पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, February 3, 2010



जीते जी मुक्ति पुस्तक से - Jeetey Jee Mukti pustak se

जो भगवान के शरण जाते हैं, भगवान उनके हो जाते हैं। जो ईश्वर के हो जाते हैं, ईश्वर उनका हो जाता है। फिर उनके द्वारा भगवान जो भी संकल्प कर दे, कहला दे वह घटना तुरन्त ही प्रकृति में घटने लगती है। द्रौपदी के वस्त्राहरण का प्रसंग आपने कथा में सुना होगा। दुःशासन वस्त्र खींच रहा है तब द्रौपदी युधिष्ठिर की ओर निहार रही है, दूसरे पाण्डवों की ओर निहार रही है, बुजुर्गों की ओर निहार रही है। तब तक उसे दुःशासन का भय है। जब वह भगवान की शरण आ गई तो वह पूर्णतया सुरक्षित हो गई। भगवान का वहाँ वस्त्रावतार हो गया। दुःशासन साड़ियाँ खींचते थक गया। लेकिन द्रौपदी को निर्वस्त्र नहीं कर पाया। वे साड़ियाँ कौन-सी मील से आयी होंगी ?
जो परमात्मा के शरण हो जाता है परमात्मा उसके अंतिम समय में तथा भारी विपत्तियों के समय में उसकी रक्षा करता है। अगर हम ईमानदारी से परमात्मा के शरण हैं तो जितने सुनिश्चिन्त होते हैं, सुखी होते हैं, सुरक्षित होते हैं उतने कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी, मित्र, राजा, महाराजा, सम्राट आदि सब मिलकर भी हमें सुखी, सुनिश्चिन्त और सुरक्षित नहीं कर सकते... जितने परमात्मा की शरण से सुनिश्चिन्त और सुरक्षित होते हैं।
नेता, राजा-महाराजाओं को सहारा कई लोगों ने लिया लेकिन कुछ कल्याण नहीं हुआ। भगवान की शरण लेने पर शायद प्रारब्ध वेग से कोई कष्ट आ भी जाय तो भी भक्त समझता है कि, 'कष्ट देह को हो रहा है। तेरी मरजी पूरण हो....।'
जब चित्त में 'तेरी मरजी पूरण हो....' का भाव आ जाता है तो परमात्मा तुरन्त हमें अपना बना लेता है। वास्तव में तो हम है ही परमात्मा के और परमात्मा हमारा है लेकिन हम चित्त में रहकर ममता में, वासना में रहकर, इच्छाओं में रहकर जीना चाहते हैं। माया के गुणों में रहकर वासनाओं के अनुसार अपना जीवन गँवाते हैं। इसी से हम दीन-हीन हो गये हैं, वरना परमात्मा हमसे दूर नहीं। दुःखी होने का तो कोई कारण ही नहीं है।
परमात्मा जिसके साथ है, परमात्मा की सत्ता से दिल की धड़कने चल रही हैं, परमात्मा की सत्ता से हमारी आँखें देख रही हैं, परमात्मा की सत्ता से हमारे कान सुन रहे हैं इतने हम परमात्मा के निकट हैं फिर दुःखी क्यों हैं ?
तुम मानो चाहे न मानो लेकिन जिस सत्ता से श्रोता के कान सुन रहे हैं उसी सत्ता से वक्ता की जिह्वा चल रही है। जिस सत्ता से श्रोता की आँखें वक्ता को निहार रही हैं उसी सत्ता से वक्ता की आँखें श्रोताओं की ओर निहार रही हैं। दोनों तरफ की आँखों में सत्ता एक ही परमात्मा की है। इस प्रकार की स्मृति अगर बनी रहे तो आहा... ! उसके लिए माया तरना कोई कठिन काम नहीं है। उसके लिए माया है ही नहीं। है तो अति छोटी है, अति तुच्छ है।
जो लोग माया की चीजों को, माया के शरीरों को, माया के सम्बन्धों को सच्चा मानकर सुखी होना चाहते हैं और माया से तरना चाहते हैं उनके लिए तो माया बड़ी दुस्तर है।
जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं।
अंतराम कछु आवत नाहीं।।
जिसके हृदय में परमात्मा के लिए प्रीति है उसको अगर संसार का सुख दिया भी जाय, उसकी वाहवाही की जाय, उसको यश दिया जाय, उसको सुख-सुविधाएँ मिल जाय फिर भी वह इन चीजों में फँसता नहीं और इन चीजों को पाकर अपने को भाग्यवान नहीं मानता। इस तुच्छ यश, मान, भोग, विलास का कोई महत्त्व ही नहीं होता उसके चित्त में।
हम लोग तो परिश्रम करके संसार का सुख, ऐशो-आराम, वाहवाही, शरीर की सुविधाएँ पाकर अपने को भाग्यवान मानते हैं। जिनको परमात्मा की स्मृति मिल गई है, जिनको परमात्मा घर-गृहस्थी में दिखते हो, उनको संसार की सब सुविधाएँ मिलती हों, यश होता हो तभी भी वे चित्त से उपराम रहते हैं। वे समझते हैं, और भगवान से कहते हैं किः 'हे प्रभु ! हमने क्या पाप किया है कि तेरी स्मृति हटाने वाले पदार्थ हमें दे रहा है हम पर क्यों नाराज है ?'
शंकराचार्य ने ठीक ही कहा हैः
सो संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती की बाड़ किस काम की ?
वे नूर बेनूर भले जिसमें पिया की प्यास नहीं।।
''वे आँखें हमारी फूट जाएँ जिन आँखों में ईश्वर के लिए आँसू न बहें। वह दिल हमारा धड़कने से रुक जाय जिस दिल में दिलबर को याद न हो। हमारे उस व्यवहार आग लगे जो तेरे आनन्द से हमको दूर कर दे।'
उनके उपराम चित्त में ऐसा हुआ करता है। 'हमारी सुविधाओं और वाहवाही को हे भगवान ! तू अभी-अभी छीन ले लेकिन तू अपनी प्रीति हमसे मत छीन। दुनिया की चीज तू छीन ले, तेरी बड़ी कृपा होगी लेकिन तू अपनी रहेमत मत छीनना, अपना करुणा मत छीनना, अपना अलौकिक स्वभाव हमसे मत छीनना।'
तकदीर न कैसां डोह करे।
शल केर प्रभुखां थे न परे।।
हे मुकद्दर ! तू किसी से धोखा मत करना। तू छीनना चाहता है तो हमसे रूपये छीन लेना, क्योंकि आखिर मौत छीन ही लेगी। मौत मारकर छीन लेती है, तू जीते जी छीन ले, क्या फर्क पड़ता है। तू जीते जी हम से रूपये छीन लेगा तो हमें वैराग्य आ जायगा। तू कपड़े छीन लेना चाहता है तो छीन लेना हमसे भगवान की भक्ति मत छीनना, प्रभु का प्यार मत छीनना।
हे तकदीर ! तू हमसे धोखा करना चाहती है तो कोई संसार की चीज छीनकर धोखा कर लेकिन भगवान की भक्ति मत छीनना।
जिसके पास भगवान की भक्ति रहती है उसके पास तो संसार की चीजें दासानुदास बनकर रहती हैं।
जिसको परमात्मा के स्मरण का मूल्य पता है, जिसने परमात्मा के मार्ग में कदम रखा है उनके लिए संसार की सुविधाएँ, संसार का सुख त्यागना कोई बड़ी बात नहीं है। जो अभागे परमात्मा को त्यागकर बैठे हैं उनको तो संसार का सुख भी नहीं मिलता, थप्पड़ें ही मिलती हैं।
सौ सौ जूते खाएंगे।
तमाशा घूसे के देखेंगे।।
सौ-सौ अपमान होंगे, सौ-सौ ताने सुनने पड़ेंगे, सौ-सौ फटकार बरसेंगे लेकिन काम वही करेंगे जो काम हमें जन्म-मरण के चक्कर में घसीटता रहे। इच्छाएँ वही करेंगे, संकल्प वही करेंगे जिसके कारण हम नराधम हो जायँ।
जो दुष्कृत करने वाले हैं वे नरों में अधम हैं। पशु लोग तो अपने कर्मों का फल भोग कर ऊँची गति को पाते हैं, फिर मनुष्य बनते हैं और ये मनुष्य अभागे, विकारी जीवन जीकर, पापकर्म करके, भगवान से विमुख होकर, मायाजाल में पड़कर पशु योनि में जाने की तैयारी करते हैं। वे तो पशुओं से भी बदतर हैं। पशु तो दुःख भोगकर, कर्म भोगकर अपने पाप काटते हैं और मनुष्य योनि में आने की यात्रा कर रहे हैं। जबकि मनुष्य भगवान को भूलकर संसार के सुख लेने के पीछे, विकार तृप्त करने के लिए, देह का अहं पुष्ट करने के लिए प्रयत्न करते हैं। वे पापाचारी नराधम कहे जाते हैं।
जो 'दुष्कृतिनः' हैं उनको भगवान मे रूचि नहीं होती। जो पापी हैं उनको भगवान में प्रीति नहीं होती। अगर उनको भगवान में प्रीति हो जाए तो पापी पापी नहीं रहता। भगवान की शरण आ जाय तो अभागा अभागा नहीं रहता।
सिनेमाघर में जाने के लिए टिकट चाहिए, पैसे चाहिए। परदेश जाने के लिए पासपोर्ट चाहिए, विद्या चाहिए, पैसे चाहिए। स्वर्ग में जाने के लिए पुण्य चाहिए। शादी करने के लिए भी दुल्हन चाहिए। नौकरी के लिए भी प्रमाणपत्र चाहिए। नौकरी में बढ़ती के लिए भी योग्यता चाहिए, जान-पहचान चाहिए। ये सब होने पर भी इनसे जो चीजें मिलती हैं उनसे व्यक्ति को शाश्वत सुख, शाश्वत शांति नहीं मिलती। परमात्मा के पास जाने के लिए तुम्हारे पास चाहे कुछ भी न हो, केवल परमात्मा के लिए भाव हो जाय तो परमात्मा तुम्हें सत्संग में पहुँचा ही देता है। वह यों नहीं पूछता कि तुम पुण्य मापने का पासपोर्ट लेकर आये हो कि नहीं..... तुम चपरासी हो या अलमदार हो..... धनवान हो कि गरीब हो... तुम अनपढ़ हो कि विद्वान हो... तुम बड़े घर के हो कि छोटे घर के हो....?
सत्संग में यह कुछ नहीं देखा जाता। सत्संग परमात्म-प्राप्ति सुलभ करा देता है।
ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ......ॐ.....ॐ.......ॐ.....।
साधक को सार असार का, सत्य असत्य का, शाश्वत नश्वर का विवेक होना चाहिए। शाश्वत क्या है नश्वर क्या है ? सार क्या है असार क्या है ? सदा क्या रहेगा और छूट क्या जाएगा ? इस प्रकार का जब तक विवेक नहीं होगा तब तक श्रीकृष्ण जैसे, ब्रह्माजी जैसे गुरु भी मिल जाएँ, ज्ञानेश्वर जैसे, तुकारामजी जैसे संत भी मिल जाएँ तब भी लोग जीवन को धन्य नहीं कर पाते। क्योंकि वे अपना विवेक नहीं जगाते।

1 comment:

  1. bus ek hi baat jehan se nikalti hai '' bapu ko hum par naaj hai n hum ko bapu par naaj hai''

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