पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, August 29, 2010


श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पुस्तक से - Shri Krishna Janmashtami pustak se

(श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी के पावन पर्व पर सूरत (गुज.) के आश्रम में साधना शिविर में मध्यान्ह संध्या के समय आश्रम का विराट पंडाल सूरत की धर्मपरायण जनता और देश-विदेश से आये हुए भक्तों से खचा-खच भरा हुआ है। दांडीराम उत्सव किये गये। श्रीकृष्ण की बंसी बजायी गयी। मटकी फोड़ कार्यक्रम की तैयारियाँ पूर्ण हो गयी। सब आतुर आँखों से परम पूज्य बापू का इन्तजार कर रहे हैं। ठीक पौने बारह बजे पूज्य बापू पधारे और उल्लास, उत्साह और आनंद की तरंगे पूरे पंडाल में छा गईं। पूज्यश्री ने अपनी मनोहारिणी, प्रेम छलकाती, मंगलवाणी में श्रीकृष्ण-तत्त्व का अवतार-रहस्य प्रकट किया.....)
जन्माष्टमी तुम्हारा आत्मिक सुख जगाने का, तुम्हारा आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। तुम्हारा सुषुप्त प्रेम जगाने की दिव्य रात्रि है।
हे श्रीकृष्ण ! शायद आप सच्चे व्यक्तियों की कीर्ति, शौर्य और हिम्मत बढ़ान व मार्गदर्शन करने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जैसे, मलयाचल में चंदन के वृक्ष अपनी सुगंध फैलाते हैं, वैसे ही सोलह कला-संपन्न अवतार से आप यदुवंश की शोभा और आभा बढ़ाने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ लोग यूँ ही कहते हैं कि वसुदेव और देवकी की तपस्या से प्रसन्न होकर देवद्रोही दानवों के जुल्म दूर करने, भक्तों की भावना को तृप्त करने के लिए वसुदेव जी के यहाँ ईश्वर निर्गुण निराकार, सगुण साकार होकर अवतरित हुए। लीला और लटकों के भूखे ग्वाल-गोपियों को प्रसन्न करके आनंद का दान करने के लिए आप अवतरित हुए हैं। कुछ लोग यूँ भी कहते हैं कि पृथ्वी जब पापियों के भार से डूबी जा रही थी जैसे, नाव सामर्थ्य से अधिक वजन लेकर चलने से डूब जाती है, ऐसे ही पृथ्वी ने पापियों के पाप प्रभाव से दुःखी हो ब्रह्माजी की शरण ली और ब्रह्माजी ने आप की शरण ली। तब हे अनादि ! अच्युत ! हे अनंत कलाओं के भंडार ! सोलह कलाओं सहित आप पृथ्वी पर प्रकट हुए। पृथ्वी का भार उतारने के लिए, शिशुपाल, कंस, शकुनि, दुर्योधन जैसे दुर्जनों की समाजशोषक वृत्तियों को ठीक करने के लिए, उनको अपने कर्मों का फल चखाने के लिए और भक्तों की सच्चाई और स्नेह का फल देने के लिए हे अच्युत ! हे अनादि ! आप साकार अवतार लेकर प्रकट हुए। कुंता जी कहती हैं-
"हे भगवान ! संसार के कुचक्र में बारम्बार जन्म, मृत्यु और वासना के वेग में बह जाने वाले जीवों को निर्वासनिक तत्त्व का प्रसाद दिलाने के लिए लीला-माधुर्य, रूप-माधुर्य और उपदेश-माधुर्य से जीव का अपना निज स्वरूप जो कि परम मधुर है, सुख स्वरूप है उस सुख स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए, आत्म-प्रसाद देने के लिए और कामनाओं के कुचक्र से संसार समुद्र में बह जाने वाले जीवों को तारने के लिए आपका अवतार हुआ है।"
अवतार किसको कहते हैं ?
'अवतरति इति अवतारः।'
जो ऊपर से नीचे आये उसे अवतार कहते हैं। जिसे कोई अपेक्षा नहीं और हजारों अपेक्षावाला दिखे, जिसे कोई कर्त्तव्य नहीं फिर भी भागा-भागा जाये। जीव भागे-भागे जा रहे हैं कर्म के बंधन से और ईश्वर जब भागा-भागा जाये तो कर्म का बन्धन नहीं, ईश्वर की करूणा है। जीव कर्मों के बन्धन से, माया के वशीभूत होकर संसार में आता है, उसको जन्म कहते हैं। ईश्वर कर्मबन्धन से नहीं, माया के वश नहीं अपितु माया को वश करता हुआ संसार में जीवों की नाईं ही आता है, जीता है, मक्खन माँगता है, उसे भूख भी लगती है, वस्त्र भी चाहिए और घोड़ा भी चाहिए। माँ यशोदा का प्यार भी चाहिए और समाज के रीति रिवाज के अनुसार चलना भी चाहिए। ये सब 'चाहिए..... चाहिए' अपने सिर पर लादकर तो चलता है, हालाँकि उस पर कोई बंधन नहीं। फिर भी चलता है, स्वीकार कर लेता है नट की नाईं ! नट भीतर से तो सब जानता है फिर भी नाट्य नियमों के अनुसार भिखारी भी बन जाता है, राजा भी बन जाता है और प्रजा के साथ भी देखा जाता है। परंतु अंदर अपने नटत्व भाव में ज्यों का त्यों जगा रहता है। ऐसे ही जिन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान, स्वरूप का बोध ज्यों का त्यों है फिर भी साधारण जीवों के बीच, उन की उन्नति, जागृति करने के लिए जो अवतार हैं वे अवतार कृष्णावतार, रामावतार रूप से जाने जाते हैं।
तपती दुपहरी में जो अवतार हुआ, अशांत जीवों में शांति और मर्यादा की स्थापना करने के लिए जो अवतार हुआ उसे 'रामावतार' कहते हैं। समाज में जब शोषक लोग बढ़ गये, दीन-दुखियों को सताने वाले व चाणूर और मुष्टिक जैसे पहलवानों और दुर्जनों का पोषण करने वाले क्रूर राजा बढ़ गये, समाज त्राहिमाम पुकार उठा, सर्वत्र भय व आशंका का घोर अंधकार छा गया तब भाद्रपद मास (गुजरात-महाराष्ट्र में श्रावण मास) में कृष्ण पक्ष की उस अंधकारमयी अष्टमी को कृष्णावतार हुआ। जिस दिन वह निर्गुण, निराकार, अच्युत, माया को वश करने वाले जीवमात्र के परम सुहृद प्रकट हुए वह आज का पावन दिन जन्माष्टमी कहलाता है। उसकी आप सब को बधाई हो....
आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, प्रेरक अवतार, अंतर्यामी अवतार, साक्षी अवतार..... ऐसे अनेक स्थानों पर अनेक बार भगवान के अवतार हुए हैं। एक अवतार अर्चना अवतार भी होता है। मूर्ति में भगवान की भावना करते हैं, पूजा की जाती है, वहाँ भगवान अपनी चेतना का अवतार प्रकट कर सकते हैं। श्रीनाथजी की मूर्ति के आगे वल्लभाचार्य दूध धरते हैं और वल्लभाचार्य के हाथ से भगवान दूध लेकर पीते हैं। नरो नामक आहीर की लड़की से भगवान ने अपने हाथों से दूध का प्याला ले लिया था।
धन्ना जाट के आगे भगवान पत्थर की मूर्ति में से प्रकट हुए। यह आविर्भाव अवतार था। भगवान कभी भी, किसी भी व्यक्ति के आगे, किसी भी अन्तःकरण में, किसी भी मूर्ति में, किसी भी जगह पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देकर उन्हें नित्यतत्त्व में ले जाने के लिए सर्वसमर्थ हैं। उनकी लीला अनादि है। जो अनंत, अनादि हैं वे सान्त व साकार होकर आते हैं और अलौकिक लीलाएँ करते हैं।
अवतार जैसे-तैसे, जहाँ तहाँ प्रकट नहीं हो जाया करते। उनके पीछे बहुत कुछ परिश्रम व संकल्प होते हैं। असंख्य लोगों के अस्पष्ट और अनिर्णित पुरूषार्थ को सही दिशा देने के लिए जो महापुरूष या ईश्वरीय चेतना प्रकट होती है उसे हम अवतार कहकर पूजते हैं। जितना ज्यादा स्पष्ट पुरूषार्थ उतना ही महान अवतार प्रकट होता है।
रामजी को प्रकट करने वाले दशरथ और कौशल्या ही नहीं अपितु और भी कई पुण्यात्माओं के संकल्प थे। बंदर और हनुमानजी आदि की माँग थी। भक्तों को स्पष्ट जीवन का मार्गदर्शन सुझाने की जब अत्यंत जरूरत पड़ी तब 'रामावतार' हुआ। अवतार होने से पहले बहुत व्यवस्था होती है। अथाह पुरूषार्थ, अटल श्रद्धा, सतत प्रयास होत हैं और अपने पुरूषार्थ के बल पर नहीं, 'निर्बल के बल राम' ऐसा जब साधक के, समाज के चित्त में आ जाता है तब परमात्मा अपनी करूणामयी वृत्ति से, भावना से और स्वभाव से अवतरित होकर भक्तों को मार्गदर्शन देते हैं। समाज को उन्नत करने में अंगुलीनिर्देश करते है। श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने के विषय में विद्वानों का मानना है कि जुल्मी राजाओं का जुल्म और समाज-शोषकों की अति भोग-लोलुपता इतनी बढ़ गयी, समाज का शोषण इतना बढ़ गया कि श्रीकृष्ण को अंगुलीनिर्देश करना पड़ा कि इन्द्र की पूजा कब तक करोगे ? अहंकारी और शोषण करने वाले, जो तुम से तुम्हारा धन-धान्य लिये जा रहे है, तुम्हारे जीवन के उत्कर्ष का ख्याल नहीं करते, तुम्हें जीवनदाता से मिलाने का पुरूषार्थ नहीं करते ऐसे कंस आदि लोगों से कब तक डरते रहोगे ? अपने में साहस भरो और क्रांति लाओ। क्रांति के बाद शांति आयेगी। बिना क्रांति के शांति नहीं।
जर्मनी में युद्ध हुआ, फिर जर्मनी में हिम्मत आयी। जापानी भी युद्ध में नष्ट-भ्रष्ट हो गये, फिर उनमें नवजीवन की चेतना जागी और साहस आया। युद्ध और संघर्ष भी कभी-कभी सुषुप्त चेतना को जगाने का काम करते हैं। आलस्य और प्रमाद से तो युद्ध अच्छा है।
युद्ध करना तो रजोगुण है। ऐसे ही पड़े रहना तमोगुण है। तमोगुण से रजोगुण में आयें और रजोगुण के बाद सत्त्वगुण में पहुँचें और सत्त्वगुणी आदमी गुणातीत हो जाये। प्रकृति में युद्ध की व्यवस्था भी है, प्रेम की व्यवस्था भी है और साहस की व्यवस्था भी है। आपका सर्वांगीण विकास हो इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा दुर्बलताओं से युद्ध करो। अपने चैतन्य आत्मा को परमात्मा से एकाकार कर दो।
यह कौन सा उकदा जो हो नहीं सकता।
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता
छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे।
इन्सान क्या अपने दिले-दिलबर में घर न करे ?
भागवत में, गीता में, शास्त्रों में सच्चाई से भक्ति करने वाले भक्तों का, योगसाधना करके योगसिद्धि पाने वाले योगियों का और आत्मविचार करके आत्मसिद्धि को पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं का वर्णन तो मिलता है किंतु कलियुगी भगवानों की बात न गीता में, न भागवत में और न किन्हीं पवित्र शास्त्रों में ही है।
भभूत, कुमकुम, अंगूठी आदि वस्तुएँ निकालने वाले यक्षिणी-सिद्ध, भूतप्रेत-सिद्ध या टूणा-फूणा की सिद्धिवाले हो सकते हैं। आत्म-साक्षात्कार करके सिद्ध तत्त्व का, स्वतः सिद्ध स्वरूप का अमृतपान कराने वाले रामतीर्थ, रमण महर्षि, नानक और कबीर जैसे संत, वशिष्ठ जी और सांदिपनी जैसे महापुरूष हैं जिनका भगवान राम और श्रीकृष्ण भी शिष्यत्व स्वीकार करते हैं। अर्थात् जो भगवान के भी गुरू हैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता आत्म-सिद्धि को पाते हैं। उनकी नजरों में यक्षिणी, भूत या प्रेत की सिद्धि, हाथ में से कड़ा या कुंडल निकालने की सिद्धि नगण्य होती है। ऐसी सिद्धियोंवाले सिद्धों का गीता, भागवत या अन्य ग्रन्थों में भगवान रूप में कोई वर्णन नहीं मिलता और न ही उच्च कोटि के सिद्धों में ही उनकी गणना होती है।
स्वयंभू बने हुए भगवानों की आज से 20 साल पहले तो कुंभ में भी भीड़ लगी थी। हाँ, उन महापुरूषों में कुछ मानसिक शक्ति या फिर भूतप्रेत की सिद्धि हो सकती है। मगर भभूत, कुमकुम या कड़ा कुंडल ही जीवन क लक्ष्य नहीं है। आत्मशांति, परमात्म-साक्षात्कार ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को वही आत्म-साक्षात्कार की विद्या दी थी। श्रीराम ने हनुमान जी को वही विद्या दी थी। भभूत, भूत-प्रेत या यक्षिणी-सिद्धिवालों की अपेक्षा तो हनुमानजी और अर्जुन के पास ज्यादा योग्यताएँ थीं। ऐसे पुरूषों को भी आत्मज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। तो हे भोले मानव ! तू इन कलियुगी भगवानों के प्रभाव में आकर अपने मुक्तिफल का, आत्मज्ञान का और आत्म-साक्षात्कार का अनादर न कर बैठना। किसी के प्रति द्वेष रखना तो अच्छा नहीं परंतु किसी छोटे-मोटे चमत्कारों में आकर परमात्मज्ञान का रास्ता व आत्मज्ञान पाने की, सुषुप्त जीवन-शक्तियाँ जगाने की आध्यात्मिक दिशा को भूलना नहीं। श्रीकृष्ण, श्रीराम, भगवान वेदव्यास और वशिष्ठजी महाराज ने, तुलसीदास जैसे संतों ने, रामकृष्ण और रमण महर्षि जैसे आत्मसिद्धों ने जो दिशा दी है वही साधक के लिए, समाज के लिए और देश के लिए हितकर है।
जीवन में सच्ची दिशा होनी चाहिए। हम किसलिए आये हैं इसका सतत चिंतन करना चाहिए। आज के आदमी के पास कुछ स्पष्ट ध्येय नहीं है।
"पढ़ते क्यों हो ?"
"पास होने के लिये।"
"पास क्यों होना चाहते हो ?"
"नौकरी करने के लिये।"
"नौकरी क्यों करना चाहते हो ?"
"पैसे कमाने के लिये।""
"पैसे क्यों कमाना चाहते हो ?"
"खाने-पीने के लिये।"
"खाना-पीना क्यों चाहते हो ?"
"जीने के लिये।"
"और जीना क्यों चाहते हो ?"
"मरने के लिये।"
मरने के लिय इतनी मजदूरी की कोई आवश्यकता ही नहीं है। हकीकत में यह सब गहराई में सुखी होने के लिये, आनंदित होने के लिये करते हैं। अतः परमानंद को हो पाने का ध्येय होना चाहि।
कृष्ण उस पद में स्थित थे। द्वारिका डूब रही थी, कोई फिकर नहीं। छछीयनभरी छाछ के लिए नाच रहे हैं तो नाच रहे हैं, कोई परवाह नहीं। कुछ मिला तो वही मस्ती। सब छूट जाता है तो भी वही मस्ती.....
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।
मिला अगर माल तो उस माल में खुश हैं।।
हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश हैं।।
श्रीकृष्ण को नंगे पैर भागना पड़ा तो धोती के टुकड़े बाँधकर भागे जा रहे हैं। छः महीने गिरनार की गिरी-गुफाओं में साधुओं के घर प्रसाद पाकर जीना पड़ता है तो जी रहे हैं। कोई फरियाद नहीं। द्वारिकाधीश होकर सोने के महलों में रहे तो भी कोई फर्क नहीं। अपने देखते-देखते सर्वस्व डूब रहा है तब भी भीतर में वही समता। श्रीकृष्ण समझते हैं कि यह सब माया है और हम इसे सत्य समझते हैं। बारिश के दिनों में जैसे बादलों में देवताओं की बारात – सी दिखती है, वह बादलों की माया है। ऐसे संसार में जो बारात दिखती है, वह विश्वंभर की माया है। श्रीकृष्ण तुम्हें यह बताना चाहते हैं कि माया को माया समझो और चैतन्य स्वरूप को 'मैं' रूप में जान लो तो माया को भी मजा है और अपने आपको भी मजा ही मजा है।
'अवतार' कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से नहीं हो जाता। केवल आँसू बहाने से भी नहीं होता। फरियाद करने से भी नहीं होता। गिड़गिड़ाने से भी नहीं होता।
अपने जीवन रूपी गोकुल में पहले ग्वाल-गोपियाँ आते हैं और फिर कृष्ण आते हैं। राम जी आये, वह बंदरों और हनुमानजी आदि की माँग थी। ऐसे तुम्हारे हृदय में छिपे हुए राम या कृष्ण प्रकट हो उसके पहले तुम्हारे इस देहरूपी गोकुल को सँवारने के लिए ग्वाल-बाल आ जायें अर्थात् सत्कर्म और साधना आ जाये तो फिर कन्हैया और राधा अवश्य आयेंगे। राधा दस महीने पहले आती है, फिर श्रीकृष्ण आते हैं। 'राधा' - 'धारा' यानी पहले भक्ति की वृत्ति आती है, ब्रह्माकार वृत्ति आती है, बाद में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। इसलिए कहते हैं- "राधा-कृष्ण, सीता-राम।"

जन्माष्टमी पर पूज्यश्री का तात्त्विक प्रवचन
'वासुं करोति इति वासुः।' जो सब में बस रहा हो, वास कर रह हो उस सच्चिदानंद परमात्मा का नाम है 'वासुदेव'।
आज भगवान वासुदेव का प्राकट्य महोत्सव है। भगवान वासुदेव अट्ठासवीं चतुर्युगी के द्वापर युग में प्रकट हुए हैं। वे अजन्मा हैं, अच्युत हैं, अकाल हैं, काल की सीमा में नहीं आते। वे काल के भी काल हैं। अखूट ऐश्वर्य, अनुपम माधुर्य और असीम प्रेम से परिपूर्ण हैं भगवान वासुदेव। जो अवतार रहित हैं उनका अवतार किया जा रहा है, जो जन्म रहित हैं उनका जन्म मनाया जा रहा है। जो काल से परे हैं, उन्हें काल की सीमा में लाकर उत्सव मनाया जा रहा है। जो सबमें बस रहे हैं, सब जिनमें बस रहे हैं उनका जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। 'अकालमूरत' को समय में लाया जा रहा है।
जो आदमी जैसा होता है उसकी दृष्टि और चेष्टा भी वैसी ही होती है। मनुष्य काल के प्रभाव में है और जन्मता-मरता है। इसलिए उस अकाल का, अजन्मा का जन्म-महोत्सव मनाता है।
जब-जब समाज अति व्यवहारी, बाह्य स्वार्थ से आक्रांत होता है, तब-तब निष्कामता, प्रेम, माधुर्य, सौन्दर्य का स्वाद चखाने समाज की उन्नति करने के लिए जो अवतरण होता है उसमें भगवान श्रीराम मर्यादा अवतार हैं, नृसिंह आवेश अवतार हैं। द्रोपदी की साड़ी खींची जा रही थी उस समय भगवान का प्रवेश अवतार था। परंतु कृष्णावतार प्रवेश अवतार नहीं है, आवेश अवतार भी नहीं है, मर्यादा अवतार भी नहीं है। वे तो लीलावतार हैं, पूर्णावतार हैं, माधुर्य अवतार हैं, ऐश्वर्य अवतार हैं, प्रेमावतार हैं। भगवान का माधुर्य, ऐश्वर्य, प्रेमयुक्त वर्णन कृष्णावतार में ही पाया जाता है।
रामावतार में दास्य भक्ति की बात है परंतु कृष्णावतार में सख्य भक्ति की बात है। श्रीकृष्ण को या तो सखा दिखता है या वात्सल्य बरसाने वाली माँ दिखती है या अपने मित्र-प्रेमी, ग्वाल-गोपियाँ दिखते हैं। जो अकाल है उसे काल में लाकर, जो अजन्मा है उसे जन्म में लाकर, हम अपना जन्म सँवारकर, अजन्मा तत्त्व का साक्षात्कार करने को जा रहे हैं।
रोहिणी नक्षत्र में, भाद्रपद मास(गुजरात-महाराष्ट्र में श्रावण मास) के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कंस के जेल में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है। कृष्ण पक्ष है, अँधेरी रात है। अँधेरी रात को ही उस प्रकाश की आवश्यकता है।
वर्णन आया है कि जब भगवान अवतरित हुए तब जेल के दरवाजे खुल गये। पहरेदारों को नींद आ गयी। रोकने-टोकने और विघ्न डालने वाले सब निद्राधीन हो गये। जन्म हुआ है जेल में, एकान्त में, वसुदेव-देवकी के यहाँ और लालन-पालन होता है नंद-यशोदा के यहाँ। ब्रह्मसुख का प्राकट्य एक जगह पर होता है और उसका पोषण दूसरी जगह पर होता है। श्रीकृष्ण का प्राकट्य देवकी के यहाँ हुआ है परंतु पोषण यशोदा माँ के वहाँ होता है। अर्थात् जब श्रीकृष्ण-जन्म होता है, उस आत्मसुख का प्राकट्य होता है तब इन्द्रियाँ और मन ये सब सो जाने चाहिए, शांत हो जाने चाहिए। जब इन्द्रियाँ और मन ये सब सो जाने चाहिए, शांत हो जाने चाहिए। जब इन्द्रियाँ और मन शांत हो जाते हैं तब बंधन के दरवाजे खुल जाते है। 'मैं' और 'मेरे' की भावनाएँ खत्म हो जाती हैं। जब इन्द्रियाँ सतर्क होती हैं, मन चंचल होता है तब मैं और मेरा बनता है। जब इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं, मन विश्रांति पाता है, तब मैं और मेरा नहीं रहता।
भगवान का प्राकट्य हुआ है। वसुदेव भगवान को उठाकर लिये जा रहे हैं, यशोदा के घर। आनंद का प्राकट्य और आनंद के पोषण के बीच, आनंद को देखकर आनंदित होने वाली यमुना की कथा आती है। यमुना जी सोचती हैं कि वे आनंदस्वरूप अकाल पुरूष आज साकार ब्रह्म होकर आये हैं। मैं उनके चरण छूने के लिए बढ़ूँ तो सही परंतु वसुदेव जी डूब गये तो ? वसुदेव जी डूब जायेंगे तो मुझ पर कलंक लगेगा कि आनंद को उठाये लिये जाने वाले को कैसे डुबाया ? अगर ऊपर नहीं बढ़ती हूँ तो चरण-स्पर्श कैसे हो ?
यमुनाजी कभी तरंगित होती हैं तो कभी नीचे उतरती हैं। वसुदेव जी को लगता है कि अभी डूबे-अभी डूबे। परंतु यमुना जी को अपनी इज्जत का, अपने प्रेमावतार परमात्मा का भी ख्याल है। बाढ़ का पानी वसुदेव जी को डुबाने में असमर्थ है ! यह कैसा आश्चर्य है ! उसे बाढ़ का पानी कहो या यमुना जी के प्रेम की बाढ़ कहो, उसने वसुदेव जी को डुबोया नहीं, और वसुदेव के सिर पर जो आनंदकंद सच्चिदानंद है उसके चरण छुए बिना चुप भी नहीं रहती। उछलती है, फिर सँभलती है।
आनंद भी अपने जीवन में उछलता है, सँभलता है। 'मेरा तेरा' लोक-लाज डूब न जाय, इसकी भी चिंता रहती है, फिर उछलता है। जब तक साधक आनंद के चरणस्पर्श नहीं कर लेता तब तक उसकी उछलकूद चालू ही रहती है।
आनंदस्वरूप श्रीकृष्ण समझ गये कि यमुना उछलकूद मचाती है। वसुदेव को डुबाने से तो डरती है और मेरे चरण छुए बिना चुप भी नहीं रहती। तब उस नंदनंदन ने अपना पैर पसारा है, यमुना जी को आह्लाद हुआ और यमुना जी तृप्त हुई हैं।
संतों का कहना है, महापुरूषों का यह अनुभव है कि निर्विकारी समाधि में आनंद का प्राकट्य हो सकता है परंतु आनंदस्वरूप प्रभु का पोषण तो प्रेमाभक्ति के सिवाय कहीं नहीं हो सकता। योगी कहता है कि समाधि में था, बड़ा आनंद था, बड़ा सुख था, भगवन्मस्ती थी, मगर समाधि चली गयी तो अब आनंद का पोषण कैसे हो ? आनंद का पोषण बिना रस के नहीं होता।
वसुदेव-देवकी ने तो आनंद-स्वरूप श्रीकृष्ण को प्रकट किया किंतु उसका पोषण होता है नंद के घर, यशोदा के घर। वसुदेव उन्हें नंद के घर ले गये है, यशोदा सो रही है। यशोदा के पालने में कन्या का अवतरण हुआ है। जहाँ प्रेम है, विश्रांति है वहाँ शांति का प्राकट्य होता है। जहाँ समाधि है वहाँ आनंद का प्राकट्य होता है।
हमारे शास्त्रकारों ने, पुराणकारों ने और ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों ने हमारे चित्त की बड़ी सँभाल की रखी है। किसी एक आकृति, मूर्ति या फोटो में कहीं रूक न जाये। भगवान की मूर्ति में देखते-देखते अमूर्त आत्मा-परमात्मा तक पहुँचे, ऐसी व्यवस्था है कदम-कदम पर हमारे धर्म में।
वसुदेव जी आनंदकंद कृष्ण कन्हैया को यशोदा के पास छोड़ते हैं और शक्ति स्वरूपा कन्या को ले आते हैं। उसे जेल में देवकी के पास रख देते हैं। कंस आता है। कंस यानी अहंकार। अहंकार देखता है कि यह तो बालक नहीं बालिका है। फिर भी इन्हीं की है, कैसे जीवित रखूँ ? कंस उस बालिका को मारता है। वह कन्या कंस के हाथों से छटक जाती है अर्थात् अहंकारी के पास शक्ति आती है तो उसके पास टिकती नहीं। उसका मनमाना काम करती नहीं। अहंकारी की शक्ति छटक जाती है।
'मैं' बना रहा, अहंकार बना रहा तो शक्ति आयेगी मगर टिकेगी नहीं। भक्ति हाथ से छिटक जायेगी। इसलिए हे साधक ! धन का अहंकार आये तो सावधान रहना। तेरे से बड़े-बड़े सत्ताधीश इस जहाँ से खाली हाथ गये। सौंदर्य का अहंकार आये तब भी सावधान रहना। अहंकार तुम्हें वसुदेव से दूर कर देगा, आत्मा-परमात्मा से दूर कर देगा।

Friday, August 20, 2010


यौवन सुरक्षा-2  पुस्तक से - Yovan Suraksha-2 pustak se


यौवन का मूलः संयम-सदाचार

महर्षि सनत्सुजात ने महाराज धृतराष्ट के समक्ष ब्रह्मचर्य के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा हैः

नैतद् ब्रह्म त्वरमाणेन लभ्यं। यन्मां पृच्छन्नतिहृष्यतीयं।

बुद्धौ विलीने मनसि प्रचिन्त्या। विद्या हि सा ब्रह्मचर्येण लभ्या।।

'राजन् ! आपने मुझसे जो ब्रह्मविद्या के विषय में पूछा, वह त्वरायुक्त मानव को लभ्य नहीं है। मन प्रलीन होने पर बुद्धि में वह विद्या अवभासित होती है। ब्रह्मचर्य से ही उसको प्राप्त करना संभव है।'

(महाभारत, उद्योग पर्वः 44,2)

जीवन में पूर्ण सफल वही होता है, पूर्ण जीवन वही जीता है, पूर्ण परमेश्वर को वही पाता है जो संयमी है, सदाचारी है और ब्रह्मचर्य का पालन करता है।

जिसके जीवन में संयम है, सदाचार है और यौवन-सुरक्षा के नियमों का पालन है वह विद्यार्थी जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो सकता है, बड़े-बड़े कार्य उसके द्वारा संपन्न हो सकते है। ब्रह्मचर्य शरीर का सम्राट है। ब्रह्मचर्य से बुद्धि, तेज और बल बढ़ता है। ब्रह्मचर्य से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। ब्रह्मचर्य जीवनदाता से मुलाकात कराने में सहायक होता है।

.....किन्तु आज के वातावरण में ब्रह्मचर्य का पालन कठिन होता जा रहा है। चारों ओर ब्रह्मचर्य का नाश करने के साधन सुलभ हैं। जीवन को तेजोहीन करने की सामग्रियाँ खुलेआम मिलती हैं। लोग अश्लील नॉवेल (उपन्यास) पढ़ते है, अश्लील गीत सुनते है, चलचित्र देखते हैं, व्यसन करते हैं। इससे युवक के बल, बुद्धि, ओज-तेज और आयु का शीघ्र नाश हो जाता है और वह असमय ही वृद्धत्व का शिकार हो जाता है।

कुछ वर्षों पूर्व 'एक दूजे के लिए' इस नाम का एक सिनेमा देखकर कई युवक और युवतियों ने आत्महत्या कर ली। हालाँकि वह सिनेमा था, वास्तविकता नहीं थी। सिनेमा के नायक सचमुच में ऐसा नहीं करते, केवल अभिनय करके दिखाते हैं। फिर भी पढ़े लिखे कितने ही लोग आत्महत्या के शिकार हो गये। यह कैसी बेवकूफी है !

अश्लील उपन्यास, सिनेमा, गीत आदि मन को मलिन कर देते हैं। इसके फलस्वरूप तन भी कमजोर हो जाता है। कमजोर और दुर्बल पेट चाय-कॉफी पीने से वीर्य पतला होता है, स्नायु दुर्बल होते हैं एवं बुद्धिशक्ति कमजोर होती है। अतः इनसे भी बचना चाहिए। शराब, तम्बाकू आदि व्यसन भी जीवनशक्ति को कमजोर करके इन्सान को रोगी बना देते हैं। जो व्यक्ति सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोता रहता है उसका भी ओज-तेज नष्ट हो जाता है।

हम लोग जब नीचे के केन्द्रों में अथवा विकारों में जीते हैं, मांस-मदिरा का सेवन करते हैं अथवा कोई हल्के काम करते हैं तो उस वक्त पता नहीं चलता, सब सुखद लगता है किन्तु उसका परिणाम बड़ा दुःखद होता है।

हल्के काम-धन्धे से, हलके वातावरण से, हल्का साहित्य पढ़ने से, हलके सिनेमा देखने से, हलके खान-पान से आदमी का पतन हो जाता है, ब्रह्मचर्य खंडित हो जाता है तो अच्छे कार्यों से, अच्छा साहित्य पढ़ने से, अच्छे विकार से, अच्छे एवं सात्त्विक खान-पान से आदमी का उत्थान भी तो हो सकता है। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठने से, प्रतिदिन दस-बारह सूर्य नमस्कार व प्राणायाम करने से, प्रातःकाल की शुद्ध हवा लेने से, आसन करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।

चाय-कॉफी की जगह ऋतु के अनुकूल फलों का सेवन अच्छा स्वास्थ्य लाभ तो देता ही है, शरीर को पुष्ट भी करता है।

सात्त्विकि एवं अल्प आहार भी ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायक है। कम खाने का मतलब यह नहीं कि तुम 200 ग्राम खाते हो तो 150 ग्राम खाओ। नहीं, यदि तुम एक किलो पचा सकते हो और विकार उत्पन्न नहीं होता तो 190 ग्राम खाओ। किन्तु तुम पचा सकते हो 200 ग्राम, तो 210 ग्राम मत खाओ। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायता मिलती है और ब्रह्मचर्य की रक्षा होने से व्यक्ति में सामर्थ्य एवं सब सदगुण सहज विकसित होते हैं। जहाँ चाह वहाँ राह।

जहाँ मन की गहरी चाह होती है, आदमी वहीं पहुँच जाता है। अच्छे कर्म, अच्छा संग करने से हमारे अंदर अच्छे विचार पैदा होते हैं, हमारे जीवन की अच्छी यात्रा होती है और बुरे कर्म, बुरा संग करने से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं एवं जीवन अधोगति की ओर चला जाता है।

हर महान कार्य कठिन है और हलका कार्य सरल। उत्थान कठिन है और पतन सरल। पहाड़ी पर चढ़ने में परिश्रम होता है, पर उतरने में परिश्रम नहीं होता। पतन के समय जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ता है लेकिन परिणाम दुःखद होता है.... सर्वनाश.... उत्थान के समय आराम नहीं होता, परिश्रम लगता है लेकिन परिणाम सुखद होता है। कोई कहे किः 'इस जमाने में बचना मुश्किल है.... कठिन है....' लेकिन 'कठिन है....' ऐसा समझकर अपनी शक्ति को नष्ट करना यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? गयी सो गयी, राख रही को....

मन का स्वभाव है नीचे के केन्द्रों में जाना। आदमी विकारों में गिर जाता है फिर भी यदि उसमें प्रबल पुरुषार्थ हो तो वह ऊपर उठ सकता है। इस जमाने में भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने संयम किया है और संयम से बलवान हुए हैं।

पुरुषार्थ से सब संभव है लेकिन 'कठिन है.... कठिन है....' ऐसा करके कठिनता को मानसिक सहमति दे देते हैं तो हमारे जीवन में कोई प्रगति नहीं होती है। ध्रुव ने यदि सोचा होता कि 'प्रभु प्राप्ति कठिन है...' तो ध्रुव को प्रभु नहीं मिलते। प्रह्लाद ने यदि सोचा होता कि 'भगवद्-दर्शन कठिन है....' तो उसके लिए भगवद्-प्राप्ति कठिन हो जाती।

हम किसी कार्य को जितना 'कठिन है.... कठिन है.....' ऐसा समझते हैं, वह कार्य उतना ही कठिन हो जाता है लेकिन हम कठिन को न समझकर पुरुषार्थ करते हैं तो सफल भी हो सकते हैं। प्रयत्नशील आदमी हजार बार असफल होने पर भी अपना प्रयत्न चालू रखता है तो भगवान उसको अवश्य मदद करते हैं। हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा।

नष्ट-भ्रष्ट निस्तेज जीवन की कगार पर पहुँचे हुए कई युवक-युवतियों को किन्हीं पुण्यात्मा साधकों के द्वारा आश्रम से प्रकाशित 'यौवन सुरक्षा', 'पुरुषार्थ परम देव', 'योगयात्रा' पुस्तकें पढ़ने को मिलीं तो उनका जीवन बदल गया। ऐसे कई युवक-युवतियाँ हैं। दिल्ली के शेखरभाई, राजूभाई को तो लाखों लोग जानते हैं। 'यौवन सुरक्षा' पुस्तक ने उनका जीवन बदल दिया। युवाधन को बनाने के लिए, देश के भावी नागरिकों को तेजस्वी बनाने के लिए आश्रम से जुड़े हुए सभी पुण्यातमा अपने-अपने इलाकों में व्यक्तिगत रूप से युवक-युवतियों को 'यौवन सुरक्षा' पुस्तर पाँच बार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। यह छोटा-सा दिखने वाला काम अपने-आपमें एक बहुत बड़ा पुण्यकार्य है। एक युवक या युवती की जिन्दगी चमकी तो पूरा परिवार और पड़ोस भी लाभान्वित होगा।

हे विद्यार्थी ! ईश्वर की असीम शक्ति तेरे साथ जुड़ी है। तू कभी अपने को अकेला मत समझना। तेरे दिल में दिलबर और गुरु का ज्ञान दोनों साथ हैं। परमात्मतत्त्व और गुरुतत्त्व की चेतना इन दोनों का सहयोग लेते हुए, विकारों एवं नकारात्मक चिंतन को कुचलते हुए स्नेह और साहस से आगे बढ़ते जाना।

जो महान बनने वाले पवित्र विद्यार्थी हैं वे कभी नकारात्मक, फरियादात्मक चिंतन नहीं करते। जो महान बनना चाहते हैं वे कभी दुश्चरित्रवान व्यक्तियों का अनुकरण नहीं करते। जो महान बनना चाहते हैं वे कभी हलके कार्यों में लिप्त नहीं होते। ऐसे मुट्ठीभर दृढ़ संकल्पबलवाले व्यक्तियों का ही तो इतिहास गुणगान करता है।

हे विद्यार्थी ! तू दृढ़ संकल्प कर किः 'एक सप्ताह के लिए व्यर्थ का इधर-उधर समय नहीं गँवाऊँगा।' अगर युवक है तो संकल्प करे किः 'किसी भी युवती की तरफ विकारी भाव से निगाह नहीं उठाऊँगा।' अगर युवती है तो संकल्प करे किः 'किसी भी युवक की तरफ विकारी भाव से निगाह नहीं उठाऊँगी।' अगर देखना ही पड़े या बात करनी ही पड़े तो संयम को, पवित्रता को, गुरु को या भगवान को सर्वत्र उपस्थित समझकर फिर बात करो। हे विद्यार्थी ! तेरे जीवन के इस ओज को तू अभी से सुरक्षित कर दे। हे वत्स !

जैसे बीज में वृक्ष छुप, अरु चकमक में आग।

तेरा प्रभु तुझमें है, जाग सके तो जाग।।

जो विद्यार्थी प्रतिदिन भगवान का ध्यान करता है उसकी बुद्धि जरूर तेजस्वी होती है। जो विद्यार्थी प्रतिदिन मौन रहने का अभ्यास करता है उसका मनोबल बढ़ता है। जो विद्यार्थी आहार-विहार का ध्यान रखता है उसका तन तंदुरुस्त रहता है। जो विद्यार्थी माता-पिता और गुरुजनों की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है वह विद्यार्थी आगे चलकर एक श्रेष्ठ मनुष्य, एक श्रेष्ठ नागरिक और एक श्रेष्ठ साधक होकर अपने साध्य को भी पा लेता है।

आयुर्वेद के निष्णात वैद्यशिरोमणि धन्वन्तरि महाराज के शिष्यों ने उनसे पूछाः ''हे गुरुदेव ! आपकी शिक्षा, आपके उपदेश एवं आपके दिव्य गुणों को हम अपने जीवन में आसानी से कैसे उतारें ? इसका कोई सरल, सचोट एवं सुगम उपाय बताने की कृपा करें।"

धन्वन्तरिः "हे मेरे प्यारे शिष्यो ! सारी विद्याओं, सारी योग्यताओं एवं सारे सदगुणों को प्रगटाने वाला, सींचने वाला और बढ़ाने वाला गुण है ब्रह्मचर्य। तुम ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा जितनी समझोगे, तुम जितना सदाचारी और दिखावारहित सेवाभावी जीवन बिताने का दृढ़ संकल्प करोगे उतनी ही तुम्हारी आत्मशक्ति विकसित होगी।

ब्रह्मचर्य वत वह रत्न है, वह अमृत की खान है जो जीवात्मा को परमात्मा से मिला देती है। यदि तुम यौवन-सुरक्षा के नियमों को समझकर उसका पालन करोगे तो तुम आयुर्वेद में तो सफल होंगे ही, आत्मा-परमात्मा को पाने में भी सफल हो जाओगे।"

हे मेरे विद्यार्थियो ! तुम भी हलके विद्यार्थियों का अनुकरण मत करना वरन् तुम तो संयमी-सदाचारी महापुरुषों के जीवन का अनुकरण करना। उनके जीवन में कितनी विघ्न-बाधाएँ आयीं फिर भी वे लगे रहे। मीरा के जीवन में कितनी विघ्न-बाधाएँ आयीं फिर भी मीरा लगी रही। ध्रुव-प्रह्लाद के जीवन कितना प्रलोभन और बाधाएँ आयी, फिर भी वे लगे रहे। तुम भी उन्हीं का अनुकरण करना। हजार-हजार विघ्न-बाधाएँ आ जायें फिर भी जो संयम का, सदाचार का, सेवा का, ध्यान का, भगवान की भक्ति का रास्ता नहीं छोड़ता वह जीते जी मुक्तात्मा, महान आत्मा, परमात्मा के ज्ञान से संपन्न सिद्धात्मा जरूर हो जाता है और अपने कुल-खानदान का भी कल्याण कर लेता है। तुम ऐसे कुल दीपक बनना। हरि ॐ...... ॐ.... ॐ..... ॐ.....बल हिम्मत..... दृढ़ संकल्पशक्ति का विकास.... पवित्र आत्मशक्ति का विकास.... ॐ.....ॐ....

बाहर का जीवन भले सीधा-सादा हो लेकिन जिसने यौवनकाल में अपने यौवन की सुरक्षा की है वह चाहे जो भी संकल्प करे और उसमें लगा रहे तो देर-सबेर वह समता के सिंहासन पर पहुँच जाता है और अपने परमात्मप्राप्तिरूप लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है। वह चाहे तो अविनाशी पद को पाकर मुक्त भी हो सकता है। फिर तो जिस पर उसकी नजर पड़ेगी, वह भी धर्मात्मा होकर अपने कुल का उद्धार कर सकता है, इतना वह महान हो सकता है। नेपोलियन, सीजर और सिकंदर से भी तुम हजारगुना आगे जा सकते हो, ऐसा आत्मा-परमात्मा का बल तुम में छुपा हुआ है वत्स !

धन्वन्तरि महाराज ने अपने शिष्यों से कहाः "हे वत्सो ! तुमको जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होना हो तो उसके दो सूत्र हैं- यौवन-सुरक्षा और सदाचार।" ये दो ऐसे हथियार हैं जो हर क्षेत्र में विजय दिलवा देंगे। अगर इन दोनों चीजों से गिरे तो फिर चाहे तुम्हारे पास कितनी भी संपत्ति हो, कितने भी प्रमाण-पत्र हों फिर भी एक मजदूर की नाईं जीवन की गाड़ी घसीटते-घसीटते मर जाओगे।

अतः आज तक जो हो गया सो हो गया, जो बीत गया सो बीत गया... आज के बाद दृढ़ संकल्प करो कि 'यौवन सुरक्षा' और पुरुषार्थ परमदेव पुस्तक केक दो पृष्ठ रोज पढ़ेंगे। फिर देखो, तुम्हारा जीवन कितना महान हो जाता है ! जैसे, पक्षी दो पंखों से उड़ान भरता है, मनुष्य दो पैरों से चलता है, वैसे ही तुम भी संयम और सदाचार इन दो पंखों से उड़ान भरकर अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो जाओगे।

स्वप्न में भी यदि बुरे विचार आ जायें तो 'हरि ॐ.... ॐ..... ॐ..... ' की गदा मारकर उन्हें भगा देना। मैं भगवान का हूँ..... भगवान मेरे हैं.... मेरे साथ परमेश्वर हैं.... मेरे साथ गुरुदेव की कृपा है....' ऐसा विचार करोगे तो बड़ी मदद मिलेगी। गुरु का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन पाकर विषय-विकारों से, विघ्न-बाधाओं से छुटकारा पा सकते हो।

शाबाश वीर ! शाबाश.... उठो। हिम्मत करो। हताशा-निराशा को परे फेंको। असंभव कुछ नहीं। सब संभव है।

वह कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता ? तेरा जी न चाहेत तो हो नहीं सकता।।

छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे। इन्सान क्या दिले-दिलबर में घर न करे ?

परमात्मा तुम्हारे साथ है, परमात्मा की शक्ति तुम्हारे साथ है, सदगुरु की कृपा तुम्हारे साथ है फिर किस बात का भय ? कैसी निराशा ? कैसी हताशा ? कैसी मुश्किल ? मुश्कि हो जाये ऐसा खजाना तुम्हारे पास है। संयम और सदाचार.... ये दो सूत्र अपना लो, बस !

ब्रह्मचर्य का अर्थ

ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों पर काबू पाना। ब्रह्मचर्य में दो बातें होती हैं- ध्येय उत्तम होना, इन्द्रियों और मन पर अपना नियंत्रण होना।

ब्रह्मचर्य में मूल बात यह है कि मन और इन्द्रियों को उचित दिशा में ले जाना है। ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है। वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन का आधार है। आज तो आध्यात्मिक जीवन गिर गया है, उसकी स्थापना करनी है। उसमें ब्रह्मचर्य एक बहुत बड़ा विचार है। अगर ठीक ढंग सोचें तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के लिए ही है। शास्त्रकारों के बताये अनुसार ही अगर वर्तन किया जाय तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य की साधना का एक प्रकार हो जाता है।

पृथ्वी को पाप का भार होता है, संख्या का नहीं। संतान पाप से बढ़ सकती है, पुण्य से भी बढ़ सकती है। संतान पाप से घट सकती है, पुण्य से भी घट सकती है। पुण्यमार्ग से संतान बढ़ेगी या संतान घटेगी तो नुकसान नहीं होगा। पापमार्ग से संतान बढ़ेगी तो पृथ्वी पर भार होगा और पापमार्ग से संतान घटेगी तो नुक्सान होगा। यह संतान-निरोध के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन से सिर्फ संतान ही नहीं रुकेगी, बुद्धिमत्ता भी रूकेगी। यह जो सर्जनशक्ति (Creative Energy) है, जिसे हम 'वीर्य' कहते हैं, मनुष्य उस निर्माणशक्ति का दुरुपयोग करता है। उस शक्ति का दूसरी तरफ जो उपयोग हो सकता था, उसे विषय-उपभोग में लगा दिया। विषय-वासना पर जो अंकुश रहता था, वह नहीं रहा। संतान उत्पन्न न हो, ऐसी व्यवस्था करके पति पत्नी विषय-वासना में व्यस्त रहेंगे, तो उनके दिमाग का कोई संतुलन नहीं रहता। ऐसी हालत में देश तेजोहीन बनेगा। ज्ञानतंतु भी क्षीण होंगे, प्रभा भी कम होगी, तेजस्विता भी कम होगी।

आज मानव समाज में 'सेक्स' का ऊधम मचाया जा रहा है। मुझे इसमें युद्ध से भी ज्यादा भय मालूम होता है। अहिंसा को हिंसा का जितना भय है, उससे ज्यादा काम-वासना का है। कमजोरों की जो संतानें पैदा होती हैं, वे भी निर्वीर्य या निकम्मी होती हैं। जानवरों में भी देखा गया है। शेर के बच्चे कम होते हैं, बकरी के ज्यादा। मजबूत जानवरों में विषयवासना कम होती है, कमजोरों में ज्यादा। इसीलिए ऐसा वातावरण निर्माण किया जाय, जो संयम के अनुकूल हो। समाज में पुरुषार्थ बढ़ायें, साहित्य सुधारें और गंदा साहित्य, गंदे सिनेमा रोकें।

Sunday, August 8, 2010


सदगुणों की खानः श्री हनुमानजी पुस्तक से - Sadguno ki Khan: Shri Hanumaanji pustak se

एक दिन भगवान श्री रामचन्द्रजी और भगवती सीताजी झूले पर विराजमान थे। हनुमानजी आये और झूला झुलाने लगे। सीताजी ने कहा : "हनुमान ! पानी...." रामजी ने कहा : “झूला झुलाओ।" हनुमानजी झूले की रस्सी हाथ में लिये हुए पानी लेने गये; झूला भी झूल रहा है और पानी भी ले आये।
इस तरह हनुमानजी पूरी कुशलता से कर्म करते। कार्य की सफलता का सामर्थ्य कहाँ है, यह जानते हैं हनुमानजी। वे विश्रांति पाना जानते हैं। हनुमानजी को न परिणाम का भय है, न कर्मफल के भोग की कामना है, न लापरवाही है और न पलायनवादिता है।
हनुमानजी की भक्ति है 'निर्भरा भक्ति' – एकनिष्ठ भक्ति। अपने राम स्वभाव में ही निर्भर, कर्मफल पर निर्भर नहीं। स्वर्ग और मुक्ति आत्मविश्रांतिवालों के आगे कोई मायना नहीं रखती। हनुमानजी कहते हैं- "प्रभु ! आपकी भक्ति से जो प्रेमरस मिल रहा है वह अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय है। मुझे मुक्ति क्या चाहिए, स्वर्ग क्या चाहिए, प्रभु ! आप सेवा दे रहे हैं, बस पर्याप्त है।"
हनुमानजी का व्यवहार भगवान रामजी को, माँ सीताजी को और तो और लक्ष्मण भैया को भी आह्लादित करता था। लक्ष्मण कहते हैं : 'मैं वर्षों तक माँ सीताजी के चरणों में रहा किन्तु मैं सेवा करने में उतना सफल नहीं हुआ, उतना विश्वास-संपादन नहीं कर सका, जितना हनुमानजी आप.... मेरी कुछ लापरवाही के कारण सीताजी का अपहरण हो गया पर हनुमानजी ! आपके प्रयास से सीताजी खोजी गयीं। श्रीरामजी तक सीताजी को पहुँचाने का, उनका मिलन कराने का भगीरथ कार्य आपने किया। आप लंका गये और पहली बार माँ सीता के साथ आपका जो वार्तालाप हुआ, उससे माँ सीता प्रसन्न हो गयीं व आप पर विश्वास के साथ-साथ वरदानों की वृष्टि की। हम इतने वरदान नहीं पा सके, इतने विश्वासपात्र नहीं हो सके।'
हनुमानजी लंका जाते हैं। वहाँ विभीषण उनको कहते हैं :
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
"हे पवनसुत हनुमान ! हमारी रहनी कैसी है ? जैसे दाँतों के बीच जीभ रहती है, ऐसे रावण और उसके साथियों के बीच मैं अकेला रहता हूँ।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
मुझ अनाथ को कैसे वे सूर्यवंशी भगवान राम जानेंगे और कैसे सनाथ करेंगे? मेरी भक्ति कैसे फलेगी ? क्योंकि हम कैसे हैं? अब सुनो :
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
दैत्य लोग (राक्षस योनि) हैं, तामस तन है। भगवान के चरणों में प्रीति नहीं है। जो प्रीतिपूर्वक भजते हैं उन्हें बुद्धियोग मिलता है। हम तामसी लोग प्रीति भी तो नहीं कर सकते लेकिन अब मुझे भरोसा हो रहा है क्योंकि हनुमान ! तुम्हारा दर्शन हुआ है।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
भगवान की मुझ पर कृपा है तभी तुम्हारे जैसे संत मिले हैं।"
हनुमानजी ने एक ही मुलाकात में विभीषण को भी ढाढ़स बँधाया, स्नेहभरी सांत्वना दी और प्रभु की महानता के प्रति अहोभाव से भर दिया। श्री हनुमानजी कहते हैं :
सुनहु विभीषन प्रभु कैरीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
"विभीषणजी सुनो ! तुम बोलते हो हमारा तामस शरीर है। हम दाँतों के बीच रहनेवाली जिह्वा जैसे हैं। हमारा कैसा जीवन है? हम प्रभु को कैसे पा सकते हैं ? तो निराश होने की, घबराने की जरूरत नहीं है, भैया ! भगवान सेवक पर प्रीति करते हैं। फिर सेवक पढ़ा है कि अनपढ़ है, धनी है कि निर्धन है, माई है कि भाई है – यह नहीं देखते। जो कह दे कि 'भगवान ! मैं तेरी शरण हूँ।' बस, प्रभु उसे अपना सेवक मान लेते हैं।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
मैं कौन-सा कुलीन हूँ ? मुझमें ऐसा कौन-सा गुण है परंतु भगवान के सेवक होने मात्र के भाव से भगवान ने मुझे इतना ऊँचा कार्य दे दिया, ऊँचा पद दे दिया।"
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
भगवान के गुणों का सुमिरन करते-करते हनुमानजी की आँखें भर आती हैं। कैसे उत्तम सेवक हैं हनुमानजी कि जो उनके सम्पर्क में आता है, उसको अपने प्रभु की भक्ति देते-देते स्वयं भी भक्तिभाव से आँखें छलका देते हैं, अपना हृदय उभार लेते हैं।
हनुमानजी अशोक वाटिका में सीताजी के पास जाते हैं । सीताजी पहली बार मिले हुए हनुमानजी पर, वह भी जो वानर रूप में हैं, कैसे विश्वास करें? फिर भी हनुमानजी का ऐसा मधुर व्यवहार, ऐसी विश्वास-संपादन करने की कुशलता कि -
कपि के वचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
उन्होंने हनुमानजी के प्रेमयुक्त वचन सुने और उन्हें विश्वास हुआ कि 'हाँ, ये रामजी के ही दूत हैं।'
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।
'ये मन से, कर्म से, वचन से कृपासिंधु भगवान राम के ही दास हैं।' ऐसा उनको जाना।
मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।।
और सीताजी के मन में संतोष हुआ। आपकी वाणी से किसी का आत्मसंतोष नहीं बढ़ा तो आपका बोलना किस काम का ? आपकी वाणी से किसीकी योग्यता नहीं निखरी, किसी का दुःख दूर न हुआ, किसीका अज्ञान-अंश नहीं घटा और ज्ञान नहीं बढ़ा तो आपका बोलना व्यर्थ हो गया। हनुमानजी कहते हैं : 'हम बंदर हैं, फिर भी सबसे ज्यादा बड़भागी हैं।'
हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी ।।
यहाँ हनुमानजी की सरलता और प्रभु-तत्त्व को पहचानने की बुद्धिमत्ता का दर्शन होता है । निर्गुण-निराकार ब्रह्म आँखों से दिखता नहीं है और सगुण-साकार कभी-कभी अवतरित होता है। हनुमानजी कहते हैं : "हम भक्तिमार्ग पर चलकर भगवान के सेवाकार्य करते हुए भगवत्स्वरूप की यात्रा कर रहे हैं और हम भगवान के पास नहीं गये, भगवान स्वयं चलकर हमारी ओर आये, इसलिए हम अति बड़भागी हैं।
राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़भागी।।
जटायु राम-काज में तन छोड़कर हरि के धाम में गये। प्रभुसेवा में देह-उत्सर्ग करनेवाले जटायु परम बड़भागी हो सकते हैं। अहिल्या बड़भागी हो सकती है, कोई भाग्यशाली हो सकते हैं परंतु हम तो अति बड़भागी हैं।"
हनुमानजी ने सुग्रीव पर, विभीषण पर उपकार किया, उन्हें रामजी से मिला दिया, राज्य पद दिला दिया। वे राज करनेवालों में से नहीं थे, राज्य दिलानेवालों में से थे। यश लेनेवालों में से नहीं थे, हनुमानजी यश दिलानेवालों में से थे। वे सेवा करानेवालों में से नहीं थे, सेवा करनेवालों में से थे; सुख लेनेवालों में से नहीं थे, सुख देनेवालों में से थे; मान लेनेवालों में से नहीं थे, मान देनेवालों में से थे।
काश ! हम भी ये गुण अपने में लाना चाहें। इसमें क्या कठिनाई है? क्या जोर पड़ता है? मन को समझायें और मंगलमय हनुमानजी का मंगलकारी चरित्र बार-बार पढ़ें-पढ़ायें । एकटक उनकी ओर देखें और भावना करें कि 'महाराज ! ये सदगुण हम अपने में भरें, अपने चित्त को पावन करें।’
जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
महाराज ! गुरुदेव की नाईं कृपा करो महाराज ! .....हनुमानजी महाराज !....
'हनुमान जयंती' के महापर्व पर हनुमानजी के सदगुण हम लोगों के चित्त में फलें-फूलें।
"हनुमान ! तुमने तो मेरे को अच्छी बात सुनायी। जैसे जयंत के पीछे प्रभु श्रीराम ने बाण छोड़ा था और उसके छक्के छुड़ा दिये थे कि 'जयंत ! कौए के रूप में सीता के पैर को चोंच मारने का क्या फल होता है, देख।' किंतु रावण मुझे उठाकर ले आया और प्रभु ने मेरे को भुला दिया, इस बात से मैं व्यथित थी। परंतु हनुमान ! तुमने मुझे यह बताकर कि 'माताजी ! आपकी सेवा में प्रभु ने हनुमानरूपी तीर को छोड़ा है।' मेरा भ्रम मिटा दिया, संदेह मिटा दिया।" – ऐसा कहकर सीताजी हनुमानजी की प्रशंसा करती हैं तो हनुमानजी दूर से चरणों में लेटते हुए बोले : "पाहिमाम् ! रक्षमाम् ! मातेश्वरी ! जो प्रभु चाहते हैं वह तो पहले से ही होना था। माँ ! आप सब कुछ जानती हैं और मेरी सराहना कर रही हैं? पाहिमाम् ! रक्षमाम् !"
यह हनुमानजी का कितना बड़ा सदगुण है, कितनी सरलता है, कितनी बुद्धिमत्ता है ! आप हनुमानजी की इस बुद्धिमत्ता को, सरलता को, सहजता को जीवन में उतारने की कृपा करें तो आपके शुभ संकल्प का बल बढ़ जायेगा।
एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति, नेह नानास्ति किञ्चन ।
'अद्वैत एक ब्रह्म के सिवाय और कुछ नहीं है।'
(त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद् 3.2)
ऐसा कहनेवाले अद्वैतवादी आद्य शंकराचार्यजी ने भी पंचश्लोकी 'श्री हनुमत्पंचरत्न स्तोत्र' में हनुमानजी के बारे में क्या सुन्दर वर्णन किया है ! शंकराचार्यजी ने कहा हैः जो भगवान श्रीराम और सीताजी का चिंतन कर हृदय से पुलकित हो जाते हैं, जिनके कर्म सुन्दर हैं, जिन्होंने सत्कर्म, परोपकार से कर्मों को कर्मयोग बना लिया है, ऐसे श्री हनुमानजी का सुमिरन करके मैं भी उन्हें स्नेह करता हूँ और उनका ध्यान धरता हूँ।
आद्य शंकराचार्य भगवान जिनका ध्यान धरते हैं, उन हनुमानजी को अगर आप और हम मिलकर मन-ही-मन प्रसन्न करना चाहें तो कैसे करें? हनुमानजी खुशामद प्रिय नहीं हैं, वे राम प्रिय हैं। तो आप क्या करोगे? आप राम का भजन करो। आप राम के प्यारे हुए तो हनुमानजी आपको अपने-आप प्यार करने लगेंगे।
अन्तर्यामी राम की प्रसन्नता के लिए लोककार्य करो, लोगों से मिलो और विश्रांति लोकेश्वर में पाओ। अपने आत्मा-राम में आराम पाओ। कर्म सुख लेने के लिए नहीं, देने के लिए करो। कर्म मान लेने के लिए नहीं, देने के लिए करो तो तुम्हारा कर्म कर्मयोग, भक्तियोग हो जायेगा। हनुमन्तजी मेरे प्यारे हैं, दिल के दुलारे हैं, आप भी उनके दुलारे हो जायेंगे।
अगर शरीर अस्वस्थ हो तो दायें-बायें नथुने से क्रमशः 10 बार श्वास लो-छोड़ो। फिर दोनों नथुनों से श्वास लेकर करीब 1 मिनट तक रोकते हुए मन-ही-मन दुहराओः
नासै रोग हरे सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ।।
फिर श्वास छोड़ो। अब 2-3 श्वास स्वाभाविक लो, फिर श्वास बाहर छोड़ो और 40 सेकेंड बाहर रोकते हुए दुहराओ :
नासै रोग हरे सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ।।
दिन में अन्य समय भी इस मंत्र की आवृत्ति करते रहें। ऐसा करने से बुढ़ापे में होनेवाले 80 प्रकार के वात-सम्बन्धी रोगों में निश्चिय ही आराम मिलता है। हृदयरोग तथा अन्य छोटे-मोटे रोग भी ठीक होते हैं। श्रद्धापूर्वक जप करते रहें तो अवश्य-अवश्य लाभ होता है।
पवनसुत का मंत्र जपना और पवन को रोकना फिर हनुमानजी और हनुमानजी के पिता वायुदेव की कृपा का चमत्कार आप देख लेना।
जो भोले-भाले लोगों को बहकाते हैं कि हनुमानजी एक बंदर हैं, पशु हैं, वे भी अगर ईमानदारी से उनकी शरण हो जायें तो हनुमानजी की प्रत्यक्ष कृपा का अनुभव कर सकते हैं और फिर वे आरोग्यता का दान लेकर, अपने गले से क्रॉस का चिह्न हटाकर सुंदर, सुखद, विनयमूर्ति, प्रेममूर्ति, पुरुषार्थमूर्ति, सज्जनता तथा सरलता की मूर्ति श्री हनुमानजी को ही गले में धारण करेंगे।
श्री हनुमानजी को बंदर कहकर भारत की संस्कृति पर आस्था रखनेवालों के प्रति अपराध करनेवालो ! तुम्हारे अपराध के फलस्वरूप रोग, पीड़ा, अशांति आती है। अतः सावधान हो जाओ। श्रीरामजी और हनुमानजी की कृपा आप भी पाइये। भारतवासियों को धर्मान्तरित मत कीजिये । आप इस देव की शरण आइये। इसीमें आपका भला है।
अन्तर्यामी राम की प्रसन्नता के
लिए लोककार्य करो, लोगों से
मिलो और विश्रांति लोकेश्वर में
पाओ। अपने आत्मा-राम में आराम
पाओ। कर्म सुख लेने के लिए
नहीं, देने के लिए करो। कर्म मान
लेने के लिए नहीं, देने के लिए करो
तो तुम्हारा कर्म कर्मयोग, भक्तियोग हो जायेगा।
- परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू