पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, October 10, 2010



सहज साधना पुस्तक से - Sahaj Sadhna pustak se

एक होता है ऐहिक विधान और दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ऐहिक विधान ऐहिक लोगों के द्वारा बनता है और संचालित होता है। जैसे राज्य सरकार अपना विधान बनाती है, नगरपालिका अपना विधान बनाती है, कुटुम्ब-परिवार अपना विधान बनाता है, राष्ट्र अपना विधान बनाता है। यह है ऐहिक विधान।
ऐहिक विधान में भिन्नता होती है क्योंकि जिस राष्ट्र के, जिस राज्य के, जिस नगर के जिस प्रकार के लोग होते हैं उस प्रकार का विधान उनको अच्छा लगता है।
ऐहिक विधान बनाने वाले कभी भूल भी कर लेते हैं और कई अमल करने वाले घूस भी खा लेते हैं। ऐहिक विधान का उल्लंघन करने वाला कई बार बच भी जाता है। 'इन्कमटैक्स... सेलटैक्स' के कानून से कई लोग युक्ति करके बच भी जाते हैं।
दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ईश्वरीय विधान गाँव-गाँव के लिए, राज्य-राज्य के लिए, देश-देश के लिए, राष्ट्र-राष्ट्र के लिए अलग नहीं होता। अनन्त ब्रह्माण्डों में एक ही ईश्वरीय विधान काम करता है, वह एक ही समान ही होता है। देवों का विधान, दैत्यों का विधान और मनुष्यों का विधान अलग हो सकता है लेकिन सब जगह ईश्वरीय विधान एक ही होता है।
ईश्वरीय विधान को समझकर जीने से साधना सहज में हो जाती है।
ईश्वरीय विधान के अनुकूल जो चलता है वह ईश्वर की प्रसन्नता पाता है। जैसे सरकार के विधान के खिलाफ चलने वाला आदमी सरकार द्वारा दण्डित होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान के खिलाफ चलने वाला जीव दण्डित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार चलने वाला जीव ईश्वर का प्यारा हो जाता है और उसको ईश्वरीय विधान सहाय करता है। खिलाफ चलने वाले को ईश्वरीय विधान पचा-पचाकर सबक सिखा देता है, रूला-रूलाकर सबक सिखा देता है, दुःख पीड़ा, दर्द देकर सब सिखाता है। तलवार की धार पर चलने के लिए मजबूर करता है।
ऐहिक विधान में छूटछाट है। कभी उसमें पोल चल जाती है लेकिन ईश्वरीय विधान में पोल नहीं चलती। ईश्वरीय विधान को समझकर स्वीकार कर लेने वाला आदमी शीघ्र सफल हो जाता है। ईश्वरीय विधान का अनादर करने से अथवा ईश्वरीय विधान के अज्ञान से आदमी को बहुत सहन करना पड़ता है।
हम जब जब दुःखी होते हैं, जब-जब अशांत होते हैं, जब-जब भयभीत होते हैं तब निश्चित समझ लो कि हमारे द्वारा ईश्वरीय विधान का उल्लंघन हुआ है। जब-जब हम प्रसन्न होते हैं, निर्भीक होते हैं, खुश होते हैं, निश्चिन्त होते हैं तब समझ लो कि अनजाने में भी हमने ईश्वरीय विधान का पालन किया है।
दुर्योधन जब जन्मा था तब गीदड़ बोल रहे थे, अपशकुन हो रहे थे। गांधारी ने धृतराष्ट्र से कहा थाः "यह लड़का कुल का नाश करेगा, फेंक दो इसको।" किन्तु धृतराष्ट्र ने इन्कार कर दिया।
धर्मात्मा पुरूष भी जब-जब ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो सुख पाते हैं और प्रतिकूल चलते हैं तो वे भी मारे जाते हैं। कृपाचार्य, भीष्म-पितामह, द्रोण आदि अधर्म की पीठ ठोक रहे थे। अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गई। किसने मारी ? इसके पीछे दुर्योधन कारणभूत था।
जब धार्मिक जन भी अधर्म की पीठ ठोकता है तब वह भी ईश्वरीय विधान का अपमान करता है। अतः उसे भी ईश्वरीय विधान के अनुसार सहन करना ही पड़ेगा।
दुर्योधन, जयद्रथ आदि अनाचार करते थे तो अर्जुन का खून उबल उठता था लेकिन युधिष्ठिर अर्जुन को दबाते थे.... दबाते थे.... दबाते थे। दबते-दबते अर्जुन विषाद से भर गया था। आदमी बहुत दबता है तो उसे हिस्टीरिया का रोग होता है। हिस्टीरिया का रोग और तन्दुरुस्ती इन दोनों के बीच एक अवस्था होती है। अर्जुन उस अवस्था में आ गया था। युद्ध के मैदान में भी वह हृदय की दुर्बलता, मोह और उस रोग से आवृत हो गया था।
आदमी जब भावुक होता है और उसे दबाया जाता है अथवा अति दुःखों में वह दबता है, हताश बना रहता है तो उसकी दुर्बल भावुकता को डाँट-फटकारकर निकालना और उसमें साहस और उत्साह भरना ही उसकी दवाई है। भावुक बच्चों की मूर्खतापूर्ण भावनाएँ पोसने से उनकी उन्नति नहीं होती।
श्रीकृष्ण अर्जुन से इसीलिए कहते हैं-
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप।।
'हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।'
(गीताः 2.3)
धर्म के नाम पर जब कायरता होती है और ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करते हैं तो हानि ज्यादा होती है।
गांधारी जानती थी कि यह पाप का पुतला है मेरा बेटा। द्रौपदी-वस्त्रहरण के प्रसंग में सारी सभा देख रही थी। रजस्वला अवस्था में आयी हुई एकवस्त्रा द्रौपदी के बाल पकड़कर दुःशासन भरी सभा में घसीट ले आया। दुर्योधन अपनी जाँघ पर बिठाने के लिए ललकारता है। वेश्या कहकर कर्ण द्रौपदी का अपमान करता है। दुःशासन ने भरी सभा में कौरव वंश के तमाम महानुभावों के सामने द्रौपदी के चीर खींचे उसे नग्न करने के लिए, फिर भी कोई बोला नहीं। सब देखते रहे। ऐसा हलाहल अन्याय करने वाले दुष्ट लोगों के प्रति जब पांडव कुछ प्रतिक्रिया करते हैं तो वे दुष्ट लोग नीति-मर्यादा की बातें सुनाने लगते हैं, धर्म की दुहाई देते हैं।
युद्ध के मैदान में जब कर्ण के रथ का पहिया फँस गया तब वह उसे निकालने के लिए नीचे उतरा। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अब मौका है। उसको गिरा दे। अर्जुन ने सरसंधान किया तब कर्ण बोलता हैः "यह धर्मयुद्ध नहीं है। रुको.... मैं निःशस्त्र हूँ और मेरे पर शस्त्र चलाते हो ?" इस प्रकार कर्ण धर्म की दुहाइयाँ देने लगा।
श्रीकृष्ण ने कहाः "अब तू धर्म की दुहाइयाँ देता है ? तब कहाँ था जब कौरव सभा में द्रौपदी की क्रुर निर्भर्त्सना हो रही थी ? उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था ?"
कभी-कभी तो लुच्चे राक्षस लोग भी आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देने लग जाते हैं। आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देकर अपना बचाव करना यह कोई धर्म के अनुकूल चलना नहीं है। आपत्तिकाल में भी अपने धर्म में लगे रहना चाहिए, ईश्वरीय विधान में सहमत होना चाहिए।
ईश्वरीय विधान यह है कि तुम्हारी तरक्की होनी चाहिए, तुम्हें विकास-यात्रा करनी चाहिए, जीवन में उन्नत होना चाहिए।
भूगोल, विज्ञान तथा प्राणी के गर्भाशय की प्रक्रियाओं से यह सिद्ध हो चुका है कि तमाम जीवसृष्टि में मनुष्य आखिरी सर्जन है। गर्भावस्था में समय-समय पर गर्भ का निरीक्षण करके विज्ञानी लोग इस निष्कर्ष पर आये कि गर्भाशय में जीव-जन्तु, मेढक, बन्दर आदि की आकृतियाँ धारण करते-करते आखिर में जीव मनुष्य आकृति को धारण करता है। हमारा सबका मन इन सब यात्राओं में घूमकर आया है। मानव योनि में आने के बाद भी अगली योनियों की कुछ जड़ता रह गई है। उस तमस को हटाने के लिए मानव जन्म में जीव को बुद्धि थोड़ी विशेष दी गई। उस हल्के स्वभाव पर विजय पाकर अपने स्व-स्वभाव में जगने के लिए मौका दिया गया। इस बुद्धि का उपयोग करके आप विकास करते हैं तो आपके ईश्वरीय विधान का आदर किया है ऐसा माना जायेगा। आपकी तरक्की हो जायेगी। आपमें पहले के जो कुछ संस्कार हैं वे जोर नहीं करेंगे। आप जन्म-मरण से मुक्त हो जाएँगे।
ईश्वरीय विधान का प्रयोजन है आपकी तरक्की करना। अगर आप जड़ता को पोसते हैं, तरक्की करने से इन्कार करते हैं, आलस्य प्रमाद करते हैं, पुराने कुसंस्कारों को, गन्दी आदतों को, जीवभाव को, देहाध्यास को, शरीर की विलासिता को, पाशवी वृत्तियों को पकड़ रखते है, नश्वर चीजों और सम्बन्धों में आबद्ध होते हैं, तो आपको ईश्वरीय विधान के डण्डे लगेंगे। जहाँ-जहाँ आपकी ममता है, आसक्ति है, वहाँ से आपको कड़ुए फल मिलेंगे, फिर वह ममता-आसक्ति चाहे पत्नी पर हो, पुत्र पर हो, देह पर हो, जिस पर भी हो।
यह ईश्वरीय विधान का उद्देश्य है कि आप तरक्की कीजिए। ईमानदारी से सजग होकर तरक्की करते हैं, ममता और आसक्तिरहित होकर बहुजनहिताय बहुजनसुखाय कर्म करते हैं, तो ईश्वरीय विधान आपको सहाय करता है, आप ईश्वरीय प्रसन्नता पाते हैं। आपके लिए मुक्ति के द्वार खुल जाते हैं, जीते जी मुक्तता का अनुभव होता है। आप भोग, विलास और अहं पोसने में लगकर संयम, सदाचार और आध्यात्मिक उन्नति से, मुँह मोड़ते हैं और वहीं के वहीं पड़े रहते हैं तो हानि होती है। कालचक्र रुकता नहीं है।
पेड़, पौधे, वनस्पति में भी तरक्की है। कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि भी तरक्की करते-करते मानव देह में आते हैं। जब मानव देह मिल गई, बुद्धि मिल गई फिर भी आप विकसित नहीं हुए तो ईश्वरीय विधान आपको फिर से चौरासी लाख योनियों के चक्कर की सजा दे देता है। आप ईश्वरीय विधान के अनुकूल नहीं चलते हैं तो ईश्वरीय विधान आपके चित्त में भय पैदा कर देता है, अशांति पैदा कर देता है। आपको जो बुद्धि दी है वह वापस समेट लेता है।
ईश्वरीय विधान है कि सबमें एक ही चैतन्य है और एक ही में सब है। औरों के स्वरूप में दिखने वाले लोग आपके ही स्वरूप हैं। उनके साथ आत्मीयता से व्यवहार करते हैं तो आपकी उन्नति होती है। शोषण की बुद्धि से व्यवहार करते हैं तो आपकी अवनति होती है। दिखने में भले ही धन, सत्ता, वैभव पाकर आप उन्नत दिखें, सचमुच में भीतर की शांति, निर्भयता, आनन्द, सहजता आदि दैवी गुण क्षीण होने लगेंगे। देर-सबेर ईश्वरीय विधान आपको शोषण, कपट आदि दोषों से दूर करने के लिए सजा देकर शुद्ध करेगा। अतः ईश्वरीय विधान की सजा मिलने से पहले ही सजग हो जाओ।
ईश्वरीय विधान का पालन करने और करवाने के दैवी कार्य में आप लगते हैं तो आपकी बुद्धि, आपकी योग्यता, आपकी क्षमता बढ़ती है। आप मानों अभी खाली हाथ हैं और ईश्वरीय विधान के अनुसार चलते हैं तो जहाँ भी कदम रखेंगे वहाँ आपके इर्दगिर्द सब सामग्रियाँ और उन सामग्रियों को सँभालनेवाले सेवक और सामग्रियों का उपयोग करके आपका अनुसरण करने वाले लोग आपके सम्मुख हाजिर हो जाएँगे।
यही फर्क है जनसाधारण और संत पुरूषों में। संत पुरूष खाली हाथ घूमते-घामते आ जाते हैं, अपना आसन जमा देते हैं, बैठ जाते हैं ईश्वर में तल्लीन होकर। बाकी सब उनके इर्द-गिर्द हो जाता है। जिनके पास सब कुछ है, सत्ता है, राज्य है, धन है, उनमें वे चिपके रहते हैं भावी की चिन्ता करके विदेशी बैंकों में धन इकट्ठा करते रहते हैं तो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है। उनकी नजरों में सबका हित नहीं है लेकिन सबका शोषण करके अपना व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। इस प्रकार वे ईश्वरीय विधान का अनादर करते हैं तो उन्हें अपना पद छूट जाने का भी भय होता है, प्रतिष्ठा खो जाने का भी भय होता है, मरने का भी अति भय होता है। अन्त में भयभीत होते-होते जीवन जीने का भी मजा खो बैठते हैं बेचारे। वे जो कुछ संग्रह करते हैं – पैसे, मकान, गाड़ियाँ आदि..... उन सबका आनन्द वे नहीं ले पाते। उनका फायदा ड्राइवर, नौकर-चाकर और बैंकें ले लेती हैं। तुम अगर बाह्य वस्तुओं से अधिक प्रेम करते हो या किसी व्यक्ति का आधार ज्यादा लेते हो या किसी सत्ता या पद से आबद्ध होते हो तो उस वस्तु, व्यक्ति, पद और सत्ता से घसीटकर हटाये जाओगे। अतः सावधान ! मिथ्या संबंधों को, नश्वर पदों को, वस्तुओं को इतना प्रेम न करो कि प्रियतम को ही भूल जाओ और घसीटे जाओ, ठुकराये जाओ।
भीष्म-पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे लोग भी जब अधर्म के पक्ष में होते हैं, अधर्मियों की पीठ ठोकते हैं तो ईश्वरीय विधान उनको भी युद्ध के मैदान में ठिकाने लगा देता है।
भगवान तो आये थे धर्म की स्थापना करने के लिए और इतने सारे लोग मारे गये, अठारह अक्षौहिणी सेना खत्म हो गई, कौरव कुल उजड़ गया। यह तो अधर्म हुआ.....!
नहीं..... अधर्म नहीं हुआ। लगता तो है अधर्म हुआ लेकिन धर्म की स्थापना हुई। अगर दुर्योधन मरता नहीं, उसकी पीठ ठोकने वाले नहीं मरते, कौरव पक्ष जीत जाता तो अधर्म की जीत होती। धर्म मर जाता।
युधिष्ठिर धर्म के पक्ष में हुए और धर्म की जीत हुई, धर्म की स्थापना हुई। धर्म की स्थापना करके, ईश्वरीय विधान का आदर करके जीवों के कल्याण का चिन्तवन किया। जीव के कल्याण का मूल क्या है ?
जीव का इन्द्रियों के तरफ खिंचाव है, विकारों की ओर आकर्षण है। कई जन्मों से जीव का यह स्वभाव है। धर्म जीव में नियम ले आता है, संयम ले आता है। ऐसा करना.... ऐसा नहीं करना, ऐसा नहीं खाना, ऐसा खाना..., ऐसा भोगना..... ऐसा नहीं भोगना...... इस प्रकार नियंत्रण करके धर्म जीव को संयमी बनाता है। जीव को जगाकर अपने शिवस्वरूप में प्रतिष्ठित करना, यह ईश्वरीय विधान का पालन है।
अपने शिवस्वरूप की ओर चलने के लिए प्रकृति ईश्वरीय विधान का पालन कराती है। आदमी ज्यों-ज्यों सीधे ढंग से ईश्वर के स्वभाव में, ईश्वर के ज्ञान में, ईश्वरीय शांति की ओर चलने लगता है त्यों-त्यों उसका जीवन सहज, सुलभ और सरल हो जाता है। ईश्वरीय विधान को समझकर जीने से सहज में साधना हो जाती है। आदमी ईश्वरीय विधान को छोड़कर ज्यों-ज्यों इन्द्रियों को पोसकर, अहंकार को पोसकर, किसी को नोंचकर, किसी को शोषकर जीना चाहता है तो अशान्त रहता है, भयभीत रहता है, मरने के बाद भी घटीयंत्र की नाँई कई योनियों के चक्कर में जाकर दुःख भोगता है।
आप जब बालक थे, अज्ञ थे तो ईश्वरीय विधान ने आपको ऐहिक विद्या दी। आपमें अश्रद्धा थी तो श्रद्धा थी। श्रद्धा छुपी हुई थी तो ईश्वरीय विधान की परंपरा से आपकी श्रद्धा जागृत हुई। बाल्यावस्था में आपके पास कहाँ था योग, कहाँ थी समझ, कहाँ था कीर्तन और कहाँ थी भक्ति ? यह ईश्वरीय विधान है कि हम उन्नत होते चले आये। जब हम जन्मे थे तब कितने मूढ़ थे... कितने मूर्ख थे ? ज्यों-ज्यों बड़े हुए त्यों-त्यों उन्नत होने के लिए माहौल बन गया, संस्कार मिल गये। यह ईश्वरीय विधान है।
कहाँ तो पानी की एक बूँद से जन्म लेने वाला जीव और कहाँ बड़ा राजाधिराज बन जाता है। कोई बड़ा जोगी, जती बन जाता है ! यह ईश्वरीय विधान है।

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