पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 27, 2012

योगयात्रा-3 पुस्तक से - Yog-yatra-3 pustak se

प्राणायाम से सिद्धियाँ - Pranayam se sidhiyan

प्राणों के द्वारा ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सारी क्रियाएँ संचालित होती हैं। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा प्राणों को नियिंत्रित करके योगी विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। सामान्यतया मनुष्य का श्वास नासिका से बारह अंगुल तक चलता है। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा इसे एक अंगुल कम कर देने पर अर्थात् ग्यारह अंगुल कर देने पर उसे निष्कामता की सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह षडविकारों से मुक्त हो जाता है।
यदि श्वास की गति दो अंगुल कम हो जाये तो साधक को निर्विषय सुख एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। तीन अंगुल गति कम होने पर उसे स्वाभाविक ही कवित्व शक्ति प्राप्त होती है। आजकल के आधुनिक कवि नहीं, अपितु कवि कालिदास जैसी लयबद्ध, छन्दबद्ध कविताएँ उसके हृदय में स्फुरित होती है।
चार अंगुल श्वास की गति कम करने पर उसे वाचाशक्ति प्राप्त होती है। पाँच अंगुल पर दूर दृष्टि तथा छः अंगुल गति नियंत्रित करने पर आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है।
यदि साधक प्राणायाम द्वारा श्वास की गति सात अंगुल कम कर ले तो उसे शीघ्र वेग की प्राप्ति होती है। आठ अंगुल कम करने पर उसे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
श्वासों की गति नौ अंगुल कम करने पर उसे नवनिधि की प्राप्ति होती है। दस अंगुल गति नियंत्रित करने पर दस अवस्थाएँ प्राप्त होती है। यदि साधक ग्यारह अंगुल तक श्वास नियंत्रित कर ले तो उसे छाया निवृत्ति की सिद्धि प्राप्त होती है जिससे उसके शरीर की छाया नहीं दिखाई पड़ती है।
बारह अंगुल श्वास का नियंत्रण कर लेने वाले महायोगी साधक की हंसगति अर्थात् कैवल्य पद की प्राप्ति होती है।
प्राणायाम का अभ्यास करने वाले साधकों के लिए विशेष सावधानी की बात यह है कि वह किसी अनुभवी एवं कुशल सदगुरू के मार्गदर्शन में ही प्राणायाम की साधना करे, अन्यथा इससे लाभ की अपेक्षा मानसिक उन्माद आदि विकार उत्पन्न हो सकते हैं।

ध्यान की महिमा

नास्ति ध्यानसमं तीर्थम्। नास्ति ध्यानसमं दानम्।।
नास्ति ध्यानसमो यज्ञः। नास्ति ध्यानसमं तपम्।।
तस्मात् ध्यानं समाचरेत्।।
ध्यान के चार भेद बतलाये गये हैं-
पादस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यान।
श्रीहरि अथवा श्रीसदगुरूदेव के पावन श्रीचरणों का ध्यान पादस्थ ध्यान, शरीरस्थ मूलाधार इत्यादि चक्रों के अधिष्ठाता देवों के अथवा सदगुरूदेव के ध्यान को पिंडस्थ ध्यान, नेत्रों में सूर्यचन्द्र का ध्यान करके हृदय में विराट स्वरूप के ध्यान को रूपस्थ ध्यान तथा सबसे परे रहकर उस एक परमात्मा का ध्यान करना यह रूपातीत ध्यान कहलाता है।
स्वाभाविक रीति से होनेवाला ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है। गर्भवती स्त्री को गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जिस तरह उठते-बैठते स्वाभाविक रीति से यही ध्यान होता है कि 'मैं गर्भवती हूँ...' उसी तरह साधक का भी स्वाभाविक ध्यान होना चाहिए।
पिंडस्थ ध्यान के अन्तर्गत शरीरस्थ जिन सप्तचक्रों का ध्यान किया जाता है उनसे होने वाले लाभों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है।
मूलाधार चक्र
प्रयत्नशील योगसाधक जब किसी महापुरूष का सान्निध्य प्राप्त करता है तथा अपने मूलाधार चक्र का ध्यान उसे लगता है तब उसे अनायास ही क्रमशः सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। वह योगी देवताओं द्वारा पूजित होता है तथा अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर वह त्रिलोक में इच्छापूर्वक विचरण कर सकता है। वह मेधावी योगी महावाक्य का श्रवण करते ही आत्मा में स्थिर होकर सर्वदा क्रीड़ा करता है। मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाला साधक दादुरी सिद्धि प्राप्त कर अत्यंन्त तेजस्वी बनता है। उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा सरलता उसका स्वभाव बन जाता है। वह भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सभी वस्तुओं के कारण को जान लेता है। जो शास्त्र कभी सुने न हों, पढ़े न हों, उनके रहस्यों का भी ज्ञान होने से उन पर व्याख्यान करने का सामर्थ्य उसे प्राप्त हो जाता है। मानो ऐसे योगी के मुख में देवी सरस्वती निवास करती है। जप करने मात्र से वह मंत्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसे अनुपम संकल्प-सामर्थ्य प्राप्त होता है।
जब योगी मूलाधार चक्र में स्थित स्वयंभु लिंग का ध्यान करता है, उसी क्षण उसके पापों का समूह नष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु की इच्छा करने मात्र से उसे वह प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य आत्मदेव को छोड़कर बाह्य देवों की पूजा करते हैं, वे हाथ में रखे हुए फल को छोड़कर अन्य फलों के लिए इधर-उधर भटकते हैं। अतः सुज्ञ सज्जनों को आलस्य छोड़कर शरीरस्थ शिव का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान परम पूजा है, परम तप है, परम पुरूषार्थ है।
मूलाधार के अभ्यास से छः माह में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इससे सुषुम्णा नाड़ी में वायु प्रवेश करती है। ऐसा साधक मनोजय करके परम शांति का अनुभव करता है। उसके दोनों लोक सुधर-सँवर जाते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र
इस चक्र के ध्यान से कामांगना काममोहित होकर उसकी सेवा करती है। जो कभी सुने न हों ऐसे शास्त्रों का रहस्य वह बयान कर सकता है। सर्व रोगों से विमुक्त होकर वह संसार में सुखरूप विचरता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने वाला योगी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमर हो जाता है। अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर उसके शरीर में वायु का संचार होता है जो सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट होता है। रस की वृद्धि होती है। सहस्रदल पद्म से जिस अमृत का स्राव होता है उसमें भी वृद्धि होती है।
मणिपुर चक्र
इस चक्र का ध्यान करने वाले को सर्वसिद्धिदायी पातालसिद्धि प्राप्त होती है। उसके सब दुःखों की निवृत्ति होकर सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं। वह काल को भी जीत लेता है अर्थात् काल को भी टाल सकता है। ऋषि कागभुशंडिजी ने काल की वंचना करके सैंकड़ों युगों की परम्परा देखी थी। चांगदेवजी ने इसी सिद्धि के बल पर 1400 वर्ष का आयुष्य प्राप्त किया था। जिनको आत्मसाक्षात्कार हो गया ऐसे महापुरूष भी चाहें तो इस सिद्धि से दीर्घजीवी हो सकते हैं लेकिन आत्मवेत्ताओं में लम्बे जीवन की चाह होती ही नहीं है। शास्त्रों में ऐसे कई दृष्टान्त पाये जाते हैं।
ऐसे योगसाधक को परकाया-प्रवेश की सिद्धि प्राप्त होती है। यह स्वर्ण बना सकता है। वह देवों के द्रव्य भंडारों को और दिव्य औषधियों तथा भूमिगत गुप्त खजानों को भी देख सकता है।
अनाहत चक्र
इस चक्र का ध्यान करने वाले साधक पर कामातुर स्त्री, अप्सरा आदि मोहित हो जाते हैं। उस साधक को अपूर्व ज्ञान प्राप्त होता है। वह त्रिकालदर्शी होकर दूरदर्शन, दूरश्रवण की शक्ति प्राप्त कर यथेच्छा आकाशगमन करता है। अनाहत चक्र का नित्य निरंतर ध्यान करने से उसे देवता और योगियों के दर्शन होते हैं तथा उसे भूचरी सिद्धि प्राप्त होती है। इस चक्र के ध्यान की महिमा का कोई पूरा बयान नहीं कर सकता। ब्रह्मादि देवता भी उसे गुप्त रखते हैं।
विशुद्धाख्य चक्र
जो योगी इस चक्र का ध्यान करता है उसे चारों वेदों के रहस्य की प्राप्ति होती है। इस चक्र में यदि योगी मन और प्राण स्थिर करके क्रोध करे तो तीनों लोक कम्पायमान होते हैं जैसा विश्वामित्र ने किया था। इसमें कोई संदेह नहीं। इस चक्र में मन जब लय होता है तब योगी के मन और प्राण अन्तस में रमण करने लगते हैं। उस योगी का शरीर वज्र से भी अधिक कठोर हो जाता है।
आज्ञाचक्र
इस चक्र का ध्यान करने से पूर्वजन्म के सकल कर्मों का बन्धन छूट जाता है। यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर आदि उस ध्यानयुक्त योगी के वश हो जाते हैं। आज्ञाचक्र में ध्यान करते समय जिह्वा ऊर्ध्वमुखी (तालू की ओर) रखनी चाहिए। इससे सर्वपातक नष्ट होते हैं। ऊपर बताये हुए पाँचों चक्रों के ध्यान का फल इस चक्र के ध्यान से ही प्राप्त होता है। वह वासना के बन्धन से मुक्त होता है। इस चक्र का ध्यान करने वाला राजयोग का अधिकारी बनता है।
सहस्रार चक्र
इस सहस्रदल कमल में स्थित ब्रह्मरंध्र का ध्यान करने से योगी को परमगति मोक्ष की प्राप्ति होती है।

जप-ध्यान से जीवनविकास

जापक चार प्रकार के होते हैं- उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और कनिष्ठतर जापक।
कनिष्ठतर जापक वे होते हैं जिन्होंने जप की महिमा सुन ली और थोड़े दिन मंत्रजाप कर लिया..... कभी दस माला तो कभी पाँच माला... और जप बन्द कर दिया कि 'भाई, अब तो यह अपने बस का नहीं है।'
कनिष्ठ जापक वह होता है कि भाई, अब छः माला पूरी हुई, सात हुई, नौ हुई, दस हुई..... अच्छा हुआ, जप तो हो गया, नियम तो हो गया.... बोझा उतरा।
मध्यम जापक वह है जो जप तो करता ही है, जप के साथ ध्यान भी करता जाता है, जप के अर्थ में तल्लीन होता जाता है। जप करता जाता है और अन्दर कुछ भाव बनते जाते हैं।
उत्तम जापक वह है जिसकी उपस्थिति मात्र से ही औरों के जप चलने लगे। एक उत्तम जापक हो और उसके इर्दगिर्द लाख आदमियों की भीड़ हो और अगर वह कीर्तन कराये तो लाख के लाख आदमी उसके कीर्तन तथा उसके जप के प्रभाव में, भगवान की मस्ती में या भगवान के नाम में झूमने लग जायेंगे। यही उसकी सिद्धाई है। एक तत्त्वसम्पन्न उत्तम जापक महफिल में हो तो महफिल में रंग आ जाता है।
सामूहिक सत्संग का लाभ यह है कि उससे तुमुल ध्वनि उत्पन्न होती है तथा साधारण मन एवं साधारण योग्यतावालों को भी उत्तम जापक की आध्यात्मिक तरंगों का प्रभाव पवित्र कर देता है।
मंत्रजाप करते-करते थोड़ा-थोड़ा बहुत होने वाला ध्यान स्थूल ध्यान या आरंभिक ध्यान कहलाता है। इसकी अपेक्षा चिन्तनमय ध्यान सूक्ष्म ध्यान होता है। परमात्मा का, आत्मा का चिन्तन यह सूक्ष्म ध्यान है। सतत् अभ्यास से जब आगे चलकर चिन्तनमय ध्यान परिपक्व होकर चिन्तनरहित अवस्था में परिणत हो जाता है तो उसमें रसास्वाद, निद्रा, तन्द्रा, चिन्तन आदि नहीं होता। केवल एक..... अखंड.... शांत...चिन्तनरहित ध्यान.....। यही उत्तम भक्ति है, यही ब्रह्मज्ञान होता है।
उस चिन्तनरहित ध्यान की अवस्था में यदि तीन मिनट भी कोई व्यक्ति टिक जाय तो उसे दोबारा गर्भावास नहीं होगा। चिन्तनरहित ध्यान में टिकने से वह सर्वव्यापक ब्रह्म के साथ एक हो जायेगा। ईश्वर और वह, दो नहीं बचेंगे, ब्रह्म और वह दो नहीं रहेंगे, एक हो जायेंगे। फिर वह किसी भी वस्तु, व्यक्ति के चित्त को जान लेगा क्योंकि वह अन्तारात्मस्वरूप में टिकता है।
जो सबका अन्तरात्मा बना बैठा है उसके लिए देशकाल की दूरी नहीं बचती है। जिसकी चिन्तनरहित ध्यान में स्थिति हो गई, उसके आगे रिद्धि-सिद्धि का आकर्षण भी कुछ महत्त्व नहीं रखता है। उसको इन्द्र का राज्य और इन्द्र का वैभव अपने आप में ही दिखता है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के लोक और पद भी उसे अपने आत्मपद में भासता है, ऐसे अवाच्य पद में वह पहुँच जाता है तथा यह मनुष्य जन्म ही वह जन्म है जिसमें अवाच्य पद प्राप्त करने की क्षमताएँ हैं।
आपका यह जीवन कहीं व्यर्थ ही न बीत जाय ! अतः आज से ही दृढ़ पुरूषार्थ का अवलम्बन लेकर कमर कसो और चल पड़ो उस राह पर, जहाँ आत्मतत्त्व की कुंजी पड़ी है। उसे प्राप्त कर लो और दिव्य ज्ञान का खजाना हथिया लो, फिर तो महाराज ! आपके सम्पूर्ण कार्य पूर्ण हो गये......। ॐ आनन्द..... ॐ....ॐ....ॐ.....

1 comment:

  1. Dhyanmulam gurormurti......puja mulam gurorpadam.......mantramulam gurorvakyam ......moksh mulam gurorkripa.......

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