पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, August 29, 2010


श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पुस्तक से - Shri Krishna Janmashtami pustak se

(श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी के पावन पर्व पर सूरत (गुज.) के आश्रम में साधना शिविर में मध्यान्ह संध्या के समय आश्रम का विराट पंडाल सूरत की धर्मपरायण जनता और देश-विदेश से आये हुए भक्तों से खचा-खच भरा हुआ है। दांडीराम उत्सव किये गये। श्रीकृष्ण की बंसी बजायी गयी। मटकी फोड़ कार्यक्रम की तैयारियाँ पूर्ण हो गयी। सब आतुर आँखों से परम पूज्य बापू का इन्तजार कर रहे हैं। ठीक पौने बारह बजे पूज्य बापू पधारे और उल्लास, उत्साह और आनंद की तरंगे पूरे पंडाल में छा गईं। पूज्यश्री ने अपनी मनोहारिणी, प्रेम छलकाती, मंगलवाणी में श्रीकृष्ण-तत्त्व का अवतार-रहस्य प्रकट किया.....)
जन्माष्टमी तुम्हारा आत्मिक सुख जगाने का, तुम्हारा आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। तुम्हारा सुषुप्त प्रेम जगाने की दिव्य रात्रि है।
हे श्रीकृष्ण ! शायद आप सच्चे व्यक्तियों की कीर्ति, शौर्य और हिम्मत बढ़ान व मार्गदर्शन करने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जैसे, मलयाचल में चंदन के वृक्ष अपनी सुगंध फैलाते हैं, वैसे ही सोलह कला-संपन्न अवतार से आप यदुवंश की शोभा और आभा बढ़ाने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ लोग यूँ ही कहते हैं कि वसुदेव और देवकी की तपस्या से प्रसन्न होकर देवद्रोही दानवों के जुल्म दूर करने, भक्तों की भावना को तृप्त करने के लिए वसुदेव जी के यहाँ ईश्वर निर्गुण निराकार, सगुण साकार होकर अवतरित हुए। लीला और लटकों के भूखे ग्वाल-गोपियों को प्रसन्न करके आनंद का दान करने के लिए आप अवतरित हुए हैं। कुछ लोग यूँ भी कहते हैं कि पृथ्वी जब पापियों के भार से डूबी जा रही थी जैसे, नाव सामर्थ्य से अधिक वजन लेकर चलने से डूब जाती है, ऐसे ही पृथ्वी ने पापियों के पाप प्रभाव से दुःखी हो ब्रह्माजी की शरण ली और ब्रह्माजी ने आप की शरण ली। तब हे अनादि ! अच्युत ! हे अनंत कलाओं के भंडार ! सोलह कलाओं सहित आप पृथ्वी पर प्रकट हुए। पृथ्वी का भार उतारने के लिए, शिशुपाल, कंस, शकुनि, दुर्योधन जैसे दुर्जनों की समाजशोषक वृत्तियों को ठीक करने के लिए, उनको अपने कर्मों का फल चखाने के लिए और भक्तों की सच्चाई और स्नेह का फल देने के लिए हे अच्युत ! हे अनादि ! आप साकार अवतार लेकर प्रकट हुए। कुंता जी कहती हैं-
"हे भगवान ! संसार के कुचक्र में बारम्बार जन्म, मृत्यु और वासना के वेग में बह जाने वाले जीवों को निर्वासनिक तत्त्व का प्रसाद दिलाने के लिए लीला-माधुर्य, रूप-माधुर्य और उपदेश-माधुर्य से जीव का अपना निज स्वरूप जो कि परम मधुर है, सुख स्वरूप है उस सुख स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए, आत्म-प्रसाद देने के लिए और कामनाओं के कुचक्र से संसार समुद्र में बह जाने वाले जीवों को तारने के लिए आपका अवतार हुआ है।"
अवतार किसको कहते हैं ?
'अवतरति इति अवतारः।'
जो ऊपर से नीचे आये उसे अवतार कहते हैं। जिसे कोई अपेक्षा नहीं और हजारों अपेक्षावाला दिखे, जिसे कोई कर्त्तव्य नहीं फिर भी भागा-भागा जाये। जीव भागे-भागे जा रहे हैं कर्म के बंधन से और ईश्वर जब भागा-भागा जाये तो कर्म का बन्धन नहीं, ईश्वर की करूणा है। जीव कर्मों के बन्धन से, माया के वशीभूत होकर संसार में आता है, उसको जन्म कहते हैं। ईश्वर कर्मबन्धन से नहीं, माया के वश नहीं अपितु माया को वश करता हुआ संसार में जीवों की नाईं ही आता है, जीता है, मक्खन माँगता है, उसे भूख भी लगती है, वस्त्र भी चाहिए और घोड़ा भी चाहिए। माँ यशोदा का प्यार भी चाहिए और समाज के रीति रिवाज के अनुसार चलना भी चाहिए। ये सब 'चाहिए..... चाहिए' अपने सिर पर लादकर तो चलता है, हालाँकि उस पर कोई बंधन नहीं। फिर भी चलता है, स्वीकार कर लेता है नट की नाईं ! नट भीतर से तो सब जानता है फिर भी नाट्य नियमों के अनुसार भिखारी भी बन जाता है, राजा भी बन जाता है और प्रजा के साथ भी देखा जाता है। परंतु अंदर अपने नटत्व भाव में ज्यों का त्यों जगा रहता है। ऐसे ही जिन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान, स्वरूप का बोध ज्यों का त्यों है फिर भी साधारण जीवों के बीच, उन की उन्नति, जागृति करने के लिए जो अवतार हैं वे अवतार कृष्णावतार, रामावतार रूप से जाने जाते हैं।
तपती दुपहरी में जो अवतार हुआ, अशांत जीवों में शांति और मर्यादा की स्थापना करने के लिए जो अवतार हुआ उसे 'रामावतार' कहते हैं। समाज में जब शोषक लोग बढ़ गये, दीन-दुखियों को सताने वाले व चाणूर और मुष्टिक जैसे पहलवानों और दुर्जनों का पोषण करने वाले क्रूर राजा बढ़ गये, समाज त्राहिमाम पुकार उठा, सर्वत्र भय व आशंका का घोर अंधकार छा गया तब भाद्रपद मास (गुजरात-महाराष्ट्र में श्रावण मास) में कृष्ण पक्ष की उस अंधकारमयी अष्टमी को कृष्णावतार हुआ। जिस दिन वह निर्गुण, निराकार, अच्युत, माया को वश करने वाले जीवमात्र के परम सुहृद प्रकट हुए वह आज का पावन दिन जन्माष्टमी कहलाता है। उसकी आप सब को बधाई हो....
आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, प्रेरक अवतार, अंतर्यामी अवतार, साक्षी अवतार..... ऐसे अनेक स्थानों पर अनेक बार भगवान के अवतार हुए हैं। एक अवतार अर्चना अवतार भी होता है। मूर्ति में भगवान की भावना करते हैं, पूजा की जाती है, वहाँ भगवान अपनी चेतना का अवतार प्रकट कर सकते हैं। श्रीनाथजी की मूर्ति के आगे वल्लभाचार्य दूध धरते हैं और वल्लभाचार्य के हाथ से भगवान दूध लेकर पीते हैं। नरो नामक आहीर की लड़की से भगवान ने अपने हाथों से दूध का प्याला ले लिया था।
धन्ना जाट के आगे भगवान पत्थर की मूर्ति में से प्रकट हुए। यह आविर्भाव अवतार था। भगवान कभी भी, किसी भी व्यक्ति के आगे, किसी भी अन्तःकरण में, किसी भी मूर्ति में, किसी भी जगह पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देकर उन्हें नित्यतत्त्व में ले जाने के लिए सर्वसमर्थ हैं। उनकी लीला अनादि है। जो अनंत, अनादि हैं वे सान्त व साकार होकर आते हैं और अलौकिक लीलाएँ करते हैं।
अवतार जैसे-तैसे, जहाँ तहाँ प्रकट नहीं हो जाया करते। उनके पीछे बहुत कुछ परिश्रम व संकल्प होते हैं। असंख्य लोगों के अस्पष्ट और अनिर्णित पुरूषार्थ को सही दिशा देने के लिए जो महापुरूष या ईश्वरीय चेतना प्रकट होती है उसे हम अवतार कहकर पूजते हैं। जितना ज्यादा स्पष्ट पुरूषार्थ उतना ही महान अवतार प्रकट होता है।
रामजी को प्रकट करने वाले दशरथ और कौशल्या ही नहीं अपितु और भी कई पुण्यात्माओं के संकल्प थे। बंदर और हनुमानजी आदि की माँग थी। भक्तों को स्पष्ट जीवन का मार्गदर्शन सुझाने की जब अत्यंत जरूरत पड़ी तब 'रामावतार' हुआ। अवतार होने से पहले बहुत व्यवस्था होती है। अथाह पुरूषार्थ, अटल श्रद्धा, सतत प्रयास होत हैं और अपने पुरूषार्थ के बल पर नहीं, 'निर्बल के बल राम' ऐसा जब साधक के, समाज के चित्त में आ जाता है तब परमात्मा अपनी करूणामयी वृत्ति से, भावना से और स्वभाव से अवतरित होकर भक्तों को मार्गदर्शन देते हैं। समाज को उन्नत करने में अंगुलीनिर्देश करते है। श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने के विषय में विद्वानों का मानना है कि जुल्मी राजाओं का जुल्म और समाज-शोषकों की अति भोग-लोलुपता इतनी बढ़ गयी, समाज का शोषण इतना बढ़ गया कि श्रीकृष्ण को अंगुलीनिर्देश करना पड़ा कि इन्द्र की पूजा कब तक करोगे ? अहंकारी और शोषण करने वाले, जो तुम से तुम्हारा धन-धान्य लिये जा रहे है, तुम्हारे जीवन के उत्कर्ष का ख्याल नहीं करते, तुम्हें जीवनदाता से मिलाने का पुरूषार्थ नहीं करते ऐसे कंस आदि लोगों से कब तक डरते रहोगे ? अपने में साहस भरो और क्रांति लाओ। क्रांति के बाद शांति आयेगी। बिना क्रांति के शांति नहीं।
जर्मनी में युद्ध हुआ, फिर जर्मनी में हिम्मत आयी। जापानी भी युद्ध में नष्ट-भ्रष्ट हो गये, फिर उनमें नवजीवन की चेतना जागी और साहस आया। युद्ध और संघर्ष भी कभी-कभी सुषुप्त चेतना को जगाने का काम करते हैं। आलस्य और प्रमाद से तो युद्ध अच्छा है।
युद्ध करना तो रजोगुण है। ऐसे ही पड़े रहना तमोगुण है। तमोगुण से रजोगुण में आयें और रजोगुण के बाद सत्त्वगुण में पहुँचें और सत्त्वगुणी आदमी गुणातीत हो जाये। प्रकृति में युद्ध की व्यवस्था भी है, प्रेम की व्यवस्था भी है और साहस की व्यवस्था भी है। आपका सर्वांगीण विकास हो इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा दुर्बलताओं से युद्ध करो। अपने चैतन्य आत्मा को परमात्मा से एकाकार कर दो।
यह कौन सा उकदा जो हो नहीं सकता।
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता
छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे।
इन्सान क्या अपने दिले-दिलबर में घर न करे ?
भागवत में, गीता में, शास्त्रों में सच्चाई से भक्ति करने वाले भक्तों का, योगसाधना करके योगसिद्धि पाने वाले योगियों का और आत्मविचार करके आत्मसिद्धि को पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं का वर्णन तो मिलता है किंतु कलियुगी भगवानों की बात न गीता में, न भागवत में और न किन्हीं पवित्र शास्त्रों में ही है।
भभूत, कुमकुम, अंगूठी आदि वस्तुएँ निकालने वाले यक्षिणी-सिद्ध, भूतप्रेत-सिद्ध या टूणा-फूणा की सिद्धिवाले हो सकते हैं। आत्म-साक्षात्कार करके सिद्ध तत्त्व का, स्वतः सिद्ध स्वरूप का अमृतपान कराने वाले रामतीर्थ, रमण महर्षि, नानक और कबीर जैसे संत, वशिष्ठ जी और सांदिपनी जैसे महापुरूष हैं जिनका भगवान राम और श्रीकृष्ण भी शिष्यत्व स्वीकार करते हैं। अर्थात् जो भगवान के भी गुरू हैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता आत्म-सिद्धि को पाते हैं। उनकी नजरों में यक्षिणी, भूत या प्रेत की सिद्धि, हाथ में से कड़ा या कुंडल निकालने की सिद्धि नगण्य होती है। ऐसी सिद्धियोंवाले सिद्धों का गीता, भागवत या अन्य ग्रन्थों में भगवान रूप में कोई वर्णन नहीं मिलता और न ही उच्च कोटि के सिद्धों में ही उनकी गणना होती है।
स्वयंभू बने हुए भगवानों की आज से 20 साल पहले तो कुंभ में भी भीड़ लगी थी। हाँ, उन महापुरूषों में कुछ मानसिक शक्ति या फिर भूतप्रेत की सिद्धि हो सकती है। मगर भभूत, कुमकुम या कड़ा कुंडल ही जीवन क लक्ष्य नहीं है। आत्मशांति, परमात्म-साक्षात्कार ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को वही आत्म-साक्षात्कार की विद्या दी थी। श्रीराम ने हनुमान जी को वही विद्या दी थी। भभूत, भूत-प्रेत या यक्षिणी-सिद्धिवालों की अपेक्षा तो हनुमानजी और अर्जुन के पास ज्यादा योग्यताएँ थीं। ऐसे पुरूषों को भी आत्मज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। तो हे भोले मानव ! तू इन कलियुगी भगवानों के प्रभाव में आकर अपने मुक्तिफल का, आत्मज्ञान का और आत्म-साक्षात्कार का अनादर न कर बैठना। किसी के प्रति द्वेष रखना तो अच्छा नहीं परंतु किसी छोटे-मोटे चमत्कारों में आकर परमात्मज्ञान का रास्ता व आत्मज्ञान पाने की, सुषुप्त जीवन-शक्तियाँ जगाने की आध्यात्मिक दिशा को भूलना नहीं। श्रीकृष्ण, श्रीराम, भगवान वेदव्यास और वशिष्ठजी महाराज ने, तुलसीदास जैसे संतों ने, रामकृष्ण और रमण महर्षि जैसे आत्मसिद्धों ने जो दिशा दी है वही साधक के लिए, समाज के लिए और देश के लिए हितकर है।
जीवन में सच्ची दिशा होनी चाहिए। हम किसलिए आये हैं इसका सतत चिंतन करना चाहिए। आज के आदमी के पास कुछ स्पष्ट ध्येय नहीं है।
"पढ़ते क्यों हो ?"
"पास होने के लिये।"
"पास क्यों होना चाहते हो ?"
"नौकरी करने के लिये।"
"नौकरी क्यों करना चाहते हो ?"
"पैसे कमाने के लिये।""
"पैसे क्यों कमाना चाहते हो ?"
"खाने-पीने के लिये।"
"खाना-पीना क्यों चाहते हो ?"
"जीने के लिये।"
"और जीना क्यों चाहते हो ?"
"मरने के लिये।"
मरने के लिय इतनी मजदूरी की कोई आवश्यकता ही नहीं है। हकीकत में यह सब गहराई में सुखी होने के लिये, आनंदित होने के लिये करते हैं। अतः परमानंद को हो पाने का ध्येय होना चाहि।
कृष्ण उस पद में स्थित थे। द्वारिका डूब रही थी, कोई फिकर नहीं। छछीयनभरी छाछ के लिए नाच रहे हैं तो नाच रहे हैं, कोई परवाह नहीं। कुछ मिला तो वही मस्ती। सब छूट जाता है तो भी वही मस्ती.....
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।
मिला अगर माल तो उस माल में खुश हैं।।
हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश हैं।।
श्रीकृष्ण को नंगे पैर भागना पड़ा तो धोती के टुकड़े बाँधकर भागे जा रहे हैं। छः महीने गिरनार की गिरी-गुफाओं में साधुओं के घर प्रसाद पाकर जीना पड़ता है तो जी रहे हैं। कोई फरियाद नहीं। द्वारिकाधीश होकर सोने के महलों में रहे तो भी कोई फर्क नहीं। अपने देखते-देखते सर्वस्व डूब रहा है तब भी भीतर में वही समता। श्रीकृष्ण समझते हैं कि यह सब माया है और हम इसे सत्य समझते हैं। बारिश के दिनों में जैसे बादलों में देवताओं की बारात – सी दिखती है, वह बादलों की माया है। ऐसे संसार में जो बारात दिखती है, वह विश्वंभर की माया है। श्रीकृष्ण तुम्हें यह बताना चाहते हैं कि माया को माया समझो और चैतन्य स्वरूप को 'मैं' रूप में जान लो तो माया को भी मजा है और अपने आपको भी मजा ही मजा है।
'अवतार' कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से नहीं हो जाता। केवल आँसू बहाने से भी नहीं होता। फरियाद करने से भी नहीं होता। गिड़गिड़ाने से भी नहीं होता।
अपने जीवन रूपी गोकुल में पहले ग्वाल-गोपियाँ आते हैं और फिर कृष्ण आते हैं। राम जी आये, वह बंदरों और हनुमानजी आदि की माँग थी। ऐसे तुम्हारे हृदय में छिपे हुए राम या कृष्ण प्रकट हो उसके पहले तुम्हारे इस देहरूपी गोकुल को सँवारने के लिए ग्वाल-बाल आ जायें अर्थात् सत्कर्म और साधना आ जाये तो फिर कन्हैया और राधा अवश्य आयेंगे। राधा दस महीने पहले आती है, फिर श्रीकृष्ण आते हैं। 'राधा' - 'धारा' यानी पहले भक्ति की वृत्ति आती है, ब्रह्माकार वृत्ति आती है, बाद में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। इसलिए कहते हैं- "राधा-कृष्ण, सीता-राम।"

जन्माष्टमी पर पूज्यश्री का तात्त्विक प्रवचन
'वासुं करोति इति वासुः।' जो सब में बस रहा हो, वास कर रह हो उस सच्चिदानंद परमात्मा का नाम है 'वासुदेव'।
आज भगवान वासुदेव का प्राकट्य महोत्सव है। भगवान वासुदेव अट्ठासवीं चतुर्युगी के द्वापर युग में प्रकट हुए हैं। वे अजन्मा हैं, अच्युत हैं, अकाल हैं, काल की सीमा में नहीं आते। वे काल के भी काल हैं। अखूट ऐश्वर्य, अनुपम माधुर्य और असीम प्रेम से परिपूर्ण हैं भगवान वासुदेव। जो अवतार रहित हैं उनका अवतार किया जा रहा है, जो जन्म रहित हैं उनका जन्म मनाया जा रहा है। जो काल से परे हैं, उन्हें काल की सीमा में लाकर उत्सव मनाया जा रहा है। जो सबमें बस रहे हैं, सब जिनमें बस रहे हैं उनका जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। 'अकालमूरत' को समय में लाया जा रहा है।
जो आदमी जैसा होता है उसकी दृष्टि और चेष्टा भी वैसी ही होती है। मनुष्य काल के प्रभाव में है और जन्मता-मरता है। इसलिए उस अकाल का, अजन्मा का जन्म-महोत्सव मनाता है।
जब-जब समाज अति व्यवहारी, बाह्य स्वार्थ से आक्रांत होता है, तब-तब निष्कामता, प्रेम, माधुर्य, सौन्दर्य का स्वाद चखाने समाज की उन्नति करने के लिए जो अवतरण होता है उसमें भगवान श्रीराम मर्यादा अवतार हैं, नृसिंह आवेश अवतार हैं। द्रोपदी की साड़ी खींची जा रही थी उस समय भगवान का प्रवेश अवतार था। परंतु कृष्णावतार प्रवेश अवतार नहीं है, आवेश अवतार भी नहीं है, मर्यादा अवतार भी नहीं है। वे तो लीलावतार हैं, पूर्णावतार हैं, माधुर्य अवतार हैं, ऐश्वर्य अवतार हैं, प्रेमावतार हैं। भगवान का माधुर्य, ऐश्वर्य, प्रेमयुक्त वर्णन कृष्णावतार में ही पाया जाता है।
रामावतार में दास्य भक्ति की बात है परंतु कृष्णावतार में सख्य भक्ति की बात है। श्रीकृष्ण को या तो सखा दिखता है या वात्सल्य बरसाने वाली माँ दिखती है या अपने मित्र-प्रेमी, ग्वाल-गोपियाँ दिखते हैं। जो अकाल है उसे काल में लाकर, जो अजन्मा है उसे जन्म में लाकर, हम अपना जन्म सँवारकर, अजन्मा तत्त्व का साक्षात्कार करने को जा रहे हैं।
रोहिणी नक्षत्र में, भाद्रपद मास(गुजरात-महाराष्ट्र में श्रावण मास) के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कंस के जेल में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है। कृष्ण पक्ष है, अँधेरी रात है। अँधेरी रात को ही उस प्रकाश की आवश्यकता है।
वर्णन आया है कि जब भगवान अवतरित हुए तब जेल के दरवाजे खुल गये। पहरेदारों को नींद आ गयी। रोकने-टोकने और विघ्न डालने वाले सब निद्राधीन हो गये। जन्म हुआ है जेल में, एकान्त में, वसुदेव-देवकी के यहाँ और लालन-पालन होता है नंद-यशोदा के यहाँ। ब्रह्मसुख का प्राकट्य एक जगह पर होता है और उसका पोषण दूसरी जगह पर होता है। श्रीकृष्ण का प्राकट्य देवकी के यहाँ हुआ है परंतु पोषण यशोदा माँ के वहाँ होता है। अर्थात् जब श्रीकृष्ण-जन्म होता है, उस आत्मसुख का प्राकट्य होता है तब इन्द्रियाँ और मन ये सब सो जाने चाहिए, शांत हो जाने चाहिए। जब इन्द्रियाँ और मन ये सब सो जाने चाहिए, शांत हो जाने चाहिए। जब इन्द्रियाँ और मन शांत हो जाते हैं तब बंधन के दरवाजे खुल जाते है। 'मैं' और 'मेरे' की भावनाएँ खत्म हो जाती हैं। जब इन्द्रियाँ सतर्क होती हैं, मन चंचल होता है तब मैं और मेरा बनता है। जब इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं, मन विश्रांति पाता है, तब मैं और मेरा नहीं रहता।
भगवान का प्राकट्य हुआ है। वसुदेव भगवान को उठाकर लिये जा रहे हैं, यशोदा के घर। आनंद का प्राकट्य और आनंद के पोषण के बीच, आनंद को देखकर आनंदित होने वाली यमुना की कथा आती है। यमुना जी सोचती हैं कि वे आनंदस्वरूप अकाल पुरूष आज साकार ब्रह्म होकर आये हैं। मैं उनके चरण छूने के लिए बढ़ूँ तो सही परंतु वसुदेव जी डूब गये तो ? वसुदेव जी डूब जायेंगे तो मुझ पर कलंक लगेगा कि आनंद को उठाये लिये जाने वाले को कैसे डुबाया ? अगर ऊपर नहीं बढ़ती हूँ तो चरण-स्पर्श कैसे हो ?
यमुनाजी कभी तरंगित होती हैं तो कभी नीचे उतरती हैं। वसुदेव जी को लगता है कि अभी डूबे-अभी डूबे। परंतु यमुना जी को अपनी इज्जत का, अपने प्रेमावतार परमात्मा का भी ख्याल है। बाढ़ का पानी वसुदेव जी को डुबाने में असमर्थ है ! यह कैसा आश्चर्य है ! उसे बाढ़ का पानी कहो या यमुना जी के प्रेम की बाढ़ कहो, उसने वसुदेव जी को डुबोया नहीं, और वसुदेव के सिर पर जो आनंदकंद सच्चिदानंद है उसके चरण छुए बिना चुप भी नहीं रहती। उछलती है, फिर सँभलती है।
आनंद भी अपने जीवन में उछलता है, सँभलता है। 'मेरा तेरा' लोक-लाज डूब न जाय, इसकी भी चिंता रहती है, फिर उछलता है। जब तक साधक आनंद के चरणस्पर्श नहीं कर लेता तब तक उसकी उछलकूद चालू ही रहती है।
आनंदस्वरूप श्रीकृष्ण समझ गये कि यमुना उछलकूद मचाती है। वसुदेव को डुबाने से तो डरती है और मेरे चरण छुए बिना चुप भी नहीं रहती। तब उस नंदनंदन ने अपना पैर पसारा है, यमुना जी को आह्लाद हुआ और यमुना जी तृप्त हुई हैं।
संतों का कहना है, महापुरूषों का यह अनुभव है कि निर्विकारी समाधि में आनंद का प्राकट्य हो सकता है परंतु आनंदस्वरूप प्रभु का पोषण तो प्रेमाभक्ति के सिवाय कहीं नहीं हो सकता। योगी कहता है कि समाधि में था, बड़ा आनंद था, बड़ा सुख था, भगवन्मस्ती थी, मगर समाधि चली गयी तो अब आनंद का पोषण कैसे हो ? आनंद का पोषण बिना रस के नहीं होता।
वसुदेव-देवकी ने तो आनंद-स्वरूप श्रीकृष्ण को प्रकट किया किंतु उसका पोषण होता है नंद के घर, यशोदा के घर। वसुदेव उन्हें नंद के घर ले गये है, यशोदा सो रही है। यशोदा के पालने में कन्या का अवतरण हुआ है। जहाँ प्रेम है, विश्रांति है वहाँ शांति का प्राकट्य होता है। जहाँ समाधि है वहाँ आनंद का प्राकट्य होता है।
हमारे शास्त्रकारों ने, पुराणकारों ने और ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों ने हमारे चित्त की बड़ी सँभाल की रखी है। किसी एक आकृति, मूर्ति या फोटो में कहीं रूक न जाये। भगवान की मूर्ति में देखते-देखते अमूर्त आत्मा-परमात्मा तक पहुँचे, ऐसी व्यवस्था है कदम-कदम पर हमारे धर्म में।
वसुदेव जी आनंदकंद कृष्ण कन्हैया को यशोदा के पास छोड़ते हैं और शक्ति स्वरूपा कन्या को ले आते हैं। उसे जेल में देवकी के पास रख देते हैं। कंस आता है। कंस यानी अहंकार। अहंकार देखता है कि यह तो बालक नहीं बालिका है। फिर भी इन्हीं की है, कैसे जीवित रखूँ ? कंस उस बालिका को मारता है। वह कन्या कंस के हाथों से छटक जाती है अर्थात् अहंकारी के पास शक्ति आती है तो उसके पास टिकती नहीं। उसका मनमाना काम करती नहीं। अहंकारी की शक्ति छटक जाती है।
'मैं' बना रहा, अहंकार बना रहा तो शक्ति आयेगी मगर टिकेगी नहीं। भक्ति हाथ से छिटक जायेगी। इसलिए हे साधक ! धन का अहंकार आये तो सावधान रहना। तेरे से बड़े-बड़े सत्ताधीश इस जहाँ से खाली हाथ गये। सौंदर्य का अहंकार आये तब भी सावधान रहना। अहंकार तुम्हें वसुदेव से दूर कर देगा, आत्मा-परमात्मा से दूर कर देगा।

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