पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, November 9, 2010



सच्चा सुख पुस्तक से - Sachha Sukh pustak se

सूक्ष्म वृत्ति से आत्म-लाभ - Sukshm Vritti se Atma Labh

चिदाकाश चैतन्य में एक लहर उठी। उसी का नाम है माया। उसी का नाम है जीव। उसी का नाम है कलना। उसी का नाम है सुरता। उसी का नाम है वृत्ति।
अज्ञानी जीव ने उस वृत्ति को अपने में कल्प लिया।
सुख-दुःख होते हैं वृत्ति में। मान-अपमान होता है वृत्ति में। 'मैं एकान्त में जाऊँगा... योग करूँगा....' यह भी वृत्ति है। 'मैं भीड़ में जाऊँगा.... भोग भोगूँगा.....' यह भी वृत्ति है। 'मैं' को जाना नहीं।
तुम्हारी वास्तविक मैं तो न भोग भोग सकती है न योग करती है। योग और भोग ये दोनों वृत्ति में हैं।
योग भोग जा को नहीं सो विद्वान अरोग।
जिसको योग और भोग दोनों नहीं हैं, जो वृत्तियों से परे हो चुका है, जिसने अपने स्वरूप को जान लिया है वह अरोग है, बाकी के सब रोगी हैं।
सुख-दुःख होते हैं वृत्तियों में लेकिन हम मान लेते हैं अपने में। हम अपने को नहीं जानते हैं। अब क्या करना है ? अपनी वृत्ति को सूक्ष्म करके वृत्ति से ही वृत्ति को बाधित करना है। वृत्ति से निवृत्त होना है। दूसरे लाख उपाय करो, आत्मलाभ नहीं होता। आत्मलाभ तो होता है आत्मदेव को जानने से ही। आत्मदेव को जानने वाला कोई दूसरा नहीं है। जो सुखी दुःखीपना अपने में आरोपता है, जो सुखी-दुःखी होता है वही अपने असली स्वरूप को पहचान ले तो वह सुख-दुःख से परे हो जाय। फिर वह समझता है कि सुख-दुःख वृत्ति में होता है, मुझमें नहीं। सुख आया..... और गया। दुःख आया...... और गया। जो आकर जाय.... जाकर आये तो वह आने जाने वाला हुआ। आने जाने वाले को जो देखता है वह अटल है। वह अटल अपना स्वरूप है।
जैसे, आकाश में तरूवर भासते हैं, बादलों में हाथी, घोड़ा, रथ इत्यादि भासते हैं। आकाश में आ आकर चले जाते हैं ऐसे ही हमारे हृदयाकाश में भाव और क्रिया-प्रतिक्रियाओँ की संवेदनाएँ आ-आकर चली जाती हैं।
जैसे सुमेरू पर्वत के आगे राई का दाना छोटा है ऐसे ही हमारे चिदाकाश व्यापक स्वरूप के आगे यह भूताकाश भी छोटा है। यह जो सामने भूताकाश और चित्ताकाश जिससे प्रतीत होते हैं वह चिदाकाश हैं हम। हमको चित्ताकाश प्रतीत होता है। चित्त में जो विचार उठा वह हमें प्रतीत होता है। जिससे सब दिखता है । भूताकाश चित्ताकाश से छोटा है। चित्ताकाश भी हमें प्रतीत होता है तो हमसे चित्ताकाश भी छोटा है। हम हैं चिदाकाश जिसको चित्ताकाश और भूताकाश दोनों प्रतीत होते हैं।
तुम कहोगे कि हम तो भूताकाश में हैं और हमारे अन्दर चित्ताकाश है। तो भूताकाश से चिदाकाश छोटा हुआ।
नहीं.....। तुम देह को 'मैं' मानकर बोलते हो कि हम भूताकाश में हैं और हमारे भीतर चित्ताकाश है। वात्विकता यह है कि तुम्हारे भीतर दिखने वाला चित्ताकाश भूताकाश को भी आवृत्त करके बैठा है।
जैसे यह आकाश सत्संग-हॉल को ढाँककर बैठा है ऐसे ही चित्ताकाश इस भूताकाश को ढाँककर बैठा है और चिदाकाश इन दोनों को ढाँककर बैठा है। यह चिदाकाश ही परब्रह्म परमात्मा है।
यह ब्रह्मविद्या सत्पात्र शिष्य अथवा सत्पुत्र के हृदय में ही ठहरती है। पुत्र भी जब गुरू की भावना से श्रवण करे तो, पिता मानकर सुने तो नहीं।
घटाकाश को मठाकाश व्यापकर बैठा है। घड़े में जो आकाश है वह है घटाकाश। हॉल में जो आकाश है उसे समझो मठाकाश। हॉल में कई घड़े रख दो। ये सभी घटाकाश मठाकाश में समाविष्ट हो गये। ऐसे ही चिदाकाश परब्रह्म परमात्मा में कई चित्ताकाश और भूताकाश समाविष्ट हैं। सबका अधिष्ठान एक चिदाकाश है। भूताकाश से चित्ताकाश सूक्ष्म है और चित्ताकाश से भी सूक्ष्म है चिदाकाश। सूक्ष्म है इसलिए वह सबमें है। फिर भी सबका नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता। सब घड़ों का नाश होने से आकाश का नाश नहीं होता। सब शरीरों का नाश होने पर भी चिदाकाश का नाश नहीं होता।
छोटे से छोटे जीव जन्तु, बैक्टेरिया जहाँ जाते हैं वहाँ उन्हें हवा मिलती है क्योंकि हवा सब जगह है। ऐसे ही जहाँ भी जीव हैं वहाँ चिदाकाश उन्हें व्याप रहा है।
बस कितनी भी तेजी से भागे लेकिन वह आकाश को लेकर नहीं भागती। आकाश इतना सूक्ष्म है कि वह बस के आरपार गुजर जाता है। बस भागती है लेकिन आकाश वहीं का वहीं अपनी महिमा में स्थित रहता है। तुम घड़ा लेकर भागो तो घड़े के अन्दर जो आकाश है उसे भी लेकर भागे ऐसी बात नहीं है। आकाश तो घड़े के आरपार होकर स्थित रहता है। ऐसे ही कोई जन्मे चाहे मरे, सच्चिदानंदस्वरूप चिदाकाश ज्यों का त्यों रहता है। सूर्य के प्रकाश में बिलोरी काच कहीं भी लेकर जाओ, उससे आग पैदा कर सकते हो। बिलोरी काच की अपेक्षा सूर्य व्यापक है। ऐसे ही सूर्यों का सूर्य जो चिदाकाश परमात्मा है वह व्यापक है।
'मैं-मेरे' के संस्कार अन्तःकरण में पड़े हैं। अन्तःकरण जहाँ जाता है वहाँ चिदाकाश की सत्ता लेकर अपने संस्कारों के अनुसार चेष्टा करता है। बिलोरी काच जहाँ होता है वहाँ अपनी शक्ति के अनुसार सूर्य का प्रकाश केन्द्रित करता है।
चिदाकाश परब्रह्म परमात्मस्वरूप हमारा वास्तविक स्वरूप है। उसमें अन्तःकरण जहाँ जाकर जैसा सोचता है वैसा उसे प्रतीत होता है। वृत्ति जब नींद में चली जाती है तब कुछ नहीं। यह 'कुछ नहीं' की अवस्था को भी चिदाकाश जानता है।
'रात को गहरी नींद आ गई। कुछ नहीं देखा....।'
'कुछ नहीं देखा....।' उसको भी चिदाकाश देखता है। भूताकाश और चित्ताकाश को जो देख रहा है वह चिदाकाश है। इस चिदाकाश को जो 'मैं' रूप में जान लेता है वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रूद्र, शिव, सब कुछ हो जाता है। जीवपने की भ्रांति उसकी मिट जाती है।
तुम अगर वास्तव में चिदाकाशस्वरूप नहीं होते तो यहाँ बैठे-बैठे सूर्य को नहीं देख सकते। तुम जहाँ न हो वहाँ का तुम्हें ज्ञान नहीं हो सकता। तुम्हारी इन्द्रियाँ सीमित हैं। सूर्य तक ही पहुँच सकती हैं। उससे भी पार चिदाकाश तुम्हारा स्वरूप है। इन्द्रियों से जो दिखेगा वह सीमित होगा। इन्द्रियाँ भी वहीं देख सकेगी जहाँ तुम हो। जहाँ तुम नहीं हो वहाँ इन्द्रियाँ नहीं देख सकेगी। सूर्य में भी तुम हो इसलिए सूर्य दिखता है। चन्द्र में भी तुम हो इसलिए वह दिखता है। लेकिन तुम जब देह को 'मैं' मान लेते हो तब धोखा खा जाते हो। वास्तव में तुम चिदाकाशस्वरूप होकर सबमें व्याप रहे हो। चित्ताकाश भूताकाश को व्याप रहा है। चिदाकाश ब्रह्म सबको व्याप रहा है। सब उसी में है। पापी-पुण्यात्मा, दुर्जन-सज्जन, अपना-पराया, आँधी-तुफान, बरसात, सर्दी-गरमी सब आकाश के भीतर हैं। ये सब होते हुए भी आकाश का कुछ बना नहीं सकते और कुछ बिगाड़ नहीं सकते, कुछ बढ़ा नहीं सकते और कुछ घटा नहीं सकते। कितनी भी आँधी चले, कितनी भी बारिश हो, कितने भी झगड़े हों, आकाश का कुछ बिगड़ता नहीं।
तुलसीदास जी ठीक कहा हैः
चिदानन्द देह तुम्हारी।
विगत विकार कोई जाने अधिकारी।।
जैसे देह दृष्टि से देखा जाये तो आकाश तुम्हारा त्याग नहीं कर सकता, तुम आकाश का त्याग नहीं कर सकते ऐसे ही सच्चिदानंद परमात्मा तुम्हारा त्याग नहीं कर सकता और तुम परमात्मा का त्याग नहीं कर सकते।
तुमने रूपयों का संग्रह किया और त्याग भी दिया तभी भी आकाश का तुमने संग्रह भी नहीं किया। तुमने कर्मकाण्ड किया, उपासना की तब भी आकाश वैसे का वैसा।
ऐसे ही वह चिदाकाशस्वरूप परब्रह्म परमात्मा के रूप में तुम वैसे के वैसे ही हो। उसको न जानने से सारे अनर्थ हैं। उसको जान लिया तो तुम्हारा बाल बाँका नहीं हो सकता, कोई कर नहीं सकता। देह को कोई रख नहीं सकता और तुम्हारा कोई नाश नहीं कर सकता। तुम अपने आपको छोड़ नहीं सकते और देह को रख नहीं सकते। घड़े को कोई सदा रख नहीं सकता और घड़े में आये हुए आकाश का कोई नाश नहीं कर सकता।
देह है घड़ा। तुम हो आकाशस्वरूप। तुम हो सागर। देह है उसमें बुलबुला। तुम हो सोना। देह है आकृति। तुम हो मिट्टी तो देह है खिलौना। तुम हो धागा और देह है उसमें पिरोया हुआ मणि। इसीलिए गीता में कहा हैः
सूत्रे मणिगणा इव।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं जगत में व्याप्त हूँ। कैसे ? जैसे पिरोये हुए मणियों में धागा व्याप्त है ऐसे।
जैसे श्रीकृष्ण जगत में व्याप्त है ऐसे ही तुम भी जगत में व्याप्त हो। श्रीकृष्ण की आकृति देखोगे तो वह जगत में व्याप्त नहीं दिखेगी। श्रीकृष्ण वह अपनी मायाविशिष्ट आकृति को 'मैं' नहीं मानते। श्रीकृष्ण उनके वास्तविक 'मैं' को 'मैं' जानते हैं। हम लोग नहीं जानते इसलिए धोखे में रह जाते हैं।
श्रीकृष्ण का जो वास्तविक तत्त्व है वही नाली के कीड़े का भी वास्तविक तत्त्व है, लेकिन वह अभागा नहीं जानता है। इसलिए दुःख भाग रहा है। उसको उसी नाली में अच्छा लग रहा है। द्वारिका नगरी डूब रही थी तो श्रीकृष्ण ने हँसते-हँसते उसे डूब जाने दिया। दिल में कोई गम नहीं। वे जानते हैं कि अपने चिदाकाशस्वरूप में तो कोई घाटा नहीं है। हजार घड़े फूट जायें, आकाश को कोई घाटा पड़ा ? लाख घड़े बन जाएँ, आकाश को कोई लाभ हुआ ? नहीं।
सब आकृतियाँ हमारी माया है। जो दिखे वह सब माया है। चाहे किसी का भी देह हो, वह माया है। जिसमें माया दिखती है वह चिदाकाश परमात्मा।
माया भी परमात्मा को छोड़कर नहीं रह सकती। जैसे घड़ा आकाश को छोड़कर नहीं रह सकता, ऐसे ही दिखने वाले शरीर भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिदाकाश को छोड़कर नहीं रह सकते।
आदरपूर्वक सुनते-सुनते ब्रह्मज्ञान अगर समझ में आ जाये तो हजारों हजारों लाखों जन्मों की मजदूरी बच जाती है। अन्यथा तो अपने-अपने मन की कल्पना के अनुसार आदमी प्राप्ति करता है और धोखे में पड़ता है। मन की मान्यताएँ बदलती जाती हैं। जैसी मान्यताएँ होती हैं मन ऐसे घाट घड़ता जाता है। चिदाकाश में ऐसे ऐसे रूप प्रतीत होते जाते हैं। जैसे बादलों में हाथी-घोड़ा आदि दिखते हैं, मरूभूमि में पानी दिखता है ऐसे ही चिदाकाश में अज्ञानियों ने जगत की कल्पना कर ली है। जगत वास्तव में कुछ है नहीं। कल्पना में जगत ऐसा पक्का मान लिया है कि वही दिखता है, ब्रह्म नहीं दिखता।
बालक को आकाश के बादल में रथ दिखता है। रथ जब दिखता है तब बादल नहीं दिखता। वास्तव में बादल दिखता है तभी रथ दिखता है। जिसको रथ-बुद्धि पक्की हो गई है उस बालक को रथ ही दिखेगा, बादल नहीं दिखेगा।
"यह क्या है ?"
"बाबाजी ! कटोरी है।"
कटोरी है लेकिन पहले पीतल है तभी कटोरी दिखती है। ऐसे ही पहले ब्रह्म है, बाद में जगत दिखता है। कटोरी टूटेगी, फूटेगी, बदलेगी लेकिन पीतल वही का वही। गहना टूटेगा, फूटेगा, बदलेगा लेकिन सोना वही का वही। ऐसे ही जगत और शरीर टूटते हैं फूटते हैं, बदलते हैं लेकिन अपना आपा चिदाकाश वही का वही। अपना मूलस्वरूप जाना तो वही का वही। अपनी प्रकृति में उलझे, माया में उलझे तो कितने ही दुःख भोगो, कितने ही जन्म लो।
परमात्मा के तंत्र में ऐसी विशेषता है कि जो सत्पात्र हैं, सदाचारी होते हैं, सेवा से अन्तःकरण पवित्र करते हैं, गुरूमुख होते हैं ऐसे उत्तम शिष्यो के लिए ही यह ज्ञान अनामत रहता है। अनधिकारी चाहे शब्द सुन ले लेकिन उसके हृदय में यह ज्ञान पचता नहीं, रहस्य खुलता नहीं। यह ज्ञान ऋषियों के हृदय में उड़ेला जाता है, सत्पात्र साधकों के हृदय में उड़ेला जाता है।
उसी चिदाकाशस्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लोक लोकान्तर पैदा हो होकर लीन हो जाते हैं। जैसे तुम्हारे अमदावाद में कई मकान, कल-कारखाने, फैक्ट्रीयाँ, मिलें कई लोग हैं, कितने ही लोग पैदा हो-होकर चले गये होंगे लेकिन यहाँ के आकाश में कुछ नहीं।
ऐसे ही यह पूरा भूताकाश ब्रह्म की एक छोटी-मोटी फैक्ट्री है। मानो, एक छोटा सा तम्बू ताना हुआ है। सर्कसवालों का तम्बू कितना विशाल होता है ! लेकिन पृथ्वी की विशालता के आगे सर्कस के तम्बू का क्या हिसाब ? ऐसे ही चिदाकाश परब्रह्म परमात्मा के आगे भूताकाश भी कुछ नहीं है।
सर्कस के तम्बू में कितने सारे लोग होते हैं ? कितने ही हाथी, घोड़े, सिंह, बन्दर, जोकर, सर्कस दिखाने वाले, खेल देखने वाले सब तम्बू के भीतर आ जाते हैं। लेकिन आकाश के आगे तम्बू क्या है ? फिर भी आकाश में तम्बू है, तम्बू में आकाश है। तम्बू में जो लोग बैठे हैं उनके हृदय में भी आकाश है। आकाश के बाहर तम्बू नहीं है। आकाश के बाहर तम्बू में बैठे हुए लोग भी नहीं है। सब आकाश रूप हुआ कि नहीं ? सब आकाश रूप है। ऐसे ही सब परब्रह्म रूप है। परब्रह्म में स्थित होना है।
परब्रह्म में सब स्थित तो हैं ही, परब्रह्म से बाहर तो हैं नहीं लेकिन नहीं जानते हैं न ! देह और इन्द्रियों के साथ जुड़ गये हैं। इसलिए भगवान में स्थिति होते हुए भी उस स्थिति का लाभ नहीं होता। पानी में बुदबुदा उठा। बुदबुदे की पानी में स्थिति है ही लेकिन बुदबुदा अपने को पानी नहीं जानता, अपने को ही बुदबुदा मानता है। पानी तरंगायित होता है तो बुदबुदा खतरे में आ जाता है। खतरा क्यों है ? अपने को बुदबुदा मानता है। अपने को पानी जान ले तो उसकी पानी में स्थिति है कि नहीं ? है.....।
ऐसे ही सबकी ब्रह्म में स्थिति है। जैसे बुदबुदा पानी में ही है, पानी रूप ही है ऐसे ही सब जीव ब्रह्म में हैं, ब्रह्म रूप है।
कुंभ में जल जल में कुंभ बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जले समाना यह अचरज है ज्ञानी।।
कुंभ फूटा तो जल जल में समा गया। कुंभ फूटा नहीं है तभी भी जल जल ही में है।
सरोवर में घड़ा डाल दिया। घड़ा सरोवर के जल से भर गया। घड़े के बाहर और भीतर पानी ही पानी है। घड़े ने सरोवर का पानी और घड़े का पानी अलग दिखा दिया। घड़ा फूटा तो घड़े में आया हुआ सरोवर का पानी सरोवर में मिल गया। घड़ा नहीं फूटा है तो क्या नहीं मिला है ? अभी भी मिला हुआ है। ऐसे ही देहभावरूपी घड़ा आत्मज्ञानरूपी डंडे से फूटा तो जीव ब्रह्म की एकता हो गई।
ऐसे ही देह गिरने के बाद ज्ञानी ब्रह्म में मिलेगा ऐसी बात नहीं है। मरने के बाद ज्ञानी ब्रह्म में लीन हो जाएगा...... तो अभी कहाँ है ? अभी भी उसी में हैं। जैसे आकाश में तुम हो और तुम में आकाश है ऐसे ही ब्रह्म में ही हैं मगर जानते नहीं। अपने को देह मान बैठते हैं और वे कहते हैं मुझे पैसा चाहिए, मुझे लड़का चाहिए, मुझे यह चाहिए, मुझे वह चाहिए।
पहले अपने को तो जान लो भैया ! फिर सारे रूपये तेरे ही हैं और करोड़ों-करोड़ों बेटे तेरे ही हैं।
धन किसलिए चाहता तू आप मालामाल है।
सिक्के सभी जिससे बने वो तू महा टंकशाल है।।
चाह न कर चिन्ता न कर चिन्ता भी बड़ी दुष्ट है।
है श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ मगर चाह करके भ्रष्ट है।।
चैतन्यस्वरूप परमात्मा से चाह का फुरना हुआ। उस फुरने को मन भी कहते हैं माया भी कहते हैं, जीव भी कहते हैं।
फुरना वही है। देह में जीने की इच्छा की तो जीव नाम पड़ गया। संकल्प-विकल्प किया तो मन नाम पड़ गया। न होने में होने की भावना की तो माया नाम पड़ गया।
'माया बड़ी बलनान है......।'
माया कहाँ से बल लायी ?
सागर में बड़ी तरंग उठकर भाग रही है। बड़ी-बड़ी नौकाओं को डोलायमान कर रही है। उस तरंग में बल कहाँ से आया ? बिना पानी के उसमें बल हो सकता है क्या ? ऐसे ही माया दिख रही है बड़ी लेकिन ब्रह्म के बिना उसकी ताकत क्या है ?
बुलबुले की तरंग बड़ी दिखती है लेकिन बुलबुला अगर अपने को पानी समझे तो तरंग उसको क्या कर सकती है ?

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