पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, April 21, 2011



श्री गुरु रामायण   पुस्तक से - Sri Guru Ramayan pustak se


गिरिजानन्दनं देवं गणेशं गणनायकम्।
सिद्धिबुद्धिप्रदातारं प्रणमामि पुनः पुनः।।1।।
सिद्धि बुद्धि के प्रदाता, पार्वतीनन्दन, गणनायक श्री गणेश जी को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।(1)
वन्दे सरस्वतीं देवीं वीणापुस्तकधारिणीम्।
गुरुं विद्याप्रदातारं सादरं प्रणमाम्यहम्।।2।।
वीणा एवं पुस्तक धारण करने वाली सरस्वती देवी को मैं नमस्कार करता हूँ। विद्या प्रदान करने वाले पूज्य गुरुदेव को मैं सादर प्रणाम करता हूँ।(2)
चरितं योगिराजस्य वर्णयामि निजेच्छया।
महतां जन्मगाथाऽपि भवति तापनाशिनी।।3।।
मैं स्वेच्छा से योगीराज (पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू) के पावन चरित का वर्णन कर रहा हूँ। महान् पुरुषों की जन्मगाथा भी भवताप को नाश करने वाली होती है।(3)
भारतेऽजायत कोऽपि योगविद्याविचक्षणः।
ब्रह्मविद्यासु धौरेयो धर्मशास्त्रविशारदः।।4।।
योगविद्या में विचक्षण, धर्मशास्त्रों में विशारद एवं ब्रह्मविद्या में अग्रगण्य कोई (महान संत) भारतभूमि में अवतरित हुआ है। (4)
अस्मतकृते महायोगी प्रेषितः परमात्मना।
गीतायां भणितं तदात्मानं सृजाम्यहम्।।5।।
परमात्मा ने हमारे लिये ये महान् योगी भेजे हैं। (भगवान श्री कृष्ण ने) गीता में कहा ही है कि (जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब) मैं अपने रूप को रचता हूँ। (अर्थात् साकार रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।)(5)
जायते तु यदा संतः सुभिक्षं जायते ध्रुवम्।
काले वर्षति पर्जन्यो धनधान्ययुता मही।।6।।
जब संत पृथ्वी पर जन्म लेते हैं तब निश्चय ही पृथ्वी पर सुभिक्ष होता है। समय पर बादल वर्षा करते हैं और पृथ्वी धनधान्य से युक्त हो जाती है।(6)
नदीषु निर्मलं नीरं वहति परितः स्वयम्।
मुदिता मानवाः सर्वे तथैव मृगपक्षिणः।।7।।
नदियों में निर्मल जल स्वयं ही सब ओर बहने लग जाता है। मनुष्य सब प्रसन्न होते हैं और इसी प्रकार मृग एवं पशु-पक्षी आदि जीव भी सब प्रसन्न रहते हैं।(7)
भवन्ति फलदा वृक्षा जन्मकाले महात्मनाम्।
इत्थं प्रतीयते लोके कलौ त्रेता समागतः।।8।।
महान् आत्माओं के जन्म के समय वृक्ष फल देने लग जाते हैं। संसार में ऐसा प्रतीत होता है मानों कलियुग में त्रेतायुग आ गया हो।(8)
ब्रह्मविद्याप्रचाराय सर्वभूताहिताय च।
आसुमलकथां दिव्यां साम्प्रतं वर्णयाम्यहम्।।9।।
अब मैं ब्रह्मविद्या के प्रचार के लिए और सब प्राणियों के हित के लिए आसुमल की दिव्य कथा का वर्णन कर रहा हूँ।(9)
अखण्डे भारते वर्षे नवाबशाहमण्डले।
सिन्धुप्रान्ते वसति स्म बेराणीपुटमेदने।।10।।
थाऊमलेति विख्यातः कुशलो निजकर्मणि।
सत्यसनातने निष्ठो वैश्यवंशविभूषणः।।11।।
अखण्ड भारत में सिन्ध प्रान्त के नवाबशाह नामक जिले में बेराणी नाम नगर में अपने कर्म में कुशल, सत्य सनातन धर्म में निष्ठ, वैश्य वंश के भूषणरूप थाऊमल नाम के विख्यात सेठ रहते थे।(10, 11)
धर्मधारिषु धौरेयो धेनुब्राह्मणरक्षकः।
सत्यवक्ता विशुद्धात्मा पुरश्रेष्ठीति विश्रुतः।।12।।
वे धर्मात्माओं में अग्रगण्य, गौब्राह्मणों के रक्षक, सत्य भाषी, विशुद्ध आत्मा, नगरसेठ के रूप में जाने जाते थे। (12)
भार्या तस्य कुशलगृहिणी कुलधर्मानुसारिणी।
पतिपरायणा नारी महंगीबेति विश्रुता।।13।।
उनकी धर्मपत्नी का नाम महँगीबा था, जो कुशल गृहिणी एवं अपने कुल के धर्म का पालन करने वाली पतिव्रता नारी थी। (13)
तस्या गर्भात्समुत्पन्नो योगी योगविदां वरः।
वसुनिधि निधीशाब्दे चैत्रमासेऽसिते दले।
षष्ठीतिथौ रविवारे आसुमलो ह्यवातरत्।।14।।
विक्रम संवत 1998 चैत वदी छठ रविवार को माता महँगीबा के गर्भ से योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ योगी आसुमल का जन्म हुआ।(14)
विलोक्य चक्षुषा बालं गौरवर्णं मनोहरम्।
नितरां मुमुदे दृढाङ्गं कुलदीपकम्।।15।।
हृष्टपुष्ट कुलदीपक, गौरवर्ण सुन्दर बालक को अपनी आँखों से देखकर माता (महँगीबा) बहुत प्रसन्न हुईं।(15)
पुत्रो जात इति श्रुत्वा पितापि मुमुदेतराम्।
श्रुत्वा सम्बन्धिनः सर्वे वर्धतां कथयन्ति तम्।।16।।
(घर में) पुत्र पैदा हुआ है यह सुनकर पिता थाऊमल भी बहुत प्रसन्न हुए। श्रेष्ठी के घर पुत्ररत्न की प्राप्ति सुनकर सब सम्बन्धी लोग भी उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे।(16)
भूसुरा दानमानाभ्यां तृणदानेन धेनवः।
भिक्षुका अन्नदानेन स्वजना मोदकादिभिः ।।17।।
एवं संतोषिताः सर्वे पित्रा ग्रामनिवासिनः।
पुत्ररत्नस्य संप्राप्तिः सदैवानन्ददायिनी।।18।।
पिता ने ब्राह्मणों को दान और सम्मान के द्वारा, गौओं को तृणदान के द्वारा, दरिद्रनारायणों को अन्नदान के द्वारा और स्वजनों को लड्डू आदि मिठाई के द्वारा.... इस प्रकार सभी ग्रामनिवासियों को संतुष्ट किया क्योंकि पुत्ररत्न की प्राप्ति सदा ही आनन्ददायक होती है। (17, 18)
अशुभं जन्म बालस्य कथयत्नि परस्परम्।
नरा नार्यश्च रथ्यायां तिस्रःकन्यास्ततः सुतः।।19।।
अनेनाशुभयोगेन धनहानिर्भविष्यति।
अतो यज्ञादि कर्माणि पित्रा कार्याणि तत्त्वतः।।20।।
गली में कुछ स्त्री-पुरुष बालक के जन्म पर चर्चा कर रहे थे किः "तीन कन्याओं के बाद पुत्ररत्न की प्राप्ति अशुभ है। इस अशुभ योग से धनहानि होगी, इसलिये को यज्ञ आदि विशेष कार्य करने चाहिये।"(19, 20)
दोलां दातुं समायातो नरः कश्चिद् विलक्षणः।
श्रेष्ठिन् ! तव गृहे जातो नूनं कोऽपि नरोत्तमः।।21।।
इदं स्वप्ने मया दृष्टमतो दोलां गृहाण मे।
समाहूतस्तदा तेन पूज्यः कुलपुरोहितः।।22।।
(उसी समय) कोई व्यक्ति एक हिंडोला (झूला) देने के लिए आया और कहने लगाः "सेठजी ! आपके घर में सचमुच कोई नरश्रेष्ठ पैदा हुआ है। यह सब मैंने स्वप्न में देखा है, अतः आप मेरे इस झूले को ग्रहण करें।" इसके बाद सेठजी ने अपने पूजनीय कुलपुरोहित को (अपने गर) बुलवाया। (21, 22)
विलोक्य सोऽपि पंचांगमाश्चर्यचकितोऽभवत्।
अहो योगी समायातः कश्चिद्योगविदां वरः।।23।।
तारयिष्यति यो लोकान्भवसिन्धुनिमज्जितान्।
एवं विधा नरा लोके समायान्ति युगान्तरे।।24।।
जायन्ते श्रीमतां गेहे योगयुक्तास्तपस्विनः।
भवति कृपया तेषामृद्धिसिद्धियुतं गृहम्।।25।।
तव पुत्रप्रतापेन व्यापारो भवतः स्वयम्।
स्वल्पेनैव कालेन द्विगुणितं भविष्यति।।26।।
पंचांग में बच्चे के दिनमान देखकर पुरोहित भी आश्चर्यचकित हो गया और बोलाः "सेठ साहिब ! योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ यह कोई योगी आपके घर में अवतरित हुआ है। यह भवसागर में डूबते हुए लोगों को भव से पार करेगा। ऐसे लोग संसार में युगों के बाद आया करते हैं। धनिक व्यक्तियों के घर में ऐसे योगयुक्त तपस्वी जन जन्म धारण किया करते हैं और उनकी कृपा से घर ऋद्धि-सिद्धि से परिपूर्ण हो जाया करता है। श्रीमन् ! आपके इस पुत्र के प्रभाव से आपका व्यापार अपने आप चलने लगेगा और थोड़े ही समय में वह दुगुना हो जायेगा। (23, 24, 25, 26)
नामकरणसंस्कारः तातेन कास्तिस्तदा।
भिक्षुकेभ्यः प्रदत्तानि मोदकानि तथा गुडम्।।27।।
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्तं वस्त्राणि विविधानि च।
दानेन वर्धते लक्ष्मीसयुर्विद्यायशोबलम्।।28।।
तब पिता ने पुत्र का नामकरण संस्कार करवाया और दरिद्रनारायणों को लड्डू और गुड़ बाँटा गया। ब्राह्मणों को धन, वस्त्र आदि दिये गये क्योंकि दान से लक्ष्मी, आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (27, 28)
दुर्दैवेन समायातं भारतस्य विभाजनम्।
तदेमे गुर्जरे प्रान्ते समायाताः सबान्धवा।।29।।
दुर्दैव से भारतो का विभाजन हो गया। तब ये सब लोग बन्धु-बान्धवोंसहित गुजरात प्रान्त में आ गये। (29)
तत्राप्यमदावादमावासं कृतवान्नवम्।
नूतनं नगरमासीत्तथाऽपरिचिता नराः।।30।।
भारत में भी अमदावाद में आकर इन्होंने नवीन आवास निश्चित किया जहाँ नया नगर था और सब लोग अपरिचित थे।(30)
धन धान्यं धरां ग्रामं मित्राणि विविधानि च।
थाऊमल समायातस्तयक्त्वा जन्मवसुन्धराम्।।31।।
धन,धान्य, भूमि, गाँव और सब प्रकार के मित्रों को एवं अपनी जन्मभूमि को छोड़कर सेठ थाऊमल (भारत के गुजरात प्रान्त मे) आ गये।(31)
विभाजनस्य दुःखानि रक्तपातः कृतानि च।
भुक्तभोगी विजानाति नान्य कोऽप्यपरो नरः।।32।।
भारत विभाजन के समय रक्तपात एवं अनेक दुःखों को कोई भुक्तभोगी (भोगनेवाला) ही जानता हूँ, दूसरा कोई व्यक्ति नहीं जानता।(32)
स्वर्गाद् वृथैव निर्दोषाः पातिता नरके नराः।
अहो मायापतेर्मायां नैव जानाति मानवः।।33।।
(दैव ने) निर्दोष लोगों को मानो अकारण स्वर्ग से नरक में डाल दिया। आश्चर्य है कि मायापति की माया को कोई मनुष्य नहीं जान सकता।(33)
पित्रा सार्धं नवावासे आसुमलः समागतः।
प्रसन्नवदनो बालः परं तोषमगात्तदा।।34।।
पिता जी के साथ बालक आसुमल नये निवास में आये। (वहाँ) प्रसन्न वदनवाला (वह) बालक परम संतोष को प्राप्त हुआ। (34)
धरायां द्वारिकाधीशः स्वयमत्र विराजते।
अधुना पूर्वपुण्यानां नूनं जातः समुदभवः।।35।।
(बालक मन में सोच रहा था कि) 'इस धरती पर यहाँ (गुजरात मे) द्वारिकाधीश स्वयं विराजमान है। आज वास्तव में पूर्वजन्म में कृत पुण्यों का उदय हो गया है।' (35)
प्रेषितः स तदा पित्रा पठनार्थं निजेच्छया।
पूर्वसंस्कारयोगेन सद्योजातः स साक्षरः।।36।।
पिता जी ने स्वेच्छा से बालक को पढ़ने के लिये भेजा। अपने पूर्व संस्कारों के योग से (वह बालक आसुमल) कुछ ही समय में साक्षर हो गया।(36)
अपूर्वां विलक्षणा बुद्धिरासीत्तस्य विशेषतः।
अत एव स छात्रेषु शीघ्र सर्वप्रियोऽभवत्।।37।।
उसकी (बालक आसुमल की) बुद्धि अपूर्व और विलक्षण थी। अतः वह शीघ्र की छात्रों में विशेषतः सर्वप्रिय हो गया।(37)
निशायां स करोति स्म पितृचरणसेवनम्।
पितापि पूर्णसंतुष्टो ददाति स्म शुभाशिषम्।।38।।
रात्रि के समय वे (बालक आसुमल) अपने पिताजी की चरणसेवा किया करते थे और पूर्ण संतुष्ट हुए पिताजी भी (आसुमल को) शुभाआशीर्वाद दिया करते थे।(38)
धर्मकर्मरता माता लालयति सदा सुतम्।
कथां रामायणादीनां श्रावयति सुतवत्सला।।39।।
धार्मिक कार्यों में रत सुतवत्सला माता पुत्र (आसुमल) से असीम स्नेह रखती थीं एवं सदैव रामायण आदि की कथा सुनाया करती थीं।(39)
माता धार्मिकसंस्कारेः संस्कारोति सदा सुतम्।
ध्यानास्थितस्य बालस्य निदधाति पुर स्वयम्।।40।।
नवनीतं तदा बालं वदति स्म स्वभावतः।
यशोदानन्दनेदं नवनीतं प्रेषितमहो।।41।।
माता अपने धार्मिक संस्कारों से सदैव पुत्र (आसुमल) को सुसंस्कृत करती रहती थीं। वह ध्यान में स्थित बालक के आगे स्वयं मक्खन रख दिया करती थीं। फिर माता बालक को स्वाभाविक ही कहा करती थी किः "आश्चर्य की बात है कि भगवान यशोदानंदन ने तुम्हारे लिये यह मक्खन भेजा है।"(40, 41)
कर्मयोगस्य संस्कारो वटवृक्षायतेऽधुना।
सर्वैर्भक्तजनैस्तेन सदाऽऽनन्दोऽनुभूयते।।42।।
(माता के द्वारा सिंचित वे) धार्मिक संस्कार अब वटवृक्ष का रूप धारण कर रहे हैं। आज सब भक्तजन उन धार्मिक संस्कारों से ही आनन्द का अनुभव कर रहे हैं।(42)
स च मातृप्रभावेण जनकस्य शुभाशिषा।
आसुमलोऽभवत् पूज्यो ब्रह्मविद्याविशारदः।।43।।
माता के प्रभाव से एवं पिताजी के शुभाशीर्वाद से वे आसुमल ब्रह्मविद्या में निष्णात एवं पूजनीय बन गये।(43)
अनेका पठिता भाषा संस्कृतं तु विशेषतः।
यतो वेदादि शास्त्राणि सन्ति सर्वाणि संस्कृते।।44।।
(आसुमल ने) अनेक भाषाएँ पढ़ीं किन्तु संस्कृत भाषा पर विशेष ध्यान दिया, क्योंकि वेद आदि सभी शास्त्र संस्कृत में ही हैं। (44)
विद्या स्मृतिपथं याता पठिता पूर्वजन्मनि।
सत्यः सनातनो जीवः संसारः क्षणभंगुरः।।45।।
(इस प्रकार) पूर्व जन्म में पढ़ी हुई समस्त विद्याएँ स्मरण हो आईं की यह जीव सत्य सनातन है और संसार क्षणभंगुर एवं अनित्य है।(45)

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