पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, April 19, 2010



ज्ञानी की गत ज्ञानी जाने... पुस्तक से  - Gyani ki Gat Gyani Jaane... pustak se

'श्री सुखमनी साहिब' में ब्रह्मज्ञानी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया हैः

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरु।।
ब्रह्म गिआनी सरब का ठाकुरु।।
ब्रह्म गिआनी कि मिति कउनु बखानै।।
ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै।।

'ब्रह्मज्ञानी के बारे में आधा अक्षर भी नहीं कहा जा सकता है। वे सभी के ठाकुर हैं। उनकी मति का कौन बखान करे? ब्रह्मज्ञानी की गति को केवल ब्रह्मज्ञानी ही जान सकते हैं।'
ऐसे ब्रह्म ज्ञानी के, ऐसे अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों के शाह के व्यवहार की तुलना किस प्रकार, किसके साथ की जाय?
शुकः त्यागी कृष्ण भोगी जनक राघव नरेन्द्राः।
वशिष्ठ कर्मनिष्ठश्च सर्वेषां ज्ञानीनां समानमुक्ताः।।

'शुकदेव जी त्यागी हैं, श्री कृष्ण भोगी हैं, जनक और श्रीराम राजा हैं, वशिष्ठजी महाराज कर्मनिष्ठावाले हैं फिर भी सभी ज्ञानियों का अनुभव समान है।'

'श्री योग वाशिष्ठ महारामायण' में वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
'ज्ञानवान आत्मपद को पाकर आनंदित होता है और वह आनंद कभी दूर नहीं होता, क्योंकि उसको उस आनंद के आगे अष्टसिद्धियाँ तृण के समान लगती हैं। हे राम ! ऐसे पुरुषों का आचार तथा जिन स्थानों में वे रहते हैं, वह भी सुनो। कई तो एकांत में जा बैठते हैं, कई शुभ स्थानों में रहते हैं, कई गृहस्थी में ही रहते हैं, कई अवधूत होकर सबको दुर्वचन कहते हैं, कई तपस्या करते हैं, कई परम ध्यान लगाकर बैठते हैं, कई नंगे फिरते हैं, कई बैठे राज्य करते हैं, कई पण्डित होकर उपदेश करते हैं, कई परम मौन धारे हैं, कई पहाड़ की कन्दराओं में जा बैठते हैं, कई ब्राह्मण हैं, कई संन्यासी हैं, कई अज्ञानी की नाईं विचरते हैं, कई नीच पामर की नाईं होते हैं, कई आकाश में उड़ते हैं और नाना प्रकार की क्रिया करते दिखते हैं परन्तु सदा अपने स्वरूप में स्थित हैं।'
"ज्ञानवान बाहर से अज्ञानी की नाईं व्यवहार करते हैं, परंतु निश्चय में जगत को भ्रांति मात्र जानते हैं अथवा सब ब्रह्म जानते हैं। वे सदा स्वभाव में स्थित रहते हैं और अनिच्छित प्रारब्ध को भोगते हैं, परंतु जाग्रत में सुषुप्ति की नाईं स्थित रहते हैं।"
(श्रीयोगवा. निर्वाण प्र. सर्ग. 212)
ज्ञानवान को कैसे पहचाना जाय? तस्य तुलना केन जायते? उनकी तुलना किससे करें? इसीलिए नानकजी ने कहाः
ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जाने।
'ब्रह्मज्ञानी की गति को तो केवल ब्रह्मज्ञानी ही जान सकते हैं।'

कुछ ऐसे ज्ञानवान हैं जो लोकाचार करते हैं, उपदेश देते हैं, वैदिक ज्ञानध्यान का प्रकाश देते हैं। कुछ ऐसे हैं कि सब कुछ छोड़कर एकांत में समाधि में रहते हैं। कुछ ज्ञानवान ऐसे हैं कि पागलों जैसा या उग्ररूप धारण कर लेते हैं और लोक संपर्क से बचे रहते हैं। कुछ ऐसे होते हैं कि लोकांतर में योग शक्ति से विचरण करते हैं और कोई ऐसे होते हैं कि योद्धा और राजा होकर राज करते हैं।

जैसे - भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे बड़ा राजकाज करते हैं - द्वारिका का राज चलाते हैं, संधिदूत बनकर जाते हैं, 'नरो वा कुंजरो वा' भी कर देते हैं, करवा देते हैं, रणछोड़राय भी हो जाते हैं परंतु अदर से ज्यों-के-त्यों हैं ! अरे ! वह कालयवन नाराज है, भागो-रे-भागो ! कहकर भाग जाते हैं तो कायर लोग बोलेंगे कि हम में और श्रीकृष्ण में कोई फर्क नहीं है। हम भी भागते हैं और श्रीकृष्ण भी भाग गये। अरे मूर्ख ! श्रीकृष्ण भागे, परंतु वे अपने आप में तृप्त थे। उनका भागना भय या कायरता नहीं, व्यवस्था थी, माँग थी किंतु औरों के लिए विवशता और कायरता होती है। वे रण छोड़कर भागे हैं, युद्ध का मैदान छोड़कर भागे हैं फिर भी कहा जाता है - रणछोड़राय की जय ! क्योंकि वे अपने आप में पूर्ण हैं, सत्ता समान में स्थित हैं।

ऐसे ही भगवान श्री राम 'हा सीता, हा ! सीते' कर रहे हैं.... कामी आदमी पत्नी के लिए रोये और श्रीराम जी रोते हुए दिखें, बाहर से तो दोनों को एक ही तराजू में तौलने का कोई दुःसाहस कर ले परंतु श्रीरामचंद्रजी ' हा सीते ! हा सीते !' करते हुए भी भीतर से तो अपने सत्ता समान में स्थित हैं।
शुकदेव जी महाराज को देखें तो महान त्यागी और श्रीकृष्ण बड़े विलक्षण भोगी... राजा जनक को देखें तो भोग और राज-काज में उलझे दिखेंगे और वशिष्ठ जी बड़े कर्मकांडी... इन सब ज्ञानियों का व्यवहार अलग-अलग है, परंतु भीतर से सब समान रूप से परमात्म-अनुभव में रमण करते हैं।

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