पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, December 31, 2010


श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Darshan pustak se

जीव का सर्वांगी विकसित हो इसलिए भगवान के अवतार होते हैं। उस समय उन अवतारों से तो जीव को प्रेरणा मिलती है, हजारों वर्षों के बाद भी प्रेरणा मिलती रहती है।
ईश्वर के कई अवतार माने गये हैं- नित्य अवतार, नैमित्तिक अवतार, आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, स्फूर्ति अवतार, आविर्भाव अवतार, अन्तर्यामी रूप से अवतार, विभूति अवतार, आयुध अवतार आदि।
भगवान की अनन्त-अनन्त कलाएँ जिस भगवान की समष्टि कला से स्फुरित होती है, उन कलाओं में से कुछ कलाएँ जो संसार व्यवहार को चलाने में पर्याप्त हो जाती हैं वे सब कलाएँ मिलकर सोलह होती हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण को षोडश कलाधारी भी कहते हैं और पूर्णावतार भी कहते हैं। वास्तव में, भगवान में सोलह कलाएँ ही हैं ऐसी बात नहीं है। अनन्त-अनन्त कलाओं का सागर है वह। फिर भी हमारे जीवन को या इस जगत को चलाने के लिए भगवान-परब्रह्म-परमात्मा, सच्चिदानन्द की सोलह कलाएँ पर्याप्त होती हैं। कभी दस कलाओं से प्रकट होने की आवश्यकता पड़ती है तो कभी दो कलाओं से काम चल जाता है, कभी एक कला से। एक कला से भी कम में जब काम चल जाता है, ऐसा जब अवतार होता है उसे अंशावतार कहते हैं। उससे भी कम कला से काम करना होता है तो उसे विभूति अवतार कहते हैं।
अवतार का अर्थ क्या है ?
अवतरति इति अवतारः। जो अवतरण करे, जो ऊपर से नीचे आये। कहाँ तो परात्पर परब्रह्म, निर्गुण, निराकार, सत् चित् आनन्द, अव्यक्त, अजन्मा.... और वह जन्म लेकर आये ! अव्यक्त व्यक्त हो जाय ! अजन्मा जन्म को स्वीकार कर ले, अकर्त्ता कर्तृत्व को स्वीकार कर ले, अभोक्ता भोग को स्वीकार कर ले। यह अवतार है। अवतरति इति अवतारः। ऊपर से नीचे आना।
जो शुद्ध बुद्ध निराकार हो वह साकार हो जाय। जिसको कोई आवश्यकता नहीं वह छछियन भरी छाछ पर नाचने लग जाय। जिसको कोई भगा न सके उसको भागने की लीला करनी पड़े। ऐसा अवतार मनुष्य के हित केलिए है, कल्याण के लिए है।
भगवान का एक अवतार होता है प्रतीक अवतार, जैसे भक्त भगवान की प्रतिमा बना लेता है, जिस समय भोग लगाता है, जो भोग लगाता है, जिस भाव से भोग लगा देता है, पत्र, पुष्प और जो कुछ भी अर्पण करता है उस रूप में ग्रहण करके वह भगवान अन्तर्यामी प्रतिमा अवतार में भक्त की भावना और शक्ति पुष्ट करते हैं। कभी भगवान की मूर्ति से, प्रतिमा से, चित्र से फूल या फूलमाला गिर पड़ी तो वह भक्त की पूजा स्वीकार हो गयी इसका संकेत समझा जाता है।
हम जब साधना काल के प्रारंभ में पूजा करते थे तब कभी-कभी ऐसा होता था। फूल की माला भगवान को चढ़ा दी, फिर पूजा में तन्मय हो गये। एकाएक माला गिर पड़ी तो चित्त में बड़ी प्रसन्नता होती कि देव प्रसन्न हैं।
प्रतिमा में भगवद् बुद्धि करके उपासना की और प्रतिमा से शांति, आनंद और प्रेरणा मिलने लगी। यह प्रतिमा अवतार। कोई श्रीकृष्ण की प्रतिमा रखता है कोई श्रीराम की की, कोई किसी और की। धन्ना जाट जैसे को पण्डित जी ने भाँग घोटने का सिलबट्टा दे दिया ' ये ठाकुरजी हैं' कहकर। धन्ना जाट ने उसमें भगवान की दृढ़ भावना की तो भगवान प्रकट हो गये।
भगवान प्रतिमा के द्वारा हमारी उन्नति कर दें, प्रतिमा के द्वारा अवतरित हो जायें उसको कहते हैं प्रतिमा अवतार। जिस प्रतिमा को आप श्रद्धा-भक्ति से पत्र-पुष्प अर्पण करते हो, भोग लगाते हो, उस प्रतिमा से आपको प्रेरणा मिलती है।
अंतर्यामी अवतार दो प्रकार का होता है। सबके अंतर्यामी भगवान सबको सत्ता-स्फूर्ति देते हैं, कुछ कहते नहीं। जन-साधारण के साथ भी भगवान हैं। वह उन्हें माने चाहे न माने, आस्तिक हो या नास्तिक, भगवान को गालियाँ देता हो फिर भी भगवान उसकी आँख को देखने की सत्ता देते हैं, कान को सुनने की सत्ता देते हैं। पेट में उसका भोजन पचाने की शक्ति देते हैं। दुराचारी-से-दुराचारी, पापी से भी पापी, महापापी हो उसको भी अपनी सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देते हैं क्योंकि वे प्राणिमात्र के सुहृद हैं। वे सबके भीतर अंतर्यामी आत्मा होकर बैठे हैं। 'यह दुष्ट मुझे मानता नहीं, भजता नहीं.... चलो उसके हृदय को बंद कर दूँ...' ऐसा भगवान 'नहीं' कभी नहीं कहते। बिजली का बिल दो महीने तक नहीं भरो तो 'Connection Cut' हो जाता है, किन्तु भगवान को दस साल तक सलाम न भरो, रामनाम का बिल न भरो तो भी आपकी जीवन चेतना का Connection Cut नहीं होता। जितने श्वास उसके भाग्य में होते हैं उतने चलने देते हैं। यह भगवान का अंतर्यामी अवतार अंतर्यामी सत्ता स्वरूप से सब जनों के लिए होता है। भक्तजनों के लिए है अन्तर्यामी प्रेरणा अवतार। जो भक्त हैं, जो भक्ति करते हैं, उनका अंतर्यामी प्रेरक होता है, चित्त में प्रेरणा देता है किः 'अब यह करो, वह करो। सावन का महीना आया है तो अनुष्ठान करो। इतने जप-तप हो गये, अब आत्मज्ञान के सत्संग में जाओ। गुरूमुख बनो। निगुरे रहने से कोई काम नहीं बनेगा....' इस प्रकार अंतर्यामी भगवान प्रेरणा देते हैं।
इस प्रकार भगवान के कई तरह के अवतार होते हैं। युग-युग में, वक्त-वक्त पर, हर दिल और हर व्यक्ति की योग्यता पर भिन्न-भिन्न प्रेरणा और प्रकाश मिले ऐसे अवतार होते हैं।
श्रीकृष्ण का अवतार सोलह कला से सम्पन्न, सर्वांगी विकास कराने वाला, सब साधकों को, भक्तों को प्रकाश मिल सके, दुर्जनों का दमन हो सके, मदोन्मत्त राजाओं का मद चूर कर सके, माली, कुब्जा, दर्जी और तमाम साधारण जीवों पर अहैतुकी कृपा बरसा सके ऐसा पूर्ण लीला अवतार था। जो बँधे हुए को छुड़ा दे, निराश को आश्वासन दे, रूखे को रस से भर दे, प्यासे को प्रेम से भर दे ऐसा अवतार था श्रीकृष्ण का। कभी-कभी छोटे-मोटे काम के लिए आवेशावतार हो जाता है, कभी अंशावतार हो जाता है, जैसे वामन अवतार, नृसिंह अवतार, परशुराम अवतार। कभी आयुधावतार हो जाते हैं। कभी संकल्प किया और भगवान के पास आयुध आ जाता है, सुदर्शन चक्र आदि आ जाता है।
परात्पर परब्रह्म की शक्ति कभी अंशावतार में तो कभी आयुध-अवतार में तो कभी संतों के हृदय द्वारा संत-अवतार में तो कभी कारक अवतार में अवतरित होते हुए मानव-जात को अपने उन्नत शिखरों पर ले जाने का काम करती है। मानव अगर तत्पर होकर अपने उन्नत शिखरों पर पहुँचे तो उसे सुख और दुःख दोनों दिखाई पड़ता है खिलवाड़, उपलब्धि और हानि दोनों दिखाई पड़ता है खिलवाड़, शरीर और शरीर के सम्बन्ध दिखाई पड़ते हैं खिलवाड़। उसे अपनी आत्मा की सत्यता का अनुभव हो जाता है।
आत्मा की सत्यता का अनुभव हो जाये तो ऐसा कोई आदमी नहीं जो दुःख खोजे और उसे दुःख मिल जाय । ऐसा कोई आदमी नहीं जो मुक्त न हो। अपने आत्मा की अनुभूति हो जाय तो फिर आपको दुःख नहीं होगा, आपके संपर्क में आने वाले लोग भी निर्दुःख जीवन जीने के मार्ग पर आगे कूच कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण को जो प्रेम करे उसको तो वे प्रेम दें ही, उनको जो देखे नहीं उस पर भी प्रेम से बरस पड़े ऐसे श्रीकृष्ण दयालु थे। वे मथुरा में गये तो दर्जी से ग्वालबालों के कपड़े ठीक करवाकर उसका उद्धार किया। पर कुब्जा ? जिसने श्रीकृष्ण की ओर देखा तक नहीं फिर भी उसका कल्याण करना चूके नहीं।
विकारी व्यक्तियों का, भोग-वासना में फँसे हुए लोगों का संपर्क करने वाली बुद्धि कुब्जा है।
कुब्जा छोटी जाति की थी। राजा-महाराजाओं को तेल-मालिश करती, अंगराग लगाती, कंस की चाकरी करती। ऐसा उसका धंधा था।
श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए सारा मथुरा उमड़ पड़ा था लेकिन कुब्जा कृष्ण के साथ ही पैदल जा रही है फिर भी आँख उठाकर देखती नहीं। श्रीकृष्ण तो उदारता का उदधि थे। उन्होंने सोचाः जब इतने सारे लोग आनन्दित हो रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं तो यह क्यों थोबड़ा चढ़ाकर जाती है ? कृष्ण कहने लगेः
"हे सुन्दरी !"
कुब्जा सोचने लगी कि मैं सुन्दरी नहीं.... आज तक मुझे किसी ने सुन्दरी कहा ही नहीं। ये किसी और को बुलाते होंगे। कुब्जा ने सुना-अनसुना कर दिया। श्रीकृष्ण ने दुबारा कहाः
"हे सुन्दरी !"
कुब्जा ने सोचाः "कोई और सुन्दरी होगी। मगर ग्वालबालों के टोले में तो कोई स्त्री नहीं थी। जब तीसरी बार श्रीकृष्ण ने कहाः
"हे सुन्दरी !"
तब कुब्जा से रहा न गया। वह बोल उठीः
"बोलो सुन्दर ! क्या बोलते हो ?"
जो कुरूप में भी सौन्दर्य को देख लें वे कृष्ण हैं। सच पूछो तो कुरूप से कुरूप आदमी में भी आत्म-सौन्दर्य छुपा है। श्रीकृष्ण को उस कुरूप कुब्जा में भी अपना सौन्दर्य स्वरूप सच्चिदानंद दिखा। उन्होंने कुब्जा से कहाः
"यह चन्दन तू मुझे देगी ?"
"हाँ लो, लगा लो अपने बदन पर।"
उस कुब्जा को किसी ने सुन्दर कहा नहीं था और श्रीकृष्ण जो कुछ कहते, सच्चे हृदय से कहते। उनका व्यवहार कृत्रिम नहीं था। कुछ विनोद भले किसी से कर लें वह अलग बात है, बाकी भीतर से जो भी करते, गहराई से करते। पूर्णावतार तो जो कुछ करेगा, पूर्ण ही करेगा। विनोद करते तो पूरा, उपदेश करते तो पूरा, नरो वा कुंजरो वा का आयोजन किया तो पूरा, संधि-दूत होकर गये तो पूरे, शिशुपाल को क्षमा की तो पूरी की, पूरी सौ गालियाँ सुन ली। वे जो कुछ भी करते हैं, पूरा करते है फिर भी कभी कर्तृत्व भार से बोझिल नहीं होते। यह नारायण की लीला नर को जगा देती है कि हे नर ! तू भी बोझील मत हो। चार पैसे का कपड़ा, लकड़ा, किराना बेचकर, 'मैंने इतना सारा धंधा किया' यह अहंकार मत रख। पाँच-पच्चीस हजार की मिठाई बेचकर अपने को मिठाईवाला मत मान। तू तो ब्रह्मवाला है।
'मैं मिठाईवाला हूँ.... मैं कपड़े वाला हूँ.... मैं सोने-चाँदी वाला हूँ.... मैं मकानवाला हूँ... मैं दुकानवाला हूँ.... मैं ऑफिसवाला हूँ... मैं पेंटवाला हूँ..... मैं दाढ़ीवाला हूँ..... ' यह सब मन का धोखा है। 'मैं आत्मावाला हूँ... मैं ब्रह्मवाला हूँ...' इस प्रकार हे जीव ! तू तो परमात्मावाला है। तेरी सच्ची मूड़ी तो परमात्मा-रस है।
श्रीकृष्ण ऐसे महान नेता थे कि उनके कहने मात्र से राजाओं ने राजपाट का त्याग करके ऋषि-जीवन जीना स्वीकार कर लिया। ऐसे श्रीकृष्ण थे फिर भी बड़े त्यागी थे, व्यवहार में अनासक्त थे। हृदय में प्रेम.... आँखों में दिव्य दृष्टि....। ऐसा जीवन जीवनदाता ने जीकर प्राणीमात्र को, मनुष्य मात्र को सिखाया कि हे जीव ! तू मेरा ही अंश है। तू चाहे तो तू भी ऐसा हो सकता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
'इस देह में यह सनातन जीव मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है।'
(भगवद् गीताः १५.७)
तुम मेरे अंश हो, तुम भी सनातन हो। जैसे, मेरे कई दिव्य जन्म हो गये, मैं उनको जानता हूँ। हे अर्जुन ! तुम नहीं जानते हो, बाकी तुम भी पहले से हो।
अर्जुन को निमित्त करके भगवान सबको उपदेश देते हैं कि आप भी अनादि काल से हो। इस शरीर के पहले तुम थे। बदलने वाले शरीरों में कभी न बदलने वाले ज्ञानस्वरूप आत्मा को जान लेना ही मनुष्य जन्म का फल है।
'मैं हूँ' जहाँ से उठता है उस ज्ञानस्वरूप अधिष्ठान में जो विश्रांति पा लेता है वह श्रीकृष्ण के स्वरूप को ठीक से जान लेता है।
इस ज्ञान को पचाने के लिए बुद्धि की पवित्रता चाहिए। बुद्धि की पवित्रता के लिए यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब बहिरंग साधन हैं। धारणा-ध्यान आदि अंतरंग साधन हैं और आत्मज्ञान का सत्संग परम अंतरंग साधन हैं। सत्संग की बलिहारी है।
सत्संग सुनने से जितना पुण्य होता है उसका क्या बयान करें !
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।
तीर्थ में स्नान करो तो पुण्य बढ़ेगा। संत का सान्निध्य मिले तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों के द्वार खुल जाएँगे। वे ही संत जब सदगुरू के रूप में मिल जाते हैं तो उनकी वाणी हमारे हृदय में ऐसा गहरा प्रभाव डालती है कि हम अपने वास्तविक 'मैं' में पहुँच जाते हैं।
हमारा 'मैं' तत्त्व से देखा जाय तो अनन्त है। एक शरीर में ही नहीं बल्कि हरेक शरीर में जो 'मैं.... मैं.... मैं... मैं....' चल रहा है वह अनन्त है। उस अनन्त परमात्मा का ज्ञान जीव को प्राप्त हो जाता है। इसलिए कबीर जी न ठीक ही कहा है किः
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।
सदगुरू मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।
जीव को भ्रम हुआ है कि 'यह करूँ तो सुखी हो जाऊँ, यह मिले तो सुखी हो जाऊँ....' लेकिन आज तक जो मिला है, आज के बाद जो भी संसार का मिलेगा, आज तक जो भी संसार का जाना है और आज के बाद जो भी जानोगे, वह मृत्यु के एक झटके में सब पराया हो जायेगा।
मृत्यु झटका मारकर सब छीन ले उसके पहले, जहाँ मौत की गति नहीं उस अपने आत्मा को 'मैं' स्वरूप में जान ले, अपने कृष्ण तत्त्व को जान ले, तेरा बेड़ा पार हो जायेगा।
श्रीकृष्ण कहते हैं-
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।
'हे अर्जुन ! मैं अमृत हूँ, मैं मृत्यु हूँ, मैं सत् हूँ और मैं असत् हूँ।'
(गीताः ९.१९)
कितना दिव्य अनुभव ! कितनी आत्मनिष्ठा ! कितना सर्वात्मभाव ! सर्वत्र एकात्मदृष्टि ! जड़-चेतन में अपनी सत्ता, चेतनता और आनन्दरूपता जो विलस रही है उसक प्रत्यक्ष अनुभव !
आप दुनियाँ की मजहबी पोथियों, मत-मतांतरों, पीर-पैगम्बरों को पढ़ लीजिये, सुन लीजिये। उनमें से किसी में ऐसा कहने की हिम्मत है ? किन्तु श्रीकृष्ण भगवान के इस कथन से सर्वत्र एकात्मदृष्टि और उनके पूर्णावतार, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण समता आदि छलकते हैं।
श्रीकृष्ण जेल में पैदा हुए हैं, मुस्कुरा रहे हैं। मथुरा में धनुषयज्ञ में जाना पड़ता है तो भी मुस्करा रहे हैं। मामा के षडयंत्रों के समय भी मुस्करा रहे हैं। संधिदूत होकर गये तब भी मुस्करा रहे हैं। शिशुपाल सौ-सौ बार अपमान करता है, हर अपमान का बदला मृत्युदंड हो सकता है, फिर भी चित्त की समता वही की वही। युद्ध के मैदान में अपने ज्ञानामृत से मुस्कराते हुए उलझे, थके, हारे अर्जुन को भक्ति का, योग का, ज्ञान का आत्म-अमृतपान कराते हैं।
संसार की किसी भी परिस्थिति ने उन पर प्रभाव नहीं डाला। जेल में पैदा होने से, पूतना के विषपान कराने से, मामा कंस के जुल्मों से, मामा को मारने से, नगर छोड़कर भागने से, भिक्षा माँगते ऋषियों के आश्रम में निवास करने से, धरती पर सोने से, लोगों का और स्वयं अपने भाई का भी अविश्वास होने से, बच्चों के उद्दण्ड होने से, किसी भी कारण से श्रीकृष्ण के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ती। उनका चित्त कभी उद्विग्न नहीं हुआ। सदा समता के साम्राज्य में। समचित्त श्रीकृष्ण का चेहरा कभी मुरझाया नहीं। किसी भी वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति से, किसी भी व्यक्ति की निन्दा-स्तुति से श्रीकृष्ण की मुखप्रभा म्लान नहीं हुई।
नोदेति नास्तमेत्येषा सुखे दुःखे मुखप्रभा।
श्रीकृष्ण यह नहीं कहते कि आप मंदिर में, तीर्थस्थान में या उत्तम कुल में प्रगट होगे तभी मुक्त होगे। श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि अगर आप पापी से भी पापी हो, दुराचारी से भी दुराचारी हो फिर भी मुक्ति के अधिकारी हो।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
'यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह संपूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।'
(भगवद् गीताः ४.३६)
हे साधक ! इस जन्माष्टमी के प्रसंग पर तेजस्वी पूर्णावतार श्रीकृष्ण की जीवन-लीलाओं से, उपदेशों से और श्रीकृष्ण की समता और साहसी आचरणों से सबक सीख, सम रह, प्रसन्न रह, शांत हो, साहसी हो, सदाचारी हो। स्वयं धर्म में स्थिर रह, औरों को धर्म के मार्ग में लगाता रह। मुस्कराते हुए आध्यात्मिक उन्नति करता रह। औरों को सहाय करता रह। कदम आगे रख। हिम्मत रख। विजय तेरी है। सफल जीवन जीने का ढंग यही है।
जय श्रीकृष्ण ! कृष्ण कन्हैयालाल की जय....!

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