पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 30, 2010



पुरुषार्थ परमदेव पुस्तक से - Purusharth Paramdev pustak se

ज्ञानवान जो संत हैं और सत्शास्त्र जो ब्रह्मविद्या है उसके अनुसार प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ से पाने योग्य आत्मज्ञान है जिससे जीव संसार समुद्र से पार होता है।
हे राम जी! जो कुछ सिद्ध होता है वह अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं। जो लोग कहते हैं कि दैव करेगा, सो होगा, यह मूर्खता है। जिस अर्थ के लिए दृढ़ संकल्प के साथ पुरुषार्थ करे और उससे फिरे नहीं तो उसे अवश्य पाता है।
संतजन और सत्शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है। मूर्ख और पामर लोग उसी में अपना जन्म गँवा देते हैं। उन जैसे अभागों का संग करना यह अपने हाथों से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है।
हे रघुकुलतिलक श्री राम ! केवल चैतन्य आत्मतत्त्व है। उसमें चित्त संवेदन स्पन्दनरूप है। यह चित्त-संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूप होता है और नारायण कहलाता है। यही चित्त-संवेदन अपने पुरुषार्थ से रूद्ररूप हो परमशान्तिरूप को धारण करता है। चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्त्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है। एक जीव पुरुषार्थ बल से ही त्रिलोकपति इन्द्र बनकर चमकता है और देवताओं पर आज्ञा चलाता है। मनुष्य तो क्या देवताओं से भी पूजा जाता है। कहाँ तो साधारण जीव और कहाँ त्रिलोकी में इन्द्रदेव बन कर पूजा जाना ! सब पुरुषार्थ की बलिहारी है।
बृहस्पति ने दृढ़ पुरुषार्थ किया इसलिए सर्वदेवताओं के गुरु हुए। शुक्रजी अपने पुरुषार्थ के द्वारा सब दैत्यों के गुरु हुए हैं। दीनता और दरिद्रता से पीड़ित नल और हरिश्चन्द्र जैसे महापुरुष पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। पुरुषार्थ से जो सुमेरू का चूर्ण करना चाहो तो वो भी हो सकता है। अपने हाथ से जो चरणामृत भी नहीं ले सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड-खण्ड करने में समर्थ हो जाता है। पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड करने में समर्थ हो जाता है।
हे रामजी ! चित्त जो कुछ वांछा करता है और शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ नहीं करता सो सुख न पालेगा, क्योंकि उसकी उनुमत्त चेष्टा है।
पौरूष भी दो प्रकार का है। एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्रविरुद्ध।
जो शास्त्र को त्यागकर अपने इच्छा के अनुसार विचरता है सो सिद्धता न पावेगा और जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करेगा वह सिद्धता को पावेगा। वह कदाचित दुःखी न होगा।
हे राम ! पुरुषार्थ ही परम देव है। पुरुषार्थ से ही सब कुछ सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं है। जो कहता है कि "जो कुछ करेगा सो देव करेगा।" वह मनुष्य नहीं गर्दभ है। उसका संग करना दुःख का कारण है।
मनुष्य को प्रथम तो यह करना चाहिए कि अपने वर्णाश्रम के शुभ आचारों को ग्रहण करे और अशुभ का त्याग करे। फिर संतों का संग और सत्शास्त्रों का विचार करे। अपने गुण और दोष भी विचारे कि दिन और रात्रि में अशुभ क्या है। फिर गुण और दोषों का साक्षी होकर संतोष, धैर्य, विराग, विचार और अभ्यास आदि गुणों को बढ़ावे और दोषों का त्याग करे। जीव जब ऐसे पुरुषार्थ को अंगीकार करेगा तब परमानन्दरूप आत्मतत्त्व को पावेगा।
वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानकर खाता है। विवेकी मनुष्य को उस मृग की भांति स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न नहीं होना चाहिए। इनसे विरक्त होकर, दाँत भीँचकर संसारसमुद्र से पार होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही संसार की कैद से निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है। नश्वर चीजें बढ़ाकर, अहं को बढ़ाकर, चीख-चीखकर मर जाने का नाम पुरुषार्थ नहीं है।
एक भगतड़ा था सब देवी देवताओं का मानता था और आशा करता थाः "मुझे कोई मुसीबत पड़ेगी तब देवी देवता मेरी सहायता करेंगे।" शरीर से हट्टाकट्टा, मजबूत था। बैलगाड़ी चलाने का धन्ध करता था।
एक दिन उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह भगतड़ा बैलगाड़ी पर बैठा-बैठा एक-एक देव को पुकारता था कि- 'हे देव! मुझे मदद करो। मेरी नैया पार करो। मैं दीन हीन हूँ। मैं निर्बल हूँ। मेरा जगत में कोई नहीं। मैं इतने वर्षों में तुम्हारी सेवा करता हूँ... फूल चढ़ाता हूँ... स्तुति भजन गाता हूँ। इसलिए गाता था कि ऐसे मौके पर तुम मेरी सहाय करो।"
इस प्रकार भगतड़ा एक-एक देव को गिड़गिड़ाता रहा। अन्धेरा उतर रहा था। निर्जन और सन्नाटे के स्थान में कोई चारा न देखकर आखिर उसने हनुमान जी को बुलाया। बुलाता रहा.... बुलाता रहा....। बुलाते-बुलाते अनजाने में चित्त शान्त हुआ। संकल्प सिद्ध हुआ। हनुमान जी प्रकट हुए। हनुमान जी को देखकर बड़ा खुश हुआ।
"और सब देवों को बुलाया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। आप ही मेरे इष्टदेव हैं। अब मैं आपकी ही पूजा करूँगा।"
हनुमान जी ने पूछाः "क्यों बुलाया है?"
भगतड़े ने कहाः "हे प्रभु ! मेरी बैलगाड़ी कीचड़ में फँसी है। आप निकलवा दो।"
पुरुषार्थमूर्ति हनुमान जी ने कहाः "हे दुर्बुद्धि ! तेरे अन्दर अथाह सामर्थ्य है, अथाह बल है। नीचे उतर। जरा पुरुषार्थ कर। दुर्बल विचारों से अपनी शक्तियों का नाश करने वाले दुर्बुद्धि ! हिम्मत कर नहीं तो फिर गदा मारूँगा।"
निदान, वह हट्टाकट्टा तो था ही। लगाया जोर पहिए को। गाड़ी कीचड़ से निकालकर बाहर कर दी।
हनुमान जी ने कहाः "यह बैलगाड़ी तो क्या, तू पुरुषार्थ करे तो जन्मों-जन्मों से फँसी हुई तेरी बुद्धिरूपी बैलगाड़ी संसार के कीचड़ से निकालकर परम तत्त्व का साक्षात्कार भी कर सकता है, परम तत्त्व में स्थिर भी हो सकता है।
तस्य प्रज्ञा प्रतिहिता
जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नही होती। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और दैव (भाग्य) के आश्रय होकर समझता है कि "दैव हमारा कल्याण करेगा" तो वह कभी सिद्ध नहीं होगा। पत्थर से कभी तेल नहीं निकलता, वैसे ही दैव से कभी कल्याण नहीं होता। वशिष्ठजी कितना सुन्दर कहते हैं !
"हे निष्पाप श्री राम ! तुम दैव का आश्रय त्याग कर अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो। जिसने अपना पुरुषार्थ त्यागा है उसको सुन्दरता, कान्ति और लक्ष्मी त्याग जाती है।"
जिस पुरुष ने ऐसा निश्चय किया है कि 'हमारा पालने वाला दैव है' वह पुरुष है जैसे कोई अपनी भुजा को सर्प जानकर भय खा के दौड़ता है और दुःख पाता है।
पुरुषार्थ यही है कि संतजनों का संग करना और बोधरूपी कलम और विचाररूपी स्याही से सत्शास्त्रों के अर्थ को हृदयरूपी पत्र पर लिखना। जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसार रूपी जालल में न गिरोगे। अपने पुरुषार्थ के बिना परम पद की प्राप्ति नहीं होती। जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अमृत के भी अमृत अन्तर्यामी के पास बैठकर भी यदि विवेक.... वैराग्य जगाकर इस आत्मरस का पान नहीं करते तब तक अमर आनन्द की प्राप्ति नहीं होती।
हे राम जी ! अज्ञानी जीव अपना जन्म व्यर्थ खोते हैं। जब बालक होते हैं तब मूढ़ अवस्था में लीन रहते हैं, युवावस्था में विकार को सेवते हैं और वृद्धावस्था में जर्जरीभूत हो जाते हैं। जो अपना पुरुषार्थ त्याग कर दैव का आश्रय लेते हैं वे अपने हन्ता होते हैं। वे कभी सुख नहीं पाते। जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ में आलसी होकर तथा पुरुषार्थ को त्याग कर मूढ़ हो रहे हैं सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त होते हैं।
पूर्व में जो कोई पाप किया होता है उसके फलस्वरूप जब दुःख आता है तब मूर्ख कहता है किः 'हा दैव....! हा दैव....!' उसका जो पूर्व का पुरुषार्थ है उसी का नाम दैव है, और कोई दैव नहीं। जो कोई दैव कल्पते हैं सो मूर्ख हैं। जो पूर्व जन्म में सुकृत कर आया है वही सुकृत सुख होकर दिखाई देता है। जो पूर्व जन्म मे दुष्कृत कर आया है वही दुष्कृत दुःख होकर दिखाई देता है। जो वर्त्तमान में शुभ का पुरुषार्थ करता, सत्संग और सत्शास्त्र को विचारता है, दृढ़ अभ्यास करता है वह पूर्व के दुष्कृत को भी जीत लेता है। जैसे पहले दिन पाप किया हो और दूसरे दिन बड़ा पुण्य करे तो पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। जैसे बड़े मेघ को पवन नाश करता है, वर्षा के दिनों में पके खेत को ओले नष्ट कर देते हैं वैसे ही पुरुष का वर्त्तमान प्रयत्न पूर्व के संस्कारों को नष्ट करता है।
हे रघुकुलनायक ! श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसार-समुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है वह पुरुष नीच से नीच गति को पावेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष है वे अपने पुरुषार्थ से परमानन्द पद को पावेंगे, जिसके पाने से फिर दुःखी न होंगे। देखने में जो दीन होता है वह भी सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करता है तो उत्तम पदवी को प्राप्त होता है। जैसे समुद्र रत्नों से पूर्ण है वैसे ही जो उत्तम प्रयत्न करता है उसको सब सम्पदा आ प्राप्त होती है और परमानन्द से पूर्ण रहता है।
हे राम जी ! इस जीव को संसार रूपी विसूचि का रोग लगा है। उसको दूर करने का यही उपाय है कि संतजनों का संग करे और सत्शास्त्रों में अर्थ में दृढ़ भावना करके, जो कुछ सुना है उसका बारंबार अभ्यास करके, सब कल्पना त्याग कर, एकाग्र होकर उसका चिन्तन करे तब परमपद की प्राप्ति होगी और द्वैत भ्रम निवृत्त होकर अद्वैतरूप भासेगा। इसी का नाम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के बिना पुरुष को आध्यात्मिक आदि ताप आ प्राप्त होते हैं और उससे शान्ति नहीं पाता।
हे रामजी ! तुम भी रोगी न होना। अपने पुरुषार्थ के द्वारा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना। कोई दैव मुक्ति नहीं करेगा। अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही संसारबन्धन से मुक्त होना है। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है, किसी और को भाग्य मानकर उसके आश्रय हुआ है उसके धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते हैं। वह नीच से नीच गति को प्राप्त होता है। जब किसी पदार्थ को ग्रहण करना होता है तो भुजा पसारने से ही ग्रहण करना होता है और किसी देश को जाना चाहे तो वह चलने से ही पहुँचता है, अन्यथा नहीं। इससे पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। 'जो भाग्य में होगा वही मिलेगा' ऐसा जो कहता है वह मूर्ख है। पुरुषार्थ ही का नाम भाग्य है। 'भाग्य' शब्द मूर्खों का प्रचार किया हुआ है।
हे अनघ ! जिस पुरुष ने संतों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ नहीं किया उसका बड़ा राज्य, प्रजा, धन और विभूति मेरे देखते ही देखते क्षीण हो गई और वह नरक में गया है। इससे मनुष्य को सत्शास्त्रों और सत्संग से शुभ गुणों को पुष्ठ करके दया, धैर्य, संतोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिए। जैसे बड़े ताल से मेघ पुष्ट होता है और फिर मेघ वर्षा करके ताल को पुष्ट करता है वैसे ही शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से गुण पुष्ट होते हैं।
हे राघव ! शुद्ध चैतन्य जो जीव का अपना आप वास्तवरूप है उसके आश्रय जो आदि चित्त-संवेदन स्फुरता है सो अहं-ममत्व संवेदन होकर फुरने लगता है। इन्द्रियाँ भी अहंता से स्फुरती हैं। जब यह स्फुरता संतों और शास्त्रों के अनुसार हो तब पुरुष परम शुद्धि को प्राप्त होता है और जो शास्त्रों के अनुसार न हो तो जीव वासना के अनुसार भाव-अभावरूप भ्रमजाल में पड़ा घटीयंत्र की नाई भटककर कभी शान्तिमान नहीं होता। अतः हे राम जी ! ज्ञानवान पुरुषों और ब्रह्मविद्या के अनुसार संवेदन और विचार रखना। जो इनसे विरुद्ध हो उसको न करना। इससे तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा और सबसे निर्लेप रहोगे।
हे निष्पाप श्रीराम ! जिन पुरुष से शांति प्राप्त हो उनकी भली प्रकार सेवा करनी चाहिए, क्योंकि उनका बड़ा उपकार है कि वे संसार समुद्र से निकाल लेते हैं। संतजन और सत्शास्त्र भी वे ही हैं जिनकी संगति और विचार से चित्त संसार से उपराम होकर उनकी ओर हो जाये। मोक्ष का उपाय वही है जिससे जीव और सब कल्पना को त्याग कर अपने पुरुषार्थ को अंगीकार करे और जन्म मरण का भय निवृत्त हो जाये।
जीव जो वांछा करता है और उसके निमित्त दृढ़ पुरुषार्थ करता है तो अवश्य वह उसको पाता है। बड़े तेज और विभूति से सम्पन्न जो देखा और सुना जाता है वह अपने पुरुषार्थ से ही हुआ है और जो महा निकृष्ट सर्प, कीट आदि तुमको दृष्टि में आते हैं उन्होंने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है तभी ऐसे हुए हैं।
हे रामजी ! अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो नहीं तो सर्प, कीटादिक नीच योनि को प्राप्त होंगे। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ त्यागा है और किसी दैव का आश्रय लिया है वह महामूर्ख है। यह जो शब्द है कि "दैव हमारी रक्षा करेगा" सो किसी मूर्ख की कल्पना है। हमको दैव का आकार कोई दृष्टि नहीं आता और न दैव कुछ करता ही है। क्योंकि अग्नि में जा पड़े और दैव निकाल ले तब जानिये कि कोई देव भी है, पर सो तो नहीं होता। स्नान, दान, भोजन आदि को त्याग करके चुप हो बैठे और आप ही दैव कर जावे सो भी किये बिना नहीं होता। जीव का किया कुछ नहीं होता और दैव ही करने वाला होता तो शास्त्र और गुरु का उपदेश भी नहीं होता।
हे राघव ! जीव जब शरीर को त्यागता है और शरीर नष्ट हो जाता है, तब जो दैव होता तो चेष्टा करता, पर सो तो चेष्टा कुछ नहीं होती। इससे जाना जाता है कि दैव शब्द व्यर्थ है। पुरुषार्थ की वार्ता अज्ञानी जीव को भी प्रत्यक्ष है कि अपने पुरुषार्थ बिना कुछ नहीं होता । गोपाल भी जानता है कि मैं गौओं को न चराऊँ तो भूखी रहेंगी। इससे वह और दैव के आश्रय नहीं बैठता। आप ही चरा ले आता है। दैव यदि पढ़े बिना पण्डित करे तो जानिये कि दैव ने किया, पर पढ़े बिना पण्डित तो नहीं होता। जो अज्ञानी ज्ञानवान होते हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही होते हैं। ये जो विश्वामित्र है, इन्होंने दैव शब्द दूर से ही त्याग दिया है और अपने पुरुषार्थ से ही क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए हैं।
यदि कुछ पुरुषार्थ न किया होता तो पाप करने वाले नरक न जाते और पुण्य करने वाले स्वर्ग न जाते। पर सो तो होता नहीं। जो कोई ऐसा कहे कि कोई दैव करता हैं तो उसका सिर काटिये तब वह दैव के आश्रय जीता रहे तो जानिये कि कोई दैव है, पर सो तो जीता नहीं। इससे हे रामजी ! दैव शब्द मिथ्या भ्रम जानकर संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार अपने पुरुषार्थ से आत्मपद में स्थित हो।"

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