पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, February 10, 2010



सच्चा सुख पुस्तक से - Sachha Sukh pustak se

मनुष्य को विकारी आकर्षण ने तुच्छ बना दिया है। जिनके जीवन में संयम है, नियम है ऐसे इन्द्रियों को संयत करने वाले लोग, सब भूतों के हित में रमने वाले लोग, समभाव से मति को सम रखने वाले वे लोग मतिदाता के उच्च अनुभव में स्थिति पा लेते हैं। ऐसे लोग भगवान को प्राप्त कर लें इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। यह कोई जरूरी नहीं है कि वह आदमी अच्छा पढ़ा-लिखा होना चाहिए या अनपढ़ होना चाहिए, बहुत धनवान होना चाहिए या निर्धन होना चाहिए, बच्चा होना चाहिए या जवान होना चाहिए या बूढ़ा होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है।
किसी आदमी को परदेश जाना हो तो उसका यहाँ कुछ एकाउन्ट होना चाहिए, टिकट के पैसे होना चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए, फिर आदमी परदेश जा सकता है। छः बारह महीने में उसे वहाँ से निकाल दिया जाता है अथवा सिफारिश लगाकर वहाँ का नागरिक बनता है। लेकिन जिसने अपने इन्द्रियग्राम को जीता है उसको न कोई देश छोड़ना है न किसी की गुलामी करनी है। वह तो सर्वत्र समबुद्धयः हो जाता है। उसकी सर्वत्र सदा समबुद्धि हो जाती है। उसके लिए अपने और पराये का भेद क्षीण होने लगता है। उसके लिए इहलोक और परलोक की सत्यता मिटने लगती है। उसके लिए राग और द्वेष मन की कल्पना एवं विकारों का आवेश मात्र लगता है। वह भूतमात्र के हित में लगा हुआ पुरूष परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
भगवद् सुख में अगर बड़े में बड़ी रूकावट हो तो वह इन्द्रियों के सुख का आकर्षण। जो संयमी पुरूष है वह इन्द्रियों के सुख के आकर्षण से अपने को संयत करता है। जीवन में अगर संयम नहीं होगा तो जीवन न जाने कौन सी गर्त में जा गिरेगा। वृक्ष अगर कहे कि मुझे संयम की क्या जरूरत है ? मैं धरती से क्यों बँधा रहूँ ? वह स्वतन्त्र होकर इधर-उधर कूदता फिरे तो उसके फूल और फल नष्ट हो जाएँगे, पत्ते सूखकर गिर जाएँगे। वह स्वयं खत्म हो जाएगा। फिर वृक्ष की कोई कीमत नहीं रहेगी। वृक्ष अगर धरती के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, संयम नहीं है, उसके मूल हिलते-डुलते हैं तो उस वृक्ष की कोई कीमत नहीं है।
ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा हमारी धरती है, मनरूपी मूल है, इन्द्रियाँरूपी टहनियाँ हैं। इन्द्रियाँरूपी टहनियाँ शायद थोड़ी-बहुत हिलती-डुलती रहें लेकिन मनरूपी मूल अगर अपने मूल कारण से जुड़ा रहे तो मन के प्रभाव से हमारे जीवनरूपी वृक्ष में भक्तिरूपी सुरभि आयेगी, आत्मानंदरूपी फूल खिलेंगे, आत्मशांति एवं मुक्तिरूपी फल लगेंगे।
मनरूपी मूल परब्रह्म परमात्मारूपी धरती से हटकर उछल-कूद करे तो जीवन विषाद से सूखा रहेगा। फिर मन संसारी विकारी सुखों में भटका-भटकाकर नष्ट करता जाएगा।
जिसने इन्द्रियरूपी ग्राम को जीता है, थोड़ा संयम किया है वह भगवान को प्राप्त करता है। वह सर्व भूतों के हित में रत रहता है। उसकी बुद्धि समत्व योग में प्रतिष्ठित हो जाती है।
वीणा की तार कहे कि हम वीणा से क्यों बँधे रहें, हमें संयम की क्या जरूरत है ? तो वे तार धरती पर पड़े रहेंगे। उनसे कोई मधुर स्वर नहीं निकलेंगे, परमात्मा की मधुर प्रार्थना नहीं पनपेगी।
अगर नदी कहे कि मैं दो किनारों के बीच ही क्यों चलूँ, बन्धन में क्यों रहूँ ? तो नदी स्वतंत्र होकर सागर तक नहीं भी पहुँच सके। वह रास्ते में ही बिखर जाएगी। दो किनारों के बीच संयमित होकर नदी बहती है तो वह गाँवों को हरियाली से लहलहाती हुई आखिर में सागर तक पहुँच जाती है।
ऐसे ही मनुष्य जीवन में संयम के किनारे हों तो जीवन-सरिता की यात्रा सागररूपी परमात्मा में परिसमाप्त हो सकती है। वाष्प अगर संयमित नहीं है तो वह आकाश में बिखर जाती है, उसकी कोई कीमत नहीं रहती। वह अगर रेलगाड़ी के बोयलर में संयत होती है तो वह हजारों टन माल-सामान लेकर भाग सकती है।
ऐसे ही अपनी वृत्ति अगर संयत होगी तो हजारों विघ्न-बाधाओं के बीच भी हम अपनी मंजिल तय कर सकते हैं और दूसरों को भी तय कराने में सहभागी हो सकते हैं।
अपने इन्द्रियग्राम को संयत करने के दो चार प्रयोग जान लो और हररोज थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो।
आदमी कितना भी छोटा हो, कितना भी गरीब हो, कितना भी असहाय हो, अगर उसे सत्संग मिल जाय तो वह महान् बन जाएगा। देवर्षि नारद पूर्व जीवन मे कितने छोटे थे ! केवल दासीपुत्र..... ! जाति छोटी, छपड़ा छोटा, माँ ऐसी साधारण दासी कि चाहे कहीं उसको काम में लगा लें। ऐसे दासीपुत्र महान् देवर्षि नारद हो गये। उनके जीवन के तीन तार थेः श्रद्धा, सत्संग और तत्परता।
सत्संग से वह चीज मिलती है जो धन से, सत्ता से या स्वर्ग से भी नहीं मिलती है।
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।
करोड़ों अपराध सत्संग से नष्ट हो जाते हैं।
सत्संग हमें तीन बातें सिखाता हैः निरीक्षण, शिक्षण और नियँत्रण।
निरीक्षणः
सत्संग हमें यह सिखाता है कि हमें आत्म निरीक्षण करना चाहिए। हमने क्या-क्या गलतियाँ हैं, किस कारण से गलती होती है यह जाँचो। न देखने जैसी जगह पर हम बार-बार देखते तो नहीं हैं ? काम विकार से हमारी शक्ति नष्ट तो नहीं होती है ? बीड़ी से, शराब से, कबाब से या किसी की हल्की संगत से हमारे संस्कार हल्के तो नहीं हो रहे हैं ? हल्के विचारों से हमारा पतन तो नहीं हो रहा है ? आत्म निरीक्षण करो।
शत्रु कुछ निन्दा करता है तो कैसे ध्यान से लोग सुनते हैं ? लोभी धन का कैसा निरीक्षण करता है ? ड्राइवर रास्ते का कैसा निरीक्षण करता है ? चाहे स्कूटर ड्राइवर हो चाहे कार ड्राइवर हो, वह सावधानी से सड़क को देखता रहता है। कहीं खड़ा होता है तो स्टीयरिंग घूम जाती है, कहीं बम्प होता है तो ब्रेक लग जाती है, कहीं चढ़ाई होती है तो रेस बढ़ जाती है, ढलान होती है तो रेस कम हो जाती है। हर सेकेंड ड्राइवर निर्णय लेता रहता है और गन्तव्य स्थान पर गाड़ी सुरक्षित पहुँचा देता है। अगर वह सावधान न रहे तो कहीं टकरा जायगा, खड्डे में गिर जाएगा, जान खतरे में पड़ जाएगी।
ऐसे ही अपने हृदय की वृत्तियों का निरीक्षण करो। खोजो कि किन कारणों से हमारा पतन होता है ? दिनभर के क्रिया कलापों का निरीक्षण करो, कारण खोज लो और सुबह में पाँच-दस प्राणायाण करके ॐ की गदा मारकर उन हल्के पतन के कारणों को भगा दो।
झूठ बोलने से हृदय कमजोर होता है।
जीवन में उत्साह होना चाहिए। उत्साह के साथ सदाचार होना चाहिए। उत्साह के साथ पवित्र विचार होने चाहिए। उत्साह के साथ ऊँचा लक्ष्य होना चाहिए। दुःशासन, दुर्योधन और रावण में उत्साह तो था लेकिन उनका उत्साह शुद्ध रास्ते पर नहीं था। उनमें दुर्वासनाएँ भरी पड़ी थी। दुर्योधन ने दुष्टता करके कुल का नाश करवाया। रावण में सीताजी के प्रति दुर्वासना थी। राजपाट सहित अपना और राक्षस कुल का सत्यानाश किया। दुःशासन ने भी अपना सत्यानाश किया।
उत्साह तो उन लोगों में था, चपलता थी, कुशलता थी। कुशलता होना अच्छा है, जरूरी है। उत्साह होना अच्छा है, जरूरी है। चपलता तत्परता होना अच्छा है, जरूरी है लेकिन तत्परता कौन-से कार्य में हैं ? ईश्वरीय दैवी कार्य में तत्परता है कि झूठ कपट करके बंगले पर बंगला बनाकर विलासी होने में तत्परता है ? बड़ा पद पाकर लोगों का शोषण करने की तत्परता है कि लोगों के हृदय में छुपे हुए लोकेश्वर को जगाकर भगवान के मार्ग में सहायरूप होने की, मुक्त होने की अथवा मुक्ति के मार्ग में जाने वालों की सेवा, सहयोग में तत्परता है ? यह देखना पड़ेगा।
अपने को बचाने में तत्परता है कि अपने को सुधारने में तत्परता है ? अपना बचाव पेश करने में तत्परता है कि दोष खोजने में तत्परता है ? अपने को निर्दोष साबित करने में तत्परता है कि वास्तव में निर्दोष होने में तत्परता है ? अपने को आलसी, प्रमादी बनाने में बुद्धि लग रही है कि अपने को उत्साही और सदाचारी बनाने में लग रही हैं ?
अपना साखी आप है निज मन माँही विचार।
नारायण जो खोट है वाँ को तुरन्त निकाल।।
रोज सुबह ऐसी खोट को निकालते जाओ..... निकालते जाओ.....। चन्द दिनों में तुम्हारा जीवन विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होगा। तुममें दैवी गुण विकसित होने लगेंगे।
युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण ने अपने प्यारे अर्जुन से कहाः निर्भय रहना।
राक्षस निर्भय रहते हैं तो दुराचार करते हैं। सज्जन निर्भय रहते हैं तो सदाचार करते हैं। भगवान ने केवल निर्भय होने को नहीं कहा। अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। निर्भयता कैसी ? सात्त्विक निर्भयता। आत्मज्ञान में व्यवस्थित हो। अपने पास विद्या है तो विद्या का दान दो। धन है तो दूसरों के हित में लगाओ। भगवान को पाने वालों के लिए, भक्ति ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्चो। शरीर से कभी व्रत करो, कभी सेवा करो, कभी उपवास रखो। स्वाध्याय करो। आत्मज्ञान के शास्त्रों का अध्ययन करो, विचार करो। जैसे शरीर को रोटी, पानी और स्नान की आवश्यकता है ऐसे ही तुम्हारे अन्तःकरण को सत्संग, जप और ध्यान की आवश्यकता है।
स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए। हररोज सत्शास्त्रों का सेवन अवश्य करना चाहिए।
हररोज निरीक्षण करो कि हमसे क्या-क्या अच्छे काम होते हैं और उसमें क्या-क्या कमी है। अच्छा कितना हुआ यह भूल जाओ और कमी क्या रह गई यह खोज लो। बढ़िया कार्य हुआ यह ठीक है, इससे भी बढ़िया हो सकता है कि नहीं यह सोचो। अपनी योग्यता को विकसित करो। तुमने कितने जप किये यह याद करके फूलना नहीं। इससे भी अधिक जप कर सकते हो कि नहीं इस पर ध्यान दो।
शिक्षणः
अपने मन को, अपने चित्त को शिक्षण दोः 'कल तूने यह गलत काम किया है, न देखने जैसा देखा है, न करने जैसा किया है। बोल, अब तुझे क्या सजा दूँ ?' आदि आदि.....। मन को कभी पुचकारो तो कभी डाँटो। कभी एक युक्ति से तो कभी दूसरी युक्ति से उसको उन्नत करो। सत्शास्त्र और सत्पुरूषों का संग लेकर मन को प्रतिदिन आत्मज्ञान का शिक्षण दो, मुक्ति के मार्ग का शिक्षण दो।
नियंत्रणः
संयम सदाचार से मन को नियंत्रित करो।
इस प्रकार निरीक्षण, शिक्षण और नियंत्रण से अपना सर्वांगी विकास करो। हिम्मत करो। अवश्य सफलता मिलती है।
योग में धारणा, ध्यान, समाधि का अभ्यास आवश्यक है और तत्त्वज्ञान में श्रवण-मनन निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। योग में अभ्यास का प्राधान्य है और तत्त्वज्ञान में वैराग्य का प्राधान्य है। योग-सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए, योग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। योग में वैराग्य चाहिए तो सही लेकिन इतना ज्यादा न हो तो भी काम चल जाए। योगाभ्यास करने से सिद्धियाँ मिलती हैं, ऐश्वर्य मिलता है। सिद्धियाँ और ऐश्वर्य की इच्छा है तभी तो मिलते हैं। जिसको कोई इच्छा नहीं है उसको सिद्धियों के मार्ग पर जाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा साधक तो सीधा तत्त्वज्ञान का अनुभव करके निहाल हो जाता है, मेरा निजस्वरूप ही मुक्तिस्वरूप है यह जान लेता है। जिसके जीवन में वैराग्य नहीं है उसको तत्त्वज्ञान जल्दी से नहीं होता।
हमें अभ्यास की आवश्यकता है। पहले इन्द्रियों का संयम करके फिर मन को वश में करना चाहिए। अभ्यास और वैराग्य अंतरंग साधन हैं और इन्द्रिय संयम यह बहिरंग साधन है। बहिरंग साधन सफल होने पर अंतरंग साधन में सफलता मिलती है। नहीं देखने योग्य व्यर्थ की बातें सुनकर शक्ति का व्यय नहीं करना चाहिए। व्यर्थ प्रलाप करते रहने की आदत पड़ गई है तो हररोज दो घण्टे मौन रहकर शक्ति का संचय करना चाहिए। इस प्रकार इन्द्रिय संयम करके मन को वश में करने का अभ्यास करना चाहिए।
बाहर के विषय-विकार की आदत छूटती नहीं है तो कितना भी सत्संग सुनें, ज्ञान की चर्चा सुनें, थोड़ा-बहुत पुण्य होगा, हृदय पवित्र होगा, सुनते समय लगेगा कि हाँ, ठीक है लेकिन वापस जैसे थे वैसे ही हो जाते हैं। विषय विकार के विष से बच नहीं पाते। क्योंकि अभ्यास नहीं करते। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरूषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
विश्वास जिसके बारे में केवल सुना है उसमें होता है और सेवा जिसको देखा है उसकी होती है। जिसके प्रति विश्वास होता है उसकी सेवा आसानी से होती है। भगवान को देखा नहीं, उनके वास्तविक स्वरूप को देखा नहीं इसलिए उनमें विश्वास करना पड़ता है। भगवान के बाह्य स्वरूप को देखा है इसलिए उसकी सेवा होती है।
विश्वास करने योग्य केवल वही वस्तु होती है जिसके बारे में केवल सुना है।
करने योग्य है प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग और चाहने योग्य केवल अपनी 'मैं' है।
विश्वास सुने हुए मैं करना है, उपयोग प्राप्त वस्तु का करना है और जानना अपने आपको है।
अपने को जानना है। प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग करना है। सुने हुए में विश्वास करना है।
सब मनुष्य, सब देशवासी, सब जातिवादी, सब धर्मवादी एक बात कर सकते हैं। वे जिस धर्म को, जिस भगवान को मानते हैं उसमें विश्वास करें तो उनकी उन्नति हुए बिना नहीं रहेगी। तुम जिसको भी मानते हो, ईश्वर को, God को गुरू को, चाहे ठाकुरजी की मूर्ति को मानते हो चाहे पीपल के पेड़ को मानते हो चाहे तुलसी के पौधे को मानते हो, धातु की मूर्ति को मानते हो चाहे पत्थर की मूर्ति को मानते हो, चाहे शालिग्राम को मानते हो चाहे मिट्टी के बने हुए महादेव जी को मानते हो, तुम अपना विश्वास दृढ़ करो। जड़ चेतन में वास्तविक तत्त्व तो वही है।
वास्तविक रूप से भगवान सर्वत्र हैं, अणु-अणु में हैं। जहाँ तुम्हारा विश्वास होगा वहाँ से फल आयेगा। विश्वास के बल से तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन संयत रहेंगे। तुम्हारा आत्मबल विकसित होगा। विश्वास से तुममे धैर्य आयेगा। विश्वास से तुममें उत्साह होगा। विश्वास से तुम्हारा अन्तःकरण बाह्य आकर्षणों से थोड़ा बचेगा। प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग होगा।
प्राप्त वस्तुएँ अनेक होती हैं। उनका परिणाम होता है सुख या दुःख। सब अनुकूल वस्तु और परिस्थितियों से सुख होता है और प्रतिकूल वस्तु और परिस्थितियों से दुःख होता है।
दुःख न हो, प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थितियाँ बनी रहें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थिति में आकर्षित न होना, अनुकूल परिस्थिति में सुख का भ्रम करके उसके दलदल में न गिरना यह तुम्हारे हाथ की बात है। प्रतिकूल परिस्थितियों से भयभीत न होना यह तुम्हारे हाथ की बात है। अनुकूल परिस्थितियों के सुख में लालसा नहीं और प्रतिकूल परिस्थितियों के दुःख का भय नहीं तो चित्त साम्य अवस्था में पहुँच जाएगा, शांत अवस्था में पहुँच जाएगा, निःसंकल्प अवस्था में पहुँच जाएगा। इससे नित्य नूतन रस, नवीन ज्ञान, नवीन प्रेम, नवीन आनन्द और वास्तिवक जीवन का प्राकट्य ह जाएगा।
हम क्या करते हैं ? प्राप्त वस्तु और परिस्थितियों का दुरूपयोग करते हैं। सुख आता है तो इन्द्रियाँ और विकारों के सहारे सुख का भोग करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं। दुःख आता है तो भयभीत होकर चित्त को डोलायमान करते हैं। दुःख के भय से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और सुख के आकर्षण से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं।
सुख में हम जितने अधिक आकर्षित होते हैं उतने भीतर से खोखले जो जाते हैं।
तुमने देखा होगा कि जो अधिक धनाढ्य है, जिसको सत्संग नहीं है, सदगुरू नहीं है वह आदमी भीतर से कमजोर होता है। भोगी आदमी, भयभीत आदमी भीतर से खोखला होता है।
जो महापुरूष सुख-दुःख में सम रहते हैं उनकी उत्तम साधना हो जाती है। यह साधना सुबह-शाम तो प्राणायाम, ध्यान आदि के साथ तो की जा सकती है, इतना ही नहीं दिनभर भी की जा सकती है।
सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास तो चलते फिरते हो सकता है। विपरीत परिस्थितियाँ आये बिना नहीं रहेगी। अनुकूलता भी आये बिना नहीं रहेगी। तुम प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने की कला सीख लो। मुक्ति का अनुभव सहज में होने लगेगा।
तुम्हारे पास कितने ही रूपये आये और चले गये। तुम रूपयों से बँधे नहीं हो। कई जन्मों में कितने ही बेटे आये और चले गये। तुम बेटों से बँधे नहीं हो। हम किसी वस्तु से, व्यक्ति से, परिस्थिति से बँधे हैं यह मानना भ्रम है। सुखद परिस्थितियों में लट्टू हो जाने की मन की आदत है। मन के साथ हम जुड़ जाते हैं। मन में होता है कि यह मिले.... वह मिले....। मन के इस आकर्षण से हमारा अन्तःकरण मलिन हो जाता है। भय की बात का हम चिन्तन करते हैं। इससे हमारी योग्यता क्षीण हो जाती है।
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जब तक जियें तब तक साधना करनी है, क्योंकि जब तक जियेंगे तब तक परिस्थितियाँ आयेंगी। मरते दम तक परिस्थितियाँ आती हैं। जीवनभर जिस तिजोरी को सँभाला था उसकी कुंजियाँ दें जानी पड़ती है। कितना दुःख होगा ! जीवनभर जो चीजें सँभाल-सँभालकर मरे जा रहे थे वे सब की सब चीजें एक दिन, एक साथ किसी को दे जानी पड़ेगी। देने के योग्य कोई नहीं मिलता है फिर भी झख मार के दे जाना पड़ता है। चाहे घर हो, चाहे मकान हो, चाहे आश्रम हो, चाहे धन हो, चाहे कुछ भी हो। जीवनभर जिस शरीर को खिलाया पिलाया, नहलाया, घुमाया, फिराया उसको भी छोड़ जाना पड़ता है।
घटनाएँ तो घटती ही रहेंगी। तुम चाहे आत्म-साक्षात्कार कर लो, अरे ब्रह्माजी की तरह योग-सामर्थ्य से सृष्टि का सर्जन करने की ऊँचाई तक पहुँच जाओ फिर भी विपरीत परिस्थितियाँ तो आयेंगी ही।

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