पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Saturday, April 6, 2013

अनन्य योग  पुस्तक से - Ananya Yog pustak se

जीवन-मीमांसा - Jivan Mimansa

आज तक जो कुछ मैंने देख लिया, भोग लिया, उससे मुझे आनन्द है। सैंकड़ों-सैंकड़ों सुख मैंने भोगे.... देखे.... उससे मुझे आनन्द है। मैं आह्लादित हूँ। हजारों गलतियाँ की होगी, दुःख भोगे होंगे उसका भी मुझे आनन्द है... क्योंकि गलतियों ने मुझे सिखा दिया कि जीवन जीने का यह तरीका ठीक नहीं। दुःखों ने मुझे सिखा दिया कि विकारी सुखों में आसक्त होना ठीक नहीं।
हम घर-बार छोड़कर भाग गये, सब सगे सम्बन्धियों का ठुकराते रहे, अपने शरीर को भी सताते रहे, कष्ट सहते रहे, दुःख भोगते रहे.... यह भी ठीक नहीं। भोग-विलास में लट्टू होकर गिरे रहना भी जीवन जीने का ढंग नहीं।
न भोग ठीक है, न अति त्याग ठीक है। विवेकपूर्ण मध्यम मार्ग ही ठीक है। शरीर को औषधवत खिलाना पिलाना चाहिए। जीवन जीने के साधनों का औषधवत् उपयोग करना चाहिए।
जीवन का पुष्प जीवनदाता के स्वभाव में खिलने के लिए है। मेरा चैतन्य आत्मा जो भीतर है, वही बाहर भी है। जो आज है वही कल भी है और परसों भी है। आज और कल मन की कल्पना है। आज और कल को जानने वाला चिदाकाश चैतन्य.... हर दिल में 'मैं.... मैं....' करता हुआ, मन  बुद्धि को सत्ता देता हुआ सत्ताधीश.... मन बुद्धि से परे भी वही चिदाकाश आत्मा मैं हूँ। यह आत्मदृष्टि ही एकमात्र सार है, और सब परिश्रम है।
आत्मज्ञान ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, जीवन का आदर्श होना चाहिए। जिसके जीवन का कोई आदर्श नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, उसका जीवन घोर अन्धकार में भटक जाता है। आत्मज्ञान ही जिसके जीवन का लक्ष्य है, वह चाहे सैंकड़ों गलतियाँ कर ले, फिर भी वह कभी-न-कभी उस लक्ष्य को पा लेगा। जिसका लक्ष्य आत्मज्ञान नहीं है, वह हजारों-हजारों गलतियाँ करता रहेगा, हजारों-हजारों जन्मों में भटकता रहेगा।
सर्वत्र ओतप्रोत चैतन्यघन परमात्मा का अनुभव करना जिसके जीवन का लक्ष्य है, वह देर सवेर परमात्मामय हो जाता है।
परमात्मा आनन्दस्वरूप है, चैतन्य स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है। कीड़ी में भी ज्ञान है कि क्या खाना, क्या नहीं खाना, कहाँ रहना और कहाँ से भाग जाना। कीड़ी में चेतना भी है। कीड़ी भी सुख के लिए ही यत्न करती है।

सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।
ब्रह्म सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, अनन्त है। ब्रह्म स्थूल से भी स्थूल है और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। कीड़ी मकोड़ा, बैक्टीरिया में भी मेरे परमेश्वर की चेतना है। अर्थात् परमेश्वर ही अनेक रूप होकर बाह्य चेष्टा और आभ्यान्तर प्रेरणा का प्रकाशक है। वही सबका अधिष्ठान है। उसी से इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि चेष्टा करते है। उन्हें खट्टा-मीठा अनुभव होता है। फिर भी उन सब अनुभवों से परे जो मेरा आत्मा है, वही चैतन्य सब अनुभवों का भी आधार है।
बुद्धि बदलती है, मन बदलता है, चित्त बदलता है, शरीर बदलता है, दरिया बदलता है.... दरिया के किनारे बदलते हैं। यह सब उस चैतन्य की लीला है, चैतन्य की स्फुरणा है। उसी को आह्लादिनी शक्ति बोलते हैं, माया बोलते हैं। जैसे दूध और दूध की सफेदी अभिन्न है, ऐसे ही मेरा चैतन्य आत्मा और उसकी स्फुरणा शक्ति अभिन्न है।
यह जगत हरिरूप है। हरि ही जगत रूप होकर दिखते है।
स्फुरणा स्फुर-स्फुरकर बदल जाता है, पर स्फुरणा का आधार अस्फुर है। जैसे सागर में तरंग उत्पन्न हो होकर लीन हो जाते है, पर सागर के तल में शांत जल है। विशाल उदधि में कोई बड़ी तरंग है, कोई छोटी तरंग है, कोई शुद्ध तरंग है तो कोई मलिन तरंग है। ये सारी छोटी बड़ी, मलिन-शुद्ध तरंगे उसी सागर में हैं। ऐसे ही मेरे आत्म सागर में कहीं शुद्ध तो कहीं अशुद्ध, कहीं छोटा तो कहीं बड़ा स्फुरणा दिखता है।
जैसे जल की तरंग सड़क पर नहीं दौड़ती। वह जल में ही पैदा होती है, जल पर ही दौड़ती है और आखिर जल में ही समा जाती है, फिर जल से ही उठती है। ठीक वैसे ही विश्व के तमाम जीव उसी एक ब्रह्म समुद्र की तरंगे हैं। कोई छोटा है कोई बड़ा है, कोई पवित्र है कोई अपवित्र है, कोई अपना है कोई पराया है। सब उसी विराट-विशाल मुझ चैतन्य सागर की तरंगे हैं। तरंगे उठती हैं, नाचती हैं, आपस में टकराती है, लड़ती-झगड़ती हैं, किल्लोल करती हैं, मिटती हैं। वे कदापि सागर से अलग नहीं हो सकतीं। ऐसे ही संसार में सब चेष्टाएँ करने वाले कोई व्यक्ति परमात्मा से कभी अलग हुए नहीं, अलग हैं नहीं, अलग हो नहीं सकते।
हम उसी परमात्मा में विश्रान्ति पा रहे हैं, उसी में हँस रहे हैं, खेल रहे हैं।

जीवन में होने वाली हजार-हजार गलतियों से हमें सबक सीखने को मिलता है। जब-जब ईश्वर दृष्टि की तब-तब सुख पाया, आनन्द पाया, शान्ति पाई। विचार उन्नत बने। जब-जब अच्छे बुरे की दृष्टि की, अपने और पराये की दृष्टि की, नाम और रूप में आस्था की, तब तब धोखा खाया।
मुझे आनन्द है कि धोखा खाने पर भी हम कुछ सीखे हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता से भी कुछ सीखे हैं। अनुकूलता कहती है कि परमात्मा आनन्दस्वरूप है। धोखा खाने से जो दुःख मिला उसने बताया कि अज्ञान की दृष्टि दुःखदायी है।
हमने जो प्रतिकूलताएँ सही, दुःख सहा या धोखे खाये, उसका भी हमें मजा है। अगर ये गलतियाँ और दुःख, प्रतिकूलताएँ, विघ्न और बाधाएँ न होती तो शायद हम उतने उन्नत भी नही हो पाते। यह हमारे सारे जीवन का अनुभव है कि प्रतिकूलताएँ और दुःख भी हमें कुछ सीख दे जाते हैं। अनुकूलता भी कुछ आनन्द और उल्लास दे जाती है।
अपनी जीवन की सारी यात्राओं की मीमांसा यह है कि हमारे पास अनुभव का फल है। अनुभव रूपी फल का हम आदर करते हैं।
जब-जब देहभाव से आक्रान्त होकर, जब-जब संसार की चलित तरंगों को ही सार समझकर तरंगों के आधार को भूले हैं, तब-तब दुःख उठाये हैं। जब-जब तरंगों को लीलामात्र समझकर, उनके आधार को सत्य समझकर संसार में विचरे हैं, तब-तब आनन्द, सुख और ईश्वरीय मस्ती का अनुभव हुआ है।
सारे धर्म उसी सुखस्वरूप ईश्वर की ओर ले जाने की चेष्टा करते हैं। उनकी भाषा अपनी-अपनी है। जहाँ दृष्टि सीमित हो जाती है, इन्द्रियगत सुख में आबद्ध हो जाते हैं, विकारी सुख में फिसलते हैं, तब प्रकृति थप्पड़ मारती है.... तरंगें टकराती हैं। जब गहन शांत जल में तरंगें विलीन होती हैं, तो कोई कोलाहल नहीं रहता।
दरिया के किनारे पर खड़ा आदमी उछलती-कूदती तरंगों को देखकर यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि इनका आधार शांत उदधि है। उसके तले में बिल्कुल शांत स्थिर जल है। उसी के अचल सहारे यह चल दिख रहा है। तरंगित होना वाला जल बहुत थोड़ा है.... उसकी गहराई में शांत जल अगाध है, अमाप है।
ऐसे ही तरंगायमान होनेवाला माया का हिस्सा तो बहुत थोड़ा है..... मेरा शान्त ब्रह्म ही अमाप है।

ऐसी कोई बूँद नहीं जो जल से भिन्न हो। ऐसा कोई जीव नहीं जो परमात्मा से भिन्न हो। ऐसी कोई तरंग नहीं जो बिना पानी के रह सके। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो चैतन्य परमात्मा के बिना रह सके। जिन्दा है तब भी उसमें चैतन्य परमात्मा है और मृत्यु के बाद भी सुषुप्तघन अवस्था में परमात्मा तत्त्व मौजूद रहता है।
प्राण रहित शव जला दिया जाता है, तब उसका जल वाष्पीभूत होकर विराट जल तत्त्व में मिल जाता है। शव का आकाश विराट महाकाश में मिल जाता है। उसका श्वास विराट वायुतत्त्व में मिल जाता है। उसका पृथ्वी का हिस्सा पृथ्वी तत्त्व में मिल जाता है। उसका तेज अग्नितत्त्व में मिल जाता है।

जैसे सागर की तरंगे जल से उत्पन्न होकर फिर सागर जल में ही लीन होती हैं ऐसे ही हम लोग भी ईश्वर से ही उत्पन्न होकर ईश्वर में ही खेलते हैं और फिर ईश्वर में ही मिल जाते हैं। हम दुःख तब उठाते हैं कि जब उसको ईश्वर नहीं मानते, ईश्वर नहीं जानते, नहीं समझते। हममें ईश्वरतत्त्व का भाव नहीं जागता। मेरे तेरे का भाव ही हमें दुःख देता है, परेशान करता है। इस भाव को बदला तो बेड़ा पार हो जायेगा।
जिसके पास खूब विचार है, तर्क है, तगड़ी खोपड़ी है किन्तु हृदय नहीं है तो उसका जीवन रूखा है। ऐसे जीवन में अशांति, उद्वेग, तर्क-वितर्क, कुतर्क होते हैं। रूखे मस्तिष्क से जीने का मजा नहीं। जीवन में हृदय की नितान्त अनिवार्यता है। जिसके पास विशाल हृदय है, विशाल सहानुभूति है, विशाल प्रेम है, वह परम प्रेमास्पद की विशालता का अनुभव करके आनन्दित रहता है, सुखी रहता है।
केवल हृदय की भावना से भी काम नहीं चलता। अज्ञानता के कारण भावना-भावना में बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं। केवल भावना भी उपयुक्त नहीं। भावना के साथ विशाल ज्ञाननिधि भी चाहिए।
तो क्या थोड़ा हिस्सा भावनात्मक हृदय का और थोड़ा हिस्सा ज्ञानात्मक मस्तिष्क का हो ?
नहीं....। हृदय की पूर्ण विशालता हो और मस्तिष्क में ज्ञानमय विशाल समझ हो।

यस्य ज्ञानमयं तपः।
आप लोगों के साथ जो कुछ करें, अपने साथ करें। आप ही उन सब के रूप में खेल रहे हो, यह जानते हुए सब करें। आप एक परिच्छिन्न शरीर नहीं हैं। आप जो कुछ देख रहे हैं, अपने आपको ही देख रहे हैं, जिससे देख रहे हैं वह भी आप हैं और जिसको देख रहे हैं वह भी आप ही हैं। जिसके लिए देख रहे हैं वह भी आप हैं और जिसके लिए कर रहे हैं वह भी आप हैं। ऐसा विशाल ज्ञान.... ! ऐसा विशाल प्रेम... ! इन दोनों का जब प्राकट्य होता है, तब आदमी अनन्त महासागर में सुखानुभूतियाँ करता है। संसार दुःखदायी नहीं। दुःखदायी अज्ञान है। संसार सुखदायी भी नहीं। सुखदायी भी अपनी मान्यताएँ हैं। संसार तो ईश्वरमय है। सुख दुःख तो मन की तरंगें हैं। संसार में सुख नहीं, सुख अपनी वासना के कारण है। वह सुखाभास होता है, वास्तविक सुख नहीं होता है। संसार में दुःख नहीं, दुःख अपनी मलिन वासनाओं के कारण है, अपनी बेवकूफी के कारण है। अपनी बेवकूफी मिटी तो न सुख है न दुःख है। सब परिपूर्ण परमात्मा है, आनन्द का भी आनन्द है। फिर हर हाल में खुश, हर में खुश, हर देश में खुश।
कुसंग से बचें। कुसंग माने संकीर्ण और कुवासना को पोसने में उलझे हुए लोगों का संग। ऐसे व्यक्तियों के प्रभाव से बचकर सुसंग में रहें। श्रीकृष्ण ने एकान्त और अज्ञातवास में तेरह वर्ष बिताये थे अपने व्यापक स्वरूप में रमण करते हुए। 70 वर्ष की उम्र से लेकर 83 वर्ष की उम्र तक वे घोर अंगीरस ऋषि के आश्रम में अपने आत्मस्वरूप में मस्त रहे।
युद्ध के मैदान में अर्जुन को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पड़ी तो उस पूर्णता में रमण करने वाले श्रीकृष्ण ने वह भी कर दिया। दुर्योधन की संकीर्ण दृष्टि तोड़नी थी, उसके निमित्त विश्व को सबक सिखाना था तो श्रीकृष्ण ने यह भी मजे से किया। दुर्योधन को ठीक कर दिया और उसके पक्षवालों को भी ठिकाने लगा दिया। फिर भी श्रीकृष्ण कहते हैं-
"युद्ध के मैदान में आने के पहले, संधिदूत होकर गया था तब से लेकर अभी तक मेरे हृदय में पाण्डवों के प्रति राग न रहा हो तो और कौरवों के प्रति मेरे चित्त में द्वेष न रहा हो तो इस समता की परीक्षा के निमित्त यह मृतक बालक (अभिमन्यु का नवजात पुत्र) जिन्दा हो जाय।" वह बालक जिन्दा हो गया। समता की परीक्षा के फलस्वरूप वह जिन्दा हुआ, इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा।
आपके जीवन में समता आ जाय, ज्ञान आ जाय। राग से प्रेरित होकर नहीं, द्वेष से प्रेरित होकर नहीं..... सहज स्वभाव जीवन का क्रिया-कलाप चले।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
ज्ञानवान सदा सहज कर्म करते हैं। उनकी दृष्टि में दोषयुक्त या गुणयुक्त होना बच्चों का खिलवाड़ मात्र है। जैसे जल की तरंग कभी स्वच्छ तो कभी मलिन, कभी छोटी तो कभी मोटी होती है। यह जल की लीला मात्र है। ऐसे ही अपने आत्मस्वरूप में बैठकर आपकी जो चेष्टा होगी, वह परम चैतन्य की आह्लादिनी लीला है। वह चैतन्य का विवर्त मात्र है। ऐसा समझकर ज्ञानी, जीवन्मुक्त पुरूष संसार में सुख से विचरते हैं।
सः तृप्तो भवति अमृतो भवति....।
सः तरति लोकान् तारयति....।।
'वे तृप्त होते है, अमृतमय होते हैं। वे तरते है, औरों को तारते हैं।'
ॐ आनन्द....! ॐ शान्ति.....!! सचमुच परमानन्द....!!!
अन्दर बाहर वही का वही सुखस्वरूप मेरा परमात्मा है। अन्दर-बाहर, आगे-पीछे, अधः-ऊर्ध्व वही सारा का सारा भरा है। जैसे मछली के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, अगल-बगल जल ही जलभरा है, मछली के पेट में भी जल है। इसी प्रकार आपके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, अन्दर-बाहर वही चिदाकाश परम चैतन्य परमात्मा ही परमात्मा है। ऐसा विशाल भाव, ज्ञान और व्यापक दृष्टि, इनकी एकता होती है तो अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार हो जाता है।
परमात्मा सदा साक्षात् है। वह कभी दूर नहीं, कभी पराया नहीं। संकीर्णता और अज्ञान के कारण उसे हम दूर मान लेते हैं, पराया मान लेते हैं और अपने को अनाथ मान लेते हैं। तुम अनाथ नहीं हो। सर्वनियन्ता नाथ, विश्वेश्वर तुम्हारा आत्मा बनकर बैठा है। विश्वनियन्ता नाथ ही तुम्हारे आगे अनेक रूप होकर बैठा है। विश्वनियन्ता परमात्मा ही तुम्हारे आगे सुख और  दुःख के स्वांग करके तुम्हें अपनी असलियत को जतलाने का यत्न कर रहा है।
अतः जो प्रतिकूलता आ रही है उसे धन्यवाद दो और कहो कि यार ! तू मुझे धोखा नहीं दे सकता।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में सन् 1942 की एक घटना है।
किसी जीवन्मुक्त महापुरूष ने संकल्प कर लिया कि सब तू ही है तो अब बोलेंगे नहीं। जीवन के अंतिन श्वास के क्षण कुछ बोल लेंगे तो बोल लेंगे।
दूसरे विश्वयुद्ध में सैनिकों के द्वारा जासूसी के शक में वे पकड़े गये। पूछने पर कुछ बोले नहीं तो और सन्देह हुआ। ले गये अपने मेजर के पास। डाँट-डपटकर उनसे पूछा गयाः "तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ?" आदि आदि। जबरदस्ती करने के कई तरीके आजमाये गये लेकिन इन महापुरूष ने संकल्प कर रखा था। जीवन्मुक्त को भय कहाँ ? वे जानते थे किः "डाँटने वालों में भी मेरी ही चेतना है। शरीर का जैसा प्रारब्ध होगा वैसा ही होकर रहेगा। भयभीत क्यों होना ? उनके प्रति उद्विग्न क्यों होना ?"
महात्मा ज्यों के त्यों खड़े रहे। पूछने वाले पूछ-पूछकर थक गये। आखिर सूचना दी गई कि अगर नहीं बोलोगे तो गले में भाला भोंक देंगे... सदा के लिए चुप कर देंगे।
फिर भी महात्मा शांत....। उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। उन मूर्ख लोगों ने उठाया भाला। महात्मा के कण्ठकूप में भाले की नोंक रखी। फिर भी जीवन्मुक्त पुरूष को भय नहीं लगा। वे जानते थे कि सब परमात्मा की आह्लादिनी लीला है। जैसे सागर में तरंगे होती हैं, ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा में सब लीलाएँ हो रही हैं।
आखिर उस क्रूर मेजर ने सैनिकों को आदेश दे दिया। भाला गले में भोंक दिया गया। रक्त की धार बही। तब वे महात्मा अमृतवचन बोलेः
"यार ! तू सैनिक बनकर आयेगा, भाला बनकर आयेगा, तो भी अब मुझे धोखा नहीं दे सकता क्योंकि मैं पहचानता हूँ कि उसमें भी तू ही तू है। शरीर का अन्त जिस निमित्त से होने वाला है, वह होगा लेकिन अब तू मुझे धोखा नहीं दे सकता।"
चैतन्यरूपी सागर की सब तरंगे हैं। ना कोई शत्रु ना कोई मित्र, ना कोई अपना ना कोई पराया। सब परमेश्वर ही परमेश्वर है.... नारायण ही नारायण है। मेरा चैतन्य आत्मा-परमात्मा ही सब कुछ बना बैठा है।  ॐ....ॐ....ॐ..... नारायण.... नारायण..... नारायण... तू ही तू.... तू ही तू....।
ऐसे विशाल ज्ञान और विशाल हृदय वाले ज्ञानवान को मृत्यु भी दिखती है तो समझते हैं  कि : मृत्यु भी तू ही है। यमदूत भी तू ही है और पार्षद भी तू ही है। वैकुण्ठ भी तुझ ही में है, स्वर्ग भी तुझ ही में है और नर्क भी तुझ ही में है।
जिसके लिये स्वर्ग और नर्क अपना आपा हो गया, उसके लिए स्वर्ग का आकर्षण कहाँ और नर्क का भय कहाँ ? उसके लिये परमात्मा ही परमात्मा है।
"ॐ....ॐ....ॐ.... आनन्द.... खूब आनन्द.... विशाल हृदय, विशाल ज्ञान... दिव्य ज्ञान... विशाल प्रेम.... ॐ....ॐ..... सर्वोऽहम्... सुखस्वरूपोऽहम्। मैं सर्व हूँ.... मैं सुख स्वरूप हूँ.... मैं आनन्दस्वरूप हूँ... मैं चैतन्यरूप हूँ... ।"

सेवा इस आत्मज्ञान को व्यवहार में ले आती है। भावना इस आत्मज्ञान को भावशुद्धि में ले आती है। वेदान्त इस जीवन को व्यापक स्वरूप से अभिन्न बना देता है।
इस विशाल अनुभव से चाहे हजार बार फिसल जाओ, डरो नहीं। चलते रहो इसी ज्ञानपथ पर। एक दिन जरूर सनातन सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा। दृष्टि जितनी विशाल रहेगी, मन जितना विशाल रहेगा, बुद्धि जितनी विशाल रहेगी, उतना ही विशाल चैतन्य का प्रसाद प्राप्त होता है। उस प्रसाद से सारे दुःख दूर हो जाते हैं।
जगत में जो भी दुःख हैं, सारे अज्ञानजनित हैं, संकीर्णताजनित हैं, बेवकूफीजनित हैं। वास्तव में दुःख का कोई अस्तित्व नहीं और सुख कोई सार चीज नहीं। परमात्मा तो परमानन्द हैं, परम सुखस्वरूप हैं। जहाँ सुख और दुःख दोनों तुच्छ दिखते है, ऐसा शांत चैतन्य आत्मा अपना स्वरूप है।
हवा चलती है तभी भी हवा है और स्थिर है तभी भी हवा है। ऐसे ही परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति से जगत बनते हैं और मिटते हैं। जगत की स्थिति में भी वही आनन्दघन परमात्मा है और जगत के प्रलय में भी वही परमात्मा। प्रवृत्ति में भी वही है और शान्त भाव में भी वही है।
ऐसा जो जानता है, वह वास्तविक में जानता है। ऐसा जो देखता है, वह वास्तविक में देखता है। ऐसा जो सोचता है, वह वास्तविक में सोचता है। ऐसा जो समझता है, वही वास्तविक में समझदार है। बाकी सब नासमझों का खिलवाड़ है।
ॐ.....ॐ.....ॐ......
खूब आनन्द....! मधुर आनन्द.....!! परमानन्द....!!!
शांति ही शांति...... !  आनन्द ही आनन्द.......... !!
निश्चिन्त नारायण स्वभाव.......! ॐ....ॐ.....ॐ....।

जो लोग बाहर की चीजों में, मेरे तेरे में उलझे हैं, उनके लिए शास्त्र विधान करते हैं कि इतने इतने सत्कर्म करो तो भविष्य में स्वर्ग मिलेगा। कुकर्म करोगे तो नर्क मिलेगा।
जिनको ज्ञान में रूचि है, ईश्वरत्व के प्रकाश में जो जीते हैं, उनको कुछ करके स्वर्ग में जाकर सुख लेने की इच्छा नहीं। नर्क के दुःख के भय से पीड़ित होकर कुछ करना नहीं। वे तो समझते हैं कि सब मेरे ही अंग है। दायाँ हाथ बायें की सेवा कर ले तो क्या अभिमान करे और बायाँ हाथ दाहिने हाथ की सेवा कर ले तो क्या बदला चाहेगा ? पैर चलकर शरीर को कहीं पहुँचा दे तो क्या अभिमान करेंगे और मस्तिष्क सारे शरीर के लिए अच्छा निर्णय ले तो क्या अपेक्षा करेगा ? सब अंग भिन्न भिन्न दिखते हैं फिर भी हैं तो सभी एक शरीर के ही।
ऐसे ही सब जातियाँ, सब समाज, सब देश भिन्न-भिन्न दिखते हैं, वे सत्य नहीं हैं। जातिवाद सत्य नहीं है। स्त्री और पुरूष सत्य नहीं है। बाप और बेटा सत्य नहीं है। बेटा और बाप, पुरूष और स्त्री, जाति और उपजाति तो केवल तरंगें हैं। सत्य तो उनमें चैतन्यस्वरूप जलराशि ही है।
ॐ....ॐ...ॐ.... नारायण... नारायण....नारायण....
नारायण का मतलब है पूर्ण चैतन्य ही चैतन्य.....राम ही राम...आनन्द ही आनन्द....।
तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है ।
कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है ।।
ॐ....ॐ....ॐ....
हे दुःख देने वाले लोग और हे दुःख के प्रसंग ! हे सुख देने वाले लोग और सुख के प्रसंग ! तुम दोनों की खूब कृपा हुई। दोनों ने मुझे यह ज्ञानरूपी फल दे दिया कि सुख भी सच्चा नहीं और दुःख भी सच्चा नहीं। सुख देने वाला भी सच्चा नहीं और दुःख देनेवाला भी सच्चा नहीं। सुख और दुःख देने वालों के मन की तरंगें ही थीं। मन की तरंगों का आधार मेरा चैतन्य आत्मदेव वहाँ भी पूर्ण का पूर्ण था। ॐ....ॐ.....ॐ..... नारायण.... नारायण.... नारायण....।
दिव्य आनन्द.....। मधुर आनन्द.... ! परमानन्द.... ! निर्विकारी आनन्द....! निरन्जन आनन्द...! ॐ.....ॐ.....ॐ....
नर-नारी में बसा हुआ... सुखी-दुःखी में बसा हुआ... अपने पराये में छुपा हुआ परमात्मा में छुपा हुआ भी है, जाहिर भी है.... अन्नत है... निर्विकार है.... निरंजन है....।

ऐसी भूल दुनियाँ के अन्दर साबूत करणी करता तू ।
ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता ज्यों देखूँ वा तू को तू ।।
कीड़ी में नानो बन बैठो हाथी में तू मोटो क्यूँ ?
बन महावत ने माथे बेठो हांकणवालो तू को तू ।।
दाता में दाता बन बैठो भिखारी के भेळो तू ।
ले झोळी ने मागण लागो देवावाळो दाता तू ।।
चोरों में तू चोर बन बेठो बदमाशों के भेळो तू ।
कर चोरी ने भागण लागो पकड़ने वाळो तू को तू ।।
नर नारी में एक विराजे दुनियाँ में दो दिखे क्यूँ ।
बन बालक ने रोवा लागो राखणवाळो तू को तू ।।
जल थल में तू ही विराजे जंत भूत के भेळो तू ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो गुरू भी बन के बेठो तू ।।

विशाल उदधि की जलराशि में भँवर भी तू ही है और तरंग भी तू ही है। बुलबुले भी तू ही है और जल के टकराने से बनने वाली फेन भी तू ही है। जल में पैदा होने वाली शैवाल भी तू ही है।

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