पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, August 30, 2011

क्या करें, न करें ?  पुस्तक से -  Kya Karen, na Karen ?  pustak se
नीतिज्ञान - Nitigyan

भगवान ब्रह्माजी के तीसरे मानसपुत्र भृगु के पुत्र महर्षि शुक्राचार्य ने नीतियों में श्रेष्ठ नीतिशास्त्र को कहा, जिसे भगवान ब्रह्मा ने लोकहितार्थ पूर्व में ही शुक्राचार्य से कहा था। इस 'शुक्रनीति' के वचन प्रत्येक जटिल परिस्थिति में सुपथ दिखाने वाले, समाज को एक नयी दिशा प्रदान करने वाले हैं।

गुरुजनों के तथा राजा के आगे उनसे ऊँचे आसन पर या पैर के ऊपर पैर रखकर नहीं बैठना चाहिए और उनके वाक्यों का तर्क द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए। दान, मान और सेवा से अत्यंतत पूज्यों की सदा पूजा करें।

किसी भी प्रकार से सूर्य की ओर देर तक न देखें। सिर पर बहुत भारी बोझ लेकर न चलें। इसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म, अत्यंत चमकीली, अपवित्र और अप्रिय वस्तुओं को देर तक नहीं देखना चाहिए।

मल-मूत्रादि वेगों को रोके हुए किसी कार्य को करने में प्रवृत्त न हो और उक्त वेगों को बलपूर्वक न रोके।

परस्पर बातचीत करते हुए दो व्यक्तियों के बीच में से नहीं निकलना चाहिए।

गुरुजन, बलवान, रोगी, शव, राजा, माननीय व्यक्ति, व्रतशील और यान (सवारी) पर जाने वाले के लिए स्वयं हटकर मार्ग दे देना चाहिए।

परस्त्री की कामना करने वाले बहुत से मनुष्य संसार में नष्ट हो गये, जिनमें इन्द्र, दण्डक्य, नहुष, रावण आदि के उदाहरण प्रसिद्ध हैं।

महान ऐश्वर्य प्राप्त करके भी पुत्र को पिता की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए क्योंकि पुत्र के लिए पिता की आज्ञा का पालन करना परम भूषण है। (शुक्रनीतिः 2.37.38)

मनुष्य को सदा दूर का सोचने वाला, समयानुसार सूझबूझवाला तथा साहसी बनना चाहिए, आलसी और दीर्घसूत्री नहीं होना चाहिए।

चाहे वह कुबेर ही क्यों न हो, किसी का भी संचित धन नित्य धनागमन के बिना इच्छानुसार व्यय करने के लिए पर्याप्त नहीं होता अर्थात् एक दिन समाप्त हो जाता है, अतः आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए।

सर्वदा विश्वासपात्र किसी व्यक्ति का यहाँ तक कि पुत्र, भाई, स्त्री, अमात्य (मंत्री) या अधिकारी पुरुष का भी अत्यन्त विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यक्ति को धन, स्त्री तथा राज्य का लोभ अधिक रूप से होता है। अतः प्रामाणिक, सुपरिचित एवं हितैषी लोगों का सर्वत्र विश्वास करना चाहिए।

छिपकर विश्वासपात्र के कार्यों की परीक्षा करें और परीक्षा करने के बाद विश्वासपात्र निकले तो उसके वचनों को निःसंदेह सर्वताभावेन मान लें।

मनुष्य अपने आपत्काल में किसी बलवान मनुष्य की बुरी सत्य बात भी कहने के लिए मूक (गूँगा) बन जाये, किसी के दोष देखने के लिए अंधा, बुराई सुनने के लिए बहरा र बुराई प्रकट करने के लिए भागदौड़ में लँगड़ा बन जाय। इससे विपरीत आचरण करने पर मनुष्य दुःख उठाता है और व्यवहार से गिर जाता है।

जिस समय जो कार्य करना उचित हो, उसे शंकारहित होकर तुरंत कर डाले क्योंकि समय पर हुई वृष्टि धान्य आदि की अत्यन्त पुष्टि और समृद्धि का कारण बनती है तथा असमय की वृष्टि धान्य आदि का महानाश कर देती है।

स्वजनों के साथ विरोध, बलवान के साथ स्पर्धा तथा स्त्री, बालक, वृद्ध और मूर्खों के साथ विवाद नहीं करना चाहिए।

बुद्धिमान पुरुष अपमान को आगे और सम्मान को पीछे रखकर अपने कार्य को सिद्ध करे क्योंकि कार्य का बिगड़ जाना ही मूर्खता है।

एक साथ अनेक कार्यों का आरम्भ करना कभी भी सुखदायक नहीं होता। आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरे कार्य को आरम्भ नहीं करना चाहिए।

आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्त किये बिना दूसरा कार्य आरम्भ करने से पहला कार्य संपन्न नहीं हो पाता और दूसरा कार्य भी पड़ा रह जाता है, अतः बुद्धिमान मनुष्य उसी कार्य को आरम्भ करे जो सुखपूर्वक समाप्त हो जाये।

अत्यधिक भ्रमण, बहुत अधिक उपवास, अत्यधिक मैथुन और अत्यंत परिश्रम – ये चारों बातें सभी मनुष्यों के लिए बहुत शीघ्र बुढ़ापा लाने वाली होती है।

जिसको जिस कार्य पर नियुक्त किया गया हो, वह उसी कार्य को करने में तत्पर रहे, किसी दूसरे के अधिकार को छीनने की इच्छा न करे और किसी के साथ ईर्ष्या न करे।

जो मनुष्य मधुर वचन बोलते हैं और अपने प्रिय का सत्कार करना चाहते हैं, ऐसे प्रशंसनीय चरित्रवाले श्रीमान लोग मनुष्यरूप में देवता ही है।

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