पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, March 8, 2010




निश्चिन्त जीवन पुस्तक से - Nishchint Jeevan pustak se

ब्रह्माकार वृत्तिवाला भगवद् पद से, भगवत् तत्त्व से एक क्षण भी वह चलित नहीं होता। सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण की वृत्तियों से काम लेता होगा लेकिन अपनी ऊँचाई पर टिका रहता है। सनकादिक ऋषि पाँच वर्ष के बालक.... क्रीड़ा करते हैं, यात्रा करते हैं लेकिन एक क्षण भी ब्रह्माकार वृत्ति से, भगवदानुभव से दूर नहीं जाते। वशिष्ठजी महाराज उपदेश करते हैं, आश्रम चलाते हैं लेकिन एक क्षण भी ब्रह्माकार वृत्ति से दूर नहीं होते। शुकदेवजी महाराज जंगल छोड़कर बस्ती में आते हैं, रास्ते से गुजरते हैं, लोग कंकड़-पत्थर मारते हैं, अपमान करते हैं लेकिन शुकदेव जी महाराज के लिए सब ब्रह्म है। उन्हें कोई क्षोभ नहीं होता। राजा परीक्षित के दरबार में सोने के सिंहासन पर बैठते हैं तो कोई हर्ष नहीं होता। हर्षाकार, शोकाकार, दुःखाकार वृत्ति का कोई महत्त्व ही नहीं है उनके लिए। ये सारी वृत्तियाँ बाधित हो जाती हैं। ऐसा नहीं कि ज्ञानी को ठण्ड नहीं लगती, ज्ञानी को सज्जन सज्जन नहीं दिखेगा, दुर्जन दुर्जन नहीं दिखेगा। दिखेगा तो सही लेकिन उसमें सत्य बुद्धि नहीं होगी। उसकी शाश्वतता नहीं दिखेगी।
रस्सी में साँप दिखा। टॉर्च जलाकर देख लिया कि साँप नहीं है, रस्सी है। फिर टॉर्च बंद करके दूर जाकर बैठे तो वहाँ से दिखेगा कि साँप जैसा ही लेकिन साँप की सत्यता गायब हो गई।
ठूँठे में चोर दिखा। टॉर्च जलाकर देख लिया कि चोर नहीं है, ठूँठा है ! फिर दूर से चोर जैसा ही दिखेगा लेकिन वास्तविकता जान ली है।
मरूभूमि में पानी दिखा। वहाँ गये। मरूभूमि को मरूभूमि जान लिया। वापस आ गये। तुम्हारे दोस्त आकर बोलते हैं- 'चलो, उस पानी में नहाकर आयें।' तुम समझाते हो कि वहाँ पानी नहीं है, मैं देखकर आया हूँ। मित्र आग्रह करते हैं तो तुम भी चल पड़ते हो। दस आदमी वे हैं, ग्यारहवें तुम भी तौलिया लेकर साथ में हो लिये। वे लोग जा रहे हैं सत्य बुद्धि से, तुम जा रहे हो, विनोद-बुद्धि से। वे सब जानते हैं कि पानी नहीं है, मरूभूमि है तब वे दुःखी होते हैं जबकि तुम्हें तो विनोद होगा और कहोगे किः मैं तो पहले से ही जानता था।
ऐसे ही ब्रह्माकार वृत्ति बनने के बाद तुम जगत के साथ यथायोग्य व्यवहार करोगे लेकिन जगत के लोग जगत से सुख पाने की कोशिश करते हैं जबकि तुम्हें पता है कि जगत से सुख नहीं मिल सकता। जैसे मरूभूमि से पानी नहीं मिल सकता ऐसे ही संसार से कोई वास्तविक शाश्वत सुख नहीं मिल सकता। यह तुम्हें पता है इसलिए संसार का कोई आकर्षण नहीं होगा।
तुम वही होते हो जैसी तुम्हारी वृत्ति होती है। दुकान की वृत्ति करते हो तो तुम दुकान पर हो, घर की वृत्ति करते हो तो तुम घर पर हो, बाजार की वृत्ति करते हो तो बाजार में हो, देह की वृत्ति करते हो तो तुम देह में हो, जाति की वृत्ति की गाँठ बाँधते हो तो जाति वाले हो, सम्प्रदाय की वृत्ति की गाँठ बाँधते हो तो सम्प्रदाय वाले बन जाते हो, भगवदाकार वृत्ति बनाते हो तो भगवान में आ जाते हो, दुःखाकार वृत्ति करते हो तो दुःखी होते हो, सुखाकार वृत्ति बनाते हो तो सुखी होते हो।
ऐसे ही तुम ब्रह्माकार वृत्ति बनाओगे तो ब्रह्म हो जाओगे, बेड़ा पार हो जाएगा।
जो इस ब्रह्माकार वृत्ति को जानते हैं, जानकर उसे बढ़ाते हैं वे सत्पुरूष धन्य हैं। वे तीनों लोकों में वन्दनीय हैं।
वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।
मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।
तुम जब अपने-अपने घर जाओगे, अपने-अपने व्यवहार में जाओगे तब अपनी गली याद रखना कि यह तुम्हारा घर नहीं है शरीर का घर है... तुम्हारा व्यवहार नहीं है, शरीर का व्यवहार है।
तुम्हारा घर तो... जो प्रभु का घर है वही तुम्हारा घर है।
वास्तव में तो जिस ईंट, चूने, लोहे, लक्कड़ के घर को तुम 'मेरा' घर मान रहे हो वह घर भी प्रभु का है। जिन चीजों से घर बना है वे चीजें प्रकृति की हैं। प्रकृति परमात्मा की है। कुम्हार ने ईंटें बनाईं मिट्टी, अग्नि, पानी से। मिट्टी, अग्नि, पानी किसी व्यक्ति के नहीं हैं, ये ईश्वर की चीजें हैं। ईश्वर की चीजों से चूना बना, ईश्वर की चीजों से लक्कड़ बना। ईश्वर की ईंट, चूना, लोहा, लक्कड़ के मिश्रण से घर बना तो यह घर किसका हुआ ? ईश्वर का हुआ।
"बरसात तुम बनाते हो ?"
"नहीं, ईश्वर बनाता है।"
"जमीन तुमने बनाई ?"
"नहीं, ईश्वर ने बनाई।"
"अन्न किसका हुआ ?"
"ईश्वर का हुआ।"
ईश्वर का अन्न खाकर बच्चे पैदा किये। इस बच्चों में ममता हो गई कि ये मेरे बच्चे हैं। अपने बच्चों में से ममता हटाकर उन्हें ईश्वर के बच्चे समझकर उनका लालन-पालन करो तो अन्तःकरण शुद्ध हो जाएगा। लेकिन होता क्या है ? ये मेरे बच्चे हैं... उन्हें अच्छा बनाऊँ... उन्हें अच्छा पढ़ाऊँ... दूसरे किसी के बेटे अनपढ़ रह जाएँ तो कोई हर्ज नहीं लेकिन मेरे बेटे बढ़िया हों...... यह ममता है। यह देहाकार वृत्ति का परिणाम है। 'दूसरों के बेटे जिस तत्त्व के हैं उसी तत्त्व के ये मेरे बेटे हैं।' इस प्रकार की वृत्ति बनाओगे तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न होने में सहाय मिलेगी।
जो पराये हैं उन्हें अपना मानो और जो अपने हैं उन्हें ठाकुर जी के मानो, तुम्हारा व्यवहार, धन्धा, घर-गृहस्थी सब बन्दगी हो जाएगी।
उधार लेकर, करप्शन करके, झूठ बोलकर, काला बाजार करके लोग अपने बच्चों को खिलाते हैं, पिलाते हैं, पढ़ाते हैं, परिवार को सुखी करने का प्रयास करते हैं लेकिन उनको कभी ऐसा नहीं लगता कि मैं अपने घर में, अपने परिवार में हर महीने दो हजार, पाँच हजार आदि का दान करता हूँ। क्योंकि वे यह खर्च ममतावश होकर कर रहे हैं इसलिए दान का फल नहीं मिलता। पाँच रूपये भी अगर किसी अजनबी की सेवा में लगा देते हैं तो अन्तःकरण प्रसन्न हो जाता है कि आज अच्छा काम किया। क्योंकि वहाँ ममता नहीं है।
सत्त्वगुण से बुद्धि में सब प्रकार के ज्ञान का प्रकाश पाने की योग्यता बढ़ती है। ऋषि दीर्घ काल तक जीते थे, दीर्घजीवी होते थे लेकिन पहलवान दीर्घायु नहीं सुने गये।
आसन करने से, प्राणायाम करने से नाड़ी तंत्र को, स्वास्थ्य तंत्र को, जठराग्नि को, मस्तिष्क को ठीक से व्यायाम मिलता है। उनमें ठीक से क्षमताएँ विकसित होती हैं। ऋषि पद्धति से जो लोग आसन, प्राणायाम करते हैं उनको डॉक्टरों के इन्जैक्शन एवं केप्सूलों के कारण दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती। जो लोग स्वास्थ्य के नियम तथा आसन-प्राणायाम जानते हैं उनको बार-बार हकीमों, डॉक्टरों को परेशान करने का समय नहीं आता है। वे सहज ही स्वस्थ रहते हैं।
मन में जितनी हल्की इच्छाएँ ज्यादा होती हैं उतना चित्त में विक्षेप ज्यादा होता है। मन ज्यादा विक्षिप्त रहता है तो तन बार-बार बीमार पड़ता है। मन में इच्छाएँ, वासनाएँ जोर मारती हैं तो मन विक्षिप्त रहता है, इसको आधि कहते हैं। जिसके मन में आधि आती है उसका तन व्याधियों से घिर जाता है। शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है तब एलौपैथी दवाइयों से उन व्याधियों को थोड़ा दबाया जा सकता है। लेकिन मन में अगर आधि है तो व्याधियाँ फिर से पनप उठती हैं। एलौपैथी की दवाइयों से रिएक्शन होने की संभावना रहती है। एक व्याधि जाती है तो दूसरी व्याधि आने की संभावना बहुत रहती है। आयुर्वैदिक ढंग से व्याधियों को दूर हटाते हैं तो उसमें थोड़ा समय लगता है लेकिन व्याधियाँ मिटती हैं और बदले में दूसरी व्याधि नहीं आती, अगर आयुर्वेदिक नियम जानने वाला सही वैद्य हो और परहेज पालने वाला मरीज हो तो।
रोग उत्पन्न कैस होते हैं और कुदरती ढंग से निर्मूल कैसे किये जा सकते हैं यह जानना चाहिए। बहुत सारे रोग तो हमारी बेवकूफी की देन हैं। न चिन्तन करने जैसा मन में चिन्तन करते हैं, भय न जगाने जैसा भय जगाते हैं, अनावश्यक उद्वेग जगाते हैं इससे भी शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मानो, हमारा कोई मित्र चला गया या किसी ने हमें कुछ किया तो बार-बार उसका दुःखद चिन्तन करने से हमारा स्वास्थ्य बिगड़ जाता है कभी भी दुःखद चिन्तन को महत्त्व नहीं देना चाहिए। मानो हमारे पिता चल बसे। मोह के कारण हम रोयेंगे लेकिन बुद्धि भी है तो उनकी उत्तर क्रिया करके उनकी जीवात्मा को प्रेरणा देंगे कि आपका शरीर नश्वर था। हे पिता ! आपकी आत्मा तो शाश्वत है। आप कभी मरते नहीं। इस जन्म में आपका और मेरा बाप-बेटे का सम्बन्ध था परन्तु ऐसे तो तुम्हारे कई बेटे और हमारे कई बेटे और हमारे कई पिता भी हो गये। आप कौन-कौन से बेटे को याद करेंगे और हम कौन कौन से पिता को याद करेंगे ? इसलिए आप अमरता की ओर चलिये और मुझे भी आशीर्वाद दीजिए की मैं इस शरीर को मरने वाला समझूँ और स्वयं आत्मा को अमर जानकर मुक्तता का प्रसाद पाऊँ और आप भी अमर हो जाओ। अन्य किसी गर्भ में मत जाओ।
मानो, मेरा इकलौता बेटा मर गया। अखबारों में खबर छप गई कि आसाराम जी महाराज के पुत्र का निधन हो गया। लोग मिलने को आयें और मैं रोता रहूँ तो वह मेरी बेवकूफी है। मैं आपसे कहूँ- "मेरा बेटा मर गया, व्यावहारिक जगत में यह कहना ठीक होगा शायद, लेकिन वास्तव में मेरा बेटा कभी पैदा ही नहीं हुआ था। पैदा हुआ था पंचभौतिक शरीर और पंचभौतिक शरीर पाँच भूतों में लीन हो गया। बाकी आत्मा-परमात्मा तो अद्वितीय स्वरूप है। उसमें कौन जन्मा और कौन मरा ? सामाजिक मान्यताओं के कारण हम एक दूसरों को आश्वासन देते हैं क्योंकि हम बहुत नीचे जगत में जीते हैं। बुद्ध पुरूषों के, ज्ञानवानों के अथवा सत्शास्त्रों के विचारों में हम नहीं जीते इसलिए हमें परेशानी होती है। आपकी शुभ भावना से मुझे ऐसी परेशानी नहीं है। आप लोग बैठिये, सत्संग सुनिये, प्रसाद पाइये, आनन्द में रहिए।"
आने वालों को मैंने सान्तवना दे दी क्योंकि मेरे अन्तःकरण में बेवकूफी के बदले गुरू की कृपा का प्रसाद है।
धन से बेवकूफी नहीं मिटती है, सत्ता से बेवकूफी नहीं मिटती है, तपस्या से बेवकूफी नहीं मिटती है, व्रत रखने से बेवकूफी नहीं मिटती है। बेवकूफी मिटती है ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों के कृपा-प्रसाद से और सत्संग से, सत्शास्त्रों की रहमत से।
दुनियाँ में जो भी दुःख हैं उनके मूल में बेवकूफी काम करती है। जितनी बेवकूफी प्रगाढ़ होगी उतना दुःख प्रगाढ़ होगा। जितनी बेवकूफी शिथिल होगी उतना दुःख शिथिल होगा। बेवकूफी चली गई तो तुम आनन्दस्वरूप बन जाते हो। हमारी और ईश्वर की जात एक होते हुए भी हम बेवकूफी के कारण अपने को दीन, हीन, दुःखी, जन्मने-मरनेवाला बनाकर परेशान हो रहे हैं।

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