पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, January 13, 2011


आत्मयोग पुस्तक से - Aatmayog pustak se

आत्म-अवगाहन - Aatma-avgahan

तुम्हारी जितनी घड़ियाँ परमात्मा के ध्यान में बीत जायें वे सार्थक हैं। जितनी देर मौन हो जायें वह कल्याणप्रद है। श्वास की गति जितनी देर धीमी हो जाय वह हितावह है, मंगलकारी है।
बैठते वक्त हमारा श्वास नासिका से बारह उंगल तक बाहर जाता है, चलते समय अठारह, सोते समय चौबीस उंगल तक श्वास का फुफकार जाता है और मैथुन के समय तीस उंगल तक श्वास की ऊर्जा खत्म होती है। बैठने की अपेक्षा ध्यान में श्वास बहुत कम खर्च होती है। इससे मन भी शान्त होता है, आयुष्य भी बढ़ता है। कुछ श्वास कम खर्च होने के कारण मानसिक व बौद्धिक थकान भी उतरती है।
जितनी देर हो सके उतनी देर शान्त बैठे रहो। तुम्हारे श्वास की गति मन्द होती चली जायेगी, सत्त्वगुण बढ़ता जायगा। संकल्प फलित होने लगेंगे। ध्यान करते-करते श्वास की लंबाई कम हो जाय, बारह उंगल के बदले दस उंगल हो जाय तो तुम्हें दादुरी आदि सिद्धियाँ प्राप्त होने लगती हैं, नौ उंगल तक श्वास चलने लगे तो थोड़ा-सा ही निहारने मात्र से शास्त्रों के रहस्य समझने लग जाओगे। आठ उंगल तक श्वास की लम्बाई रह जाय तो तुम देवताओं की मसलत को जानने लग जाओगे। दूसरों के चित्त को पढ़ लो ऐसी योग्यता निखरने लगती है।
पाँच-छः उंगल तक फुफकार पहुँचे ऐसा श्वास बन जाय तो तुम्हारा चित्त खूब शान्ति और आनन्द का अनुभव करने लगेगा। तुम्हारे शरीर के वायब्रेशन सत्त्वप्रधान होने लगेंगे। श्वास की गति चार उंगल तक आ जाय तो अनुपम ओज की प्राप्ति होती है। तीन या दो उंगल तक श्वास की लंबाई आ जाय तो सविकल्प समाधि लग सकती है। एक उंगल तक श्वास आ जाय तो आनन्दानुगत समाधि की उपलब्धि हो जाती है। अगर श्वास भीतर ही थम जाय तो केवली कुम्भक की उच्च दशा, निर्विकल्प समाधि तक प्राप्त हो जाती है। तब साधना करने वाला साधक नहीं बचता। वह सिद्ध हो जाता है।
ध्यान करते वक्त देखने में तो तुम चुप बैठे हो लेकिन भीतर बहुत कुछ यात्रा कर रहे हो। बाहर से नासमझ लोग बोलेंगे कि यह कुछ नहीं कर रहा है लेकिन आपके द्वारा वास्तव में बहुत कुछ बढ़िया हो रहा है। वर्षों तक मजदूरी करके, बाहर का अथक परिश्रम करके जो न कमा सके हो वह इन ध्यान के क्षणों में कमा लेते हो। युगों तक जन्मते-मरते आये हो लेकिन उस सत्यस्वरूप परमात्मा के करीब नहीं जा पाये हो। वहाँ अब बैठे-बैठे मौन और ध्यान के क्षणों में जा रहे हो। चुपचाप बैठे-बैठे तुम्हारा मन उस आनन्द के सागर परमात्मा के करीब जा रहा है।
ध्यानावस्थित तद् गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनः।
येषां तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः।।
ध्यान करते समय श्वासोच्छवास की गति को निहारते जाओ। दृढ़ संकल्प दोहराते जाओ कि मेरा चित्त परमात्मा में शान्त हो रहा है। मेरे चित्त की चंचलता मिट रही है। पाप और संताप मिट रहे हैं। कर्मों के कुसंस्कार परमात्मा के पवित्र ध्यान में धुल रहे हैं। मेरे दिल की चुनरिया रंगी जा रही है परमात्मा के रंग से।
मेरे साहेब है रंगरेज चुनरी मोरी रंग डारी।
धोए से छूटे नहीं दिन दिन होत सुरंग।।
दो भौहों के बीच आज्ञाचक्र में ध्यान करते जाओ। वहाँ अपने इष्ट देवी-देवता या किसी प्रिय पीर, फकीर अथवा प्यारे सदगुरू के विग्रह के ध्यान करो। ॐकार की रक्तवर्णी आकृति का भी ध्यान कर सकते हो।
आज्ञाचक्र में धारणा करने से बहुत सारी शक्तियों का विकास होता है। ज्ञान का अथाह खजाना खुलने की कुँजी वहाँ छुपी है। वहाँ ध्यान करते हुए ॐकार का दीर्घ स्वर से गुंजन करते जाओ। पूरी निर्भयता और साहस को अपने रोम-रोम में भर जाने दो। चिन्ता, भय, शोक, अशान्ति की कल्पनाओं को ॐकार की पवित्र गदा से भगा दो।
"ऐ भय ! ऐ चिन्ता ! ऐ परेशानी ! दूर हटो। अब हमें आत्म-खजाना मिल रहा है। ॐकार की पवित्र गदा हमारे हाथ में है। ऐ चिन्ताएँ ! तुम्हें हम चकनाचूर कर देंगे। ॐ....
ऐ दुर्बल विचार ! ऐ दुर्बल चित्त ! तुझमें ॐकार का सामर्थ्य भरा जा रहा है। अब दुर्बलता छोड़। ॐ.....
ओ नकारात्मक विचार ! ओ असफलता की कल्पनाएँ ! दूर हटो। अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी परमात्मा हमारे साथ और हम भयभीत ? ईश्वर की असीम शक्तियाँ हमसे जुड़ी हुई और हम चिन्तित ? नहीं...कभी नहीं। ॐ....ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....
ऐ चिन्ताएँ ! ऐ दुर्बल विचार ! दूर हटो। हम पवित्र ॐकार की गदा लेकर तुम्हें कुचल डालेंगे। हमारे साथ जगतनियन्ता परमात्मा..... हमारे हृदय में सर्वशक्तिमान ईश्वर और ऐ दुर्बल विचार ! तू हमें दुर्बल किये जा रहा है ? ॐ.....ॐ.....
भय, शोक, चिन्ता को जरा भी स्थान नहीं। सदैव तुम्हारे चित्त में परमात्मा की शक्ति मौजूद है। अपना चित्त प्रसन्न रखो। फिर तुमसे पवित्र कार्य अपने आप होने लगेंगे। अपने चित्त को परमात्मा के साथ जोड़ा करो। फिर तुम जो भी करोगे वह परमात्मा की पूजा हो जायेगी। वासनाओं को दूर फेंक दो। चिन्ताओं और निर्बलताओं को दूर भगा दो। उस प्रेमास्पद परमात्मा में अपने चित्त को परितृप्त होने दो। ॐआनंद..... ॐआनन्द.... ॐ......ॐ....ॐ......
मैं छूई मूई का पेड़ नहीं,
जो छूने से मुरझा जाता है।
मैं वो माई का लाल नहीं,
जो हौवा से डर जाता है।।
भय ! आकांक्षा ! घृणा ! चिन्ता ! तुम दूर हटो। हे हिंसा ! तू दूर हट। मुझे प्रेम के पवित्र सिंहासन पर विराजमान होने दे। ऐ संसार की आसक्ति ! अब दूर हट। हम अपने आत्मभाव में जग जा रहे हैं। ॐ....ॐ......ॐ.......
बल ही जीवन है। दुर्बलता ही मौत है। दुर्बल विचारों को दूर हटाते जाओ। आत्मबल.... आज का प्रभात आत्मप्रकाश का प्रभात हो रहा है। ॐ....ॐ.....ॐ.....
ऐ चित्त की चंचलता और मन की मलिनता ! अब तू ॐकार के पावन प्रकाश के आगे क्या टिकेगी ? ॐ.....ॐ....ॐ.....
निर्भयता.....निश्चिंतता.... निष्फिकरता..... बेपरवाही..... पूरी खुदाई....जय जय....।
जब तक नहीं जाना था तब तक ईश्वर था और जब जाना तो मेरे...आत्मा का ही वह नाम था।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे ना शेष।
मोह कभी ना ठग सके इच्छा नहीं लवलेश।।
नश्वर दुनियाँ की क्या इच्छा करना ? अपने राम में मस्त। ॐ.....ॐ.....ॐ.....
बरस रही है भगवान की कृपा। बरस रही है ईश्वर की अमीदृष्टि, खुदाई नूर। तुम्हारा रोम-रोम आत्मबल से जगता जाय। ॐ.....ॐ.......ॐ.....
भावना करो कि हवाई जहाज की नाईं शरीर में शक्ति ऊपर उठ रही है। आप चिदाकाश की ओर ऊपर उठ रहे हैं। नासमझी के कारण भय, शोक और चिन्ताओं ने हमारे मन को घेर रखा था। हम मन के भी दृष्टा और सृष्टा हैं। हम इन्द्रियों और मन के स्वामी हैं। हम देह में रहते हुए भी विदेही आत्मा हैं। हम चैतन्य हैं। जो कबीर में गुनगुनाया था, जो श्रीकृष्ण में मुस्कराया था, जो रामदास में चमका था, जो रामकृष्ण में ध्यान का रस टपका रहा था वही आत्मा हमारे पास है। नहीं.... नहीं... वही आत्मा हम हैं। ॐ......ॐ.....ॐ......
ऐ इन्सान ! राहनुमा गुरूलोग तुझे अपनी असलियत में जगाते हैं, तू इन्कार मत करना। वे तुझे अपनी महिमा में जगाते हैं, तू सन्देह मत कर, भय और चिन्ता मत कर। ॐ.....ॐ......ॐ.....
जीवन की सुषुप्त शक्तियाँ जग रही हैं। जीवन का अधोगमन बदलकर ऊर्ध्वगमन हो रहा है। हम ऊपर की ओर उठ रहे हैं। हमारा तन और मन आत्मिक बल से सराबोर हो रहा है। आज के पावन पर्व पर आत्मस्वरूप में जगने का संकल्प करेंगे। तुम्हारे में अथाह संकल्प का साम्राज्य है। ईश्वर की अदभुत संकल्प की सामर्थ्यलीला तुम्हारे में छुपी हुई है। तुम उसे जगने दो। कभी दुर्बल विचार मत आने दो, कभी नकारात्मक विचार मत आने दो। ॐ......ॐ......ॐ......
जब तक देहाभिमान की नालियों में पड़े रहोगे तब तक चिन्ताओं के बन्डल तुम्हारे सिर पर लदे रहेंगे। तुम्हारा अवतार चिन्ताओं के जाल में फँस मरने के लिए नहीं हुआ है। तुम्हारा जन्म संसार की मजदूरी करने के लिए नहीं हुआ है, हरि का प्यारा होने के लिए हुआ है। हरि को भजे सो हरि का होय। ख्वामखाह चाचा मिटकर भतीजा हो रहे हो ? दुर्बल विचारों और कल्पनाओं की जाल में बँध रहे हो ? कब तक ऐसी नादानी करते रहोगे तुम ? ॐ..ॐ...ॐ...
विद्युतशक्ति, गुरूत्वाकर्षण की शक्ति, इलेक्ट्रानिक्स की शक्ति तथा अन्य कई शक्तियाँ दुनियाँ में सुनी गई हैं लेकिन आत्मशक्ति के आगे ये शक्तियाँ कुछ नहीं। वह आत्मशक्ति हम हैं। ॐ.....ॐ......ॐ.......
अपने दिल में आत्म-सन्देह, असंभावना या विपरीत भावना होने के कारण हम उस हक से जुदा हो गये हैं।
तीन प्रकार के आवरण होते हैं। असत्त्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण और अनानन्दापादक आवरण।
असत्त्वापादक आवरण शास्त्र के श्रवण से दूर होता है। अभानापादक आवरण मनन से दूर होता है। अनानन्दापादक आवरण आत्सस्वरूप में गोता लगाने से दूर हो जाता है। ॐ....ॐ.....ॐ.....
बल.... हिम्मत.....शक्ति....। गिड़गिड़ाना नहीं है, बलवान होना है। ॐ....ॐ.....ॐ......

मानसिक ढंग से ॐकार का जप करते जाओ। ॐकार की आनन्ददायी शान्ति में खोते जाओ। भ्रूमध्य में सर्वपातक-नाशक, आत्मबल-वर्धक, आत्मज्ञान का प्रकाश करने वाले ॐ का ध्यान करते जाओ। भावना से भ्रूमध्य के गगनपट पर लाल रंग के ॐकार को अंकित कर दो। आन्तर मन में ॐकार का गूंजन होता जाये।
खूब शान्ति में डूबते जाओ। अपने शान्त स्वभाव में ब्रह्मभाव में परमात्म-स्वभाव में, परितृप्ति स्वभाव में शान्त होते जाओ। अनुभव करते जाओ किः सर्वोऽहम.... शिवोऽहम्... आत्मस्वरूपोऽहम्... चैतन्यऽहम्...। मैं चैतन्य हूँ। मैं सर्वत्र हूँ। मैं सबमें हूँ। मैं परिपूर्ण हूँ। मैं शांत हूँ। ॐ......ॐ......ॐ.......

साधक को अपने दोष दिखने लग जाय तो समझो उसके दोष दूर हो रहे हैं। दोष अपने आप में होते तो नहीं दिखते। अपने से पृथक हैं इसलिए दिख रहे हैं। जो भी दोष तुम्हारे जीवन में हो गये हों उनको आप अपने से दूर देखो। ॐ की गदा से उनको कुचल डालो। आत्मशान्ति के प्रवाह में उन्हें डुबा दो।
ॐ का गुंजन भीतर होता जाय अथवा ॐ शान्ति... ॐ शान्ति.... शान्ति..... शान्ति..... ऐसा मानसिक जप करते हुए आत्मा में विश्रान्ति पाते जाओ।
ॐ के अर्थ का चिन्तन करो। इससे मनोराज, निद्रा, तन्द्रा, रासास्वाद आदि विघ्नों से बच जाओगे।
आत्मशान्ति में चित्त को डुबाते जाओ। चित्त की विश्रान्ति सामर्थ्य की जननी है। चित्त की विश्रान्ति अपने स्वरूप की खबर देने वाली है। चित्त की विश्रान्ति सदियों से भटकते हुए जीव को अपने शिव-स्वभाव में जगा देती है। हजार तीर्थों में जाने से, हजारों हवन करने से, हजार व्रत रखने से वह पद नहीं मिलता जो चित्त की विश्रान्ति से मिलता है।
उपदेश व सत्संग सुनने का, ध्यान करने का फल यही है कि सुने हुए सत्यस्वरूप परमात्मा के करीब ले जाने वाले वचन ध्यान के द्वारा दृढ़ होते जायें। सुनी हुई आत्मा-परमात्मा की महिमा ध्यान के द्वारा अनुभव में आने लग जाय। सुना हुआ सत्संग केवल सुनाने वाले का ही न रहे, वह हमारा भी हो जाय। यही तो ध्यान का प्रयोजन है।
मैं कितना शान्तस्वरूप था, मुझे पता न था। मैं कितना प्रेमस्वरूप था, मुझे पता न था।
स्वर्ग के देवों को कुछ पाने के लिए कर्म करना है तो उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ता है। यह कर्मभूमि है। सब कर्मों का जो सार है उसे सारभूत मोक्षमार्ग में हम लगे हैं। सारे कर्म-धर्मों का अर्क है आत्मशान्ति। हम उस परमानन्द पद की यात्रा में संलग्न हो रहे हैं। ध्यान का एक-एक क्षण अदभुत पुण्य अर्जित करा रही है, परमात्मा में डूबने का सुअवसर दे रही है।
अपने इष्ट को, अपने पुण्यों को धन्यवाद दो। ॐ....ॐ.....ॐ.....
जो बुद्धिमान हैं वे जानते हैं कि कब बोलना, कितना बोलना। प्रज्ञावान लोग शान्ति और आनन्द के लिए बोलते हैं, प्रेम और प्रसाद के लिए बोलते हैं। प्रेम तो केवल परमात्मा में हो सकता है और प्रसाद केवल उसी का वास्तविक प्रसाद है जिससे सब दुःख निवृत्त हो जाते हैं।
दृढ़ भावना करो किः "मैं सब हूँ। विशाल आकाश की नाईं सर्वव्यापक हो रहा है। मैं चिदाकाश-स्वरूप हूँ। सूर्य और चाँद मुझमें लटक रहे हैं। मैं चिदाकाश स्वरूप हूँ। सूर्य और चाँद मुझमें लटक रहे हैं। सब तारे मुझमें टिमटिमा रहे हैं इतना मैं विशाल हूँ। कई राजा-महाराजा इस आकाशस्वरूप चैतन्य में आ-आकर चले गये। मैं वह आकाश हूँ। मैं सर्वव्यापक हूँ। मैं कोई परिस्थिति नहीं हूँ लेकिन सब परिस्थितियों को पहचाननेवाला आधारस्वरूप आत्मा हूँ। आनन्द और शान्ति मेरा अपना स्वभाव है।
इस प्रकार अपनी वृत्ति को विशाल... विशाल गगनगामी होने दो।

अपने दिल में ॐका, परम पावन बीजमंत्र का, अत्यंत पवित्र परमात्मस्वरूप का ध्यान करते हुए हृदय को परम चैतन्य अवस्था से, शीतल आनन्द से परिपूर्ण करते जाओ। जैसे किसी कोठरी में प्रकाश फैल जाता है ऐसे ही हृदय में चिदाकाश-स्वरूप चिदघन परमात्मा-स्वरूप ॐ का चिन्तन करते ही हृदय निर्मल चिदाकाशवत् स्वच्छ हो रहा है।
दिल में शान्ति व प्रसन्नता व्याप्त हो रही है ऐसी दृढ़ भावना के साथ आत्म-शान्ति में..... आत्मानंद में डूबते जाओ... अदभुत ईश्वरीय आह्लाद को भीतर भरते जाओ। वाह.... वाह.... !
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।
प्रेमस्वरूप परमात्म-रस में हृदय परितृप्ति का अनुभव करता जाय। ध्यान नहीं करना। अपने आनन्दमय स्वभाव को याद करके जग जाना है, स्वस्थ हो जाना है।
मैं आनन्दस्वरूप, सुखस्वरू, चैतन्यस्वरूप अपने स्वभाव में जग रहा हूँ। वाह वाह....! मेरा स्वभाव ही प्रसन्नतापूर्ण है। अन्तःकरण जब मेरा चिन्तन करता है तब प्रसन्न होता है। अन्तःकरण जब मेरे करीब आता है तब आनन्दित होता है। आनन्दो ब्रह्म। ब्रह्मेति परमात्मनः। आनन्द ही ब्रह्म है। कीर्तन के द्वारा आनन्द आये, योग के द्वारा आनन्द आये, विद्या के द्वारा आनन्द आये, ज्ञान के द्वारा आनन्द आये। ये सब मेरे ही स्वरूप हैं।
हृदय जब मेरे करीब होता है, मेरे चिन्तन में होता है तो मैं उसे आनन्द से भर देता हूँ। हृदय जब अन्य विषयों की ओर जाता है तब मैं सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप होते हुए भी वह आनन्द नहीं ले पाता। ॐ.....ॐ......ॐ.....
मुझमें राग कहाँ ? मुझमें द्वेष कहाँ ? मुझमें कर्त्तापन कहाँ ? मुझमें भोक्तापन कहाँ ? मुझमें नात और जात कहाँ ? ये सब मन की कल्पनाएँ थी। मनीराम का खिलवाड़ था। मन का बुना हुआ जाल था। अपने आत्म-सिंहासन पर बैठकर निहारता हूँ तो मन के जाल का कोई प्रभाव नहीं है, मन की कोई सत्ता नहीं है। मेरी सत्ता लेकर मन जाल बुन रहा था। मेरी दृष्टि उस पर पड़ते ही वह शर्मा गया। जाल बुनना छोड़ दिया। ॐ.....ॐ......ॐ.....
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम्. शिवोऽहम्।
पूर्णोऽहम्.... परमानन्दस्वरूपोऽहम्।।
रोम-रोम पावन हो रहा है मेरे अपने स्वभाव से। यह शरीर भी पावन हो रहा है मेरे चिदानन्द स्वभाव से। इस शरीर से छूकर जो हवाएँ जाती हैं वे भी पवित्रता, शीतलता, प्रेम और आनन्द टपका रही हैं।
मैं आत्मा था, मैं चैतन्य था, मैं प्रेम स्वरूप था, मैं आनन्दस्वरूप था लेकिन संकल्प विकल्पों ने मुझे ढक रखा था। अब वे कुछ स्थगित हुए हैं तो परितृप्ति का अनुभव हो रहा है। मैं तो पहले से ही ऐसा था।
हीरा धूल में ढक गया था तब भी वैसा ही चमकदार था लेकिन लोगों को दिखता नहीं था। मैंने मन को, बुद्धि को, इन्द्रियों को, तन को पवित्र किया, प्रकाशित किया तब वे आनन्द को प्राप्त हुए। मैं तो उसके पहले भी ऐसा ही आनन्दस्वरूप था। वाह.... वाह.... !
चित्त की चंचलता होगी तब मेरा यह आनन्दस्वभाव चित्त से छुप जायगा, तब भी मैं होऊँगा वैसा ही।
मैं बोधस्वरूप हूँ। मैं जब जानने वाला चैतन्य चिदात्मा हूँ। स्वप्न की तरंगे आयी और विलय हो गई, जाग्रत के विचार व कर्म आये और बदल गये लेकिन मैं अबदल आत्मा हूँ। बचपन आया और बदल गया, मैं अबदल आत्मा हूँ। किशोरावस्था आयी और बदल गई, लेकिन मैं अबदल आत्मा वही का वही। युवावस्था आ रही है और जा रही है लेकिन मैं वही का वही। वृद्धावस्था आयेगी और जायेगी लेकिन मैं वही का वही। मैं दृष्टा मात्र चिदघन चैतन्य हूँ। ॐ.... ॐ..... ॐ.....
मैं प्रसन्न, आनन्दस्वरूप चैतन्य हूँ। नाहक दुःखद विचार करके, विरोधी विचार करके मैंने अपने स्वरूप पर विचारों की मलिन चद्दर ढक दी थी। अब ॐकार की, उस अद्वैत आनन्दस्वरूप परमात्मा की एक सुहावनी लहर द्वारा मैंने उस कल्पनाओं की चद्दर को हटाया तो मैं अपने आप में परितृप्त हो रहा हूँ। योगानन्द का अमृत, योग के द्वारा आत्मानन्द का अमृत मेरे हृदय में भरा जा रहा है।
चिन्ता, भय, विकार, मोह, माया इनको मैं जानता ही नहीं हूँ। ये सब तो मेरा मदोन्मत्त मनरूपी वजीर जानता होगा।
कैसा आनन्द ! कौन किससे कहे ! मानो, गूँगे ने गुड़ खाया।
ध्यान करने की चालाकी छोड़ दो। सत्संग में बैठने के बाद सयानापन छोड़ दो। इस मनुभाई (मन) को ध्यान करने की बहुत इच्छा होती है। वह चालाक बनता है कि 'मैं ध्यान करूँ।' अरे मनुभाई ! तू चुप हो जा। बैठा रह अपनी जगह।
अब ध्यान करेंगे तो मन अड़चन डालेगा। गाड़ी में बैठने के बाद अपनी गठरियाँ सिर पर उठाने जैसा होगा। अब तो सदगुरू कृपा की मोक्षगाड़ी में बैठ गये तो आराम फरमाओ ! ब्रह्मानन्द की गाड़ी अपने आप ले जा रही है।
आनन्द और शान्ति मेरा स्वभाव था, मुझे पता न था। प्रेम और प्रसन्नता मेरा जन्मसिद्ध स्वभाव था लेकिन कल्पनाओं ने, नादानी के विचारों ने ढक रखा था मेरे स्वभाव को। अब सन्तों के, शास्त्रों के, सदगुरू के वचनों से नादानी छूट गई। ॐकार की झाड़ू से, कुछ अहोभाव के धक्के से, कुछ श्रद्धा से विचारों की पर्तें हट गईं, कचरा साफ हो गया। तत्त्ववस्तु ज्यों की त्यों दिखने लगी, आनन्द छलकने लगा। अब खुली आँखों से मैं सर्वत्र अपने को निहार सकता हूँ। 'सब में एक, एक में सब' का अनुभव कर सकता हूँ। खुली आँखों से भी मैं मस्ती में रह सकता हूँ। अपने स्वभाव में परितृप्त हो सकता है। ॐ.....ॐ......ॐ.....
मेरी सुनी हुई सब कथाएँ फल गई। मेरे किये हुए सब जब-तप फलित हो गये। मेरी सेवा और पुण्य फलित हो रहे हैं। देहाभिमान का कचरा हटता जा रहा है और आत्मस्वभाव का नशा चढ़ा जा रहा है।
अब कुछ करने का संकल्प उठे तो ॐ की झाड़ू से उसे हटा दो। मकान बनवाना है.... दवाखाना खोलना है..... धन्धा करना है.... दूर हटो ये सब संकल्प। ये सब झील की सतह पर काई है। एक हाथ यूँ मारा, दूसरा हाथ यूँ मारा तो माया की काई दूर। फिर निर्मल पानी ही पानी। ब्रह्मानन्द ही ब्रह्मानन्द।
जगन्नियन्ता परमात्मा होकर भी चपरासी की नौकरी करनी है ? साहब को सलाम करना है ? जिसको गरज होग वह सलाम करने आयेगा। चाचा मिटकर भतीजे क्यों होते हो ? ॐ.... ॐ...... ॐ......
मुझ पूर्ण चैतन्य को किसकी आवश्यकता है ? मुझमें कर्त्तापन कहाँ ? आवश्यकताएँ तो देह की होती हैं। लाखों करोड़ों देह हुई और उनकी सब आवश्यकताएँ पूरी करते रहे फिर भी मरती ही रही। हर जन्म में बना-बनाकर छोड़ते आये जब तक नहीं किया तब तक लगता है कि मकान बनायें, बड़े भवन बनायें, भव्य आश्रम खोलें लेकिन करने के बाद लगता है कि इसको कोई सँभाल ले तो अच्छा है, हमें नहीं चाहिए।
अब करने-धरने के संकल्प सब छोड़ दो। यह ब्रह्माण्ड अपने बिना कुछ किये ही धमाधम चलता रहेगा। कितने ही मजदूर लोग बहुत कुछ कर रहे हैं बेचारे। अपने को कर्त्ता क्यों बना रहे हो ? आत्मानन्द से मुँह क्यों मोड़ रहे हो ?
'नहीं, मैं अपने को कर्त्ता मानकर नहीं कर रहा हूँ....'
अरे कर्त्ता नहीं मानते तो करने की इच्छा कैसे होती है ? ईमानदारी से खोजो। खोजकर पकड़ो कि क्या इच्छा है। उस इच्छा को यूँ किनारे लगा दो और तुम प्रकट हो जाओ। इच्छाओं के आवरण के पीछे कब तक मुँह छिपाये बैठे रहोगे ? यश की इच्छा है ? मारो धक्का। प्रसिद्धि की इच्छा है ? मार दो फूँक। अच्छा कहलाने की इच्छा है ? मारो लात। इतना कर लिया तो सब शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अभ्यास, जप-तप-तीर्थ-अनुष्ठान और सब सेवाएँ फलित हो गईं।
लेकिन सावधान ! आलस्य या अकर्मण्यता नहीं लानी है। इच्छारहित होने का अभ्यास करके आत्मदेव का साक्षात्कार करना है। फिर तुम्हारे द्वारा बहुत सारे कर्म होने लगेंगे लेकिन तुममें कर्तृत्व की बू न रहेगी।
इच्छा की पर्तों ने तुम्हें ढाँक रखा है और कुछ नहीं है... कुछ नहीं है। बहुत सरल है। सरल नहीं होता तो यह आनन्द कैसे लेते अपने स्वभाव का ? बिल्कुल सरल.... मुफ्त में।
श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- "हे रामजी ! फूल और पत्ते को मसलने में देर है, अपने स्वरूप को देखने में क्या देर है ?"
किसी देवी-देवता के दर्शन की इच्छा नहीं है। उनमें भी हमारा ही आत्मचैतन्य विलास कर रहा है। किसी परिस्थिति की इच्छा नहीं है। कुछ होना नहीं है। कुछ प्राप्त करना नहीं है। प्रभु भी नहीं चाहिए, चलो। प्रभु हमस अलग हों तो चाहिए न ? हमारा शुद्ध-स्वरूप आत्मा ही परमात्मा है। एक अद्वैत आत्मा-परमात्मा के सिवा जो कुछ दिखता है वह सब मन की कल्पनाएँ हैं। इच्छा करके कल्पनाओं के पीछे कब तक भागते फिरेंगे ?
खोजो अपने में। कोई इच्छा दिखे तो पकड़कर निकाल दो। जैसे महिलाएँ बालों में से जुएँ पकड़-पकड़कर निकालती है ऐसे चित्त में से इच्छाएँ पकड़-पकड़कर निकाल दो। अभी तो सिर जुओं से ढक गया है। कुछ भी करके इच्छाओंरूपी जुएँ हटा दो। ये इच्छाएँ हट गई तो फिर...
संकर सहज स्वरूप संभारा।
लागी समाधि अखण्ड अपारा।।
अपना स्वरूप विचारने मात्र से, सँभालने मात्र से प्रकट होता है। संस्कार घुस गये हैं कि यह करेंगे, वह करेंगे, यह पायेंगे, यह छोड़ेंगे। संकल्पों और इच्छाओं की खिचड़ी हो गई हैं।
"अब हम क्या करें ?"
कुछ नहीं करो।
"भजन करें ?"
नहीं करो भजन।
"ध्यान करें ?"
नहीं करो ध्यान भी।
"यात्रा करें ?"
कोई जरूरत नहीं।
"दुकान खोलें ?"
कभी नहीं खोलना।
"नौकरी करें ?"
नहीं।
"रसोई बनायें ?"
कोई आवश्यकता नहीं है।
कुछ नहीं करना है। प्रकृति में हो रहा है। शास्त्र की मर्यादा के मुताबिक होने दो। करने का नया संकल्प मत बनाओ। परहित के लिए होने दो।

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