पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, April 30, 2010



श्री गुरु रामायण पुस्तक से - Shri Guru Ramayan pustak se

तत्रतः स समायातो मुम्बईपुटमेदने।
लीलाशाह महाराजो यत्र स्वयं विराजते।।98।।

वहाँ से वे (आसुमल) मुम्बई नगर में आये, जहाँ पर गुरुदेव लीलाशाहजी महाराज स्वयं विराजमान थे।(98)

गुरुणां दर्शनं कृत्वा कृतकृत्यो बभूव सः।
गुरुवरोऽपि प्रेक्ष्य तं मुमुदे सिद्धसाधकम्।।99।।

गुरुदेव के दर्शन करके वे (आसुमल) कृतकृत्य हो गये और गुरुदेव भी उस सिद्धिप्राप्त साधक को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।(99)

वत्सं ! ते साधना दिव्यां विलोक्य दृढ़निश्चयम्।
प्रगतिं ब्रह्मविद्यायां मनो मे मोदतेतराम्।।100।।

"बेटा ! तेरी दिव्य साधना, दृढ़ निश्चय एवं ब्रह्मविद्या में प्रगति देखकर मेरा मन बहुत प्रसन्न हो रहा है।"(100)

साक्षात्कारो यदा जातस्तस्य स्वगुरुणा सह।
तदा स्वरूपबोधोऽपि स्वयमेवह्यजायत।।101।।

गुरुदेव के साथ जब उनकी भेंट हुई तब उनको (आसुमल को) स्वयं ही स्वरूपबोध (आत्मज्ञान) हो गया।(101)

गुरुणामशिषा सोऽपि स्वात्मानन्दे स्थिरोऽभवत्।
आनन्दसागरे मग्नो मायामुक्तो बभूव सः।।102।।

गुरुदेव की आशीष से वे (आसुमल) भी आत्मानन्द में स्थिर हो गये और आनन्दसागर में निमग्न वे (संसार की) माया से मुक्त हो गये।(102)

त्वया ब्राह्मी स्थितिः प्राप्ता योगसिद्धोऽसि साम्प्रतम्।
योगिनं नैव बाधन्ते नूनं कामादयोस्यः।।103।।
समदृष्टिस्तवया प्राप्ता पूर्णकामोऽसि साम्प्रतम्।
एवं विधो नरः सर्वान्समभावेन पश्यति।।104।।

"वत्स ! तुमने इस समय ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ली है और योगविद्या में तुम सिद्ध हो गये हो। योगी को काम-क्रोधादि शत्रु कभी नहीं सताया करते। अब तुमने (योगबल से) समदृष्टि प्राप्त कर ली है और तुम पूर्णकाम हो गये हो। ऐसा पुरुष सबको (प्राणीमात्र) को समभाव से देखता है।"(103, 104)

गुरुणां पूर्णतां प्राप्य नश्यति सर्वकल्मषम्।
अपूर्णः पूर्णतामेति नरो नारायणायते।।105।।

गुरुदेव से पूर्णता प्राप्त करके (मनुष्य के) सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अपूर्ण (मनुष्य) पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और नर स्वयं नारायण हो जाता है।(105)

ईशनेत्रख नेत्राब्दे ह्याश्विनस्य सिते दले।
द्वितीयायां स्वयमासुस्वरूपे स्थितोऽभवत्।।106।।

विक्रम संवत 2021 आश्विन सुदी द्वितिया को आसुमल को गुरुकृपा से अपने स्वरूप का बोध हुआ।(106)

समदृष्टिं यदा जीवः स्वतपसाऽधिगच्छति।
तदा विप्रं गजं श्वानं समभावेन पश्यति।।107।।

जब जीव अपनी तपस्या से समदृष्टि प्राप्त कर लेता है तब वह ब्राह्मण, हाथी एवं कुत्ते को सम भाव से देखता है। (अर्थात् उसे समदृष्टि से जीवमात्र में सत्य सनातन चैतन्य का ज्ञान हो जाता है।(107)

गच्छ वत्स ! जगज्जीवान् मोक्षमार्गं प्रदर्शय।
अधुनाऽऽसुमलेन त्वं आसारामोऽसि निश्चयः।।108।।
निजात्मानं समुद्धर्तुं यतन्ते कोटिशो नराः।
परं तु सत्य उद्धारः ज्ञानिना एव जायते।।109।।
कुरु धर्मोपदेशं त्वं गच्छ वत्स ममाज्ञया।
जनसेवां प्रभुसेवां प्रवदन्ति मनीषिणः।।110।।

(परम सदगुरु पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज ने कहाः) "वत्स ! अब तुम जाओ और संसार के जीवों को मोक्ष का मार्ग दिखाओ। अब तुम मेरे आशीर्वाद से 'आसुमल' के स्थान पर निश्चय ही 'आसाराम' हो। अपने आप का उद्धार करने के लिए के लिये तो करोड़ों लोग लगे हुए हैं, किन्तु सच्चा उद्धार तो ज्ञानी के द्वारा ही होता है। बेटा ! तुम जाओ और मेरी आज्ञा से जनता को धर्म का उपदेश करो। विद्वान लोग जनसेवा को ही प्रभुसेवा कहते हैं।"(108, 109, 110)

प्रणम्य गुरुदेवं स डीसाऽऽश्रमे समागतः।
बनासस्य तटे तत्र विदधाति स साधनाम।।111।।

गुरुदेव को प्रणाम करके वे (संत श्री आसारामजी बापू) वहाँ से डीसा के आश्रम में आये और वहाँ बनास नदी के तट पर नित्य प्रति साधना करने लगे।(111)

प्रातः सायं स्वयं गत्वा ध्यानमग्नः स जायते।
निर्ममो निरहंकारो रागद्वेषविवर्जितः।।112।।

वे प्रातः सायं बनास (नदी के तट पर) जाकर ध्यान में मग्न हो जाया करते थे। वे ममता, अहंकार एवं राग और द्वेष से रहित थे।(112)

आयाति स्म जपं कृत्वा एकदा स निजाश्रमम्।
दृष्टो जनसमारोहो मार्गे तेन तपस्विना।।113।।

एक दिन वे (नदी के तट पर) जप-ध्यानादि करके जब अपने आश्रम की ओर आ रहे थे तब उन तपस्वी ने मार्ग में एक जनसमूह को देखा।(113)

पश्यन्ति मरणास्थां गामेकां परितः स्थिताः।
एकं जनं समाहूय जगाद च महामनाः।।114।।
गत्वा गवि जलस्यास्य कुरु त्वमभिषेनम्।
उत्थाय चलिता धेनुस्तेन दत्तेन वारिणा।।115।।

ये लोग एक मृत गाय के पास चारों ओर खड़े उसे देख रहे थे। उन मनस्वी संत ने (उनमें से) एक आदमी को अपने पास बुलाकर उससे कहाः "तुम जाकर उस गाय पर इस जल का अभिषेचन करो।" (उन संत ने) दिये हुए जल के अभिषेचन से वह गाय उठकर चल पड़ी।(114, 115)

अहो ! तपस्विनां शक्तिर्विचित्राऽस्ति महीतले।
कीर्तयन्ति तदा कीर्ति सर्वे ग्रामनिवासिनः।।116।।

(गाय को चलती देखकर लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया और कहाः) "अहो ! पृथ्वी पर तपस्वियों की शक्ति विचित्र है !" (इस प्रकार) गाँव के सब निवासी (संत की) कीर्ति का गुणगान करने लगे।(116)

नारायण हरिः शब्दं श्रुत्वैका गृहिणी स्वयम्।
अभावपीडिता नारी प्रत्युवाच कटुवचः।।117।।
युवारूपगुणोपेतो याचमानो न लज्जसे।
स्वयं धनार्जनं कृत्वा पालय त्वं निजोदरम्।।118।।

(एक बार संत श्री आसारामजी ने तपस्वी धर्म पालने की इच्छा से भिक्षावृत्ति करने का मन बनाया और गाँव में एक घर के आगे जाकर कहाः) "नारायण हरि...." यह सुनकर अभाव से पीड़ित गृहस्वामिनी ने अति कठोर वाणी में कहाः "तुम नौजवान और हट्टे-कट्टे होते हुए भी यह भीख माँगते तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम स्वयं कमाकर अपना उदरपालन करो।(117, 118)

बोधितो योगिना सोऽपि विवाहाद्धिरतोऽभवत्।
महात्मा संप्रतिजातः सोऽपि तेषां शुभाशिषा।।120।।

योगीराज द्वारा समझाया हुआ वह भी (तीसरे) विवाह से विरक्त हो गया। उनके शुभ आशीर्वाद से वह भी महात्मा बन गया।(120)
शिवलालः सखा तस्य दर्शनार्थं समागतः।
कुटीरे साधनाऽऽसक्तो भोजनं कुरुते कुतः।।121।।

उनके मित्र शिवलाल (संत जी के) दर्शन के लिए आया। वह रास्ते में सोचने लगाः 'कुटिया में साधना में मग्न (ये संत) भोजन कहाँ से करते हैं?' (121)

मनसा चिन्तितं तस्य पूज्यबापूः स्वयमवेत्।
भाषणे स जगाद तं मिथ्यास्ति तव चिन्तनम्।।122।।
अद्यापि वर्तते पिष्टं भोजनाय ममाश्रमे।
चिन्तां परदिनस्य तु वासुदेवो विधास्यति।।123।।
योगक्षेमं स्वभक्तानां वहति माधवः स्वयं।
एवं स शिवलालोऽपि साधनायां रतोऽभवत्।।124।।

उसने अपने मन में जो विचार किया था, पूज्य बापू ने सत्संग में उसका जिक्र किया और कहाः "तेरा सोचना मिथ्या है (क्योंकि) मेरे आश्रम में भोजन के लिए आज भी आटा है और अगले दिन की चिन्ता भगवान वासुदेव करेंगे। अपने भक्तों के योगक्षेम की रक्षा तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं करते हैं।" इस प्रकार वे शिवलाल भी (सत्संग के प्रभाव से) भगवद् आराधना में लग गये।(122, 123, 124)

पंगुमेकं रूदन् दृष्टवा पारमिच्छन्नदीटम्।
शीघ्रमारोपितं स्कन्धे नदीपारं तदाऽकरोत्।।125।।

(एक बार) नदी के पार करने की इच्छावाले एक पंगु को रूदन करता हुआ देखकर (श्री आसारामजी बापू ने) शीघ्र ही उसको अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करवा दी।(125)

कार्यं कर्तुमशक्तोऽहं पीडितः पादपीडया।
स्वकीय कर्मशालायाः श्रेष्ठिनाहं बहिष्कृतः।।126।।
किं करोमि क्व गच्छामि चिन्ता मां बाधतेतराम्।
कुतोऽहं पालयिष्यामि परिवारमतः परम्।।127।।

(मजदूर ने कहाः) "मैं काम करने में असमर्थ हूँ क्योंकि मेरे पैर चोट लगी हुई है। सेठ ने मुझे काम से निकाल दिया है। अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मुझे यह चिन्ता सता रही है कि अब मैं अपने परिवार का पालन कैसे करूँगा?" (126, 127)

गन्तव्यं तु त्वया तत्र कार्यसिद्धिर्भविष्यति।
एवं स सफलो जातस्तदा तेषां शुभाशिषा।।128।।

(पूज्य बापू ने कहाः) "अब तुम फिर वहाँ जाओ। तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जायेगा।" इस प्रकार उनके (संत के) शुभाशीर्वाद से वह सफल हो गया। (128)

पूज्यबापुप्रभावेण मद्यपा मांसभक्षिणः।
सर्वे सदवृत्यो जाता अन्ये व्यसनिनोऽपि च।।129।।

शराब पीने वाले, मांस खाने वाले लोग एवं अन्य व्यसनी भी पूज्य बापू के प्रभाव से सदाचारी हो गये।(129)

प्रवचने समायान्ति नानार्यो अनेकधा।
योगिना कृपया भूतः डीसा वृन्दावनमिव।।130।।

(वहाँ उनके) प्रवचन में अनेक प्रकार के स्त्री और पुरुष आते थे। (वहाँ) योगी की कृपा से वह डीसा नगर उस समय वृंदावन-सा हो गया था।(130)

समायान्ति सदा तत्र बहवो दुःखिनो नसः।
लभन्ते हृदये शांतिं रोगशोकविवर्जिताः।।131।।

अनेक दुःखी लोग सदा वहाँ (सत्संग में) आया करते थे और वे रोग, शोक एवं चिन्ता से मुक्त होकर हृदय में शांति प्राप्त करते थे।(131)

संतस्य कृपा नूनं तरन्ति पापिनो नराः।
परन्तु पापिना सार्धं धार्मिकोऽपि निमज्जति।।132।।

संत की कृपा से पापी लोग भी (भवसागर से) पार हो जाया करते हैं किन्तु पापी के साथ धार्मिक लोग भी डूब जाया करते हैं।(132)

को भेदो वदत यूयं सुविचार्य विशेषतः।
साधुषु योगसिद्धेषु साधारणजनेषु च।।133।।

(एक बार सभा में योगीराज ने श्रोताओं से पूछाः) "आप सब लोग विशेष रूप से विचार कर बताइये कि योगसिद्ध साधुओं में और साधारण मनुष्यों में क्या अन्तर है? (133)

एकः श्रोता जगाद तं कोऽपि भेदो न विद्यते।
समाना मानवाः सर्वे वदन्तीति मनीषिणः।।134।।

(उनमें से) एक श्रोता ने कहाः "(योगी और साधारण जन में) कोई भेद नहीं है। विद्वान लोग कहते हैं कि सब मानव समान हैं।"(134)

चचाल तत्रतो योगी विहाय स निजाश्रमम्।
केवलमेकवस्त्रेण सहितं स तपोधनः।135।।

(श्रोता से यह उत्तर सुनकर) तपस्वी योगीराज केवल एक वस्त्र (केवल अधोवस्त्र) के साथ आश्रम को छोड़कर चल पड़े।(135)

प्रार्थनां कृतवन्तरते सर्वे भक्ता मुहुर्मुहुः।
परन्तु साधवो नूनं भवन्ति दृढ़निश्चयाः।।136।।

(वहाँ सभा में स्थित) सभी श्रोताओं ने बार-बार (संत से) प्रार्थना की किन्तु साधु लोग तो अपने निश्चय पर सदैव स्थिर रहते हैं।(136)

मायया मोहता नूनं न भवन्ति तपस्विनः।
त्यजन्ति ममतां मोहं कामरागविवर्जिताः।।137।।

तपस्वी लोग माया से मोहित कभी नहीं होते, काम और राग से रहित (संत लोग) मोह और ममता को त्याग देते हैं।(137)

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