पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Thursday, October 28, 2010


सदा दिवाली पुस्तक से - Sada Diwali pustak se

धनतेरस, काली चौदस, दिवाली, नूतनवर्ष और भाईदूज.... इन पर्वों का पुञ्ज माने दिवाली के त्योहार। शरीर में पुरुषार्थ, हृदय में उत्साह, मन में उमंग और बुद्धि में समता.... वैरभाव की विस्मृति और स्नेह की सरिता का प्रवाह... अतीत के अन्धकार को अलविदा और नूतनवर्ष के नवप्रभात का सत्कार... नया वर्ष और नयी बात.... नया उमंग और नया साहस... त्याग, उल्लास, माधुर्य और प्रसन्नता बढ़ाने के दिन याने दीपावली का पर्वपुञ्ज।
नूतनवर्ष के नवप्रभात में आत्म-प्रसाद का पान करके नये वर्ष का प्रारंभ करें...
प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वम्
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम्।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यम्
तद् ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः।।
'प्रातःकाल में मैं अपने हृदय में स्फुरित होने वाले आत्म-तत्त्व का स्मरण करता हूँ। जो आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है, जो परमहंसों की अंतिम गति है, जो तुरीयावस्थारूप है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को हमेशा जानता है और जो शुद्ध ब्रह्म है, वही मैं हूँ। पंचमहाभूतों से बनी हुई यह देह मैं नहीं हूँ।'
'जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, ये तीनों अवस्थाएँ तो बदल जाती हैं फिर भी जो चिदघन चैतन्य नहीं बदलता। उस अखण्ड आत्म-चैतन्य का मैं ध्यान करता हूँ। क्योंकि वही मेरा स्वभाव है। शरीर का स्वभाव बदलता है, मन का स्वभाव बदलता है, बुद्धि के निर्णय बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता वह अमर आत्मा मैं हूँ। मैं परमात्मा का सनातन अंश हूँ।' ऐसा चिन्तन करने वाला साधक संसार में शीघ्र ही निर्लेपभाव को, निर्लेप पद को प्राप्त होता है।
चित्त की मलिनता चित्त का दोष है। चित्त की प्रसन्नता सदगुण है। अपने चित्त को सदा प्रसन्न रखो। राग-द्वेष के पोषक नहीं किन्तु राग-द्वेष के संहारक बनो।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरु के सिवाय अन्य किसी के ऊपर अति विश्वास न करो एवं अति सन्देह भी न करो।
अपने से छोटे लोगों से मिलो तब करुणा रखो। अपने से उत्तम व्यक्तियों से मिलो तब हृदय में श्रद्धा, भक्ति एवं विनय रखो। अपने समकक्ष लोगों से व्यवहार करने का प्रसंग आने पर हृदय में भगवान श्रीराम की तरह प्रेम रखो। अति उद्दण्ड लोग तुम्हारे संपर्क में आकर बदल न पायें तो ऐसे लोगों से थोड़े दूर रहकर अपना समय बचाओ। नौकरों को एवं आश्रित जनों को स्नेह दो। साथ ही साथ उन पर निगरानी रखो।
जो तुम्हारे मुख्य कार्यकर्ता हों, तुम्हारे धंधे-रोजगार के रहस्य जानते हों, तुम्हारी गुप्त बातें जानते हों उनके थोड़े बहुत नखरे भी सावधानीपूर्वक सहन करो।
अति भोलभाले भी मत बनो और अति चतुर भी मत बनो। अति भोलेभाले बनोगे तो लोग तुम्हें मूर्ख जानकर धोखा देंगे। अति चतुर बनोगे तो संसार का आकर्षण बढ़ेगा।
लालची, मूर्ख और झगड़ालू लोगों के सम्पर्क में नहीं आना। त्यागी, तपस्वी और परहित परायण लोगों की संगति नहीं छोड़ना।
कार्य सिद्ध होने पर, सफलता मिलने पर गर्व नहीं करना। कार्य में विफल होने पर विषाद के गर्त्त में नहीं गिरना।
शस्त्रधारी पुरुष से शस्त्ररहित को वैर नहीं करना चाहिए। राज जानने वाले से कसूरमंद (अपराधी) को वैर नहीं करना चाहिए। स्वामी के साथ अनुचर को, शठ और दुर्जन के साथ सात्त्विक पुरुष को एवं धनी के साथ कंगाल पुरुष को वैर नहीं करना चाहिए। शूरवीर के साथ भाट को, राजा के साथ कवि को, वैद्य के साथ रोगी को एवं भण्डारी के साथ भोजन खाने वाले को भी वैर नहीं करना चाहिए। इन नौ लोगों से जो वैर या विरोध नहीं करता वह सुखी रहता है।
अति संपत्ति की लालच भी नहीं करना और संसार-व्यवहार चलाने के लिए लापरवाह भी नहीं होना। अक्ल, होशियारी, पुरुषार्थ एवं परिश्रम से धनोपार्जन करना चाहिए। धनोपार्जन के लिए पुरुषार्थ अवश्य करें किन्तु धर्म के अनुकूल रहकर। गरीबों का शोषण करके इकट्ठा किया हुआ धन सुख नहीं देता।
लक्ष्मी उसी को प्राप्त होती है जो पुरुषार्थ करता है, उद्योग करता है। आलसी को लक्ष्मी त्याग देती है। जिसके पास लक्ष्मी होती है उसको बड़े-बड़े लोग मान देते हैं। हाथी लक्ष्मी को माला पहनाता है।
लक्ष्मी के पास उल्लू दिखाई देता है। इस उल्लू के द्वारा निर्दिष्ट है कि निगुरों के पास लक्ष्मी के साथ ही साथ अहंकार का अन्धकार भी आ जाता है। उल्लू सावधान करता है कि सदा अच्छे पुरुषों का ही संग करना चाहिए। हमें सावधान करें, डाँटकर सुधारें ऐसे पुरुषों के चरणों में जाना चाहिए।
वाहवाही करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं किन्तु तुम महान् बनो इस हेतु से तुम्हें सत्य सुनाकर सत्य परमात्मा की ओर आकर्षित करने वाले, ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग पर ले चलने वाले महापुरुष तो विरले ही होते हैं। ऐसे महापुरुषों का संग आदरपूर्वक एवं प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। रामचन्द्रजी बड़ों से मिलते तो विनम्र भाव से मिलते थे, छोटों से मिलते तब करूणा से मिलते थे। अपने समकक्ष लोगों से मिलते तब स्नेहभाव से मिलते थे और त्याज्य लोगों की उपेक्षा करते थे।
जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए यह शास्त्रीय नियम आपके जीवन में आना ही चाहिए।
हररोज प्रभात में शुभ संकल्प करोः "मुझे जैसा होना है ऐसा मैं हूँ ही। मुझमें कुछ कमी होगी तो उसे मैं अवश्य निकालूँगा।" एक बार प्रयत्न करो.... दो बार करो..... तीन बार करो.... अवश्य सफल बनोगे।
'मेरी मृत्यु कभी होती ही नहीं। मृत्यु होती है तो देह की होती है....' ऐसा सदैव चिन्तन किया करो।
'मैं कभी दुर्बल नहीं होता। दुर्बल और सबल शरीर होता है। मैं तो मुक्त आत्मा हूँ... चैतन्य परमात्मा का सनातन अंश हूँ.... मैं सदगुरु तत्त्व का हूँ। यह संसार मुझे हिला नहीं सकता, झकझोर नहीं सकता। झकझोरा जाता है शरीर, हिलता है मन। शरीर और मन को देखने वाला मैं चैतन्य आत्मा हूँ। घर का विस्तार, दुकान का विस्तार, राज्य की सीमा या राष्ट्र की सीमा बढ़ाकर मुझे बड़ा कहलवाने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो असीम आत्मा हूँ। सीमाएँ सब माया में हैं, अविद्या में हैं। मुझ आत्मा में तो असीमता है। मैं तो मेरे इस असीम राज्य की प्राप्ति करूँगा और निश्चिन्त जिऊँगा। जो लोग सीमा सुरक्षित करके अहंकार बढ़ाकर जी गये, वे लोग भी आखिर सीमा छोड़कर गये। अतः ऐसी सीमाओं का आकर्षण मुझे नहीं है। मैं तो असीम आत्मा में ही स्थित होना चाहता हूँ....।'
ऐसा चिन्तन करने वाला साधक कुछ ही समय में असीम आत्मा का अनुभव करता है।
प्रेम के बल पर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। बन्दूक पर हाथ रखकर अगर वह निश्चिन्त रहना चाहे तो वह मूर्ख है। जहाँ प्रेम है वहाँ ज्ञान की आवश्यकता है। सेवा में ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान में प्रेम की आवश्यकत है। विज्ञान को तो आत्मज्ञान एवं प्रेम, दोनों की आवश्यकता है।
मानव बन मानव का कल्याण करो। बम बनाने में अरबों रुपये बरबाद हो रहे हैं। ....और वे ही बम मनुष्य जाति के विनाश में लगाये जाएँ ! नेताओं और राजाओं की अपेक्षा किसी आत्मज्ञानी गुरु के हाथ में बागडोर आ जाय तो विश्व नन्दनवन बन जाये।
हम उन ऋषियों को धन्यवाद देते हैं कि जिन्होंने दिवाली जैसे पर्वों का आयोजन करके मनुष्य से मनुष्य को नजदीक लाने का प्रयास किया है, मनुष्य की सुषुप्त शक्तियों को जगाने का सन्देश दिया है। जीवात्मा का परमात्मा से एक होने के लिए भिन्न-भिन्न उपाय खोजकर उनको समाज में, गाँव-गाँव और घर-घर में पहुँचाने के लिए उन आत्मज्ञानी महापुरुषों ने पुरुषार्थ किया है। उन महापुरुषों को आज हम हजार-हजार प्रणाम करते हैं।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।
वेदव्यासजी महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं-
"आज वर्ष के प्रथम दिन जो व्यक्ति हर्ष में रहता है उसका सारा वर्ष हर्ष में बीतता है। जो व्यक्ति चिन्ता और शोक में रहता है उसका सारा वर्ष ऐसा ही जाता है।"
जैसी सुबह बीतती है ऐसा ही सारा दिन बीतता है। वर्ष की सुबह माने नूतन वर्ष का प्रथम दिन। यह प्रथम दिन जैसा बीतता है ऐसा ही सारा वर्ष बीतता है।
व्यापारी सोचता है कि वर्ष भर में कौन सी चीजें दुकान में बेकार पड़ी रह गईं, कौन सी चीजों में घाटा आया और कौन सी चीजों में मुनाफा हुआ। जिन चीजों में घाटा आता है उन चीजों का व्यापार वह बन्द कर देता है। जिन चीजों में मुनाफा होता है उन चीजों का व्यापार वह बढ़ाता है।
इसी प्रकार भक्तों एवं साधकों को सोचना चाहिए कि वर्ष भर में कौन-से कार्य करने से हृदय उद्विग्न बना, अशान्त हुआ, भगवान, शास्त्र एवं गुरुदेव के आगे लज्जित होना पड़ा अथवा अपनी अन्तरात्मा नाराज हुई। ऐसे कार्य, ऐसे धन्धे, ऐसे कर्म, ऐसी दोस्ती बन्द कर देनी चाहिए। जिन कर्मों के लिए सदगुरु सहमत हों और जिन कर्मों से अपनी अन्तरात्मा प्रसन्न हो, भगवान प्रसन्न हों, ऐसे कर्म बढ़ाने का संकल्प कर लो।
आज का दिन वर्षरूपी डायरी का प्रथम पन्ना है। गत वर्ष की डायरी का सिंहावलोकन करके जान लो कि कितना लाभ हुआ और कितनी हानि हुई। आगामी वर्ष के लिए थोड़े निर्णय कर लो कि अब ऐसे-ऐसे जीऊँगा। आप जैसे बनना चाहते हैं ऐसे भविष्य में बनेंगे, ऐसा नहीं। आज से ही ऐसा बनने की शुरुआत कर दो। 'मैं अभी से ही ऐसा हूँ।' यह चिन्तन करो। ऐसे न होने में जो बाधाएँ हों उन्हें हटाते जाओ तो आप परमात्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हो। कुछ भी असंभव नहीं है।
आप धर्मानुष्ठान और निष्काम कर्म से विश्व में उथल पुथल कर सकते हैं। उपासना से मनभावन इष्टदेव को प्रकट कर सकते हैं। आत्मज्ञान से अज्ञान मिटाकर राजा खटवांग, शुकदेव जी और राजर्षि जनक की तरह जीवन्मुक्त भी बन सकते हैं।
आज नूतन वर्ष के मंगल प्रभात में पक्का संकल्प कर लो कि सुख-दुःख में, लाभ-हानि में और मान-अपमान में सम रहेंगे। संसार की उपलब्धियों एवं अनुपलब्धियों में खिलौनाबुद्धि करके अपनी आत्मा आयेंगे। जो भी व्यवहार करेंगे वह तत्परता से करेंगे। ज्ञान से युक्त होकर सेवा करेंगे, मूर्खता से नहीं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त बनेंगे। जो भी कार्य करेंगे वह तत्परता से एवं सतर्कता से करेंगे।
रोटी बनाते हो तो बिलकुल तत्परता से बनाओ। खाने वालों की तन्दरुस्ती और रूचि बनी रहे ऐसा भोजन बनाओ। कपड़े ऐसे धोओ कि साबुन अधिक खर्च न हो, कपड़े जल्दी फटे नहीं और कपड़ों में चमक भी आ जाये। झाड़ू ऐसा लगाओ कि मानो पूजा कर रहे हो। कहीं कचरा न रह जाये। बोलो ऐसा कि जैसा श्रीरामजी बोलते थे। वाणी सारगर्भित, मधुर, विनययुक्त, दूसरों को मान देनेवाली और अपने को अमानी रखने वाली हो। ऐसे लोगों का सब आदर करते हैं।
अपने से छोटे लोगों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करो। दीन-हीन, गरीब और भूखे को अन्न देने का अवसर मिल जाय तो चूको मत। स्वयं भूखे रहकर भी कोई सचमुच भूखा हो तो उसे खिला दो तो आपको भूखा रहने में भी अनूठा मजा आयेगा। उस भोजन खाने वाले की तो चार-छः घण्टों की भूख मिटेगी लेकिन आपकी अन्तरात्मा की तृप्ति से आपकी युगों-युगों की और अनेक जन्मों की भूख मिट जायेगी।
अपने दुःख में रोने वाले ! मुस्कुराना सीख ले।
दूसरों के दर्द में आँसू बहाना सीख ले।
जो खिलाने में मजा है आप खाने में नहीं।
जिन्दगी में तू किसी के काम आना सीख ले।।
सेवा से आप संसार के काम आते हैं। प्रेम से आप भगवान के काम आते हैं। दान से आप पुण्य और औदार्य का सुख पाते हैं और एकान्त व आत्मविचार से दिलबर का साक्षात्कार करके आप विश्व के काम आते हैं।
लापरवाही एवं बेवकूफी से किसी कार्य को बिगड़ने मत दो। सब कार्य तत्परता, सेवाभाव और उत्साह से करो। भय को अपने पास भी मत फटकने दो। कुलीन राजकुमार के गौरव से कार्य करो।
बढ़िया कार्य, बढ़िया समय और बढ़िया व्यक्ति का इन्तजार मत करो। अभी जो समय आपके हाथ में है वही बढ़िया समय है। वर्त्तमान में आप जो कार्य करते हैं उसे तत्परता से बढ़िया ढंग से करें। जिस व्यक्ति से मिलते हैं उसकी गहराई में परमेश्वर को देखकर व्यवहार करें। बढ़िया व्यक्ति वही है जो आपके सामने है। बढ़िया काम वही है जो शास्त्र-सम्मत है और अभी आपके हाथ में है।
अपने पूरे प्राणों की शक्ति लगा कर, पूर्ण मनोयोग के साथ कार्य करो। कार्य पूरा कर लेने के बाद कर्त्तापन को झाड़ फेंक दो। अपने अकर्त्ता, अभोक्ता, शुद्ध, बुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप में गोता लगाओ।
कार्य करने की क्षमता बढ़ाओ। कार्य करते हुए भी अकर्त्ता, अभोक्ता आत्मा में प्रतिष्ठित होने का प्रयास करो।
ध्यान, भजन, पूजन का समय अलग और व्यवहार का समय अलग... ऐसा नहीं है। व्यवहार में भी परमार्थ की अनुभूति करो। व्यवहार और परमार्थ सुधारने का यही उत्तम मार्ग है।
राग द्वेष क्षीण करने से सामर्थ्य आता है। राग-द्वेष क्षीण करने के लिए 'सब आपके हैं.... आप सबके हैं...' ऐसी भावना रखो। सबके शरीर पचंमहाभूतों के हैं। उनका अधिष्ठान, आधार प्रकृति है। प्रकृति का आधार मेरा आत्मा-परमात्मा एक ही है। ॐ.... ॐ.... ॐ.... ऐसा सात्त्विक स्मरण व्यवहार और परमार्थ में चार चाँद लगा देता है।
सदैव प्रसन्न रहो। मुख को कभी मलिन मत होने दो। निश्चय कर लो कि शोक ने आपके लिए जगत में जन्म ही नहीं लिया है। आपके नित्य आनन्दस्वरूप में, सिवाय प्रसन्नता के चिन्ता को स्थान ही कहाँ है?
सबके साथ प्रेमपूर्ण पवित्रता का व्यवहार करो। व्यवहार करते समय यह याद रखो कि जिसके साथ आप व्यवहार करते हैं उसकी गहराई में आपका ही प्यारा प्रियतम विराजमान है। उसी की सत्ता से सबकी धड़कने चल रही हैं। किसी के दोष देखकर उससे घृणा न करो, न उसका बुरा चाहो। दूसरों के पापों को प्रकाशित करने के बदले सुदृढ़ बनकर उन्हें ढँको।
सदैव ख्याल रखो कि सारा ब्रह्माण्ड एक शरीर है, सारा संसार एक शरीर है। जब तक आप हर एक से अपनी एकता का भान व अनुभव करते रहेंगे तब तक सभी परिस्थितियाँ और आसपास की चीजें, हवा और सागर की लहरें तक आपके पक्ष में रहेंगी। प्राणीमात्र आपके अनुकूल बरतेगा। आप अपने को ईश्वर का सनातन अंश, ईश्वर का निर्भीक और स्वावलम्बी सनातन सपूत समझें।

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