पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, October 20, 2011


सच्चा सुख पुस्तक से - Sachha Sukh pustak se

संयम से ही सफलता - Saiyam se hi Safalta

ब्रह्माजी ने जब आँख खोली तो भगवान विष्णु की विचित्र रचनाओं पर बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगेः 'यह सब क्या है ? कैसे हुआ ?'
ब्रह्माजी ज्यों-ज्यों सोचते गये त्यों-त्यों उनका मन गहरा चलता गया। भीतर से आवाज आयीः तप.... तप..... तप..... (अर्थात् तप करो)
तप करने का मतलब है कि इन्द्रियों को मन में लीन करो। मन को बुद्धि में लीन करो। बुद्धि को परिश्रम नहीं होगा। बुद्धि को शान्ति मिलेगी तो वह शान्त स्वरूप परमात्मा में टिकेगी। शान्त स्वरूप परमात्मा में टिकने से मति का गाढ़ापन हो जाता है। यदि मति हल्की वस्तुओं में उलझती है तो छीछरी हो जाती है।
पीपल का पत्ता हल्का-सा है। थोड़ी सी हवा लगती है तो वह फड़कता रहता है। सुमेरू पर्वत कैसी भी आँधी में स्थिर रहता है। ऐसे ही जिसने तप किया है वह परब्रह्म परमात्मा में स्थित होता है। सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। जो सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, जिसका कभी अन्त नहीं होता उस परब्रह्म परमेश्वर में मति प्रतिष्ठित हो जाती है। परब्रह्म परमेश्वर में मति जब प्रतिष्ठित हो जाती है तो उस मति का नाम बदल जाता है, वह प्रज्ञा बन जाती है, ऋतंभरा प्रज्ञा। ऋत माने सत्य। सत्यस्वरूप परमेश्वर से भरी हुई प्रज्ञा है ऋतंभरा प्रज्ञा।
मनुष्य जब प्राण छोड़ता है, मरता है तब उसके चित्त में जैसी-जैसी वासना होती है, उसकी मति में जैसा-जैसा निश्चय होता है उसी के अनुसार उसका मन और प्राण लोक-लोकान्तर में गति करता है। जैसे, आपकी मति में निश्चय हो गया कि हम शिविर में जाएँगे, फिर चाहे उत्तरायण की ठण्ड लगे या मार्च-अप्रैल की गर्मी बरसे, हम तो शिविर में जाएँगे ही। सत्संग सुनेंगे, साधना करेंगे और जो कुछ कठिनाइयाँ होगी उन्हें सहेंगे तो तप हो जाएगा। सत्संग-कीर्तन से आनन्द होगा और साधन से मति की शुद्धि होगी, परमात्मा के मार्ग में आगे बढ़ जाएँगे !
यह निर्णय मति ने किया कि ध्यान योग साधना शिविर में जाना है। मन ने और प्राण ने योजना बनायी कि फलानी तारीख को, फलानी गाड़ी से जाना है। हाथों ने हिलचाल की, पैरों ने यात्रा की, आँखों ने देखने का काम किया। बाद में सब काम में लग गये लेकिन प्रारंभ में निर्णय मति का था।
इन्द्रियों को जैसा मिलेगा उस प्रकार का इन्द्रियों का आकर्षण और मन का मनन बनेगा। इन्द्रियों के आकर्षण और मन के मनन का निष्कर्ष बुद्धि के आगे पहुँचेगाः अच्छा हुआ कि बुरा हुआ..... दूसरी बार यह करेंगे, यह नहीं करेंगे....यह लाएँगे, यह नहीं लाएँगे......आदि। मति में अगर अच्छे संस्कार हैं, मति अगर तप से युक्त है तो वह मन इन्द्रियों की अच्छी बात को हाँ बोलेगी और घटिया बात को काटकर फेंक देगी। मति घटिया है तो वह मन इन्द्रियों की घटिया बात को हाँ बोल देगी और बढ़िया बात की ओर ध्यान नहीं देगी।
तुम्हारे पास समाचार तो लाती हैं इन्द्रियाँ। आँख दृश्य के समाचार भरती है, कान शब्द के समाचार भरते हैं, नाक दुर्गन्ध-सुगन्ध के समाचार भरता है, जीभ रस का समाचार भरती है। मन ये सब समाचार लेकर मति के पास जाता है। मति में अगर तप है तो वह सारासार का विवेक करती है। मति में अगर तप नहीं है तो वह मन इन्द्रियों को जो अच्छा लगे वही निर्णय देती है। ऐसा करते-करते मति मन्द हो जाती है। चपरासी और कारकून अपने को जैसा अच्छा लगे वैसा साहब से काम करवाते रहे, कागजों पर साहब के हस्ताक्षर करवाते रहे तो साहब कभी न कभी उनकी जाल में फँस मरता है। ऐसे ही मन-इन्द्रियों की साहब मति देवी मन-इन्द्रियों की बातों में आकर फँसती है। वह साहब तो फँसता है तब नौकरी गँवाता है, घर बैठता है लेकिन यह मति देवी चौरासी लाख योनियों की जेल भोगती है। जब देखने, सुनने, चखने, भोगने की वासना मति ने स्वीकार कर ली तो मति का स्वभाव हो जाता है कि अभी वह चखना है, यह खाना है, यह भोगना है। ऐसा करते-करते जीवन पूरा हो जाता है फिर भी कुछ न कुछ करना-भोगना, खाना-पीना बाकी रह जाता है।
जब प्राण निकलते है तब भोग की वासनायुक्त मति में जिस भोग का आकर्षण होता है उसी प्रकार के वातावरण में वह फिर से जन्म लेती है। वही भोग भोगते-भोगते दूसरे संस्कार संचित होते रहते हैं। एक वासना मिटी न मिटी वहाँ दूसरी खड़ी हो जाती है।
जैसे, कोई सोचता है कि तीन घण्टे का समय है। चलो, सिनेमा देख लें। सिनेमा में दूसरी सिनेमा के एवं दूसरी कई चीजों के विज्ञापन भी दिखाये जाते हैं। इससे एक सिनेमा देखते-देखते दूसरी सिनेमा देखने की एवं दूसरी चीजें खरीदने की वासना जाग उठती है। वासनाओं का अन्त नहीं होता। वासनाओं का अन्त नहीं होता। इसलिए यह जीव बेचारा परमात्मा तक नहीं पहुँच पाता। वासना से ग्रस्त मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती है तो जीव जीने की और भोगने की वासना से आक्रान्त रहता है।
जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।
जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।
जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।
इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।
इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।
इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशेभ्यः।
उस देव को जानने से जीव सारे पाशों से, सारी जंजीरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म में ऐसी मति मिली है कि इससे वह भूत का, भविष्य का चिन्तन-विचार कर सकता है। पशु तो कुछ समय के बाद अपने माँ-बाप को भी भूल जाते हैं, भाई-बहन को भी भूल जाते है और संसार व्यवहार कर लेते हैं। मनुष्य की मति में स्मृति रहती है।
इन्द्रियाँ तुम्हें संसार की ओर आकर्षित करेंगी लेकिन मति परिणाम का विचार करेगी। मति का आदर करोगे तो विकारों में से निर्विकारिता की ओर जाना बिल्कुल जरूरी दिखेगा। मति का आदर नहीं करोगे, मन-इन्द्रियाँरूपी चपरासी और कारकूनों के कहने में मति को बहाते रहोगे तो जगत सच्चा लगेगा। जगत सच्चा लगेगा तो जगत के भोगों में आकर्षण होगा। जगत के भोगों में आकर्षण होने से राग-द्वेष पनपेंगे। राग-द्वेष पनपने से इच्छा, भय, क्रोध, अशान्ति, जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि बने ही रहेंगे। अगर मति का आदर करोगे तो मति परिणाम का विचार करेगी। परिणाम का विचार करोगे तो मति मन को, इन्द्रियों को खाने-पीने की, देखने सुनने की इजाजत तो देती है लेकिन औषधवत्। खाना पीना, देखना-सुनना आदि सब औषधवत् हो जाय तो इन्द्रियों और मन का परिश्रम कम हो जाता है। उससे भी मति को थोड़ी पुष्टि मिलती है। ज्यों-ज्यों मति को पुष्टि मिलती है त्यों-त्यों मति देखने-सुनने आदि की इच्छाएँ कम करके अपने आप में तृप्त रहती है। तृप्त मति की योग्यता बढ़ जाती है। योग्यता बढ़ जाती है तो मन और इन्द्रियाँ मति के आधीन हो जाते हैं।
मनुष्य जन्म में ही ऐसी अवस्था आ जाती है कि जब चाहा तब इन्द्रियों को समेटकर मन में ले आये, मन को समेटकर परमात्मा में गोता मार दिया।
दिले तस्वीरे है यार.....
जबकि गरदन झुका ली, मुलाकात कर ली।
जब चाहा, आत्मसुख पा लिया।
मति में आत्मसुख पाने की आदत पड़ जाती है तो जब शरीर छूटता है तब मति में, अन्तःकरण में कोई वासना नहीं रहती। जब वासना नहीं रहती तो प्राण लोक-लोकान्तर में जाने के लिए उत्क्रमण नहीं करते। अभी तुम्हें चाय पीने की या कुछ खाने पीने की वासना जाग जाय तो तुम यहाँ से खिसक जाओगे। जब कोई वासना नहीं है तो भाग-दौड़ करने की जरूरत क्या है ? वासना जोर करती है तो आदमी की नजर इधर उधर जाती है। वह बेईमानी भी करता है, पैसे भी खर्च करता है। सब वासना के लिए ही करता है। जिसकी मति में कोई वासना नहीं होती उसकी मति परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है।
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठति।
वह साधक जीते जी सिद्ध पद को पा लेता है।
ज्ञानीनाम् प्राणाः न उत्क्रामन्ते-अत्रैव प्रवीलियन्ते।।
जिनको आत्मा, परब्रह्म परमात्मा का सुख मिल गया है, आत्म-साक्षात्कार हो गया है ऐसे ज्ञानी के प्राण देहोत्सर्ग के बाद उत्क्रमण नहीं करते हैं। शरीर का प्रारब्ध पूरा होते ही स्थूल शरीर पाँच भूतों में लीन हो जाता है, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म भूतों में लीन हो जाता है। आत्मा तो पहले से ही परब्रह्म परमात्मा में मिली हुई है। वह तो आत्म-साक्षात्कार के दिन ही सत् चित् आनन्दस्वरूप, आकाश भी अत्यन्त सूक्ष्म परब्रह्म परमात्मा से एक हो गई थी। केवल देह की बाधा थी। प्रारब्ध ने देह की बाधा को निवृत्त कर दिया। ज्ञानी व्यापक ब्रह्म हो गया।
अब हमारे हिस्से क्या कर्त्तव्य आता है ?
हमारे हिस्से आता है कि हम मन और इन्द्रियों का अधिक आदर न करें। तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा हैः
देखिये सुनिये गुनिये मन माँही।
मोहमूल परमारथ नाँही।।
देखने, सुनने और विचार करने में जो आता है वह सब मोहमूलक है। वह परमारथ माने वास्तविक सत्य नहीं है।
पतंगे को दिये में सत्य सुख दिखता है और वह उसमें कूदकर जल मरता है। मछली को काँटे में सत्य सुख दिखता है और वह फँस मरती है। हाथी को कृत्रिम हथिनी में सत्य सुख दिखता है और वह खड्डे में जा गिरता है, सदा के लिए बन्दी हो जाता है। भौंरे को कमल में सत्य सुख दिखता है और वह वहीं लिप्त रहता है। शाम होते ही कमल की पंखुड़ियाँ मुँद जाती हैं, भ्रमर कैद हो जाता है। हालाँकि लकड़ी में भी छेद करने वाले भौंरे में कमल की कोमल पँखुड़ियाँ छेदने की ताकत है लेकिन प्रमाद में सुख का एहसास करता हुआ पड़ा रहता है। इन्द्रियों के आकर्षण में फँसा रहता है। हाथियों का झुण्ड आता है, तालाब में उतरकर कमल को उखाड़ फेंकता है, पैरों तले कुचला जाता है, मारा जाता है।
ऐसा नहीं है कि हम बिल्कुल अज्ञानी हैं। क्या अच्छा है क्या बुरा है यह सब लोग जानते हैं। क्या पुण्य है क्या पाप है यह भी हम काफी हिस्से में जानते हैं। क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए यह भी हम लोग जानते हैं। फिर भी जो नहीं करना चाहिए वह करते हैं। उसके पीछे एक ही कारण है सुख का लालच। कुछ काम भयभीत होकर भी करने पड़ते हैं- लोग क्या बोलेंगे ? समाज क्या कहेगा ?
सुख के लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को कमजोर कर दिया। उन्होंने मति को अपने नियंत्रण में ला दिया। मन और इन्द्रियाँ मति की कमजोरी को जान लेते हैं। इससे उसको घसीटते रहते हैं। मन और इन्द्रियाँ नीति का और मुक्ति का आदर नहीं करते, सुख का लालच रखते हैं, मति भी सुख के लालच में फिसलने लगती है, दुःख के भय से भयभीत होती है तो न चाहते हुए भी मति को हल्के निर्णय करने पड़ते हैं, न चाहते हुए हल्के कामों में जुड़ना पड़ता है। इससे मति का स्वभाव हल्का बन जाता है।
ब्रह्मा जी को प्रेरणा हुई किः 'तपः....।'
तप करने से तेज बढ़ेगा, शक्ति बढ़ेगी। तप करने से 'स्व' का ख्याल आयेगा कि मैं इन मन इन्द्रियों का गुलाम नहीं हूँ। शरीर के मिटने से भी मैं नहीं मिटता हूँ। न मरने का डर, न जीने का लालच, न भोगने की वासना। ये तीनों झंझटें जब निकल जाती हैं तब जीव अपने वास्तविक आत्मा, परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।
मम दरशन फल परम अनूपा।
जीव पावहिं निज सहज स्वरूपा।।
भगवान राम कहते है कि मेरे दर्शन का परम फल क्या है ? परम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को, जो सत् चित् आनन्दस्वरूप है, जो रोम-रोम में रमा हुआ है उस राम को पा लेता है।
थका, हारा, नौकरों से सताया हुआ सेठ अपने निकट के मित्र सेठ से मिलता है तो उसका बल बढ़ जाता है। ऐसे ही जब हम जप करते हैं, तप करते हैं, ध्यान करते हैं, तो सेठों का भी सेठ, सारे विश्व का मालिक जो हमारा आत्मा होकर बैठा है उस विश्वेश्वर का सहयोग मति को मिल जाता है। मति में शक्ति आ जाती है और वह मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ती है।
तपःषु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।
सब तपस्याओं में एकाग्रता परम तपस्या है।
हम जब इन्द्रियगत ज्ञान का आदर करते हैं तब हम पर विकारों का हमला अवश्य होता है। हम जब बुद्धिगत ज्ञान का आदर करते हैं तब हम विकारी सुखों का आदर नहीं करते, विकारी वस्तुओं का उपयोग करेंगे। जैसे कहीं जाना है तो आँख से मार्ग देख लिया, शरीर को टिकाना है तो तन्दुरूस्ती का ख्याल करके खा लिया, सुनना है तो सार-सार बात सुन ली, बाकी पर ध्यान नहीं दिया। इससे हमारी शक्ति बच जाती है।
बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से इन्द्रियों का, मन का झंझट कम हो जाता है और बुद्धि को कम परिश्रम पड़ता है। बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से हमारा विवेक बढ़ता जाता है। विवेक बढ़ने से वैराग्य बढ़ेगा। संसार से राग उठ जायगा। देखेंगे कि संसार की कितनी वस्तुओं को सँभाला..... आखिर सब छोड़कर मरना है तो फिर बहुत पसारा क्यों करना ? शरीर को इतना अधिक खिलाया पिलाया तो बीमारी हुई। अतः संयम से खाना चाहिए। इन आँखों को आज तक कितना सारा दिखाया लेकिन अभी तृप्ति नहीं हुई। कानों को कितना सुनाया ? जीभ को कितना खिलाया ? आखिर क्या ? ऐसा विवेक जागेगा। विवेक जागेगा तो वैराग्य आयगा।
बुद्धि जब परिणाम का विचार करती है तब उसका परिश्रम कम होता है। उसको परमात्मा में प्रतिष्ठित होने का, समता में आने का समय मिलता है।
भगवान को बुलाना भी नहीं है और भगवान को प्रकट भी नहीं करना है। भगवान हाजराहजूर हैं।
आद् सत् जुगात् सत् है भी सत् नानक ! होसे भी सत्।
वर्षा की ऋतु में बादलों के कारण सूरज नहीं दिखता है। सूरज को बुलाना भी नहीं है, प्रकट भी नहीं करना है। केवल हवाएँ चलें, बादल बिखरें, सूरज दिख जाएगा। सूरज तो पहले से ही है और शाम तक दिखेगा।
यह आकाश का सूरज तो शाम तक दिखेगा लेकिन आत्म-सूर्य के लिए तो कोई शाम ही नहीं है। परमात्मारूपी सूर्य से हम कभी अलग नहीं होते। उस सत्यस्वरूप परमात्मा में बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाय, बस। सागर में तरंग विलय हो जाती है तो तरंग सागर बन जाती है। तरंग पानी तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था लेकिन इस बेचारे जीव को इन्द्रियों के आकर्षणों ने, जगत की सत्यता ने, बेवकूफी ने कई जन्मों तक भटकाया।
जीव को माता का गर्भ सीधा ही मिल जाता है ऐसी बात नहीं है। कई जीव माता के गर्भ में वीर्यबिन्दु के रूप में गिरते है लेकिन बाथरूम के द्वारा नालियों में बह जाते हैं। क्या दुर्दशा होती है जीवों की ? इस पृथ्वी पर जितने हम लोग घूमते हैं इससे अधिक मनुष्य जीव नालियों में बहते होंगे। इस बात को कोई भी तार्किक या नास्तिक भी अस्वीकार नहीं कर सकता है।
'मेरे दो बेटे हैं।'
'कैसे तुम्हारे बेटे ?'
'क्योंकि मेरे शरीर से पैदा हुए हैं।'
'तुम्हारे शरीर से पैदा क्या हुए, केवल गुजरे।'
हम लोग अन्न-जल-फल आदि खाते हैं। उसमें स्थित जीव वीर्य के द्वारा पत्नी के गर्भ में जाते हैं। कई जीवों में से एक जीव बेटा होकर जन्म लेता है, बाकी के जीव नाली में बह जाते हैं। वीर्य के एक बिन्दु में करीब तीन हजार जीव होते हैं। माता के उदर में जो जीव नहीं टिक पाते वे कहाँ जाएँगे ? रज-वीर्य के रूप में बहकर बाथरूम के द्वारा नाली में जाएँगे।
ऐसी कितनी ही दुःखद अवस्थाएँ हम लोग कितनी ही बार भोग चुके हैं। यह बात अगर मति को समझ में आ जाय तो मति में संसार का आकर्षण कम हो जाएगा। फिर राग नहीं रहेगा। राग नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा। राग में कोई विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। बड़ा आदमी विघ्न डालता है तो उससे भय होता है, छोटा आदमी विघ्न डालता है तो क्रोध होता है, बराबर का आदमी विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। जब वासना ही नहीं है तो भय कहाँ ? वासना ही  नहीं तो उद्वेग कहाँ ? वासना ही नहीं तो द्वेष कहाँ ? निर्वासनिक मनुष्य के राग, द्वेष, क्रोध, भय, उद्वेग आदि सब शिथिल हो जाते हैं। जब राग, द्वेष, भय, उद्वेग, चिन्ता आदि सब शिथिल हो जाते हैं। तो जीव निश्चिन्त हो जाता है। वस्तु मिलेगी कि नहीं मिलेगी.... काम होगा कि नहीं होगा.... मेरा आखिर क्या होगा ? पहले यह चिन्ता थी। जीव जब निर्वासनिक हो जाता है तो हिम्मत आ जाती है कि हो होकर मेरा क्या होगा ? जो होगा सो शरीर, मन, इन्द्रियों को होगा, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। शरीर, मन, इन्द्रियों का कितना भी लालन-पालन करो, आखिर तो छूटना ही है। रोटी तो भगवान देता ही है और साथ में कुछ ले जाना नहीं है। फिर चिन्ता किस बात की ? जो बना है और जो बनाएँगे वह सब मृत्यु के एक झटके में छोड़ना है। मति अगर यह दृढ़ निश्चय कर ले तो आदमी की चिन्ता टिक नहीं सकती। आदमी निश्चिन्त होकर मति में टिकेगा तो जिस बात का वह चिन्तन करता है वह काम अपने आप हो जाएगा।
आदमी जितना निश्चिन्त होता है उतनी उसकी मति परमात्मा में टिकती है। मति जितनी परमात्मा में टिकती है उतनी प्रकृति और लोग अनुकूल होने लगते हैं। यही कारण है कि जो दुरात्मा होता है उसकी इच्छाएँ जल्दी पूरी नहीं होती। थोड़ी-बहुत इच्छाएँ पूरी होती हैं फिर भी वह दुःखी का दुःखी ही रहता है। जो धर्मात्मा है, पवित्रात्मा है उसकी ज्यादा इच्छाएँ होती नहीं जो होती हैं वे तो पूरी हो ही जाती हैं, जो उसके नाम की मनौती मानते हैं उन लोगों की इच्छाएँ भी कुदरत पूरी कर देती है।
तप से ही जगत को धारण किया जाता है, तप से ही जगत चलता है और तप से ही जगत के आकर्षण से छूटकर जगदीश्वर को प्राप्त किया जाता है। अतः हमारे जीवन में तप का स्थान होना चाहिए, तप के लिए नियत समय रखना चाहिए। बाईस घण्टे भले व्यवहार एवं अन्य प्रवृत्ति के लिए रखो लेकिन ज्यादा नहीं तो कम से कम दो घण्टे तप करो, ध्यान करो। छः घण्टे नींद करो, आठ घण्टे नौकरी – धन्धा करो, फिर भी दस घण्टे बचते हैं। उन दस घण्टों में सत्कर्म और तप आदि करो, सेवा करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो लेकिन कम से कम दो घण्टों तप करो, ध्यान करो।
पानी को गर्म किया जाता है तो वह वाष्प बन जाता है और उसमें 1300 गुनी शक्ति आ जाती है। ऐसे ही तप से, ध्यान से मति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम बन गई तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसी शक्तिशाली मति आत्म-सूर्य के आगे आये हुए बादलों को हटा देगी। बादल फटते हीः
डीठो मुख शहनशाह जो हींयरें थ्योमकरार।
लथा रोग शरीर जा मुझे सत्गुर जे दीदार।।
अविद्या-अज्ञान के बादल हटते ही ब्रह्मविद्या के बल से मति परब्रह्म परमात्मा का प्रसाद पा लेती है। उस प्रसाद से जीव के सारे दुःख दूर हो जाते हैं। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, माताओं के गर्भों में जाना-आना तो दूर हो जाएगा, इस जन्म के कर्म भी जलकर भस्म हो जाएँगे।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरूतेऽर्जुन।
ज्ञानग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूते तथा।।
'हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर  देती है वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।'
(भगवद् गीताः 4.37)
जैसे सूर्य को दीमक नहीं लगती ऐसे ही जब आत्मसूर्य से एक होकर मति संसार में जीती है तो उसे कर्मों की दीमक नहीं लगती। पहले के कर्म ज्ञानाग्नि से जलकर भस्म हो जाते हैं और नये कर्म बनते नहीं हैं। मति में कर्त्ताभाव नहीं रहता। मति अब वास्तविक सत्ता को जानती है कि सब परमेश्वर में हो रहा है। मति को अपनी वासना नहीं है।
अष्टावक्र मुनि ने जनक से कहाः
अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
'जब पुरूष अपने आत्मा के अकर्त्तापने को, अभोक्तापने को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्त की वृत्तियाँ निश्चय करके नाश होती है।'
(अष्टावक्रगीताः 18.51)
चित्त की वृत्तियों से ही जीव को जन्म-मरण हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही राग-द्वेष हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही भय-शोक हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही काम-क्रोध हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही लोभ-मोह हो रहे हैं, चित्त की वृत्तियों से ही परेशानियों का प्रादुर्भाव हो रहा है। जब चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाएँगी या बाधित हो जाएँगी तब जीव परम शांति को प्राप्त होगा।
चित्तवृत्तियाँ क्षीण होना या बाधित होना माने क्या ?
नारियल की रस्सी दिख रही है। उसे जला दो। फिर उसका आकार तो वैसा ही दिखेगा लेकिन वह रस्सी अब बाँध नहीं सकेगी। मरूभूमि में दूर से पानी दिख रहा है। पास में जाकर देख लो तो रेत ही रेत है, पानी का नामोनिशान नहीं है। अब अपनी गद्दी पर पुनः बैठकर देखो तो वैसा ही पानी दिखेगा लेकिन पहले वाला आकर्षण नहीं रहेगा। ठूँठे में किसी को चोर दिखता है किसी को साहूकार दिखता है लेकिन बैटरी जलाकर देख लिया कि यह ठूँठा है। न चोर है न साहूकार है।
ऐसे ही जगत में न सुख है न दुःख है, न पुण्य है न पाप है, न अपना है न पराया है। एक ही परब्रह्म परमात्मा का सब विवर्त है। मति ने ऐसा जान लिया तो जगत का न आकर्षण होगा न द्वेष होगा, न राग होगा न द्वेष होगा। जो किसी से राग नहीं करता वह सबसे प्रीति करता है। जो किसी से राग नहीं करेगा वह किसी से द्वेष भी नहीं करेगा। जो सबसे प्रीति करता है वह किसी में प्रीति नहीं करता।
दुकानदार मोहवश परिवार से प्रीति करता है तो ग्राहकों का धन खींचता है। जिसको अपने परिवार से मोहजन्य प्रीति नहीं है वह ग्राहकों का धन खींचने में नहीं लगेगा। वह सारे विश्व का प्रेमपात्र बन जाएगा। सारे विश्व का प्रेमपात्र बन जायेगा तो कुटुम्बियों का भी प्रेमपात्र बन जाएगा। उनका भी कल्याण होगा।
लोगों को लगता है कि हम बच्चों से प्रेम करते है, पत्नी से प्रेम करते हैं। वास्तव में हम वासना से प्रेम करते हैं, इन्द्रियों से प्रेम करते है। वासनापूर्ति में जो सहयोग करते हैं उनको अपने खिलौने बनाते हैं। पत्नी पति से प्रेम करती हुई दिखती है लेकिन वह अपनी वासना से प्रेम करती है। जब वासना से प्रेम होता है तब प्रेम के नाम से एक दूसरे का  शोषण होता है। वासनारहित जब प्रेम होता है तब वह परमात्मा हो जाता है और उद्धार कर देता है।
जीव को प्रेम करने की तो आदत है, वासना है। इस प्रेम को ऊर्ध्वमुखी बनाना है। देखने की वासना है तो ठाकुरजी को देखो। किसी का होने की वासना है तो भगवान के हो जाओ। 'मैं पत्नी का हूँ.... मैं पति की हूँ...' इसके स्थान पर 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं' यह भाव बना लो। जैसे गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील घुमाने से गाड़ी की दिशा बदल जाती है ऐसे ही अपनी अहंता और ममता को, 'मैं' और 'मेरे' पने को बदलने से बहुत सारा बदल जाएगा। 'मैं घनश्याम हूँ..... मैं पत्नी का हूँ.... मैं संसारी हूँ..... मैं गृहस्थी हूँ.......' ऐसा भान रखने से उस प्रकार की वासना और जवाबदारी रहेगी। 'मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं......' यह अहंता बदलने से जीवन बदल जाएगा। हम स्वयं को आत्मा मानेंगे, परमात्मा का अंश मानेंगे तो अपने में आत्मा की अहंता करेंगे, देह की अहंता मिट जाएगी। देह की अहंता मिटते ही जाति की संकीर्णता मिट जाएगी। अपने मन की मान्यताओं की संकीर्णताएँ मिट जाएगी। 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं....।' भगवान सत् चित् आनन्दस्वरूप हैं तो सुख के लिए, आनन्द के लिए हमें इन्द्रियों की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी। इन्द्रियों का उपयोग करने की ताकत बढ़ जाएगी। इन्द्रियों की गुलामी के बजाय इन्द्रियों का उपयोग करोगे तो इन्द्रियों में जल्दी से बीमारी भी नहीं आयेगी। शरीर तंदुरूस्त रहेगा, मन-बुद्धि में लाचारी नहीं रहेगी। जब इन्द्रियों का सुख लेते हो तो बकरी बन जाते हो।
सुख आत्मा का लो और उपयोग इन्द्रियों का करो। जीवन सिंह जैसा बन जाएगा, व्यवहार और परमार्थ सब ठीक हो जाएगा।
ये सब बातें सत्संग के बिना समझ में भी नहीं आतीं, इन बातों में रूचि भी नहीं होती और इनके रहस्य हृदय में प्रकट भी नहीं होते। इसीलिए सत्संग की बड़ी महिमा है।
वशिष्ठ जी कहते हैं कि चाहे चण्डाल के घर की भिक्षा ठीकरे में माँगकर खानी पड़े और आत्मा-परमात्मा के ज्ञान का सत्संग मिलता हो तो उस जगह का त्याग नहीं करना चाहिए। राज वैभव-ऐश्वर्य हो लेकिन आत्मज्ञान न मिलता हो तो उस ऐश्वर्य और राज वैभव को लात मार दो। ये भोग शरीर तक ही सुखाभास देंगे, फिर जन्म-मरण के चक्कर में जाना पड़ेगा, नालियों में कीड़ा होकर बहना पड़ेगा। आत्मा-परमात्मा को पाने के लिए राज वैभव का त्याग करना पड़े तो भी कोई खतरा नहीं है। क्योंकि एक दिन मरकर तो सब कुछ छोड़ना ही है। मरकर, लाचार होकर छोड़ें और वासना लेकर भटकें, फिर कहीं न कहीं कैसी भी योनि में जन्म लें इससे तो जीते जी वासना मिटाकर निर्वासनिक आत्मा परमात्मा का सुख पाने का अभ्यास शुरू कर दें यह अच्छा है।
सत्संग समझने के लिए भी तप की जरूरत पड़ती है। एकाग्रता चाहिए, विवेक चाहिए। तप करने के लिए तप में रस आना चाहिए, तब मन तप करेगा। मन को जहाँ रस नहीं आता वह तप नहीं करता। इन्द्रियों से सुख लेने में मन को जल्दी रस आ जाता है, भले वह नकली हो, भ्रांति मात्र हो। मिट्टी के खिलौने का आम बारह महीनों मिलता है। बच्चा उसी में खेलता रहता है। असली आम तो केवल ऋतु में ही मिलता है, पहले कच्चा और खट्टा होता है, फिर खटमीठा होता है, फिर पकता है, पूरा समय होता है तब मीठा बनता है। खिलौने का आम तो पहले से ही पूरा पीला होता है। जगत भी एक खिलौना है। इन्द्रियों के सुख सब पहले से ही तैयार हैं रस देने के लिए लेकिन बाद में सत्यानाश करते हैं। अंगारा चमचम चमकता है। बच्चे को वह दूर से बढ़िया खिलौना लगता है। जब हाथ डालता है तब चिल्लाता है। ऐसे ही संसार के सुख भोगे नहीं तब तक आकर्षक लगते हैं भोगते ही पछताना पड़ता है। एक बार ही नहीं कई बार पछताने के बाद भी हम लोग फिर वहीं जाते हैं क्योंकि सच्चा सुख विवेक नहीं है, सच्चे सुख का ज्ञान नहीं है। सच्चे सुख का थोड़ा बहुत विवेक है, थोड़ा बहुत ज्ञान है लेकिन उस सच्चे सुख का स्वाद लेने की क्षमता नहीं है इसलिए बार-बार हल्के स्वाद में गिर जाते हैं।
अब बात यह रही किः
मिल जाए कोई पीर फकीर।
पहुँचा दे भव पार....।।
ऐसे कोई महापुरूष मिल जाएँ तो उस तत्त्व का स्वाद दिला दें।
मन को अगर अच्छी तरह शिक्षित किया जाय तो वह हमारा बड़ा, भारी में भारी, ऊँचे में ऊँचा मित्र है। सारे विश्व में ऐसा कोई मित्र नहीं हो सकता। इसके विपरीत, मन हमारा भारी में भारी शत्रु भी है। मन जैसा शत्रु सारे विश्व में नहीं हो सकता। मन शत्रु क्यों है ?
मन अगर इन्द्रियों के विकारी सुखों में भटकता रहा तो चौरासी लाख योनियों में युगयुगान्तर तक हमें भटकना पड़ेगा। ऐसा वह खतरनाक शत्रु है।
मन मित्र कैसे है ?
मन अगर तप और परमात्मा के ध्यान की तरफ मुड़ गया तो वह ऐसा मित्र बन जाता है कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों के अरबों-अरबों संस्कारों को मिटाकर, इसी जन्म में ज्ञानाग्नि जलाकर, आत्मा-परमात्मा की मुलाकात कराकर मुक्ति का अनुभव करा देता है।
इसलिए शास्त्र कहते हैं किः
मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धनमोक्षयोः।
हमारा मन ही हमारे बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
बन्धुरात्मानस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।
'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है आप ही अपना शत्रु है।'
'जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ नहीं जीती गई हैं, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।'
(भगवद् गीताः 6.5.6)
जब इन्द्रियाँ और मन अनात्म वस्तुओं में सत्यबुद्धि करके सुख पाने की मजदूरी करते हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका शत्रु है। जब मन और इन्द्रियाँ आत्मा-परमात्मा के सुख में अन्तर्मुख होती हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका मित्र है। हम जब विकारों का सुख लेते हैं तब हम अपने आपसे शत्रुता करते हैं और जब निर्विकारी सुख की ओर आते हैं तब हम अपने आपके मित्र हैं।
भगवान कहते हैं कि अपने आपको अधोगति की ओर नहीं ले जाना चाहिए। अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को परमात्मा की ओर ले जाना चाहिए। हम जब परमात्मा के विषय में सुनेंगे, उनकी महिमा और गुण सुनेंगे, उनके नाम का जप, ध्यान आदि करेंगे तब भीतर का सुख मिलेगा। भीतर का सुख मिलेगा तो हम आपके मित्र बन गये।
भीतर का सुख मिल जाता है लेकिन विकारी सुख में गिरने की पुरानी आदत है इसलिए बार-बार उधर चले जाते हैं। इसलिए हमें विवेक जगाना चाहिए, थोड़े नियम, थोड़े व्रत ले लेने चाहिए। व्रत ले लेते हैं तो मन धोखेबाजी कम करता है। सच्चा सुख पाने का आपका संकल्प नहीं होता, उसके लिए व्रत नहीं करते इसलिए मन और इन्द्रियाँ अपने पुराने अभ्यास के मुताबिक बुद्धि को वहीं घसीट ले जाते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञावाले महापुरूषों का संग करने से अपनी मति में, बुद्धि में शक्ति बढ़ती है।
भगवान शिवजी पार्वती से कहते हैं-
उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।
यह भी हरि की अहैतुकी कृपा है कि हमें ऊँचे में ऊँची चीज, ब्रह्मज्ञान का सत्संग सहज में मिल रहा है। जो हल्की चीज होती है उसके लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जो ऊँची चीज होती है उसके लिए परिश्रम करो, सौ रूपये कमाओ फिर दारू खरीद सकते हो। शरीर के लिए दारू बिल्कुल आवश्यक नहीं है। पानी शरीर के लिए बहुत जरूरी है और वह मुफ्त में मिल जाता है।
प्रवास पर जाते हैं तो भोजन का टिफिन घर से ले जाते हैं लेकिन भोजन से भी अधिक आवश्यक पानी घर से  नहीं ले जाते। वह स्टेशन पर भी मिल जाता है। पानी के लिए भी बर्तन तो लेना पड़ता है जबकि पानी से भी अधिक आवश्यक हवा के लिए कुछ नहीं लेना पड़ता, कुछ नहीं करना पड़ता। पानी के बिना तो कुछ घण्टे चल सकता है लेकिन हवा के बिना शरीर जी नहीं सकता। ऐसी मूल्यवान हवा सर्वत्र निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में सबको प्राप्त है।
ऐसे ही जो अत्यंत जरूरी हैं, महान हैं वे परमात्मा स्वर्ग-नरक में सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल मति को उन्हें देखने की कला आ जाय, बस। परमात्मा को देखने की कला आ जाय तो सदा सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है।
हररोज खुशी हरदम खुशी हर हाल खुशी
जब आशिक मस्त फकीर हुआ
तो फिर क्या दिलगिरी बाबा ?
जैसे हवा सर्वत्र है ऐसे ही ज्ञानी जहाँ कभी जाएगा वहाँ उसके लिए सत् चित् आनन्दस्वरूप परमात्मा हाजिर हैं। उसके लिए इन्द्रियों और शरीर में रहते हुए मन, इन्द्रियों और शरीर के आकर्षण से जो पार है, अपने परमात्मानन्द में है, ब्रह्मानन्द में है ऐसे महापुरूष की तुलना तुम किससे करोगे ?
तस्य तुलना केन जायते।
ऐसा महापुरूष संसार की किसी भी परिस्थिति से द्वेष नहीं करता क्योंकि उसको किसी के लिए राग नहीं है तो द्वेष भी कहाँ से लायगा ? रागी को द्वेष होता है।
ज्ञानी का राग तो संसार में है नहीं। उसका राग तो परमात्मा में है और परमात्मा सब जगह मिलते हैं, परमात्मा सर्वत्र मौजूद हैं, परमात्मा ज्ञानी का अपना आपा होकर बैठे हैं। इसलिए ज्ञानी को कोई भी सासांरिक परिस्थिति का राग नहीं है। राग नहीं है तो द्वेष भी नहीं है। राग द्वेष नहीं है तो उसका चित्त सदा समाहित है।
सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।
जिसकी वासनाओं का, अज्ञान का अन्त हो गया है उनको संत बोलते हैं। ऐसे संत इन्द्र के वैभव को भी तुच्छ गिनते हैं। ऐसा वैभव उनको प्राप्त हो गया है।

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