पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, August 20, 2010


यौवन सुरक्षा-2  पुस्तक से - Yovan Suraksha-2 pustak se


यौवन का मूलः संयम-सदाचार

महर्षि सनत्सुजात ने महाराज धृतराष्ट के समक्ष ब्रह्मचर्य के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा हैः

नैतद् ब्रह्म त्वरमाणेन लभ्यं। यन्मां पृच्छन्नतिहृष्यतीयं।

बुद्धौ विलीने मनसि प्रचिन्त्या। विद्या हि सा ब्रह्मचर्येण लभ्या।।

'राजन् ! आपने मुझसे जो ब्रह्मविद्या के विषय में पूछा, वह त्वरायुक्त मानव को लभ्य नहीं है। मन प्रलीन होने पर बुद्धि में वह विद्या अवभासित होती है। ब्रह्मचर्य से ही उसको प्राप्त करना संभव है।'

(महाभारत, उद्योग पर्वः 44,2)

जीवन में पूर्ण सफल वही होता है, पूर्ण जीवन वही जीता है, पूर्ण परमेश्वर को वही पाता है जो संयमी है, सदाचारी है और ब्रह्मचर्य का पालन करता है।

जिसके जीवन में संयम है, सदाचार है और यौवन-सुरक्षा के नियमों का पालन है वह विद्यार्थी जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो सकता है, बड़े-बड़े कार्य उसके द्वारा संपन्न हो सकते है। ब्रह्मचर्य शरीर का सम्राट है। ब्रह्मचर्य से बुद्धि, तेज और बल बढ़ता है। ब्रह्मचर्य से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। ब्रह्मचर्य जीवनदाता से मुलाकात कराने में सहायक होता है।

.....किन्तु आज के वातावरण में ब्रह्मचर्य का पालन कठिन होता जा रहा है। चारों ओर ब्रह्मचर्य का नाश करने के साधन सुलभ हैं। जीवन को तेजोहीन करने की सामग्रियाँ खुलेआम मिलती हैं। लोग अश्लील नॉवेल (उपन्यास) पढ़ते है, अश्लील गीत सुनते है, चलचित्र देखते हैं, व्यसन करते हैं। इससे युवक के बल, बुद्धि, ओज-तेज और आयु का शीघ्र नाश हो जाता है और वह असमय ही वृद्धत्व का शिकार हो जाता है।

कुछ वर्षों पूर्व 'एक दूजे के लिए' इस नाम का एक सिनेमा देखकर कई युवक और युवतियों ने आत्महत्या कर ली। हालाँकि वह सिनेमा था, वास्तविकता नहीं थी। सिनेमा के नायक सचमुच में ऐसा नहीं करते, केवल अभिनय करके दिखाते हैं। फिर भी पढ़े लिखे कितने ही लोग आत्महत्या के शिकार हो गये। यह कैसी बेवकूफी है !

अश्लील उपन्यास, सिनेमा, गीत आदि मन को मलिन कर देते हैं। इसके फलस्वरूप तन भी कमजोर हो जाता है। कमजोर और दुर्बल पेट चाय-कॉफी पीने से वीर्य पतला होता है, स्नायु दुर्बल होते हैं एवं बुद्धिशक्ति कमजोर होती है। अतः इनसे भी बचना चाहिए। शराब, तम्बाकू आदि व्यसन भी जीवनशक्ति को कमजोर करके इन्सान को रोगी बना देते हैं। जो व्यक्ति सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोता रहता है उसका भी ओज-तेज नष्ट हो जाता है।

हम लोग जब नीचे के केन्द्रों में अथवा विकारों में जीते हैं, मांस-मदिरा का सेवन करते हैं अथवा कोई हल्के काम करते हैं तो उस वक्त पता नहीं चलता, सब सुखद लगता है किन्तु उसका परिणाम बड़ा दुःखद होता है।

हल्के काम-धन्धे से, हलके वातावरण से, हल्का साहित्य पढ़ने से, हलके सिनेमा देखने से, हलके खान-पान से आदमी का पतन हो जाता है, ब्रह्मचर्य खंडित हो जाता है तो अच्छे कार्यों से, अच्छा साहित्य पढ़ने से, अच्छे विकार से, अच्छे एवं सात्त्विक खान-पान से आदमी का उत्थान भी तो हो सकता है। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठने से, प्रतिदिन दस-बारह सूर्य नमस्कार व प्राणायाम करने से, प्रातःकाल की शुद्ध हवा लेने से, आसन करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।

चाय-कॉफी की जगह ऋतु के अनुकूल फलों का सेवन अच्छा स्वास्थ्य लाभ तो देता ही है, शरीर को पुष्ट भी करता है।

सात्त्विकि एवं अल्प आहार भी ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायक है। कम खाने का मतलब यह नहीं कि तुम 200 ग्राम खाते हो तो 150 ग्राम खाओ। नहीं, यदि तुम एक किलो पचा सकते हो और विकार उत्पन्न नहीं होता तो 190 ग्राम खाओ। किन्तु तुम पचा सकते हो 200 ग्राम, तो 210 ग्राम मत खाओ। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा में सहायता मिलती है और ब्रह्मचर्य की रक्षा होने से व्यक्ति में सामर्थ्य एवं सब सदगुण सहज विकसित होते हैं। जहाँ चाह वहाँ राह।

जहाँ मन की गहरी चाह होती है, आदमी वहीं पहुँच जाता है। अच्छे कर्म, अच्छा संग करने से हमारे अंदर अच्छे विचार पैदा होते हैं, हमारे जीवन की अच्छी यात्रा होती है और बुरे कर्म, बुरा संग करने से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं एवं जीवन अधोगति की ओर चला जाता है।

हर महान कार्य कठिन है और हलका कार्य सरल। उत्थान कठिन है और पतन सरल। पहाड़ी पर चढ़ने में परिश्रम होता है, पर उतरने में परिश्रम नहीं होता। पतन के समय जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ता है लेकिन परिणाम दुःखद होता है.... सर्वनाश.... उत्थान के समय आराम नहीं होता, परिश्रम लगता है लेकिन परिणाम सुखद होता है। कोई कहे किः 'इस जमाने में बचना मुश्किल है.... कठिन है....' लेकिन 'कठिन है....' ऐसा समझकर अपनी शक्ति को नष्ट करना यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? गयी सो गयी, राख रही को....

मन का स्वभाव है नीचे के केन्द्रों में जाना। आदमी विकारों में गिर जाता है फिर भी यदि उसमें प्रबल पुरुषार्थ हो तो वह ऊपर उठ सकता है। इस जमाने में भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने संयम किया है और संयम से बलवान हुए हैं।

पुरुषार्थ से सब संभव है लेकिन 'कठिन है.... कठिन है....' ऐसा करके कठिनता को मानसिक सहमति दे देते हैं तो हमारे जीवन में कोई प्रगति नहीं होती है। ध्रुव ने यदि सोचा होता कि 'प्रभु प्राप्ति कठिन है...' तो ध्रुव को प्रभु नहीं मिलते। प्रह्लाद ने यदि सोचा होता कि 'भगवद्-दर्शन कठिन है....' तो उसके लिए भगवद्-प्राप्ति कठिन हो जाती।

हम किसी कार्य को जितना 'कठिन है.... कठिन है.....' ऐसा समझते हैं, वह कार्य उतना ही कठिन हो जाता है लेकिन हम कठिन को न समझकर पुरुषार्थ करते हैं तो सफल भी हो सकते हैं। प्रयत्नशील आदमी हजार बार असफल होने पर भी अपना प्रयत्न चालू रखता है तो भगवान उसको अवश्य मदद करते हैं। हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा।

नष्ट-भ्रष्ट निस्तेज जीवन की कगार पर पहुँचे हुए कई युवक-युवतियों को किन्हीं पुण्यात्मा साधकों के द्वारा आश्रम से प्रकाशित 'यौवन सुरक्षा', 'पुरुषार्थ परम देव', 'योगयात्रा' पुस्तकें पढ़ने को मिलीं तो उनका जीवन बदल गया। ऐसे कई युवक-युवतियाँ हैं। दिल्ली के शेखरभाई, राजूभाई को तो लाखों लोग जानते हैं। 'यौवन सुरक्षा' पुस्तक ने उनका जीवन बदल दिया। युवाधन को बनाने के लिए, देश के भावी नागरिकों को तेजस्वी बनाने के लिए आश्रम से जुड़े हुए सभी पुण्यातमा अपने-अपने इलाकों में व्यक्तिगत रूप से युवक-युवतियों को 'यौवन सुरक्षा' पुस्तर पाँच बार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। यह छोटा-सा दिखने वाला काम अपने-आपमें एक बहुत बड़ा पुण्यकार्य है। एक युवक या युवती की जिन्दगी चमकी तो पूरा परिवार और पड़ोस भी लाभान्वित होगा।

हे विद्यार्थी ! ईश्वर की असीम शक्ति तेरे साथ जुड़ी है। तू कभी अपने को अकेला मत समझना। तेरे दिल में दिलबर और गुरु का ज्ञान दोनों साथ हैं। परमात्मतत्त्व और गुरुतत्त्व की चेतना इन दोनों का सहयोग लेते हुए, विकारों एवं नकारात्मक चिंतन को कुचलते हुए स्नेह और साहस से आगे बढ़ते जाना।

जो महान बनने वाले पवित्र विद्यार्थी हैं वे कभी नकारात्मक, फरियादात्मक चिंतन नहीं करते। जो महान बनना चाहते हैं वे कभी दुश्चरित्रवान व्यक्तियों का अनुकरण नहीं करते। जो महान बनना चाहते हैं वे कभी हलके कार्यों में लिप्त नहीं होते। ऐसे मुट्ठीभर दृढ़ संकल्पबलवाले व्यक्तियों का ही तो इतिहास गुणगान करता है।

हे विद्यार्थी ! तू दृढ़ संकल्प कर किः 'एक सप्ताह के लिए व्यर्थ का इधर-उधर समय नहीं गँवाऊँगा।' अगर युवक है तो संकल्प करे किः 'किसी भी युवती की तरफ विकारी भाव से निगाह नहीं उठाऊँगा।' अगर युवती है तो संकल्प करे किः 'किसी भी युवक की तरफ विकारी भाव से निगाह नहीं उठाऊँगी।' अगर देखना ही पड़े या बात करनी ही पड़े तो संयम को, पवित्रता को, गुरु को या भगवान को सर्वत्र उपस्थित समझकर फिर बात करो। हे विद्यार्थी ! तेरे जीवन के इस ओज को तू अभी से सुरक्षित कर दे। हे वत्स !

जैसे बीज में वृक्ष छुप, अरु चकमक में आग।

तेरा प्रभु तुझमें है, जाग सके तो जाग।।

जो विद्यार्थी प्रतिदिन भगवान का ध्यान करता है उसकी बुद्धि जरूर तेजस्वी होती है। जो विद्यार्थी प्रतिदिन मौन रहने का अभ्यास करता है उसका मनोबल बढ़ता है। जो विद्यार्थी आहार-विहार का ध्यान रखता है उसका तन तंदुरुस्त रहता है। जो विद्यार्थी माता-पिता और गुरुजनों की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है वह विद्यार्थी आगे चलकर एक श्रेष्ठ मनुष्य, एक श्रेष्ठ नागरिक और एक श्रेष्ठ साधक होकर अपने साध्य को भी पा लेता है।

आयुर्वेद के निष्णात वैद्यशिरोमणि धन्वन्तरि महाराज के शिष्यों ने उनसे पूछाः ''हे गुरुदेव ! आपकी शिक्षा, आपके उपदेश एवं आपके दिव्य गुणों को हम अपने जीवन में आसानी से कैसे उतारें ? इसका कोई सरल, सचोट एवं सुगम उपाय बताने की कृपा करें।"

धन्वन्तरिः "हे मेरे प्यारे शिष्यो ! सारी विद्याओं, सारी योग्यताओं एवं सारे सदगुणों को प्रगटाने वाला, सींचने वाला और बढ़ाने वाला गुण है ब्रह्मचर्य। तुम ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा जितनी समझोगे, तुम जितना सदाचारी और दिखावारहित सेवाभावी जीवन बिताने का दृढ़ संकल्प करोगे उतनी ही तुम्हारी आत्मशक्ति विकसित होगी।

ब्रह्मचर्य वत वह रत्न है, वह अमृत की खान है जो जीवात्मा को परमात्मा से मिला देती है। यदि तुम यौवन-सुरक्षा के नियमों को समझकर उसका पालन करोगे तो तुम आयुर्वेद में तो सफल होंगे ही, आत्मा-परमात्मा को पाने में भी सफल हो जाओगे।"

हे मेरे विद्यार्थियो ! तुम भी हलके विद्यार्थियों का अनुकरण मत करना वरन् तुम तो संयमी-सदाचारी महापुरुषों के जीवन का अनुकरण करना। उनके जीवन में कितनी विघ्न-बाधाएँ आयीं फिर भी वे लगे रहे। मीरा के जीवन में कितनी विघ्न-बाधाएँ आयीं फिर भी मीरा लगी रही। ध्रुव-प्रह्लाद के जीवन कितना प्रलोभन और बाधाएँ आयी, फिर भी वे लगे रहे। तुम भी उन्हीं का अनुकरण करना। हजार-हजार विघ्न-बाधाएँ आ जायें फिर भी जो संयम का, सदाचार का, सेवा का, ध्यान का, भगवान की भक्ति का रास्ता नहीं छोड़ता वह जीते जी मुक्तात्मा, महान आत्मा, परमात्मा के ज्ञान से संपन्न सिद्धात्मा जरूर हो जाता है और अपने कुल-खानदान का भी कल्याण कर लेता है। तुम ऐसे कुल दीपक बनना। हरि ॐ...... ॐ.... ॐ..... ॐ.....बल हिम्मत..... दृढ़ संकल्पशक्ति का विकास.... पवित्र आत्मशक्ति का विकास.... ॐ.....ॐ....

बाहर का जीवन भले सीधा-सादा हो लेकिन जिसने यौवनकाल में अपने यौवन की सुरक्षा की है वह चाहे जो भी संकल्प करे और उसमें लगा रहे तो देर-सबेर वह समता के सिंहासन पर पहुँच जाता है और अपने परमात्मप्राप्तिरूप लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है। वह चाहे तो अविनाशी पद को पाकर मुक्त भी हो सकता है। फिर तो जिस पर उसकी नजर पड़ेगी, वह भी धर्मात्मा होकर अपने कुल का उद्धार कर सकता है, इतना वह महान हो सकता है। नेपोलियन, सीजर और सिकंदर से भी तुम हजारगुना आगे जा सकते हो, ऐसा आत्मा-परमात्मा का बल तुम में छुपा हुआ है वत्स !

धन्वन्तरि महाराज ने अपने शिष्यों से कहाः "हे वत्सो ! तुमको जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होना हो तो उसके दो सूत्र हैं- यौवन-सुरक्षा और सदाचार।" ये दो ऐसे हथियार हैं जो हर क्षेत्र में विजय दिलवा देंगे। अगर इन दोनों चीजों से गिरे तो फिर चाहे तुम्हारे पास कितनी भी संपत्ति हो, कितने भी प्रमाण-पत्र हों फिर भी एक मजदूर की नाईं जीवन की गाड़ी घसीटते-घसीटते मर जाओगे।

अतः आज तक जो हो गया सो हो गया, जो बीत गया सो बीत गया... आज के बाद दृढ़ संकल्प करो कि 'यौवन सुरक्षा' और पुरुषार्थ परमदेव पुस्तक केक दो पृष्ठ रोज पढ़ेंगे। फिर देखो, तुम्हारा जीवन कितना महान हो जाता है ! जैसे, पक्षी दो पंखों से उड़ान भरता है, मनुष्य दो पैरों से चलता है, वैसे ही तुम भी संयम और सदाचार इन दो पंखों से उड़ान भरकर अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो जाओगे।

स्वप्न में भी यदि बुरे विचार आ जायें तो 'हरि ॐ.... ॐ..... ॐ..... ' की गदा मारकर उन्हें भगा देना। मैं भगवान का हूँ..... भगवान मेरे हैं.... मेरे साथ परमेश्वर हैं.... मेरे साथ गुरुदेव की कृपा है....' ऐसा विचार करोगे तो बड़ी मदद मिलेगी। गुरु का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन पाकर विषय-विकारों से, विघ्न-बाधाओं से छुटकारा पा सकते हो।

शाबाश वीर ! शाबाश.... उठो। हिम्मत करो। हताशा-निराशा को परे फेंको। असंभव कुछ नहीं। सब संभव है।

वह कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता ? तेरा जी न चाहेत तो हो नहीं सकता।।

छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे। इन्सान क्या दिले-दिलबर में घर न करे ?

परमात्मा तुम्हारे साथ है, परमात्मा की शक्ति तुम्हारे साथ है, सदगुरु की कृपा तुम्हारे साथ है फिर किस बात का भय ? कैसी निराशा ? कैसी हताशा ? कैसी मुश्किल ? मुश्कि हो जाये ऐसा खजाना तुम्हारे पास है। संयम और सदाचार.... ये दो सूत्र अपना लो, बस !

ब्रह्मचर्य का अर्थ

ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों पर काबू पाना। ब्रह्मचर्य में दो बातें होती हैं- ध्येय उत्तम होना, इन्द्रियों और मन पर अपना नियंत्रण होना।

ब्रह्मचर्य में मूल बात यह है कि मन और इन्द्रियों को उचित दिशा में ले जाना है। ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है। वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन का आधार है। आज तो आध्यात्मिक जीवन गिर गया है, उसकी स्थापना करनी है। उसमें ब्रह्मचर्य एक बहुत बड़ा विचार है। अगर ठीक ढंग सोचें तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के लिए ही है। शास्त्रकारों के बताये अनुसार ही अगर वर्तन किया जाय तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य की साधना का एक प्रकार हो जाता है।

पृथ्वी को पाप का भार होता है, संख्या का नहीं। संतान पाप से बढ़ सकती है, पुण्य से भी बढ़ सकती है। संतान पाप से घट सकती है, पुण्य से भी घट सकती है। पुण्यमार्ग से संतान बढ़ेगी या संतान घटेगी तो नुकसान नहीं होगा। पापमार्ग से संतान बढ़ेगी तो पृथ्वी पर भार होगा और पापमार्ग से संतान घटेगी तो नुक्सान होगा। यह संतान-निरोध के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन से सिर्फ संतान ही नहीं रुकेगी, बुद्धिमत्ता भी रूकेगी। यह जो सर्जनशक्ति (Creative Energy) है, जिसे हम 'वीर्य' कहते हैं, मनुष्य उस निर्माणशक्ति का दुरुपयोग करता है। उस शक्ति का दूसरी तरफ जो उपयोग हो सकता था, उसे विषय-उपभोग में लगा दिया। विषय-वासना पर जो अंकुश रहता था, वह नहीं रहा। संतान उत्पन्न न हो, ऐसी व्यवस्था करके पति पत्नी विषय-वासना में व्यस्त रहेंगे, तो उनके दिमाग का कोई संतुलन नहीं रहता। ऐसी हालत में देश तेजोहीन बनेगा। ज्ञानतंतु भी क्षीण होंगे, प्रभा भी कम होगी, तेजस्विता भी कम होगी।

आज मानव समाज में 'सेक्स' का ऊधम मचाया जा रहा है। मुझे इसमें युद्ध से भी ज्यादा भय मालूम होता है। अहिंसा को हिंसा का जितना भय है, उससे ज्यादा काम-वासना का है। कमजोरों की जो संतानें पैदा होती हैं, वे भी निर्वीर्य या निकम्मी होती हैं। जानवरों में भी देखा गया है। शेर के बच्चे कम होते हैं, बकरी के ज्यादा। मजबूत जानवरों में विषयवासना कम होती है, कमजोरों में ज्यादा। इसीलिए ऐसा वातावरण निर्माण किया जाय, जो संयम के अनुकूल हो। समाज में पुरुषार्थ बढ़ायें, साहित्य सुधारें और गंदा साहित्य, गंदे सिनेमा रोकें।

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