पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, December 10, 2010



निर्भय नाद पुस्तक से - Nirbhay Naad pustak se

यदि तुमने शरीर के साथ अहंबुद्धि की तो तुममें भय व्याप्त हो ही जायेगा, क्योंकि शरीर की मृत्यु निश्चित है। उसका परिवर्तन अवश्यंभावी है। उसको तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं रोक सकते। परन्तु यदि तुमने अपने आत्मस्वरूप को जान लिया, स्वरूप में तुम्हारी निष्ठा हो गयी तो तुम निर्भय हो गये, क्योंकि स्वरूप की मृत्यु कभी होती नहीं। मौत भी उससे डरती है।
सुख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा तो दुःख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा। पर्दे को क्या? कई फिल्में और उनके दृश्य आये और चले गये, पर्दा अपनी महिमा में स्थित है। तुम तो छाती ठोककर कहोः ‘अनुकूलता या प्रतिकूलता, सुख या दुःख जिसे आना हो आये और जाय। मुझे क्या...?’ किसी भी दृश्य को सच्चा मत मानो। तुम दृष्टा बनकर देखते रहो, अपनी महिमा में मस्त रहो।
बाहर कैसी भी घटना घटी हो, चाहे वह कितनी भी प्रतिकूल लगती हो, परन्तु तुम्हें उससे खिन्न होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि अन्ततोगत्वा होती वह तुम्हारे लाभ के लिए ही है। तुम यदि अपने-आपमें रहो तो तुम्हें मिला हुआ शाप भी तुम्हारे लिए वरदान का काम करेगा। अर्जुन को ऊर्वशी ने वर्ष भर नपुंसक रहने का शाप दिया था परन्तु वह भी अज्ञातवास के समय अर्जुन के लिए वरदान बन गया।
प्रतिकूलता से भय मत करो। सदा शांत और निर्भय रहो। भयानक दृश्य (द्वैत) केवल स्वप्नमात्र है, डरो मत।
चिन्ता, भय, शोक, व्यग्रता और व्यथा को दूर फेंक दो। उधर कतई ध्यान मत दो।
सारी शक्ति निर्भयता से प्राप्त होती है, इसलिए बिल्कुल निर्भय हो जाओ। फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
देहाध्यास को छोड़ना साधना का परम शिखर है, जिस पर तुम्हें पहुँचना होगा। मौत के पूर्व देह की ममता को भी पार करना पड़ेगा, वर्ना कर्मबन्धन और विकार तुम्हारा पीछा न छोड़ेंगे। तुम्हारे भीतर प्रभु के गीत न गूँज पायेंगे, ब्रह्म-साक्षात्कार न हो पायेगा। जब तक तुम हड्डी-मांस-चाम को ही ‘मैं’ मानते रहोगे, तब तक दुर्भाग्य से पीछा न छूटेगा। बड़े-से-बड़ा दुर्भाग्य है जन्म-मृत्यु।
एक दिन तुम यह सब छोड़ जाओगे और पश्चाताप हाथ लगेगा। उससे पहले मोह-ममतारूपी पाश को विवेकरूपी कैंची से काटते रहना। बाहर के मित्रों से, सगे-सम्बन्धियों से मिलना, पर भीतर से समझनाः ‘न कोई मित्र है न सगे-सम्बन्धी, क्योंकि ये भी सब साथ छोड़ जायेंगे। मेरा मित्र तो वह है जो अन्त में और इस शरीर की मौत के बाद भी साथ न छोड़े’।
मन में भय, अशांति, उद्वेग और विषाद को स्थान मत दो। सदा शांत, निर्भय और प्रसन्न रहने का अभ्यास करो। अपनी महिमा में जागो। खामखाह क्यों दीन होते हो?
दीनता-हीनता पाप है। तुम तो मौत से भी निर्भयतापूर्वक कहोः ‘ऐ मौत ! मेरे शरीर को छीन सकती है, पर मेरा कुछ नहीं कर सकती। तू क्या डरायेगी मुझे? ऐ दुनिया की रंगीनियाँ ! संसार के प्रलोभनो ! तुम मुझे क्या फँसाओगे? तुम्हारी पोल मैंने जान ली है। ऐ दुनिया के रीत-रिवाजो ! सुख-दुःखो ! अब तुम मुझे क्या नचाओगे? अब लाख-लाख काँटों पर भी मैं निर्भयतापूर्वक कदम रखूँगा। हजार-हजार उत्थान और पतन में भी मैं ज्ञान की आँख से देखूँगा। मुझ आत्मा को कैसा भय? मेरा कुछ न बिगड़ा है न बिगड़ेगा। शाबाश है ! शाबाश है !! शाबाश है !!!
पारिवारिक मोह और आसक्ति से अपने को दूर रखो। अपने मन में यह दृढ़ संकल्प करके साधनापथ पर आगे बढ़ो कि यह मेरा दुर्लभ शरीर न स्त्री-बच्चों के लिए है, न दुकान-मकान के लिए है और न ही ऐसी अन्य तुच्छ चीजों के संग्रह करने के लिए है। यह दुर्लभ शरीर आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए है। मजाल है कि अन्य लोग इसके समय और सामर्थ्य को चूस लें और मैं अपने परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाऊँ? बाहर के नाते-रिश्तों को, बाहर के सांसारिक व्यवहार को उतना ही महत्त्व दो जहाँ तक कि वे साधना के मार्ग में विघ्न न बनें। साधना मेरा प्रमुख कर्त्तव्य है, बाकी सब कार्य गौण हैं – इस दृढ़ भावना के साथ अपने पथ पर बढ़ते जाओ।
किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। नाऽयमात्मा बलहीनेन लभ्यः।
इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बनकर करो। देवो भूत्वा देवं यजेत्।
जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनन्दस्वरूप हैं, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनन्द में रहो। यही उसकी महा पूजा है।
अपनी महिमा से अपरिचित हो, इसलिए तुम किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। कभी मसखरों से, कभी विद्वानों की वाणी से, कभी पहलवानों या नट-नटियों से, कभी भविष्यवक्ताओं से, कभी नेताओं से, कभी जादू का खेल दिखानेवालों से, कभी स्त्रियों से, कभी पुरुषों से तो कभी थियेटरों में प्लास्टिक की पट्टियों (चलचित्रों) से प्रभावित हो जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की गरिमा का पता नहीं है। आत्मस्वरूप ऐसा है कि उसमें लाखों-लाखों विद्वान, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, भविष्यवक्ता आदि आदि स्थित हैं। तुम्हारे अपने स्वरूप से बाहर कुछ भी नहीं है। तुम बाहर के किसी भी व्यक्ति से या परिस्थिति से प्रभावित हो रहे हो तो समझ लो कि तुम मालिक होते हुए भी गुलाम बने हुए हो। खिलाड़ी अपने ही खेल में उलझ रहा है। तमाशबीन ही तमाशा बन रहा है। हाँ, प्रभावित होने का नाटक कर सकते हो परन्तु यदि वस्तुतः प्रभावित हो रहे हो तो समझो, अज्ञान जारी है। तुम अपने-आप में नहीं हो।
मन को उदास मत करो। सदैव प्रसन्नमुख रहो। हँसमुख रहो। तुम आनन्दस्वरूप हो। भय, शोक, चिन्ता आदि ने तुम्हारे लिए जन्म ही नहीं लिया है, ऐसी दृढ़ निष्ठा के साथ सदैव अपने आत्मभाव में स्थिर रहो।
समस्त संसार आपकी रचना है। महापुरुषों का अनुभव इस बात को पुष्ट करता है, फिर भी तुम घबराते हो ! अपनी ही कृति से भयभीत होते हो ! सब प्रकार के भय को परे हटा दो। किसी भी भय-शोक-चिन्ता को पास मत फटकने दो । तुम संसार के शहंशाह हो। तुम परमेश्वर आप हो। अपने ईश्वरत्व का अनुभव करो।
अपने-आपको परमेश्वर अनुभव करो, फिर आपको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। सब मत-मतान्तर, पंथ-वाड़े उपनिषद् के ज्ञान के आगे क्षुद्रतर हैं। तुम अपने ख्यालों से उनको बड़ा कल्प लेते हो, इसलिए वे बड़े बन जाते हैं। अन्यथा राम-रहीम सब तुम्हारे आत्मस्वरूप हैं, तुमसे बड़ा कोई नहीं है।
जब तक तुम भीतर से भयभीत नहीं होते, तब तक बाहर की कोई भी परिस्थिति या धमकी तुम्हें भयभीत नहीं कर सकती। बाहर की किसी भी परिस्थिति में इतना बल ही कहाँ जो सर्वनियन्ता, सबके शासक, सब के सृष्टा को क्षण मात्र के लिए भी डगमगा सके। किसी भी परिस्थिति से डरना अपनी छाया से डरने के समान है।
हमने ही रची है ये रचना सारी। संसार न हुआ है, न होगा। यह दृढ़ निश्चय रखो। अपने को हीन समझना और परिस्थितियों के सामने झुक जाना आत्महनन के समान है। तुम्हारे अन्दर ईश्वरीय शक्ति है। उस शक्ति के द्वारा तुम सब कुछ करने में समर्थ हो। परिस्थितियों को बदलना तुम्हारे हाथ में है।
तुम हीन नहीं हो। तुम सर्व हो; पूज्य भगवान हो। तुम हीन नहीं हो, तुम निर्बल नहीं हो, सर्वशक्तिमान हो। भगवान का अनन्त बल तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत है। तुम विचार करो और हीनता को, मिथ्या संस्कारों को मारकर महान बन जाओ। ॐ...! ॐ.....! ॐ......! दुनिया मेरा संकल्प है, इसके सिवाय कुछ नहीं। इसमें जरा भी सन्देह नहीं। स्थावर-जंगम जगत के हम पिता हैं। हम उसके पूज्य और श्रेष्ठ गुरु हैं। सब संसार मनुष्य के आश्रय है और मनुष्य एक विशाल वन है। आत्मा सबके भीतर बसती है।
साकार मिथ्या है। निराकार सत्य है। सारा जगत निराकार है। सब जगत को एक शिव समझो।
निर्द्वन्द्व रह निःशंक रह, निर्भय सदा निष्काम रे।
चिंता कभी मत कीजिये, जो होय होने दीजिये।।
जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, सम्पूर्ण चराचर जगत एक ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ। इसलिए सब मेरा ही स्वरूप है। इसके सिवाय कुछ नहीं।
जो कुछ तू देखता है वह सब तू ही है। कोई शक्ति इसमें बाधा नहीं डाल सकती। राजा, देव, दानव, कोई भी तुम्हारे विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते।
तुम्हारी शंकाएँ और भय ही तुम्हारे जीवन को नष्ट करते हैं। जितना भय और शंका को हृदय में स्थान दोगे, उतने ही उन्नति से दूर पड़े रहोगे।
सदा सम रहने की तपस्या के आगे बाकी की सब तपस्याएँ छोटी हो जाती हैं। सदा प्रसन्न रहने की कुंजी के आगे बाकी की सब कुंजियाँ छोटी हो जाती हैं। आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे रह जाते हैं। इसलिए दुनिया में हर इज्जत वाले से ब्रह्मवेत्ता की ऊँची इज्जत होती है।
ब्रह्मवेत्ता भृगु की सेवा करने वाले शुक्र जब स्वर्ग में जाते हैं तब सहस्रनेत्रधारी इन्द्रदेव अपने सिंहासन से उठकर उन ब्रह्मवेत्ता के शिष्य शुक्र को बिठाते हैं और अर्घ्यपाद्य से उसका पूजन करके अपने पुण्य बढ़ाते हैं। आत्मपद के आगे और सब पद छोटे हो जाते हैं, आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे हो जाते हैं।
तुम्हारे स्वरूप के भय से चाँद-सितारे भागते हैं, हवाएँ बहती हैं, मेघ वर्षा करते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं, सूरज रात और दिन बनाता है, ऋतुएँ समय पर अपना रंग बदलती हैं। उस आत्मा को छोड़कर औरों से कब तक दोस्ती करोगे? अपने घर को छोड़कर औरों के घर में कब तक रहोगे? अपने पिया को छोड़कर औरों से कब तक मिलते रहोगे....?
जो एक से राग करता है, वह दूसरे से द्वेष करेगा। जो किसी से राग नहीं करता है, वह किसी से द्वेष भी नहीं करेगा। वह परम प्रेमी होता है। वह जीवन्मुक्त होता है। न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है। यही परमार्थ है।
आप सर्वत्र मंगलमय देखने लग जाइये, चित्त अपने-आप शान्त हो जायेगा।
जिस कृत्य से चित्त खिन्न हो ऐसा कृत्य मत करो। जो विचार भय, चिन्ता या खिन्नता पैदा करें उन विचारों को विष की नाईं त्याग दो।
अगर तुम सर्वांगपूर्ण जीवन का आनन्द लेना चाहते हो तो कल की चिन्ता को छोड़ो। कल तुम्हारा अत्यन्त आनन्दमय होगा, यह दृढ़ निश्चय रखो। जो अपने से अतिरिक्त किसी वस्तु को नहीं जानता, वह ब्रह्म है। अपने ख्यालों का विस्तार ही जगत है।
निश्चय ही सम्पूर्ण जगत तुमसे अभिन्न है, इसलिए मत डरो। संसार को आत्मदृष्टि से देखने लग जाओ फिर देखो, विरोध कहाँ रहता है, कलह कहाँ रहता है, द्वेष कहाँ रहता है।
जिसका मन अन्तर्मुख हो जाता है, वह चित्त थकान को त्याग कर आत्मविश्रान्ति का स्वाद लेता है। तुम जितना समाहित चित्त होते जाओगे, उतना जगत तुम्हारे चरणों के नीचे आता जायेगा।
आज तक तुम देवी-देवताओं को पूजते आये हो, मंदिर-मसजिद में नाक रगड़ते आये हो, लेकिन किसी बुद्ध पुरुष से अन्तर्मुख होने की कला पाकर अभ्यास करोगे तो वह दिन दूर नहीं जब देवी-देवता तुम्हारे दर्शन को आयेंगे।
प्रभात के समय साधकों को जो प्रेरणा होती है, वह शुभ होती है। तुम जब कभी व्यावहारिक परेशानियों में उलझ जाओ तो विक्षिप्त चित्त से कोई निर्णय मत लो। प्रातः काल जल्दी उठो। स्नानादि के पश्चात् पवित्र स्थान पर पूर्वाभिमुख होकर बैठो। फिर भगवान या गुरुदेव से, जिनमें आपकी श्रद्धा हो, निष्कपट भाव से प्रार्थना करोः 'प्रभु ! मुझे सन्मार्ग दिखाओ। मुझे सद्प्रेरणा दो। मेरी बुद्धि तो निर्णय लेने में असमर्थ है।' निर्दोष भाव से की गयी प्रार्थना से तुमको सही प्रेरणा मिल जायेगी।
शरीर की मौत हो जाना कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन श्रद्धा की मौत हुई तो समझो सर्वनाश हुआ।
अगर तुमने दस साल तक भी ब्रह्मनिष्ठ गुरु के आदेशानुसार साधना की हो, फिर भी यदि तुम्हारी श्रद्धा चली गयी तो वहीं पहुँच जाओगे जहाँ से दस साल पहले चले थे।
अपनी ही कृति से तुम गुरु को नजदीक या दूर अनुभव करते हो। ब्रह्मज्ञानी न तो किसी को दूर धकेलते हैं, न ही नजदीक लाते हैं। तुम्हारी श्रद्धा और व्यवहार ही तुम्हें उनसे नजदीक या दूर होने का एहसास कराते हैं।

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