पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, April 11, 2011




निरोगता का साधन पुस्तक से - Nirogta ka Sadhan pustak se


संयम अर्थात् वीर्य की रक्षा। वीर्य की रक्षा को संयम कहते हैं। संयम ही मनुष्य की तंदुरुस्ती व शक्ति की सच्ची नींव है। इससे शरीर सब प्रकार की बीमारियों से बच सकता है। संयम-पालन से आँखों की रोशनी वृद्धावस्था में भी रहती है। इससे पाचनक्रिया एवं यादशक्ति बढ़ती है। ब्रह्मचर्य-संयम मनुष्य के चेहरे को सुन्दर व शरीर को सुदृढ़ बनाने में चमत्कारिक काम करता है। ब्रह्मचर्य-संयम के पालन से दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं।
संक्षेप में, वीर्य की रक्षा से मनुष्य का आरोग्य व शक्ति सदा के लिए टिके रहते हैं। मैं मानता हूँ की केवल वीर्य ही शरीर का अनमोल आभूषण है, वीर्य ही शक्ति है, वीर्य ही ताकत है, वीर्य ही सुन्दरता है। शरीर में वीर्य ही प्रधान वस्तु है। वीर्य ही आँखों का तेज है, वीर्य ही ज्ञान, वीर्य ही प्रकाश है। अर्थात् मनुष्य में जो कुछ दिखायी देता है, वह सब वीर्य से ही पैदा होता है। अतः वह प्रधान वस्तु है। वीर्य ही एक ऐसा तत्त्व है, जो शरीर के प्रत्येक अंग का पोषण करके शरीर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाता है। वीर्य से ही नेत्रों में तेज उत्पन्न होता है। इससे मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित जगत की प्रत्येक वस्तु देख सकता है।
वीर्य ही आनन्द-प्रमोद का सागर है। जिस मनुष्य में वीर्य का खजाना है वह दुनिया के सारे आनंद-प्रमोद मना सकता है और सौ वर्ष तक जी सकता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक वीर्य खर्च करता है वह अपना ही नाश करता है और जीवन बरबाद करता है। जो लोग इसकी रक्षा करते हैं वे समस्त शारीरिक दुःखों से बच जाते हैं, समस्त बीमारियों से दूर रहते हैं।
जब तक शरीर में वीर्य होता है तब तक शत्रु की ताकत नहीं है कि वह भिड़ सके, रोग दबा नहीं सकता। चोर-डाकू भी ऐसे वीर्यवान से डरते हैं। प्राणी एवं पक्षी उससे दूर भागते हैं। शेर में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वीर्यवान व्यक्ति का सामना कर सके।
ब्रह्मचारी सिंह समान हिंसक प्राणी को कान से पकड़ सकते हैं। वीर्य की रक्षा से ही परशुरामजी ने क्षत्रियों का कई बार संहार किया था।
ब्रह्मचर्य-पालन के प्रताप से ही हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा सके और सीता जी का समाचार ला सके। ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भीष्म पितामह अपने अंतिम समय में कई महीनों तक बाणों की शय्या पर सो सके एवं अर्जुन से बाणों के तकिये की माँग कर सके। वीर्य की रक्षा से ही लक्ष्मणजी ने मेघनाद को हराया और ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भारत के मुकुटमणि महर्षि दयानंद सरस्वती ने दुनिया पर विजय प्राप्त की।
इस विषय में कितना लिखें, दुनिया में जितने भी सुधारक, ऋषि-मुनि, महात्मा, योगी व संत हो गये हैं, उन सभी ने ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही लोगों के दिल जीत लिये हैं। अतः वीर्य की रक्षा ही जीवन है वीर्य को गँवाना ही मौत है।
परंतु आजकल के नवयुवकों व युवतियों की हालत देखकर अफसोस होता है कि भाग्य से ही कोई विरला युवान ऐसा होगा जो वीर्य रक्षा को ध्यान में रखकर केवल प्रजोत्पत्ति के लिए अपनी पत्नी के साथ समागम करता होगा। इसके विपरीत, आजकल के युवान जवानी के जोश में बल और आरोग्य की परवाह किये बिना विषय-भोगों में बहादुरी मानते हैं। उन्हें मैं नामर्द ही कहूँगा।
जो युवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, ऐसे युवान दुनिया में जीने के लायक ही नहीं हैं। वे केवल कुछ दिन के मेहमान हैं। ऐसे युवानों के आहार की ओर नजर डालोगे तो पायेंगे कि केक, बिस्कुट, अंडे, आइस्क्रीम, शराब आदि उनके प्रिय व्यंजन होंगे, जो वीर्य को पतला (क्षीण) करके शरीर को मृतक बनानेवाली वस्तुएँ हैं। ऐसी चीजों का उपयोग वे खुशी से करते हैं और अपनी तन्दुरुस्ती की जड़ काटते हैं।
आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, युवान-वृद्ध, पुरुष-स्त्रियाँ सभी दूध, दही, मक्खन तथा घी खाना पसंद करते थे परंतु आजकल के युवान एवं युवतियाँ दूध के प्रति अरुचि व्यक्त करते हैं। साथ ही केक, बिस्कुट, चाय-कॉफी या जो तन्दुरुस्ती को बरबाद करने वाली चीजें हैं, उनका ही सेवन करते हैं। यह देखकर विचार आता है कि ऐसे स्त्री-पुरुष समाज की श्रेष्ठ संतान कैसे दे सकेंगे? निरोगी माता-पिता की संतान ही निरोगी पैदा होती है।
मित्रो ! जरा रुको और समझदारीपूर्वक विचार करो कि हमारे स्वास्थ्य तथा बल की रक्षा कैसे होगी? इस दुनिया में जन्म लेकर जिसने ऐश-आराम की जिंदगी गुजारी उसका तो दुनिया में आना ही व्यर्थ है।
मेरा नम्र मत है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है दुनिया में आकर दीर्घायु भोगने के लिए अपने स्वास्थ्य व बल की सुरक्षा का प्रयास करे तथा शरीर को सुदृढ़ व मजबूत रखने के लिए दूध, घी, मक्खन और मलाई युक्त सात्त्विक आहार के सेवन का आग्रह रखे।
स्वास्थ्य की सँभाल व ब्रह्मचर्य के पालन हेतु आँवले का चूर्ण व मिश्री के मिश्रण को पानी में मिलाकर पीने से बहुत लाभ होगा। इस मिश्रण व दूध के सेवन के बीच दो घण्टे का अंतर रखें।
आध्यात्मिक व भौतिक विकास की नींव ब्रह्मचर्य है। अतः परमात्मा को प्रार्थना करें कि वे सदबुद्धि दें व सन्मार्ग की ओर मोड़ें। वीर्य शरीर में फौज के सेनानायक की नाईं कार्य करता है, जबकि दूसरे अवयव सैनिकों की नाईं फर्ज निभाते हैं। जैसे सेनानायक की मृत्यु होने पर सैनिकों की दुर्दशा हो जाती है, वैसे ही वीर्य का नाश होने से शरीर निस्तेज हो जाता है।
शास्त्रों ने शरीर को परमात्मा का घर बताया है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का पवित्र कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकता है, जिसका मन इन्द्र्रियों पर नियंत्रण होता है। फिर चाहे वह गृहस्थी हो या त्यागी।
मैं जब अपनी बहनों को देखता हूँ तब मेरा हृदय दुःख-दर्द से आक्रान्त हो जाता है कि कहाँ है हमारी ये प्राचीन माताएँ?
दमयंती, सीता, गार्गी, लीलावती, विद्याधरी,
विद्योत्तमा, मदालसा की शास्त्रों में हैं बातें बड़ी।
ऐसी विदूषी स्त्रियाँ भारत की भूषण हो गयीं,
धर्मव्रत छोड़ा नहीं सदा के लिए अमर हो गयीं।।
कहाँ हैं ऐसी माताएँ जिन्होंने श्रीरामचंद्र जी, लक्ष्मण, भीष्म पितामह और भगवान श्रीकृष्ण जैसे महान व प्रातः स्मरणीय व्यक्तियों को जन्म दिया?
कहाँ है व्यासमुनि, कपिल व पतंजलि जैसे महान ऋषि, जिन्होंने हिमालय की हरी-भरी खाइयों व पर्ण-कुटीरों में बैठकर, कंदमूल खा के वेदांत, तत्त्वज्ञान, योग की पुस्तक व सिद्धान्त लिखकर दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया?
आधुनिक नवयुवकों की हालत देखकर अफसोस होता है कि उन्होंने हमारे महापुरुषों के नाम पर कलंक लगाया है। वे इतने आलसी व सुस्त हो गये हैं कि एक-दो मील चलने में भी उन्हें थकान लगती है वे बहुत ही डरपोक व कायर हो गये हैं।
मैं सोचता हूँ कि भारत के वीरों को यह क्या हो गया है? ऐसे डरपोक क्यों हो गये हैं? क्या हिमालय के पहाड़ी वातावरण में पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा? क्या भारत की मिट्टी में वह प्रभाव नहीं रहा कि वह उत्तम अन्न पैदा कर सके, स्वादिष्ट-सुन्दर फल-फूल पैदा कर सके? क्या गंगा मैया ने अपने जल में से अमृत खींच लिया है? नहीं, यह सब तो पूर्ववत् ही है। तो फिर किस कारण से हमारी शक्ति व शूरवीरता नष्ट हो गयी है? भीम व अर्जुन जैसी विभूतियाँ हम क्यों पैदा नहीं कर पाते?
मैं मानता हूँ कि हमारे में शक्ति, शौर्य, आरोग्य व बहादुरी सब कुछ विद्यमान है परंतु कुदरत के नियमों पर अमल हम नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत हम कुदरत के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं व प्रतिफल भोग-विलास तथा शरीर के बाह्य दिखावे को सजाने में मग्न रहते हैं और अपने आरोग्य के विषय में जरा भी सोचते नहीं हैं।
संभोग प्रजोत्पत्ति का कार्य है। तो कैसी प्रजा उत्पन्न करोगे? एक कवि ने कहा हैः
जननी जने तो भक्तजन या दाता या शूर।
नहीं तो रहना बाँझ ही, मत गँवाना नर।।
आज के जमाने में संभोग को भोग विलास का एक साधन ही मान लिया गया है। जिन लोगों ने इस पवित्र कार्य को मौज-मजा व भोग-विलास का साधन बना रखा है, वे लोग स्वयं को मनुष्य कहलाने के लायक भी नहीं रहे। संयमी जीवन से ही दुनिया में महापुरुष, महात्मा, योगीजन, संतजन, पैगम्बर व मुनिजन उन्नति के शिखर पर पहुँच सके हैं। भोले-भटके हुए लोगों को उन्होंने अपनी वाणी व प्रवचनों से सत्य का मार्ग दिखाया है। उनकी कृपा व आशीर्वाद से अनेक लोगों के हृदय कुदरती प्रकाश से प्रकाशित हैं।
मनुष्यों को प्राकृतिक कानूनी सिद्धान्तों पर अमल करके, उनका अनुकरण करके समान दृष्टि से अपनी जिंदगी व्यतीत करनी चाहिए। मन सदा पवित्र रखना चाहिए, जिससे दिल भी सदा पवित्र रहे। अंतःकरण को शुद्ध रखकर कार्य में चित्त लगाना चाहिए, जिससे कार्य में सफलता मिले। संभोग के समय भी विचार पवित्र होंगे तो पवित्र विचारोंवाली प्रजा जन्म लेगी और वह हमारे सुख में वृद्धि करेगी।
यदि आप दुनिया में सुख-शांति चाहते हो तो अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखें। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा कर सकेगा वही सुख व आराम का जीवन बिता सकेगा और दुनिया में उन्हीं लोगों का नाम सूर्य के प्रकाश की नाईं चमकेगा।
'महाभारत' का प्रसंग हैः एक बार इन्द्रदेव ने अर्जुन को स्वर्ग में आने के लिए आमंत्रण दिया और अर्जुन ने वह स्वीकार किया। इन्द्रदेव ने अर्जुन का अपने पुत्र के समान अत्यंत सम्मान व खूब प्रेम से सत्कार किया। अर्जुन को आनंद हो ऐसी सब चीजें वहाँ उपस्थित रखीं। उसे रणसंग्राम की समस्त विद्या सिखाकर अत्यधिक कुशल बनाया। थोड़े समय बाद परीक्षा लेने के लिए अथवा उसे प्रसन्न रखने के लिए राजदरबार में स्वर्ग की अप्सराओं को बुलाया गया।
इन्द्रदेव ने सोचा कि अर्जुन उर्वशी को देखकर मस्त हो जायेगा और उसकी माँग करेगा परंतु अर्जुन पर उसका कोई प्रभाव न हुआ। इसके विपरीत उर्वशी अर्जुन की शक्ति, गुणों व सुन्दरता पर मोहित हो गयी।
इन्द्रदेव की अनुमति से उर्वशी रात्रि में अर्जुन के महल में गयी एवं अपने दिल की बात कहने लगीः "हे अर्जुन ! मैं आपको चाहती हूँ। आपके सिवा अन्य किसी पुरुष को मैं नहीं चाहती। केवल आप ही मेरी आँखों के तारे हो। अरे, मेरी सुन्दरता के चन्द्र ! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मेरा यौवन आपको पाने के लिए तड़प रहा है।"
यदि आजकल के सौन्दर्य के पुजारी नवयुवक अर्जुन की जगह होते तो इस प्रसंग को अच्छा अवसर समझ के फिसलकर उर्वशी के अधीन हो जाते परंतु परमात्मा श्रीकृष्ण के परम भक्त अर्जुन ने उर्वशी से कहाः "माता ! पुत्र के समक्ष ऐसी बातें करना योग्य नहीं है। आपको मुझसे ऐसी आशा रखना व्यर्थ ही है।"
तब उर्वशी अनेक प्रकार के हाव-भाव करके अर्जुन को अपने प्रेम में फँसाने की कोशिश करती है परंतु सच्चा ब्रह्मचारी किसी भी प्रकार चलित नहीं होता, वासना के हवाले नहीं होता। उर्वशी अनेक दलीलें देती है परंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए कहाः
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया।।
'हे वरवर्णिनी ! मैं तुम्हारे चरणों में शीश झुकाकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम वापस चली जाओ। मेरे लिए तुम माता के समान पूजनीया हो और मुझे पुत्र के समान मानकर तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए।'
(महाभारतः वनपर्वः 6.47)
अपनी इच्छा पूर्ण न होने से उर्वशी ने क्रोधित होकर अर्जुन को शाप दियाः "जाओ, तुम एक साल के लिए नपुंसक बन जाओगे।" अर्जुन ने अभिशप्त होना मंजूर किया परंतु पाप में डूबे नहीं।
प्यारे नौजवानो ! इसी का नाम है सच्चा ब्रह्मचारी। 

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