पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, April 15, 2012

बाल संस्कार केन्द्र पाठ्यक्रम पुस्तक से - Baal Sanskar Kendra Pathyakram pustak se

विद्यार्थियों के लिए विशेष - Vidyarthiyon ke liye Vishesh

गुरू वशिष्ठजी महाराज भगवान श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं-
येन केन प्रकारेण यस्य कस्यापि देहीनः।
संतोषं जनयेद्राम तदेवेश्वरपूजनम्।।
'किसी भी प्रकार से किसी भी देहधारी को सन्तोष देना यही ईश्वर-पूजन है।'
(श्री योग वाशिष्ठ महारामायण)
कैसे भी करके किसी भी देहधारी को सुख देना, सन्तोष देना यह ईश्वर का पूजन है, क्योंकि प्रत्येक देहधारी में परमात्मा का निवास है।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
चलाचली के वक्त में भला भली कर लेय।।
हमारा शरीर चल है, इसका कोई भरोसा नहीं। किसकी किस प्रकार, किस निमित्त से मृत्यु होने वाली है कोई पता नहीं।
मोरबी (सौराष्ट्र) में मच्छू बाँध टूटा और हजारों लोग बेचारे यकायक चल बसे। भोपाल गैस दुर्घटना में एक साथ बीस-बीस हजार लोग काल के ग्रास बन गये। कहीं पाँच जाते हैं कहीं पच्चीस जाते हैं। बद्रीनाथ के मार्ग पर बस उल्टी होकर गिर पड़ी, कई लोग मौत का शिकार बन गये। इस देह का कोई भरोसा नहीं।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
वैभव चल है। करोड़पति, अरबपति आदमी कब फूटपाथति हो जाय, कोई पता नहीं। यौवन कब वृद्धावस्था में परिवर्तित हो जायेगा, कब बीमारी पकड़ लेगी कोई पता नहीं। आज का जवान और हट्टाकट्टा दिखने वाला आदमी दो दिन के बाद कौन-सी परिस्थिति में जा गिरेगा, कोई पता नहीं। अतः हमें अपने शरीर का सदुपयोग कर लेना चाहिए।
शरीर का सदुपयोग यही है कि किसी देहधारी के काम आ जाना। मन का सदुपयोग है किसी को आश्वासन देना, सान्तवना देना। अपने पास साधन हों तो चीज़-वस्तुओं के द्वारा जरूरतमन्द लोगों की यथायोग्य सेवा करना। ईश्वर की दी हुई वस्तु ईश्वर-प्रीत्यर्थ किसी के काम में लगा देना। सेवा को सुवर्णमय मौका समझकर सत्कर्म कर लेना।
वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- "हे राम जी ! येन केन प्रकारेण....।" किसी भी देहधारी को कैसे भी करके सुख देना चाहिए, चाहे वह पाला हुआ कुत्ता हो या अपना तोता हो, पड़ोसी हो या अपना भाई या बहन हो, मित्र हो या कोई अजनबी इन्सान हो। अपनी वाणी ऐसी मधुर, स्निग्ध और सारगर्भित हो कि जिससे हम सभी की सेवा कर सके।
शरीर से भी किसी की सेवा करनी चाहिए। रास्ते में चलते वक्त किसी पंगु मनुष्य को सहायरूप बन सकते हों तो बनना चाहिए। किसी अनजान आदमी को मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो सेवा का मौका उठा लेना चाहिए। कोई वृद्ध हो, अनाथ हो तो यथायोग्य सेवा कर लेने का अवसर नहीं चूकना चाहिए। सेवा लेने वाले की अपेक्षा सेवा करने वाले को अधिक आनन्द मिलता है।
भूखे को रोटी देना, प्यासे को जल पिलाना, हारे हुए, थके हुए को स्नेह के साथ सहाय करना, भूले हुए को मार्ग दिखाना, अशिक्षित को शिक्षा देना और अभक्त को भक्त बनाना चाहिए। बीड़ी, सिगरेट, शराब और जुआ जैसे व्यसनों में कैसे हुए लोगों को स्नेह से समझाना चाहिए। सप्ताह में पन्द्रह दिन में एक बार निकल पड़ना चाहिए अपने पड़ोस में, मुहल्लों में। अपने से हो सके ऐसी सेवा खोज लेनी चाहिए। इससे आपका अन्तःकरण पवित्र होगा, आपकी छुपी हुई शक्तियाँ जागृत होंगी।
आपके चित्त में परमात्मा की असीम शक्तियाँ हैं। इन असीम शक्तियों का सदुपयोग करना आ जाय तो बेड़ा पार हो जाय।
कलकत्ता में 1881 में प्लेग की महामारी फैल गयी। स्वामी विवेकानन्द सेवा में लग गये। उन्होंने अन्य विद्यार्थियों एवं संन्यासियों से कहाः
"हम लोग दीन-दुःखी, गरीब लोगों की सेवा में लग जायें।"
उन लोगों ने कहाः "सेवा में तो लग जायें लेकिन दवाइयाँ कहाँ से देंगे ? उनको पौष्टिक भोजन कहाँ से देंगे ?"
विवेकानन्द ने कहाः "सेवा करते-करते अपना मठ भी बेचना पड़े तो क्या हर्ज है ? अपना आश्रम बेचकर भी हमें सेवा करनी चाहिए।"
विवेकानन्द सेवा में लग गये। आश्रम तो क्या बेचना था ! भगवान तो सब देखते ही हैं कि ये लोग सेवा कर रहे हैं। लोगों के हृदय में प्रेरणा हुई और उन्होंने सेवाकार्य उठा लिया।
स्वामी विवेकानन्द का निश्चय था कि सेवाकार्य के लिए अपना मठ भी बेचना पड़े तो साधु-संन्यासियों को तैयारी रखना चाहिए। जनता-जनार्दन की सेवा में जो आनन्द व जीवन का कल्याण है वह भोग भोगने में नहीं है। विलासी जीवन में, ऐश आराम के जीवन में वह सुख नहीं है।
बिहार में 1967 में अकाल पड़ा। रविशंकर महाराज गुजरात में अहमदाबाद के किसी स्कूल में गये और बच्चों से उन्होंने कहाः
"बच्चों ! आप लोग युनिफार्म पहनकर स्कूल में पढ़ने के लिए आते हैं। आपको सुबह में नाश्ता मिलता है, दोपहर को भोजन मिलता है, शाम को भी भोजन मिलता है। किंतु बिहार में ऐसे बच्चे हैं कि जिन बेचारों को नाश्ता तो क्या, एक बार का भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता। ऐसे भी गरीब बच्चे हैं जिन बेचारों को पहनने के लिए कपड़े नहीं मिलते। ऐसे भी बच्चे हैं जिनको पढ़ने का मौका नहीं मिलता।
मेरे प्यारे बच्चों ! आपके पास तो दो-पाँच पोशाक होंगे किन्तु बिहार में आज ऐसे भी छात्र हैं जिनके पास दो जोड़ी कपड़े भी नहीं हैं। बिहार में अकाल पड़ा है। लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं।
सबके देखते ही देखते एक निर्दोष बालक उठ खड़ा हुआ। हिम्मत से बोलाः
"महाराज ! आप यदि वहाँ जाने वाले हों तो मैं अपने ये कपड़े उतार देता हूँ। मैं एक सप्ताह तक शाम का भोजन छोड़ दूँगा और मेरे हिस्से का वह अनाज घर से माँग कर ला देता हूँ। आप मेरी इतनी सेवा स्वीकार करें।"
बच्चों के भीतर दया छुपी हुई है, प्रेम छुपा हुआ है, स्नेह छुपा हुआ है, सामर्थ्य छुपा हुआ है। अरे ! बच्चों के भीतर भगवान योगेश्वर, परब्रह्म परमात्मा छुपे हुए हैं।
देखते ही देखते एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा.... करते-करते सब बच्चे गये अपने घर अनाज लाकर स्कूल में ढेर कर दिया।
रविशंकर महाराज ने थोड़ी सी शुरूआत की। वे जेतलपुर के स्कूल में गये और वहाँ प्रवचन किया। वहाँ एक विद्यार्थी खड़ा होकर बोलाः
"महाराज ! कृपा करके आप हमारे स्कूल में एक घण्टा ज्यादा ठहरें।"
"क्यों भाई ?"
"मैं अभी वापस आता हूँ।"
कहकर वह विद्यार्थी घर गया। दूसरे भी सब बच्चे घर गये और वापस आकर स्कूल में अनाज व कपड़ों का ढेर कर दिया।
बाद में सेठ लोग भी सेवा में लग गये। लाखों रूपयों का दान मिला और बिहार में सेवाकार्य शुरू हो गया।
रविशंकर महाराज कहते हैं-
"मुझे इस सेवाकार्य की प्रेरणा अगर किसी ने दी है तो इन नन्हें-मुन्ने बच्चों ने दी। मुझे आज पता चला कि छोटे-छोटे विद्यार्थियों में भी कुछ सेवा कर लेने की तत्परता होती है, कुछ देने की तत्परता होती है। हाँ, उनकी इस तत्परता को विकसित करने की कला, सदुपयोग करने की भावना होनी चाहिए।"
विद्यार्थियों में देने की तैयारी होती है। और तो क्या, अपना अहं भी देना हो तो उनके लिये सरल है। अपना अहं देना बड़ों को कठिन लगता है। बच्चे को अगर कहें कि ''बैठ जा" तो बैठ जायेगा और कहें 'खड़ा हो जा' तो खड़ा हो जायगा। उठ बैठ करायेंगे तो भी करेगा क्योंकि अभी वह निखालस है।
यह बाल्यावस्था आपकी बहुत उपयोगी अवस्था है, बहुत मधुर अवस्था है। आपको, आपके माता-पिता को, आचार्यों को इसका सदुपयोग करने की कला जितनी अधिक आयेगी उतने अधिक आप महान बन सकेंगे।
राजा विक्रमादित्य अपने अंगरक्षकों के स्थान पर, अपने निजी सेवकों के स्थान पर किशोर वय के बच्चों को नियुक्त करते थे। राजा जब निद्रा लेते तब छोटी-सी तलवार लेकर चौकी करने वाले किशोर उम्र के बच्चे उनके पास ही रहते थे।
किसी को कहीं सन्देश भेजना हो, कोई समाचार कहलवाना हो तो किशोर दौड़ते हुए जायेगा। बड़ा आदमी किशोर की तरह भागकर नहीं जाता।
आपकी किशोरावस्था बहुत ही उपयोगी अवस्था है, साहसिक अवस्था है, दिव्य कार्य कर सको ऐसी योग्यता प्रकट करने की अवस्था है।
भगवान रामचन्द्रजी जब सोलह साल के थे उन दिनों में गुरू वशिष्ठजी ने उपदेश दिया है किः 'येन केने प्रकारेण.....'
आपसे हो सके उतने प्रेम से बात करो। आप माँ की थकान उतार सकते हो। पिता से कुछ सलाह पूछो, उनकी सेवा करो। पिता के हृदय में अपना स्थान ऊँचा बना सकते हो। पड़ोसी की सहाय करने पहुँच जाओ। आपके पड़ोसी फिर आपको देखकर गदगद हो जायेंगे। स्कूल में तन्मय होकर पढ़ो, समझो, सोचो, तो शिक्षक का हृदय प्रसन्न होगा।
प्रातःकाल उठकर पहले ध्यानमग्न हो जाओ। दस मिनट मौन रहो। संकल्प करो कि आज के दिन खूब तत्परता से कार्य करना है, उत्साह से करना है। 'येन केन प्रकारेण.....।' किसी भी प्रकार से किसी के भी काम में आना है, उपयोगी होना है। ऐसा संकल्प करेंगे तो आपकी योग्यता बढ़ेगी। आपके भीतर ईश्वर की असीम शक्तियाँ हैं। जितने अंश में आप निखालस होकर सेवा में लग जायेंगे उतनी वे शक्तियाँ जागृत होंगी।

1 comment:

  1. Pujye Bapu g jo desh ke bhavi karandharo ke uthan ke liye lage hue hai shyad hi koi sant/mahapurush itna paryas kr rahe hoge,
    as:
    b.s.k
    vidayarthi shiver
    vasyan mukti abiyan
    yss
    dpp

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