पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Saturday, May 8, 2010




श्रीकृष्ण दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Darshan pustak se
सच्ची पत्नी वह है जो पति को सहयोग दे और सच्चा पति वह है जो पत्नी को सहयोग दे। सच्चा मित्र वह है जो मित्र को सहयोग दे।
सच्चा सहयोग वह है जो उनको स्वतन्त्र कर दे।
सच्ची स्वतंत्रता वह है जिसमें बिना विषय के, बिना विकारों के, बिना पाप और ताप के सुखी रह सकें।
यही सच्ची स्वतन्त्रता है और इसी स्वतन्त्रता में पहुँचाने वाला सहयोग सच्चा सहयोग है।
जो स्त्री अपने पति को अपने देह में केन्द्रित करके सुख देना चाहती है, जो पति अपनी पत्नी का देह नोचकर ही सुखी रहना चाहता है, वास्तव में वे दोनों एक दूसरे के हितैषी नहीं हैं, कल्याण कारी नहीं हैं, एक दूसरे के शत्रु ही हैं।
सच्ची पत्नी वह है जो पति को प्रेम देकर उसके प्रेम को परमात्मा में पहुँचाने का प्रयत्न करे। सच्चा पति वह है जो पत्नी को समझ देकर, उसकी समझ जहाँ से स्फुरित होती है उस अधिष्ठान की तरफ से जाने में सहयोग करे। ऐसे पति-पत्नी एक दूसरे के परम हितैषी हैं, एक दूसरे के परम कल्याणकारी हैं।
बालक स्नेह करता है, स्नेह बरसाता है। वह नही देखता तुम्हारे धन को, नहीं देखता तुम्हारे पद प्रतिष्ठा को, नहीं देखता तुम्हारी कुर्सियों को। वह तो प्रेम बाँटता है। उस बालक से प्रेम करना सीखो। उन शिष्यों से भी सीखो जो निर्दोष प्रेम बाँटकर अपनी दृष्टि विश्वव्यापी बनाते हैं।
जागतिक वस्तुओं के बिना आपका व्यवहार तो नहीं चलता। तो क्या करें ? जागतिक वस्तुओं से, विषयों से और जागतिक सम्बन्धों से जो आपको हर्ष आता है, आनंद आता है उस हर्ष और आनंद को आप भीतर ले जाओ और भीतर के सच्चे आनन्द का प्रकटाकर विश्व में व्यापक कर दो.... आपकी दृष्टि व्यापक हो जायेगी, ब्रह्माकार बन जायेगी।
संसार की वस्तुओं का अत्यंत अनादर नहीं कर सकते, संसार के व्यवहार का अत्यंत अनादर नहीं कर सकते। साथ ही साथ संसार के सम्बन्धों में, व्यवहार में, वस्तुओं में आसक्ति करके अपने विनाश भी तो नहीं करना चाहिए।
संसार के सम्बन्ध हों, अच्छा है। पति-पत्नी का सम्बन्ध हो, अच्छा है। पिता-पुत्र का सम्बन्ध हो, अच्छा है। माँ-बेटे का सम्बन्ध हो, अच्छा है। भाई-बहन का सम्बन्ध हो, अच्छा है। मित्र-मित्र का सम्बन्ध हो, अच्छा है।
लेकिन....
आदमी जब इन सम्बन्धों में पूर्ण रूप से उलझ जाता है तब ये ही सम्बन्ध उसके लिए नरक के द्वार खोल देते हैं। जीते जी अशांति, कलह और विद्रोह की आग में जलना पड़ता है और मरने के बाद नरकों की यात्रा करनी पड़ती है। यह प्रकृति का अकाट्य नियम है।
तुम्हारे भीतर छुपे हुए स्नेह और आनन्द को जगाने के लिए तुम्हें बाहर के फूल, बाहर के फल, बाहर की हवाएँ, बाहर की सुविधाएँ, बाहर के सम्बन्ध, बाहर के स्नेही-मित्र-पड़ोसी दिये जाते हैं ताकि तुम भीतर के स्नेह और आनंद तक, भीतर के परम स्नेही और मित्र तक पहुँच जाओ, भीतर की सुवास तक पहुँच जाओ और आत्मानंद के फल को पा लो। तुम बाहर से भीतर जा सको। इसीलिए प्रकृति ने यह सब व्यवस्था की है।
लेकिन.....
तुम बाहर के सहारों में उलझ जाते हो। जैसे, बच्चा मेज के सहारे खड़ा है। मेज हटा दिया जाता है तो बच्चा गिर जाता है। प्रकृति भी तुम्हें बाहर के सहारे देती है ताकि तुम उनके द्वारा खड़े होकर फिर आत्मनिर्भर बन जाओ, परन्तु तुम उन सहारों में उलझ जाते हो। आत्मनिर्भर होने के बजाय पराधीन बन जाते हो। सुख के लिए बाह्य पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों की तरफ ताकते रहते हो। लेकिन प्रकृति माता बड़ी दयालु है। दिये हुए सहारे हटाकर तुम्हें सावधान करती रहती है।
तुम बाहर के फूल-फल, चीज-वस्तुएँ, स्नेही मित्र, सम्बन्धों के सहारे हो जाते हो तो समय पाकर वे सहारे ही तुम्हे निःसहाय बनाने लगते हैं। तुम्हारे मित्र ही शत्रुता करने लगते हैं, सफलता असफलता का रूप धारण करने लगती है। यह प्रकृति का बिल्कुल अकाट्य नियम है। ज्यों ही तुमने उन चीजों पर अपना आत्मकेन्द्र रखा, उन चीजों पर भरोसा किया, उन सम्बन्धों पर भरोसा किया, उनके सहारे ही खड़े रहे त्यों ही वे सब सहारे एक-एक करके हटा दिये जायेंगे। प्रिय पदार्थ छीन लिये जाएँगे। सम्बन्ध खट्टे होने लग जायेंगे।
प्रकृति माता आपकी उन्नति के लिए हर चीज देती है। जैसे, माँ बच्चें को चलना सिखाने के लिए गाड़ी देती है। अगर बच्चा गाड़ी से चिपका ही रहे तो माँ थप्पड़ मार कर गाड़ी छुड़ा देती है। बच्चा छोटा है तो माँ गोद में सुलाकर पयःपान कराती है परन्तु वही माँ समय आने पर नीम का रस अथवा कोई कडुवा रस स्तन पर लगाकर पयःपान छुड़ाती भी है।
ऐसे ही बाहर के सम्बन्धों की प्रारंभिक अनुकूलता के द्वारा तुम पा पा पगली चलो, चालनगाड़ी के सहारे चलो। पति-पत्नी के द्वारा, पुत्र-परिवार के द्वारा जो रस आता है उसके सहारे अपना भीतरी प्रेम प्रकटाने के लिए तैयार हो जाओ। इसीलिए यह संसाररूपी बालमंदिर है। उसमें आसक्ति करके चिपकने के लिए और उसके पराधीन होने के लिए नहीं है।
ज्यों ही उन सहारों पर आधारित हुए कि धोखा खाया। जो ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए वह अगर मित्र पर रखा तो वह मित्र जरूर तुम्हारा शत्रु हो जायगा या धोखा करेगा या तुमसे पहले चल बसेगा। आखिर तुमको रोना ही पड़ेगा।
बाहर के धन का थोड़ा-बहुत उपयोग कर लो, कोई मना नहीं, बाहर के वस्त्रों का उपयोग कर लो, कोई मना नहीं। किन्तु ज्यों ही तुम्हारा सुख उन वस्त्रों पर आधारित बनेगा त्यों ही वस्त्रों के निमित्त तुम्हें अशांति पैदा होगी। मोटर गाड़ी का उपयोग करो लेकिन ज्यों ही उसके आधार पर तुम्हारी प्रतिष्ठा बनेगी, जीवन सुखी भासेगा त्यों ही कुछ न कुछ गाड़ी विषयक गड़बड़ होगी। ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन टिकाया तो कुछ न कुछ विघ्न-बाधाएँ आयेंगे ही। .....और आने ही चाहिए। इसी में तुम्हारा हित छुपा है।
मानव ! तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है।
कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, सदब्रह्म तेरा वंश है।।
चैतन्य है तू अज अमल है, सहज ही सुख राशि है।
जन्में नहीं, मरता नहीं, कूटस्थ है अविनाशी है।।
तुम्हारे कुल-वंश-परंपरा देखें तो मूलतः ब्रह्म है, हाड़-मांस-चाम आदिवाले माता-पिता नहीं। हाड़-मांस के माता-पिता जिससे स्फुरित हुए, सृष्टि का जो आदि कारण है, अभी भी सृष्टि का जो आधार है, प्रलय के बाद भी जो रहता है वह सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा ही तुम्हारा आदि उदभव स्थान है। ब्रह्म की जात ही तुम्हारी जात है। तुम्हें गोविन्दभाई कहना, मोती भाई कहना, तुम्हें मनुष्य कहना.... मुझे लगता है कि मैं ईश्वर का अपमान कर रहा हूँ। तुम्हें अगर पटेल कहता हूँ तो मुझे लगता है मैं ईश्वर को गाली दे रहा हूँ। तुम्हें एक व्यक्ति कहता हूँ तो लगता है परमात्मा का अनादर कर रहा हूँ। वास्तव में व्यक्ति यह शरीर है। जिस दिन से तुम इस शरीर पर आधारित हो गये उसी दिन यह शरीर तुम्हें दुःख, चिन्ता और भय में घेर लेता है।
शरीर तुम्हारा एक साधन है। ऐसे साधन तुम्हें हर जन्म में मिलते रहे हैं। न जाने कितने-कितने साधन आज तक तुम्हें मिले। साधन को जब तुम साध्य-बुद्धि से पकड़ लेते हो तब वही साधन तुम्हारे लिए फाँसी बन जाता है। अथर्ववेद के 31वें अध्याय का पहला श्लोक हैः
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
'इस जगत में जो भी नाम-रूपात्मक स्थावर-जंगम पदार्थ हैं वे सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय हैं। उस नाम-रूपात्मक प्रपंच का त्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का पालन करो। गीध के समान लोलुप न बनो। यह धन किसी का नहीं है।'
(ईशावास्योपनिषदः1)
यह सारा जगत उस परब्रह्म परमात्मा की सत्ता से ओतप्रोत है। उसे त्याग से भोगो, आसक्ति से नहीं। ठण्डी मिटाने के लिए तुम्हारे पास वस्त्र हो, कोई हरकत नहीं। शरीर को निवास की आवश्यकता हो तो सीधा-सादा घर हो, साफ-सुथरा छोटा-सा घर हो तो काम चल जायगा। अगर चाहा कि, "बढ़िया इमारत बनवाऊँ, लोगों को दिखाऊँ, ठाठ से रहूँ....' तो वही इमारत तुम्हारी खोपड़ी के लिए मजदूरी बन जायेगी। ठण्डी गर्मी से शरीर की रक्षा करने के लिए सादे-सीधे वस्त्र हों तब तक तो ठीक है पर जब तुम वस्त्रों पर आधारित हो जाते तो वे ही वस्त्र तुम्हारे समय और शक्ति को खा जाते हैं, तुम्हारी चेतना को बिखेर देते हैं। ऐसे ही शरीर की तंदुरूस्ती के लिए भोजन करते हो तब तक तो ठीक है लेकिन भोजन के द्वारा मजा लेने लग गये तो वही भोजन फिर रोग का कारण बन जाता है।
ज्यों ही तुमने बाहर के साधनों पर सुख-बुद्धि की, सुख के निमित्त उन्हें पकड़ना चालू किया त्यों ही वे साधन तुम्हारे हाथ से खिसकना शुरू करेंगे। अथवा, ये साधन तुम्हें चिन्ता, भय, संघर्ष, शोक और अशांति की आग में झोंकने लगेंगे। इसीलिएः
तेन त्यक्तेन भुंजीथा।
त्याग से भोगो। बुलबुल गीत गा रही है.... कोयल गीत गा रही है... सुन लिया, ठीक है। लेकिन हररोज बुलबुल गाती रहे, कोयल भी गीत गाती रहे, फूल खिले हुए मिलें, मन्द-मन्द मधुर हवायें चलती रहें, अमुक मित्र सदा मिलता ही रहे, अमुक कुर्सी सदा बनी रहे, सदा मान मिलता रहे, अमुक कुटुम्बीजन ऐसा ही व्यवहार करता रहे, ऐसा आग्रह दिल में आ गया तो समझो वे परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी, चीजें छीन ली जायेगी, व्यक्तियों का स्वभाव और व्यवहार तुम्हारे प्रति बदल जायगा। उन वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थतियों के निमित्त कोई न कोई आपदा तुम्हें सहनी पड़ेगी। जो प्यार ईश्वर को देना चाहिए, जो आधार ईश्वर पर रखना चाहिए वह आधार अगर किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, समाज या सत्ता पर रखा या कुर्सी पर रखा तो धोखा खाओगे ही। कुर्सी नसीन को हटाया जाता है, गिराया जाता है अथवा उस कुर्सी के कारण अपनी शांति का भंग हो जाता है। यह प्रकृति का अकाट्य सिद्धान्त है।
हम दुःखी क्यों हैं ?
दुःख न भगवान बनाता है न प्रकृति बनाती है। दुःख बनाती है हमारी बेवकूफी। दुःख बनाती है हमारी नासमझी। जो प्यार हमें परमात्मा के प्रति बहाना चाहिए वह यदि साधनों के प्रति चिपकाया तो दुःख घेरेंगे ही। जो साधन का जिस ढंग से उपयोग करना चाहिए वह नहीं किया और उसके आधीन हो गये तो वही साधन हमारे लिए दुःख का साधन बन जाता है। कुआँ बनाया है शीतल जल के और कोई उसमें गिरकर मरे तो मर्जी उसकी। सरिता बह रही है। वह सिंह को भी पानी पीने देती है और गाय को भी। कोई उसमें कूदकर मरे तो मर्जी उसकी।
संसाररूपी सरिता से थोड़ा जल पीकर हमें अपना भीतर का सुख जगाना है। हम जब पानी के लिए बोरिंग करते हैं तो प्रारंभ में नदी से, तालाब से या किसी के कुएँ से पानी लाकर डालना पड़ता है, खुदाई करनी पड़ती है। पानी डालते हुए, खुदाई करते हुए जब गहरे पहुँच जाते हैं तो भीतर से पानी अपने आप उछलने लगता है।
अपने बोर का पानी प्रकटाने के लिए पहले दूसरों के बोर का पानी लाते हैं ऐसे ही विधाता ने अपने भीतर का आनंद छलकाने के लिए संसार के सुखों की सुविधा की है। संसार का जो सुख है, पति या पत्नी का जो प्रेम है, नन्हें मुन्ने शिशु का जो निर्दोष हास्य है, मधुर मुस्कान है वह निर्दोष ब्रह्म में जाने के लिए मिली है।
पत्नी जब पति के स्नेह को विकारों में ही बाँध रखने की इच्छा विस्तृत कर लेती है तो वह पत्नी पति के लिए शत्रु हो जाती है। ऐसे ही पति अगर पत्नी के प्रेम को विकारों के दायरे में केन्द्रित कर लेता है तो वह पत्नी का शत्रु हो जाता है।
मित्र का प्रेम परम मित्र परमात्मा को मिलने के लिए बड़ा सहयोगी बन सकता है लेकिन मित्र चाहे कि मित्र मुझसे ही मिलता रहे, मेरी तुच्छ, हल्की, निम्न इच्छाओं को पूर्ण करता रहे, मेरा देहाध्यास बढ़ाने में सहयोग देता रहे तो वे ही मित्र एक दूसरे को खड्डे में ले जाने वाले हो जाते हैं।
उन्हीं लोगों के बेटे प्रायः लुच्चे, बदमाश, भगेड़ु होते हैं जो लोग अपने कुटुम्ब के अन्दर छोटे-से दायरे में ही प्रीति करते हैं। जो लोग अपने प्रेम को व्यापक नहीं बनाते, अपने तन-मन-जीवन को 'बहुजनहिताय.... बहुजनसुखाय' प्रवृत्ति में नहीं लगाते अपितु पत्नी-पुत्र-परिवार के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित करते हैं, अपने परिवार से अति मोह करते हैं और दूसरे परिवारों का शोषण करते हैं वे ही लोग आखिर अपने परिवारों से दुतकारे जाते हैं, उन्हीं के बच्चे भाग जाते हैं, उन्हीं के बच्चे उनका विरोध करते हैं, उन्हीं के बच्चे उनकी अशांति का कारण बनते हैं।
जो प्रेम परमात्मा को करना चाहिए वह प्रेम अगर मोहवश होकर कुटुम्ब में केन्द्रित किया तो कुटुम्ब तुम्हें धोखा देगा। जो कर्म परमात्मा के नाते करना चाहिए वे ही कर्म अगर अहंकार पोसने के लिए किये तो जिनके वास्ते किये वे लोग ही तुम्हारे शत्रु बन जाएँगे। जो जीवन जीवनदाता को पाने के लिए मिला है, वह अगर हाड़-मांस के लिए खर्च किया तो वही जीवन बोझीला हो जाता है। 

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