड़बड़, घर में झगड़ा या अपयश होता है। यह भले ही आप करके देखना। ऐसे और भी कई शकुन होते हैं। इस सृष्टिकर्त्ता की लीला अजीब है.... बेअंत है.... दो हाथ और तीसरा मस्तक, बस....
कह नानक सब तेरी वडीआई।
उसके सिवाय आप और अधिक कुछ कह भी नहीं सकते।
'भगवान ! तू इतना बड़ा है..... तू ऐसा है.... तू वैसा है..... तुम जितनी भी उपमा उसके पीछे लगाओ सारी की सारी छोटी हो जाएगी। 'वह असीम है....' ऐसा करने में भी ससीम की अपेक्षा वह परमात्मा असीम है। वह परमात्मा नित्य है, तो अनित्य की अपेक्षा तुम नित्य शब्द जोड़ रहे हो। बाकी तो वही है। वहाँ वाणी नहीं जा सकती। 'बेअन्त.... बेअन्त....' बेअन्त भी तुम अन्तवालों को देखकर कहते हो। अन्यथा वह तो वही है। न बेअन्त है.... न अन्तवाला है। नानक जी ने कहा है।
मत करो वर्णन, क्या जाने वह कैसो रे।
उसका वर्णन मत करो कि वह ऐसा है, वैसा है.... क्या जाने वह कैसा है ? हाँ ! उसका चिन्तन करते-करते उसमें मति लीन हो जाती है, मति पावन हो जाती है, आपका कल्याण हो जाता है।
कोई तरंग कह दे कि 'सागर ऐसा है.... वैसा है।' तरंग ! तू शांत हो जा तो सागर बन जाएगी अन्यथा दस, बीस, पचास, सौ फीट तक भागकर तू कोई सागर की माप थोड़े ही ले लेगी ! कोई बुलबुला कह दे कि 'सागर ऐसा है वैसा है....' अरे भाई बुलबुले ! तू अपना बुलबुलापन हटा और पानी से पानी हो जा तब पता चलेगा।
कबीर तो जल में जल हो गये थे। लोई माता के आगे गोरखनाथ कहते हैं- "यह जल का तुम्बा भर लाया हूँ माता जी ! वे इसी में विलीन हुए थे।"
लोई माता पूछती हैः "कौन से जल में विलीन हुए थे ?"
गोरखनाथ बोलेः "इसी गंगाजल में।" ऐसा करके गोरखनाथ ने तुम्बे में से गंगाजल की धारा बहाई। कबीर जी संकल्प करके जल की धारा में से प्रकट हो गये।
गोरखनाथ जी कबीर जी के चरणों में गिर पड़ेः
"महाराज ! पाय लागूँ।"
कबीर जी कहते हैं- "जोगीराज कोई बात नहीं।"
कहने का तात्पर्य है कि तुम्हारे स्थूल शरीर की अपेक्षा मनःशरीर में बहुत-बहुत संभावनाएँ हैं। लेकिन उन संभावनाओं में आप उलझोगे तो कहीं अंत नहीं आएगा। मनःशरीर की तुम कितनी भी रिद्धि-सिद्धियाँ पा लो। अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ तो हनुमानजी के पास भी थीं फिर भी वे उनमें रूके नहीं और श्रीरामचंद्र जी के चरणों में श्रद्धा भक्ति की। बदले में हनुमान जी को श्रीरामचंद्र जी ने ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया तब हनुमान जी कहते हैं- "आज मैं ज्ञातज्ञेय हुआ।"
रामजी पूछते हैं- "अब तुम मुझे क्या समझते हो ?"
हनुमान जी कहते हैं- "व्यवहार जगत से आप स्वामी हैं, मैं सेवक हूँ। जगत की दृष्टि से आप भगवान हैं, मैं जीव हूँ लेकिन तत्त्वदृष्टि से जो आप हैं वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वही आप हैं।"
रामजी कहते हैं- "आज जीव और ब्रह्म एक हो गये।"
तत्त्व की दृष्टि से जो श्रीकृष्ण हैं, वही तुम हो, जो श्रीराम हैं, वही तुम हो। जो नानक हैं, वही तुम हो, जो कबीर जी हैं वही तुम हो लेकिन शरीर दृष्टि से, मनःशरीर से नानक का मन बहुत ऊँचा था, अपना मन नीचा है। नानक का शरीर विलीन हो गया, अपना शरीर तो दिख रहा है, लेकिन नानक के हृदय में जो चमक रहा था, वही परमेश्वर तुम्हारे हृदय में भी चमक रहा है।
नानक फिर से आ जाए या न आयें, इसमें संदेह है, ईसा-मूसा आयें या न आयें इसमें संदेह है लेकिन ईसा-मूसा में जो तत्त्व प्रकाशित हुआ था, प्रगट हुआ था, वह अभी भी तुम्हारे हृदय में है। उसको प्रकाशित और प्रगट कर दो तो उसकी पूरी बन्दगी हो गई, पूरा आदर हो गया। उस परम तत्त्व को अपने हृदय में प्रगट करने के लिए गोरखनाथ जी ने कहाः
गोरख ! जागता नर सेवीए
जो जीवित आत्म-साक्षात्कारी महापुरूष हैं, उनकी शरण में जाओ।
गोरखनाथ जी ने सुलझे हुए महात्मा थे।
एक भूला, दूजा भूला, भूला सब संसार।
विण भूला एक गोरखा, जिसको गुरू का आधार।।
जागता नर सेवीये.... मानो हम जागते नर के पास आ गये तो फिर वे जागते नर, गुरू महाराज हमें क्या कहेंगे ?
गुरू महाराज कहते हैं कि ध्यान करो। आत्मिक शक्ति विकसित करो।
"लेकिन बाबाजी ! ध्यान नहीं लगता है।"
"भाई ! ध्यान नहीं लगता तो उसके चार कारण हैं। ये चार कारण यदि हटा दो तो ध्यान लगने लगेगा।"
एक तो आहार की अशुद्धि। उससे भी ध्यान नहीं लगेगा।
अशुद्ध आहार करोगे तो तमोगुण आयेगा, काम-विकार जगेगा, तंद्रा आएगी, आलस्य आएगा। आहार शुद्ध व अपनी कमाई का होना चाहिए। ध्यान-भजन के अभ्यास में मन लगा रहना चाहिए। अगर आप साधू हैं तो इतना अधिक भजन करें कि जिसका भोजन आप करते हैं, उसका जो कुछ हिस्सा हो वह उसको मिल जाय, बाकी की अपनी कमाई हो जाय। इसीलिए साधु पुरूषों को गृहस्थियों की अपेक्षा अधिक भजन करना पड़ता है।
गृहस्थी अपना जितना समय काम-धंधे में लगाता है साधू को उतना ही समय ईश्वर भजन व चिन्तन में लगाना चाहिए तो ही साधू प्रभावशाली होगा। अन्यथा दान का प्रभाव साधू के प्रभाव को ही दबा देगा। यदि साधना का बल है तो उसका प्रभाव बढ़ेगा।
दूसराः चित्त में अगर राग-द्वेष होगा और ध्यान में बैठोगे तो या तो मित्र को याद करोगे या शत्रु को याद करोगे। जहाँ महत्त्वबुद्धि होती है या जिसकी ओर आकर्षण अधिक होता है, आँख बन्द करने पर वही दिखेगा।
तीसरी बात है कर्म की पवित्रता।
चौथी बात है वाणी की पवित्रता। गाली गलौच करके आये अथवा सुनकर आये और ध्यान में बैठे तो उन्हीं गालियों की पुनरावृत्ति होगी और मन उधर हो जाएगा।
वाणी ऐसी बोलिए, ज्यों मनवा शीतल होय।
औरन को शीतल करे, आपहूँ शीतल होय।।
जो शीतल वाणी बोलना-जानते हैं, हृदय को शुद्ध रखना जानते हैं, उनके पास तो वशीकरण मंत्र आ जाता है।
कई लोग मुझसे पूछते हैं- "बाबा जी ! आपके पास ऐसा कौन-सा चमत्कार है कि सिंहस्थ जैसे पर्व में लाखों आदमी आपके पीछे दीवाने हो गये ? यह कोई तांत्रिक, साबरी या वैदिक चमत्कार है क्या ?"
मैंने कहाः "न तो यह कोई तांत्रिक है, न साबरी है और न वैदिक। जिससे यह सब सिद्ध होता है उस सिद्धिदाता परमात्मा को प्रेम करके फिर सबमें मेरा परमात्मा है और सबका मंगल हो ऐसा सोचकर बोलता हूँ। यही मेरा मंत्र हैं। तुम भी सीख लो तो तुम्हारा भी कल्याण हो जाएगा। मेरी तो खुली किताब है बाबा ! चाहे कहीं भी, कोई भी पन्ना खोलकर पढ़ लो।"
मेरा वशीकरण मंत्र है 'प्रेम' और यह कोई खेतों, खलिहानों या बाजारों में नहीं मिलता। प्रेम में हमेशा एक दूसरे को देने की इच्छा होती है, लेने की नहीं। शिष्य दिये बिना नहीं रहता है और गुरू भी दिये बिना नहीं रहते हैं। शिष्य आदर देता है, प्रेम करता है, गुरू भी उसका भला चाहते हैं, आदर देते है। प्रेम में दोनों तरफ से बाढ़ आती है.... आनंद बरसता है। मैं सोचता हूँ कि ऐसा कुछ ऑपरेशन करूँ कि इनको कुछ मिल जाए और शिष्य सोचता है कि ऐसा कुछ करूँ कि बाबा खुश हो जाएँ। स्वार्थ में तो लिया जाता है।
गुरू लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों डूबे बावरे, चड़ी पत्थर की नाव।।
एक बार काशी नरेश ने कबीर जी से कहाः "महाराज ! इतने वर्ष हो गये, भागवत की कथा सुन ली, यज्ञ भी कर लिया, अनेक अन्यान्य कर्म भी कर लिये लेकिन अभी तक हृदय का बँधन दूर नहीं हुआ।"
कबीर जी ने कहाः "किस पंडित से तुमने कथाएँ सुनीं ?"
काशीनरेशः "अमुक-अमुक जो भी बड़े-बड़े पंडित थे सब को बुला-बुलाकर कथाएँ सुन लीं। अभी जो फलाने वरिष्ठ पंडित हैं उनसे हम कथा सुन रहे हैं।"
कबीर जीः "अच्छा ! मैं कल आऊँगा, लेकिन मैं जो कहूँगा, वह तुमको मानना पड़ेगा।"
काशीनरेशः "जो आज्ञा महाराज।"
कबीर जी दूसरे दिन राजदरबार में पहुँचे और राजा से बोलेः "दो घंटों के लिए मेरी हर आज्ञा का पालन होना चाहे। अपने मंत्रियों से भी कह दो।"
राजाः "जो आज्ञा।" राजा ने सिर झुकाया और अपने सभी मंत्रियों को कहा कि संत कबीर जी जो भी आदेश दें, उसे तुम मेरा आदेश समझकर तत्काल पालन करना।
कबीर जी ने मंत्रियों को आदेश दियाः "राजा को इस खम्भे से बाँध दो और कथा करने वाले पंडित को उठाकर उस सामने वाले खम्भे से बाँध दो।"
मंत्रियों ने आदेश का पालन करते हुए राजा और पंडित को पृथक-पृथक खम्भों से बाँध दिया।
"राजन ! तुम बँधे हुए हो तो इस पंडित से कहो कि आकर तुम्हें छुड़ावे।"
राजा कहता हैः "महाराज ! ये बेचारे तो खुद बँधे हुए हैं, तो मुझे कैसे छुड़ाएँगे ?"
कबीर जी कहते हैं- ''ऐसे ही यह पंडित देह के अहंकार तथा अन्य विशेषताओं में बँधा हुआ है कि ''मैं पंडित हूँ..... फलाँ हूँ...' लेकिन अपनी गहराई में, आत्मा में तो गया ही नहीं, फिर भला मुक्त कैसे हो सकता है ? जिसके खुद के बँधन दूर नहीं हुए, वह औरों के बँधन क्या खाक दूर करेगा ?
बँधे को बँधा मिले, छूटे कौन उपाय।
सेवा कर निर्बन्ध की, जो पल में दे छुड़ाय।।
जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से पार आत्मा-परमात्मा में पहुँचे हैं, ऐसे ब्रह्मज्ञानी की सेवा कर तो वे पल भर में ही छुड़ा देंगे, उपदेश मात्र से हृदय को आनंद और ज्ञान से भर देंगे। निर्बन्ध पुरूष ही हृदय को बँधनों से मुक्ति दे सकते हैं, जो बँधा है वह नहीं दे सकता।"
निर्बन्ध पुरूष ही संत कहलाते हैं क्योंकि उनके जन्म मरण के बँधनों का अन्त हो चुका होता है। इस निर्बन्ध पद को पाने के लिए ये चार बातें आप सदैव याद रखना और कृपा करके अमल में लाने की कोशिश करना। बहुत लाभ होगा। करोड़ों जन्मों में जितना लाभ नहीं हुआ, उतना लाभ इन चार बातों से आपको हो सकता है।
पहली बात आहार शुद्धि। आहार जो मुँह से करते हैं उतना ही नहीं, आँखों से भी अच्छा देखो। बुरा दिखते ही आँखें हटा दो। कानों से ग्रहण की जाने वाली आवाज भी शब्द आहार है।
जिसकी निन्दा सुन रहे हो वह तो आईसक्रीम खाता होगा और तुम परेशान हो रहे हो।
नाक से भी पवित्र सुगंध लो, आँख से पवित्र दर्शन करो, कान से पवित्र श्रवण करो, मुँह से पवित्र वाणी बोलो। शत्रु के लिए भी मानवाचक शब्द बोलो। इससे उसका भला हो चाहे न हो, तुम्हारा भला जरूर होगा।
शत्रु के लिए जब अपमानयुक्त कटुवचन बोलते हो तो उस समय तुम्हारा हृदय कैसा होता है, जरा परीक्षण करना। शत्रु के लिए भी मानयुक्त वचन बोलते समय आपका हृदय कैसा होता है, इसका भी परीक्षण करना। अगर मानयुक्त वचनों से आपका हृदय अच्छा हो तो आप मेरी बात स्वीकार करने की कृपा करना।
सच्चाई से प्रेम शुरू होता है, विनय से प्रेम पनपता है और ईश्वर के ध्यान से प्रेम में स्थिरता आती है। आपके हृदय में सच्चाई होगी तो लोग आपसे प्रेम करेंगे। आपके हृदय में विनय होगा तो उनका प्रेम आपके प्रति पनपेगा। सदगुरू ने आपको ध्यान का रंग लगा दिया तो फिर आप लोगों के दिल में घर कर लेंगे। मैं सारी किताब खुली कर रहा हूँ।
"बाबाजी ! आपको इतने लोग प्रेम करते हैं ! गुजरात देखो, महाराष्ट्र देखो, मध्य प्रदेश देखो, जिधर देखो उधर देखो उधर आपके लाखों प्रेमी हैं। आप तो बस, बाबाजी ! एक आवाज मार दीजिये, हमारा काम बन जाएगा। किसी भी पार्टी के लिए आप कह दें कि यह पार्टी आना चाहिए, तो लोग उसी को वोट देंगे। हमारे लिये थोड़ा-सा कह दीजिये क्योंकि लोग आपको बहुत मानते हैं।"
मानते हैं उसका यह अर्थ तो नहीं कि मैं उनको ठगता जाऊँ ? यदि ठगने के भाव से बोलूँगा तो प्रेम नहीं होगा, स्वार्थ हो जाएगा। स्वार्थ से वाणी का प्रभाव क्षीण हो जाएगा। ....और फिर परमात्मा तो देख रहा है न ! उनके हृदय में भी तो परमात्मा बसा है।
मैं किसी पार्टी के लिए कह दूँ कि इसे वोट दो तो हर पार्टी में अच्छे-बुरे लोग होते हैं। यदि मैं कहूँ कि मैं इस पार्टी का हूँ तो दूसरी पार्टी के अच्छे लोगों के लिए मुझे अन्याययुक्त बोलना पड़ेगा और अपनी पार्टी में जो गन्दे लोग होंगे, उनके भी मुझे गीत गाने पड़ेंगे। इस कारण मैं संत के स्थान से भी नीचे चला जाऊँगा।
अच्छे बुरे लोगों की गहराई में जो परमात्मा है, मैं उसकी पार्टी का हूँ... इसलिए सब मेरे हैं और मैं सबका हूँ.... ऐसा मेरा मन कहता है।
सब तुम्हारे, तुम सभी के, फासले दिल से हटा लो।
सुना है एक महात्मा के पास एक बार एक डाकू आया और बोलाः "महाराज ! मैं यहाँ, आपके सत्संग में बैठ सकता हूँ ?"
महात्मा ने कहाः "हाँ।"
डाकू ने कहाः "महाराज ! मैं चंबल की घाटी का हूँ।"
महात्मा ने कहाः "कोई बात नहीं।"
"मैं दारू पीता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं जुआ भी खेलता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं वेश्यागामी भी हूँ।"
महात्मा ने कहाः "कोई बात नहीं।"
"मैं झगड़ाखोर भी हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं अफीम भी खाता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"महाराज ! मुझमें सब बुराइयाँ हैं।"
"कोई बात नहीं।"
"महाराज ! आप मुझे स्वीकार कर रहे हैं।"
महात्मा ने कहाः "हाँ।"
उसने पूछाः "ऐसा क्यों।"
महात्मा ने कहाः "अरे, परमात्मा जब अपनी दुनिया से तुम्हें नहीं निकालता है तो मैं अपने मंडप या आश्रम से तुम्हें क्यों निकालूँ यार ! वह भी तेरे सुधरने का इन्तजार कर रहा है तो मैं क्यूँ अपना धैर्य खोऊँ ? जब उसकी हाँ है तभी तो तू यहाँ पहुँचा है। फिर मैं ना क्यों बोलूँ ? उसकी हाँ है मेरी हाँ है तो तू ना क्यों करता है ? तू भी बैठ जा यार !"
भगवान का वचन हैः
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
'यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।'
(भगवद् गीताः 4.36)
पापी से भी पापी, दुराचारी से भी दुराचारी है और अगर ज्ञान की नाव में आ जाता है तो उसके विचार बदलेंगे, पाप छूटेंगे और फिर ईश्वर के रास्ते लगने का संकल्प करता है तो फिर वह साधुरेव स मंतव्यमः। उसको साधु ही मानो।
कबीर जी के पास दो भाई आये। बड़ा भाई तो सुलझा-सुथरा और सत्संगी था लेकिन छोटा भाई लोफर था। कभी किसी साधु संत के पास नहीं गया था, कभी कोई सत्संग भी नहीं सुना था। पक्का लोफर था वह।
बड़े भाई न कबीर जी से कहाः "महाराज ! इस कमबख्त को घसीटकर लाया हूँ। इसे जरा उपदेश दीजिये।"
कबीर जी ने उसे आवाज देकर बुलायाः "साधो !" तो बड़ा भाई बोलने लगाः "महाराज ! यह तो लोफर है लोफर।"
कबीर जी बोलते हैं- "तुम सत्संग सुनो, बीच में मत बोलो।" फिर छोटे भाई की तरफ इशारा करते हुए बोलेः "साधो ! चार दिन की जिन्दगी है, साधो !"
बड़ा भाई फिर टोकता हैः "महाराज ! साधु तो मैं हूँ। आपकी कथा में रोज मैं होता हूँ। यह तो मेरा भाई है.... बदमाश और लोफर है।"
कबीर जी उसे समझाते हैं- "बेटा ! धीरज रख।" और छोटे की ओर इशारा करते हैं- "साधो ! पाप का फल बुरा होता है और सत्कर्म का फल भला होता है। जिस दिन से पश्ताताप करके मनुष्य सत्कर्म की तरफ चलता है उसी दिन से पाप मिटने लगते हैं और सत्कर्म का पुण्य बढ़ने लगता है, साधो !"
कबीर जी ने उसे बार-बार 'साधो.....साधो....' से संबोधित करके सत्संग सुनाया और सत्संग सुनकर वह घर गया। फिर केवल 'साधो.... साधो....' शब्द ही नहीं बोलने लगा अपितु कबीर जी के वाक्यों की नकल भी करने लगाः 'साधो ! पापकर्म का फल दुःखदायी होता है। साधो ! सत्कर्म का फल भला होता है।' उसे साधो बोलने में मजा आ रहा है। इस बहाने कबीरजी का चिन्तन हो रहा है। क्रियाशक्ति साधो शब्द का चिन्तन कर रही है और कबीर के चिन्तन से उसमें कबीर जी के गुण आये और वह युवक बड़े भाई से भी आगे निकल गया।
आपके कुटुम्ब में भी यदि कोई बुरे से बुरा सदस्य हो, उसे आप मानयुक्त, प्रेमयुक्त वचन बोलते हैं तो उसका शीघ्र भला होगा। आपका बेटा, बेटी, पत्नी, पति या परिवार का अन्य कोई भी सदस्य हो और उसकी हजार गलतियाँ दिखें फिर भी आपकी वाणी में, दूषित शब्दों के बजाए आदर और मानयुक्त वचन होंगे तो वह जल्दी सुधरेगा।
यदि कोई व्यक्ति गलती करे और उसकी गलती को लेकर बार-बार आप टोकते रहें तो आपका हृदय भी मलिन होता है और वह भी गहरी गलतियाँ करेगा। उसमें कोई न कोई सदगुण भी होगा है। उसके उस सदगुण को पोसते जाओ और उसकी गलतियाँ को नजर अंदाज करो। फिर देखो परिणाम।
यदि कोई गलती करने वाला है तो उसे प्यार से समझाओ किः "भाई ! ऐसी ऐसी गलतियाँ करने वाले लोग बहुत दुःखी होते हैं। तुझमें तो नहीं है लेकिन तुझसे भी अधिक गलतियाँ करने वाले हैं, उन्हें बहुत दुःख होता है। तुझमें तो यह गुण मौजूद है कि तू चाहे वह गलती छोड़ सकता है। तू सच्ची और अच्छी बात पकड़े तो बहुत आगे जा सकता है।"
मेरे पास ऐसे कई खतरनाक लोगों को लेकर उनके परिवार के लोग आ जाते हैं किः 'बाबाजी ! इसने ऐसा-ऐसा कर दिया।"
आपने देखा होगा हमारे आश्रम में पीले कपड़े में घूमने वाले लड़के, सुरेश को। उसकी माँ मेरे पास आयी और बोलीः "बाबा जी ! यह लड़का घर में चोरी करता है और बरतन बेचकर उन पैसों से फिल्में देख डालता है व सिगरेट पी जाता है। माँ के कपड़े बेचकर जुआ खेल लेता है। अभी तो 14-15 साल की उम्र है और सब काम कर चुका है। साँईं ! इसे ले जाओ, मेरी मुसीबत हटाओ।"
मैंने कहाः "चल बेटा !" .....और अभी वह लड़का सत्संग करता है और हजारों लोग सुनते हैं। विद्यार्थी शिविर चलाता है, हजार-हजार बच्चे ध्यान शिविर में उससे ज्ञान पाते हैं क्योंकि सब जगह हम नहीं पहुँच पाते इसलिए अनेक स्थानों पर आश्रम के साधकों को भेजते रहते हैं। अभी लाखों लोग उन्हें 'सुरेश बाप' व 'स्वामी सुरेशानंद' के नाम से जानते हैं।
.....तो मानना पड़ेगा कि जैसे धरती में मिर्च, इमली और नींबू का रस है, गन्ने, पपीते और अन्यान्य खट्टे-मीठे-कड़वे फलों का रस इसी धरती में है वैसे ही जहाँ बुराइयाँ हैं, उसकी गहराई में भलाइयाँ भी पड़ी हैं। तुम जैसे संस्कार डालते हो वैसे पनप आते हैं। अतः आप जरूर कृपा करना-अपने ऊपर, अपने कुटुम्बियों पर तथा मुझ पर भी।
"महाराज ! आप पर क्यों कृपा करें ?"
अरे भैया ! मेरी बात मान ली तो तुमने मुझ पर कृपा ही तो की है। आपका भला हो गया तो आपने मुझ पर कृपा कर ली है।
मैंने अपने गुरू को वचन दिया था कि आपका जो खजाना है, उसे मैं बाँटूँगा.... बाँटूँगा। मेरे गुरू को दिये हुए वचन के काम में आप भी लग गये।
एक सौ आठ आदमियों को तो रब का दर्शन गुरूजी की तरफ से कराना है और बाकी के लोगों को हमारी तरफ से होंगे। यूँ तो कइयों को हो गये, हो रहे हैं और होंगे।
गुरू की कृपा जब मुझ पर बरसी थी और ढाई दिन की समाधि के बाद, इस लाबयान, लाजवाब ईश्वरीय मस्ती के बाद, जब मैं उठा और गुरू जी से पूछा कि गुरू जी ! आपकी सेवा में, दक्षिणा में क्या अर्पण करूँ ? आप आज्ञा कीजिये।"
गुरूजी ने पूछाः "दक्षिणा देगा ?"
मैंने कहाः "हाँ।"
गुरूजी बोलेः "बस, आप तर जा, दूसरों को तारने लग जा। यही दक्षिणा है।"
महापुरूषों को क्या....?
संत सुखी परहित दरसी।
आहार हक का हो, सात्त्विक हो। पसीने का हो, लेकिन उसमें अंडा, शराब-कबाब हो तो वह ठीक नहीं। शुद्ध हो, हक का हो और बनाने वाले का विचार भी अच्छा हो तो अति उत्तम है। बनाने के बर्तन भी सात्त्विक हो। ऐसा आहार सात्त्विक होता है।
दूसरी बातः कर्म पवित्र हो। चोरी, डाका, हिंसा, घृणा से रहित कर्म जीवन की सर्वांगीण उन्नति में सहायक होते हैं।
तीसरी बातः पवित्र वचन हों। वाणी में मधुरता हो। जो जानते हो वही बोलो लेकिन सच्चा बोलो।
एक राजनेता था। उसने अपने छोटे बेटे को कहाः "अमुक-अमुक आदमी आ रहे हैं, वे पूछे कि कहाँ हैं साहब ? तो कह देना कि घर पर नहीं हैं। मैं तलधर में जाता हूँ। उनको बोलना कि पापा घर पर नहीं है।"
वे आदमी आये और बच्चे से पिता के बारे में पूछा तो वह बोलाः "पापा ने कहा है कि मैं तलघर में चला जाता हूँ। वे आदमी पूछें कि 'पापा कहाँ हैं' तो बोल देनाः पापा नहीं है।"
कितना निर्दोष बालक ! वह कितना खुश रहता है सच बोलकर ! बेईमान का हृदय खुश नहीं रहता। ऐसे बेईमानीयुक्त वचन बोलकर फिर ध्यान में बैठोगे तो जल्दी खुशी नहीं आएगी, जल्दी ध्यान नहीं लगेगा। फिर चाहे दोनों हाथ उठाकर दूसरों को आशीर्वाद देते फिरो लेकिन हृदय की खुशी की बात ही निराली है।
'अला बाँधूं.... बला बाँधूं.... भूत बाँधूं..... प्रेत बाँधूं.... डाकिनी बाँधूं..... शाकिनी बाँधूं......' ये सब तू बाँध। मना नहीं है..... लेकिन पहले अपने मन को तो बाँध, भैया ! अन्यथा तो कुछ नहीं होगा। मन अगर बँधा नहीं तो मोर के पंख कमबख्त क्या कर लेंगे और अगर मन बँधा है तो पानी के छींटे मार दे तो भी काम हो जाएगा। तेरा संकल्प बढ़िया होना चाहिए।
दिलरूबा की सुनाऊँ, सुनने वाला कौन है ?
जाम-ए-हक भर-भर पिलाऊँ, पीनेवाला कौन है ?
चाहे ईसा हो, मूसा हो, श्रीकृष्ण हों, राम हों, बुद्ध हों, महावीर हों, एकनाथ जी हो, संत ज्ञानेश्वर हों, तुकाराम महाराज हों चाहे मेवाड़ की मीरा हो.... जिन जिन पुरूषों ने अपना चित्त द्वेषरहित बनाया है, जिन्होंने अपने चित्त को चैतन्य के प्रसाद से सजाया है, वे स्वयं तो तर गये, उनके संग में आने वाले भी तर गये। वे तो निहाल हो गये, उनका दीदार करने वाले और उनके पद सुनने वाले भी सन्तुष्ट हो गये।