पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, May 27, 2012

अलख की ओर  पुस्तक से - Alakh Ki Or pustak se

आत्मानुसंधान - Atmanusandhan

भागवत की कथा करने वाले एक पण्डित कथा के बाद बहुत थक जाते थे। मस्तिष्क भारी-भारी रहता था। काफी इलाज किये लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। श्री घाटवाले बाबा ने उनको ज्ञानमुद्रा में बैठने की विधि बतायी। कुछ ही समय में पण्डित जी को चमत्कारिक लाभ हुआ। ज्ञानमुद्रा से मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलती है और चित्त जल्दी शांत हो जाता है। आत्म-कल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशांति व आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए यह ज्ञानमुद्रा बड़ी सहायक है। इस मुद्रा में प्रतिदिन थोड़ी देर बैठना चाहिए।

ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गरम आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। आन्तर कुम्भक व बहिर्कुम्भक तथा मूलबन्ध, उड्डियानबन्ध व जालन्धरबन्ध-इस त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली उँगली के नाखून को अँगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीन उँगलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गरदन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मीलित। शरीर अडोल।

अब गहरा श्वास लेकर 'ॐ का दीर्घ गुंजन करो। प्रारम्भ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी। फिर गहराई में जाकर हृदय से 'ॐ...' की ध्वनि निकालो। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाओ। इस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनन्द प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा जब तक उसे भीतर का आनन्द नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा के अभ्यास व 'ॐ...' के गुंजन से मन की भटकान शीघ्रता से कम होने लगेगी।

ध्यान में बैठने से पहले जो कार्य करना नितान्त आवश्यक हो उसे पूरा कर लो। ध्यान के समय जो काम करने की कोई जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाये तो 'ॐ...' का पावन गुंजन करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

वर्त्तमान का आदर करने से चित्त शुद्ध होता है। भूत-भविष्य की कल्पना छोड़कर वर्त्तमान में स्थित रहना यह वर्त्तमान का आदर हुआ। निज अनुभव का आदर करने से चित्त की अशुद्धि दूर होती है। निज अनुभव यह है कि जो भी काम होते हैं, सब वर्त्तमान में ही किया जाता है। पीछे की कल्पना करो तो भूतकाल और आगे की कल्पना करो तो भविष्य काल। भूत और भविष्य दोनों वर्त्तमान काल में ही सिद्ध होते हैं। वर्त्तमानकाल की सिद्धि भी 'मैं हूँ' इस अनुमति पर निर्भर है।

'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।

मंगलमय यात्रा पर प्रस्थान करते समय वर्त्तमान का आदर करो। वर्त्तमान का आदर करने से आदमी भूत व भविष्य की कल्पना में लग जाना यह मन का स्वभाव है। अतः ज्ञानमुद्रा में बैठकर संकल्प करो कि अब हम 'ॐ...' की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा.... फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से 'ॐ...' का गुंजन करके मन को खींचकर पुनः वर्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार 'ॐ....' का गुँजन करके शांत हो जाओ। वक्षःस्थल के भीतर तालबद्ध रूप से धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो.... निहारते रहो..... मानों शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ 'ॐ... राम.... ॐ....राम....' मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को उससे जोड़ दो। हृदय की धड़कन को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूत-भविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर रस चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है, शहद का बिन्दु पाकर जैसे चींटी वहाँ आस्वाद लेने के लिए चिपक जाती है वैसे ही चित्तरूपी भ्रमर को परमात्मा के प्यार से प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदय कमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो।

सागर की सतह पर दौड़ती हुई तरंगे कम हो जाती हैं तो सागर शांत दिखता है। सागर की गरिमा का एहसास होता है। चित्तरूपी सागर में वृत्तिरूपी लहरियाँ दौड़ रही हैं। वर्त्तमान का आदर करने से वे वृत्तियाँ कम होने लगेंगी। एक वृत्ति पूरी हुई और दूसरी अभी उठने को है, उन दोनों के बीच जो सन्धिकाल है वह बढ़ने लगा। बिना वृत्तियों की अनुपस्थिति में भी हम हैं। इस अवस्था में केवल आनंद-ही-आनंद है। वही हमारा असली स्वरूप है। इस निःसंकल्पावस्था का आनन्द बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ॐ का प्यार गुंजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसी निर्विषय, निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि आत्मा आनन्दस्वरूप है।

यह आनन्द संसार के सुख या हर्ष जैसा नहीं है। संसार के सुख में और आत्मसुख में बड़ा फासला है। संसार का सुख क्रिया से आता है, उपलब्ध फल का भोग करने से आता है जबकि आत्मसुख तमाम स्थूल-सूक्ष्म क्रियाओं से उपराम होने पर आता है। सांसारिक सुख में भोक्ता हर्षित होता है और साथ ही साथ बरबाद होता है। आत्मसुख में भोक्ता शांत होता है और आबाद होता है।

इस आत्म-ध्यान से, आत्म-चिन्तन से भोक्ता की बरबादी रुकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है.... अनादि काल से परमात्मा था ही, यह जानने लगता है।

तरंगे सागर में लीन होने लगती है तो वे अपना तरंगपना छोड़कर जलरूप हो जाती है। हमारी तमाम वृत्तियों का मूल उदगम्-स्थान.... अधिष्ठान परमात्मा है। 'हम यह शरीरधारी हैं.... हमारा यह नाम है.... हमारी वह जाति है..... हमारे ये सगे-सम्बन्धी हैं.... हम इस जगत में रहते हैं....' ये तमाम प्रपंच हमारी वृत्तियों के खेल हैं। हमारी वृत्ति अपने मूल उदगम्-स्थान आनन्दस्वरूप परमात्मा में डूब गई, लीन हो गई तो न यह शरीर है न उसका कोई नाम है, न उसकी कोई जाति है, न उसके कोई सगे सम्बन्धी हैं और न कोई जगत ही है। केवल आनंदस्वरूप परमात्मा ही परमात्मा है। वह परमात्मा मैं हूँ। एक बार यह सत्य आत्मसात हो  गया, भली प्रकार निजस्वरूप का बोध हो गया, फिर चाहे करोड़ों-करोड़ों वृत्तियाँ उठती रहें, करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते रहें..... बिगड़ते रहें फिर भी उस बुद्ध पुरुष को कोई हानि नहीं। वह परिपक्व अवस्था जब तक सिद्ध न हो तब तक आत्मध्यान का अभ्यास करते रहो।

पानी में जितनी तरंगे कम हो गईं उतनी पानी में समाहित हो गईं। हमारी वृत्तियाँ जितनी शांत हुईं उतनी परमात्मा से मिल गईं, स्वरूप में लीन हो गईं, उतना आत्मस्वरूप प्रकट हो गया।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनन्द और अनुपम शांति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व शांति का एहसास होगा। आत्मबलकी प्राप्त होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। क्रियाजनित व फलभोगजनित सुख के पीछे जो भटकाव है वह कम हो जायेगी। अपने अस्तित्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। पाप नष्ट हो जायेंगे। आत्मदेव में स्थिति होने लगेगी। परमात्म-साक्षात्कार करने की योग्यता बढ़ जायेगी।

ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्म-खजाना जता देने में कोई देर नहीं लगती। साधक को अपनी योग्यता विकास करने भर की देर है।

प्रधानमंत्री का चपरासी उसको प्रसन्न कर ले, खूब राजी कर ले फिर भी प्रधानमंत्री उसको कलेक्टर नहीं बना सकता क्योंकि उसकी योग्यता विकसित नहीं हो पायी है। स्कूल का पूरा ट्रस्टीमण्डल भेड़ चराने वाले किसी अहीर पर राजी हो जाय, उसको निहाल करना चाहे फिर भी उसको स्कूल का आचार्य नहीं बना सकता।

त्रेता युग में राजा मुचकुन्द गर्गाचार्य के दर्शन सत्संग के फलस्वरूप भगवान का दर्शन पाते हैं। भगवान से स्तुति करते हुए कहते हैं किः "प्रभो ! मुझे आपकी दृढ़ भक्ति दो।" तब भगवान कहते हैं- "तूने जवानी में खूब भोग भोगे हैं, विकारों में खूब डूबा रहा है। विकारी जीवन जीनेवाले को दृढ़-भक्ति नहीं मिलती। मुचकन्द ! दृढ़भक्ति के लिए जीवन में संयम बहुत जरूरी है। तेरा यह क्षत्रिय शरीर समाप्त होगा तो दूसरे जन्म में तुझे दृढ़ भक्ति प्राप्त होगी।"

वही राजा मुचकन्द कलियुग में नरसिंह मेहता हुए। मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री या परमात्मा किसी पर राजी हो जायँ फिर भी कुछ पाने के लिए, पाया हुआ पचाने  के लिए अपनी योग्यता तो चाहिए ही। अपनी वासनावाली वृत्तियाँ बदलती रहेंगी, विषयों में फैलती रहेंगी, तो भगवान या सदगुरु की कृपा हमें परम पद नहीं पहुँच पायेगी। उस करूणा में वह ताकत तो है लेकिन उसको हजम करने की ताकत हममें नहीं है। मक्खन में ताकत है लेकिन हमें वह हजम नहीं होता तो हम उसका लाभ नहीं उठा पाते। उसको हजम करने के लिए हमें व्यायाम करना होगा, परिश्रम करना होगा। इसी प्रकार सदगुरु या परमात्मा का कृपा-अमृत हजम करने के लिए हमें साधना द्वारा योग्यता विकसित करनी होगी।

अपने पुण्यों का प्रभाव कहो चाहे परमात्मा की कृपा कहो, हमारा परम सौभाग्य खुल रहा है कि हम ब्रह्मचिन्तन के मार्ग की ओर अभिमुख हो रहे हैं।

व्यर्थ के भोगों से बचने के लिए परोपकार करो और व्यर्थ चिन्तन से दूर रहने के लिए ब्रह्मचिन्तन करो। व्यर्थ के भोगों और व्यर्थ चिन्तन से बचे तो ब्रह्मचिन्तन करना नहीं पड़ेगा, वह स्वतः ही होने लगेगा। आगे चलकर ब्रह्मचिन्तन पूर्णावस्था में पहुँचकर स्वयं भी पूरा हो जायेगा। ब्रह्म-परमात्मा में स्थिति हो जायेगी। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मवेत्ता ब्रह्ममय हो जाता है। तरंग का तरंगपना विलीन होने पर जलरूप रह जाता है। वह अपना सहज स्वरूप प्राप्त कर लेती है।

रामायण में कहा हैः
मम दर्शन फल परम अनूपा।
जीव पावहिं निज सहज स्वरूपा।।
ब्रह्माभ्यास के लिए ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् सुबह 3 बजे के बाद का समय अत्यंत उपयोगी होता है। इस अमृतवेला में प्रकृति के निम्न कोटि के जीव प्रकृति में लीन रहते हैं। समग्र वातावरण में अपार शांति का साम्राज्य छाया हुआ रहता है। संत, महात्मा, योगी और उच्च कोटि के साधकों के मंगल आध्यात्मिक आन्दोलन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमारा चित्तसरोवर भी रात्रि की नींद के बाद शांत बन जाता है। वृत्तियों की दौड़ कम हो जाती है। ऐसी अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर प्राणायाम करके ज्ञानमुद्रा में बैठकर ब्रह्माभ्यास किया जाय, मन को ब्रह्मचिन्तन में लगाया जाय तो साधक शीघ्र ही सिद्ध हो सकता है, आत्मानन्द में मग्न हो सकता है। ब्रह्माभ्यास तो कहीं भी करें, किसी भी समय करें, लाभ होता है लेकिन ब्रह्ममूहूर्त की तो बात ही निराली है।

ब्रह्माभ्यास में, ब्रह्मचिन्तन में, आत्म-ध्यान में मन शांत नहीं होता तो मन जो सोचता है, जहाँ जाता है, उसको देखो। चंचल मन की चंचलता को देखोगे तो मन चंचलता छोड़कर शांत होने लगेगा। प्राणायाम का अभ्यास छोड़कर फिर जो स्वाभाविक श्वासोच्छ्वास चलते हैं उनको देखते रहो.... निहारते रहो तो भी मन शांत होने लगेगा। मन ज्यों शांत होगा त्यों आनंद आने लगेगा। जब ऐसा आनंद आने लगे तब समझो आत्मदर्शन हो रहा है।

देवी-देवताओं के दर्शन का फल भी सुख है। देवी-देवता राजी होंगे तो वरदान देंगे। उनके वरदान से भोग की वस्तुएँ मिलेंगी। वस्तु के भोग से सुख ही तो चाहते हैं। उस संयोगजन्य भोग-सुख से निराला आत्म-सुख ब्रह्माभ्यास से मिल रहा है। 'आत्मा आनंदस्वरूप है। वह आत्मा ही मैं हूँ। मेरा मुझको नमस्कार है।' इस प्रकार अपने आपको धन्यवाद देते जाओ.... आनंदमय होते जाओ। हजारों-हजारों देवी-देवताओं को मनाते आये हो... अब थोड़ा अपने आपको मना लो। हजारों देवी-देवताओं को पूजते आये हो.... अब आत्मध्यान के द्वारा अपने आत्मदेव को पूज लो। 'मैं आनंदस्वरूप आत्मा हूँ.... ॐ आनंद ! ॐ आनंद...! ॐ आनंद....!' इस प्रकार भाव बढ़ाते जाओ। बीच-बीच में मन विक्षेप डाले, इधर-उधर दौड़े तो ॐ की पावन ध्वनि करके मन को वापस लौटा लो।

सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् कहता है कि जिस आनंद को तू खोज रहा है वह आनंद तू ही है। तत्त्वमसि। वह तू है। तू पहले आनंदस्वरूप आत्मा था अथवा भविष्य में होगा ऐसी बात नहीं, अभी भी तू वही है। यह वेदवचन का आखिरी फैसला है। आध्यात्मिक जगत के जाने-माने शास्त्र, पुराण, बाइबिल, कुरान आदि सब बाद में हुए हैं और किसी न किसी व्यक्ति के द्वारा रचे गये हैं, जबकि वेद अनादि काल से हैं- तत्त्वमसि। वह तू है। उस आनंदस्वरूप सच्चिदानंदघन विश्वचैतन्य और तुझमें कोई भेद नहीं।

इन वेदवचनों को केवल मान लो नहीं, उनकी सत्यता का अनुभव करते चलो। 'मैं वह आनंदस्वरूप आत्मा हूँ...' चार वेद के चार महावाक्य हैं-

प्रज्ञानं ब्रह्म। अयं आत्मा ब्रह्म। अहं ब्रह्मास्मि। तत्त्वमसि। इन वेदवाक्यों का तात्पर्य यही है।

नानकदेव भी कहते हैं-
सो प्रभ दूर नहीं... प्रभ तू है।
सो साहेब सद सदा हजूरे।
अन्धा जानत ता को दूरे।।
तुलसीदास जी कहते हैं-

घट में है सूझे नहीं, लानत ऐसे जिन्द।
तुलसी ऐसे जीव को, भयो मोतियाबिन्द।।
गहरा श्वास लेकर ॐ का गुंजन करो.... बार-बार गुंजन करो और आनन्दस्वरूप आत्मरस में डूबते जाओ। कोई विचार उठे तो विवेक जगाओ कि, मैं विचार नहीं हूँ। विचार उठ रहा है मुझ चैतन्यस्वरूप आत्मा से। एक विचार उठा.... लीन हो गया.. दूसरा विचार उठा... लीन हो गया। इन विचारों को देखने वाला मैं साक्षी आत्मा हूँ। दो विचारों के बीच में जो चित्त की प्रशांत अवस्था है वह आत्मा मैं हूँ। मुझे आत्मदर्शन की झलक मिल रही है....। ॐ आनंद.... खूब शांति। मन की चंचलता मिट रही है.... आनंदस्वरूप आत्मा में मैं विश्राम पा रहा हूँ।

वाह वाह ! वाह मेरे प्रभु....! वाह मेरे पुण्य...! वाह मेरे सदगुरु...! इसी आनंद के लिए सारे देव, दानव और मानव लालायित हैं। इसी आनंद की खोज में कई जन्मों से मैं भी भटक रहा था। अब पता चला कि आनंद तो मेरा आत्मस्वरूप है। वाह वाह...!

चित्त में प्रशांति बढ़ रही है। 'रोम-रोम पुलकित हो रहे हैं.... पवित्र हो रहे हैं।'

आप जिन आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरषों को अपने सदगुरु मानते हो उनको पूरे प्राणों से.... पूरे हृदय से प्यार करते जाओ, धन्यवाद देते जाओ। इस पवित्र प्रेम की राह पर चलते-चलते आप बहुत गहरे पहुँच जाओगे.... अपने असली घर के द्वार को देख लोगे। अपने घर में, निज स्वरूप में पहुँचे हुए महापुरुषों को प्यार करते-करते आप भी वहीं पहुँच जाओगे।

अपने को धन्यवाद दो कि हमने प्रभु के दर्शन नहीं किये लेकिन जिनके हृदय में प्रभु पूर्ण चैतन्य के साथ प्रकट हुए हैं ऐसे संतों का दर्शन करने का सौभाग्य हमें मिल रहा है। ऐसे महापुरुषों के बारे में कबीरजी कहते हैं-

अलख पुरुष की आरसी, साधू का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।

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