पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 16, 2010



मुक्ति का सहज मार्ग पुस्तक से - Mukti ka Sahaj Marg pustak se

जितने अंश में तुम्हारी प्राणशक्ति उन्नत है उतने अंश में तुम व्यवहार में, समाज में, स्वास्थ्य में उन्नत हो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से यह शरीर बना है। इसका संचालन वायु तत्त्व से विशेष होता है। हमारे प्राण जितने सूक्ष्म होते हैं उतना हमारा मन बढ़िया होता है। प्राणशक्ति को जितनी-जितनी सूक्ष्मता होती है उतना-उतना योगी महान् हो जाता है। जिसने प्राणजय कर लिया वह योगी चाहे तो नक्षत्रों को, तारों को, चाँद और सूर्य को गेंद की तरह अपनी जगह से हिला सकता है। जिसने प्राणशक्ति पर विजय पा लिया वह अपने शरीर की आरोग्यता, मन की प्रसन्नता और बुद्धि की विलक्षणता में प्रवेश कर लेता है।
प्राणायाम प्राणशक्ति के विकास का एक नमूना है। जिनकी निगाहों से लोगों के चित्त में प्रसन्नता आ जाती है उन्होंने जाने या अनजाने प्राणशक्ति या मनःशक्ति की साधना की हुई है। इस्लाम धर्म हो, यहूदी धर्म हो, ईसाई धर्म हो, सिक्ख धर्म हो, जैन धर्म हो, बौद्ध धर्म हो या और कोई धर्म हो, उस धर्म के जो भी पीर, पैगम्बर, साधू, बाबा, फकीर, तीर्थंकर, भिक्षु आदि समाज में कुछ उन्नत हुए हैं उन्होंने जाने-अनजाने प्राणोपासना की है।
किसी वस्तु को एकटक देखते-देखते, शाम्भवी मुद्रा करते-करते मन रूका। मन रूकने से प्राण की गति रूकी और प्राणशक्ति का विकास हुआ। निष्काम भाव से सेवा करते-करते मन निर्वासनिक हुआ। मन निर्वासनिक होने से संकल्प-विकल्प कम हुए। संकल्प-विकल्प कम होने से प्राणशक्ति का विकास हुआ। आदमी उन्नत हुए।
सत्संग सुनते-सुनते, जगत की असारता विचारते-विचारते मन वासना रहित हुआ, प्राणशक्ति का विकास हुआ। व्यक्ति उन्नत हुआ।
हमारी सुषुप्त जीवन-शक्ति को चितिशक्ति कहते हैं, कुण्डलिनी शक्ति भी कहते हैं। यह शक्ति शरीर की नाभि के नीचे मूलाधार केन्द्र में सुषुप्त रहती है, सोयी पड़ी रहती है। ध्यान के द्वारा, संकल्प के द्वारा, कीर्तन के द्वारा हमारी प्राणशक्ति के धक्के उसको लगते हैं और वह जागृत होती है। हमारी नाड़ियों में जो विजातीय द्रव्य, मल आदि होता है उसका शोधन करती है। फिर प्राणोत्थान के प्रभाव से कुण्डलिनी शक्ति ज्यों-ज्यों ऊपर के केन्द्रों में आती है हमारे प्राण सूक्ष्म होते जाते हैं। हमें पता नहीं चलता इस बात का। जिन योगियों को पता चलता है वे शीघ्रता से साधना करते हैं। हमें पता नहीं चलता और स्वाभाविक थोड़ी-बहुत साधना होती है। हमारा प्राण जितने अंश में शुद्ध होता है, उन्नत होता है उतने अंश में हमारा चित्त प्रसन्न होता है, बुद्धि में दिव्यता आती है और संकल्प में सामर्थ्य आता है।
कीर्तन करते-करते लोग फिर ध्यान नहीं करते तो कीर्तन का विशेष लाभ नहीं उठा पाते। ध्यान करते-करते फिर आत्म-विचार नहीं करते तो ध्यान का पूरा लाभ नहीं उठा पाते। तुलसीदास जी कहाः
तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।
तुलसी मिटै न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
मनुष्य शरीर को सुखा दे, पिंजर बना दे, जब तक आत्मज्ञान का विचार नहीं करेगा तब तक आखिरी मंजिल पर नहीं पहुँचेगा। आखिरी मंजिल पर जाने के लिए बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना ही पड़ेगा। बुद्धि को आध्यात्मिक बनाने के लिए नश्वर भोगों की पोल को जानना पड़ेगा और शाश्वत परमात्मा के रस की महिमा को जानना पड़ेगा। महिमा केवल सिद्धांतिक ही नहीं, ध्यान करके प्रत्यक्ष अनुभव करना पड़ेगा।
मन जितना-जितना अन्तर आराम, अन्तर सुख और अन्तर ज्योत के तरफ जायगा उतना-उतना बाहर के विकारी सुख से हटेगा।
एक होता है इन्द्रियगत ज्ञान, दूसरा होता है बुद्धिगत ज्ञान तीसरा होता है वास्तविक ज्ञान। इन्द्रियगत ज्ञान और बुद्धिगत ज्ञान के बीच मन की वृत्ति काम करती है। आँख देखने का काम करती है। आँख ने एक आदमी दिखाया। मन ने कहाः यह ब्राह्मण है। बुद्धि ने कहाः यह विद्वान है। श्रद्धा ने कहाः यह सज्जन है। और साधन भजन किया तो पता चला कि यह सज्जन भी है, विद्वान भी है, ब्राह्मण भी है और इसके आचार, विचार और गुण ऐसे हैं कि संत से मिलते जुलते हैं। आँखों ने नहीं बताया कि यह संत है। आँखों ने नहीं बताया कि यह विद्वान है, आँखों ने नहीं बताया कि यह सज्जन है। आँखों ने तो मनुष्य बता दिया।
इन्द्रियगत ज्ञान और बुद्धिगत ज्ञान के बीच मन की धारा है। मन की धारा अगर इन्द्रियों से सहमत हो जाती है तो उसका ज्ञान छोटा रह जाता है। मन की धारा बुद्धि से सहमत होती है तो उसके ज्ञान का विकास होता है। ज्ञान का जब विकास होता है तब बुद्धि परिणाम पर ध्यान देती है। जैसे पानी का स्वभाव है नीचे बहना ऐसे इन्द्रियों का स्वभाव है विषय-सुख दिखे वहाँ रूक जाना। अब इतने लोग शान्ति से सत्संग सुन रहे हैं, गुरूजी को एकटक निहार रहे हैं। अगर यहाँ कोई सिंगार की हुई नटी आ जाय तो उस चंचला की ओर आँखें घूम जाएँगी। इन्द्रियों ने ऐसी चंचलाएँ कई बार देखी। इन्द्रियों का स्वभाव है गिरना। उस समय अगर बुद्धि का उपयोग करेंगे तो विचार जागृत होगा। अन्यथा आँखों के पीछे मन लगेगा। कई प्रकार के मनोराज खड़ा करेगा।
इन्द्रियाँ और बुद्धि के बीच मन की धारा है। इस धारा का आप नियंत्रण नहीं करते हैं तो यह धारा इन्द्रियों से जुड़कर बुद्धि को क्षीण कर देती है। मन में जब भगवान का प्रेम भरते हैं तो मन बुद्धि के पक्ष में हो जाता है और बुद्धि परिणाम का विचार करती है। 'यह देख लिया फिर क्या ? यह खा लिया फिर क्या ? इतना इकट्ठा कर लिया फिर क्या ? इतना भोग लिया फिर क्या ?' इस प्रकार बुद्धि परिणाम का विचार करती है तो संसार की असारता समझ में आ जाती है, विकारों का दुःखद परिणाम याद आ जाता है। जरा से सुख के पीछे काफी दुःख सहना पडता है और जरा सा दुःख सह लो तो काफी समता और सामर्थ्य मिलता है। जो सुख को पचा लेता है, दुःख को पचा लेता है वह परम पद को पा लेता है। ऐसा बुद्धि में योग आता है तो बुद्धि जहाँ से ज्ञान लाती है उस सत्य के ज्ञान का प्रकाश होता है। रोम रोम में सत्यस्वरूप की चेतना बस रही है इसलिए उस सत्य का नाम राम रखा गया है। वह खुद ही है इसलिए इस्लाम ने उसे खुदा कहा। वह कल्याणस्वरूप है इसलिए उसका नाम शिव रखा गया। अपना आपा है इसलिए उसे आत्मा कहा गया। वैसे का वैसा सबकी आँख के द्वारा, सबकी बुद्धि के द्वारा वह प्रकाशित होता है, सबकी बुद्धियाँ उसी से ही प्रकाश लाती हैं इसलिए उसका नाम परमात्मा रखा गया।
प्रीतिपूर्वक भगवान का भजन-यजन-स्मरण करने से बुद्धियोग मिलता है। बुद्धियोग को प्राप्त होने वाला साधक भी कभी-कभी फिसलता है, चढ़ता है, उतरता है।
तीन प्रकार के लोग होते हैं- पशुधर्मा, मध्यधर्मा और सिद्धधर्मा।
एक होते हैं, जैसा इन्द्रियों ने दिखाया उसी के पीछे सारा जीवन बिता दें। वे हैं पशुधर्मा लोग। शरीर का आकार तो मनुष्य का लेकिन बुद्धि पशुओं से आगे नहीं बढ़ी। जैसे गाय ने हरा घास देखा तो मुँह डाल दिया, खा लिया। किसका है, कैसा है कुछ नहीं देखा। पशु इन्द्रियगत ज्ञान के प्रभाव में ही जीते हैं। इस प्रकार के आदमी बाहर से चाहे बड़े दिखते हों, वे छोटे विचार के होते हैं। छोटे विचार के बड़े आदमी बड़ा काम नहीं कर सकते। बड़े विचार के छोटे आदमी बड़ा काम कर लेते हैं।
पाशवी धर्मा मनुष्य अपने आहार, निद्रा, भय, मैथुन में समय और जीवन बिता देते हैं। जो जितना ज्यादा भीतर से कंगाल होता है वह उतना ही बाहर से धन की, मान की आवश्यकता महसूस करता है। ऐसा ब्रह्मवेत्ताओं का कहना है, शास्त्रों का कहना है। जो भीतर से जितना गिरा हुआ होता है उसे उतना ही बाहर के आडम्बर की आवश्यकता पड़ती है। भीतर से जितना कंगाल होता है उतना बाहर से चीजों की गुलामी करनी पड़ती है। भीतर से जितना उन्नत होता है उतना बाहर की चीजों से लापरवाही रहती है।
भीतर से उन्नत वे लोग होते हैं जिनके मन की धारा बुद्धि के तरफ है और बुद्धि की धारा चैतन्य के तरफ है।
दूसरे तरफ हैं सिद्धधर्मा लोग, शुकदेवजी महाराज जैसे, कौपीन पहने हुए। भीतर की मस्ती में इतने सराबोर हैं कि कौपीन का भी पता नहीं। त्याग की पराकाष्ठा है। दूसरी ओर परीक्षित हैं, भोग की पराकाष्ठा पर। वे ऐहिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं। शुकदेव जी आध्यात्मिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं। शुकदेवजी आध्यात्मिक जगत में उन्नत शिखर पर बैठे हैं।
परीक्षित ऐहिक जगत में उन्नत शिखर पर हैं लेकिन उन चीजों में उनकी आसक्ति नहीं है, ममता नहीं है। मृत्यु आने वाली है, तक्षक डँसने वाला है। यह सब समझकर जीवन्मुक्त के शरण में आये हैं।
जीवन्मुक्त के जीवन में ऐसा कुछ अदभुत खजाना होता है कि वे भोगी को भी देते हैं, साधक को भी देते हैं, धर्मात्मा को भी देते हैं और परमात्मा को भी प्यार कर देते हैं। परमात्मा प्यार के प्यासे हैं। जीवन्मुक्त परमात्मा को भी प्यार देते हैं।
भोगी आदमी प्रेम नहीं कर सकता। जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ सेवा का मजा चला गया। स्वार्थी आदमी न सेवा कर सकता है न प्रेम कर सकता है। जिसका स्वार्थ चला गया है, जिसकी बुद्धि में योग मिल गया है वह सेवा भी बढ़िया कर सकता है, प्यार भी बढ़िया कर सकता है। वह 'पर' की सेवा करते-करते 'पर' में 'स्व' को देखता है, 'स्व' में 'पर' को देखता है. 'स्व' और 'पर' की भ्रांति मिटाकर एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति के अनुभव में जग जाता है।
प्रीति 'स्व' से की जाती है, सेवा 'पर' की की जाती है। ऐसा करते-करते 'पर' में 'स्व' के दर्शन होने लगते हैं। प्रारम्भ में 'पर' लगता है लेकिन आगे चलकर पता चलता है कि पर दिखता था, वास्तव में पर जैसा कुछ है नहीं। पर और स्व ये अन्तःकरण की सीमाएँ बनी इसलिये दिखता है। अन्तःकरण की छोटी अवस्था के कारण दिख रहा है। वास्तव में जिससे आप बात करते हैं उसमें भी स्वयं आप ही हो। जब दूसरे का हितचिंतन करते हो तब तुम्हारा हृदय कितना पवित्र होता है ! दूसरों के काम में आते हो तो तुम्हारा हृदय कितना उन्नत होता है !
दायाँ और बायाँ हाथ अलग-अलग दिखते हैं, दोनों हैं तो तुम्हारे ही। ऐसे ही समग्र चराचर विश्व में भिन्न-भिन्न दिखता है, मूल में अभिन्न है। जिसकी बुद्धि में योग मिल जाता है वह भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हुए, भिन्न-भिन्न आचरण करते हुए भी अभिन्न की स्मृति बनाये रखता है। उसका भजन निरन्तर हो जाता है।
कुण्डलिनी योग के जगत में जो लोग जाते हैं उनका प्रारम्भ में प्राणोत्थान होता है। जीवन की अधोगामी धारा ऊर्ध्वगामी बनती है। कुण्डलिनी योग की साधना में त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मूलबन्ध करने से साधक विकारी जीवन से बचकर निर्विकारी जीवन के तरफ उठता है। उड्डियान बन्ध करने से साधक आध्यात्मिकता में उड़ान कर लेता है। शीघ्र उन्नति होती है। जालन्धर बन्ध करने से बुद्धि का विकास होता है। ये त्रिबन्ध करके साधक प्राणायाम का अभ्यास करता है और ब्रह्मवेत्ता सदगुरू का सान्निध्य मिलता है तो भीतर का रस प्रकट होने लगता है। ज्यों-ज्यों भीतर का रस निखरने लगता है त्यों-त्यों विकारी रस में मन की फिसलाहट कम होती है।
तीन प्रकार के लोग हमने देखेः पशुधर्मा लोग, सिद्धधर्मा लोग शुकदेवजी महाराज जैसे और तीसरे होते हैं मध्यधर्मा। मध्यधर्मा साधक होता है। कभी वह इन्द्रियों के बहाव में बह जाता है कभी साधु पुरूषों का संग करके संयमी बनता है। कभी लगता है मैं ठीक चलता हूँ, कभी महसूस करता है मेरा पतन हो रहा है। जब छोटे व्यक्तियों के बीच होता है तब सोचता है वे लोग चाय पीते हैं, मैं नहीं पीता, वे संसारी वासना में गिरे हुए हैं, हम बचे हुए हैं। उन लोगों से हम उन्नत हैं। कभी-कभी साधक इन्द्रियत आकर्षणों में बह जाता है। जब सत्पुरूषों का सान्निध्य मिलता है तो उन्नत जीवन में चलता है।
साधक लोगों के मन में दोनों प्रकार की धाराएँ चलती हैं- इन्द्रियगत जगत का भी आकर्षण है और आध्यात्मिकता का भी आकर्षण है। जीवन की गाड़ी कभी इधर को जाती है कभी उधर को जाती है। गाड़ी जब उन्नति की ओर जाती है तब मन में लगता है कि हाश ! आज का दिन बढ़िया गया। आज कुछ अच्छी कमाई की। जब उन्नति से थोड़ा लथड़ गये तो परेशानी नहीं लगती। उनको लगता है किः "हम मौज करते हैं। तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं। ये लोग तो भगतड़े हैं....।'
उनको तो पता ही नहीं कि बाद में वे कैन्सर का शिकार बनेंगे। दूसरे जन्मों में वृक्ष होकर कुल्हाड़े के प्रहार सहन करने पड़ेंगे। कूकर-शूकर बनकर जो भोगना पड़ेगा बाद में, उसका ख्याल ही नहीं है। अभी तो जो मन में आया खा लिया, जो मन में आया पहन लिया, जो मन में आया कर लिया लेकिन परिणाम का पता नहीं। वे मानते हैं कि हम स्वतंत्र हैं। ऐसी स्वतन्त्रता तो कीट, पतंग, मक्खी मच्छर को भी मिलती है। यह कोई स्वतन्त्रता नहीं है।
'स्व' के सुख में, आत्म-सुख में रमण करना यह स्वतन्त्रता है। वस्तुएँ पाकर जो सुखी होते हैं वे स्वतन्त्र नहीं है। वे तो लाचार हैं। सुख होता है क्षणभर का और परिणाम में लम्बी मुसीबत है। जरा सा सुख भोगे और लम्बा दुःख। जरा सा संयम करे तो शाश्वत सुख।
शाश्वत सुख की खबर उसी को पड़ती है जिसको भगवान बुद्धियोग देते हैं। बुद्धियोग उसी को मिलता है जो भगवान को स्नेह करता है, भगवत्प्रीति की तीव्र आकांक्षा रखता है।
रीत-रिवाज जानने वाले लोग बहुत हैं, यज्ञ याग करके सिद्धियाँ पाने की इच्छावाले लोग बहुत हो सकते हैं। भगवान की प्रीति के लिए जो कर्म करते हैं, यज्ञ करते हैं वे विरले हैं। काम-विकार से प्रेरित होकर बच्चों को जन्म देने वाले लोग तो कई होते हैं, भगवान की प्रसन्नता के लिए संसार का कार्य करने वाले कोई विरले हैं।
जो कुछ करो, भगवान की प्रसन्नता के लिए करो।

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